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तुलसी शब्द-कोश
लाजे : आ.प्रए० (सं० लज्जते>प्रा० लज्जइ)। लजाता-ती है। 'कच निरखि
मधुप अवली लाज ।' विन० ६३.७ लाटी : सं०स्त्री० (सं० लाट=जीर्ण वस्त्रखण्ड)। पपड़ी, भासी (लार सूखने से
पड़ी हुई मलीन वस्त्राकार) छाल । 'सूखहिं अधर लागि मुहँ लाटी ।' मा०
२.१४५.४ लाडिले : वि०० (सं० लाडवत् >प्रा० लाडिल्ल) । दुलारे । 'सोइये लाल लाहिले
रघुराई ।' गी० १.१६.१ लाडू : सं०० (सं० लड्डुक>प्रा० लड्डुअ) । लड्डू, मोदक । 'ठग के से लाडू
खाए प्रेम मद छाके हैं ।' गी० १.६४.२ लात : सं०स्त्री० (सं० लत्ता) । पादप्रहार । 'हुमगि लात तकि कूबर मारा।'
मा० २.१६३.४ लातन्ह, न्हि : लात+संब० । लातों। 'म ठिकन्ह लातन्ह दाँतन्ह काटहिं ।' मा०
६.५३.५, ६.७६.३ लाता : लात । मा० ६.४३.७ लाधे : लहे (सं० लब्ध>प्रा० लद्ध) । पाये। 'काहुं न इन्ह समान फल लाधे ।'
मा० १.३१०.२ लाभ : सं०० (सं०) । प्राप्ति । (१) (हानि का विलोम) सिद्धि, पूर्ति । 'परहित
हानि लाभ जिन्ह केरें।' मा० १.४.२ (२) मूलधन आदि पर मिलने वाला ब्याज आदि; धन आदि की प्राप्ति । 'जिमि प्रति लाभ लोभ अधिकाई ।' मा.. ६.१०२.२ (३) आवश्यक वस्तु की प्राप्ति । 'जथा लाभ संतोष सदाई ।' मा०
७.४६.२ (४) उन्नति, ऋद्धि । 'कहा, लाभ आगे सुत तोही ।' मा० ७.४८.७. " (५) जागतिक आमोद-प्रमोद । 'लाभ कि रघुपति भगति अकुंठा ।' मा०
६.२६.८ (६) उपलब्धि, साध्य की सिद्धि, फल प्राप्ति । 'इहइ लाभ संकर
जाना।' मा० १.२११ छं० ३ लाभु : लाभ+कए । अद्वितीय लाभ । 'काहि यहु लाभु न भावा ।' मा०
१.२५२.१ लामी : लांबी। लम्बी । 'तुलसी की बांह पर लामी लूम फेरिये ।' हनु० ३४ लाय : लाइ । लगाकर । गी० १.१४.२ लायउ : भूकृ०पु०कए । लगाया, संश्लिष्ट किया। 'राम उठाइ अनुज उर
लायउ।' मा० ६.६१.२ लायक : वि० (फा० लायक)+ (सं० लायक =लाने वाला, प्राप्त करने वाला)।
योग्य, सुपात्र । मा० १.१८.६ लाये : लाएँ। (१) सहारा देकर । सिख वति चलन अंगुरियाँ लाये ।' गी०
१.३२.११ (२) लगाने से। मिलहिं न राम कपट लो लाये ।' विन० १२६.५
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