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तुलसी शब्द-कोश
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मोल, ला : (१) सं०० (सं० मूल्य>प्रा० मोल्ल)। निष्क्रय । 'सोउ प्रगटत
जिमि मोल रतन तें।' मा० १.२३.८ (२) मूल्य से, मूल्य देकर । 'आनेहु मोल बेसाहि कि मोही।' मा० २.३०.२ (३) मूल्य से क्रीत । 'हास बिलास
लेत मन मोला ।' मा० १.२३३.५ मोसी : मेरे जैसी । गी० ६.१८.३ मोसे : मुझ जैसे । कवि० ७.२३ मोसों : मुझसे । कवि० ७.१३७ मोसो : मुझ जैसा । 'राम सुस्वामि कुसेवकु मोसो।' मा० १.२८.४ मोहँ : मोह से, अविवेकवश, अनिश्चय के कारण । 'भूप बिकल मति मोहें भुलानी।"
मा० १.१७३.८ मोह : सं०० (सं०) । अज्ञान, तमोगुणी चित्तदशा। (१) योग में अस्मिता जो
अहंकार का सूक्ष्मरूप है, सांख्य में मोह कहा जाता है । 'मैं-तै मेट्यो मोह तम ऊगो आतम भानु ।' वैरा० ३३ (२) भावातिरेक में अविवेक-षड्वर्ग का अन्यतम ।' मा० १.३८.६ (३) संज्ञा शून्यता, मूर्छ । 'भए मोह बस सकल भुलाना ।' मा० १.२४८.७ (४) आसक्ति, लगाव । 'सपने हं उन्ह के मोह न माया।' मा० १.६७.३ (५) मोहइ। 'माया-जेहि न मोह अस को जग
जाया ।' मा० १.१२८.८ 'मोह मोहइ, ई : आ०प्रए (सं० मोहयति >प्रा० मोहइ)। (१) मुग्ध करता
ती है; बेसुध करता-ती है। 'सिव बिरंचि कहुं मोहइ। मा० ७.६२ ख (२) मोहित होता-ती है (मूछित होता है) । 'अहिपति बार बारहिं मोहई ।'
मा० ५.३५ छं०२ मोहत : वकृ.पु । मग्ध करता-ते । 'मोहत कोटि मयन ।' गी० १.५१.३ मोहति : वकृ०स्त्री० । मुग्ध करती । 'मूरति जनु जग मोहति ।' पा०म० १२४ मोहन : (१) वि.पु.। मोहने वाला, मुग्धकारी। 'सब भाँति मनोहर मोहन
रूप ।' कवि० २.१८ (२) श्रीकृष्ण । कृ० २८ मोहनिहार : वि.पु.कए । मुग्ध करने वाला । गी० ७.८.४ मोहनी : (१) वि०स्त्री० । मुग्ध करने वाली। 'बिलोकनि मोहनी मनहरनि ।'
गी० १.२८.३ (२) मुग्ध करने की क्रिया। (३) मोहित करने की यन्त्रमन्त्रयुक्त क्रिया। (४) अभिमन्त्रित बूटी आदि । 'जिन्ह निज रूप मोहनी डारी।' मा० १.२२६.५ (५) वशीकरण-नटी 'एतेहुं पर भावत तुलसी प्रभु गये मोहनी
मेलि ।' कृ० २६ (सर्वत्र अर्थों का गुम्फल विद्यमान है।) मोहनीमनि : ऐसी मणि जो दूसरे को मुग्ध करने का उपकरण होती है। 'मनहु
मनसिज मोहनीमनि गयो भोरे भूलि ।' गी० ५.२.२
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