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तुलसी शब्द-कोश
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पहिचाना : (१) भूकृ.पु । जाना । 'तातें मैं प्रभु नहिं पहिचाना ।' मा० ४.२.६
(२) पहिचानई । 'निज हित अनहित पसु पहिचाना।' मा० २.१६.१ पहिचानि : (१) पूकृ० । पहचान । 'प्रभु पहिचानि परेउ गहि चरना।' मा०
४.२.५ (२) पहिचान कर । परिचय । "बिनु पहिचानि प्रान हुँते प्यारी।'
मा० १.३२२.६ तासों न करी पहिचानि ।' विन० १६०.५ पहिचानिहो : आ०भ०मब० । पहचानोगे । 'प्रनत प्रेम पहिचानिहो।' विन० २२३.२ पहिचानी : (१) पहिचानि । पहचान कर । 'हरषे हृदय हेतु पहिचानी ।' मा०
१.३०७.३ (२) पहिचानि । परिचय । “एहि सन हठि करिहउँ पहिचानी ।' मा० ५.६.४ (३) भूकृ०स्त्री० । जानी। 'रघुकुल तिलक नारि पहिचानी।" मा० ३.२६.७ (४) आ०कवा०प्रए । पहचाना जाय, जानिए । 'तुलसी ताहि
संत पहिचानी।' वैरा० १४ पहिचानें : (१) पहचान में । करतल-गत न परहिं पहिचानें।' मा० १.२१.५
(२) पहिचान के । 'जिमि भुजंग बिन रजु पहिचानें।' मा० १.११२.१। पहिचाने : (१) भूकृ००ब० । जाने । 'कोउ कह ए भूपति पहिचाने ।' मा०
१.२२२.३ (२) पहिचानें । 'संग्रह त्याग न बिनु पहिचाने ।' मा० १.६.२ पहिचानेह : आ०-भ०+आज्ञा-मब । तुम पहचान जाना । 'पहिचानेहु तब __ मोहि ।' मा० १.१६६ पहिचान : पहिचानइ । 'पहिचान कोन काहि रे ।' कवि० ५.१६ पहिर, पहिरइ : (सं० परिदधाति>प्रा० परिहइ) आ०प्रए । पहनता है।
'जिमि नूतन पट पहिरइ ।' मा० ७.१०६ ग पहिरत : वकृ.पु । पहनता, पहनते। देत लेत पहिरत पहिरावत ।' गी० १.४.८ पहिरहिं : आ०प्रब० । पहनते हैं । 'पहिरहिं सज्जन बिमल उर।' मा० १.११ पहिराइ : पू० (सं० परिधाप्य>प्रा० परिहाविअ>अ० परिहावि) । पहना कर ।
'बालि तनय पहिराइ । बिदा कीन्हि ।' मा० ७.१८ ख पहिराई : भूकृ०स्त्री०ब० । परिधान युक्त की । 'चैल चारु भूषन पहिराईं।' मा०
१.३५३.४ पहिराई : भुकृ०स्त्री० । पहनायी। 'पीत झगुलिआ तन पहिरई।' मा० १.१६६.११ पहिराए : भूकृ००ब० । (१) पहनाये । 'सीतहि पहिराए प्रभु सादर ।' मा०
३.१.४ (२) परिधान युक्त किये । 'पुर नर नारि सकल पहिराए।' मा०
१.३५१.६ पहिरायउ, यो : भूकृ०पु०कए । पहिनाया। 'बरहि बसन पहिरायउ ।' पा०म०
१२३ पहिरायो : पहिरायउ। गी० १.१७.३
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