Book Title: Kathakosha Prakarana
Author(s): Jineshwarsuri, 
Publisher: Singhi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०२ सि घी जैन ग्रन्थ मा ला संस्थापक श्रीमद् बहादुर सिंहजी सिंघी संरक्षक श्री राजेन्द्र सिंह सिंघी तथा श्री नरेन्द्र सिंह सिंघी *****************[ ग्रन्थांक ११]************ विधिमार्गप्रकाशक-श्रीजिनेश्वरसूरिविरचित [प्राकृत भाषामय] कथा कोष प्रकरण SRI DALCHAND JI SINGHI श्री डालचटडी सिंघी/ प्रधान सम्पादक तथा संचालक आचार्य जि न वि ज य मुनि (सम्मान्य नियामक-भारतीय विद्याभवन, बंबई) ***********[ प्रकाशयिता ]******************* सिं घी जैन शास्त्र शिक्षा पीठ भारतीय विद्या भवन बंबई वि. सं. २००५] ' ॐ [मूल्य १०-८-० For Private conal Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THIARITMALIRITERALLITERAIPOT Bgmaininimmunmuniil स्वर्गवासी साधचरित श्रीमान् डालचन्दजी सिंघी SARA बाबू श्रीबहादुर सिंहजी सिंघीके पुण्यश्लोक पिता जन्म-वि. सं. १९२१, मार्ग. वदि ६ 卐 वर्गवास-वि. सं. १९८४, पोष सुदि ६ P dmonialhunate alamaal FullthimilititiILUmmalniti மொரபாரை E mpIREmpunMARRIAL SiminatimesT HANImmom - - amatiPimurtirithment Education Interational Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ glamma titunnindmmunity JAP I . m mortalitnit ommon Primantuntimate ASTRAINITAmirmwamil Pramanuman C दानशील-साहित्यरसिक-संकृतिप्रिय स्व. श्रीबाबू बहादुरसिंहजी सिंघी आ श्रीरमागरसी ज्ञान मंदिर श्री महाजन अगला कोश अजीमगंज-कलकत्ता जन्म ता. २८-६-१८८५] [मृत्यु ता. ७-७-१९४४ பாவனையாலய பார் आश्रीमगर र शान मंदिर श्री महाकार नजाराधना केन्द्र, कोबा सा.क. BEDIATRImmull Lammamminimuanslaminent Imaanindmmentatamarhim आ.श्री हेमनगर सविन भी महाचार जन अजधाका www.jainelibrary/arge Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिं घी जैन ग्रन्थ मा ला -- X- - - ************[ ग्रन्थांक ११]************************* श्रीजिनेश्वरसूरिविरचित कथा कोषप्रकरण SRI DALCHAND JI SINGHI | श्री डालचटडी सिंघी - - - SINGHI JAIN SERIES *******************[ NUMBER 11]********************* KATHAKOSA PRAKARANA OF SRI JINEŠVARA SŪRI Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क ल क त्ता निवासी साधुचरित-श्रेष्ठिवर्य श्रीमद् डालचन्दजी सिंघी पुण्यस्मृतिनिमित्त प्रतिष्ठापित एवं प्रकाशित सिंघी जैन ग्रन्थ मा ला [जैन आगमिक, दार्शनिक, साहित्यिक, ऐतिहासिक, वैज्ञानिक, कथात्मक - इत्यादि विविधविषयगुम्फित; प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, प्राचीनगूर्जर - राजस्थानी आदि नानाभाषानिबद्ध ; सार्वजनीन पुरातन वाङ्मय तथा नूतन संशोधनात्मक साहित्य प्रकाशिनी सर्वश्रेष्ठ जैन ग्रन्थावलि.] प्रतिष्ठाता श्रीमद्-डालचन्दजी-सिंघीसत्पुत्र ख. दानशील -साहित्यरसिक-संस्कृतिप्रिय श्री मद् बहादुर सिंहजी सिंघी SRI BAHADUR SINGISAN SINGH 16 SARI %ER CENTबो बहादुर सिहजी मिधा DEL'S प्रधान सम्पादक तथा संचालक आचार्य जि न वि ज य मुनि (सम्मान्य नियामक-भारतीय विद्याभवन, वंबई ) सर्वप्रकार संरक्षक श्री राजेन्द्र सिंह सिंघी तथा श्री नरेन्द्र सिंह सिंघी प्रकाशनकर्ता सिंघी जैन शास्त्र शिक्षा पीठ भा र ती य विद्या भ व न बंबई प्रकाशक-जयन्तकृष्ण ह. दवे, ऑनररी रजिस्ट्रार, भारतीय विद्या भवन, चौपाटी रोड, बंबई ७. मुद्रक-रामचंद्र येसू शेडगे, निर्णयसागर प्रेस, २६-२८, कोलभाट स्ट्रीट, कालबादेवी, बंबई २. Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधिमार्गप्रकाशक - श्रीजिनेश्वरसूरिविरचित [ प्राकृत भाषामय ] कथा कोष प्रकरण [ स्वोपशव्याख्या समवेत मूळ प्राकृत गाथाबद्ध तथा विविध कथानक संयुक्त; एवं सुविस्तृत हिन्दी प्रस्तावना, परिशिष्ट आदि समलंकृत ] संपादक आचार्य जिन वि ज य मुनि [ अधिष्ठाता - सिंधी जैनशास्त्र शिक्षापीठ तथा सम्मान्य नियामक - भारतीय विद्या भवन - बंबई ] विक्रमाब्द २००५] ग्रन्थांक ११] भारतीय चिया प्रकाशक सिंघी जैन शास्त्र शिक्षापीठ भारतीय विद्या भवन बंबई प्रथमावृत्ति; पश्च शत प्रति भव * [ १९४९ ख्रिस्ताब्द [ मू० रू० १०-८-० Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SINGHI JAIN SERIES A COLLECTION OF CRITICAL EDITIONS OF IMPORTANT JAIN CANONICAL, PHILO. SOPHICAL, HISTORICAL, LITERARY, NARRATIVE AND OTHER WORKS IN PRAKRIT, SANSKRIT, APABHRAMSA AND OLD RAJASTHANIGUJARATI LANGUAGES, AND OF NEW STUDIES BY COMPETENT RESEARCH SCHOLARS ESTABLISHED IN THE SACRED MEMORY OF THE SAINT LIKE LATE SETH ŚRI DALCHANDJÍ SINGHĨ OF CALCUTTA BY HIS LATE DEVOTED SON DANASILA-SAHITYARASIKA – SANSKRITIPRIYA SRĪMĀN BAHĀDUR SINGHJI SINGHĨ DIRECTOR AND GENERAL EDITOR ACHARYA JINA VIJAYA MUNI (HON. DIRECTOR-BHĀRATĪYA VIDYĀ BHAVAN - BOMBAY) * UNDER THE EXCLUSIVE PATRONAGE OF SRI RAJENDRA SINGH SINGHI SRI NARENDRA SINGH SINGHI AND * PUBLISHED BY SINGHI JAIN SASTRA SIKSHAPITHA BHARATIYA VIDYA BHAVAN BOMBAY Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KATHAKOŚA PRAKARANA OF ŚRI JINEŚVARA SŪRI CRITICALLY AND AUTHENTICALLY EDITED IN THE ORIGINAL PRAKRIT WITH AN ELABORATE INTRODUCTION IN HINDI BY ĀCHĀRYA JINA VIJAYA MUNI PUBLISHED BY SINGHI JAIN S'ASTRA S'IKSHAPITHA BHARATIYA VIDYA BHAVAN BOMBAY V. E. 2005) First Edition : Five Hundred Copies [1949 A. D. Vol. No. 11] sem [Price Rs. 10-8-0 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ सिंघीजैनग्रन्थमालासंस्थापकप्रशस्तिः ॥ भस्ति बङ्गाभिधे देशे सुप्रसिद्धा मनोरमा। मुर्शिदाबाद इत्याख्या पुरी वैभवशालिनी ॥ बहवो निवसन्त्यत्र जैना ऊकेशवंशजाः। धनाढ्या नृपसम्मान्या धर्मकर्मपरायणाः॥ श्रीडालचन्द इत्यासीत् तेष्वेको बहुभाग्यवान् । साधुवत् सच्चरित्रो यः सिंघीकुलप्रभाकरः ॥ बाल्य एवागतो यश्च कर्तुं व्यापारविस्तृतिम् । कलिकातामहापुर्या धृतधर्मार्थ निश्चयः॥ कुशाग्रीयस्वबुद्ध्यैव सद्वत्या च सुनिष्ठया। उपायं विपुलां लक्ष्मी कोट्यधिपोऽजनिष्ट सः ॥ तस्य मनुकुमारीति सन्नारीकुलमण्डना । अभूत् पतिव्रता पत्नी शीलसौभाग्यभूषणा । श्रीबहादुरसिंहाख्यो गुणवाँस्तनयस्तयोः । अभवत् सुकृती दानी धर्मप्रियश्च धीनिधिः ॥ प्राप्ता पुण्यवता तेन पनी तिलकसुन्दरी । यस्याः सौभाग्यचन्द्रेण भासितं तत्कुलाम्बरम् ॥ श्रीमान् राजेन्द्रसिंहोऽस्य ज्येष्ठपुत्रः सुशिक्षितः । यः सर्वकार्यदक्षत्वात् पितुर्दक्षिणबाहुवत् ।। मरेन्द्रसिंह इत्याख्यस्तेजस्वी मध्यमः सुतः । सूनुर्वीरेन्द्रसिंहश्च कनिष्ठः सौम्यदर्शनः ॥ सन्ति त्रयोऽपि सत्पुत्रा आप्तभक्तिपरायणाः। विनीताः सरला भव्याः पितुर्मार्गानुगामिनः ॥ अन्येऽपि बहवस्तस्याभवन् स्वस्रादिबान्धवाः । धनैर्जनैः समृद्धः सन् स राजेव व्यराजत ॥ अन्यच्चसरस्वत्यां सदासक्तो भूत्वा लक्ष्मीप्रियोऽप्ययम् । तत्राप्यासीत् सदाचारी तञ्चित्रं विदुषां खलु ॥ १३ नाहंकारो न दुर्भावो न विलासो न दुर्व्ययः । दृष्टः कदापि तद्गेहे सतां तद् विस्मयास्पदम् ॥ १४ भक्तो गुरुजनानां स विनीतः सजनान् प्रति । बन्धुजनेऽनुरक्तोऽभूत् प्रीतः पोष्यगणेष्वपि ॥ देश-कालस्थितिज्ञोऽसौ विद्या-विज्ञानपूजकः । इतिहासादि-साहित्य-संस्कृति-सत्कलाप्रियः ।। समुन्नत्यै समाजस्य धर्मस्योत्कर्षहेतवे । प्रचाराय च शिक्षाया दत्तं तेन धनं धनम् ॥ गत्वा सभा-समित्यादौ भूत्वाऽध्यक्षपदान्वितः । दत्वा दानं यथायोग्यं प्रोत्साहिताश्च कर्मठाः ॥ १८ एवं धनेन देहेन ज्ञानेन शुभनिष्ठया । अकरोत् स यथाशक्ति सत्कर्माणि सदाशयः ॥ अथान्यदा प्रसङ्गेन स्वपितुः स्मृतिहेतवे । कतु किञ्चिद् विशिष्टं स कार्य मनस्यचिन्तयत् ॥ पूज्यः पिता सदैवासीत् सम्यग-ज्ञानरुचिः स्वयम् । तस्मात् तज्ज्ञानवृद्ध्यर्थं यतनीयं मयाऽप्यरम् ॥ २१ विचार्यैवं स्वयं चित्ते पुनः प्राप्य सुसम्मतिम् । श्रद्धास्पदस्वमित्राणां विदुषां चापि ताशाम ॥ जैनज्ञानप्रसारार्थ स्थाने शान्ति नि के त ने । सिंधीपदाद्वितं जैन ज्ञानपीठ मतीष्टिपत ॥ श्रीजिनविजयः प्राज्ञो मुनिनाम्ना च विश्रुतः। स्वीकर्तुं प्रार्थितस्तेन तस्याधिष्ठायकं पदम् ॥ तस्य सौजन्य-सौहार्द-स्थैयौदार्यादिसद्गुणैः । वशीभूय मुदा येन स्वीकृतं तत्पदं वरम् ॥ कवीन्द्रेण रवीन्द्रेण स्वीयपावनपाणिना । रस-नागाङ्क-चन्द्राद्धे तत्प्रतिष्ठा व्यधीयत ॥ प्रारब्धं मुनिना चापि कार्यं तदुपयोगिकम् । पाठनं ज्ञानलिप्सूनां तथैव ग्रन्थगुम्फनम् ॥ तस्यैव प्रेरणां प्राप्य श्रीसिंघीकुलकेतुना । स्वपितृश्रेयसे चैषा प्रारब्धा ग्रन्थमालिका ॥ उदारचेतसा तेन धर्मशीलेन दानिना । व्ययितं पुष्कलं द्रव्यं तत्तत्कार्यसुसिद्धये ॥ छात्राणां वृत्तिदानेन नेकेषां विदुषां तथा । ज्ञानाभ्यासाय निष्कामसाहाय्यं स प्रदत्तवान् । जलवाय्वादिकानां तु प्रातिकूल्यादसौ मुनिः । कार्य त्रिवार्षिकं तत्र समाप्यान्यत्र चास्थितः ॥ तत्रापि सततं सर्व लाहाय्यं तेन यच्छता । ग्रन्थमालाप्रकाशाय महोत्साहः प्रदर्शितः ॥ नन्द-निध्येत-चन्द्राब्दे जाता पुनः सुयोजना । ग्रन्थावल्याः स्थिरत्वाय विस्तराय च नूतना ततः सुहृत्परामर्शात् सिंघीवंशनभस्वता । भा वि द्या भ व ना येयं ग्रन्थमाला समर्पिता ॥ आसीत्तस्य मनोवाञ्छाऽपूर्वा ग्रन्थप्रकाशने । तदर्थ व्ययितं तेन लक्षावधि हि रूप्यकम् ॥ दुर्विलासाद् विधेर्हन्त ! दौर्भाग्याच्चारमबन्धूनाम् । स्वल्पेनैवाथ कालेन स्वर्ग स सुकृती ययौ । इन्दु-ख-शून्य-नेत्राब्दे मासे आषाढसम्झके । कलिकाताख्यपुर्यां स प्राप्तवान् परमां गतिम् ॥ ३७ पितृभक्तैश्च तत्पुत्रैः प्रेयसे पितुरात्मनः । तथैव अपितुः स्मृत्यै प्रकाश्यतेऽधुना पुनः ॥ इयं ग्रन्थावलिः श्रेष्ठा प्रेष्ठा प्रज्ञावतां प्रथा। भूयाद् भूत्यै सतां सिंघीकुलकीर्तिप्रकाशिका ॥ विद्वज्जनकृताहादा सच्चिदानन्ददा सदा । चिरं नन्दत्वियं लोके श्रीसैंघी ग्रन्थपद्धतिः ॥ AGPSCWW. MMMMMMMMMmmmmmmmmm 00 SEW N ०. Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥सिंघीजैनग्रन्थमालासम्पादकप्रशस्तिः॥ स्वस्ति श्रीमेदपाटाख्यो देशो भारत विश्रुतः । रूपाहेलीति सन्नाम्नी पुरिका तत्र सुस्थिता ॥ सदाचार-विचाराभ्यां प्राचीननृपतेः समः । श्रीमच्चतुरसिंहोऽत्र राठोडान्वयभूमिपः ॥ 'तत्र श्रीवृद्धिसिंहोऽभूद् राजपुत्रः प्रसिद्धिभाक् । क्षात्रधर्मधनो यश्च परमारकुलाग्रणीः ॥ मुञ्ज-भोजमुखा भूपा जाता यस्मिन् महाकुले । किं वर्ण्यते कुलीनत्वं तत्कुलजातजन्मनः॥ पत्नी राजकुमारीति तस्याभूद् गुणसंहिता । चातुर्य-रूप-लावण्य-सुवाक्-सौजन्यभूषिता॥ क्षत्रियाणीप्रभापूर्णा शौर्योद्दीप्तमुखाकृतिम् । यां दृष्ट्वैव जनो मेने राजन्यकुलजा स्वियम् ॥ पुत्रः किसनसिंहाख्यो जातस्तयोरतिप्रियः । रणमल्ल इति चान्यद् यन्नाम जननीकृतम् ॥ श्रीदेवीहंसनामाऽत्र राजपूज्यो यतीश्वरः । ज्योतिभैषज्यविद्यानां पारगामी जनप्रियः॥ आगतो मरुदेशाद् यो भ्रमन् जनपदान् बहन् । जातः श्रीवृद्धिसिंहस्य प्रीति-श्रद्धास्पदं परम् ॥ तेनाथाप्रतिमप्रेम्णा स तत्सूनुः स्वसन्निधौ । रक्षितः, शिक्षितः सम्यक, कृतो जैनमतानुगः ॥ दौर्भाग्यात् तच्छिशोर्खाल्ये गुरु-तातौ दिवंगतौ । विमूढः स्वगृहात् सोऽथ यदृच्छया विनिर्गतः ॥ ११ २० तथा चभ्रान्त्वा नेकेषु देशेषु सेविस्वा च बहून् नरान् । दीक्षितो मुण्डितो भूत्वा जातो जैनमुनिस्ततः ॥ १२ ज्ञातान्यनेकशास्त्राणि नानाधर्ममतानि च । मध्यस्थवृत्तिना तेन तत्त्वातत्त्वगवेषिणा ॥ अधीता विविधा भाषा भारतीया युरोपजाः। अनेका लिपयोऽप्येवं प्रल-नूतनकालिकाः ॥ येन प्रकाशिता के ग्रन्था विद्वत्प्रशंसिताः। लिखिता बहवो लेखा ऐतिह्यतथ्यगुम्फिताः ॥ १५ स बहुभिः सुविद्वद्भिस्तन्मण्डलैश्च सत्कृतः । जिनविजयनाम्नाऽसौ ख्यातोऽभवद् मनीषिषु ॥ यस्य तां विश्रुति ज्ञात्वा श्रीमद्गान्धीमहात्मना । आहूतः सादरं पुण्यपत्तनात् स्वयमन्यदा ॥ पुरे चाहम्मदाबादे राष्ट्रीयशिक्षणालयः । विद्यापीठ इति ख्यातः प्रतिष्ठितो यदाऽभवत् ॥ आचार्यत्वेन तत्रोच्चैनियुक्तः स महात्मना । रस-मुनि-निधीन्द्वब्दे पुरातत्त्वाख्यमन्दिरे ॥ वर्षाणामष्टकं यावत् सम्भूष्य तत् पदं ततः । गत्वा जर्मनराष्ट्रे स तत्संस्कृतिमधीतवान् ।। तत भागत्य सल्लमो राष्ट्रकार्ये च सक्रियम् । कारावासोऽपि सम्प्राप्तो येन स्वराज्यपर्वणि ।। क्रमात् ततो विनिर्मुक्तः स्थितः शान्ति निकेतने। विश्ववन्द्यकवीन्द्रश्रीरवीन्द्रनाथभूषिते ॥ सिंधीपदयुतं जैनज्ञानपीठं तदाश्रितम् । स्थापितं तत्र सिंघीश्रीडालचन्दस्य सूनुना ।। श्रीबहादुरसिंहेन दानवीरेण धीमता । स्मृत्यर्थं निजतातस्य जैनज्ञानप्रसारकम् ॥ प्रतिष्ठितश्च तस्यासौ पदेऽधिष्ठातृसञ्ज्ञके । अध्यापयन् वरान् शिष्यान् ग्रन्थयन् जैनवाङ्मयम् ॥ तस्यैव प्रेरणां प्राप्य श्रीसिंघीकुलकेतुना । स्वपितृश्रेयसे ह्येषा प्रारब्धा ग्रन्थमालिका ॥ अथैवं विगतं यस्य वर्षाणामष्टकं पुनः । ग्रन्थमालाविकासार्थप्रवृत्तिषु प्रयस्थतः ॥ बाणे-रन-नेवेन्द्वब्दे मुंबाईनगरीस्थितः । मुंशीति बिरुदख्यातः कन्हैयालालधीसखः ॥ प्रवृत्तो भारतीयानां विद्यानां पीठनिर्मिती । कर्मनिष्ठस्य तस्याभूत् प्रयत्नः सफलोऽचिरात् ॥ २९ विदुषां श्रीमतां योगात् संस्था जाता प्रतिष्ठिता । भारतीय पदोपेत विद्या भ व न सज्ञया । माहूतः सहकाराय सुहृदा स मुनिः कृतौ । ततः प्रभृति तत्रापि सहयोगं प्रदत्तवान् ॥ तद्भवनेऽन्यदा तस्य सेवाऽधिका झपेक्षिता । स्वीकृता नम्रभावेन साऽप्याचार्यपदाश्रिता ॥ नन्द-निध्य-चन्द्राब्दे वैक्रमे विहिता पुनः । एतद्ग्रन्थावलीस्थैर्यकृत् तेन नव्ययोजना ॥ परामर्शात् ततस्तस्य श्रीसिंघीकुलभास्वता । भाविद्याभवनायेयं ग्रन्थमाला समर्पिता ॥ प्रदत्ता दशसाहस्त्री पुनस्तस्योपदेशतः । स्वपितृस्मृतिमन्दिरकरणाय सुकीर्तिना॥ दैवादल्पे गते काले सिंघीवों दिवंगतः। यस्तस्य ज्ञानसेवायां साहाय्यमकरोत् महत् ॥ पितृकार्यप्रगत्यर्थ यत्नशीलैस्तदात्मजैः । राजेन्द्रसिंहमुख्यैश्च सत्कृतं तद्वचस्ततः ॥ पुण्यश्लोकपितुर्नान्ना ग्रन्थागारकृते पुनः । बन्धुज्येष्ठो गुणश्रेष्ठो ह्यर्द्धलक्षं प्रदत्तवान् । ग्रन्थमालाप्रसिद्ध्यर्थ पितृवत्तस्य कांक्षितम् । श्रीसिंघीबन्धुभिः सर्वं तदुगिराऽनुविधीयते । विद्वजनकृताहादा सचिदानन्ददा सदा। चिरं नन्दत्वियं लोके जिनविजयभारती॥ ** * * Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंघी जैन ग्रन्थमाला > अद्यावधि मुद्रितग्रन्थनामावलि१ मेरुतुङ्गाचार्यरचित प्रबन्धचिन्तामणि मूल- । १२ यशोविजयोपाध्यायविरचित शान बिन्दुप्रक संस्कृत ग्रन्थ.. २ पुरातनप्रबन्धसंग्रह बहुविध ऐतिह्यतथ्य- १३ हरिषेणाचार्यकृत वृहत्कथाकोश. परिपूर्ण अनेक निबन्ध संचय. १४ जैनपुस्तकप्रशस्तिसंग्रह, प्रथम भाग. ३ राजशेखरसूरिरचित प्रबन्धकोश. १५ हरिभद्रसूरिविरचित धूतोख्यान. ४ जिनप्रभसूरिकृत विविधतीर्थकल्प. १६ दुर्गदेवकृत रिष्टसमुच्चय. ५ मेघविजयोपाध्यायकृत देवानन्दमहाकाव्य. १७ मेघविजयोपाध्यायकृत दिग्विजयमहाकाव्य. ६ यशोविजयोपाध्यायकृत जैनतर्कभाषा. १८ कवि अब्दुल रहमानकृत सन्देशरासक. ७ हेमचन्द्राचार्यकृत प्रमाणमीमांसा. १९ भर्तृहरिकृत शतकत्रयादि सुभाषितसंग्रह. ८ भट्टाकलङ्कदेवकृत अकलङ्कग्रन्थत्रयी. २० शान्त्याचार्यकृत न्यायावतारवार्तिक-वृत्ति. ९ प्रबन्धचिन्तामणि-हिन्दी भाषान्तर. २१ कवि धाहिल रचित पउमसिरीचरिउ. १० प्रभाचन्द्रसूरिरचित प्रभावकचरित. २२ महेश्वरसूरिकृत नाणपंचमीकहा. ११ सिद्धिचन्द्रोपाध्यायरचित भानुचन्द्रगणि- २३ भद्रबाहुसंहिता. चरित. | २४ जिनेश्वरसरिक्रत कथाकोषप्रकरण. Life of Hemachandrācharya: By Dr. G. Bühler. संप्रति मुद्यमाणग्रन्थनामावली - १ खरतरगच्छबृ लि. । ११ जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्र. .२ कुमारपालचरित्रसंग्रह. . | १२ कोऊहलविरचित लीलावतीकथा (प्राकृत). ३ विविधगच्छीयपटावलिसंग्रह, १३ गुणचन्द्रविरचित मंत्रीकर्मचन्द्रवंशप्रबन्ध. ४ जैनपुस्तकप्रशस्तिसंग्रह, भाग २. | १४ नयचन्द्रविरचित हम्मीरमहाकाव्य. ५ विज्ञप्तिसंग्रह विज्ञप्तिम हा ले ख-विज्ञप्ति त्रिवेणी आदि अनेक विज्ञप्तिलेख समुच्चय. १५ महेन्द्रसूरिकृत नर्मदासुन्दरीकथा. ६ उद्योतनसूरिकृत कुवलयमालाकथा. १६ जिनदत्ताख्यानद्वय (प्राकृत ). ७ उदयप्रभसूरिकृत धमोभ्युदयमहाकाव्य. १७ खयंभूविरचित पउमचरिउ (अपभ्रंश). ८ कीर्तिकौमुदी आदि वस्तुपालप्रशस्तिसंग्रह. १८ सिद्धिचन्द्रकृत काव्यप्रकाशखण्डन. ९ दामोदरकृत उक्तिव्यक्ति प्रकरण. १९ जयसिंहसूरिकृत धर्मोपदेशमाला. १० महामुनि गुणपालविरचित जंबूचरित्र (प्राकृत) | २० कौटल्यकृत अर्थशास्त्र-सटीक. ... मुद्रणार्थ निर्धारित एवं सज्जीकृतग्रन्थनामावलि १भानुचन्द्रगणिकृत विवेकविलासटीका. २ पुरातन रास-भासादिसंग्रह. ३ प्रकीर्ण वाख्याय प्रकाश. ४ सिद्धिचन्द्रोपाध्यायविरचित वासवदत्ताटीका. ५ देवचन्द्रसूरिकृत मूलशुद्धिप्रकरणवृत्ति. ६ रत्नप्रभाचार्यकृत उपदेशमाला टीका. ७ यशोविजयोपाध्यायकृत अनेकान्तव्यवस्था. ८ जिनेश्वराचार्यकृत प्रमालक्षण. ९ महानिशीथसूत्र. १० तरुणप्रभाचार्यकृत आवश्यकबालावबोध. ११ राठोडवंशावलि. १२ उपकेशगच्छप्रबन्ध. १३ वर्द्धमानाचार्यकृत गणरत्नमहोदधि, १४ प्रतिष्ठासोमकृत सोमसौभाग्यकाव्य. १५ नेमिचन्द्रकृत षष्ठीशतक (पृथक् पृथक् ३ बालावबोधयुक्त).१६ शीलांकाचार्य विरचित महापुरुषचरित्र (प्राकृत महाग्रन्थ). १७ चंदप्पहचरियं (प्राकृत). १८ नेमिनाहचरित्र (अपभ्रंशमहाग्रन्थ). १९ उपदेशपदटीका (वर्द्धमानाचार्यकृत). २० निर्वाणलीलावती कथा (सं. कथा प्रन्थ). २१ सनत्कुमारचरित्र (संस्कृत काव्यग्रन्थ). २२ राजवल्लभ पाठककृत भोजचरित्र. २३ प्रमोदमाणिक्यकृत वाग्भटालंकारवृत्ति. २४ सोमदेवादिकृत विदग्धमुखमण्डनवृत्ति. २५ समयसुन्दरादिकृत वृत्तरत्नाकरकृति. २६ पाण्डित्यदर्पण. २७ पुरातन प्रबन्धसंग्रह-हिन्दी भाषान्तर. २८ भुवनभानुचरित्र बालावबोध. २९ भुवनसुन्दरी चरित्र (प्राकृतकथा) इत्यादि, इत्यादि. * Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका ख० बाबू श्री बहादुरसिंहजी सिंघी और सिंघी जैन ग्रन्थमाला- स्मरणांजलि प्रास्ताविक वक्तव्य १२-१६ पृष्ठ कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वरसूरि * गणधरसार्धशतक तथा वृहद्गुर्वाव प्रस्तुत कथाकोष प्रकरणका प्रकाशन १-२ लिके वर्णनका सार २६-३३ प्रस्तुतग्रन्थकी प्राप्त प्रतियां १ । सोमतिलकसूरि वर्णित जिनेश्वर सूरिके चरितका सार ३३-३५ जिनेश्वर सूरिका समय और तत्कालीन वृद्धाचार्य प्रवन्धावलिगत जिनेश्वर परिस्थिति सूरिके चरितका सार ३६-३७ जिनेश्वर-सूरिके समयमें जैन यति । कथाओंके सारांशका तारण ३७ जनोंकी अवस्था अणहिल्लपुरके प्रसिद्ध जैन मन्दिर अणहिल्लपुरमें चैत्यवासियोंका प्रभाव ३ और जैनाचार्य जिनेश्वर सूरिका चैत्यवासियोंके ३८-४१ जिनेश्वर सूरिकी कार्यसफलता ४१-४३ विरुद्ध आन्दोलन विधिपक्ष अथवा खरतरगच्छका ७ जिनेश्वर सूरिकी ग्रन्थरचना ४३-७२ प्रादुर्भाव और गौरव जिनेश्वरीय ग्रन्थोंके विषयमें कुछ , जिनेश्वर सूरिके जीवनका अन्य विशेष विवेचन यतिजनोंपर प्रभाव (१) हारिभद्रीय अष्टक प्रकरणवृत्ति ४४ जिनेश्वरसूरिसे जैनसमाजमे नूतन (२) चैत्यवन्दनविवरण ४७ युगका आरंभ (३) षट्रस्थानक प्रकरण जिनेश्वर सूरिके जीवनचरितका (४) पंचलिंगी प्रकरण साहित्य ७-१९ (५)प्रमालक्ष्म अथवा प्रमालक्षण ५७ बुद्धिसागराचार्यकृत उल्लेख (६) निर्वाणलीलावती कथा ६० जिनभद्राचार्यकृत उल्लेख जैनकथासाहित्यका कुछ जिनचन्द्रसूरिकृत उल्लेख परिचय ६७ अभयदेवसूरिकृत उल्लेख निर्वाणलीलावती कथासारका वर्द्धमानाचार्यकृत उल्लेख देवभद्राचार्यकृत उल्लेख संक्षिप्त परिचय जिनदत्तसूरिकृत उल्लेख (७) कथाकोश प्रकरण ७३-१२४ जिनेश्वरसूरिके चरितकी साहित्यिक शालिभद्रकी कथाका सार ७५ सामग्री २१ सिंहकुमार नामक राजकुमारकी कथाका सार जिनेश्वरसूरिकी पूर्वावस्थाका परिचय२२-२६ जैनसांप्रदायिक विचारोंकी चर्चाका जिनेश्वरमरिके चरितका सार २६-४३ कुछ चित्रण क. अनु.81 ७९ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका। पृष्ठ ८५ " पृष्ठ मनोरथथावककी कथाका सार ७ जिनवन्दने विष्णुदत्त नागदत्तकथानकम् ३८-३९ रामका कहा हुआ लौकिक आख्यान ८४ ८ जिनगुणगाने सिंहकुमार ३९-४९ दत्तका कहा हुआ आख्यान ९ साधुवैयावृत्त्ये भरतचक्रवर्ति ५०-५५ पाश्वेश्रावकका कहा हआ कथानक ८७ १० साधुदानफले शालिभद्र ईश्वरकथानक कृतपुण्य ६५-६९ यक्ष श्रावकका कथानक १२ " आर्याचन्दना ७०-७१ वनदानपर धनदेवकी कथा मूलदेव ७२-७४ जैनमन्दिरोंकी पूजाविधिक विषयमें पूर्णश्रेष्टि ७४-७६ कुछ विचारणीय चर्चा सुन्दरी ७६-७८ जिनमन्दिरके विधान विषयमें मनोरथ ७८-८४ धवलवणिकपुत्रकी कथा [रामकथितलौकिकाख्यानकम्] ७९-८० कुन्तला रानीका आख्यान [दत्तश्रावककथिताख्यानकम् ] ८०-८१ सावधाचार्यका आख्यान । पार्श्वधावकोक्त पुण्डरीकाख्यानम् ] ८२-८३ वणिक्पुत्र दृष्टान्त १०० [पार्श्वश्रावककथितमीश्वराण्यानम् ] ८३-८४ संप्रदायभेद होनेके सूचक कथानक १०६ हरिणकथानकम् ८५-९० गुरुविरोधी मुनिचन्द्र साधुका कथानक १०७ घुतदान ९१-९२ श्वोताम्बर-दिगम्बर संघर्ष सूचक कथा ११० वसतिदान ९२-९३ जैन और बौद्ध भिक्षुओंके संघर्षकी कथा १११ क्खदान ब्राह्मण धर्मीय सांप्रदायिकों के साथ जैन वरश्राद्ध ९४-९५ __ साधुओंका संघर्ष सुभद्रा त्रिदंडी भक्त कमलवणिक्का कथानक ११६ ९५-१०१ २३ , मनोरमा शौचवादी ब्राह्मण भक्त कौशिक वणिक्का " १०१-१०४ कथानक २४ शासनोन्नतिकरणविषयकश्रेणिक , १०४-१०५ ब्राह्मणके उपद्रवसे जैन साधुकी रक्षा २५ , , दत्त " कका कथानक १२० २६ शासनदोषोद्भावने जयदेव ,, १०६-१०९ जिनेश्वर सूरिका विविध विषयक २७ , , देवड , १०९-११२ शास्त्रोंका परिज्ञान ___ १२३ २८ " " दुद्द , ११२-११३ २९ साधुगणदोषदर्शने कौशिकवणिक , ११३-११४ ३० , , कमल , गणधरसार्धशत प्रकरणान्तर्गत जिनेश्वर ३१ साधुजनापमाननिवारणे धनदेव , ११७-१२५ सूरि चरितवर्णनम् १-२२ ३२ विपरीतज्ञानफले धवल , १२५-१३५ खरतरगच्छपट्टावलिगतोल्लेख २३-२४ [सारद्याचार्यकथानकम्] के कथाकोषप्रकरण मूलग्रन्थानुक्रम के [वणिग्दारकदृष्टान्तः] ग्रन्थकारसूचितअभिधेयप्रयोजनादिकम् | ३३ जैनधर्मोत्साहप्रदाने प्रद्युम्नराज , १३५-१५० १ जिनपूजाविषयक शुकमिथुनककथानकम् २-११ ३४ विपरीतधर्मकथाकरणे मुनिचन्द्रसाधु , १५०-१६० नागदत्तकथानकम् ३५ शासनोन्नतिकरणे जयसेनरि ११-२१ , १६०-१७१ जिनदत्त २१-२७ ३६ जैनधर्मोत्साहप्रदाने सुन्दरीदस , १७१-१७९ सूरसेना २७-३४ कथानकगतवक्तव्यशेषम् १७९ श्रीमाली ग्रन्थलेखकप्रशस्तिः १८१ ६ , रोरनारी ३७-३८ ! कथानककोशप्रकरण-मूलसूत्रपाठ १८२-१८४ परिशिष्टात्मक । । । । । Mmm Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण ३५ वर्ष जितने जीवनके विशिष्ट कालव्यापी शास्त्रावगाहक, सौहार्दपूर्ण, सहचार एवं सहकार की सुखद स्मृतिके समुपलक्ष्यार्थ प्रज्ञा न न य न - पण्डित प्रवर श्री सुखलाल जी के करकमलमें * - जिन विजय Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ख० बाबू श्री बहादुर सिंहजी सिंघी और सिंघी जैन ग्रन्थ मा ला * [स्मरणाञ्ज लि]Y2मेर अनन्य आदर्शपोषक, कार्यसाधक, उत्साहप्रेरक और सहृदय नेहास्पद बाबू श्री बहादुर सिंहजी सिंघी, जिन्होंने मेरी विशिष्ट प्रेरणासे, अपने स्वर्गवासी साधुचरित पिता श्री डालचंदजी सिंघीके पुण्यस्मरण निमित्त, इस 'सिंधी जैन ग्रन्थमाला' की कीर्तिकारिणी स्थापना करके, इसके लिये प्रतिवर्ष हजारों रुपये खर्च करने की आदर्श उदारता प्रकट की थी, और जिनकी ऐसी असाधारण ज्ञानभक्तिके साथ अनन्य आर्थिक उदारवृत्ति देख कर, मैंने भी अपने जीवनका विशिष्ट शक्तिशाली और बहुत ही मूल्यवान् अवशेष उत्तर काल, इस ग्रन्थमालाके ही विकास और प्रकाशके लिये सर्वात्मना रूपसे समर्पित कर दिया था; तथा जिन्होंने इस ग्रन्थमालाका विगत १३-१४ वर्षों में ऐसा सुंदर, समृद्ध और सर्वादरणीय कार्यफल निष्पन्न हुआ देख कर, भविष्यमें इसके कार्यको और अधिक प्रगतिमान तथा विस्तीर्ण रूपमें देखनेकी अपने जीवनकी एक मात्र परम अभिलाषा रखी थी; और तदनुसार, मेरी प्रेरणा और योजनाका अनुसरण करके प्रस्तुत ग्रन्थमालाकी प्रबन्धात्मक कार्यव्यवस्था 'भारतीय विद्याभवन' को समर्पित कर देनेकी महती उदारता दिखा कर, जिन्होंने इसके भावीके सम्बन्धमें निश्चित हो जानेकी आशा की थी वह पुण्यवान् , साहित्यरसिक, उदारमनस्क, अमृताभिलाषी, अभिनन्दनीय आत्मा, अब इस ग्रन्थमालाके प्रकाशनोंको प्रत्यक्ष देखनेके लिये इस संसारमें विद्यमान नहीं है। सन् १९४४ की जुलाई मासकी ७ वीं तारीखको, ५९ वर्षकी अवस्थामें वह महान् आस्मा इस लोकमेंसे प्रस्थान कर गया । उनके भव्य, आदरणीय, स्पृहणीय, और श्लाघनीय जीवनको अपनी कुछ रणांजलि' प्रदान करनेके निमित्त, उनके जीवनका थोडासा संक्षिप्त परिचय आलेखित करना यहां योग्य होगा। सिंधीजीके जीवनके साथके मेरे खास खास स्मरणोंका विस्तृत आलेखन, मैंने उनके ही 'स्मारक ग्रन्थ' के रूपमें प्रकाशित किये गये 'भारतीय विद्या' नामक पत्रिकाके तृतीय भागकी अनुपूर्ति में किया है । उनके सम्बन्धमें विशेष जाननेकी इच्छा रखने वाले वाचकोंको वह 'स्मारक ग्रन्थ' देखना चाहिये। बाबू श्री बहादुर सिंहजीका जन्म बंगालके मुर्शिदाबाद परगनेमें स्थित अजीमगंज नामक स्थानमें संवत् १९४१ में हुआ था। वह बाबू डालचंदजी सिंघीके एकमात्र पुत्र थे। उनकी माता श्रीमती मनुकुमारी अजीमगंजके ही बैद कुटुम्बके बाबू जयचंदजीकी सुपुत्री थी । श्री मनकुमारीकी एक बहन जगतसेठजीके यहाँ ब्याही गई थी और दूसरी बहन सुप्रसिद्ध नाहर कुटुम्बमें ब्याही गई थी। कलकत्ताके स्व. सुप्रसिद्ध जैन स्कॉलर और अग्रणी व्यक्ति बाबू पूरणचंदजी नाहर, बाबू बहादुर सिंहजी सिंघीके मौसेरे भाई थे। सिंघीजीका ब्याह बालुचर - अजीमगंजके सुप्रसिद्ध धनाढ्य जैनगृहस्थ लक्ष्मीपत सिंहजीकी पौत्री और छत्रपत सिंहजीकी पुत्री श्रीमती तिलकसुंदरीके साथ, संवत् १९५४ में हुआ था। इस प्रकार श्री बहादुर सिंहजी सिंघीका कौटुम्बिक सम्बन्ध बंगालके खास प्रसिद्ध जैन कुटम्बोंके साथमें प्रगाढ रूपसे संकलित था। बाबू श्री बहादुर सिंहजीके पिता बाबू डालचंदजी सिंघी बंगालके जैन महाजनोंमें एक बहुत ही प्रसिद्ध और सच्चरित पुरुष हो गये हैं। वह अपने अकेले स्वपुरुषार्थ और स्वउद्योगसे, एक बहुत ही साधारण स्थितिके व्यापारीकी कोटिमेंसे कोट्यधिपतिकी स्थितिको पहुँचे थे और सारे बंगाल में एक सुप्रतिष्ठित और प्रामाणिक व्यापारीके रूपमें उन्होंने विशिष्ट ख्याति प्राप्त की थी । एक समय वे बंगालके सबसे Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंघी जैन ग्रन्थ माला। मुख्य व्यापार जूटके सबसे बड़े व्यापारी हो गये थे । उनके पुरुषार्थसे उनकी व्यापारी पेढी जो हरिसिंह निहालचंदके नामसे चलती थी, वह बंगालमें जूटका व्यापार करनेवाली देशी तथा विदेशी पेढीयोंमें सबसे बड़ी पेढी गिनी जाने लगी। बाबू डालचंदजी सिंघीका जन्म संवत् १९२१ में हुआ था और १९३५ में उनका श्रीमन्नुकुमारीके साथ विवाह हुआ। १४-१५ वर्षकी अवस्थामें डालचंदजीने अपने पिताकी दुकानका कारभार, जो कि उस समय बहुत ही साधारणरूपसे चलता था, अपने हाथमें लिया। वह अजीमगंज छोड कर कलकत्ता आये और वहाँ उन्होंने अपनी परिश्रमशीलता तथा उच्च अध्यवसायके द्वारा कारभारको धीरे धीरे बहुत ही बढाया और अंतमें उसको एक सबसे बड़े 'फर्म के रूपमें स्थापित किया। जिस समय कलकत्तामें 'जूट बेलर्स एसोसिएशन की स्थापना हई, उस समय बाब डालचंदजी सिंघी उसके सर्वप्रथम प्रेसिडेण्ट बनाये गये । जूटके व्यापारमें इस प्रकार सबसे बड़ा स्थान प्राप्त करने के बाद उन्होंने अपना लक्ष्य दूसरे दूसरे उद्योगोंकी ओर भी दिया। एक ओर उन्होंने मध्यप्रान्तस्थित कोरीया स्टेटमें कोयलेकी खानोंके उद्योगकी नींव डाली और दूसरी ओर दक्षिणके शकनि और अकलतराके राज्यों में स्थित चूनेके पत्थरोंकी खानोंके तथा बेलगाम, सावंतवाडी, इचलकरंजी जैसे स्थानों में आई हुई 'बोक्साइट' की खानोंके विकासकी शोधके पीछे अपना लक्ष्य केन्द्रित किया। कोयलेके उद्योगके लिये उन्होंने मेसर्स डालचंद बहादुरसिंह' इस नामकी नवीन पेढीकी स्थापना की: जो कि आज हिंदस्तान में एक अ पेढी गिनी जाती है। इसके अतिरिक्त उन्होंने बंगालके चोवीसपरगना, रंगपुर, पूर्णिया भादि परगनोंमें बड़ी जमींदारी भी खरीदी और इस प्रकार बंगाल के नामांकित जमींदारोंमें भी उन्होंने अपना खास स्थान प्राप्त किया। बाबू डालचंदजीकी ऐसी सुप्रतिष्ठा केवल व्यापारिक क्षेत्रमें ही मर्यादित नहीं थी। वह अपनी उदारता और धार्मिकताके लिये भी उतने ही सुप्रसिद्ध थे। उनकी परोपकारवृत्ति भी उतनी ही प्रशंसनीय थी। परंतु साथमें परोपकारसुलभ प्रसिद्धि से वे दूर रहते थे। बहुत अधिक परिमाणमें वे गुप्त रीतिसे ही अर्थी जनोंको अपनी उदारताका लाभ दिया करते थे। उन्होंने अपने जीवनमें लाखोंका दान किया होगा; परंतु उसकी प्रसिद्धिकी कामना उन्होंने स्वममें भी नहीं की। उनके सुपुत्र बाबू श्री बहादुर सिंहजीने प्रसंगवश मुझे कहा था कि वे जो कुछ दान आदि करते थे उसकी खबर वे मुझ तकको भी न होने देते थे। इसलिये उनके दान सम्बन्धी केवल २-४ प्रसङ्गोंकी ही खबर मुझे प्राप्त हो सकी थी। सन् १९२६ में 'चित्तरंजन सेवा सदन' के लिये कलकत्तामें चंदा किया गया था। उस समय एक वार खुद महात्माजी उनके मकान पर गये थे तब उन्होंने विना माँगे ही महात्माजीको इस कार्यके लिये १०००० दस हजार रुपये दिये थे। १९१७ में कलकत्तामें 'गवर्नमेण्ट हाउस' के मेदानमें, लॉर्ड कार्माइकलके सभापतित्वमें रेडक्रॉसके लिये एक उत्सव हुआ था उसमें उन्होंने २१००० रुपये दिये थे; तथा प्रथम महायुद्धके समय उन्होंने ३,००,००० रुपये के 'वॉर बॉण्डस्' खरीद कर सरकारी चंदे में मदद की थी। अपनी अंतिम अवस्थामें उन्होंने अपने निकट कुटुम्बी जनोंको-जिनकी आर्थिक स्थिति बहुत ही साधारण प्रकारकी थी उनको-बारह लाख रुपये बांट देनेकी व्यवस्था की थी, जिसका पालन उनके सुपुत्र बाबू बहादुर सिंहजीने किया था। बाबू डालचंदजीका गार्हस्थ्यजीवन बहुत ही आदर्शरूप था। उनकी धर्मपत्नी श्रीमती मनुकुमारी एक आदर्श और धर्मपरायणा पत्नी थी। पति-पत्नी दोनों सदाचार, सुविचार और सुसंस्कारकी मूर्ति जैसे थे । डालचंदजीका जीवन बहुत ही सादा और साधुत्वसे परिपूर्ण था। व्यवहार और व्यापार दोनों में उनका अत्यंत प्रामाणिक और नीतिपूर्वक वर्तन था। स्वभावसे वे बहुत ही शान्त और निरभिमानी थे। ज्ञानमार्गके ऊपर उनकी गहरी श्रद्धा थी। उनकी तत्वज्ञानविषयक पुस्तकों के पठन और श्रवणकी ओर अत्यधिक रुचि रहती थी। क्रिस्ननगर कॉलेजके एक अध्यात्मलक्षी बंगाली प्रोफेसर बाबू ब्रजलाल अधिकारी, जो योगविषयक प्रक्रियाके अच्छे अभ्यासी और तत्त्वचिंतक थे, उनके सहवाससे बाबू डालचंदजीकी भी यौगिक प्रक्रियाकी ओर खूब रुचि हो गई थी और इसलिये उन्होंने उनके पाससे इस विषयकी कुछ खास प्रक्रियाओंका गहरा अभ्यास भी किया था। शारीरिक स्वास्थ्य और मानसिक पवित्रताका जिससे विकास हो ऐसी ,व्यावहारिक जीवनके लिये अत्यंत उपयोगी, कितनी ही यौगिक प्रक्रियाओंकी ओर, उन्होंने अपनी पत्री तथा पुत्र-पुत्री आदिको भी अभ्यास करने के लिये प्रेरित किये थे। Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाबू श्री बहादुरसिंहजी- स्मरणांजलि । जैन धर्मके विशुद्ध तत्वोंके प्रचार और सर्वोपयोगी जैन साहित्यके प्रकाशनके लिये भी उनकी खास रुचि थी और पंडितप्रवर सुखलालजीके परिचयके बाद इस कार्यके लिये कुछ विशेष सक्रिय प्रयत्न करने की उनकी उत्कण्ठा जाग उठी थी। इस उत्कण्ठा को मूर्तरूप देनेके लिये वे कलकत्तामें २-४ लाख रुपये खर्च करके किसी साहित्यिक या शैक्षणिक केन्द्रको स्थापित करनेकी योजनाका विचार कर ही रहे थे जितनेमें एकाएक सन् १९२७ (वि. सं. १९८४)में उनका स्वर्गवास हो गया। बाबू डालचंदजी सिंघी, अपने समयके बंगाल निवासी जैन-समाजमें एक अत्यन्त प्रतिष्ठित व्यापारी, दीर्घदर्शी उद्योगपति, बडे जमींदार, उदारचेता सद्गृहस्थ और साधुचरित सत्पुरुष थे। वे अपनी यह सर्व सम्पत्ति और गुणवत्ताका समग्र वारसा अपने सुयोग्य पुत्र बाबू बहादुर सिंहजीके सुपूर्द कर गये, जिन्होंने अपने इन पुण्यश्लोक पिताकी स्थूल सम्पत्ति और सूक्ष्म सत्कीर्ति - दोनोंको बहुत ही सुंदर प्रकारसे बढ़ा कर पिताकी अपेक्षा भी सवाई श्रेष्ठता प्राप्त करनेकी विशिष्ट प्रतिष्ठा प्राप्त की थी। बाबू श्री बाहादुर सिंहजीमें अपने पिताकी व्यापारिक कुशलता, व्यावहारिक निपुणता और सांस्कारिक सनिष्ठा तो संपूर्ण अंशमें वारसेके रूपमें उतरी ही थी; परन्तु उसके अतिरिक्त उनमें बौद्धिक विशदता, कलात्मक रसिकता और विविधविषयग्राहिणी प्राञ्जल प्रतिभाका भी उच्च प्रकारका सभिवेश हुभा था और इसलिये वे एक असाधारण व्यक्तित्व रखनेवाले महानुभावोंकी पंक्तिमें स्थान प्राप्त करने की योग्यता हासिल कर सके थे। __ वे अपने पिताके एकमात्र पुत्र थे, अतएव उन पर, अपने पिताके विशाल कारभारमें, बचपनसे ही लक्ष्य देनेका कर्तव्य आ पड़ा था। फलस्वरूप वे हाइस्कुलका अभ्यास पूरा करनेके सिवाय कॉलेजमें जा कर अधिक अभ्यास करनेका अवसर प्राप्त नहीं कर सके थे । फिर भी उनकी ज्ञानरुचि बहुत ही तीन थी, अतएव उन्होंने स्वयमेव विविध प्रकारके साहित्यके वाचनका अभ्यास खूब ही बढ़ाया और इसलिये वे अंग्रेजीके सिवाय, बंगाली, हिंदी, गुजराती भाषाएँ भी बहुत अच्छी तरह जानते थे और इन भाषाओंमें लिखित विविध पुस्तकोंके पठनमें सतत निमग्न रहते थे। बचपनसे ही उन्हें प्राचीन वस्तुओंके संग्रहका भारी शौक लग गया था और इसलिये वे प्राचीन सिक्कों, चित्रों, मूर्तियों और वैसी दूसरी दूसरी मूल्यवान् चीजोंका संग्रह करनेके अत्यन्त रसिक हो गये थे। इसके साथ उनका जवाहिरातकी ओर भी खूब शौक बढ गयाथा अतः वे इस विषयमें भी खूब निष्णात बन गये थे । इसके परिणामस्वरूप उन्होंने अपने पास सिक्कों, चित्रों, हस्तलिखित बहुमूल्य पुस्तकों आदिका जो अमूल्य संग्रह एकत्रित किया वह आज हिंदुस्तानके इने गिने हुए नामी संग्रहोंमें, एक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त करे ऐसा है। उनके प्राचीन सिक्कों का संग्रह तो इतना अधिक विशिष्ट प्रकारका है कि उसका आज सारी दुनियामें तीसरा या चौथा स्थान आता है। वे इस विषयमें, इतने निपुण हो गये थे कि बड़े बड़े म्यूजियमोंके क्यूरेटर भी बार बार उनसे सलाह और अभिप्राय प्राप्त करनेके लिये उनके पास आते रहते थे। . वे अपने ऐसे उच्च सांस्कृतिक शोकके कारण देश-विदेशकी वैसी सांस्कृतिक प्रवृत्तियाँ करनेवाली अनेकों संस्थाओंके सदस्य आदि बने थे । उदाहरणस्वरूप-रॉयल एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल, अमेरिकन ज्योग्रॉफिकल सोसायटी न्यूयॉर्क, बंगीय साहित्य परिषद् कलकत्ता, न्यूमेस्मेटिक सोसायटी ऑफ इण्डिया-इत्यादि अनेक प्रसिद्ध संस्थाओंके वे उत्साही सभागद थे। साहित्य और शिक्षण विषयक प्रवृत्ति करनेवाली जैन तथा जैनेतर अनेकों संस्थाओं को उन्होंने मुक्तमनसे दान दे करके, इन विषयोंके प्रसारमें अपनी उत्कट अभिरुचिका उत्तम परिचय दिया था। उन्होंने इस प्रकार कितनी संस्थाओंको आर्थिक सहायता दी थी, उसकी सम्पूर्ण सूचितो नहीं मिल सकी है। ऐसे कार्यो में वे अपने पिताकी ही तरह, प्रायः मौन रहते थे और इसके लिये अपनी प्रसिद्धि प्रास करने की आकांक्षा नहीं रखते थे। उनके साथ किसी किसी वक्त प्रसंगोचित वार्तालाप करते समय, इस सम्बन्धी जो थोड़ी बहत घटनाएँ ज्ञात हो सकीं उसके आधार परसे, उनके पाससे आर्थिक सहायता प्राप्त करनेवाली कुछ संस्थाओंके नाम आदि इस प्रकार जान सका हूँ। Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंघी जैन ग्रन्थ माला । हिंदू एकेडेमी, दोलतपुर ( बंगाल ). रु० १५०००) तरक्की - उर्दू बंगाला. ५०००) हिंदी - साहित्य परिषद्द्भवन ( इलाहाबाद ) १२५००) विशुद्धानंद सरस्वती मारवाडी हॉस्पीटल, कलकत्ता. १००००) एक मेटर्निटी होम कलकत्ता. २५००) बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी. २५००) जीयागअ हाइस्कूल. ५०००) जीयागअ लण्डन मिशन हॉस्पीटल. ६०००J कलकत्ता- मुर्शिदाबाद जैन मन्दिर. ११०००) जैनधर्मप्रचारक सभा, मानभूम . ५०००) जैनभवन, कलकत्ता. १५०००) जैन पुस्तक प्रचारक मण्डल, आगरा. ७५००) जैन मंदिर, आगरा. ३५००) जैन हाइस्कूल, अंबाला. २१०००) जैन प्राकृतकोष के लिये, २५००) भारतीय विद्याभवन, बंबई. १००००) इसके अतिरिक्त हजार-हजार, पाँच-पाँचसोकीसी छोटी मोटी रकमें तो उन्होंने सैंकडों की संख्या में दी हैं, जिसका योग कोई डेढ दो लाख से भी अधिक होगा । 6 साहित्य और शिक्षणकी प्रगति के लिये सिंघीजी जितना उत्साह और उद्योग दिखलाते थे, उतने ही के सामाजिक प्रगति के लिये भी प्रयत्नशील थे । अनेक बार उन्होंने ऐसी सामाजिक सभाओं इत्यादि में प्रमुख रूपसे भाग ले करके अपने इस विषयका भान्तरिक उत्साह और सहकारभाव प्रदर्शित किया था । सन् १९२६ में बंबई में होनेवाली जैन श्वेताम्बर कॉन्फरन्सके खास अधिवेशनके वे सभापति बने थे । उदयपुर राज्यमें आये हुए केसरीयाजी तीर्थकी व्यवस्थाके विषय में स्टेटके साथ जो प्रश्न उपस्थित हुआ था उसमें उन्होंने सबसे अधिक तन, मन और धनसे सहयोग दिया था। इस प्रकार वे जैन समाज के हितकी प्रवृत्तियों में यथायोग्य सम्पूर्ण सहयोग देते थे; परंतु इसके साथ वे सामाजिक मूढता और साम्प्रदायिक कट्टरता के पूर्ण विरोधी भी थे । धनवान और प्रतिष्ठित गिने जाने वाले दूसरे रूढिभक्त जैनोंकी तरह वे संकीर्ण मनोवृत्ति या अन्धश्रद्धाकी पोषक विकृत भक्तिसे सर्वथा परे रहते थे । आचार, विचार एवं व्यवहार में वे बहुत ही उदार और विवेकशील थे । 1 उनका गाईस्थ्य जीवन भी बहुत सादा और साविक था । बंगालके जिस प्रकारके नवाबी गिने जाने वाले वातावरण में वे पैदा और बडे हुए थे उस वातावरणकी उनके जीवन पर कुछ भी खराब असर नहीं हुई थी और वे लगभग उस वातावरणसे बिलकुल अलिप्त जैसे थे । इतने बड़े श्रीमान् होने पर भी, श्रीमंताइके - धनिकता के बुरे विलास या मिथ्या आडम्बरले वे सदैव दूर रहते थे । दुर्व्यय और दुर्व्यसनके प्रति उनका भारी तिरस्कार था । उनके समान स्थितिवाले धनवान जब अपने मोज-शौक, आनंद-प्रमोद, विलास - प्रवास, समारम्भ- महोत्सव इत्यादिमें लाखों रुपये उड़ाते थे तब सिंघीजी उनसे बिलकुल विमुख रहते थे । उनका शौक केवल अच्छे वाचन और कलामय वस्तुओंके देखनेका तथा संग्रह करनेका था । जब देखो तब, वे अपनी गादी पर बैठे बैठे साहित्य, इतिहास, स्थापत्य, चित्र, विज्ञान, भूगोल और भूगर्भविद्यासे सम्बन्ध रखने वाले सामयिकों या पुस्तकों को पढते ही दिखाई दिया करते थे । अपने ऐसे विशिष्ट वाचनके शौकके कारण वे अंग्रेजी, बंगाली, हिंदी, गुजराती आदिमें प्रकाशित होने वाले उच्च कोटिके, उक्त विषयोंसे सम्बन्ध रखनेवाले विविध प्रकारके सामयिक पत्रों और जर्नलों को नियमित रूपसे मंगाते रहते थे। ऑर्ट, आर्किऑलॉजी, एपीग्राफी, ज्योग्रॉफी, आइकॉनोग्रॉफी, हिस्टरी और माइनिङ्ग आदि विषयोंकी पुस्तकोंकी उन्होंने अपने पास एक अच्छी लाइब्रेरी ही बना ली थी । वे स्वभावसे एकान्तप्रिय और अल्पभाषी थे । व्यर्थकी बातें करनेकी ओर या गपें मारनेकी ओर उनका बहुत ही अभाव रहता था । अपने व्यावसायिक व्यवहारकी या विशाल कारभारकी बातों में भी वे Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्व. बाबू श्री बहादुरसिंहजी सिंघी-स्मरणांजलि । बहुत ही मितभाषी थे। परंतु जब उनके प्रिय विषयोंकी-जैसे कि स्थापत्य, इतिहास, चित्र भादिकीचर्चा चलती तब उसमें वे इतने निमग्न हो जाते थे कि कितने ही घण्टे व्यतीत हो जाने पर भी वे उससे थकते नहीं थे और न किसी तरहकी व्याकुलताका अनुभव करते थे।। उनकी बुद्धि अत्यंत तीक्ष्ण थी। किसी भी वस्तुको समझने या उसका मर्म पकड़ने में उनको थोड़ा सा भी समय नहीं लगता था। विज्ञान और तत्वज्ञानकी गंभीर बातें भी वे अच्छी तरह समझ सकते थे और उनका मनन करके उन्हें पचा लेते थे। तर्क और दलीलबाजीमें वे बड़े बड़े कायदाबाजोंसे भी बाजी मार लेते थे तथा चाहे जैसा चालाक भी उन्हें अपनी चालाकीसे चकित या मुग्ध नहीं बना सकता था। __ अपने सिद्धान्त या विचारमें वे बहुत ही दृढ़मनस्क थे। एक बार कोई विचार निश्चित कर लेनेके बाद और किसी कार्यका स्वीकार कर लेनेके बाद उसमेंसे चल-विचल होना वे बिलकुल पसंद नहीं करते थे। व्यवहार में भी वे बहुत ही प्रामाणिक वृत्तिवाले थे। दूसरे धनवानोंकी तरह व्यापारमें छल-प्रपंच, धोखाघड़ी या सच-झूठ करके धन प्राप्त करनेकी तृष्णा उनको यत्किंचित् भी नहीं होती थी। उनकी ऐसी व्यावहारिक प्रामाणिकताको लक्ष्यमें रख करके इंग्लेण्डकी मर्केन्टाइल बेङ्कके डायरेक्टरोंकी बोर्डने अपनी कलकत्ताकी शाखाके बोर्ड में, एक डायरेक्टर होनेके लिये उनसे खास प्रार्थना की थी। इसके पहले किसी भी हिंदुस्तानी व्यापारीको यह मान प्राप्त नहीं हुआ था। प्रतिभा और प्रामाणिकताके साथ उनमें योजनाशक्ति भी बहुत उच्च प्रकारकी थी। उन्होंने अपनी ही स्वतंत्र बुद्धि और कुशलता द्वारा एक ओर अपनी बहुत बड़ी जमींदारीकी और दूसरी ओर कोलियारी आदि माइनिङ्गके उद्योगकी, जो सुव्यवस्था और सुघटना की थी, उसे देख करके उस-उस विषयके ज्ञाता लोग चकित हो जाते थे। अपने घरके छोटे से छोटे कामसे शुरु करके ठेठ कोलियारी जैसे बड़े कारखाने तकमें-जहाँ कि हजारों मनुष्य काम करते रहते हैं - बहुत ही नियमित, सुव्यवस्थित और सुयोजित रीतिसे काम चला करे, वैसी उनकी सदा व्यवस्था रहती थी। दरबानसे लगा कर अपने समवयस्क जैसे पुत्रों तकमें, एक समान, उच्च प्रकारका शिस्त-पालन और शिष्ट आचरण उनके यहाँ दृष्टिगोचर होता था । सिंधीजी में ऐसी समर्थ योजकशक्ति होने पर भी, और उनके पास सम्पूर्ण प्रकारकी साधन-सम्पमता होने पर भी, वे प्रपंचमय जीवनसे दूर रहते थे और अपने नामकी प्रसिद्धिके लिये या लोगोंमें बड़े आदमी गिनाने के लिये वैसी कोई प्रवृत्ति नहीं करते थे। रायबहादर, राजाबहादुर या सर-नाइट इत्यादि सरकारी उपाधियोंको धारण करनेकी या कोंसिलोंमें जा करके ओनरेबल बननेकी उनकी कभी इच्छा नहीं हुई थी। ऐसी आडम्बरपूर्ण प्रवृत्तियोंमें पैसेका दुर्व्यय करने की अपेक्षा वे सदा साहित्योपयोगी और शिक्षणोपयोगी कार्यों में अपने धनका सदृव्यय किया करते थे। भारतवर्षकी प्राचीन कला और उससे संबंध रखनेवाली प्राचीन वस्तुओंकी ओर उनका उत्कट अनुराग था और इसलिये उसके पीछे उन्होंने लाखों रुपये खर्च किये थे। सिंघीजी के साथ मेरा प्रत्यक्ष परिचय सन् १९३० में प्रारम्भ हुआ। उनकी इच्छा अपने सद्गत पुण्यश्लोक पिताके स्मारकमें, जिससे जैन साहित्यका प्रसार और प्रकाश हो वैसी. कोई विशिष्ट संस्था स्थापित करनेकी थी। मेरे जीवनके सुदीर्घकालीन सहकारी, सहचारी और सन्मित्र पंडितप्रवर श्रीसुखलालजी, बाबू श्री डालचंदजीके विशेष श्रद्धाभाजन थे; अतएव श्री बहादुर सिंहजी भी इन पर उतना ही विशिष्ट सदभाव रखते थे। पंडितजीके परामर्श और प्रस्तावसे, उन्होंने मुझसे इस कार्यकी योजना और व्यवस्था हाथमें लेने के लिये प्रार्थना की और मैंने भी अपनी अभीष्टतम प्रवृत्तिके आदर्शके अनुरूप, उत्तम कोटिके साधनकी प्राप्ति होती देख कर, उसका सहर्ष और सोल्लास स्वीकार किया । सन् १९३१ के पहले दिन, विश्ववंद्य कवीन्द्र श्री रवीन्द्रनाथ ठाकुरके विभूतिविहारसमान विश्वविख्यात शान्तिनिकेतनके विश्व भारती विद्याभवन में 'सिंघी जैन ज्ञानपीठ' की स्थापना की और वहाँ जैन साहित्य के अध्ययन-अध्यापन और संशोधन-संपादन आदिका कार्य प्रारम्भ किया । इस प्रसंगसे सम्बन्धित कुछ प्राथमिक वर्णन, इस ग्रन्थमालामें सबसे प्रथम प्रकाशित 'प्रबन्ध चिंतामणि' नामक ग्रन्थकी प्रस्तावनामें दिया गया है । इसलिये उसकी यहां पुनरुक्ति करना अनावश्यक है। सिंघीजीने मेरी प्रेरणासे 'सिंघी जैन ज्ञानपीठ' की स्थापनाके साथ, जैन-साहित्यके उत्तमोत्तम ग्रन्थरनोंको आधुनिक शास्त्रीय पद्धतिपूर्षक, योग्य विद्वानों द्वारा सुन्दर रीतिसे, संशोधित-संपादित करवाके प्रकाशित करने के लिये और वैसा करके जैन साहित्यकी