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तुलसी शब्द कोश
परहि बिधि नाना ।' मा० १.३१६.३ (४) शयन करते हैं। 'ए महिं परहि डासि कुस पाता।' मा० २.११६.७ (५) (ज्ञात) हो जायें । 'लखि जनि परहिं
सरोष ।' दो० १८७ परहित : दूसरे का कल्याण, परोपकार । मा० २.२१६ परहुं : अव्यय (सं० परश्व:>प्रा० परसो)। आगामी कल के बाद वाले दिन को।
'आजु कालि परहुं जागन होहिंगे।' गी० १ ५.५ परहेलि : पूकृ० (सं० परिहेल्य) । अवज्ञा करके, अलग डाल कर । 'सींचि सनेह
सुधा खनि काढ़ी लोक बेद परहेलि ।' कृ० २६ परहेल : आ०-आज्ञा-मए । तू उपेक्षित कर दे, छोड़ दे । 'के ममता परहेल ।'
दो०७६ परहेलें : क्रिवि. । उपेक्षित किये हुए। अपेक्षा न करके। (चिन्तनीय को) चिन्ता
से रहित होकर । 'सुदर जुवा जीव परहेलें ।' मा० १.१५९.३ परा : भूकृपु । (१) गिरा हुआ, लेटा हुआ। 'भूमि परा कर गहत अकासा।'
मा० ५.५७.२ (२) जा पड़ा! 'कूदि परा।' मा० ५.२६.८ (३) भ्रान्त हुआ। 'परा भवकूपा ।' मा० ३.१५.५ (४) थक गया। 'हारि परा।' मा० ३.२९६ (५) बरसा । सूखत धान परा जनु पानी ।' मा० १.२६३.३ (६) व्याप्त हुआ, मच गया । 'जग खरमरु परा।' मा० १.८४ छं० (७) गिर गया। 'मुरुछि
परा।' मा० २.८२.८ (८) प्रवृत्त हुआ। 'मनु हठ परा।' मा० १.७८.५ 'परा पराइ, ई : (सं० पलायते'>प्रा० पलाइ) आ०ए० । भागता है। 'तुलसी
छवत पराइ ज्यों पारद पावक आंच ।' दो० ३३६ 'कबहुं निकट पुनि कबहुं
पराई।' मा० ३ २७.१२ पराइ : (:) पराई । परकीय, दूसरे की । 'देखि न सकहिं पराइ बिभूती।' मा०
२.१२.६ (२) पूकृ० (सं० पलाय्य)। भाग कर । 'पुनि कपि चले पराइ।'
मा० ६.४१ (३) दौड़कर । 'गढ़ पर चढ़े पराइ ।' मा० ६.७४ ख पराई : (१) दे/परा (२) पराइ । भागकर । 'श्रवन मूदि न त चलिअ पराई ।'
मा० १.६४.४ (३) वि०स्त्री० (सं० परकीया>प्रा० पराई)। दूसरे की।
'बेगि पाइअहिं पीर पराई ।' मा० २.८५.२ पराउ : आ०-संभावना-प्रए० (स० पलायेत>प्रा० पलाउ)। चाहे भाग जाय ।
• रबि दै पीठि पराउ ।' दो० ३१६ पराएँ : पराए..... में (पराधीन)। 'मुनिहि मोह, मन हाथ पराएँ ।' मा०
१.१३४.५ पराए : पराये । कृ० ४७ पराक्रम : सं०पू० (सं.)। शक्ति, आक्रमण आदि का उत्साह, पौरुष । मा.
६.२७
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