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तुलसी शब्द-कोश
विषमता : सं०स्त्री० (सं.)। दुरूहता, समत्वरहित दशा । द्वैत । विन० ५५.२ विषय : (दे० बिषय) । भोग्य पदार्थ । 'विषय रस निरस ।' विन० ३८.४ विषाद : (दे० बिषाद) अवसाद, श्रान्ति, थकान, ग्लानि, मानसिक शून्यता । मा०
३.११.६ विष्ण : सं.पु. (सं०) । सर्वव्यापी देवविशेष=परमात्मा का सात्त्विक रूपान्तर ।
विन० १२.२ विष्णो : विष्णु+सम्बोधन (सं.)। विन० ५४.३ विस्तार : सं०पू० (सं.)। प्रसार, फैलाव, व्याप्ति । विन० ११.२ विहग : (दे० बिहग) पक्षी । विहगराज : गरुड़ । विन० ५५.५ विहगेश : गरुड़ । विन० २६.३ विहारी : वि.पु. (सं० विहारिन्) । विहार करने वाला । (१) विचरण करने
वाला । 'पुण्य-कानन-विहारी।' विन० ४३.४ (२) विनोद करने वाला । 'आनंद
वीथी-विहारी।' विन० ४६.८ विहित : (दे० बिहित)। (१) किया हुआ। (२) शास्त्रीय विधान द्वारा पुष्ट । वीचि, ची : सं०स्त्री० (सं०) । तरङ्ग, लहर । विन० ५८.३; मा० ३.४ छं. वीर : (दे० बीर)। शूर, युद्धोत्साह सम्पन्न । विन० ३६.३ (२) काव्य-रस
विशेष=दानवीर, दयावीर, धर्मवीर, युद्धवीर (सामान्यतया उत्साहीमात्र का
अर्थ संगत है)। वृद : सं०० (सं०) । समूह । विन० १५.४; मा० ४ श्लो० १
दारका : सं०० (सं० वन्दारक) । देव । विन० १२.२ वृक : सं०० (सं.)। भेडिया हिंसक वन्य जन्तुविशेष । विन० ५९.४ वृजिन : सं०० (सं.)। पातक, पाप । विन० ६१.८ वृत्ति : सं०स्त्री० (सं०) । (१) चित्त व्यापार; विषयमुखी चित्तगति । 'प्रौढ
अभिमान चितवृत्ति छीज ।' विन ० ४७.२ (यहां चित्त की अभिमानग्रन्थि का अर्थ है जो विषयाभिमान से बनती है) । (२) त्रिगुण-जनित चित्तदशाएंसात्त्विकवृत्ति सुख; राजसवृत्ति =दुःख ; तामसवृत्ति =मोह। 'गुण-वृत्ति
हर्ता ।' विन०४६.७ वृत्र : संपु० (सं०) । त्वष्टा मुनि का पुत्र असुर विशेष जिसे इन्द्र ने मारा था।
विन० ५७.३ वृश्चिक : सं०० (सं०) । बीछू । विन० ५६.६ वृषभ : सं०० (सं०) । बैल । विन० १०.४ वृष्णि : सं०पु० (सं०) । यदुवंश का शाखा-पुरुष जिसके नाम से वृष्णि-वंश कहा
जाता है और कृष्ण को वार्ष्णेय कहते हैं । विन० ५२.७
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