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तुलसी शब्द-कोश
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रहेहु : (१) आ०-भ०+अनुज्ञा-मब । तुम रहना, ठहरना। रहेहु जहाँ रुचि
होइ तुम्हारी ।' मा० २.८२.५ (२) आ०-भूकृ००+मब० । तुम रहे।
'का चुप साधि रहेहु बलवाना।' मा० ४.३०.१ रहैं : रहहिं । मा० १.३२३ छं० १ । रहै : रहइ । (१) रहता-ती है । 'सुनत धौर मति थिर न रहै।' मा० १.१६२.३
(२) रहना चाहिए । 'तुलसी न्यारे व रहै।' वैरा० ४२ रहेगी : आ०भ० स्त्री०प्रए । बचेगी। 'हाथ लंका लाइहैं तो रहेगी हथेरी सी।'
कवि० ६.१० रहैगो : आ०भ००ए० । रहेगा । 'यों न मन रहैगो।' विन० २५६.२ रहो : रह्यो । रह गया, बचा । 'कहिबो न कछू मरि बोई रहो है।' कवि० ७.६१ रहों : आ० उए । रहूं, निवास करूं। 'कछु दिन जाइ रहौं मिस एहीं।' मा०
रहोंगो : आ०भ०० उए । रहूंगा । 'रघुबीर को ह्व तव तीर रहौंगो।' कवि०
७.१४७ रहो : रहह । 'रही आलि अरगानी। कृ० ४७ रहोगी : आ०भ० स्त्री०+मब० । रहोगी । गी० १.७२.३ रह्यो : रहेउ । (१) था। 'बास जहें जाको रह्यो।' मा० १.६६ छं० (२) बचा। ___ 'रह्यो सो उभय भाग पुनि भयऊ ।' मा० १.१६०.३ । रांक : रंक । दरिद्र, हीन । 'सकल सुख राक सो।' कवि० ५.२५ राकनि : रंकन्ह । 'रांकनि नाकप रीझि करे। कवि० ७.१५३ रांक : रांक+कए । 'राउ होइ कि राकु ।' गी० १.८६.३ रोड़ : सं०स्त्री० (सं० रण्डा) । विधवा (अनाथ स्त्री)। 'सहित समाज गढ़ रोड़
को सो भांडिगो।' कवि० ६.२४ रोडरोरु : (दे० रांड़+रोर)। (१) रांड़ स्त्रियों का कलह-कोलाहल ।
(२) वि.पु(सं० रण्ड-रोरुद>प्रा० रंडरोरुअ) । एकाकी व्यर्थ रोने-चिल्लाने वाला (रण्ड=एकाकी पुत्र पत्नीहीन-रोरुद=अतिशय रोदनशील)। 'आपनी
न बूझ न कहे को रांडरोरु रे ।' विन० ७१.१ रोषा : भूकृपु० (सं० राद्ध) । पकाया। बिबिध मृगन्ह कर आमिष राधा ।' __ मा० १.१७३.३ राधे : रांधने से, पकाने से । 'राधे स्वाद सुनाज ।' दो० १९७ राध्यो : भूक००कए । पकाया हुआ। 'लंक नहिं खात कोउ भात रोध्यो।'
कवि०६.४ राइ : राई । राजा, श्रेष्ठ । 'जादवराइ ।' विन० २१४.२
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