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तुलसी शब्द-कोश
लावक : सं०पू० (सं.)। बटेर पक्षी। मा० ३.३८.७ लावत : वकृ०पु० । लगाता-ते । 'चाहि चुचकारि चूमि लालत लावत उर ।' गी०
१.११.२ लावति : वकृ०स्त्री०। लगाती । 'याहि कहा मैया मह लावति ।' कृ० १२ लावती : वकृ०स्त्री० ब० । लगातीं। पलको न लावतीं ।' कवि० १.१३ लावण्य : दे० लाबन्य । विन० १०.१ लावनिता : सं०स्त्री० (सं० लावण्यिता)। सौन्दर्य मयता। 'तुलसी तेहि औसर
लावनिता।' कवि० १.७ लावन्य : सं०० (सं० लावण्य) । सुन्दर अङ्गों में झलकने वाली आभा, अङ्ग संघटना
की चमक । मा० १.१०६ लावहिं : आ०प्रब० । (१) लाते हैं, उपस्थापित करते हैं । 'बहु बिधि लावहिं निज
निज सेवा ।' मा० १.१६१.८ (२) लगाते हैं। 'एकटक रहे निमेष न लावहिं ।'
मा० ७.३३.४ लावहि : आ०मए । तू लगा, अनुरक्त कर । 'सरस चरित चित लावहि ।' विन०
२३७.५ लावहु : आ०मब० । लगाओ, लावो (मन में समझो) । 'भाइहु लावहु धोख जनि ।'
मा० २.१६१ लावा : (१) लावक (प्रा० लावअ) । बटेर । 'जनु सचान बन झपटेउ लावा।'
मा० २.२६.५ (२) सं०० (सं० लाज, लाजक>प्रा० लाऊअ)। धान के खील (जो विवाह की लाजाति में उपयक्त होते हैं) । 'लावा होम बिधान ।' पा०म० १३१ (३) भूकृ०पु० । लगाया। 'तुम्ह तो कालु हांक जन लावा ।'
मा० १.२७५.१ लावै : लावहिं । पहुंचाते-ती हैं । 'बामहि बाम सबै सुखसंपति लावै ।' कवि० ७.२ लावौं : लावउँ। (१) लगाऊँ । 'चरन चितु लावौं।' गी० १.१८.३ (२) (पहुंचाता
हूं) लगाता हूं। 'जानत हौं हरि रूप चराचर, मैं हठि नयन न लावौं ।' विन.
१४२.२ (३) ले आऊँ । 'अमृत कुंड महि लावौं ।' गी० ६.८.२ लावौंगी : आ०भ० स्त्री०उए । लगाऊँगी। 'हरषि हिय लावौंगी।' २.५५.३ लासा : सं०० (सं० लसिका-स्त्री०) । गोंद आदि से बना हुआ सरेस जिससे
चिपकाकर पक्षियों को फांसा जाता है । नाम लगि लाइ, लासा ललित बचन
कहि, ब्याध ज्यों, बिषय बिहगनि बझावौं ।' विन० २०८.२ लाह : (१) लाभ (प्रा.)। 'लोयन लाह लूटति नागरी ।' जा०म०/० १६
(२) सं०स्त्री० । आग की लौ । (३) लता आदि की पतली शाखा। “जा की आंच अजहूं लसति लंक लाह सी।' कवि० ६.४३
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