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- तुलसी शब्द-कोश
रिभाई : रिझाइ । मा० ६.२४.२
रिझाएँ: क्रि०वि० । रिझाने से, अनुकूल एवं सन्तुष्ट करने से । 'कहहु
सिधि लोक रिझाएँ । मा० १.१६२.२
रिझाव : आ०उए० | रिझाऊँ, अनुकूल करूँ, मनाऊँ । 'तुलसिदास प्रभु सो
गु
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जेहि सपनेहुँ तुमहि रिझावों ।' विन० १४२.११
रितई : भूकृ० स्त्री० । रिक्त कर दी, छूछी कर डाली । 'मही मोद मंगल रितई है ।"
विन० १३६.६
रितऍ : क्रि०वि० । रिक्त करने पर । 'को भरिहे हरि के रितएँ ।' कवि० ७.४७ रितए : भूकृ०पु०ब० । रिक्त किये। 'देत सबनि मंदिर रितए ।' गी० १.३.६ रितवे : आ०प्र० (सं० रिक्तयतिरिक्तं करोति > प्रा० रित्तवइ ) । छूछा ( रिक्त) करता या कर सकता है । 'रितर्व पुनि को हरि जो भरिहै ।' कवि ०
७.४७
अ० रित्तवहि ) । छूछा जा०मं० ८०
रितर्वाह : आ०प्रब० (सं० रिक्तयन्ति > प्रा० रितवंति करते हैं (उंडेलते हैं) । ' कलस भरहि अरु रितवहि ।' रितु : सं०पु० + स्त्री० (सं० ऋतु) । वर्ष का छठा भाग जो दो मास का होता है- बसन्त = = चैत्र वैशाख, ग्रीष्म ज्येष्ठ - आषाढ़, वर्षा = श्रावण-भाद्रपद, शरद् = आश्विन - कार्तिक, हेमन्त = मार्गशीर्ष पौष, शिशिर = माघ फाल्गुन |मा० १.१६
=
रितुन्ह : रितु + संब० । ऋतुओं (में) । 'सकल रितुन्ह सुखदायक ।' गी० ७.२१.२ रितुराज, जा : बसन्त ऋतु । मा० २.१३३; १.८६.६
रितुराजू, जू : रितुराज + कए । अद्वितीय बसन्त । 'सो मुद मंगलमय रितुराजू ।"
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मा० १.४२.३
रितो : आ० - आज्ञा - मए० (सं० रिक्तय- रिक्तं कुरु > प्रा० रित्तव ) । तू रीता कर, उँडेल कर खाली कर ले । 'साँवर रूप सुधा भरिबे कहूँ नयन कमल कल कलस रितो री ।' गी० १.७७.२
रिद्धि : सं० स्त्री० (सं० ऋद्धि ) । ऐश्वर्यं । रिद्धि सिद्धि संपत्ति सुख ।' मा० १.६५. ( विकास, सफलता, सम्पत्ति, प्रचुरता, सौभाग्य, औदात्य, महिमा, लोकोत्तरता, पूर्णता - इतने अर्थ समूह को 'ऋद्धि' कहते हैं । पार्वती और लक्ष्मी को भी इस नाम से जाना जाता है । 'ऋद्धि' और 'सिद्धि' गणेश- पत्नियाँ भी कही गयी हैं । )
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रिधि : रिद्धि | मा० १.३४५.२
रिन : (१) सं०पु० (सं० ऋण > प्रा०रिण) । ब्याज पर लिया हुआ धन । रिपु रिन रंच न राखब काऊ ।' मा० २.२२६.२ (२) धर्मशास्त्र में तीन ऋॠण =
= ऋषि
ऋण,
देव ऋण और पितृ ऋण ।