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बिहंगबर : श्रेष्ठ पक्षी । मा० ७.६२.४ बिहंगम : बिहंग (सं० विहंगम ) ।
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तुलसी शब्द-कोश'
बिहंगा : बिहंग | मा० १.३७.१५
बिहंगिनि : बिहंग + स्त्री० (सं० विहंगी ) । पक्षिणी । कवि० ७.१८०
बिहंडत : वकृ०पु० (सं० विखण्डयत् > प्रा० विहंडंत ) । छिन्न-भिन्न करता ते
'नख दंतन सों भुजदंड बिहंडत ।' कवि० ६.३५
बिहंडन : बिखंडन ( प्रा० विहंडण ) । विच्छिन्नकारी । 'संभु कोदंड बिहंडन ।
कवि० ७.११२
बिहग : विहग | पक्षी । मा० १.१२० ख
बहस : विहगेश | गरुड़ । मा० ७.९६ क
बिहबल : वि० (सं० विह्वल ) । विचलित, विभ्रान्त, घबराया हुआ, स्खलित । 'बिहबल बचन पेम बस बोलहिं ।' मा० २.२२५.४
/ बिहर, बिहरइ : (१) आ०प्र० (सं० विहरति > प्रा० विहरइ ) । विहार करता है, विचरण या विलास करता है । (२) (सं० विघटते > प्रा० विहडइ) 1 फटता है, विघटित या विदीर्ण होता है । 'एतेहुं पर उर बिहर न तोरा ।' मा० ६.२२.२
बिहरत : (१) वकृ०पु० (सं० बिहरत् > प्रा० विहरंत ) । विहार करता ते, विचरण करता-ते । 'बैर बिगत बिहरत बिपिन, मृग बिहंग बहुरंग ।' मा० २.२४ε (२) (सं० विघटमान > प्रा० विहडंत ) । फटता, विदीर्ण होता । 'बिहरतहृदउ न इहरि हर ।' मा० २.१६६
बिहरति : बिहरत + स्त्री० | फटती । 'बल बिलोकि बिहरति नहि छाती ।' मा०
६.३३.४
बिहरनसीला : वि० (सं० विहरणशील ) । विनोद - विहार तथा विचरण करने
वाला । मा० २.६३.७
बिहहि : आ० प्रब० । विहार + विचरण करते हैं । 'जिन्ह बीथिन्ह बिहार हि दोउ भाई । मा० १.२०४.८
बिहरहु : आ० मब ० । विनोद + विचरण करो, खेलो। 'निज भवन बिहरहु तात ।
गी० १.४०.५
बिहरावा : भूकृ०पु० । टाल दिया, बहाने से बरका दिया । 'सुनि कपि बचन बिहसि बिहरावा । मा० ५.२२.२
बिहार : पूकृ० । विहार करके । गी० २.५०.४
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बिहरें: बिहरहि । कवि० १.३-४ बिहरो : भूकृ०पु०कए० (सं० विघटितः > प्रा० विहडिओ) | फट गया । 'कठिनहियो बिहरो न आजु ।' गी० २.७.३