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तुलसी शब्द-कोश
सिसुलीला : बालविनोद । मा० १.१६२ छं० सिहि : बच्चे को । 'सुरभी सनमुख सिसुहि पिआवा।' मा० १.३०३.५ सिस्नोदर : (सं० शिस्नोदर--शिस्न+उदर)। कामभोग और उदरपोषण
(शिस्न = पुरुषत्व सूचक अङ्ग विशेष) । सिस्नोदरपर : कामसुख तथा उदरभरण में परायण, एकमात्र उन्हीं लौकिक सुखों
को परम मानने वाले। 'सिस्नोदरपर जमपुर त्रास न ।' मा० ७.४०.१ 'सिहा, सिहाइ, ई : आ.प्रए० (सं० स्पृहायते>प्रा. सिहाई, छिहाइ)। उत्कट
लालसा करता है, ललचाता है, विवश स्पर्धा करता है । 'अवधराजु सुरराज
सिहाई ।' मा० २.३२४.६ सिहाउ, ऊ : आ०-आज्ञा+संभावना-प्रए । स्पृहा करे, ललचाए, सिहाए ।
थापिअ जनु सब लोग सिहाऊ ।' मा० २.८८.७ सिहात : वकृ.पु । ललचाता-ते । जेहिं सिहात अमरावति पालू ।' मा०
२.१९६.७ सिहानी : भकृ.स्त्री० । ललचायी। 'देखत दुनी सिहानी।' गी० १.४.६ सिहाने : भूक००ब० । स्पहा-विह्वल हुए, ललच उठे। 'लोकपाल अवलोकि
सिहाने ।' मा० १.३२६.६ सिहाहि, हीं : आ०प्रब० । स्पृहा करते हैं, सिहाते हैं, ललचाते हैं । मा० १.३४४
_ 'सुर सकल सिहाहीं।' मा० २.१०१.८ सिहाहुं, हूं : आ०-संभावना, कामना-प्रए । सिहाएं। ललचाएँ । 'अब ते
__ सकुचाहुं सिहाहूं।' विन० २७५.४ सिहोरे : सं०० (सं० शाखोटक>प्रा० साहोऽय) । झाड़ जैसे सिहोर वृक्ष को
सिहोर उपयोगहीन वृक्षविशेष है)। 'तुलसी दलि रुंध्यो चहै सठ साखि
सिहोरे ।' विन० ८.४ सोंक : सं०स्त्री० (सं० इषीका)। गांडर का लम्बा डंठल (मञ्जरी की नाल)।
मा० ३.१.८ सींग : सं००+स्त्री० (सं० शृङ्ग>प्रा० सिंग) । पशु-मस्तक के शङ कु । कृ. ४६ . 'सींच, सींचइ : आ.प्रए० (सं० सिञ्चति>प्रा० सिंचइ)। सिवत करता है;
पानी डालता है । 'कोटि जतन कोउ सींच ।' मा० ५.५८ सींचत : वक०० । सींचता-ते । 'सींचत सीतल बगरि ।' मा० २.१५४ सींचति : वक०स्त्री० । सींचती, सिक्त करती । रा०प्र० २.३.३ सींचहि : आ.प्रब० (सं० प्रा० सिञ्चन्ति>अ० सिंचहिं) । सींचते हैं। दो० ३७७ सींचा : (१) भूक००। सिक्त किया (पानी डाला) । पेड़ काटि ते पाल उ __ सींचा।' मा० २.१६१.८ (२) सं०पू० । स्नान, पानी का छींटा । 'जासु छांह
छुइ लेइअ सींचा।' मा० २.१६४.३
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