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तुलसो शब्द-कोश
रोझै : रीमने से अनुरक्त होने से । 'राम नाम ही सों रीझें सकल भलाई है।"
कवि० ७.७४ रीझे : (१) भूकृ००। प्रसन्न तथा अनुकूल हुए। रीझे ह हैं, राम की दोहाई,
रघुराय जू ।' कवि० ७.१३६ (२) रीझें। रीझने पर । रीझे बस होत ।' विन
रीझेउँ : आ०-भूक.पु+उए० । मैं रीझ गया-वशीभूत हो गया। रीझेउँ देखि
तोरि चतुराई ।' मा० ७.८५.५ रीझ : आ०प्रए० (सं० ऋध्यति>प्रा. रिज्झइ)। रीझ जाय, मुग्ध हो उठे । 'जो
बिलोकि रीझं कुरि।' मा० १.१३१ रोति : सं०स्त्री० (सं.) । (१) गति (२) मार्ग (३) सीमारेखा (४) ढङ्ग,
शैली। 'समुझि सो प्रीति की रीति स्याम की।' कृ० ३८ (५) चलन, आचरण । 'सुनत जरहिं खल रीति ।' मा० १.४ (६) परम्परा, मर्यादा, प्रथा। 'नेग सहित सब रीति निबेरी।' मा० १.३२५.७ (७) काव्य-शैली रस निर्वाहोपयोगी पद-संघटना (वैदर्भी, गौड़ी, पाञ्चाली अथवा सुकुमार मार्ग,
पुरुष मार्ग, मध्य मार्ग) । दे० रस रीति । रोतिमारिषी : (सं० आर्षी रीतिम् = रीतिमार्षी)ऋषियों की रीति । 'लोक लखि
बोलिए पुनीत रीतिमारिषी।' कवि० १.१५ ।। रोती : रीति+ब० । रीतियाँ । 'करि लौकिक बैदिक सब रीतीं।' मा० १.३२०.१ रीती : (१) रीति। 'काक समान पाकरिपु रीती।' मा० २.३०२.२
(२) वि०स्त्री० (सं० रिक्ता>प्रा० रित्ती)। छूछी; अन्तःशून्य । 'जोगिजन
मुनि मंडली मो जाइ रीती ढारि ।' कृ० ५३ रीते : वि.पु. (सं० रिक्त>प्रा. रित्त=रित्तय)। छूछे। सारहीन । 'भए देव
सुख संपति रीते।' मा० १.८२.६ एंड : सं०० (सं.)। धड़, कबन्ध, शिरोहीन काय । मा० २.१९२.२ रंडन : रुंड+संब० । रुड़ों। 'रुंडन के झुंड ।' कवि० ६.३१ रुख : (१) सं०० (फा० रुख)। चेहरा, मुखाकार। 'निरखि राम रुख सचिव
सुत...।' मा० २.५४ (२) मुख-संकेत, निर्देश, इङ्गित । 'लोकप करहिं प्रीति रुख राखें ।' मा० २.२.३ (३) मुख की ओर (अपनी ओर)। 'निज निज रुख सब रामहि देखा।' मा० १.२४४.७ (४) ओर, सामने । रबि रुख नयन सकइ किमि जोरी।' मा० २.५९.८ (५) मनोभाव (जो मुखाकार से प्रकट होता हो)। 'लखी राम रुख रहत न जाने ।' मा० २.७८.२ 'रुच रुचह : आ०प्रए० (सं० रोचते>प्रा० रुच्चइ-रुच दीप्तिी अभिप्रीती च)।
(१) प्रीतिकर लगता है (रुचता है)। 'दुइ में रुचे जो सुगम सो तुलसी कीबे
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