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तुलसी शब्द-कोश
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बनपाल : वन के रखवाले । कवि० ५.२ बनबास : (सं० वन-वास) वन में निवास । मा० २.२२४.८ बनबासी : वि.पु० (सं० वन वासिन्) । वन में रहने वाला । गी० १.५५.८ बनबासू : बनबास+कए । वन-प्रवास । 'सुतहि राजु रामहि बनबासू ।' मा०
२.२२.६ बनबाहन : (दे० बन तथा बाहन) वन=-जल का वाहन नौका । 'जब पाहन भे
बन-बाहन से।' कवि० ६.६ बनबाहनु : बनबाहन+कए । एकमात्र नौका। 'पाहन तें बन-बाहनु काठ को
कोमल है।' कवि० २.७ बनमाल : बनमाला। बनमाला : सं०स्त्री० (सं० वनमाला) । (१) सभी ऋतुओं के पुष्पों से बनी--बीच
बीच कदम्ब-पुष्पों से गुथी-घुटनों तक लम्बी माला। 'आजानु-लम्बिनी माला सर्वत्-कुसुमोज्ज्वला। मध्ये स्थूल-कदम्बाढ्या वनमालेति कीर्तिता।' 'उर श्रीवत्स रुचिर बनमाला ।' मा० १.१४७.६ (२) वनपुष्पों की माला। 'जटा
मुकुट सिर उर बनमाला ।' मा० ३.३४.७ बनरन्ह : बानर+संब० । वानरों । 'देखहु बनरन्ह केरि ढिठाई ।' मा० ६.४०.२ बनरा : बानर । 'उतरे बनरा जय राम रहैं।' कवि० ६.६ बनरुह : सं०० (सं० वनरुह =जलरुह) । कमल । 'अरुन-बनरुह लोचनं ।' कृ.
२३ बनवनि : सं०स्त्री० । बनाव, सजावट । 'सुमन लता सहित रची बनवनि ।' गी०
बनसी : संस्त्री० (सं० वडिश>प्रा० वडिस>अ० वडिसी)। मछली फंसाने का
काँटा । 'बुधि बल सील सत्य सब मीना । बनसी सम तिय कहहिं प्रबीना ।' मा०
३.४४.८ बनहिं : (१) आप्रब० । बनती-ते हैं। (उपमा...) 'देत न बनहिं निपट लघु
लागीं।' मा० १.३४६.८ (२) वन में। 'लछिमन गए बनहिं जब ।' मा०
३.२३ बनहि : वन को । 'भगुपति गए बनहि तप हेतू ।' मा० १.२८५.७ बनहीं : बनहिं । बन में । 'फिरहिं बन-बनहीं ।' मा० २.२११.८ बना : भूकृ० । (१) घटित हुआ, जुट गया। 'बना आइ असमंजस आजू ।'
मा० १.१६७ ५ (२) सजा, सुसज्जित हुआ। 'बना बजारु न जाइ बखाना।'
मा० १.३४४.६ बनाइ : पू० । बनाकर । (१) रच कर । 'तरु लेखनी बनाइ.. महिमा लिखी न
जाइ।' वैरा० ३५ (२) संवार कर (भली प्रकार)। 'बई बनाइ बारि
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