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पंख : पंख । गी० २.६.४ पवारो : सं००कए० । कीतिकथा, वीरगाथा । 'अजहूं जग जागत जासु पँवारो।'
कवि० ६.३८ प: (समासान्त में) वि०पू० (सं०) । पालनकर्ता । 'लोकप ।' कवि० ७.२६ अहिप,
महिम, नृप आदि । पंक : सं०० (सं.)। कीचड़ । मा० २.१४६ पंकज : सं०० (सं.)। कमल । मा० १.१७.४ पंकजराग : पदुमराग । मणिविशेष-(दे० नवरत्न) । गी० १.२६.५ पंकजे : पंकज+अधिकरण (सं.)। कमल में । विन० १०.६ पंकरुह : सं०० (सं०) । पङक में उगने-बढ़ने वाला=कमल । मा० १.१४३ पंख : सं०० (सं० पक्ष>प्रा० पक्ख) । डैने आदि । मा० ३.२६.२२ पंखन्ह : पंख+ संब० । पंखों (के)। 'बिनु पंखन्ह हम चहहिं उड़ाना ।' मा०
१.७८.६ पंगति : पाति । 'बर दंत की पंगति कुंद कली।' कवि० १.५ पंगु : (१) वि० (सं०) । खंज, लँगड़ा। मा० १.०.१ (२) गतिहीन, निष्क्रिय । ___कबि भारति पंगु भई ।' कवि० १.७ पंच : संख्या (सं०)। (१) पाँच। 'मुख पंच पुरारी।' मा० १.२२०.७
(२) पञ्चजन, प्रभावशाली लोग, विविध वर्गों के मुख्य जन, जनता, सब लोग । 'पंच कहें सिवं सती बिबाही ।' मा० १.७६.८ (३) महाभूत । 'पंच रचित यह अधम सरीरा।' मा० ४.११.४ (४) पांच सूक्ष्म भूतों के पञ्चीकरण से स्थूलभूतों की सष्टि को प्रपञ्च कहते हैं जिसकी व्यञ्जना के साथ द्वयर्थक
प्रयोग भी द्रष्टव्य है । 'रचहु प्रपंचहि पंच मिलि ।' मा० २.२६४ पंचकवल : भोजन के आरम्भ में वे पाँच ग्रास जो पाँच मन्त्रों के साथ लिये जाते
हैं - प्राणाय स्वाहा, अपानाय स्वाहा, व्यानाय स्वाहा, उदानाय स्वाहा, समानाय
स्वाहा । 'पंच कवल करि जेवन लागे ।' मा० १.३२६.१ पंचकोस : पाँच कोस के विस्तार में बसा हुआ काशी क्षेत्र=पञ्चक्रोशी। कवि०
७.१७२ पंच-कोसि : संस्त्री० (सं० पञ्चक्रोशी>प्रा० पंचक्कोसी)। काशी क्षेत्र जो पांच
कोसों में बसा है। विन० २२.५ पंचग्रह : मंगल, बुध, गुरु, शक्र और शनि । दो० ३६७
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