________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
तुलसी शब्द-कोश
1069
सींचि : पूक० । सींच कर, भिगो कर । निज लोचन जल सींचि जुड़ावा।' मा०
सोंचिऐ, ये : आ.कवा०प्रए । सिक्त कीजिए, आई कीजिए। 'राम कृपा जल
सींचिए । दो० २३६ सीचिबे : भकृ.पु । सींचने । 'सोइ सींचिबे लागि मनसिज के रहट नयन नित ___रहत नहे री।' गी० ५.४६.२ सीचिबो : भक००कए ० । सींचना । पात-पात को सींचिबो।' दो० ४५२ सींची : भक०स्त्री०ब० । सिक्त की। 'बीथीं सींचीं।' मा० १.२६६ सींच : आo-आज्ञा-मए । तू सींच, सिक्त कर । 'सुचि सनेह जल सीचु ।' __दो० २२० सींचे : भूकृ०० ब० । सींचे हुए, सिक्त हुए । 'अनजल सींचे रूख ।' दो० ३१० सींचें : सींचहिं । 'नीके सब काल सींचं सुधासार नीर के ।' कवि० ५.२ सींचो : भूक०कए । सिक्त किया हुआ, आर्द्र किया हुआ । 'बोरत न बारि ताहि
जानि आपु सींचो।' विन० ७२.४ सीव, वा : सं०स्त्री० (सं० सीमा>अ० सीवा =सी)। परमावधि, परा काष्ठा,
छोर, चरम बिन्दु। 'रघुपति करुना सींव।' मा० ७.१८ 'अंगद हनमंत बल
सीवा।' मा० ६.५०.२ सी : (१) सीय । सीता । छुट्यो पोच सोच सी को।' गी० १.८८.४ (२) वि०
स्त्री० । सदश। 'बिरची विधि सकेलि सुषमा सी।' मा० २.२३७.५ (३) मानों (उत्प्रेक्षा)। 'सकुच वेचि सी खाई।' कृ०८ (४) पू० (सं० स्यूत्वा>प्रा० सिविअ, सिइअ>अ० सिवि, सिइ)। सिल कर, सिलाई करके ।
'सेवक को परदा फट तू समरथ सी ले ।' विन० ३२.४ सोकर : सं०पू० (सं०) । जल आदि का कण, बूंद । मा० ७.५२.४ सोकरनि : सीकर+संब० । बूदों (से)। कबहुंकि कांजी सीकरनि छीर सिंधु
बिनसाइ।' मा० २.२३१ सीख : सिख (सं० शिक्षा>प्रा. सिक्खा>अ० सिक्ख) । उपदेश । दो० ४२७ सीझे : भूकृ.पु.ब० । सिद्ध हुए (साधना की) । तप, तीर्थ स्नान आदि करके
पवित्र हुए । 'कासी प्रयाग कब सीझे ।' विन० २४०.१ ।। सीठि, ठी : वि०स्त्री० (सं. शिष्टा>सिट्टी) । मधर द्रव का बची तलछट (मीठी
का विलोम) । अमधुर, माधुर्यहीन, रसहीन । 'तौं लौं सुधा सहस्र सम राम
भगति सुठि सीठि।' दो० ८३ सोठे : वि०० ० । अमधुर (मीठे का विलोम); नीरस । 'तो नवरस षटरस रस
अनरस ह जाते सब सोठे।' विन० १६६.१
For Private and Personal Use Only