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तुलसी शब्द-कोश
पोटत वकृ०० (सं० पेटत् -पिट संघाते>प्रा० पिटुंत) । पीटते, आहत करते, चोट
देते । 'अनल दाहि पीटत घनहिं ।' मा० ७.३७ पोटहिं : आ०प्रब० (सं० पेटन्ति>प्रा० पिटुंति>अ० पिट्टहिं) । आहत करते-ती
__ हैं । 'नारि बद कर पीटहिं छाती ।' मा० ६.४४.४ पीठ : सं०० (सं.)। (१) पीढ़ा, चौकी। पलँग पीठ तजि गोद हिंडोरा ।' मा०
२.५६.५ (२) पृष्ठ भाग । 'कमठ पीठ जामहिं बरु बारा ।' मा० ७.१२२.१५
(३) तीर्थ । दे० पीठु (४) ऊपरी भाग । 'चरन पीठ उन्नत ।' गी० ७.१७.४ पोठा : पीठ। मा० २.६८.१ पोठि, ठी : (१) पीठी। मा० २.५६.५ (२) सं०स्त्री० (सं० पृष्टि:-प्रकाश
किरण>प्रा० पिट्टि)। चमक, कलई। 'तांबे सों पीठि मनहुं तन पायो।'
विन० २००.१ पीठी : सं०स्त्री० (सं० पृष्ठ>प्रा० पिट्टी) । पीठ, पृष्ठ भाग । 'जिन्ह के लहहिं न
रिपु रन पीठी ।' मा० १.२३१.७ पीठ : पीठ+कए । तीर्थ, पुण्यस्थल । 'जोग जप जाग को बिराग को पुनीत पीठु ।'
कवि० ७.१४० पीड़हिं : आ.प्रब० (सं० पीडयन्ति>प्रा० पीडंति>अ० पीडहिं) । पीड़ा देते हैं।
'बहु ब्याधि-पीड़हिं संतत जीव कहुँ ।' मा० ७.१२१ क पोड़ा : सं० स्त्री० (सं.) । (१) व्यथा । (२) व्यथा देने की क्रिया । 'पर पीड़ा
सम नहिं अधमाई ।' मा० ७.४१.१ पीड़ित : भूकृ०वि० (सं.) । व्यथिल, पीडाकुल । मा० ७.१०२.३ पीढ़न्ह : सं००+संब० (सं० पीठानम् >प्रा० पीढाण>अ० पीढहं) पीढ़ों (पर)।
_ 'पोढन्ह बैठारे।' मा० १.३२८.३ पीत : वि० (सं.)। पीला । मा० १.१६६.११ पीतपट' मा० १.१४७ पीत
वस्त्र ।' मा० ७ श्लोक १ पीतम : प्रीतम । गी० ५.७.२ पीन : वि० (सं.)। (१) स्थूल । 'मीन पीन पाठीन पुराने ।' मा० २.१६३.३
(२) प्रचुर, पुष्कल । 'प्रेम पीन पन छीज ।' कृ० ४५ पीनता : सं०स्त्री० (सं०) । स्थूलता, मोटापा । 'पाप ही की पीनता।' कवि..
७६२ पीना : (१) पीन। 'नित नव राम प्रेम पनु पीना।' मा० २.३२५.२
(२) सं०० (सं० पिण्याक>प्रा० पिण्णाअ) । तिलचर्ण अथवा तिल की खली से बना खाद्य पदार्थ (गजक) । 'बाहु पोन पाँवरनि पीना खाइ पोषे हैं ।' गी.. १.६५.३
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