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तुलसी शब्द-कोश
संग्रहहिं : आ०प्रब० । संग्रह करते हैं, अनुकूल समझकर अपनाते (ग्राह्य बनाते) हैं। ____ 'सुप्रभ संग्रहहि परिहरहिं सेवक सखा बिचारि ।' दो० ५२६ संग्रहिअ : आ०कवा०प्रए । संग्रह कीजिए, अनुकूल समझकर अपनाया जाय। ____ का छांडिअ का संग्रहिन ।' दो० ३५१ संग्रही : वि०पु० (सं० संग्रहिन्) । संग्रहकर्ता। (१) संचयशील । 'नहिं जाचत
नहिं संग्रही।' दो० २६० (२) ग्राह्य करने वाला, आश्रय में लेने वाला। _ 'संग्रही सनेहबस अधम असाधु को।' विन० १८०.६ संग्रहे : क्रि०वि० । संग्रह करने से, अपनाने पर । 'जग हंसिहै मेरे संग्रहे।' विन०
२७१.३ संग्रह्यो : भूकृ००कए ० । ग्रहण किया, अपनाया। 'को तुलसी सो कुसेवक संग्रह्यो।'
विन० २३०.३ संग्राम : सं०० (सं०) । युद्ध । मा० ६.३६.११ संग्रामा : संग्राम । मा० ६.३६.३ संघ : सं०० (सं०) । संघात, समवाय (समूह)। मा० १ श्लोक १ संघट : (१) सं०० (सं.)। समूह, योग, संयोग । 'ऋक्ष-कपि-कटक-संघट-विधायी।'
विन० २५.६ (२) (सं० सघट्ट)। भीड़, संघर्ष, सम्मद । सकल संघट पोच
सोच बश सर्वदा।' विन० ५६.६ (दोनों अर्थों में विशेष अन्तर नहीं।) संघटत : वकृ०० (सं० संघटमान, संघट्टमान>प्रा० संघटुंत) । जुड़ते, संघर्ष
करते । 'सुर बिमान हिमभानु भान संघटत परसपर।' कवि० १.११ संघटु : संघट+कए । संयोग, संघटना, समन्वय । 'यह संघट तब होइ जब पुन्य
पुराकृत भूरि ।' मा० १.२२२ संघरषन : सं० (सं० संघर्षण) । घिसने की क्रिया, संघर्ष, द्वन्द, रगड़ । मा०
७.१११.१६ संघात : सं०पू० (सं.)। (१) संघ, समुदाय । (२) घात नाश । (३) वि.पु.
(समासान्त में) । संहारक । 'दुष्ट-बिबुधारि-संघात ।' विन० ५०.८ संघाता : संघात । समवाय । 'सो जल अनल अनिल संघाता।' मा० १.७.१२ संघार : संहार (प्रा.) । विनाश । मा० ७.६७ संघारा : (१) संघार। 'तप बल संभु करहिं संघारा।' मा० १.७३.४
(२) भूकृ०० । विनष्ट किया। 'आधा कटकु कपिन्ह संघारा ।' मा०
६.४८.४ संघारे : भूकृ००ब० । मारे । 'महाबीर दितिसुत संघारे।' मा० ६.६.७ संघारेहु : आ०-भूक००-मब० । तुमने मार डाला। 'निसिचर निकर सुभट
संघारेहु ।' मा० ६.९०.६
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