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तुलसी शब्द-कोश
मेह : मेघ (प्रा.) । दो० २६४ मैं : सर्वनाम - उत्तम पुरुष-कर्ताकारक (सं० मया>प्रा० मइ>अ० मई)।
(१) मैंने । “मैं अपनी दिसि कीन्ह निहोरा ।' मा० १.५.१ (२) मुझ से, मेरे द्वारा । 'सो सब हेतु कहब मैं गाई।' मा० १.३३.२ (३) मैं-हौं (सं० अहम्
>प्रा० मं) । 'तो मैं जाउँ कृपायतन ।' मा० १.६१ (४) अहन्ता, अहंकार ।
'मैं अरु मोर तोर त माया।' मा० ३.१५.२ मैं-तै : अहन्ता का वह रूप जिसमें मनुष्य अपने को केन्द्र बना कर शेष को पृथक्
मानता है-यही द्वैत है। मा० ३.१५.२ 'मैं-तं मेट्यो मोहत ऊगो आतम
भानु ।' वैरा० ३३ मैंमोर : मायाकृत अहंता और ममता- अपने को भोक्ता मानकर विषयों के प्रति
भोग्य भावना लेकर अपनापन । मा० ३.१५.२ 'तुलसिदास मैंमोर गये बिनु
जिउ सुख सांति न पावै ।' विन० १२०.५ मै : मय । व्याप्त, पूर्ण । 'मनो रासि महातम तारक मै ।' कवि० २.१३ मैना : सं०स्त्री० (सं० मातृका>प्रा० माइआ माइया)। माता । मा० २.५३ मैथिली : संस्त्री० (सं०) । मिथिला नरेश की पुत्री=सीता । मा० ६.१०६.१ ।। मैथुन : सं०स्त्री० (सं.)। मिथुन भाव +मिथुनकर्म । स्त्री पुरुष के मिलन का सुख ।
विन० २०१.४ मैन : मयन । (१) कामदेव । मा० १.१२६ (२) मोम, मधुमल । 'तुलसी ताहि
कठोर मन सुनत मैन होइ जाइ।' वैरा० १६ 'मैन के दसन कुलिस के मोदक कहत सुन बोराई।' कृ० ५१ (३) काम+मोम । 'बिथकी है ग्वालि मैन मन
मोए । कृ० ११ मनहिं : (१) मेना को । 'सोचु भयउ मन मनहिं ।' पा०म० १०८ (२) मैना से । ___ 'अरुंधती मिलि मैनहिं बात चलाइहि ।' पा०म० ७६ मैना : मेना ने । 'मैना सुभ आरती सवारी।' मा० १.६६.२ मैना : सं०स्त्री० (सं० मेना)। हिमाचल-पत्नी=पार्वती की माता। मा०
१.६६.६ मनाक : सं०० (सं.)। हिमाचल-पुत्र पर्वतविशेष जो सागर में स्थित बताया
गया है। मा० ५.१.६ मैनु : मैन+कए । कामदेव । 'मनोहरो जिति मनु लियो है ।' कवि० २.१६ मैया : मैआ। 'याहि कहा मैया मुह लावति ।' कृ० १२ मैला : वि.पु. (सं० मलिन>प्रा० मइल्ल ) । कलुष, क्षुब्ध । 'पठए बालि होहिं
मन मैला ।' मा० ४.१.५ मैले : विपुब० । कलुष, क्षोभयुक्त, कुभलाये हुए । 'अबुध असैले मन मैले
महिपाल भये ।' गी० १.७३.५
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