सार्वजनिक प्रतिष्ठा स्थापित करनेके लिये इस "सिंधी Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंधी जैन ग्रन्थ मा ला । जैन ग्रन्थमाला' की विशिष्ट योजनाका भी सहर्ष स्वीकार किया और इसके लिये आवश्यक और अपेक्षित अर्थव्यय करनेका उदार उत्साह प्रदर्शित किया। प्रारम्भमें शान्तिनिकेतनको लक्ष्यमें रख कर, एक ३ वर्षका कार्यक्रम बनाया गया और तदनुसार वहाँ काम प्रारम्भ किया गया । परन्तु इन तीन वर्षोंके अनुभवके अन्त में, शान्तिनिकेतनका स्थान मुझे अपने कार्य और स्वास्थ्यकी दृष्टिसे बराबर अनुकूल प्रतीत नहीं हुआ। अतएव अनिच्छापूर्वक मुझे वह स्थान छोड़ना पड़ा और अहमदाबादमें 'गुजरात विद्यापीठ'के सन्निकट 'अने का न्त विहार' बना करके वहाँ इस कार्यकी प्रवृत्ति चालू रखी । इस ग्रन्थमालामें प्रकाशित ग्रन्थोंकी सर्वत्र उत्तम प्रशंसा, प्रसिद्धि और प्रतिष्टा देख कर सिंघीजीका उत्साह खूब बढ़ा और उन्होंने इस सम्बन्धमें जितना खर्च हो उतना खर्च करनेकी, और जसे बने वैसे अधिक संख्यामें ग्रन्थ प्रकाशित होते हुए देखनेकी अपनी उदार मनोवृत्ति मेरे सामने वारंवार प्रकट की। मैं भी उनके ऐसे अपूर्व उत्साहसे प्रेरित हो कर यथाशक्ति इस कार्यको, अधिक से अधिक वेग देनेके लिये प्रयत्नवान रहा। । सन् १९३८ के जुलाई मासमें, मेरे परम सुहृद् श्रीयुत कन्हैयालाल माणेकलाल मुंशीका-जो उस समय बंबईकी काँग्रेस गवर्नमेण्टके गृहमंत्रीके उच्च पद पर अधिष्टित थे-अकस्मात् एक पत्र मुझे मिला, जिसमें इन्होंने सूचित किया था कि 'सेठ मुंगालाल गोएनकाने दो लाख रुपयोंकी एक उदार रकम मुझे सुप्रत की है, जिसका उपयोग भारतीय विद्याओंके किसी विकासात्मक कार्यके लिये करना है और उसके लिये विचार-विनिमय करने तथा तदुपयोगी योजना बनानेके सम्बन्धमें मेरी आवश्यकता है अतएव मुझे तुरत बंबई आना इष्ट है' - इत्यादि । तदनुसार में तुरत बंबई आया और हम दोनोंने साथमें बैठ करके इस योजनाकी रूपरेखा तैयार की; और उसके अनुसार संवत् १९९५ की कार्तिक शुक्ला पूर्णिमाके दिन, श्री मुंशीजीके निवासस्थानपर 'भारतीय विद्याभवन' की, एक बृहत् समारम्भके साथ, स्थापना की गई। __ भवनके विकासके लिये श्रीमुंशीजीका अथक उद्योग, अखण्ड उत्साह और उदार आत्मभोग देख कर मेरी भी इनके कार्यमें यथायोग्य सहकार अर्पित करनेकी पूर्ण उत्कण्ठा हुई और मैं इसकी आन्तरिक व्यवस्थामें प्रमुख रूपसे भाग लेने लगा। भवनकी विविध प्रवृत्तियों में साहित्य प्रकाशन सम्बन्धी जो एक विशिष्ट प्रवृत्ति स्वीकृत की गई थी, वह मेरे इस ग्रन्थमालाके कार्यके साथ, एक प्रकारसे परस्पर साहायक स्वरूपकी ही प्रवृत्ति थी। अतएव मुझे यह प्रवृत्ति मेरे पूर्व अंगीकृत कार्यमें बाधक न हो कर उलटी साधक ही प्रतीत हुई और इसलिये मैंने इसमें यथाशक्ति अपनी विशिष्ट सेवा देनेका निर्णय किया। सिंघीजीको जब इस सारी वस्तुस्थितिसे परिचित किया गया, तब वे भी भवनके कार्यमें रस लेने लगे और इसके संस्थापक सदस्य बन करके इसके कार्यके प्रति उन्होंने अपनी पूर्ण सहानुभूति प्रकट की। जैसे मैंने ऊपर बतलाया है वैसे, ग्रन्थमालाके विकासके लिये सिंघीजीका उत्साह अत्यन्त प्रशंसनीय था और इसलिये मैं भी मेरे स्वास्थ्य आदिकी किसी प्रकारकी परवाह किये विना, इस कार्यकी प्रगतिके लिये सतत प्रयत्न करता रहता था। परन्तु ग्रन्थमालाकी व्यवस्थाका सर्व प्रकारका भार मेरे अकेलेके सिर पर आश्रित था, अतएव मेरा शरीर जब यह व्यवस्था करता करता रुक जाय, तब इसकी स्थिति क्या होगी इसका विचार भी मैं वारंवार किये करता था। दूसरी ओर सिंघीजीकी भी उत्तरावस्था होनेसे वे वारंवार अस्वस्थ होने लगे थे और वे भी जीवनकी अस्थिरताका आभास अनुभव करने लगे थे। इसलिये ग्रन्थमालाके भावीके विषयमें कोई स्थिर और सुनिश्चित योजना बना लेनेकी कल्पना हम बराबर करते रहते थे। __ भा० वि० भवनकी स्थापना होने के बाद ३-४ वर्षमें ही इसके कार्यकी विद्वानों में अच्छी तरह प्रसिद्धि और प्रतिष्ठा जमने लगी थी और विविध विषयक अध्ययन-अध्यापन और साहित्यिक संशोधन-संपादनका कार्य अच्छी तरहसे आगे बढ़ने लगा था। यह देख कर सुहृद्वर मुंशीजीकी खास आकांक्षा हुई कि 'सिंघी जैन ग्रन्थमाला'की कार्यव्यवस्थाका सम्बन्ध भी यदि भवनके साथ जोड़ दिया जाय, तो उससे परस्पर दोनोंके कार्यमें सुंदर अभिवृद्धि होनेके अतिरिक्त ग्रन्थमालाको स्थायी स्थान प्राप्त होगा और भवनको भी विशिष्ट प्रतिष्ठाकी प्राप्ति होगी, और इस प्रकार भवनमें जैन-शास्त्रोंके अध्ययनका और जैन-साहित्यके प्रकाशनका एक अद्वितीय केन्द्र बन जायगा । श्रीमुंशीजीकी यह शुभाकांक्षा, ग्रन्थमाला सम्बन्धी मेरी भावी चिंताका योग्य रूपसे निवारण करनेवाली प्रतीत हुई और इसलिये मैं उस विषयकी योजनाका विचार करने लगा। यथावसर सिंघीजीको मैंने श्रीमुंशीजीकी आकांक्षा और मेरी योजना सूचित की। वे भा० वि. भ. के स्थापक-सदस्य तो थे ही और तदुपरान्त श्रीमुंशीजीके खास स्नेहास्पद मित्र भी थे। इसलिये उनको भी यह योजना अपना लेने योग्य प्रतीत हुई । पंडितप्रवर श्री सुखलाल जी जो इस ग्रन्थमालाके क.52 Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१० स्व. बाबू श्री बहादुर सिंहजी सिंघी- स्मरणांजलि । भारम्भसे ही अंतरङ्ग हितचिंतक और सक्रिय सहायक रहे हैं, उनके साथ भी इस योजनाके सम्बन्धमें मैंने उचित परामर्श किया और संवत् २००५ के वैशाख शुक्ल (मई सन् १९४३) में सिंधीजी कार्यप्रसङ्गसे बंबई आये तब, परस्पर निर्णीत विचार-विनिमय करके, इस ग्रन्थमालाकी प्रकाशनसम्बन्धिनी सर्व व्यवस्था भवनके अधीन की गई। सिंघीजीने इसके अतिरिक्त उस अवसर पर, मेरी प्रेरणासे भवनको दूसरे और १० हजार रुपयोंकी उदार रकम भी दी, जिसके द्वारा भवनमें उनके नामका एक 'हॉल' बांधा जाय और उसमें प्राचीन वस्तुओं तथा चित्र आदिका संग्रह रखा जाय । भवनकी प्रबंधक समितिने सिंधीजीके इस विशिष्ट और उदार दानके प्रतिघोषरूपमें भवनमें प्रचलित 'जैनशास्त्र-शिक्षणविभाग'को स्थायी रूपसे "सिंघी जैनशास्त्र शिक्षापीठ' के नामसे प्रचलित रखनेका सविशेष निर्णय किया । ग्रन्थमालाके जनक और परिपालक सिंघीजी, प्रारम्भसे ही इसकी सर्व प्रकारकी व्यवस्थाका भार मेरे ऊपर छोड कर, वे तो केवल खास इतनी ही आकांक्षा रखते थे कि ग्रन्थमालामें किस तरह अधिकाधिक ग्रन्थ प्रकाशित हों और कैसे उनका अधिक प्रसार हो। इस सम्बन्धमें जितना खर्च हो उतना वे बहुत ही उत्साहसे करनेके लिये उत्सुक थे। भवनको ग्रन्थमाला समर्पण करते समय उन्होंने मुझसे कहा कि"अब तक तो वर्षमें लगभग २-३ ही ग्रन्थ प्रकट होते रहे हैं परन्तु यदि आप प्रकाशित कर सकें तो प्रतिमास दो दो ग्रन्थ प्रकाशित होते देख कर भी मैं तो अतृप्त ही रहँगा। जब तक आपका और मेरा जीवन है तब तक, जितना साहित्य प्रकट करने-करानेकी आपकी इच्छा हो तदनुसार आप व्यवस्था करें। मेरी ओरसे आपको पैसेका थोडासा भी संकोच प्रतीत नहीं होगा।" जैन साहित्यके उद्धारके लिये ऐसी उस्कट आकांक्षा और ऐसी उदार चित्तवृत्ति रखने वाला दानी और विनम्र पुरुष, मैंने मेरे जीवन में दूसरा और कोई नहीं देखा । अपनी उपस्थिति में ही उन्होंने मेरे द्वारा ग्रन्थमालाके खाते लगभग ७५००० (पोने लाख) रुपये खर्च किये होंगे। परन्तु उन १५ वर्षों के बीच में एक बार भी उन्होंने मुझसे यह नहीं पूछा कि कितनी रकम किस ग्रन्थके लिये खर्च की गई है या किस ग्रन्थके सम्पादनके लिये किसको क्या दिया गया है ? जब जब मैं प्रेस इत्यादिके बिल उनके पास भेजता तब तब, वे तो केवल उनको देख कर ही ऑफिसमें वह रकम चुकानेकी रिमार्कके साथ भेज देते। मैं उनसे कभी किसी बिलके बारेमें बातचीत करना चाहता, तो भी वे उस विषयमें उत्साह नहीं बतलाते और इसके बजाय ग्रन्थमालाकी साइज, टाईप, प्रिंटींग, बाइंडींग, हेडिङ्ग आदिके बारेमें वे खूब सूक्ष्मतापूर्वक विचार करते रहते और उस सम्बन्ध में विस्तारसे चर्चा किया करते । उनकी ऐसी अपूर्व ज्ञाननिष्ठा और ज्ञानभक्तिने ही मुझे उनके स्नेहपाशमें बद्ध किया और इसलिये मैं यत्किंचित् इस प्रकारको ज्ञानोपासना करनेमें समर्थ हुआ। उक्त प्रकारसे भवनको ग्रन्थमाला समर्पित करनेके बाद, सिंघीजीकी उपर बतलाई हुई उस्कट आकांक्षा लक्ष्यमें आनेसे, मेरा प्रस्तुत कार्यके लिये और भी अधिक उत्साह बढा । मेरी शारिरिक स्थिति, इस कार्यके अविरत श्रमसे प्रतिदिन बहुत अधिक तीवताके साथ क्षीण होती रही है, फिर भी मैंने इस कार्यको अधिक वेगवान और अधिक विस्तृत बनानेकी दृष्टिसे कुछ योजनाएं बनानी शुरू की। अनेक छोटे बड़े ग्रन्थ एकसाथ प्रेसमें छपनेके लिये दिये गये और दूसरे वैसे अनेक नवीन नवीन ग्रन्थ छपानेके लिये तैयार किये जाने लगे। जितने अन्थ अब तकमें कुल प्रकट हुए थे उतने ही दूसरे ग्रन्थ एक साथ प्रेसमें छपने शुरु हुए और उनसे भी दूनी संख्याके ग्रन्थ प्रेस कॉपी आदिके रूपमें तैयार होने लगे। - इसके बाद थोड़े ही समयके पीछे-अर्थात् सेप्टेम्बर १९४३ में-भवनके लिये कलकत्ताके एक निवृत्त प्रोफेसरकी बड़ी लाईब्रेरी खरीदनेके लिये मैं वहाँ गया। सिंधीजी द्वारा ही इन प्रोफेसरके साथ बातचीत की गई थी और मेरी प्रेरणासे यह सारी लाईब्रेरी, जिसकी किंमत ५० हजार रुपये जितनी मांगी गई थी, सिंघीजीने अपनी ओरसे ही भवनको भेट करनेकी अतिमहनीय मनोवृत्ति प्रदर्शित की थी। परन्तु उन प्रोफेसरके साथ इस लाईब्रेरीके सम्बन्धमें योग्य सोदा नहीं हो सका तब सिंधीजीने कलकत्ताके सुप्रसिद्ध स्वर्गवासी जैन सद्गृहस्थ बाबू पूर्णचन्द्रजी नाहरकी बड़ी लाईब्रेरी ले लेनेके विषय में मुझे अपनी सलाह दी और उस सम्बन्धमें स्वयं ही योग्य प्रकारसे उसकी व्यवस्था करनेका भार अपने सिर पर लिया। कलकत्तामें और सारे बंगालमें उस वर्ष अन्न-दुर्भिक्षका भयंकर कराल-काल चल रहा था। सिंधीजीने अपने वतन अजीमगंज-मुर्शिदाबाद तथा दूसरे अनेक स्थलोंमें गरीबोंको मुफ्त और मध्यमवित्तोंको अल्प मूल्यमें हजारों मन धान्य वितीर्ण करनेकी उदार और बड़ी व्यवस्था की थी, जिसके निमित्त उन्होंने उस वर्षमें Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंघी जैन ग्रन्थ मा ला। ६११ लगभग तीन साढे तीन लाख रुपये खर्च खाते लिख डाले थे। बंगालके निवासियोंमें और जमींदारोंमें इतना बड़ा उदार आर्थिक भोग उस निमित्तसे अन्य किसीने दिया हो वैसा प्रकाशमें नहीं आया। ___ अक्टूबर-नवम्बर मासमें उनकी तबियत बिगड़नी शुरु हुई और वह धीरे धीरे अधिकाधिक शिथिल होती गई। जनवरी, १९४४ के प्रारम्भमें, में उनसे मिलनेके लिये फिर कलकत्ता गया। ता. ६ जनवरीकी संध्याको उनके साथ बैठ कर ३ घण्टे पर्यंत ग्रन्थमाला, लाईब्रेरी, जैन इतिहासालेखन आदिके सम्बन्धमें खूब उत्साह पूर्वक बातचीत हुई। परन्तु उनको मानों अपने जीवनकी अल्पताका आभास हो रहा हो उस प्रकारसे, वे बीच बीचमें वैसे उद्गार भी निकालते जाते थे। ५-७ दिन रह करके मैं बंबई आनेके लिये निकला तब वे बहुत ही भावप्रवणतापूर्वक मुझे विदाई देते समय बोले कि “कौन जाने अब फिर अपने मिलेंगे या नहीं?" मैं उनके इन दुःखद वाक्योंको बहुत ही दबे हुए हृदयसे सुनता और उद्वेग धारण करता हुआ उनसे सदाके लिये अलग हुआ। उसके बाद उनका साक्षात्कार होनेका प्रसङ्ग ही नहीं आया । ५-६ महीने तक उनकी तबियत अच्छी-बुरी चलती रही और अंतमें जुलाईकी (सन् १९४४) ७ वी तारीखको वे अपना विनश्वर शरीर छोड़ कर परलोकमें चले गये । मेरी साहित्योपासनाका महान् सहायक, मेरी क्षुद्र सेवाका महान् पोषक और मेरी कर्तव्यनिष्ठाका महान् प्रेरक सहृदय सुपुरुष, इस असार संसारमें मुझे शून्य हृदय बना करके स्वयं महाशून्यमें विलीन हो गया। ___ यद्यपि सिंधीजीका इस प्रकार नाशवान् स्थूल शरीर इस संसारमेंसे विलुप्त हो गया है परन्तु उनके द्वारा स्थापित इस ग्रन्थमालाके द्वारा उनका यशःशरीर, सैंकडों वर्षों तक, इस संसार में विद्यमान रह करके उनकी कीर्ति और स्मृतिकी प्रशस्तिका प्रभावदर्शक परिचय भावी जनताको सतत देता रहेगा। सिंघीजीके सुपुत्रोंका सत्कार्य सिंधीजीके स्वर्गवाससे जैन साहित्य और जैन संस्कृति के महान् पोषक नररत्नकी जो बड़ी कमी है उसकी तो सहज भावसे पूर्ति नहीं हो सकती है। परन्तु मुझे यह देख कर हृदयमें उच्च आशा और आश्वासक आह्लाद होता है कि उनके सुपुत्र श्री राजेन्द्र सिंहजी, श्री नरेन्द्र सिंहजी और श्री वीरेन्द्र सिंहजी अपने पिताके सुयोग्य संतान हैं। अतएव वे अपने पिताकी प्रतिष्ठा और प्रसिद्धि के कार्यमें अनुरूप भाग ले रहे हैं और पिताकी भावना और प्रवृत्तिका उदारभावसे पोषण कर रहे हैं। सिंधीजीके स्वर्गवासके बाद इन बंधुओंने अपने पिताके दान-पुण्यनिमित्त अजीमगंज इत्यादि स्थानों में लगभग ५०-६० हजार रुपये खर्च किये थे। उसके बाद थोडे ही समयमें सिंघीजीकी वृद्धा माताका भी स्वर्गवास हो गया और इसलिये अपनी इस परम पूजनीया दादीमाके पुण्यनिमित्त भी इन बन्धुओंने ७०-७५ हजार रुपयोंका व्यय किया। 'सिंघी जैन ग्रन्थमाला' का पूरा भार तो इन सिंघी बन्धुओंने पिताजीद्वारा निर्धारित विचारानुसार, पूर्ण उत्साहसे अपने सिर ले ही लिया है और इसके अतिरिक्त कलकत्ताके इण्डियन रीसर्च इन्स्टीट्यटको बंगालीमें जैन साहित्य प्रकाशित करवानेकी दृष्टिसे सिंघीजीके स्मारकरूपमें ५००० रुपयोंकी प्रारम्भिक मदद दी। सिंघीजीके ज्येष्ठ चिरंजीव बाबु श्री राजेन्द्र सिंहजीने मेरी कामना और प्रेरणाके प्रेमसे वशीभूत होकर अपने पुण्यश्लोक पिताकी अज्ञात इच्छाको पूर्ण करनेके लिए, ५० हजार रुपयोंकी स्पृहणीय रकम भारतीय विद्याभवनको दान स्वरूप दी और उसके द्वारा कलकत्ताकी उक्त नाहर लाईब्रेरी खरीद करके भवनको एक अमूल्य साहित्यिक निधिके रूपमें भेट की है। भवनकी यह भव्य निधि 'बाबू श्री बाहादर सिंहजी सिंघी लाईब्रेरी' के नामसे सदा प्रसिद्ध रहेगी और सिंघीजीके पुण्यस्मरण की एक बड़ी ज्ञानप्रपा बनेगी। बाबू श्री नरेन्द्र सिंहजीने, अपने पिताने बंगालकी सराक जातिके सामाजिक एवं धार्मिक उत्थानके निमित्त जो प्रवृत्ति चाल की थी, उसको अपना लिया है और उसके संचालनका भार प्रमुख रूपसे स्वयं ले लिया है। (सन् १९४४) के नवंबर मासमें, कलकत्तामें दिगम्बर समाजकी ओरसे किये गये 'वीरशासन जयंती महोत्सव' के प्रसङ्ग पर उस कार्य के लिये इन्होंने ५००० रुपये दिये थे तथा कलकत्तामें जैन श्रेताम्बर समुदायकी ओरसे बांधे जाने वाले "जैन भवन" के लिये ३१००० रुपये दान करके अपनी उदारताकी शुभ शुरुवात की है। भविष्यमें 'सिंघी जैन ग्रन्थमाला' का सर्व आर्थिक भार इन दोनों बन्धुभोंने उत्साहपूर्वक स्वीकार कर लेनेकी अपनी प्रशंसनीय मनोभावना प्रकट करके, अपने स्वर्गीय पिताके इस परम पुनीत यशोमंदिरको उत्तरोत्तर उन्नत स्वरूप देनेका शुभ संकल्प किया है । तथास्तु । सिंघी जैन शास्त्रशिक्षापीठ -जि न वि ज य मुनि भारतीय क्यिा भवन, बंबई. । Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविक व क्त व्य जिनेश्वरसूरि विरचित 'प्रा म लक्षण' ग्रन्थ के विषय में एक छोटासा लेख मैंने सन् १९१७ के सितम्बर मास में ( जब मैं बम्बई में चातुर्मास के समय रहा था ) लिखा था; जो, मेरे विद्वान् सुहृद्वर पं० श्री नाथूरामजी प्रेमी द्वारा संपादित 'जै न हि तैषी' पत्रमें ( भाग १३. अङ्क ९–१०) प्रकाशित हुआ था । उस छोटेसे लेखमें मैंने जिनेश्वर सूरिके व्यक्तित्व और कार्यकलापके विषयमें तथा उनके रचे हुए 'प्रमालक्षण' ग्रन्थ के परिचयके रूपमें कुछ विचार प्रकट किये थे । लेकिन उसकी कुछ विशेष स्मृति नहीं रही थी । प्रस्तुत कथाकोष नामक मूल ग्रन्थका मुद्रण कार्य जब समाप्त हुआ और इसका कुछ प्रास्ताविक वक्तव्य लिखनेका प्रसंग आया तो, उस लेखकी स्मृति हो आई । परंतु जैन हितैषीका वह अङ्क मेरे पास नहीं मिला । इसलिये श्रीयुत प्रेमीजीके पास से उसको प्राप्त करके ध्यानपूर्वक पढा तो मुझे लगा कि प्रास्ताविक रूपमें यह लेख ही दे दिया जाय तो ठीक है, क्यों कि इस छोटेसे लेख में ३० वर्ष पहले मैंने जो विचार प्रकट किये हैं उनमें आज भी कोई किसी प्रकारकी भ्रान्ति या अशुद्धि दृष्टिगोचर नहीं हो रही है और ना ही ऐसी कोई मौलिक अभिवृद्धि करने जैसी विशेष बात ही ज्ञात हुई है, जिससे इस विषय में कुछ विशेष संशोधन या परिवर्तन करने जैसा कोई विचार स्फुरित हो । परंतु 'प्रास्ताविक वक्तव्य' के रूप में प्रस्तुत ग्रन्थकी प्रतियों वगैरहका कुछ प्रासंगिक परिचय देना तो आवश्यक था ही, और कुछ प्रन्थके स्वरूपके विषय में भी लिखना प्राप्त था; अतः इस दृष्टिसे जब कुछ लिखना प्रारम्भ किया और साथमें उस पुराने लेखके विचारोंका मननपूर्वक सिंहावलोकन किया, तो जिनेश्वर सूरि समयकी जैन समाज की परिस्थितिका एक विशद चित्र आँखोंके सामने उठने लगा । उनके समयका और उनके बादके २००-३०० वर्षोंका जैन इतिहासका सिंहावलोकन करने पर, वह चित्र और भी अधिक रूपमें प्रस्फुटित होने लगा और उसमें जिनेश्वर सूरिकी शिष्यसंतति के विशिष्ट कार्य-कलापका भी विविध प्रकारका रेखांकण दृष्टिगोचर होने लगा । अतः उस चित्र के समग्र आभासको फिरसे शब्दबद्ध करनेकी कुछ इच्छा हो आई और उस दृष्टिसे थोडा बहुत नया 'प्रास्ताविक कथन' लिखनेका उपक्रम किया । १५-२० पृष्ठों में सब कुछ वक्तव्य समाप्त करनेकी कल्पना थी । 'कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वरसूरि' शीर्षकके साथ आगेके १२४ पृष्ठोंमें जो प्रकरण लिखे गये हैं उनमें के पहले '१. प्रस्तुत कथाकोप प्रकरणका प्रकाशन' और '२. जिनेश्वरसूरिका समय और तत्कालीन परिस्थिति' ये दो प्रकरण लिख लेनेके बाद, जब तीसरा प्रकरण '३. जिनेश्वरसूरिके जीवनचरितका साहित्य' नामक लिखनेका उपक्रम किया तो उसके लिये कुछ ऐसे ग्रन्थोंके अवतरण देखनेकी आवश्यकता उत्पन्न हुई जो पासमें नहीं थे । अतः उनको प्राप्त करनेके लिये मैं १९४६ के जूनजुलाई में पूना गया और वहाँ भाण्डारकर ओरिएण्टल रीसर्च इन्स्टीट्यूट में संरक्षित राजकीय ग्रन्थसंग्रहके ग्रंथोंमेंसे अपेक्षित उद्धरण मैंने एकत्र किये । फिर वहीं कुछ दिन रह कर, वह प्रकरण और उसके बादके ‘४. जिनेश्वरसूरि के चरितकी साहित्यिक सामग्री'; ५. जिनेश्वरसू रिकी पूर्वावस्थाका परिचय' और '६. जिनेश्वरसूरिके चरितका सार' ये तीन प्रकरण और लिख डाले और उनको प्रेस में छपनेके लिये भेज दिये । उसके आगेके ७ वें प्रकरण में प्रस्तुत कथाकोष ग्रन्थका कुछ थोडासा परिचय लिख कर उक्त प्रास्ताविक वक्तव्यको समाप्त करनेका विचार किया था; लेकिन Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविक वक्तव्य ११३ उसको लिखते समय, फिर साथमें यह भी थोडासा विचार हो आया, कि जब जिनेश्वर सूरिके चरितके विषय में इतना विस्तारसे लिखा गया है तो फिर उनके रचे हुए उपलब्ध सभी ग्रन्थोंका मी थोडा थोडा परिचय दे दिया जाय तो उससे जिज्ञासु वाचक वर्गको, उनके शब्दात्मक ज्ञानदेह स्वरूपका भी कुछ परिचय हो जायगा । इस विचारसे फिर 'जिनेश्वरसूरिकी ग्रन्थरचना ' इस ७ वें प्रकरणका लिखना आरम्भ किया । इसके २-४ पृष्ठ ही लिखे गये थे कि उतने में मुझे कार्यवश बम्बई आना पड़ा । और फिर अन्यान्य संपादनों आदि के कार्य में, इसका लिखना वहीं अटक गया । उधर प्रेस में जो लिखान भेजा गया था वह भी प्रेसकी शिथिलता के कारण महिनों तक वैसे ही पड़ा रहा और उसका छपना प्रारम्भ ही नहीं हुआ । बाद में उदयपुर में होने वाले 'अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन' के स्वागताध्यक्ष के पदका कार्य कुछ सिर पर आ कर पड जानेसे तथा फिर उसी उदयपुर ही में महाराणा द्वारा प्रस्तुत की गई 'प्रताप विश्वविद्यालय' की स्थापनाकी योजना में कुछ भाग लेनेकी परिस्थिति उत्पन्न हो जानेसे, एवं फिर कलकत्ता आदि स्थानों में कुछ समय रहनेका निमित्त आ जानेसे, इस प्रकरणका लेखनकार्य आगे बढ ही नहीं सका और जो विचार पूनाके उस प्रशान्त स्थान और मनोरम वातावरणके बीच में रहते हुए, मनमें उपस्थित हो कर आँखों के सामने संगठित हुए थे, वे सब विखरसे गये । कोई वर्ष डेढ वर्ष बाद जा कर प्रेसने पूनासे भेजे हुए प्रकरणों का काम छापना शुरू किया, ६-७ महीनोंमें जा कर कहीं ५ - ६ फार्म छप कर तैयार हुए । तब फिर पिछले वर्ष के ( सं. १९०४ के ) फाल्गुण मासमें एकाग्र हो कर अवशिष्ट प्रकरणका लिखान पूर्ण किया और प्रेस में दिया - जिसकी छपाई की समाप्ति अब इस वर्तमान सं. १९०५ के फाल्गुण मासमें हो कर, यह ग्रन्थ इस रूप में वाचकवर्गके करकमलमें उपस्थित हो रहा है । जैसा कि मैंने ऊपर सूचित किया है, इस निबन्धमें मैंने कोई विशेष नूतन तथ्य नहीं आलेखित किये हैं; उसी पुराने छोटेसे लेखमें जो विचार मैंने संक्षेप में अंकित किये थे उन्हीं का एक विशद भाष्यसा यह निबन्ध है । इस निबन्ध में जो कुछ भी ऐतिहासिक पर्यवेक्षण मैंने किया है वह प्रायः साधार है । इसकी प्रत्येक पंक्तिके लिये पुरातन ग्रन्थोंके प्रमाणभूत उद्धरण दिये जा सकते हैं । प्रस्तावनाका कलेवर न बढ जाय और सामान्य पाठकों को प्रस्तुत विवेचन कुछ जटिलसा न लगे इस कारण मैंने उन उद्धरणोंका अवतारण करना यहां उपयुक्त नहीं समझा । जो कुछ विचार मैंने यहां पर प्रदर्शित किये हैं वे सूत्रात्मक रूपमें संक्षेप में हैं । इस इतिहासको विशेष रूपसे लिखनेके लिये तो और कोई प्रसङ्ग अपेक्षित है । जैन इतिहासका यह काल बहुत ही अर्थसूचक, स्फूर्तिदायक और महत्त्वदर्शक है इसमें कोई सन्देह नहीं । सिंघी जैनग्रन्थमालाके कथासाहित्यात्मक विविध मणि जैन कथासाहित्यकी जिस विशाल समृद्धिका संक्षिप्त निर्देश, मैंने आगे के निबन्ध में (पृ. ६७-७० पर ) 'जैन कथासाहित्यका कुछ परिचय' इस शीर्षक नीचे किया है, उस समृद्धिके परिचायक कुछ विशिष्ट एवं प्राचीन ग्रन्थोंको प्रकाशमें लानेकी दृष्टिसे जिन प्रकीर्ण कथासंग्रहात्मक बहुमूल्य मणियों का इस ग्रन्थमाला में गुम्फन करना मैंने अभीष्ट समझा है, उन्हींमेंसे यह एक विशिष्ट मणि है - यह इसके पढनेसे पाठकोंको स्वयं ही प्रतीत हो जायगा । Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथाकोष प्रकरण सबसे पहले इस श्रेणिका जो मूल्यवान् मणि प्रकट किया गया है वह है महान् ग्रन्थकार हरिभद्रसूरिका प्राकृत 'धूर्ताख्यान' ग्रन्थ । यह ग्रन्थ समुच्चय भारतीय साहित्यमें अपने ढंगकी मौलिक ग्रन्थ पद्धतिका एक उत्तम उदाहरणभूत है । हमारे प्रियतर सुहृद्वर डॉ० ए० एन० उपाध्येने इस ग्रन्थका इंग्रेजीमें बहुत अध्ययनपूर्ण जो सुविस्तृत तुलनात्मक समवलोकन लिखा है, वह विद्वानोंके लिये एक विशेष अध्ययनकी चीज है । ___ उसके बाद दिगंबराचार्य हरिषेणकृत 'बृहत्कथाकोष' नामका (संस्कृत पद्यबद्ध) बडा ग्रन्थ इन्हीं विद्वद्वर डॉ० ए० एन० उपाध्ये द्वारा उत्तम प्रकारसे सम्पादित हो कर प्रकाशित हुआ है, जिसके अवलोकनसे दिगम्बर सम्प्रदायके आचार्योंकी कथाग्रन्थन शैली कैसी थी इसका अच्छा परिज्ञान होता है । इसी श्रेणीका तीसरा, प्रस्तुत ग्रन्थ है- जिसका विस्तृत परिचय हमने आगेके पृष्ठोंमें आलेखित किया है । इसी के साथ इसी श्रेणिका एक ४ था ग्रन्थ प्रकाशित हो रहा है जो प्रस्तुत ग्रन्थसे प्रायः २०० वर्ष पूर्वकी रचना है । यह है जयसिंह सूरिरचित धर्मोपदेशमाला । प्राकृत भाषामें बहुत ही संक्षेपमें सैंकडों प्राचीन जैन कथाएँ इस ग्रन्थमें ग्रथित की गई हैं । प्राकृत साहित्यके मर्मज्ञ पंडित श्रीलालचंदजी गांधीने इसका सम्पादन किया है। ऐसा ही ५ वां ग्रन्थ भी जो इन्हीं ग्रन्थोंके साथ विद्वानोंको उपलब्ध हो रहा है वह है महेश्वरसूरिकृत 'ज्ञानपंचमीकथा' । प्राकृत भाषा और सुंदर उपदेशकी दृष्टिसे यह ग्रन्थ एक रत्नतुल्य रम्य कृति है। भारतीय विद्याभवनके प्राकृत वाङ्मयके प्राध्यापक डॉ. अमृतलाल स० गोपाणीने इसका संपादन किया है । ऐसी ही एक अन्य विशिष्ट कथाकृति जो परिमाणमें छोटी हो कर भी, साहित्यिक महत्त्वकी दृष्टिसे अधिक उपयोगितावाली है - प्रकट हो चुकी है, वह है दिव्यदृष्टि (प्रज्ञानयन ?) कवि धाहिल रचित अपभ्रंशभाषामय पउमसिरिचरिउ । प्राध्यापक हरिवल्लभ भायाणी और विद्वान् अभ्यासक मधुसूदन मोदी- जो गुजरातके अपभ्रंशभाषाके मर्मज्ञ एवं विशिष्ट पण्डित हैं-इसके संयुक्त सम्पादक हैं। इसी तरहकी 'नर्मदा सुंदरी' और 'जिनदत्ताख्यान' 'जंबुचरियं' नामक मनोरम प्राकृत कथाकृतियाँ भी मुद्रित हो चुकी हैं और शीघ्र ही प्रकट हो कर इस श्रेणिकी मणिमालामें अपना स्थान प्राप्त करनेवाली हैं। इस मालाकी श्रेणिमें जो ४ था मणि गुम्फित हुआ है वह उदयप्रभसूरिकृत 'धर्माभ्युदय' अथवा 'संघपतिचरित' नामक संस्कृत महाकाव्य ग्रन्थ है । इस ग्रन्थमें वे जैन कथानक प्रथित किये हुए हैं जिनके श्रवणसे प्रबुद्ध हो कर गूर्जर महामात्य वस्तुपाल जैसे वीरशिरोमणि एवं विद्याविनोदी नरपुङ्गवने तीर्थयात्रा निमित्त अभूतपूर्व संघ निकाले थे तथा शत्रुजय, गिरनार, आबू आदि तीर्थों पर भव्य जिनालय निर्मित करवाये थे। विद्वद्वर मुनिवर्थ श्रीपुण्यविजयजी तथा इनके स्व. ज्ञानोद्धारक परमगुरु श्रीचतुरविजयजी महाराजके संयुक्त संपादनरूप यह उत्तम ग्रन्थरत्न प्रकट हो रहा है। जैन कथासाहित्यका सार्वजनीन महत्त्व जैन कथा साहित्य, लोकजीवनको उन्नत और चारित्रशील बनानेवाली नैतिक शिक्षाकी प्रेरणाका एक उत्कृष्ट वाङ्मय है। जैन कथाकारोंका एक मात्र लक्ष्य, जनतामें दान, शील, तप और सद्भाव स्वरूप सार्वधर्मका विकास और प्रसार करनेका रहा है । जिस व्यक्तिमें जितने अंशमें इन दान, शील, तप और सद्भावनारूप चतुर्विध धार्मिक गुणोंका विकास होता है वह व्यक्ति Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविक वक्तव्य $ १५ इतने अंश में ऐहिक और पारमार्थिक दोनों दृष्टिसे सुख और शान्तिका भोक्ता बनता है । जिसके आत्मामें इन गुणोंका चरम विकास हो जाता है वह मनुष्य सर्वकर्मविमुक्त बन जाता है और संसार के सर्व प्रकार के द्वंद्वोंसे परपार हो जाता है । जैसे व्यक्ति के जीवनविकास के लिये यह धर्म आदर्शभूत है वैसे ही अन्यान्य समाज के लिये और समूचे मानव समृह के लिये भी यह धर्म आदर्शभूत है । इससे बढ कर, न कोई धर्मशास्त्र और न कोई नीतिसिद्धान्त, मनुष्यकी ऐहिक सुख - शान्तिका और आध्यात्मिक उन्नतिका अन्य कोई श्रेष्ठ धर्ममार्ग बतला सका है । जैन कथाकारोंने सद्धर्म और सन्मार्ग के जो ये ४ प्रकार बतलाये हैं वे संसारके सभी मनुष्योंका, सदा, कल्याण करनेवाले हैं इसमें कोई शंका नहीं है। चाहे परलोकको कोई माने या नहीं, चाहे स्वर्ग और नरकको कोई माने या नहीं; चाहे पुण्य और पाप जैसा कोई शुभ अशुभ कर्म और उसका अच्छा या बुरा फल होनेवाला हो या नहीं; लेकिन यह चतुर्विध धर्म, इसके पालन करनेवाले मनुष्य या मनुष्यसमाज के जीवनको, निश्चित रूपसे सुखी, संस्कारी और सत्कर्मी बना सकता है इसमें कोई सन्देह नहीं है । संसारके भिन्न भिन्न धर्मोने और भिन्न भिन्न नीतिमार्गोंने ऐहिक और पारलौकिक सुखशान्तिके लिये जितने भी धार्मिक और नैतिक विचार प्रकट किये हैं और जितने भी आदर्शभूत उपाय प्रदर्शित किये हैं उन सबमें, इन जैन कथाकारोंके बतलाये हुए इन ४ सर्वोत्तम, सरल और सुगम धार्मिक गुणोंसे बढ कर, अन्य कोई धार्मिक गुण, सनातन और सार्वभौम पद पानेकी योग्यता नहीं रखते । में गुण सार्वभौम इसलिये हैं कि इनका पालन संसारका हर कोई व्यक्ति, विना किसी धर्म, संप्रदाय, मत या पक्ष के बन्धन के एवं बाधाके कर सकता है । ये गुण किसी धर्म, मत, संप्रदाय या पक्षका कोई संकेत चिन्ह नहीं रखते । चाहे किसी देश में, चाहे किसी जातिमें, चाहे किसी धर्म में और चाहे किसी पक्ष में- एवं चाहे किसी स्थिति रह कर भी, मनुष्य इन चतुर्विध गुणोंका यथाशक्ति पालन कर सकता है और इनके द्वारा इसी जन्म में, परम सुख और शान्ति प्राप्त कर सकता है । सनातन इसलिये हैं कि संसारमें कभी भी कोई ऐसी परिस्थिति नहीं उत्पन्न हो सकती, कि जिसमें इन गुणों का पालन मनुष्य के लिये अहितकर हो सकता हो या अशक्य हो सकता हो । यह है इन जैन कथा प्रन्थोंका श्रेष्ठतम नैतिक महत्त्व | इसी तरह, सांस्कृतिक महत्त्व की दृष्टिसे भी इन कथाग्रन्थोंका वैसा ही बहुत उच्चतम स्थान है । भारत वर्षके, पिछले ढाई हजार वर्षके सांस्कृतिक इतिहासका सुरेख चित्रपट अंकित करनेमें, जितनी विश्वस्त और विस्तृत उपादान सामग्री, इन कथाग्रन्थोंमेंसे मिल सकती है उतनी अन्य किसी प्रकारके साहित्यमेंसे नहीं मिल सकती । इन कथाओं में भारत के भिन्न भिन्न धर्म, संप्रदाय, राष्ट्र, समाज, वर्ण आदि विविध कोटिके मनुष्यों के, नाना प्रकार के आचार, विचार, व्यवहार, सिद्धान्त, आदर्श, शिक्षण, संस्कार, नीति, रीति, जीवनपद्धति, राजतंत्र वाणिज्य व्यवसाय, अर्थोपार्जन, समाजसंगठन, धर्मानुष्ठान एवं आत्मसाधन आदिके निदर्शक बहुविध वर्णन निवद्ध किये हुए हैं जिनके आधारसे हम प्राचीन भारतके सांस्कृतिक इतिहासका सर्वांगीण और सर्वतोमुखी मानचित्र तैयार कर सकते हैं। जर्मनीके प्रो. हर्टेल, विण्टरनित्स, लॉयमान आदि भारतीय विद्या संस्कृति के प्रखर पण्डितोंने, जैन कथासाहित्य के इस महत्त्वका मूल्यांकन बहुत पहले ही कर लिया था और उन्होंने इस विषय में कितना ही मार्गदर्शक संशोधन, अन्वेषण, समालोचन और संपादन आदिका उत्तम कार्य भी कर दिखाया था; लेकिन दुर्भाग्यसे कहो या अज्ञानसे कहो, हमारे भारतवर्षके विद्वानोंका इस विषयकी ओर अभीतक स्थूल दृष्टिपात भी नहीं हो रहा Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथाकोष प्रकरण $१६ है । आशा है प्रस्तुत कथाकोशके परिचयके रूपमें हमने जो कुछ थोडा बहुत मार्गदर्शन कराने का प्रयत्न किया है उसको देख कर, हमारे देशवासी विद्वज्जन इस विषय में विशेष अध्ययन-मनन करने की ओर प्रवृत्त होंगे । • 1 इन पंक्तियों का आलेखन करते समय, मेरे हृदय में, मेरे उन सततस्मरणीय सहृदय सहायक सन्मित्र स्व० बाबू श्री बहादुर सिंहजी सिंघीकी पुण्य स्मृति, सविशेष रूपसे स्पन्दायमान हो रही है, जिनकी अभिलाषा इस प्रकारके सांस्कृतिक इतिहासके आलेखन और प्रकाशनके देखनेकी सदैव उत्कट रहा करती थी । जैन कथासाहित्य एवं अन्य तथाविध ऐतिहासिक साहित्यका इस प्रकार पर्यालोचन हो कर, तदनुसार एक सुविस्तृत एवं प्रमाणभूत 'जैन इतिहास' का आलेखन करनेकराने के विषय में भी उनकी बडी अभिरुचि रहती थी और वे इस विषय में सदैव मुझसे प्रेरणा करते रहते थे । वे चाहते थे कि मैंने अपने अध्ययन - चिन्तनके परिणाममें जो कुछ ऐतिह्य तथ्य सोचा-समझा है उसे ज्यों बने त्यों विशेषरूपसे लेखनबद्ध करता रहूं और प्रकाशमें रखता रहूं । उनकी उस अन्तिम रुग्णावस्था में भी, जब ता. ६ जनवरी सन् १९४४ के सन्ध्यासमय, मेरा जो उनसे आखिरी वार्तालाप हुआ उसमें भी, उन्होंने इस विषय में मुझसे अपना साग्रह मनोभाव प्रकट किया था । जिस प्रकारके ऐतिह्यतंध्यालेखनकी वे मुझसे अपेक्षा रखते थे उसी प्रकारका किंचित् आलेखन करनेका प्रयत्न मैंने इस निबन्ध में किया है । मेरा अन्तःकरण कहता है कि यदि वे आज जीवित होते तो जरूर इसको पढ कर बहुत प्रसन्न होते और अपना हार्दिक सन्तोषभाव प्रकट करते । मेरी यह भी श्रद्धा रहती है कि यदि परलोकस्थित उनकी आत्मा किसी तरह इस कृतिको ज्ञात कर सकेगी तो अवश्य वह वहां भी प्रसन्नताका अनुभव करेगी । I जिनेश्वर सूरिने अपनी इस कथा को प' रूप कृतिका उपसंहार करते हुए, अन्तमें अपने प्रयासके सफल होने की कामना इस प्रकार प्रकट की है - सम्मत्ताइ गुणाणं लाभो जह होज कित्तियाणं पि । ता होजणे पयासो सकयत्थो जयउ सुयदेवी ॥ अर्थात् - 'यदि किन्हीं भी मनुष्यों को - हमारी इस कृतिके पठनसे - सम्यक् तत्त्वादि गुणों का जो लाभ हुआ तो हम अपने इस प्रयासको सकृतार्थ सिद्ध हुआ समझेंगे ।' हम भी अन्तमें जिनेश्वर सूरिके ही इन वचनोंका अनुवाद करते हुए, यही कामना करते हैं कि इन ग्रन्थोंके पठन-पाठन से यदि किन्हीं भी जगज्जनोंके जीवनका, कुछ भी आध्यात्मिक विकास हो कर वह प्रगति के पथ पर अग्रसर हुआ तो, इस ग्रन्थमालाके संस्थापक, संरक्षक, संचालक और सम्पादक गणका प्रयत्न सफल हुआ सिद्ध समझा जायगा । किं बहुना ? तथास्तु | माघशुक्ला १३, सं. २००५ ( ता० ११-२-४९ ) [ स्वीय जीवनके ६१ वें वर्षका अन्तिम दिन ] सिंघी जैन शास्त्र शिक्षापीठ भारतीय विद्याभवन, बंबई - जिन विजय मुनि Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंधी जैन ग्रन्थमाला] ताडप्रतीय प्रति- जेसलमेर [कथाकोषप्रकरण वहागानासहायताणाशामिारवारणसणियंत्रान्ट विनमंत स्यायनीतिणपछामातानानानाममवस्याकामपनिमें। भणियात्रा कोसतसाहिसिापळूतावशनावमयवस्वीपऋवियरि उहादयावानाउन नागलिता यामक्षिसहसाहहिवडाका हलासमिहीरगतसमासाजरयानासमणियशसहकंमयर नमंतासामागययातलियासहिणाकीसवानासशसाउछठमयावसिायादि विवानि खहीदवारानकिविसाझाायामशाहपसवाशानानोसहिणतणसंखयामा याघवयादवयावदकरवियखावकियातीयवाहियासबायुनावस्मपठनी सकिालसमापदविऊगमगनपानासाविकपविदामयवनस्कासन मिक छासानि॥छ॥दवारात्रिगयम्॥ माझ्याण्डिाहातमाकोसलाउबदा यवाहाकिमहाकणसाचयशिणवाम्मानायचाउचातासक रुपबंदमेक्सणाविणययडिवनिनकाना तामसनबछ। धमा विषयावसारसखम्मराना किणसामणमादयापछताप शय्यवावणायटिवन्नामानारमानसिपी सकशिजणापलिया हणावयासासखना पवमानणविकायचबिकासम्म यसाहणस्मायिकत्रिणवम्ममावणंडलीमबेशविद्यावविनाशाहमागडान नयमाबडा सर्व निहनियादा कामायणे दियक्रियावन्मयस्विन्त्रीप स्मवियलिाना हमाहरोही।उययाडियेसम्मन्ने मानासावाया हरियायामायासम सामाहाश्चम महजबामणोरमाणवखणासावगस्मसमावावियाबवाससका समापारमाकाहाणयमातुशासपासपिनुतनकामगाजणवाय Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंघी जैन ग्रन्थमाला] पाटण प्रति A, अन्तिम पत्र [कथाकोषप्रकरण बलिपलकांवेनानिविदादीनानावनालवितकितदित्यादतरमणिकलिक्षणाविषयमदीयमपातिकघाम दियाहातफलप्रसाधक वाचतस्पसमयालिशस्मयवसतिगम्यताततालेसंसारस्पतत्रिवधनभिधाचादानावासारताप्रतिपतिलकपरमा कसातकारणान स-वादनासारताप्रतिपादकंमतएवममारतिनियादामाक्षात्यालिलाप्रश्तेवतफलप्रसाधक वाताहरवासदयिमदीययवनकलित चरिताबभिवाचारवक्षणसमध्यनिहामवलिनाकसिधानसम्मनामश्वनिसहरतानासम्ममाएगाणलासाङारी जाऊकरियाणपिशारदाऊपयामासकायाबायउमद्यादेवी व्याख्यासम्पकादिसणानालासायादिलवतिक्यितामपिसवान मिसिम्पानाहातालावदस्माकप्रयासाकछाकाशाविरविमागावरामनासालनाकातानिष्पादितावा नसाधाच्यत्रमंगलमाहालय विश्रादेवीजयन्त्रिततिवाचकवचायतदेवासरस्वतीतिबासाइ सेकघाकारयात्माननिहिसकारावासिरिषदमागमणिली सरगवि। समाासासकहाणयाकासासिएणसोरायविरामी रंगमामणेावारच्या श्रीवहमानमुनिपुतिशिाप्पणीमानार माधानवासिनाविरचितसमासनापरणए प्रज्ञान कधाकोशा वान्सलकधारकानाकामानिलिजश्व वायनाम्राकविनतीजाश्रीजितबारशिविद्यरविता घातकरकाबाधिवरणसमाझाबाबछियधायययन PARTIS Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि। १. प्रस्तुत कथाकोष प्रकरणका प्रकाशन । ई स. १९३२ के ग्रीष्मकालमें, दो महिने हमने पाटणमें व्यतीत किये और 'सिंघी जैन २. ग्रन्थमाला में प्रकाशित करने लायक कई ग्रन्थ वहांके भण्डारोंमेंसे प्राप्त किये । यह ‘क था कोष प्रकरण'भी उनमेंसे एक था। __ जैन कथा-साहित्य बहुत विशाल है । प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश और प्राचीन देशभाषामें लिखे गये इस विषयके साहित्यके अनेक ग्रन्थ भण्डारोंमें भरे पडे हैं । भारतवर्षके प्राचीन इतिहास, समाज, भाषा और संस्कृतिके अध्ययनकी दृष्टिसे इन कथाग्रन्थोंका अन्वेषण, संशोधन और प्रकाशन बहुत ही महत्त्व रखता है । विगत दो-ढाई हजार वर्षोंकी भारतीय संस्कृतिका जैसा प्रासंगिक और प्रामाणिक चित्र इन जैन कथाप्रन्थोंमेंसे प्राप्त हो सकता है वैसा अन्य किसी प्रकारके ग्रन्थोंमेंसे नहीं । परन्तु खेदका विषय यही है कि हमारे भारतीय विद्वानोंको इस प्रकारके साहित्यकी न तो कोई समुचित जानकारी ही है और न उनमें इसके अन्वेषणकी और अवलोकनकी चाहिये वैसी मार्मिक दृष्टि ही है। जर्मन विद्वानोंने इस विषयके महत्त्वको कोई तीन-चार बीसीयोंसे पूर्व ही अच्छी तरह पहचान लिया था और डॉ. वेबर, डॉ. लॉयमान, डॉ. याकोबी, डॉ. ब्युल्हर, डॉ. हर्टेल आदि जैसे समर्थ भारतीय-विद्या-विज्ञ विद्वानोंने छोटेबडे ऐसे कई जैन कथाग्रन्थोंका संशोधन, संपादन, समालोचन और समीक्षण आदि करके इस विषयकी ओर विद्वानोंका लक्ष्य आकर्षित किया था । डॉ. हर्टेल, जिन्होंने संस्कृत पञ्चतन्त्रकी जगद्व्यापी कथाओंका अद्भुत अध्ययन किया और उन पर जर्मन तथा इंग्रेजीमें कई बडे बडे ग्रन्थ लिखे, जैन कथासाहित्वका भी सबसे अधिक सूक्ष्म और विस्तृत अध्ययन किया और इस विषयके महत्त्वको प्रकाशमें रखनेके लिये अनेक निबन्ध एवं पुस्तक-पुस्तिकाएं प्रकट की । इन जैन कथाग्रन्थोंका ऐतिहासिक, सामाजिक, धार्मिक, नैतिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से क्या वैशिष्टय है, इसका दिग्दर्शन भी उन्होंने अपने निबन्धोंमें ठीक ठीक कराया है । डॉ. हर्टेलके निबन्धोंके अवलोकनसे हमारे मनमें यह इच्छा पैदा हुई, कि जैन भण्डारोंमें ऐसे जो अनेक कथा-संग्रहात्मक ग्रन्थ छिपे हुए पडे हैं उनको प्रकाशमें लानेसे एक तो जैन साहित्यका महत्त्व प्रकाशमें आएगा; और दूसरा, भारतकी प्राचीन संस्कृतिविषयक साहित्यसामग्रीके अभिलाषियोंको इस अपूर्व निधिका परिचय प्राप्त होगा। इस दृष्टिको लक्ष्य कर, हमने भिन्न भिन्न ग्रन्थभण्डारोंमें प्राप्त होनेवाले ऐसे अनेक कथासंग्रह संगृहीत किये हैं - और अब भी किये जा रहे हैं एवं उन्हें यथासाध्य प्रकाशमें लानेका प्रयत्न कर रहे हैं । इसी प्रयत्नके फलखरूप आज यह प्रन्थ विद्वानोंके करकमलमें उपस्थित हो रहा है । प्रस्तुत ग्रन्थकी प्राप्त प्रतियां। पाटणके भण्डारोंमेंसे हमें इस ग्रन्थकी दो पुरानी प्रतियां उपलब्ध हुई जिनको हमने A और 'B की संज्ञा दे कर, पाठभेदोंका उद्धरण करनेमें तत्तन्नामसे उनका उपयोग किया है । प्रतियां दोनों ही प्रायः अशुद्धप्राय थीं । इन प्रतियों पर लेखनकालका कोई निर्देश भी नहीं मिला । परंतु इनकी स्थिति देखते हुए मालूम होता है, कि विक्रमीय १६ वीं शताब्दीकी लिखी हुई होनी चाहिये । क. प्र.१ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि । इनमेंसे B प्रतिके अन्त में वह अन्तकी 'ग्रन्थ-लेखक प्रशस्ति' भी नहीं मिली जो पृ. १८१ में मुद्रित है । कुछ अन्यान्य परिचित भण्डारोंमें भी इसकी कोई अन्य प्रति प्राप्त करनेका प्रयत्न किया गया परंतु सफलता नहीं मिली । ग्रन्थकी प्रेसकॉपी तैयार कर लेनेके बाद और ग्रन्थका कितनाक भाग छप जानेके पश्चात्, बम्बईके महावीर स्वामीके मन्दिरमें रक्षित खरतर गच्छीय ज्ञान भण्डारमेंसे, एक और प्रति मिली जो बिल्कुल नई ही लिखी हुई थी परंतु प्रत्यन्तर होनेसे उसका संशोधनमें हमें कुछ ठीक उपयोग हुआ । सन् १९४२-४३में जब हमने जेसलमेर के भण्डारोंका अवलोकन किया, तब वहां इस ग्रंथकी प्रतिकी खोज की। परंतु वहां इसकी कोई प्रति दृष्टिगोचर नहीं हुई । हां ताडपत्रवाले भण्डारमें कुछ ५-१० त्रुटित ताडपत्र इसके जरूर दिखाई दिये । इन पत्रोंकी अवस्था और लिपिके अवलोकनसे हमें यह अनुमान हुआ कि यह प्रति बहुत कुछ पुरानी होनी चाहिये - अर्थात् १२ वीं शताब्दीके उत्तर भाग में या १३ वीं के पूर्व भाग में लिखी हुई होनी चाहिये । सेंकडों ग्रन्थोंके हजारों त्रुटित ताडपत्रों में हमने इसके अन्तिम पत्र की प्राप्ति के लिये बहुत कुछ परिश्रम किया परन्तु वह सफल नहीं हुआ । पीछेसे, सन् १९४४ में, जब भावनगर जानेका प्रसंग आया, तब वहांके संघके भण्डारमें इस ग्रन्थकी एक ताडपत्रीय प्रि दृष्टिगोचर हुई । परन्तु इसमें भी लेखनकालका निर्देश नहीं मिला । अनुमानतः यह १४वीं शताब्दी के अन्त भागमें लिखी हुई होगी । इस प्रतिका दर्शनमात्र कर लेनेके उपरान्त और कोई उपयोग नहीं हो सका। हां, यह नोट अवश्य कर लिया गया कि इसके अन्तमें भी ग्रन्थकी वह प्रशस्ति लिखी हुई है। जो पाटणकी A संज्ञक प्रतिमें मिलती है । प्रतियोंके अशुद्धप्राय होनेसे ग्रन्थ के संशोधनमें बहुत कुछ श्रम और समय व्यतीत होना स्वाभाविक ही है । पाद-टिप्पणियों में जो पाठभेद सूचित किये गये हैं वे केवल वैसे ही पाठ हैं जो शब्द और अर्थकी दृष्टिसे शुद्ध हो कर कुछ विशेषत्व बतलाते हैं । बाकी अशुद्ध पाठ तो इनमें इतने हैं कि जिनका उद्धरण करनेसे प्रत्येक मुद्रित पृष्ठका पूरा आधा भाग भर जाय । ऐसे अशुद्ध पाठोंका उद्धरण करना हमने सर्वथा निरर्थक समझा और उनका कोई निर्देश नहीं किया । २. जिनेश्वर सूरिका समय और तत्कालीन परिस्थिति । 1 इ इस ग्रन्थके कर्ता, जैसा कि ग्रन्थगत आदि एवं अन्तके उल्लेखोंसे स्पष्टतया ज्ञात होता है श्री जिनेश्वर सूरि हैं । यों तो इस नामके सूरि जैन संप्रदायमें अनेक हो चुके हैं, पर इसके कर्त्ता वे ही जिनेश्वर सूरि हैं, जो सबसे अधिक प्रसिद्ध हैं और जिनका स्थान जैन श्वेताम्बर -संप्रदाय में बहुत ही विशिष्ट महत्त्व रखता है । ये आचार्य श्री वर्द्धमान सूरिके शिष्य थे । विक्रम संवत् १९०८ के मार्गशीर्ष मास की कृष्ण पंचमीके दिन, इस ग्रन्थकी रचना उन्होंने समाप्त की और इसकी प्रथम प्रतिलिपि उन्हींके शिष्य श्री जिनभद्र नामक सूरिने अपने हाथसे तैयार की । यह इतना ऐतिह्य ज्ञातव्य, प्रस्तुत ग्रन्थकी अन्तिम प्रशस्तिसे स्पष्ट ज्ञात हो रहा है । इसी प्रशस्ति में यह भी सूचित किया गया है कि जिनेश्वर सूरिके प्रगुरु एवं श्री वर्द्धमान सूरिके गुरु श्री उद्योतन सूरि थे जो चन्द्र कुलके कोटिक गणकी वज्री शाखाके परिवार के थे । जिनेश्वर सूरि के विषय में, जिनदत्तसूरिकृत गणधर सार्द्धशतककी सुमतिगणीकृत बृहद्वृत्ति, जिनपालोपाध्याय लिखित खरतरगच्छबृहद्गुर्वावलिमें, प्रभाचन्द्राचार्यरचित प्रभावकचरित और Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनेश्वर सूरिका समय और तत्कालीन परिस्थिति । किसी अज्ञात कर्तृक प्राचीन पूर्वाचार्यप्रबन्ध एवं अन्यान्य पट्टावलियां आदि अनेक ग्रन्थों- प्रबन्धोंमें कितना ही ऐतिहासिक वृत्तान्त ग्रथित किया हुआ उपलब्ध होता है । जिनेश्वर सूरिके समयमें जैन यतिजनोंकी अवस्था। इनके समयमें, श्वेताम्बर जैन संप्रदायमें, उन यतिजनोंके समूहका प्राबल्य था जो अधिकतर चैत्यों अर्थात् जिनमन्दिरोंमें निवास करते थे । ये यतिजन जैन देवमन्दिर, जो उस समय चैत्यके नामसे विशेष प्रसिद्ध थे, उन्हींमें अहर्निश रहते, भोजनादि करते, धर्मोपदेश देते, पठन-पाठनादिमें प्रवृत्त होते और सोते बैठते । अर्थात् चैत्य ही उनका मठ या वासस्थान था और इसलिये वे चैत्य वासी के नामसे प्रसिद्ध हो रहे थे । इसके साथ उनके आचार - विचार भी बहुतसे ऐसे शिथिल अथवा भिन्न प्रकारके थे जो जैन शास्त्रोंमें वर्णित निर्ग्रन्थ - जैनमुनिके आचारोंसे असंगत दिखाई देते थे । वे एक तरहके मठपति थे । शास्त्रोक्त आचारोंका यथावत् पालन करनेवाले यति – मुनि उस समय बहुत कम संख्यामें नजर आते थे। अणहिल्ल पुरमें चैत्यवासियोंका प्रभाव । गजरातकी पुरातन राजधानी अणहिल्ल पुर, जो उस समय सारे भारत वर्षमें एक प्रधान नगरी समझी जाती थी और जो समृद्धि और संस्कृतिकी दृष्टिसे बडी ख्याति रखती थी, जैन धर्मका भी एक बडा केन्द्रस्थान बनी हुई थी। जैन धर्मके सेंकडों ही देवमन्दिर उसमें बने हुए थे । हजारोंकी संख्या में वहां जैन श्रावक लोग वसते थे । व्यापार, कृषि और राजकारभारमें इन जैनोंका स्थान बहुत ऊंचा थासबसे अधिक अग्रगण्य था । भारतके सुन्दरतम स्थापत्यके एक अनन्य उदाहरण खरूप, आबू पर्वत परके आदिनाथके मन्दिरका एवं कुंभारियाके जैन मन्दिरोंका निर्मापक, महान् कलाप्रिय और गुजरातके साम्राज्यका प्रचण्ड रक्षक, महा दंडनायक विमल मंत्री आदि जैसे अनेक जैन श्रावक उस नगरके प्रमुख नागरिक माने जाते थे । शास्त्रकार शान्त्याचार्य, महाकवि सूराचार्य, मन्त्रवादी वीराचार्य आदि जैसे प्रभावशाली, प्रतिष्ठासंपन्न और विद्वदग्रणी चैत्यवासी यतिजन उस जैन समाजके धर्माध्यक्षत्वका गौरव प्राप्त कर रहे थे । जैन समाजके अतिरिक्त आम जनतामें और राजदरबारमें भी, इन चैत्यवासी यतिजनोंका बहुत बड़ा प्रभाव था । जैन धर्मशास्त्रोंके अतिरिक्त, ज्योतिष, वैद्यक और मन्त्र-तन्त्रादि शास्त्रों और उनके व्यावहारिक प्रयोगोंके विषयमें भी, ये जैन यतिगण बहुत विज्ञ और प्रमाणभूत माने जाते थे । धर्माचार्यके खास कार्यों और व्यवसायोंके सिवा, ये व्यावहारिक विषयों में भी बहुत कुछ योगदान