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तुलसी शब्द-कोश
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सकुचि : पूर्व० । (१) संकोच अनुभव करके । 'सकुचि दीन्हि रघुनाथ ।' मा०
५.४६ (२) सिकुड़कर, सिमट कर । 'बैठो सकुचि साधु भयो चाहत ।' कृ०३ सकुचिअ, ये : आ०भावा० । संकोच करना पड़ता है, संकुचित हुआ जाय । 'कहि
सुनि सकुचिअ सूम खल ।' दो० ३६१ सकुचिये : सकुचिअ । संकोच हो । 'प्रगट कहत जो सकुचिये अपराध भर्यो हौं ।'
विन० २६७.४ सकुचिहि : आ०भ०प्रए । संकोच करेगा, सिमट जायगा। 'सकुचिहि मोहि
बिलोकत सोई ।' मा० २.१४५.८ सकुची : भूक०स्त्री० । संकुचित हुई। मा० २.११७.२ सकुचे : भूकृ.पुं०ब० । संकुचित हुए। मा० २.२६०.७ सकुचेउ : भूकृ००कए० । संकुचित हुआ, सहमा, झिझका। 'कोप भवन सुनि
सकुचेउ राऊ।' मा० २.२५.१ सकचे : सकुचइ । 'सिय सकुचति, मन सकुच न ।' मा० १.३२६ सकचेहैं : आ०भ०प्रब० । संकोच अनुभव करेंगे, सकुचेंगे। 'जमपुर जात बहुत
सकुचैहैं ।' गी० ५.५१.३ सकुन : सं०० (सं० शकुन) । पक्षी । मा० १.३४६.६ सनाषकुम : पक्षियों में अधम, नीच पक्षी। मा० ७.१२३.८ सकुनि : सं०पु० (सं० शकुनि) । दुर्योधन का एक मित्र जिसने द्यूतक्रीडा में पाण्डवों
को हराया था। दो० ४१८ सकुल : वि० (सं.)। कुलसहित, वंश समेत । 'राम सकुल रन रावन मारा।' ____ मा० १.२५.५ सकृत : (१) अव्यय (सं० सकृत्) । एक बार । 'सकृत प्रनाम किहें अपनाए ।' मा०
२.२६६.३ 'सकृत उर आनत जिनहिं जन होत तारन तरन ।' विन० २१८.४ (२) एक (गोस्वामी जी का विशिष्ट प्रयोग) । सम्यक ग्यान सकृत कोउ
लहई ।' मा० ७.५४.३ 'जो सुख-सिंधु सकृत सीकर तें सिव बिरंचि प्रभुताई ।' __गी० १.१.११ सके : भूक००ब० । मा० ७.३३.२ सकेउ : भूक पु०कए० । सका (समर्थ हुआ) । 'बिधि न सके उ सहि मोर दुलारा।'
मा० २.२६१.१ सकेली : संकलि । बटोर के, समेट कर । आयउँ 'इहाँ समाज सकेली।' मा०
२.२६८.५ सके : सकहिं । 'ठाढ़ो द्वार न दे सके।' दो० ३८२ सके : सकइ। (१) सकता है। 'सोऊ रघुबीर बिनु सके दूरि करि को।' हनु०
४२ (२) सके, सकता हो । मा० २.२७६ छं०
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