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तुलसी शब्द-कोश
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'भूलें : भूलने से, भटकने पर। 'रबिहि न दोसु देव दिसि भूलें।' मा० २.२६७.३ 'भूले : भूक००ब० । भ्रान्त हुए, सुध बुध खोये हुए । 'गुजत मंजु मधुप रस
भूले ।' मा० २.१२४.७ भूलेहुं : भूल से भी । 'भूलेहुं संगति करिअ न काऊ ।' मा० ७.३६.१ भूल्यो : भूकृ०पु०कए० । भूला, विस्मृत हो गया । विन० १४३.२ 'भूष, भूषइ : आ०प्रए० (सं० भूषयति>प्रा० भसइ) । अलंकृत करता है,
सजाता है । 'ससिहि भूष अहि लोभ अमी के ।' मा० १.३२५.६ भूषन : सं०+वि.पु. (सं० भूषण) । (१) अलंकार, आभरण । मा० १.१४७.६
(२) अलंकृत करने वाला, श्रेष्ठ । 'तिय-भूषन ।' मा० १.१६.७ (३) (समासान्त में) भूषण वाला । 'भुजग-भूति-भूषन ।' मा० १.१०६.८ (४) विभूषित करने वाला अङ्ग । 'किय भूषन तिय भूषन ती को।' मा० १.१६.७ (५) काव्य में
शब्दालंकार तथा अर्थालंकार-दे० बिभूषन । भूषनधारी : वि० । आभूषण धारण करने वाला-वाले । मा० १.८.१० भूषन-बिभाग : अङ्गानुरूप अलंकारों की विभक्त रचना । गी० २.४४.४ भूषन-भूषन : आभूषणों को भी अलंकृत करने वाला-वाले । 'ब्याह बिभूषन भूषित
भूषन-भूषन ।' जा०म० १२४ भूषिअत : वकृ००कवा० । अलंकृत किये जाते । 'सुतिय सुभूपति भूषिअत ।' दो०
५०६ भूषित : भूकृ०वि० (सं०) । अलंकृत, सुसज्जित । मा० १.६.७ भूसुर : सं०० (सं.)। पृथ्वी का देव =ब्राह्मण । मा० १.२१४ भुंग : सं०० (सं.)। (१) भ्रमर । 'गुजत भृग ।' मा० २.२४६ (२) एक
प्रकार का पतिंगा जो कीड़े को अपनी ध्वनि से अपने ही आकार का करने
वाला बताया गया है । 'भइ मम कीट भग की नाई ।' मा० ३.२५.७ भृगनि : भृग+संब० । भ्रमरों (से)। 'सेबित सुर मुनि भृगनि ।' गी०
२.५७.३ भुंगा : भृग । मा० १.१२६.२ भगिहि : भृङ्गी (शिवगण विशेष) को। मा० १.६३.४ भूकटि, टी : सं०स्त्री० (सं.)। भौं, भों की वक्रता। मा० १.१४७.४; २४२.५ भृकुटी : भृकुटी+ब० । भौंहैं । 'चले भृकुटी।' कवि० २.२६ भृगु : सं०० (सं०) । ब्रह्मा के पुत्र ऋषि विशेष । मा० १.६४ भृगुकुल : भगु ऋषि का वंश जिसमें परशुराम हुए थे। मा० १.२६८.२ भृगकुल केतू : भृगु वंश में पताकावत् सर्वोत्तम । परशुराम । मा० १.२७१.८
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