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तुलसी शब्द-कोश
समुझियो : भकृ०पु०कए० (सं० संबोद्धव्यम् >प्रा० संबज्झिमव्वं>अ०
संबुज्झिअव्वउ) । समझना (होगा)। 'के समुझि बो के ये समुझे हैं, हारेहु मानि
सहीजे ।' कृ० ४५ समुझियत : वकृ००कवा० । समझ में आता । समझा जाता । 'सुनत समुझियत
थोरे ।' कृ० ४४ समुझिहहिं : आ०भ०प्रब० । समझेंगे, ज्ञात कर लेंगे। 'सुनि गुन भेदु समुझिहहिं
साधू ।' मा० १.२१.३ समझिहैं : समुझिहैं । 'जगुति धूम बघारिबे की समुझिहैं न गवारी।' कवि० ५३ समुझी : भूकृ०स्त्री० । समझी, विवेक से जानी । मा० १.३० क समुझ : आ०- आज्ञा-मए । तू समझ, ज्ञात कर । 'मूढ़ समुझु तजि टेक ।' मा०
६.३१
समुझे : समझने से, पर । विवेक द्वारा जानने पर । 'समुझें मिथ्या सोपि ।' मा०
७.७१ समुझे : (१) भूकृ००ब० । जाने, बोधगम्य किये । 'नाथ न मैं समझे मुनि ___ बैना।' मा० १.७१.२ (२) समुझें । ‘समुझे सहे हमारो है हित ।' कृ० २७ । समुझे : समुझइ । समझे, जान जाय । “जों करनी समझ प्रभु मोरी।' मा०
७.१.५ समुहैं : आ०भ० प्रब० । समझाएंगे, बुद्धिगम्य करेंगे । 'के समुझिबो, के ये समुझैहैं।'
कृ० ४५ समुझौं : समुझउँ । समझ सकें । 'किमि समुझौं मैं जीव जड़।' मा० १.३० ख समुझ्यो : भूकृ.पु.कए। समझा, जाना। ‘ता तें कछु समझ्यो नहीं।' विन.
१६०.५ समुदाइ, ई : समुदाय । मा० ४.१७; ७.१०.४ समुदाय : सं०पू० (सं.)। समूह, एक जातीय गण, संघ । मा० ७.७८ ख समृद्भव : सं०० (सं०) । आविर्भाव, उत्पत्ति । मा० ४ श्लो० २ समुद्र : सं०० (सं०) । सागर। मा० ६.३४.२ 'समुहा, समुहाइ, ई : आ.प्रए० (सं० संमुखायते>प्रा० समुहाइ) । संमुख आता
है, सामना करता है । 'अति भय त्रसित न कोउ समुहाई।' मा० ६.६५.१० समुहान : भूक०० । सामने आया । 'जनु दुकाल समुहान ।' रा०प्र० ५.७.२ समुहानी : भूक०स्त्री० । सामने हुई, संमुख चली। 'राम सरूप सिंधु समुहानी।'
मा० १.४०.४ समुहाही : आ.प्रब ० । सम्मुख आते हैं, सामना करते हैं । 'तिन्हहि न पाप पुंज
समुहाहीं।' मा० २.१६४.५
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