किया करते थे । जैन गृहस्थोंके बच्चों की व्यावहारिक शिक्षाका काम प्रायः इन्हीं यतिजनोंके अधीन था और इनकी पाठशालाओंमें जैनेतर गण्य मान्य सेठ साहुकारों एवं उच्चकोटिके राजदरबारी पुरुषोंके बच्चे भी बडी उत्सुकता पूर्वक शिक्षालाभ प्राप्त किया करते थे। इस प्रकार राजवर्ग और जनसमाजमें इन चैत्यवासी यतिजनोंकी बहुत कुछ प्रतिष्ठा जमी हुई थी और सब बातोंमें इनकी धाक बैठी हुई थी। पर इनका यह सब व्यवहार, जैन शास्त्रकी दृष्टिसे यतिमार्गके सर्वथा विपरीत और हीनाचारका पोषक था । जैन शास्त्रोंके विधानके अनुसार जैन यतियोंका मुख्य कर्तव्य केवल आत्मकल्याण करना है और उसके आराधन निमित्त शम, दम, तप आदि दशविध यतिधर्मका सतत पालन करना है । जीवन-यापनके निमित्त जहां कहीं मिल गया वैसा लूखा-सूका और सो भी शास्त्रोक्त विधिके अनुकूल - भिक्षान्नका उपभोग कर, अहर्निश ज्ञान-ध्यान निमग्न रहना और जो कोई मुमुक्षु जन अपने Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि । पास चला आवे उसे एक मात्र मोक्षमार्गका उपदेश करना है । इसके सिवा, यतिको न गृहस्थ जनोंका किसी प्रकारका संसर्ग ही कर्तव्य है और न किसी प्रकारका किसीको उपदेश ही वक्तव्य है । किसी स्थानमें, बहुत समय तक नियतवासी न बन कर सदैव परिभ्रमण करते रहना और घनी वसतिमें न रह कर, गांवके बहार जीर्ण-शीर्ण देवकुलोंके प्रांगणोंमें या पथिकाश्रयोंमें एकान्तनिवासी हो कर किसी-न-किसी तरहका सदैव तप करते रहना ही जैन यतिका शास्त्र विहित एक मात्र जीवनक्रम है। जिनेश्वर सूरिका चैत्यवासियों के विरुद्ध आन्दोलन । इस प्रकारके शास्त्रोक्त यतिधर्मके आचार और चैत्यवासी यतिजनोंके उक्त व्यवहारमें, परस्पर बडा असामंजस्य देख कर, और श्रमण-भगवान् महावीर उपदिष्ट श्रमण धर्मकी इस प्रकार प्रचलित विप्लव दशासे उद्विग्न हो कर, जिनेश्वर सूरिने उसके प्रतीकारके निमित्त अपना एक सुविहित मार्गप्रचारक नया गण स्थापित किया और उन चैत्यवासी यतियोंके विरुद्ध एक प्रबल आन्दोलन शुरू किया। ___ यों तो प्रथम, इनके गुरु श्री वर्धमान सूरि खयं ही चैत्यवासी यतिजनोंके एक प्रमुख सूरि थे । पर जैन शास्त्रोंका विशेष अध्ययन करने पर मनमें कुछ विरक्त भाव उदित हो जानेसे और तत्कालीन जैन यतिसंप्रदायकी उक्त प्रकारकी आचारविषयक परिस्थितिकी शिथिलताका अनुभव कुछ अधिक उद्वेगजनक लगनेसे, उन्होंने उस अवस्थाका त्याग कर, विशिष्ट त्यागमय जीवनका अनुसरण करना स्वीकृत किया था। जिनेश्वर सूरिने अपने गुरुके इस वीकृत मार्ग पर चलना विशेष रूपसे निश्चित किया इतना ही नहीं परंतु उन्होंने उसे सारे संप्रदायव्यापी और देशव्यापी बनानेका भी संकल्प किया और उसके लिये आजीवन प्रबल पुरुषार्थ किया । इस प्रयत्नके उपयुक्त और आवश्यक ऐसे ज्ञानबल और चारित्रबल दोनों ही उनमें पर्याप्त प्रमाणमें विद्यमान थे, इसलिये उनको अपने ध्येयमें बहुत कुछ सफलता प्राप्त हुई और उसी अणहिल्ल पुरमें, जहां पर चैत्यवासियोंका सबसे अधिक प्रभाव और विशिष्ट समूह था, जा कर उन्होंने चैत्यवासके विरुद्ध अपना पक्ष और प्रतिष्ठान प्रस्थापित किया । चौलुक्य नृपति दुर्लभराजकी सभामें, चैत्यवासी पक्षके समर्थक अग्रणी सूराचार्य जैसे महाविद्वान् और प्रबल सत्ताशील आचार्यके साथ शास्त्रार्थ कर, उसमें विजय प्राप्त किया। इस प्रसंगसे जिनेश्वर सूरिकी केवल अणहिल्ल पुरमें ही नहीं, परंतु सारे गुजरातमें, और उसके आस-पासके मारवाड, मेवाड, मालवा, वागड, सिन्ध और दिल्ली तक के प्रदेशोंमें खूब ख्याति और प्रतिष्ठा बढी । जगह जगह सेंकडों ही श्रावक उनके भक्त और अनुयायी बन गये । इसके अतिरिक्त सेंकडों ही अजैन गृहस्थ भी उनके भक्त बन कर नये श्रावक बने । अनेक प्रभावशाली और प्रतिभाशील व्यक्तियोंने उनके पास यतिदीक्षा ले कर, उनके सुविहित शिष्य कहलानेका गौरव प्राप्त किया। उनकी शिष्यसन्तति बहुत बढी और वह अनेक शाखा-प्रशाखाओंमें फैली । उसमें बडे बडे विद्वान् , क्रियानिष्ठ और गुणगरिष्ठ आचार्य-उपाध्यायादि समर्थ साधु पुरुष हुए । नवाङ्गवृत्तिकार अभयदेव सूरि, संवेगरङ्गशालादि ग्रन्थोंके प्रणेता जिनचन्द्र सूरि, सुरसुन्दरी चरितके कर्ता धनेश्वर अपरनाम जिनभद्र सूरि, आदिनाथचरित्रादिके रचयिता वर्धमान सूरि, पार्श्वनाथचरित्र एवं महावीरचरित्रके कर्ता गुणचन्द्र गणी अपर नाम देवभद्र सूरि, संघपट्टकादिक अनेक प्रन्थोंके प्रणेता जिनवल्लभ सूरि- इत्यादि अनेकानेक बडे बडे धुरन्धर विद्वान और शास्त्रकार, जो उस समय उत्पन्न हुए और जिनकी साहित्यिक उपासनासे जैन वाङ्मय-भण्डार बहुत कुछ सुसमृद्ध और सुप्रतिष्ठित बना-इन्हीं जिनेश्वर सूरिके शिष्य-अशिष्योंमेंसे थे । Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनेश्वर सूरिका समय और तत्कालीन परिस्थिति। विधिपक्ष अथवा खरतर गच्छका प्रादुर्भाव और गौरव । इन्हीं जिनेश्वर सूरिके एक प्रशिष्य आचार्य श्री जिनवल्लभ सूरि और उनके पट्टधर श्री जिनदत्त सूरि (वि. सं. ११६९-१२११) हुए जिन्होंने अपने प्रखर पाण्डित्य, प्रकृष्ट चारित्र और प्रचण्ड व्यक्तिस्वके प्रभावसे मारवाड, मेवाड, बागड, सिन्ध, दिल्लीमण्डल और गुजरातके प्रदेशमें हजारों अपने नये भक्त श्रावक बनाये-हजारों ही अजैनोंको उपदेश दे दे कर नूतन जैन बनाये । स्थान स्थान पर अपने पक्षके अनेकों नये जिनमन्दिर और जैन उपाश्रय तैयार करवाये । अपने पक्षका नाम इन्होंने विधि पक्ष ऐसा उद्घोषित किया और जितने भी नये जिनमन्दिर इनके उपदेशसे, इनके भक्त श्रावकोंने बनवाये उनका नाम विधि चैत्य ऐसा रक्खा गया । परंतु पीछेसे चाहे जिस कारणसे हो-इनके अनुगामी समुदायको खरतर पक्ष या खर तर गच्छ ऐसा नूतन नाम प्राप्त हुआ और तदनन्तर यह समुदाय इसी नामसे अत्यधिक प्रसिद्ध हुआ जो आज तक अविच्छिन्नरूपसे विद्यमान है। इस खरतर गच्छमें उसके बाद. अनेक बडे बडे प्रभावशाली आचार्य, बडे बडे विद्यानिधि उपाध्याय, बडे बडे प्रतिभाशाली पण्डित मुनि और बडे बडे मांत्रिक, तांत्रिक, ज्योतिर्विद, वैद्यकविशारद आदि कर्मठ यतिजन हुए जिन्होंने अपने समाजकी उन्नति, प्रगति और प्रतिष्ठाके बढानेमें बड़ा भारी योग दिया । सामाजिक और सांप्रदायिक उत्कर्षकी प्रवृत्तिके सिवा, खरतर गच्छानुयायी विद्वानोंने संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश एवं देश्य भाषाके साहित्यको भी समृद्ध करनेमें असाधारण उद्यम किया और इसके फलखरूप आज हमें भाषा, साहित्य, इतिहास, दर्शन, ज्योतिष, वैद्यक आदि विविध विषयोंका निरूपण करने वाली छोटी-बडी सेंकडों-हजारों ग्रन्थकृतियां जैन भण्डारोंमें उपलब्ध हो रही हैं । खरतरगच्छीय विद्वानोंकी की हुई यह साहित्योपासना न केवल जैन धर्मकी ही दृष्टिसे महत्त्ववाली है, अपि तु समुच्चय भारतीय संस्कृतिके गौरवकी दृष्टिसे भी उतनी ही महत्ता रखती है। साहित्योपासनाकी दृष्टिसे खरतर गच्छके विद्वान् यति-मुनि बडे उदारचेता मालूम देते हैं । इस विषयमें उनकी उपासनाका क्षेत्र केवल अपने धर्म या संप्रदायकी बाडसे बद्ध नहीं है । वे जैन और जैनेतर वाङ्मयका समान भावसे अध्ययन-अध्यापन करते रहे हैं । व्याकरण, काव्य, कोष, छन्द, अलंकार, नाटक, ज्योतिष, वैद्यक और दर्शनशास्त्र तकके अगणित अजैन ग्रन्थोंका उन्होंने बडे आदरसे आकलन किया है और इन विषयोंके अनेक अजैन ग्रन्थों पर उन्होंने अपनी पाण्डित्यपूर्ण टीकाएं आदि रच कर तत्तद् ग्रन्थों और विषयोंके अध्ययन कार्यमें बडा उपयुक्त साहित्य तैयार किया है । खरतर गच्छके गौरवको प्रदर्शित करने वाली ये सब बातें हम यहां पर बहुत ही संक्षेपमें, केवल सूत्ररूपसे, उल्लिखित कर रहे हैं । विशेष रूपसे लिखनेका यहां अवकाश नहीं है । इस ग्रन्थके साथ ही हम खरतर गच्छकी एक बहुत विस्तृत और बहुत पुरातन पट्टावलि-जिसका नाम हमने 'युगप्रधानाचार्य गुर्वावलि' ऐसा रखा है- प्रकट कर रहे हैं, जिसमें इन जिनेश्वर सूरिसे प्रारंभ कर, श्री जिनवल्लभ सूरिकी परम्पराके खरतर गच्छीय आचार्य श्री जिनपम सूरिके पट्टाभिषिक्त होनेके समय तकका- विक्रम संवत् १४०० के लगभगका-बारत विस्तृत और प्रायः विश्वस्त ऐसा ऐतिहासिक वर्णन दिया हुआ है । उसके अध्ययनसे पाठकोंको खरतर गच्छके तत्कालीन गौरवकी गाथाका अच्छा परिचय मिल सकेगा। इस तरह पीछेसे बहुत प्रसिद्धि प्राप्त उक्त खरतर गच्छके अतिरिक्त, जिनेश्वर सूरिकी शिष्यपरम्परामेंसे अन्य मी कई-एक छोटे-बडे गण-गच्छ प्रचलित हुए और उनमें भी कई बडे बडे प्रसिद्ध विद्वान्, Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि । ग्रन्थकार, व्याख्यानिक, वादी, तपस्वी, चमत्कारी साधु-यति हुए जिन्होंने अपने व्यक्तिल्वसे जैन समाजको समुन्नत करनेमें उत्तम योग दिया। जिनेश्वर सूरिके जीवनका अन्य यतिजनों पर प्रभाव । जिनेश्वर सूरिके प्रबल पाण्डित्य और प्रकृष्ट चारित्रका प्रभाव इस तरह न केवल उनके निजके शिष्यसमूहमें ही प्रसारित हुआ, अपि तु तत्कालीन अन्यान्य गच्छ एवं यतिसमुदायके भी बडे बडे व्यक्तित्वशाली यतिजनों पर उसने गहरा असर डाला और उसके कारण उनमेंसे भी कई समर्थ व्यक्तियोंने, इनके अनुकरणमें, क्रियोद्धार और ज्ञानोपासना आदिकी विशिष्ट प्रवृत्तिका बडे उत्साहके साथ उत्तम अनुसरण किया। इनमें बृहद्गच्छके नेमिचन्द्र और मुनिचन्द्र सूरिका संप्रदाय तथा मलधार गच्छीय अभयदेव सूरिका समुदाय एवं पूर्णतल्ल गच्छानुयायी प्रद्युम्न सूरिका शिष्यपरिवार विशेष उल्लेख योग्य है। मुनिचन्द्र सूरिकी शिष्य-सन्ततिमें वादी देवसूरि, भद्रेश्वर सूरि, रत्नप्रभ सूरि, सोमप्रभ सूरि आदि बडे ख्यातिमान् , महा विद्वान् और समर्थ ग्रन्थकार हुए । इन्हींकी शिष्यपरंपरामें आगे जा कर जगच्चन्द्र सूरि और उनके शिष्य देवेन्द्र सूरि, तथा विजयचन्द्र सूरि आदि प्रख्यात आचार्य हुए, जिनसे श्वेताम्बर संप्रदायमें पिछले ५००-६०० वर्षों में सबसे अधिक प्रतिष्ठाप्राप्त त पागच्छ नामक संप्रदायका प्रचार और प्रभाव फैला । वर्तमानमें श्वेताम्बर संप्रदायमें सबसे अधिक प्रभाव इसी गच्छका दिखाई दे रहा है। मलधार गच्छीय अभयदेव सूरिके शिष्य-प्रशिष्यों में हेमचन्द्र सूरि (विशेषावश्यकभाष्यव्याख्यादिके कर्ता) लक्ष्मणगणी, श्रीचन्द्र सूरि आदि बडे समर्थ विद्वान् हुए जिनके चारित्र और ज्ञानके प्रभावने तत्कालीन जैन समाजकी उन्नतिमें विशेष प्रशंसनीय कार्य किया । पूर्णतल्ल गच्छमें देवचन्द्र सूरि और उनके जगप्रसिद्ध शिष्य कलिकाल-सर्वज्ञ हेमचन्द्र सूरि और उनके शिष्य रामचन्द्र, बालचन्द्र आदि हुए । हेमचन्द्र सूरिकी सर्वतोमुखी प्रतिभाने जैन साहित्यको कैसा गौरवान्वित किया और उनके अप्रतिम सदाचरण तथा अलौकिक तपस्तेजने जैन समाजको कितना समुन्नत बनाया यह इतिहास प्रसिद्ध है। जिनेश्वर सूरिसे जैन समाजमें नूतन युगका आरंभ । जनके प्रादुर्भाव और कार्यकलापके प्रभावसे जैन श्वेताम्बर समाजमें एक सर्वथा नवीन युगका आरंभ होना शुरू हुआ। पुरातन प्रचलित भावनाओंमें परिवर्तन होने लगा । त्यागी और गृहस्थ दोनों प्रकारके समूहोंमें नये संगठन होने शुरू हुए । त्यागी अर्थात् यतिवर्ग जो पुरातन परम्परागत गण और कुलके रूपमें विभक्त था, वह अब नये प्रकारके गच्छोंके रूपमें संघटित होने लगा । देवपूजा और गुरूपास्तिकी जो कितनीक पुरानी पद्धतियां प्रचलित थीं उनमें संशोधन और परिवर्तनके वातावरणका सर्वत्र उद्भव होने लगा। इसके पहले यतिवर्गका जो एक बडा समूह चैत्यनिवासी हो कर चैत्योंकी संपत्ति और संरक्षाका अधिकारी बना हुआ था और प्रायः शिथिलक्रिय और खपूजानिरत हो रहा था, उसमें इनके आचारप्रवण और भ्रमणशील जीवनके प्रभावसे, बडे वेगसे और बडे परिमाणमें परिवर्तन होना प्रारंभ हुआ । इनके आदर्शको लक्ष्यमें रख कर, जैसा कि हम ऊपर सूचित कर आये हैं, अन्यान्य अनेक समर्थ यतिजन चैत्याधिकारका और शिथिलाचारका त्याग कर, संयमकी विशुद्धिके निमित्त उचित क्रियोद्धार करने लगे और अच्छे संयमी बनने लगे । संयम और तपश्चरणके साथ साथ, भिन्न भिन्न विषयोंके शास्त्रोंके अध्ययन और ज्ञान-संपादनका कार्य भी इन यतिजनोंमें खूब उत्साहके साथ व्यवस्थित रूपसे होने लगा। सभी उपादेय विषयोंके नये नये ग्रंथ निर्माण किये जाने लगे और पुरातन ग्रन्थोंपर टीका-टिप्पण आदि रचे जाने लगे। अध्ययन-अध्यापन और ग्रन्थ-निर्माणके कार्यमें आवश्यक ऐसे पुरातन जैन Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनेश्वर सूरिके जीवनचरितका साहित्य | ग्रन्थोंके अतिरिक्त ब्राह्मण और बौद्ध संप्रदायके भी, व्याकरण, न्याय, अलंकार, काव्य, कोष, छन्द, ज्योतिष आदि विविध विषयोंके सभी महत्त्व के ग्रन्थोंकी पोथियोंके संग्रहवाले बडे बडे ज्ञान भण्डार भी स्थापित किये जाने लगे । I अब ये यतिजन केवल अपने अपने स्थानोंमें ही बद्ध हो कर बैठ रहनेके बदले भिन्न भिन्न प्रदेशों में घूमने लगे और तत्कालीन परिस्थिति के अनुरूप, धर्मके प्रचारका कार्य करने लगे । जगह जगह जै क्षत्रिय और वैश्य कुलोंको अपने आचार और ज्ञानसे प्रभावित कर, नये नये जैन श्रावक बनाए जाने लगे और पुराने जैन गोष्ठी -कुल नवीन जातियोंके रूपमें संगठित किये जाने लगे । पुराने जैन देवमन्दिरोंका उद्धार और नवीन मन्दिरोंका निर्माण कार्य भी सर्वत्र विशेष रूपसे होने लगा । जिन यतिजनोंने चैत्यनिवास छोड दिया था उनके रहनेके लिये ऐसे नये वसतिगृह बनने लगे जिनमें उन उन यतिजनों के अनुयायी श्रावक भी अपनी नित्य नैमित्तिक धर्मक्रियाएं करनेकी व्यवस्था रखते थे । ये ही वसतिगृह पिछले कालमें उपाश्रयके नामसे प्रसिद्ध हुए । मन्दिरोंमें पूजा और उत्सवोंकी प्रणालिकाओं में भी नये नये परिवर्तन होने लगे और इसके कारण यतिजनों में परस्पर, शास्त्रोंके कितनेक विवादास्पद विचारों और शब्दार्थों पर भी वाद-विवाद होने लगा; और इसके परिणाममें कई नये नये गच्छ और उपगच्छ भी स्थापित होने लगे । ऐसे चर्चास्पद विषयों पर स्वतंत्र छोटे-बडे ग्रन्थ भी लिखे जाने लगे और एक-दूसरे संप्रदाय की ओरसे उनका खण्डन- मण्डन भी किया जाने लगा । इस तरह इन यतिजनोंमें पुरातन प्रचलित प्रवाहकी दृष्टिसे, एक प्रकारका नवीन जीवन - प्रवाह चालू हुआ और उसके द्वारा जैन संघका नूतन संगठन बनना आरंभ हुआ । इस तरह तत्कालीन जैन इतिहासका सिंहावलोकन करनेसे ज्ञात होता है, कि विक्रमकी ११ वीं शताब्दी के प्रारंभ में जैन यतिवर्गमें एक प्रकारसे नूतन युगकी उषाका आभास होने लगा था जिसका प्रकट प्रादुर्भाव जिनेश्वर सूरिके गुरु वर्धमान सूरिके क्षितिज पर उदित होने पर दृष्टिगोचर हुआ । जिनेश्वर सूरिके जीवन कार्यने इस युग परिवर्तनको सुनिश्चित मूर्तस्वरूप दिया । तबसे ले कर पिछले प्रायः ९०० वर्षों में, इस पश्चिम भारतमें, जैन धर्मका जो सांप्रदायिक और सामाजिक स्वरूपका प्रवाह प्रचलित रहा उसके मूलमें जिनेश्वर सूरिका जीवन सबसे अधिक विशिष्ट प्रभाव रखता है और इस दृष्टिसे जिनेश्वर सूरिको, जो उनके पिछले शिष्य-प्रशिष्योंने, युग प्रधान पदसे सम्बोधित और स्तुतिगोचर किया है वह सर्वथा ही सत्य वस्तुस्थितिका निदर्शक है ।" ३. जिनेश्वर सूरिके जीवनचरितका साहित्य | जिनेश्वर सूरिके इस प्रकारके युगावतारी जीवन कार्यका निर्देश करनेवाले उल्लेख यों तो सेंकडों ही ग्रन्थों में प्राप्त होते हैं । क्यों कि उनकी शिष्य सन्ततिमें आज तक सेंकडों ही विद्वान् और ग्रन्थकार यतिजन हो गये हैं और उन सबने प्रायः अपनी अपनी कृतियोंमें इनके विषयमें थोडा - बहुत स्मरणात्मक उल्लेख अवश्य किया है । इन ग्रन्थोंके सिवाय, बीसियों ऐसी गुरुपट्टावलियां हैं, जिनमें इनके चैत्यवास निवारण रूप कार्यका अवश्य उल्लेख किया हुआ रहता । ये पट्टावलियां भिन्न-भिन्न समयमें, भिन्न-भिन्न यतियों द्वारा, प्राकृत, संस्कृत और प्राचीन देश्य भाषामें लिपिबद्ध की हुई हैं । इन ग्रन्थस्थ लेखों के अतिरिक्त जिनमूर्तियों और जिनमन्दिरोंके ऐसे अनेक शिलालेख भी मिलते हैं जिनमें भी इनके विषयका कितनाक सूचनात्मक एवं परिचयात्मक निर्देश किया हुआ उपलब्ध होता है । परन्तु है I , Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ረ कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि । ये सब निर्देश, अपेक्षाकृत उत्तरकालीन हो कर, मूलभूत जो सबसे प्राचीन निर्देश हैं उन्हींके अनुलेखन रूप होनेसे तथा कहीं कहीं विविध प्रकारकी अनैतिहासिकताका स्वरूप धारण कर लेनेसे, इनके विषय में यहां खास विचार करने की कोई आवश्यकता नहीं है । हम यहां पर उन्हीं निर्देशोंका सूचन करते हैं जो सबसे प्राचीन हो कर ऐतिहासिक मूल्य अधिक रखते हैं । जैसा कि हमने ऊपर सूचित किया है जिनेश्वर सूरि एक बहुत ही भाग्यशाली साधुपुरुष थे । इनकी यशोरेखा एवं भाग्यरेखा बडी उत्कट थी । इससे इनको ऐसे ऐसे शिष्य और प्रशिष्यरूप महान् सन्ततिरल प्राप्त हुए जिनके पाण्डित्य और चारित्र्यने इनके गौरवको दिगन्तव्यापी और कल्पान्तस्थायी बना दिया । यों तो प्राचीन कालमें, जैन संप्रदायमें सेंकडों ही ऐसे समर्थ आचार्य हो गये हैं जिनका संयमी जीवन जिनेश्वर सूरिके समान ही महत्त्वशाली और प्रभावपूर्ण था; परन्तु जिनेश्वर सूरिके जैसा विशालप्रज्ञ और विशुद्ध संयमवान्, विपुल शिष्य-समुदाय शायद बहुत ही थोडे आचार्योंको प्राप्त हुआ होगा । जिनेश्वर सूरिके शिष्य-प्रशिष्यों में एक-से-एक बढ कर अनेक विद्वान् और संयमी पुरुष हुए और उन्होंने अपने महान् गुरुकी गुण-गाथाका बहुत ही उच्चखरसे खूब ही गान किया है । सद्भाग्यसे इनके ऐसे शिष्य-प्रशिष्यों की बनाई हुई बहुतसी ग्रन्थकृतियां आज भी उपलब्ध हैं और उनमेंसे हमें इनके विषयकी यथेष्ट गुरुप्रशस्तियां पढनेको मिलती हैं । इनमें से कुछ महत्त्व के प्रशस्ति-पाठोंका हम यहां उल्लेख करना चाहते हैं । बुद्धिसागराचार्यकृत उल्लेख । 1 जिनेश्वर सूरिके समकालीन और सहवासी ग्रन्थकारोंमें, सबसे पहला स्थान उन्हींके लघु भ्राता श्री बुद्धिसागराचार्यको प्राप्त होता है । ये जिनेश्वर सूरिके सहोदर भ्राता भी थे और सतीर्थ्य गुरुबन्धु भी थे | मालूम देता है प्रायः ये दोनों बन्धु साथ ही रहते और विचरते थे । वि. सं. १०८० में ये दोनों आचार्य जाबालिपुर ( आधुनिक मारवाड राज्यका जालोर) में थे। जिनेश्वर सूरिने यहां पर इस वर्ष में हरिभद्राचार्यकृत अष्टकसंग्रह नामक प्रकरण प्रन्थकी टीका बनाई और बुद्धिसागराचार्यने अपने स्वोपज्ञ पंचग्रन्थी नामक संस्कृत व्याकरण ग्रन्थ की रचना पूर्ण की । इस ग्रन्थकी प्रशस्तिमें बुद्धिसागराचार्यने निम्न लिखित पद्योंमें, संक्षिप्त रूपसे परन्तु बडे ही सारगर्भित भावसे, अपने बन्धु - आचार्यकी गुणगरिमाका गौरव पूर्ण उल्लेख किया है । १ जिनेश्वर सूरिने भी स्वयं इस व्यारणका उल्लेख अपने प्रमालक्षण नामक ग्रन्थके अन्तिम श्लोकमें इस प्रकार किया हैश्रीबुद्धिसागराचार्यैर्वृतैर्व्याकरणं कृतम् । अस्माभिस्तु प्रमालक्ष्म वृद्धिमायातु सांप्रतम् ॥ इस व्याकरण ग्रन्थ की अभी तक एक ही मूल प्रति जेसल मेरके ज्ञानभण्डारमें ताडपत्र ऊपर लिखी हुई ज्ञात हुई है। इसी प्रतिके ऊपरसे, जिनभद्र सूरिके समय में, (वि. सं. १४७५ - १५१४ ) कागज ऊपर प्रतिलिपित की गई प्रति पाटण के वाडीपार्श्वनाथ के भण्डारमें उपलब्ध है । जेसलमेरका ताडपत्रीय पुस्तक भी प्रायः शुद्ध नहीं है और उस पर से प्रतिलिपित पाटणकी प्रति भी वैसी ही अशुद्धप्राय है । इस ग्रन्थकी अन्तकी पूरी प्रशस्ति इस प्रकार है । आसीन्महावीरजिनोऽस्य शिष्यः, सुधर्मनामाऽस्य च जम्बुनामा | तस्यापि शिष्यः प्रभवोऽस्य शिष्यः, राज्यम्भवोऽस्यानुपरम्परायाम् ॥ १ ॥ वज्रोsस्य शाखाम्बरमण्डलेऽस्मिन् साधुवृन्दावृतशान्तकान्तिः । भव्यासुमत्सत्कुमुदप्रबोधो निर्मा ( र्णा ) शिवाज्ञानघनान्धकारः ॥ २ ॥ बालेन्दुवत् सर्वजनाभिवन्यः शुलीकृताङ्गीकृतसाधुपक्षः । कलाकलापोपचयोम्ब (?) मूर्तिः श्रीवर्धमानो नतवर्धमानः ॥ ३ ॥ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनेश्वर सूरिके जीवन चरितका साहित्य । गुरुपदमनुकर्तुं तद्वदेवास्य शिष्योऽशिवदशिवदकल्पः कल्पशाखोपमेयः। अनतिकदतिकृदधि (१) व्याप्यचित्तोऽप्यचित्तोऽभवदिह वदिहाशः श्रीजिनेशो यतीशः॥ जलनिधिवदगाधो मोक्षरत्नार्थिसेव्यो यमनियमतपस्याज्ञानरत्नावलिश्च । सुरगिरिरिव वातैर्वायदूकैरकम्प्यो वचनजलसुगतां तर्पयन्नुप्तशस्याम् (१)॥ सुरपतिरतिवासे जैनमार्गोदयाद्रौ हतकुमततमिस्रः प्रोदगात् सूरिसूर्यः।। भषसरसिरहाणां भव्यपनाकराणां विदधदिव सुलक्ष्मी बोधकोऽहर्निशं तु ॥ इन पचोंका भावार्थ यह है, कि श्री वर्द्धमान सूरि, कि जो हमारे गुरु हैं, उनके पदका अनुकरण करनेमें सर्वथा उन्हींके जैसे उनके शिष्य श्री जिनेश्वर सूरि हैं । ये कल्याण करनेमें कल्पवृक्षके जैसे हैं। यम, नियम, तपस्या और ज्ञानके समुद्र हैं । मोक्षरूप रत्नकी प्राप्ति चाहने वालोंके लिये अगाध जलनिधिकी तरह उपासनीय हैं । जैसे पवनसे मेरुपर्वत नहीं कांपता वैसे ये भी वावदूकोंके (वाचाल ऐसे वादिजनोंके ) वाग्जालरूप वातसे कंपायमान नहीं होते । अपने वचनरूप जलसे (उपदेशामृतसे) संतप्त आत्माओंको तृप्त करते रहते हैं । कुमतरूप अन्धकारका नाश करने वाले और भव्यजनरूप कमलोंका विकाश करने वाले ऐसे सूर्यस्वरूप ये सूरि जैनमार्गरूपी उदयाचलके शिखरपर अभिनव उदित हुए हैं। बुद्धिसागराचार्यने इस प्रकार बहुत ही संक्षेपमें इनके पाण्डित्य, चारित्र, धैर्य, वाक्पटुत्व, तेजस्विता और यशखिता आदि सभी मुख्य गुणोंका सूत्ररूपसे यहां पर निर्देश कर दिया है और वह संपूर्ण तथ्यपूर्ण है । इनके दिये हुए ये विशेषण सभी सार्थक हो कर विशेषताके सूचक हैं । बुद्धिसागराचार्य जिनेश्वर सूरिके सर्वथा समकक्ष थे। इनके पिछले शिष्य-प्रशिष्योंने इन दोनों गुरुभ्राताओंका प्रायः सर्वत्र एक साथ और एक ही भावसे गुणगान और यशोविधान किया है। इससे मालूम देता है कि अपने समुदायके ये दोनों बन्धु आचार्य समान भावसे उन्नायक और उपकारक थे । इस लिये बुद्धिसागर सूरिका, जिनेश्वर सूरिके विषयमें किया गया यह संक्षिप्त गुणविधान, अत्यधिक महत्त्व रखता है। जिनप्रणीतागमतत्त्ववेत्ता द्विषां प्रणेतेव मनु[जे ?]तराणां (?)। साहित्य विद्याप्रभवो बभूव श्वेताम्बरः श्वेतयशा यतीशः ॥ ४ ॥ गुरुपदमनुकतु तद्वदेवास्य शिष्योऽशिवदशिवदकल्पः कल्पशाखोपमेयो। भनतिकृदतिकृदधि (?) व्याप्यचित्तोऽप्यचित्तोऽभवदिह वदिहाशः श्रीजिनेशो यतीशः ॥ ५॥ जलनिधिवदगाधो मोक्षरतार्थिसेव्यो यमनियमतपस्याज्ञानरत्नावलिश्च । सुरगिरिरिव तैर्वा (वातैः ?) वावदूकैरकम्प्यो वचनजलसुगेतां (?) तर्पयत्रुप्तशस्थाम् ॥६॥ सुरपतिरतिवासे जनमार्योदयाद्रौ हतकुमततमिश्रः (स्रः) प्रोदगात् सूरिसूर्यः । भवसरसिरहाणां भव्यपद्माकराणां विदधदिव सुलक्ष्मी बोधकोऽहर्निशं तु ॥७॥ श्रीबुद्धिसागराचार्योऽनुग्राह्योऽभवदेतयोः। पञ्चग्रन्थीं स चाकार्षीजगद्धितविधिस्सया ॥ ८॥ यदि मदिकृतिकल्पोऽनर्थधीमत्सरी वा कथमपि सदुपायैः शक्यते नोपकर्तुम् । तदपि भवति पुण्यं स्वाशयस्यानुकूल्ये पिबति सति यथेष्टं श्रोत्रियादौ प्रपायाम् ॥९॥ अम्भोनिधिं समवगाह्य समाप लक्ष्मी चेद्वामनोऽपि पृथिवीं च पदत्रयेण । श्रीबुद्धिसागरम, स्ववगाय कोद्यो(?), व्याप्नोति तेन जगतोऽपि पदद्वयेन ॥१०॥ श्रीविक्रमादित्यनरेन्द्रकालात् साशीतिके याति समासहस्रे। सश्रीजावालिपुरे तदा इब्धं मया सप्तसहस्त्रकरुपम् ॥११॥७॥ क. प्र०२ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि । जिनभद्राचार्यकृत उल्लेख । कालक्रमकी दृष्टिसे, जिनेश्वर सूरिके गुणोंका परिचय देने वाले उनके अन्यान्य विद्वान् एवं प्रधान शिष्योंमें, पहला स्थान धनेश्वर अपर नाम जिनभद्राचार्यका है, जिन्होंने 'सुरसुन्दरी' नामक कथाग्रन्थकी, प्राकृत भाषामें, एक बहुत ही सरस रचना की है। इस कथाकी रचनासमाप्ति वि. सं. १०९५ में, चड्डावलि (चन्द्रावती) नामक स्थानमें की गई है। बहुत संभव है कि ये भी सदैव अपने गुरुके साथ ही रहने वाले शिष्योंमेंसे एक हों । क्यों कि प्रस्तुत कथाकोष ग्रन्थकी प्रशस्तिमें कहा गया है कि वि. सं. ११०८ में जब इस ग्रन्थकी रचना पूरी हुई तब, इसका प्रथमादर्श अर्थात् पहली शुद्ध एवं परिपूर्ण प्रति, इन्हीं जिनभद्राचार्यने तैयार की थी। बादमें फिर इसकी अनेक पोथियां लिखवाई गई और उनका प्रचार किया गया । इन्होंने अपनी सुरसुन्दरी कथाकी अन्तिम प्रशस्तिमें अपने गुरुका परिचय इस प्रकार कराया है सीसो य तस्स सूरी सूरो व्व सयावि जणिय-दोसंतो। आसि सिरि-वद्धमाणो पवढमाणो गुण-सिरीए ॥ २४०॥ रागो य जस्स धम्मे आसि पओसो य जस्स पावम्मि । तुल्लो य मित्त-सत्तुसु तस्स य जाया दुवे सीसा ॥२४१॥ दुव्वार-वाइ-वारण-मर-निट्ठवण-निटर-मइंदो। जिण-भणिय-सुद्ध-सिद्धंत-देसणा-करण-तल्लिन्छो ॥ २४२॥ जस्स य अईव-सुललिय-पय-संचारा पसन्न-वाणीया। अइकोमला सिलेसे विविहालंकार-सोहिल्ला ॥२४३॥ लीलावद त्ति नामा सुवन्नरयणोह-हारि-सयलंगा। वेस व्व कहा वियरइ जयम्मि कय-जण-मणाणंदा ॥२४४॥ एगो ताण जिणेसर-सूरी सूरो व्व उक्कड-पयावो। तस्स सिरि-बुद्धिसागर-सूरी य सहोयरो बीओ॥२४५॥ पुन्न-सरदिंदु-सुंदर-निय-जस-पब्भार-भरिय-भुवण-यलो। जिण-भणिय-सत्थ-परमत्थ-वित्थरासत्त-सुह-चित्तो॥२४६॥ जस्स य मुह-कुहराओ विणिग्गया अत्थ-वारि-सोहिल्ला । बुह-चकवाय-कलिया रंगत-सुफक्किय-तरंगा ॥२४७॥ तडरुह-अवसद्द-महीरुहोह-उम्मूलणम्मि सुसमत्था । अज्झाय-पवर-तित्था पंचग्गंथी नई पवरा ॥ २४८॥ इसमें, प्रथम जिनेश्वर सूरिके गुरु वर्द्धमानाचार्यका उल्लेख करके पीछे, उनके दोनों शिष्योंकी अर्थात् जिनेश्वर सूरि और बुद्धिसागराचार्यकी प्रशंसा की गई है । जिनेश्वर सूरिके लिये कहा है कि ये दुर्मद ऐसे १ गणधरसार्द्धशतकमें, जिनदत्त सूरिने इनका परिचय निम्नलिखित गाथामें दिया है - सुगुणजणजणियभद्दो जिणभद्दो जविणेयगणपढमो । सपरेसि हिया सुरसुन्दरी कहा जेण परिकहिया ॥ जिनदत्त सूरिके इस कथनसे ज्ञात होता है कि ये जिनभद्राचार्य जिनेश्वर सूरिके सर्व प्रथम (विनेयगणमें प्रथम) शिष्य होंगे। अभयदेव सूरिने भगवतीसूत्रकी वृत्तिकी प्रशस्तिमें इनका उल्लेख किया है और उस वृत्तिके प्रन्थनमें इन्होंने अपनी पूरी सहायता प्रदान की इसके लिये उन्होंने इनके प्रति अपना उत्तम उपकृत भाव प्रकट किया है। जिनभदके साथ. अभयदेवके एक शिष्य यशश्चन्द्रगणि भी इस ग्रन्थके प्रणयनमें सहायक बने थे, उस लिये इन दोनों के लिये अभयदेवसूरिने ये निम्नगत उद्गार प्रकट किये हैं। श्रीमजिनेश्वराचार्यशिष्याणां गुणशालिनाम् । जिनभद्रमुनीन्द्राणामस्माकं चाहिसे बिनः॥ पशान्द्रगणेढसाहाय्यात् सिदिमागता ॥ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनेश्वर सूरिके जीवन चरितका साहित्य | वादीरूपी हाथियों का मर्दन करनेके लिये मृगेन्द्र जैसे हैं । जिनदेवके कहे हुए शुद्ध सिद्धान्तका उपदेश करनेमें बडे प्रवीण हैं । इन्होंने, अतीव सुललित पदोंका जिसमें संचार है और श्लेषादि विविध अलंकारोंसे जो विभूषित है ऐसी प्रसन्न वाणीवाली और अतीव कोमल भाववाली 'लीलावती' नामक कथाकी मनोहर रचना की है, जो सब जनोंके मनको आनन्द दे रही है । इन जिनेश्वर सूरिका प्रताप बहुत ही उत्कट रूप से फैल रहा है 1 1 इन्हीं जिनेश्वर सूरिके सहोदर बन्धु बुद्धिसागराचार्य हैं जो जिनप्रणीत शास्त्रोंके परमार्थका विस्तार करनेमें दत्तचित्त हैं । जिन्होंने अपने शरच्चन्द्र के समान उज्ज्वल यशसे सारे भुवनतलको भर दिया है । जिनके मुखविवर से पंचप्रन्थी ( व्याकरणशास्त्र ) रूप विशाल नदीका, अर्थप्रपूर्ण पानीसे भरा हुआ, वैसा प्रवाह नीकला है जो अपशब्दरूप वृक्षोंका उन्मूलन करनेमें बडा समर्थ है । कहनेकी आवश्यकता महीं कि जिनभद्राचार्यके ये वचन भी वैसे ही तथ्यपूर्ण हैं जैसे उपर्युक्त बुद्धिसागराचार्यके वचन हैं । जिनचन्द्रसूरिकृत उल्लेख । जिनेश्वर सूरिके पट्टधर शिष्य जिनचन्द्र सूरि हुए । अपने गुरुके स्वर्गवास के बाद ये ही उनके पट्टपर प्रतिष्ठित हुए और गणके प्रधान नेता बने । इन्होंने अपने बहुश्रुत एवं विख्यातकीर्ति ऐसे लघु-गुरुबन्धु अभयदेवाचार्यकी अभ्यर्थनाके वश हो कर, 'संवेगरंगशाला' नामक एक संवेग भावके प्रतिपादक, शान्तरसप्रपूर्ण एवं बृहत्परिमाण प्राकृत कथा - ग्रन्थकी रचना की, जिसकी समाप्ति वि. सं. ११२५ में हुई । इस प्रन्थकी प्रशस्तिमें इन्होंने भी अपने गुरुके विषयमें वैसी ही भूरिभूरि प्रशंसा से भरे हुए सारभूत वचन गुम्फित किये हैं जैसे उपर्युक्त दोनों आचार्योंने किये हैं । इनके ये वचन इस प्रकार हैं ११ काणं संभूओ भयवं सिरिवद्धमाणमुणिवसभो । नि पडिमपसमलच्छीविच्छडाखंडभंडारो ॥ ववहारनिच्छ्यनय व्व दव्वभावत्थय व्व धम्मस्स । परमुन्नइजणगा तस्स य दो सिस्सा समुत्पन्ना ॥ पढमो सिरिरिजिणेसरो त्ति मूवि (?) जंमि उइयंमि । मेोत्थापहावहामए ( ? ) दूरं तेयस्तिचक्कस्स ॥ अज वि य जस्स हरहासहंसगोरगुणाण पब्भारं । सुमरंता भव्वा उव्वहंति रोमंचमंगेसु ॥ बीओ पुण विरइयनिउणपवरवागरणपमुहबहु सत्थो । नामेण बुद्धिसागरसूरि त्ति अहेसि जयपथडो ॥ अर्थात् - भगवान् महावीरकी शिष्यसन्ततिमें कालक्रमसे श्री वर्द्धमान सूरि उत्पन्न हुए, जो अनुपम ऐसी प्रशमभावरूप लक्ष्मीके महान् भंडार जैसे थे । इनके, धर्मके द्रव्यस्तव और भावस्तव जैसे तथा व्यवहार और निश्चय नयके खरूप समान, परोन्नतिकारक दो शिष्य हुए । इनमें पहले श्री जिनेश्वर सूरि हैं, जो जैनाकाशमें तेजखी सूर्यके समान उदित हुए और जिन्होंने अपने बुद्धिके प्रखर प्रकाशसे, प्रतिस्पर्द्धिरूप मेघों अधकारको दूर कर दिया । आज भी अर्थात् इस ग्रन्थके बननेके समयमें भी, भव्यजन इनके उज्वल गुणसमूहका स्मरण कर कर, रोमांचोद्गमका अनुभव कर रहे हैं। वर्द्धमान सूरिके दूसरे शिष्य जगप्रसिद्ध ऐसे बुद्धिसागर सूरि हुए जिन्होंने व्याकरण आदि बहुत शास्त्रोंका प्रणयन किया है । + संवेगरंगशाला प्रन्थकी यह प्रशस्ति हमको बडोदे वाले पं. श्रीलालचन्दजी भ० गान्धीने बडे परिश्रम पूर्वक प्राप्त करके मेजी है इसलिये हम इनके इस सौजन्मके प्रति अपना कृतज्ञभाव प्रकट करते हैं। Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि । अभयदेवसूरिकृत उल्लेख । :: जिनेश्वर सूरिके, अनुक्रममें शायद तीसरे परन्तु ख्याति और महत्ताकी दृष्टिसे सर्वप्रथम, ऐसे महान् शिष्य श्री अभयदेव सूरि थे जिन्होंने जैन आगम ग्रन्थों में सर्वप्रधान जो एकादशाङ्ग सूत्र प्रन्थ हैं उनमेंसे नव अङ्ग सूत्रोंपर, सुविशद संस्कृत टीकायें बनाई । अभयदेवाचार्य अपनी इन व्याख्याओंके कारण जैन साहित्याकाशमें, कल्पान्तस्थायी नक्षत्रके समान, सदा प्रकाशित और सदा प्रतिष्ठित रूपमें उल्लिखित किये जायंगे । श्वेताम्बर संप्रदायके, पिछले सभी गच्छ और सभी पक्ष वाले विद्वानोंने, अभयदेव सूरिको बडी श्रद्धा और सत्यनिष्ठाके साथ, एक प्रमाणभूत एवं तथ्यवादी आचार्यके रूपमें, खीकृत किया है और इनके कथनोंको पूर्णतया आप्तवाक्यकी कोटीमें समझा है । अपने समकालीन विद्वत्समाजमें भी इनकी प्रतिष्ठा बहुत ऊंची थी । शायद ये अपने गुरुसे भी बहुत अधिक आदरके पात्र और श्रद्धाके भाजन बने थे । जिन चैत्यवासी यतिजनोंके विरुद्ध, जिनेश्वर सूरिने अपना दण्ड उठाया था उन्हीं यतिजनोंके पक्षके एक अग्रगण्य, राजमान्य और बहुश्रुत आचार्य द्रोणाचार्यने अपनी प्रौढ पण्डितपरिषद्के साथ, इन अभयदेव सूरिकी उक्त आगमग्रन्थोंपरकी व्याख्या-रचनाओंको बडे सौहार्दके साथ आद्योपान्त संशोधित किया था और इस प्रकार इनके प्रति बडा सौजन्य प्रदर्शित किया था । अभयदेव सूरिने भी बहुत ही कृतज्ञभावसे, इनके इस अनन्य सौजन्यका सादर स्मरण, अपनी उन रचनाओंमें स्पष्ट रूपसे किया है । अभयदेव सूरिने स्थानांग, समवायांग और ज्ञातासूत्रकी वृत्तियां अणहिल पुरमें, वि. सं. ११२० में समाप्त की तथा जैन आगमग्रन्थोंमें सबसे प्रधान और बृहत्परिमाण ऐसा जो भगवती सूत्र है, उसकी व्याख्या सं. ११२८ में पूर्ण की । इन्होंने अपने गुरुकी स्तुति अपनी इन व्याख्याओंके अन्तमें इस प्रकार की है 'चान्द्रे' कुले सदनकक्षकल्पे महाद्रुमो धर्मफलप्रदानात् । छायान्वितः शस्तविशालशाखः श्रीवर्द्धमानो मुनिनायकोऽभूत् ॥ तत्पुष्पकल्पौ विलसद्विहारसद्गन्धसंपूर्णदिशौ समन्तात् । बभूवतुः शिष्यवरावनीहवृत्ती श्रुतज्ञानपरागवन्तौ ॥ एकस्तयोः सूरिवरो जिनेश्वरः ख्यातस्तथाऽन्यो भुवि बुद्धिसागरः। तयोविनेयेन विबुद्धिनाऽप्यलं वृत्तिः कृतैषाऽभयदेवसूरिणा ॥ -भगवतीसूत्रकी व्याख्या। निःसम्बन्धविहारहारिचरितान् श्रीवर्द्धमानाभिधान् सूरीन् ध्यातवतोऽतितीव्रतपसो ग्रन्थप्रणीतिप्रभोः। श्रीमत्सूरिजिनेश्वरस्य जयिनो दीयसां वाग्मिनां तद्वन्धोरपि बुद्धिसागर इति ख्यातस्य सूरे वि ॥ शिष्येणाभयदेवाख्यसूरिणा विवृतिः कृता । श्रीमतः समवाय 'समासतः॥ -समवायानसूत्रकी वृत्ति । १ भगवतीसूत्रकी वृत्तिके अन्तमें अभयदेव सूरिने द्रोणाचार्यका उपकारस्मरण इस तरह किया है शास्त्रार्थ निर्णयसुसौरभलम्पटस्य विद्वन्मधुक्तगणस्य सदैव सेव्यः । श्रीनिर्वृताख्यकुलसन्नदपद्मकल्पः श्रीद्रोणसूरिरनवद्ययशःपरागः ॥ शोधितवान् वृत्तिमिमां युक्तो विदुषां महासमूहेन । शास्त्रार्थ निष्कनिकषणकषपट्टककल्पबुद्धीनाम् ॥ . इसी तरह ज्ञाता आदि अन्यव्याख्याओंके अन्तमें इस प्रकार संक्षेपमें उल्लेख किया है - निर्वृतिककुलनभस्तलचन्द्रद्रोणाख्यसूरिमुख्येन । पण्डितगुणेन गुणवस्प्रियेण संशोधिता घेयम् ॥ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनेश्वर सूरिके जीवन चरितका साहित्य । यो जैनाभिमतप्रमाणमनघं व्युत्पादयामासिवान् प्रस्थानैर्विविधैर्निरस्य निखिलं बौद्धादिसम्बन्धि तत् । नानावृत्तिकथाकथापथमतिक्रान्तं च चके तपः निस्संबन्धविहारमप्रतिहतं शास्त्रानुसारात्तथा ॥ तस्याचार्यजिनेश्वरस्य मदवद्वादिप्रतिस्पर्द्धिनः तबन्धोरपि बुद्धिसागर इति ख्यातस्य सूरेभुवि । छन्दोबन्धनिबद्धबन्धुरवचःशब्दादिसल्लक्ष्मणः श्रीसंविग्नविहारिणः श्रुतनिधेश्चारित्रचूडामणेः ॥ - ज्ञातासूत्र, प्रश्नव्याकरणसूत्र और विपाकसूत्रकी वृत्ति । चन्द्रकुलविपुलभूतलमुनिपुङ्गववर्द्धमानकल्पतरोः। कुसुमोपमस्य सूरेर्गुणसौरभभरितभुवनस्य ॥ निःसंबन्धविहारस्य श्रीजिनेश्वराबस्य (?) शिष्येणाभयदेवाख्यसूरिणेयं कृता वृत्तिः॥ -औपपातिकसूत्रकी वृत्ति । चन्द्रकुलीनप्रवचनप्रणीताप्रतिबद्ध विहारहारिचरितश्रीवर्द्धमानाभिधानमुनिपतिपादोपसेविनः प्रमाणादिव्युत्पादनप्रवणप्रकरणविधप्रणायिनःप्रबुद्धप्रतिबन्धकप्रवक्तृप्रवीणाप्रतिहतवचनार्थप्रधानवाक्प्रसरस्य सुविहितमुनिजनमुख्यस्य श्रीजिनेश्वराचार्यस्य तदनु तदनुजस्य च व्याकरणादि. शास्त्रकर्तुः श्रीबुद्धिसागराचार्यस्य चरणकमलचश्वरीककल्पेन श्रीमभयदेवसूरिनाम्ना मया महावीरजिनराजसन्तानवर्तिना महाराजवंशजन्मनेय । ( इत्यादि) - स्थानाङ्गस्त्रकी वृत्तिका प्रारंभ । __ भिन्न भिन्न वृत्तियोंके दिये गये इन उद्धरणोंसे ज्ञात होगा, कि इनमें अभयदेव सूरिने, सूत्ररूपसे जिनेश्वर सूरिके उन सभी प्रधान गुणोंका उल्लेख कर दिया है जिनका सूचन, इसके पहले दिये गये बुद्धिसागराचार्य, जिनभद्र और जिनचन्द्र सूरिके कथनोंमें गर्भित है । अभयदेव कहते हैं कि-जिनेश्वर सूरि, वर्द्धमान सूरि-खरूप कल्पवृक्षके पुष्पके समान हैं जिन्होंने अपने सदाचार और विहारके सौगन्ध्यसे सब दिशाओंको सुवासित कर दिया है । मदवाले प्रतिस्पर्धि वादियोंका - दर्पवाले वाग्ग्मियोंका जिन्होंने पराजय किया है । जैनदर्शनाभिमत प्रमाणशास्त्रका व्युत्पादन कर जिन्होंने विविध प्रस्थानों द्वारा बौद्ध आदि वादोंका निरसन किया है । नाना प्रकारके व्याख्याग्रन्थ तथा कथाग्रन्थोंकी रचना कर जिन्होंने उपदेशमार्गका परिक्रमण किया है । शास्त्रानुसार तपःसंयमका पालन करते हुए निस्संबन्ध एवं अप्रतिबद्ध हो कर जिन्होंने सतत विहरण किया है । इनके लघुबन्धु आचार्य बुद्धिसागर भी ऐसे ही संविग्नविहारी, श्रुतनिधि और चारित्रचूडामणि हैं । इन्होंने छन्दोबद्ध शब्दशास्त्र (व्याकरणशास्त्र) आदि ग्रन्थोंकी रचना कर अपनी विद्वत्ताकी ख्याति प्राप्त की है - इत्यादि । ___अभयदेव सूरि बहुत ही परिमित और संतुलित कथन करने वाले तथा अत्यंत समभावी एवं निर्मम खभावके बडे भव्य आचार्य थे । इन्होंने अपने गुरुका इस प्रकार अत्यंत ही खल्प शब्दोंमें जो गुणसूचन किया है वह बहुत महत्व रखता है । वर्द्धमानाचार्यकृत उल्लेख । अभयदेव सूरिके एक विद्वान् शिष्य वर्द्धमानाचार्य हुए, जिन्होंने प्राकृतमें 'मनोरमा' नामक कथाग्रंथ, तथा दूसरा 'आदिनाथ चरित्र' नामक बहुत बडा ग्रन्थ बनाया । क्यों कि ये अभयदेव सूरिके साक्षात् शिष्य थे इसलिये संभव है कि इनको अपने प्रगुरु जिनेश्वर सूरिकी प्रत्यक्ष सेवा उपासना करनेका भी सौभाग्य प्राप्त हुआ हो । इन्होंने 'मनोरमा' कथाकी रचना संवत् ११४० में, और 'आदिनाथचरित्र'की Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि। रचना सं. ११६० में, खंभातमें, पूर्ण की । इन ग्रन्थोंमें इन्होंने अपने प्रगुरुकी प्रशंसा इस प्रकार की है। अप्पडिबद्धविहारो सूरी सोमो व्व जणमणाणंदो। आसि सिरिवद्धमाणो पवद्धमाणो गुणगणेहिं ॥ सूरिजिणेसर-सिरिबुद्धिसायरा सागरो ब्व गंभीरा । सुरगुरु-सुक्कसरिच्छा सहोयरा सूरिपयपत्ता ॥ वायरण-च्छंद-निघंटु-कव्व-नाडय-कहाइ विविहाई । विबुहजणजणियहरिसा जाण पबंधा पढिजति ॥ ताण विणेओ सूरी सिरिअभयदेव त्ति नाम संजाओ। विजियक्खो पच्चक्खं कयविग्गहसंगहो धम्मो ॥ -मनोरमा कथाकी प्रशस्ति । खमदमसंजमगुणरयणरोहणो विजियदुजयाणंगो। आसि सिरिवद्धमाणो सूरी सव्वत्थसुपसिद्धो॥ सूरिजिणेसर-सिरिबुद्धिसागरा सायरो व्व गंभीरा । सुरगुरु-सुक्कसरिच्छा सहायेरा तस्स दो सीसा ॥ वायरण-च्छंद-निघंटु-कव्व-नाडय-पमाणसमएण । अणिवारियप्पयारा जाण मई सयलसत्थेसु ॥ -आदिनाथ-चरित्रकी प्रशस्ति । वर्द्धमान सूरिने, इन ऊपर उद्धृत गाथाओंमें, अपने प्रगुरुकी प्रशंसा उनके एक खास पाण्डित्यगुणको लक्ष्य करके ही की है । वे कहते हैं - जिनेश्वर और बुद्धिसागर दोनों सूरि-बन्धु बृहस्पति और शुक्रकी जोडीके समान थे । इन बन्धुओंकी व्याकरण, छन्द, निघंटु, काव्य, नाटक, कथा और प्रमाण आदि सकल शास्त्रोंमें अस्खलित गति थी । इनके रचे हुए उक्त विषयोंके ग्रन्थ-प्रबन्ध विद्वजन बडे हर्षके साथ पढते हैं। इस उल्लेखसे ज्ञात होता है कि, इन भ्राताओंने काव्य, नाटक, छन्द, निघण्टु आदि विषयोंके भी कुछ प्रबंधोंका प्रणयन किया होना चाहिये । इनमेंका कोई प्रबंध अभीतक हमें ज्ञात नहीं हुआ । जैसा कि आगे चल कर हम इनके उपलब्ध ग्रन्थोंका परिचय करायेंगे, उससे ज्ञात होगा कि व्याकरण, कथा, प्रमाण और कुछ धार्मिक प्रकरण ग्रन्थ ही इनके अभीतक हमें ज्ञात हो रहे हैं । काव्य - नाटकादि प्रबंध या तो नष्ट हो चुके हैं या कहीं किसी अज्ञात ग्रन्थभण्डारमें पडे पडे सड रहे होंगे । उनका अभी तक कोई पता नहीं चला । अभयदेव सूरिने तथा जिनचन्द्र सूरिने भी बुद्धिसागराचार्यको 'व्याकरण आदि शास्त्रोंका प्रणेता' ऐसा सूचित किया है । इससे ज्ञात होता है कि उन्होंने, वर्तमानमें एक मात्र उपलब्ध अपने व्याकरण ग्रन्थ (जिसका कुछ परिचय ऊपर दिया जा चुका है) के सिवा और भी कई ग्रन्थोंका प्रणयन किया होना चाहिये । इसके नीचे जो देवभद्र सूरिका उद्धरण दिया जा रहा है उससे यह तो निश्चित ज्ञात होता है कि बुद्धिसागर सूरिने छन्दविषयक भी कोई शास्त्र बनाया था। देवभद्राचार्यकृत उल्लेख । देवभद्र सूरि, जिनके ग्रन्थका उद्धरण यहां नीचे दिया जाता है, वे अभयदेव सूरिके एक पट्टधर शिष्य प्रसन्नचन्द्र सूरिके विनेय थे । यों इनके दीक्षा-दायक गुरु तो साक्षात् जिनेश्वर सूरि-ही-के एक शिष्य सुमति वाचक थे और इनका मूल नाम गुणचन्द्र गणी था । अशोकचन्द्राचार्य, जिनको जिनचन्द्रसूरिने बडे प्रेमसे विद्याभ्यास कराया था और फिर आचार्यपद दे कर अपने पट्टपर प्रतिष्ठित किया था, Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनेश्वर सूरिके जीवनचरितका साहित्य । उन्होंने प्रसन्नचन्द्र सूरिके साथ ही इनको भी आचार्य पद दे कर, देवभद्र इस नये नामसे उद्घोषित किया था । प्रसन्नचन्द्र सूरि, मूल जिनेश्वर सूरिके दीक्षित शिष्य थे; परन्तु उनको तर्कशास्त्रादि विद्याका अध्ययन अभयदेव सूरिने कराया था। उनको आचार्य पद प्रदान करते समय अशोकचन्द्र सूरिने, शायद उन्हें अभयदेवके पट्ट पर स्थापित किया था, इसलिये वे अपनेको अभयदेवका भी विनेय कहते थे । देवभद्रने शायद इन प्रसन्नचन्द्रके पास विद्याध्ययन किया हो और इन्हींके पास विशेष रूपसे रहे हों इसलिये ये अपनेको इनका खास अन्तेवासी विनेय सूचित करते हों। : जिनचन्द्र गणिने जो उक्त संवेगरंगशाला नामक बृहत् आराधनाग्रन्थ बनाया उसका प्रतिसंस्कार इन्हींने किया था । जिनवल्लभ और जिनदत्त सूरिको इन्हींने आचार्य पद दे कर उनको गणनायक बनाया था। इन्होंने प्राकृत भाषामें पार्श्वनाथचरित्र, महावीरचरित्र, कथारत्नकोषादि ४ बडे बडे प्रौढ प्रन्थोंकी रचना की है । इनका पहला ग्रन्थ 'महावीरचरित' है जिसकी रचना वि. सं. ११३९ में पूर्ण हुई। इस समय तक इनको आचार्य पद नहीं दिया गया था, इससे इसमें इन्होंने अपना उल्लेख मूलदीक्षित नाम-गुणचन्द्र गणीके नामसे ही किया है । दूसरा ग्रन्थ 'कथारत्नकोष' है जिसकी रचना सं. ११५८ में पूरी हुई और तीसरा ग्रन्थ 'पार्श्वनाथचरित' है जो सं. ११६८ में समाप्त हुआ । इन्होंने अपने महावीर चरित्रमें जिनेश्वर सूरिके विषयमें इस प्रकार उल्लेख किया है - मुणिवइणो तस्स हरट्टहाससियजसपसाहियासस्स । आसि दुये वरसीसा जयपयडा सूर-ससिणो व्व ॥ भवजल हिवीइसंभंतभवियसंताण तारणसमत्थो। बोहित्थो व्व महत्थो सिरिसूरिजिणेसरो पढमो॥ अन्नो य पुन्निमायंदसुंदरो बुद्धिसागरो सूरी। निम्मविय पवरवायरण-छंदसत्थो पसत्थमई ॥ एगंतवायविलसिरपरवाइकुरंगभंगसीहाणं । तेसि सीसो जिणचंदसूरिनामो समुप्पन्नो ॥ --महावीरचरित्रकी प्रशस्ति। इनके इस उल्लेखका भी भावार्थ वही है जो ऊपर दिये गये अन्यान्य उल्लेखोंमें गर्भित है । अर्थात् ये कहते हैं कि -मुनिवर वर्द्धमान सूरिके सूर्य और चन्द्रमाके समान तेजस्वी ऐसे श्री जिनेश्वर और बुद्धिसागर नामके दो जगत्प्रख्यात प्रधान शिष्य हुए। इनमें जिनेश्वर सूरि जो प्रथम थे, संसार समुद्र में भूले पडे हुए भव्य जनोंको तारनेके लिये प्रवहणके समान समर्थ हुए । दूसरे बुद्धिसागर सूरि, जो पूर्णिमाके चंद्रमाके समान सुन्दर लगते थे बडे प्रशस्तमति हो कर, उन्होंने व्याकरण और छन्दःशास्त्रकी प्रौढ रचनाएँ की हैं । ये दोनों ही आचार्य एकान्तवादमें विलास करने वाले परवादीरूप मृगोंका भंग करनेमें सिंहके समान बलशाली हुए, इत्यादि । ऊपर जो कुछ ये उद्धरण दिये गये हैं वे सब जिनेश्वर सूरिके साक्षात् शिष्योंके ही ग्रथित ग्रन्थोंमेंसे उपलब्ध होनेके कारण इनकी प्रमाणभूततामें किसी प्रकारकी शंकाको अवकाश नहीं है। जिनदत्तसूरिकृत उल्लेख । इन उल्लेखोंमें, कालक्रमकी दृष्टि से अन्तिम परन्तु ऐतिहासिक दृष्टि से विशेष महत्त्वका एवं जिनेश्वर१ पिछले ग्रन्थ 'कथारत्न कोष' तथा 'पार्श्वनाथ चरित्र में संक्षेप-ही-में नाम निर्देश कर इन्हें सन्तोष धारण करना पड़ा है। क्यों कि जितना उल्लेख करना इन्हें उपयुक्त था उसे ये अपने पहले ग्रन्थमें कर चुके थे। Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि । सूरिके मुख्य कार्यकलापका सविशेष ज्ञापक ऐसा एक और उद्धरण यहां देते हैं जो जिनदत्त सूरिका कथनखरूप है। जिनदत्त सूरिके विषयमें कुछ विशेष परिचय देनेका यहां अवकाश नहीं है । बहुत संक्षेपमें, इनके कार्यका कुछ थोडासा परिचय ऊपर दे ही दिया गया है । ये भी जिनेश्वर सूरिके साक्षात् प्रशिष्योंमेंसे ही एक थे। इनके दीक्षागुरु धर्मदेव उपाध्याय थे जो जिनेश्वर सूरिके खहस्तदीक्षित अन्यान्य शिष्योंमेंसे थे। इनका मूल दीक्षानाम सोमचन्द्र था । हरिसिंहाचार्यने इनको सिद्धान्त ग्रन्थ पढाये थे । इनके उत्कट विद्यानुराग पर प्रसन्न हो कर देवभद्राचार्यने अपना वह प्रिय कटाखरण ( वरतना - एक प्रकारकी कलम जिससे लकडीकी पट्टिका पर खडियासे लिखा जाता है), जिससे उन्होंने अपने बडे बडे ४ ग्रन्थोंका लेखन किया था, इनको भेटके खरूपमें प्रदान किया था। ये बडे ज्ञानी, ध्यानी और उद्यत विहारी थे। जिनवल्लभ सूरिके स्वर्गवासके पश्चात् इनको, उनके उत्तराधिकारी पट्ट पर, देवभद्राचार्यने आचार्यके रूपमें स्थापित किया था । चैत्यवासके विरुद्ध जिनेश्वर सूरिने जिन विचारोंका प्रतिपादन किया था उनका सबसे अधिक विस्तार और प्रचार वास्तवमें जिनवल्लभ सूरिने किया था। उनके उपदिष्ट मार्गका इन्होंने बडी प्रखरताके साथ समर्थन किया और उसमें इन्होंने आने कई नये विचार और नये विधान भी सम्मीलित किये । जिनेश्वर सूरिने अपने जीवन और भ्रमण कालमें कोई निश्चित विधि-विधान वाली अपनी पक्षस्थापना नहीं की थी। प्रासंगिक परिस्थितिको लक्ष्य कर, जो जो विचार उनके मनमें उत्पन्न होते गये, उनका शास्त्रानुसार विचार कर वे तदनुरूप उपदेश देते रहे । इस विषयका न कोई उन्होंने नये साहित्यका ही निर्माण किया और न कोई नियमबद्ध ऐसा अपना नया विशिष्ट पक्ष ही संगठित किया । वे अपने उपदेशसे और अपने आचारसे तत्कालीन जैन यतिसमाजमें, एक नई परिस्थितिका, विशिष्ट आन्दोलन उत्पन्न कर गये । उनके इस आन्दोलित वातावरणके कारण, उनकी मृत्युके पश्चात् खल्पसमयमें हीप्रायः आधीशताब्दीके अन्तर्गत ही- जैन श्वेतांबर यतिवर्गमें, कितने ही सांप्रदायिक और धार्मिक विधि-विधानोंको ले कर, भिन्न भिन्न गच्छीय आचार्यों द्वारा, कई छोटे बडे गच्छ एवं पक्ष-विपक्षोंका प्रादुर्भाव हो गया । इन पक्षोंमें परस्पर अस्मिता और प्रतिस्पर्धाका जोर बढने लगा और ये एक दूसरेके मन्तव्योंका व्यवस्थित खण्डन - मण्डन करने में प्रवृत्त होने लगे । वाद-विवादका विषय केवल चैत्यवास और वसतिवास तक ही सीमित नहीं रहा; परंतु मन्दिरोंकी प्रतिष्ठा, उपासना, पूजा आदिके विधिविधानोंके वारेमें तथा साधु-यतियोंके आहार-विहारके वारेमें, एवं गृहस्थोंके भी कुछ क्रियाकांडोंके वारेमें, भिन्न भिन्न प्रकारके कितने ही वाद-विवादात्मक विषय उत्पन्न होने लगे और उनको मुख्य करके पृथक् पृथक् गच्छानुयायियोंका परस्पर संघर्ष होने लगा। इसी संघर्षके परिणाममें जिनवल्लभ सूरिको अपना एक नया 'विधिपक्ष' या 'विधिमार्ग' नामक विशिष्ट संघ स्थापित करना पड़ा जिसका विशेष पुष्टीकरण एवं दृढ संगठन इनके उत्तराधिकारी जिनदत्त सूरिने किया । जिनवल्लभ सूरि, मूलमें मारवाडके एक बडे मठाधीश चैत्यवासी गुरुके शिष्य थे। परंतु ये उनसे विरक्त हो कर, गुजरातमें अभयदेव सूरिके पास, शास्त्राध्ययन करनेके निमित्त, उनके अन्तेवासी हो कर रहे थे। ये बडे भारी प्रतिभाशाली विद्वान् , कवि, साहित्यज्ञ, ग्रन्थकार और ज्योतिःशास्त्र विशारद थे। इनके प्रखर पाण्डित्य और विशिष्ट वैशारद्यको देख कर, अभयदेव सूरि इनपर बडे प्रसन्न रहते थे और अपने मुख्य दीक्षित शिष्यों की अपेक्षा भी इन पर अधिक अनुराग रखते थे । अभयदेव सूरि चाहते थे कि अपने Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनेश्वर सूरिके जीवन चरितका साहित्य । उत्तराधिकारी पट्टपर इनकी स्थापना हो, परन्तु ये मूल चैत्यवासी गुरुके दीक्षित शिष्य होनेसे शायद इनको गच्छनायकके रूपमें अन्यान्य शिष्य खीकार नहीं करेंगे, ऐसा सोच कर अपने जीवित कालमें वे इस विचारको कार्यमें नहीं ला सके । उनके पट्टधरके रूपमें वर्द्धमानाचार्य (आदिनाथ चरितादिके कर्ता )की स्थापना हुई । तथापि अपनी अन्तावस्थामें अभयदेव सूरिने प्रसन्नचन्द्र सूरिको सूचित किया था कि योग्य समयपर जिनवल्लभको आचार्य पद दे कर मेरा पट्टाधिकारी बनाना । परन्तु, वैसा उचित अवसर आनेके पहले ही प्रसन्नचन्द्र सूरिका भी खर्गवास हो गया। उन्होंने अभयदेव सूरिकी उक्त इच्छाको अपने उत्तराधिकारी पट्टधर देवभद्राचार्यके सामने प्रकट किया और सूचित किया कि यह कार्य तुम संपादन करना । अभयदेव सूरिके स्वर्गवासके बाद, उनके अन्यान्य शिष्योंका जिनकल्लभके प्रति, शायद विशेष सद्भाव नहीं रहा । अणहिलपुर और स्तम्भतीर्थ जैसे गुजरातके प्रसिद्ध स्थानोंमें, जहां अभयदेवके दीक्षित शिष्योंका विशेष प्रभाव था, जिनवल्लभको अपना प्रभाव प्रस्थापित करनेका कोई विशेष सुयोग नहीं दिखाई दिया। इससे इन्होंने किसी अपरिचित स्थानमें जा कर, अपने विद्याबल के सामर्थ्य द्वारा अपने प्रभावका कार्यक्षेत्र बनाना चाहा । इसके लिये मेवाडकी राजधानी चित्तोडको इन्होंने पसन्द किया । वहां इनकी यथेष्ट मनोरयसिद्धि हुई और फिर मारवाडके नागोर आदि स्थानोंमें भी इनके बहुतसे भक्त उपासक बने । धीरे धीरे इनका प्रभाव मालवामें भी बढा । मेवाड-मारवाडमें जो बहुतसे चैत्यवासी यतिसमुदाय थे उनके साथ इनकी प्रतिस्पर्धा भी खूब हुई । इन्होंने उनके अधिष्ठित देवमन्दिरोंको अनायतन ठहराया और उनमें किये जानेवाले पूजन, उत्सवों आदिको अशास्त्रीय उद्घोषित किया। अपने भक्त उपासकों द्वारा अपने पक्षके लिये जगह जगह नये मन्दिर बनवाये और उनमें किये आनेवाले पूजा आदि विधानोंके लिये कितनेक नियम निश्चित किये । इस विषयके छोटे-बड़े कई प्रकरण और ग्रन्थादिकी भी इन्होंने रचनाएं की। - देवभद्राचार्यने इनके बढे हुए इस प्रकारके प्रौढ प्रभावको देख कर, और इनके पक्षमें सैकडों ही उपासकोंका अच्छा समर्थ समूह जान कर, इनको आचार्य पद दे कर अभयदेव सूरिके पट्टधरके रूपमें इन्हें प्रसिद्ध करनेका निश्चय किया। जिनेश्वर सूरिके शिष्यसमूहमें, उस समय, शायद देवभद्राचार्य ही सबसे अधिक प्रतिष्ठासम्पन्न और सबसे अधिक वयोवृद्ध पुरुष थे । वे इस कार्यके लिये गुजरातसे रवाना हो कर चित्तोड पहुंचे। यह चित्तोड ही, जैसा कि हमने ऊपर सूचित किया है, जिनवल्लभ सूरिके प्रभावका उद्गम एवं केन्द्रस्थान था । यहीं पर सबसे पहले जिनवल्लभ सूरिके नये उपासक भक्त बने और यहीं पर इनके पक्षका सबसे पहला 'वीरविधिचैत्य' नामक विशाल जैन मन्दिर बना । वि. सं. ११६७ के आषाढ मासमें इनको इसी मन्दिरमें आचार्य पद पर अधिष्ठित कर देवभद्राचार्यने अपने गच्छपति गुरु प्रसन्नचन्द्र सूरिके उस अन्तिम आदेशको सफल किया । पर दुर्भाग्यसे ये इस आचार्य पदका दीर्घकाल तक उपभोग नहीं कर सके। चार ही महिनेके अन्दर इनका उसी चित्तोडमें स्वर्गवास हो गया। इस घटनाको जान कर देवभद्राचार्यको बडा दुःख हुआ । जिनवल्लभ सूरिने अपने प्रभावसे मारवाड, मेवाड, मालवा, वागड आदि देशोंमें जो सेंकडों ही नये भक्त उपासक बनाये थे और अपने पक्षके अनेक 'विधिचैत्य' स्थापित किये थे उनका नियामक ऐसा कोई समर्थ गच्छनायक यदि न रहा तो वह पक्ष छिन्न-भिन्न हो जायगा; और इस तरह जिनवल्लभ सूरिका किया हुआ कार्य विफल बन जायगा । यह सोच कर देवभद्राचार्य, जिनवलभ सूरिके पट्टपर प्रतिष्ठित करनेके लिये अपने सारे समुदायमेंसे किसी विशेष योग्य व्यक्तित्ववाले यतिजनकी खोज करने लगे । उनकी ___ क. प्र. ३ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि । 1 दृष्टि धर्मदेव उपाध्यायके शिष्य पण्डित सोमचन्द्र पर पडी, जो इस पद के सर्वथा योग्य एवं जिनवल्लभ के जैसे ही पुरुषार्थी, प्रतिभाशाली, क्रियाशील और निर्भय प्राणवान् व्यक्ति थे । देवभद्राचार्य फिर चित्तोड गये और वहां पर, जिनवल्लभ सूरिके प्रधान - प्रधान उपासकोंके साथ परामर्श कर उनकी सम्मति से, सं. १९६९ के वैशाख मासमें, सोमचन्द्र गणिको आचार्य पद दे कर, जिनदत्त सूरिके नामसे जिनवल्लभ सूरके उत्तराधिकारी आचार्य पद पर उन्हें प्रतिष्ठित किया । जिनवल्लभ सूरिके विशाल उपासक वृन्दका नायकत्व प्राप्त करते ही जिनदत्त सूरिने अपने पक्षकी विशिष्ट संघटना करनी शुरू की। जिनेश्वर सूरि प्रतिपादित कुछ मौलिक मन्तव्योंका आश्रय ले कर और कुछ जिनवल्लभ सूरिके उपदिष्ट विचारोंको पल्लवित कर, इन्होंने जिनवल्लभ स्थापित उक्त ' विधिपक्ष' नामक संघका बलवान् और नियमबद्ध संगठन किया जिसकी परम्पराका प्रवाह, जिसे प्रायः अब ८०० वर्ष पूरे हो रहे हैं, आज तक अखण्डित रूपसे चलता रहा । जिनदत्त सूरिने प्राकृत, संस्कृत और अपभ्रंश भाषा में छोटे-बडे अनेक ग्रन्थोंकी रचना की । इनमें एक 'गणधर सार्द्धशतक' नामक ग्रन्थ है जिसमें इन्होंनें भगवान् महावीरके शिष्य गौतम गणधरसे ले कर अपने गच्छपति गुरु जिनवल्लभ सूरि तकके, महावीरके शासन में होने वाले और अपनी संप्रदाय परंपरामें माने जाने वाले, प्रधान प्रधान गणधारी आचायोंकी स्तुति की है । १५० गाथाके इस प्रकरण में, आदिकी ६२ गाथाओं तकमें तो पूर्व कालमें होजाने वाले कितनेक पूर्वाचायोंकी प्रशंसा की है । ६३ से ले कर ८४ तककी गाथाओंमें वर्द्धमान सूरि और उनके शिष्यसमूह में होने वाले जिनेश्वर, बुद्धिसागर, जिनचन्द्र, अभयदेव, देवभद्र आदि अपने निकट पूर्वज गुरुओंकी स्तुति की है; और फिर शेष भाग में, ८५ वीं गाथासे ले कर १४७ तककी गाथाओंमें अपने गणके स्थापक गुरु जिनवल्लभकी बहुत ही प्रौढ शब्दोंमें तरह- तरहसे स्तवना की है । जिनेश्वर सूरके गुणवर्णनमें इन्होंने इस ग्रन्थमें निम्न लिखित गाथाएं प्रथित की हैं - -- तेसि पयपउम सेवारसिओ भमरो व्व सव्वभमरहिओ । ससमय-परसमयपयत्थसत्थवित्थारणसमत्थो ॥ ६४ ॥ अणहिलवाडए नाडऍ व्व दंसियसुपत्तसंदोहे | परपए बहुकविदूसगे य सन्नायगाणुगत् ॥ ६५ ॥ सडियदुलहराए सरसइअंकोवसोहिए सुहए । मज्झे रायसहं पवि सिऊण लोयागमाणुमयं ॥ ६६ ॥ नामायरियेहिं समं करिय वियारं वियारर हिपहिं । वसहिविहारो साहूण ठाविओ ठाविओ अप्पा ॥ ६७ ॥ परिहरियगुरुक मागयवरवत्ताए वि गुज्जरत्ताए । वसहिविहारो जेहिं फुडीकओ गुजरत्ताए ॥ ६८ ॥ ... ... ... ... जेहिं बहुसीसेहिं सिवपुरपहपत्थियाण भव्वाणं । सरलो सरणी समगं कहिओ ते जेण जंति तयं ॥ ७५ ॥ गुणकणमवि परिकहिउं न सक्का सक्कई वि जेसेिं फुडं । तेसिं जिणेसरसूरीण चरणसरणं पवज्जामि ॥ ७६ ॥ इन गाथाओंका सारार्थ यह है कि उन वर्द्धमान सूरि ( जिनकी स्तुति इसके पहले की गाथामें की सेवारसिक जिनेश्वर सूरि हुए । ये सब प्रकारके भ्रम से गई है ) के चरणकमलों में भ्रमर के समान - Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनेश्वर सूरिके जीवन चरितका साहित्य । रहित थे । अर्थात् अपने विचारोंमें निर्धम थे । ख-समय और पर-समयके पदार्थसार्थका विस्तार करने में समर्थ थे । इन्होंने अणहिलवाडमें, दुर्लभ राजाकी सभामें प्रवेश करके, नामधारी आचार्योंके साथ, निर्विकार भावसे शास्त्रीय विचार किया और साधुओंके लिये वसति-निवासकी स्थापना कर अपने पक्षका स्थापन किया । जहां पर गुरुक्रमागत सद्वार्ताका नाम भी नहीं सुना जाता था उस गुजरात देशमें विचरण कर इन्होंने वसतिमार्गको प्रकट किया । [इसके बादकी ६ गाथाओंमें, जिनेश्वरके भ्राता बुद्धिसागर और शिष्य जिनभद्र, जिनचंद्र तथा अभयदेवकी स्तवना करके अन्तकी दो गाथाओंमें कहा है कि-] इनके अनेक शिष्योंने, मोक्षमार्गके प्रवासी भव्यजनके लिये, ऐसा सरल मार्ग प्रदर्शित किया है जिससे वे उस मार्गसे जा कर अपने अभीष्ट स्थानको प्राप्त कर सके । ऐसे इन जिनेश्वर सूरिके कणमात्र सद्गुणोंका कोई सत्कवि भी ठीक ठीक नहीं वर्णन कर सकता । मैं तो उनके चरणोंका शरण ही खीकार करता हूं। जिनदत्त सूरिकी इसी तरहकी एक और छोटीसी (२१ गाथाकी) प्राकृत पद्यरचना है जिसका नाम है 'सुगुरुपारतंत्र्यस्तव' । इसमें भी इन्होंने अपने गुरुओंकी, बहुत ही संक्षेपमें, परन्तु भावपूर्ण शब्दोंमें, गुणावलिका गान किया है । जिनेश्वर सूरिकी स्तवनामें निम्नलिखित ३ गाथाएं इसमें प्रथित की हैं सुहसीलचोरचप्परणपञ्चलो निश्चलो जिणमयंमि । जुगपवरसुद्धसिद्धंतजाणओ पणयसुगुणजणो ॥९॥ पुरओ दुल्लहमहिवल्लहस्स अणहिल्लवाडए पयर्ड। मुका वियारिऊणं सीहेण व दवलिंगिगया ॥१०॥ दसमच्छेरयनिसिविप्फुरंतसच्छंदसूरिमयतिमिरं । सूरेण व सूरिजिणेसरेण हयमहियदोसेण ॥ ११ ॥ इन गाथाओंमें प्रथित भावका तात्पर्यार्थ भी वैसा ही है जैसा ऊपरकी गाथाओंमें गर्भित हैं । इनमें जिनदत्त सूरि शब्दान्तर और भंग्यंतरसे कहते हैं कि जिनेश्वर अपने समयके 'युगप्रवर हो कर सर्व सिद्धान्तोंके ज्ञाता थे । जैन मतमें जो शिथिलाचार रूप चोरसमूहका प्रचार हो रहा था उसका उन्होंने निश्चल रूपसे निर्दलन किया । अणहिल्लबाडमें, दुर्लभराजकी सभामें, द्रव्यलिङ्गी ( वेशधारी) रूप हाथियोंका उन्होंने सिंहकी तरह विदारण कर डाला । खच्छन्दाचारी सूरियोंके मतरूपी अन्धकारका नाश करनेमें सूर्यके समान ये जिनेश्वर सूरि प्रकट हुए। जिनेश्वर सूरिके साक्षात् शिष्य-प्रशिष्यों द्वारा किये गये उनके गौरव परिचयात्मक इन उल्लेखोंसे हमें यह अच्छी तरह ज्ञात हुआ कि उनका आन्तरिक व्यक्तित्व कैसा महान् था । परन्तु इन उल्लेखोंसे उनके स्थल जीवनका कोई परिचय हमें अभी तक नहीं मिला। सिर्फ जिनदत्त सरिके किये गये इन अन्तिम उल्लेखोंमें इस एक ऐतिहासिक घटनाका हमें सूचन मिला कि उन्होंने गुजरातके अणहिलवाडके राजा दुर्लभराजकी सभामें नामधारी आचार्योंके साथ वाद-विवाद कर, उनका पराजय किया और वहांपर वसतिवासकी स्थापना की । इसलिये अब हमें उन ऐतिहासिक प्रमाणोंका परिचय करना आवश्यक है जिनके द्वारा जिनेश्वर सूरिके उक्त प्रसंगका एवं उनके स्थूल जीवनकी अन्यान्य बातोंका परिज्ञान हो। ... Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर रि । ४. जिनेश्वर सूरिके चरितकी साहित्यिक सामग्री । जिनेश्वर सूरिके जीवनका परिचय करानेवाली ऐतिहासिक एवं साहित्यिक मुख्य साधन-सामग्री निम्न प्रकार है - १. जिनदत्तसूरिकृत 'गणधर सार्द्धशतक' ग्रन्थ की सुमतिगणि विरचित बृहद्वृत्ति । २. जिन पालोपाध्याय संगृहीत 'स्वगुरुवार्ता नामक बृहत् पट्टावलि' का आद्य प्रकरण । ३. प्रभाचन्द्रसूरिविरचित 'प्रभावकचरित' का अभयदेवसूरिप्रबन्ध । ४. सोमतिलकसूरिकृत 'सम्यक्त्व सप्ततिकावृत्ति' में कथित धनपालकथा | ५. किसी अज्ञातनामक विद्वान्‌की बनाई हुई प्राकृत 'वृद्धाचार्य प्रबन्धावलि' | इन कृतियोंका परिचय और रचना काल आदि इस प्रकार है - (१) गणधर सार्द्धशतक ग्रन्थ जो मूल जिनदत्त सूरिकी कृति है और जिसका उद्धरण ऊपर दिया गया है, उस पर सुमति गणीने सबसे पहले एक बहुत विस्तृत टीका लिखी है जिसकी रचनासमाप्ति वि. सं. १२९५ में हुई । इस टीकामें ऊपर उद्धृत गाथाओंकी व्याख्या करके, फिर सुमति गणीने जिनेश्वर सूरिका यथाज्ञात चरित भी ग्रथित किया है जो पूर्णदेव गणी कथित 'वृद्ध संप्रदाय' रूप है । सुमतिगणका यह पूरा प्रकरण, हम इस ग्रन्थके परिशिष्टके रूपमें, मूल खरूपमें प्रकाशित कर रहे हैं । सुमति गणी उल्लेखसे ज्ञात होता है कि जिनेश्वर सूरिका जो चरित-वर्णन उन्होंने निबद्ध किया है वह पूर्णदेव गणका कहा हुआ है । यथा “अत्र चायं वाचनाचार्यपूर्ण देवगणि मुख्यवृद्धसंप्रदायः ।” यद्यपि इस उल्लेखसे यह नहीं निश्चित होता है कि सुमति गणीने, पूर्णदेवकी बनाई हुई किसी कृतिके आधारसे यह चरित निबद्ध किया है, या साक्षात् उनके मुखसे सुनी हुई वार्ताके आधारपर स्वयं उन्होंने यह आलेखित किया है । परंतु इससे इतना तो निश्चित होता ही है कि सुमति गणी रचित इस चरितका आधार प्राचीन बुद्धसंप्रदाय है और इसलिये इसकी ऐतिहासिकता अधिक विश्वसनीय है । ये पूर्णदेव गणी, सुमति गणीके गच्छनायक - गुरु जिनपति सूरिके गुरुभ्राता थे । वि. सं. १२१४ में जिनचन्द्र सूरिने इनको दीक्षित किया था और सं. १२४४-४५ में जिनपति सूरिने इनको वाचनाचार्यका पद दिया था । (२) दूसरी कृति जिनपाल उपाध्याय ग्रथित खगुरुवार्ता नामक बृहद्गुर्वावलिका आध प्रकरण है । ये जिनपालोपाध्याय भी, सुमति गणीके गुरुभ्राता अर्थात् जिनपति सूरि-ही के शिष्य थे । अतः दोनों समकालीन थे। जिनपालोपाध्याय की यह कृति, बीकानेर के जैन ज्ञान भण्डार में उपलब्ध एक प्राचीनतम 'खरतरगच्छबृहद्गुर्वावलि' के प्रारंभ में संलग्नभावसे लिखी हुई मिली है । इस संपूर्ण गुर्वावलिको हम स्वतंत्र ग्रन्थके रूपमें, इसी ग्रन्थमालामें अलग प्रकाशित कर रहे हैं । जिनपाल अपने इस निबन्धके प्रारंभ में सूचित करते हैं कि जिनेश्वर सूरि आदि अपने पूर्वाचार्यों का यह चरित वर्णन हम वृद्धोंके कथन के आधार पर कर रहे हैं। इससे ज्ञात होता है कि जिनपालका यह चरित-वर्णन भी बहुत करके उक्त पूर्णदेव गणीके कथित आधार पर ही प्रथित किया गया है । सुमति गणीका उक्त चरित-वर्णन और जिनपालका यह चरित वर्णन दोनों प्रायः एकसे ही है । कहीं कहीं शब्द-रचना और वाक्य रचना में थोडा बहुत फरक होनेके सिवा वस्तुवर्णन में कोई अन्तर नहीं है । इससे ऐसा स्पष्ट मालूम देता है कि इन दोनों ही ने पूर्णदेव गणीके कथन की प्रायः प्रतिलिपि की है । सुमति गणीकी लेखनशैली बहुत कुछ आडंबरवाली होनेसे उन्होंने जहां कहीं अपनी ओरसे कुछ वाक्य सम्मीलित करनेका प्रयत्न किया है वहां वैसे आडंबरयुक्त वाक्य या कुछ अन्य प्रासंगिक अवतरण दे कर Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनेश्वर सूरिके चरितकी साहित्यिक सामग्री। २१ चरितके शब्दकलेवरको बढानेका प्रसंग लिया है। परंतु जिनपालका चरित-वर्णन बहुत ही सीधा सादा और सरल भाषामें लिखा हुआ हो कर उसमें प्रासंगिक अन्य अवतरणोंका बिल्कुल समावेश नहीं है । अतएव तथ्यकी दृष्टिसे यह वर्णन विशेष विश्वननीय प्रतीत होता है। (३) जिनेश्वर सूरिके चरितका तीसरा साधन, प्रभावकचरित है, जिसकी रचना चन्द्रगच्छके आचार्य प्रभाचन्द्रने वि. सं. १३३४ में पूर्ण की है । प्रभाचन्द्रने अपना प्रबन्ध, जिनेश्वर सूरिके शिष्य अभयदेव सूरिको उद्दिष्ट करके लिखा है । अभयदेव सूरिने नवांग सूत्रों की टीकाएं बना कर आगम शास्त्रके अभ्यासियोंके लिये महान् उपकार किया है और उनका यह कार्य सार्वजनीन होनेसे सब गच्छवाले और सब पक्षवाले उसको बहुत ही महत्त्व देते थे और इसीलिये अभयदेव सबके श्रद्धाभाजन बने थे । अतः प्रभाचन्द्रने उनके इस विशिष्ट शासनप्रभावक कार्यको लक्ष्य कर उनकी अवदात-वर्णना करनेके लिये इस प्रबन्धकी रचना की। परंतु अभयदेव सूरिके चरितकी पूर्वभूमिका तो जिनेश्वर सूरि के ही चरितमें सम्मीलित है, अतः उनको इसमें इनका भी यथाप्रसंग चरित-वर्णन करना पड़ा है। इसमें कोई शक नहीं कि प्रभाचन्द्र एक बडे समदर्शी, आग्रहशून्य, परिमितभाषी, इतिहासप्रिय, सत्यनिष्ठ और यथासाधन प्रमाणपुरःसर लिखने वाले प्रौढ प्रबन्धकार हैं । उन्होंने अपने इस सुन्दर प्रन्थमें जो कुछ भी जैन पूर्वाचार्योंका इतिहास संकलित किया है वह बड़े महत्त्वकी वस्तु है । इस ग्रन्थकी तुलना करने वाले केवल जैन साहित्य-ही-में नहीं अपि तु समुच्चय संस्कृत साहित्यमें भी एक-दो ही ग्रन्थ हैं। प्रभाचन्द्र ने अपने इस प्रबन्धमें, जिनेश्वर सूरिका अणहिलपुरमें चैत्यवासियोंके साथ होने वाले वाद-विवादका जो वर्णन दिया है वह, ऊपर वर्णित दोनों निबन्धोंके चरित-वर्णनके साथ कुछ थोडासा भेद रखता है । जिनेश्वर सूरिके दीक्षित होनेके पहलेका-उनकी पूर्वावस्थाके विषयका-कोई निर्देश ऊपरवाले दोनों चरित-निबन्धोंमें नहीं है । उसका उल्लेख सबसे पहले इसी प्रबन्ध मिलता है; इसलिये इस दृष्टिसे यह प्रबध और भी अधिक उपयुक्त साधनभूत है। (४) इस साधन-संग्रहमें चौथा स्थान जो सोमतिलक सूरि रचित 'सम्यक्त्वसप्ततिका - वृत्ति'का है, वह रुद्रपल्लीय गच्छके संघतिलक सूरिके शिष्य सोमतिलक सूरिकी रचना है । वि. सं. १४२२ में इसकी रचना पूरी हुई है । इस वृत्तिमें 'वचनशुद्धि'का विषय-वर्णन करते हुए सोमतिलकने सुप्रसिद्ध 'तिलकमञ्जरी' नामक अप्रतिम जैन कथाप्रन्थके प्रणेता महाकवि धनपालका उदाहरण दिया है और उसकी सारी कथा वहाँ पर लिखी है। इसी कथामें धनपालके पिताका जिनेश्वर सूरिका मित्र होना तथा उसके भ्राता शोभनका जिनेश्वर सूरिका शिष्य होना बतला कर, उनकी कथा भी साथमें प्रथित कर दी है। परंतु यह सारी कथा असंबद्धप्राय हो कर सुनी-सुनाई किंवदन्तीके आधार पर लिखी गई माल्म देती है; इससे इसका कोई विशेष ऐतिहासिक मूल्य नहीं है । इसमें भी जिनेश्वरकी पूर्वावस्थाका कुछ पोडासा उल्लेख किया गया है जो उक्त प्रभावक-चरितके उल्लेखसे सर्वथा भिन्न है। (५) पांचवां साधन, एक प्राकृत 'वृद्धाचार्यप्रबन्धावलि' है जो हमें पाटणके भण्डारमें उपलब्ध हुई है । इसके रचयिताका कोई नाम नहीं मिला । माल्म देता है जिनप्रभ सूरि (विविधतीर्थकल्प तथा विधिप्रपा आदि ग्रन्थोंके प्रणेता)के किसी शिष्यकी की हुई यह रचना है, क्यों कि इसमें जिनप्रभ सूरि एवं उनके गुरु जिनसिंह.सूरिका भी चरित-वर्णन किया हुआ है। इसमें संक्षेपमें वर्द्धमान सूरि, जिनेश्वर सूरि आदि आचार्योंका चरित-वर्णन है परंतु वह प्रायः इधर-उधरसे सुनी गई किवदन्तियोंके आधार Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि । पर लिखा गया मालूम दे रहा है । इससे इसका भी ऐतिहासिकत्व विशेष विश्वसनीय हमें नहीं प्रतीत होता। जिनेश्वर सूरिकी पूर्वावस्थाका ज्ञापक उल्लेख इसमें और ही तरहका है जो सर्वथा कल्पित मालूम देता है । इन साधनोंमें, प्रथमके तीन निबन्ध में अधिक आधारभूत मालूम देते हैं और इसलिये इन्हीं निबन्धोंके आधार पर हम यहां जिनेश्वर सूरिके चरितका सार देनेका प्रयत्न करते हैं। ५. जिनेश्वर सूरिकी पूर्वावस्थाका परिचय । जैसा कि हमने ऊपर सूचित किया है, सुमति गणी और जिनपालोपाध्यायके चरित-वर्णनमें "जिनेश्वर सूरिकी पूर्वावस्थाका कोई निर्देश नहीं किया गया है। उनमें तो इनके चरित-वर्णनका प्रारंभ वहींसे किया गया है, जब वर्द्धमान सूरिको सूरिमंत्रका संस्फुरण हुआ और इन्होंने उनको, अपने आदर्शको सिद्ध करनेके लिये, गुजरातकी ओर भ्रमण करनेका आग्रह किया । ये मूलमें कहांके निवासी, किस ज्ञातिके और किस तरह वर्द्धमान सूरिके शिष्य बने इसका वर्णन सबसे पहला हमें प्रभावकचरित-ही-में मिलता है । इसलिये यहां पर हम पहले उसीके अनुसार यह वर्णन आलेखित करते हैं । इस प्रबन्धके कथनानुसार, जिनेश्वर सूरि और उनके भ्राता बुद्धिसागरका जन्मस्थान मध्यदेश (और सोमतिलकके कथनानुसार उस देशकी प्रसिद्ध नगरी बनारस ) है । ये जातिके ब्राह्मण थे और इनके पिताका नाम कृष्ण था । इन भाइयोंका मूल नाम क्रमसे श्रीधर और श्रीपति था । ये दोनों भाई बडे बुद्धिमान् और प्रतिभाशाली थे । इन्होंने वेदविद्या विशद विशारदता प्राप्त की थी और स्मृति, इतिहास, पुराण आदि अन्यान्य शास्त्रोंमें भी पूर्ण प्रवीणता संपादन की थी । अपना विद्याध्ययन पूर्ण कर लेने पर, इन दोनों भाइयोंने देशान्तर देखनेकी इच्छासे अपने जन्मस्थानसे प्रयाण किया । उस समय मालव देशकी राजधानी धारानगरीकी सारे भारतवर्ष में बडी ख्याति थी। भारतीय विद्याओंका बडा उत्कट प्रेमी और उद्भट विद्वान् राजाधिराज भोजदेव वहांका अधिपति था । ये दोनों भाई फिरते फिरते धारा नगरी पहुंचे । वहां पर एक लक्ष्मीपति नामक बडा धनाढ्य एवं दानशील जैन गृहस्थ रहता था । वह परदेशीय विद्वानों और अतिथियोंको बडे आदरके साथ सदा अन्न-वस्त्रादिका दान किया करता था। श्रीधर और श्रीपति ये दोनों भाई उसके स्थान पर पहुंचे । उसने इनकी आकृति वगैरह देख कर, बडी भक्तिके साथ इनको भोजनादि कराया । ये उसके वहां इस तरह कुछ दिन निरंतर भोजनके लिये जाया करते थे और उसके मकान पर जो कुछ प्रवृत्ति होती रहती थी उसका निरीक्षण भी किया करते थे । उस सेठका व्यापार बडा विस्तृत था और उसके वहां रोज लाखोंका लेन-देन होता था। उस लेन-देनके हिसाबका लेखा, मकानके सामनेकी भींत पर लिखा रहता था* । उसको वारंवार देखनेसे इन दोनों भाइयोंको वह कंठस्थ जैसा हो गया । अकस्मात् दुर्दैवसे एक दिन वहां आग लग गई और वह मकान जल गया । अन्यान्य चीज वस्तुके साथ वह भीत भी, जिस पर दुकानका हिसाब लिखा रहता था, जल गई । सेठको इससे बडा दुःख हुआ। लेन-देनका हिसाब नष्ट हो जानेसे व्यावहारिक कामोंमें अनेक प्रकारको *उस जमाने में, आजकी तरह कागजके बने हुए बही-खाते नहीं होते थे, इसलिये व्यापारी लोग अपने रोजाना लेन-देनका हिसाब, थोडा हुआ तो लकडीकी पट्टिका पर (जो स्लेटके स्थानमें काममें लाई जाती थी) और बहुत हुआ तो उसी कामके लिये तैयार की गई भींत पर, खडिया मिट्टीके पानीसे अथवा स्याहीसे लिख लिया जाता था । पीछेसे, सावकाश, उसे कपडेके टिप्पनों पर लिपिबद्ध कर लिया जाता था। Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ जिनेश्वर सूरिकी पूर्वावस्थाका परिचय । अडचनें उत्पन्न होनेकी परिस्थिति पैदा हो गई । दूसरे दिन, जब ये ब्राह्मण भाई फिर उसके मकान पर गये, तो सेठकी वह हालत देख कर इनको बडा क्लेश हुआ । सेठकी विषादपूर्ण मुखाकृति देख कर ये उसको कुछ सान्त्वना देनेके लिये उपदेशात्मक दो शब्द बोले, तो सेठने कहा- मुझे इस धन, अन्न, वस्त्रादिके नाशका वैसा कोई खेद नहीं है जैसा लेन देनके हिसाबके नाशका दुःख है। क्यों कि इसके कारण मेरा कई अन्यान्य व्यवहारियोंके साथ कलह होगा और मेरी धार्मिकताको धक्का पहुंचेगा । तब इन भाइयोंने कहा, कि उस दिवाल पर जो कुछ लिखा हुआ था वह साराका सारा हमें अक्षरशः याद है; यदि तुम चाहो तो उसे लिखवा सकते हो । यह सुन कर सेठको बडी खुशी हुई और उसने इनको अच्छे उच्चासन पर बिठा कर इनके मुंहसे वह लेखा लिखाने लगा। इन्होंने वह सब हिसाब, संवत् , महिना, तिथि, वार पूर्वक, एवं वस्तुओंके नाम, परिमाण, मूल्य और लेने-देने वालेके उल्लेखके साथ, ज्यों का त्यों लिखवा दिया । एक विश्वाका भी उसमें फरक नहीं पडा । यह देख कर सेठ बहुत ही प्रसन्न हुआ और उसने मनमें माना, कि अहो ये तो कोई मेरे साक्षात् गोत्रदेवताके जैसे मुझपर अनुकंपा करनेके लिये ही यहां आ गये हैं । उसने इनका फिर बहुत ही सत्कार किया और अपने ही घर पर, अपने घरकी सब व्यवस्था करने वालेके तौर पर इनको रख लिया । ये दोनों भाई जितेन्द्रिय और शान्त खभावके थे। इससे फिर उस सेठके मनमें आया कि ये तो बड़े साधु पुरुष होनेके लायक हैं; अतः यदि इनकी भेट, अपने धर्मगुरु वर्द्धमानाचार्यसे हो जाय तो बहुत उत्तम हो । ऐसा विचार कर सेठ, एक दिन इन भाइयोंको वर्द्धमानाचार्यके पास ले गया जो उस समय वहां आए हुए थे। श्रीपति और श्रीधर आचार्यकी ब्रह्मतेजःपूर्ण तपोमूर्ति देख कर बडे प्रसन्न हुए और श्रद्धापूर्वक इन्होंने उनके चरणोंमें नमस्कार किया । आचार्य भी इन बन्धुओंकी भव्य आकृति और उत्तम प्रकारके लक्षणोंसे अंकित देह-रचना देख कर बहुत मुदित हुए । कुछ दिन निरंतर आचार्यके पास आनेजानेसे और शास्त्र-विचार होते रहनेसे इनके मनमें उनके दीक्षित शिष्य हो जानेकी अभिलाषा उत्पन्न हुई और फिर अन्तमें, सेठकी अनुमति और सहानुभूतिपूर्वक, इन्होंने वर्द्धमानाचार्यके पास जैन यतित्वकी दीक्षा अंगीकार कर ली। ये, यों पहले ही बड़े विद्वान् तो थे ही, जैन दीक्षा लेनेके बाद थोडे ही समयमें जैन शास्त्रों के भी पारगामी बन गये और कुछ कालके बाद, आचार्यने सब तरहसे योग्य समझ कर, इनको आचार्य पदसे भूषित कर दिया । श्रीधरका नाम जिनेश्वर सूरि रखा गया और श्रीपतिका नाम बुद्धिसागर सूरि । ___ आचार्यने इनको फिर देश-देशान्तरोंमें परिभ्रमण कर, अपने शुद्ध उपदेश द्वारा, जैन धर्मका प्रसार करनेकी आज्ञा दी । गुरुने कहा- गुजरातकी अणहिलपुर राजधानीमें चैत्यवासि यतिजनोंका बडा जोर हो रहा है और वे लोग वहां पर सुविहित यतिजनोंको न आने देते हैं न ठहरने देते हैं । तुम अच्छे प्रतिभावान् और प्रभावशाली संयमी हो, अतः वहां जा कर अपने चारित्र्य और पाण्डित्यके बलसे, चैत्यवासियोंके मिथ्या अहंकार और शिथिलाचारका उत्थापन करो । गुरु की आज्ञासे ये दोनों भाई, अपने कुछ अन्य संयमी साथियोंके साथ, परिभ्रमण करते करते अणहिलपुर पाटनमें पहुंचे। शहरमें प्रवेश करके इन्होंने कई स्थानों पर अपने ठहरनेके मकानकी गवेषणा की परंतु किसीने कहीं कोई जगह नहीं दी । तब इनको गुरु महाराजके कथनकी पूरी प्रतीति हुई । उस समय वहां पर चालुक्य तुपति दुर्लभराज राज्य कर रहा था। उसका उपाध्याय एवं राजपुरोहित गुरु सोमेश्वर देव था जो Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि । बृहस्पतिके जैसा विद्वान् और नीतिविचक्षण राजपुरुष था । जिनेश्वरसूरि और बुद्धिसागराचार्य उसके मकान पर पहुंचे । उसके द्वार पर उपस्थित हो कर इन्होंने संकेतविशिष्ट वेदमंत्रोंका बडे गंभीर ध्वनिसे ऐसा उच्चारण किया जिसे सुन कर वह राजपुरोहित आश्चर्यचकित हो गया । पुरोहित उस समय अपने नित्यकर्मके देवपूजनमें लगा हुआ था-वेदमंत्रोंको सुन कर वह मानों समाधिमग्न हो गया । उसने अपने बन्धुको बुला कर कहा, कि जा कर देखो तो बहार दरवाजे पर कौन ऐसे वेदमंत्र बोल रहा है । उसके द्वारा इन भाइयोंका खरूप जान कर, पुरोहितने बडे आदरके साथ इन्हें अन्दर बुलाया और उचित स्थान पर बिठाया । आशीर्वादात्मक कुछ पद्यपाठके बाद, पुरोहितने इनसे वार्तालाप किया और कुछ प्रारंभिक वृत्तांत सुन कर उसने इनसे पूछा कि आप कहां पर ठहरे हैं ? । उत्तरमें इन्होंने कहा कि इस नगरमें चैत्यवासी यतिजनोंका अत्यधिक प्राबल्य होनेके कारण हमें कोई भी कहीं ठहरनेकी जगह महीं दे रहा है और इसीलिये हम आपके स्थान पर पहुंचे हैं। पुरोहितने बडी प्रसन्नताके साथ, अपने विशाल भवनमें, जहां छात्रोंके पठन-पाठनकी पाठशाला थी, उसके एक एकान्त भागमें इनको ठहरनेकी जगह दे दी । पुरोहितके कुछ अनुचरोंके साथ भिक्षानिमित्त अन्यान्य घरोंमें जा कर इन्होंने वहांसे अपने उचित भिक्षान्न प्राप्त किया और अपने स्थान में बैठ कर उसका प्राशन किया। राजपुरोहितके मकान पर इस तरहके कोई अपरिचित जैन यति आ कर ठहरे हैं, इसकी चर्चा एकदम सारे नगरमें फैल गई । प्रथम तो बहुतसे याज्ञिक, स्मार्त, दीक्षित, अग्निहोत्री आदि ब्राह्मण विद्वान् कुतूहलवश वहां आ पहुंचे । उनके साथ इन्होंने कई प्रकारकी प्रौढ एवं गंभीर शास्त्रचर्चा की और इनके इस प्रकारके असाधारण शास्त्र-प्रावीण्यको देख कर वे सब बहुत सन्तुष्ट हुए । इतने-ही-में नगरके प्रमुख चैत्यवासी आचार्यके भेजे हुए कुछ मनुष्य आ पहुंचे और उन्होंने इनको आक्रोशपूर्वक शब्दोंमें हुकम दिया कि इस शहरमें चैत्यबाह्य श्वेतांबरोंको ठहरनेका कोई अधिकार नहीं है, इसलिये शीघ्र ही यहांसे नीकल जाओ- इत्यादि । उनके इस प्रकारके असभ्य और धार्य पूर्ण कथनको सुन कर, पुरोहितने स्वयं उत्तर दिया कि इसका निर्णय तो राजसभा द्वारा किया जा सकता है, इसलिये आप लोग वहां पहुंचे। उन्होंने जा कर पुरोहितका यह सन्देश अपने आचार्यको सुनाया। दूसरे दिन यथा समय चैत्यवासी यतिगण, अपने प्रधान प्रधान व्यक्तियों के साथ राजसभामें पहुंचे और उन्होंने पुरोहितके इस कार्यके प्रति अपना विरोध प्रकट किया। पुरोहित भी उस समय वहां उपस्थित हुआ । उसने कहा कि मेरे स्थान पर दो जैन मुनि आये जिनको इस महान् नगरमें इन जैन मतवालोंने कहीं पर ठहरने की जगह नहीं दी । मैंने इन मुनियोंको गुणवान् समझ कर अपने मकानमें ठहरनेकी व्यवस्था की है । इन लोगोंने अपने भट्टोंको भेज कर मेरे स्थान पर इस प्रकार असभ्य व्यवहार किया, इसलिये महाराजसे मेरा निवेदन है कि मैंने जो कोई इसमें अनुचित कार्य किया हो तो उसका दण्ड मैं भुगतनेको तैयार हूं। राजाने सुन कर कहा कि मेरे नगरमें देशान्तरसे जो कोई गुणवान् व्यक्ति आवे तो उसे न ठहरने देनेका या नीकाल देनेका किसीको क्या अधिकार है ? और उनके ठहरनेके लिये जो कोई स्थान आदिकी व्यवस्था करे तो उसमें उसका क्या दोष है ? इसके उत्तरमें चैत्यवासियों की ओरसे राजाको यह कहा गया कि-महाराज! आप जानते हैं कि इस नगरकी स्थापना चापोत्कटवंशीय वनराजने की है । बालपनमें उसका पालन-पोषण पंचासरके चैत्यमें Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनेश्वर सूरिकी पूर्वावस्थाका परिचय । रखने वाले नागेन्द्रगच्छके देवचन्द्र सूरिने किया था। वनराजने जब इस नूतन नगरकी स्थापना की तो सबसे पहले यहां पर पार्श्वनाथका मन्दिर स्थापित किया गया जिसका नाम 'वनराजविहार' ऐसा रक्खा । फिर उसने अपने गुरुको यह मन्दिर समर्पित कर दिया और उनकी बडी भक्ति की । उसी समय संघके समक्ष वनराजने एक ऐसी व्यवस्था कर दी थी कि जिससे भविष्यमें जैनोंमें परस्पर मतविभेदके कारण कोई कलह न उत्पन्न हो। वह व्यवस्था यह है कि अणहिलपुरमें वे ही जैन यति आ कर निवास कर सकते हैं जो चैत्यवासी यतिजनोंको सम्मत हों। दूसरोंको यहां वासस्थान न दिया जाय । पूर्वराजाओंकी की हुई व्यवस्थाका पालन करना यह पिछले अनुगामी नृपतियोंका धर्म है। इसमें यदि हमारा कोई अनुचित कथन हो तो आप उसका निर्णय दें। राजाने इसके उत्तरमें कहा- 'पूर्वकालीन नृपतियोंकी की हुई व्यवस्थाका हम दृढतापूर्वक पालन करना चाहते हैं; परंतु साथमें हम गुणवानोंकी पूजाका उलंघन भी होने देना नहीं चाहते । आप जैसे सदाचारनिष्ठ पुरुषोंके आशीर्वादसे ही तो राजाओंका ऐश्वर्य बढ़ता है और यह राज्य तो फिर आप ही लोगोंका है इसमें कोई संदेह नहीं है । अब इस विषयमें हमारा आपसे यह अनुरोध है कि हमारे कथनसे आप इन आगन्तुक मुनियोंको यहां वसनेकी अनुमति दें।' __राजाकी इस इच्छाके अनुसार उन चैत्यवासी आचार्योंने, इन नवागन्तुक मुनियोंको शहरमें निवास करने देनेके विषयमें अपनी सम्मति प्रदर्शित की । इसके माद पुरोहितने राजासे विज्ञप्ति की कि इनके रहनेके लिये कोई स्थान स्वयं महाराज ही अपने मुखसे उद्घोषित कर दें जिससे फिर किसीको कुछ कहने-सुननेका न रहे । इतने ही में वहां पर, राजगुरु शैवाचार्य, 'कूरसमुद्र' बिरुद धारक, ज्ञानदेव आ पहुंचे । राजाने उठ कर उनको प्रणामादि किया और अपने ही आसन पर उन्हें बिठाया । फिर उनसे उसने विज्ञप्ति भी कि-अपने नगरमें ये जैन महर्षि आए हुए हैं इनके ठहरनेका कोई उचित स्थान नहीं है; यदि आपकी दृष्टिमें कोई ऐसा स्थान हो तो सूचित करें जो इनका उपाश्रय हो सके। यह सुन कर ज्ञानदेव बडे प्रसन्न हुए और बोले- 'महाराज ! आप इस तरह गुणीजनोंकी अभ्यर्चना करते हैं यह देख कर मुझे बहुत ही हर्ष होता है । शैव और जैन दर्शनमें वास्तवमें मैं कोई भेद नहीं मानता । दर्शनोंमें भेदबुद्धि रखना मिथ्यामतिका सूचक है । 'त्रिपुरुषप्रासाद'के अधिकार नीचे 'कणहट्टी' नामक जो जगह है वह इनके उपाश्रयके योग्य हो सकती है इसलिये उस स्थानको पुरोहितजी उपाश्रयके तौर पर उपयोगमें ला सकते हैं । इसके निमित्त अपने या पराये - किसी भी पक्षवालेने कुछ विघ्न उपस्थित किया तो मैं उसका निवारण करूंगा।' ऐसा कह कर उन्होंने एक मुख्य ब्राह्मणको ही इस कार्यको संपन्न करनेके लिये नियुक्त किया और कुछ ही समयमें वहां अच्छा उपाश्रय बन गया । उसके बाद, अणहिलपुरमें सुविहित जैन यतियोंके निवास करनेके लिये अनेक वसतियोंके-उपाश्रयोंके बननेकी परंपरा शुरू हो गई । महान् पुरुषों द्वारा स्थापित हुए कार्यकी वृद्धि होती ही है- इसमें कोई संदेह नहीं । बस प्रभावकचरितमें यहीं तक जिनेश्वर सूरिका चरितवर्णन है । इसके आगे फिर अभयदेव सूरिका चरितवर्णन शुरू होता है । प्रभावकचरितकारके कथनानुसार, इसके बाद जिनेश्वर सूरि विहरण करते १ अणहिलपुरमें 'त्रिपुरुषप्रासाद' नामका राज्यका मुख्य शैवमन्दिर था। क०प्र०४ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि । हुए मालवाकी धारा नगरीमें गये और वहां महाधर नामक सेठ और उनकी पत्नी धनदेवीके पुत्र अभयकुमारको दीक्षित किया । अभयकुमार बहुत बुद्धिशाली, अत्यंत तेजखी एवं क्रियानिष्ठ यतिपुंगवके रूपमें प्रसिद्धि प्राप्त करने लगे । इससे फिर जिनेश्वर सूरिने अपने गुरु वर्द्धमान सूरिकी आज्ञासे इनको आचार्यपद पर प्रतिष्ठित किया। - इसके बाद, फिर किस तरह अभयदेव सूरिने नव अंग सूत्रोंकी व्याख्याएं की तथा स्थंभनपार्श्वनाथकी मूर्तिका प्रकटन किया इत्यादि अभयदेवके जीवनसे संबद्ध बातोंका वर्णन दिया गया है जिसका उद्धरण करना हमें प्रस्तुत प्रकरणमें उद्दिष्ट नहीं है। अन्तमें इतना ही सूचित किया गया है कि बुद्धिसागराचार्यने ८ हजार श्लोकप्रमाण बुद्धिसागर नामक व्याकरण ग्रन्थकी रचना की और इस तरह ये दोनों भ्राता अपने अपने आयुष्यके अन्तमें समाधिपूर्वक मृत्यु प्राप्त कर दिवंगतिको प्राप्त हुए । ६. जिनेश्वर सूरिके चरितका सार । गणधरसार्द्धशतक वृत्ति तथा बृहद्गुर्वावलिके वर्णनका सार भाग । अब हम यहां पर, उक्त गणधरसार्द्धशतक वृत्तिगत सुमतिगणिलिखित तथा बृहद्गुर्वावलिके अन्तर्गत जिनपाललिखित जिनेश्वर सूरिके चरित का सार देते हैं। जैसा कि हमने ऊपर सूचित किया है, ये दोनों चरित्रवर्णन प्रायः एकसे ही है - एक ही प्रकारकी शब्दरचनामें संकलित है । चरितकी मुख्य वस्तुघटनाओंका उल्लेख दोनोंमें एक ही समान है - कोई विशेषत्व सूचक न्यूनाधिकता नहीं है । परन्तु सुमति गणिकी लेखनशैली कहीं कहीं बातको कुछ बढा कर और शब्दोंका अनावश्यक आडंबर दिखा कर, वक्तव्यको अधिक पल्लवित करनेकी पद्धतिकी है और जिनपालकी रचनाशैली बहुत सीधी-सादी एवं परिमित शब्दोंमें वार्तागत मुख्य वस्तु-ही-के कहनेकी पद्धतिकी है। इसलिये हम यहां पर जिनपालके निबन्धका ही मुख्य सार देते हैं। जिनपाल एवं सुमति गणीका वर्णन वर्द्धमानाचार्यके वर्णनसे प्रारंभ होता है जो जिनेश्वर सूरिके चरितकी पूर्वभूमिकारूप है। अतः हम भी उसीके अनुसार यहां यह सारालेखन करते हैं। १. अभोहर प्रदेशमें एक जिनचन्द्राचार्य नामके देवमन्दिर ( चैत्य ) निवासी आचार्य थे जो ८४ स्थावलक ( ठिकानों) के नायक थे। उनका वर्द्धमान नामक शिष्य था । वह जब सिद्धान्तवाचना ले रहा था तब उसमें जिनमन्दिरके विषयकी ८४ आशातनाओंका वर्णन पढनेमें आया । उनको पढ कर उसके मनमें आया कि इन आशातनाओंका निवारण किया जाय तो अच्छा कल्याणकर है । उसने अपने गुरूसे इसका निवेदन किया। परंतु गुरुने सोचा इसका यह विचार हमारे लिये हितकर नहीं है । गुरुने उसको मोहबद्ध करनेके लिये आचार्य पद दे कर अपना सब अधिकार उसे समर्पित कर दिया। परन्तु उसका मन चैत्यवासके उस व्यापारमें न चौंटा और आखिरमें गुरुकी सम्मतिपूर्वक वह अपने कुछ अनुगामी यतियोंके साथ वहांसे नीकल कर दिल्लीके प्रदेशमें आया जहां उद्यतविहारी उद्योतनाचार्य ठहरे हुए थे। उनके पास उसने आगमके तत्त्वोंको अच्छी तरह समझ कर, उपसंपदा ग्रहण की और उनका अन्तेवासी बना । उद्योतन सूरिने उसको सूरिमंत्र दे कर आचार्य पद पर स्थापित किया । सूरिमत्रको प्राप्त करने पर वर्द्धमानाचार्यको यह संकल्प हुआ कि इस मंत्रका अधिष्ठाता कौन है ? इसके जाननेके लिये उन्होंने तीन उपवास किये । तब धरणेन्द्रने आ कर उनसे कहा कि मैं इस मंत्रका अधिष्ठाता हूं । फिर उस इन्द्रने मंत्रके प्रत्येक पदका क्या फल है इसका भी ज्ञान इनको कराया । भाचार्यको इस मंत्रका फिर बहुत संस्फुरण होने लगा अतः वे संस्फुराचार्यके नामसे प्रसिद्ध हुए। | Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ जिनेश्वर सूरिके चरितका सार। २. इस प्रसंगमें, एक दफह पण्डित जिनेश्वर गणीने इनसे विज्ञप्ति की कि- 'भगवन् ! हमने जो यह जैन शास्त्रोंका परिज्ञान प्राप्त किया है उसका क्या फल है यदि कहीं जा कर इसका प्रकाश न किया जाय । सुना जाता है कि, गुजरात देश जो बहुत विशाल है, चैत्यवासी आचार्योंसे व्याप्त है । अतः हमें उधर जा कर शुद्धाचारका उपदेश करना चाहिये । वर्द्धमानाचार्यने जिनेश्वरके ये विचार सुन कर वैसा करनेके लिये अपनी सम्मति प्रकट की। फिर अच्छे शकुन प्राप्त कर, उधरसे एक भामह नामक सेठका बडा भारी व्यापारी संघ आ रहा था उसके साथ, अपने १८ शिष्यों सहित वर्द्धमान सूरिने गुजरातकी ओर प्रस्थान किया। ___ क्रमसे चलते हुए वे मारवाडके पाली नामक स्थान पर पहुंचे। वहां पर इनकी सोमध्वज नामक एक जटाधरसे भेंट हो गई जो बडा विद्वान् और ख्यातिमान् पुरुष था। उसके साथ ज्ञानगोष्ठी करते हुए जिनेश्वर गणीको बडा आनन्द आया । जटाधर भी इनके पाण्डित्यसे बहुत प्रसन्न हुआ और उसने इनकी अच्छी भक्ति की। वहांसे फिर उसी संघके साथ चलते हुए क्रमसे अणहिलपुर पहुंचे । उस समयमें वहां पर न कोई ऐसा उपाश्रय था जहां ये ठहर सके न कोई ऐसा श्रावक भक्त ही था जो इनको ठहरनेका स्थान दे सके । इन्होंने अपना मुकाम पहले शहरके कोटके आश्रयमें कहीं किसी खुल्ली पडशालमें डाला । वहां पर घंटे दो घंटे बैठे रहने पर सूर्यका ताप आ गया और इससे ये सब धूपमें सिकने लगे। ___ तब जिनेश्वर पण्डितने कहा कि- 'गुरुमहाराज! इस तरह बैठे रहनेसे क्या होगा?' गुरुजीने कहा- 'तो फिर क्या किया जाय ?' जिनेश्वर बोले 'यदि आपकी आज्ञा हो तो वह सामने जो बडासा मकान दिखाई देता है, वहां मैं जाऊं और देखू कि कहीं हमें कोई आश्रय मिल सकता है या नहीं ? गुरुजीने कहा- 'अच्छी बात है, जाओ।' फिर गुरुजीके चरणको नमस्कार करके जिनेश्वर उस मकान पर पहुंचे। वह बडा मकान नृपति दुर्लभराजके राजपुरोहित का था। उस समय पुरोहित स्नानाभ्यंगन करा रहा था । जिनेश्वरने एक सुन्दर भाववाला संस्कृत श्लोक बना कर उसको आशीर्वाद दिया । उसे सुन कर पुरोहित खुश हुआ । बोला कोई विचक्षण व्रती मालूम देता है । पुरोहितके मकानके अन्दरके भागमें बहुतसे छात्र वेदपाठ कर रहे थे । इनके पाठमें कहीं कहीं अशुद्ध उच्चारण सुनाई दिया । तब जिनेश्वरने कहा- 'यह पाठोच्चार ठीक नहीं है । ऐसा उच्चार करना चाहिये। यह सुन कर पुरोहितने कहा- 'अहो! शूद्रोंको वेदपाठ करनेका अधिकार नहीं है । इसके उत्तरमें जिनेश्वरने कहा- 'हम शूद्र नहीं है। सूत्र और अर्थ दोनों ही दृष्टिसे हम चतुर्वेदी ब्राह्मण हैं। ___ पुरोहित सुन कर संतुष्ट हुआ । बोला- 'किस देशसे आ रहे हो ?' जिनेश्वर- 'दिल्लीकी तरफसे । पुरो० 'कहां पर ठहरे हुए हो?' जिनेश्वर- 'शूल्कशाला ( दाणचौकी) के दालानमें । हम मय अपने गुरुके, सब १८ यति हैं । यहां का सब यतिगण हमारा विरोधी होनेसे हमें कहीं कोई उतरनेकी जगह नहीं दे रहा है। पुरोहितने कहा- 'मेरे उस चतुःशालवाले घरमें एक पडदा लगा कर, एक पडशालमें आप लोग ठहर सकते हैं। उधरके एक दरवाजेसे बहार जा-आ सकते हैं । आइये और सुखसे रहिये । भिक्षाके Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि । लिये मेरे आदमी आपके साथ अगुआ हो कर ब्राह्मणोंके घरों पर ले जाया करेंगे । इससे भिक्षाके मिलने में भी आपको कोई कष्ट नहीं होगा ।' बादमें वे वहां पर आ कर ठहर गये । अब पाटन नगरके लोगोंमें यह बात फैली कि कोई वसतिनिवासी यतियोंका एक समुदाय शहरमें आया है । जब यह बात चैत्यवासी यतियोंके सुननेमें आई तो उनको लगा कि यह घटना तो अच्छी नहीं है । इससे हमको हानि होगी । अतः उन्होंने सोचा कि इस ऊगते हुए व्याधिका अभी ही उच्छेद कर देना अच्छा है 1 उन यतिजनोंके पास शहरके बहुतसे अधिकारियोंके पुत्र पढनेके लिये आया करते थे । उनको कुछ बतासे आदि दे कर खुश कर लिये गये और फिर उनसे कहा कि - 'तुम सब जगह यह बात फैलाओ कि शहरमें यतिजनोंके रूपमें कितनेक ऐसे लोग बहारसे आये हैं जो महाराज दुर्लभराजके राज्यकी गुप्त बातें जाननेके लिये आये हुए किसी राज्यके गुप्तचरसे मालूम देते हैं ।' थोडे ही समय में, यह बात सारे शहरमें फैलती हुई राजसभा में भी जा पहुंची । राजाने सुन कर अपने निकट जनोंसे कहा, कि ऐसे कहां के विदेशी गुप्तचर यहां आये हैं और उनको किसने आश्रय दिया है ? तब किसीने कहा कि - 'महाराज ! आपके गुरु राजपुरोहितने ही तो इनको अपने मकान पर ठहराया है ।' राजाने पुरोहितसे पूछा - 'तुमने इन गुप्तचरोंको किसलिये अपना स्थान दिया है ? पुरोहितने कहा - 'महाराज ! किसने इनपर ऐसा दोषारोपण लगाया है ? | यह सर्वथा मिथ्यादोष है । यदि कोई इसको सिद्ध कर दे तो मैं उसको एक लाख पारुत्थ ( उस समय गुजरातमें चलने वाला सोनेका शिक्का ) देने की घोषणा करता हूं। मैं अपनी यह पिछौडी इसके लिये यहां डालता हूं - जिस किसीको हिम्मत हो वह इसे छुए।' पर वैसा करनेकी किसीकी हिम्मत नहीं हुई । फिर पुरोहितने राजासे कहा - 'महाराज ! मेरे स्थान पर जो साधुजन आ कर ठहरे हैं वे तो साक्षात् धर्मकी मूर्ति दिखाई दे रहे हैं । उनमें ऐसा कोई दोष मैं नहीं देख रहा हूं ।' I तब इस बात को सुन कर सूराचार्य आदि सब चैत्यवासियोंने मिल कर सोचा-वाद-विवाद करके इन नवागन्तुक यतियोंको पराजित करना चाहिये और इस तरह इनको शहरमेंसे नीकलवाना चाहिये । उन्होंने अपना यह विचार पुरोहितको कहलाया और सूचित कराया कि 'हम लोग आपके स्थान पर ठहरे हुए यतिजनों के साथ शास्त्रार्थ करना चाहते हैं ।' पुरोहितने उनसे कहलाया कि 'मैं उनको पूछ कर इसका उत्तर दूंगा । फिर उसने अपने मकान पर जा कर उन मुनियोंसे कहा - ' विपक्षी लोग आपके साथ शास्त्रविचार करना चाहते हैं ।' तब उन्होंने कहा - 'ठीक ही है । इसमें डरनेकी कोई बात नहीं है । परंतु उनसे यह कहलाइये कि - यदि वे हमसे शास्त्रविषयक वाद-विवाद करना चाहते हैं तो महाराज दुर्लभराजके समक्ष, जहां वे कहेंगे वहां, हम विचार करने को तैयार हैं ।' यह उत्तर सुन कर उन चैत्यवासियोंने सोचा - कोई हर्ज नहीं है । राजाके समक्ष ही विचार हो । 1 सब अधिकारी लोग तो हमारे ही हैं। इससे उनकी तरफसे किसी प्रकारके भयकी कोई चिंता हमें नहीं है । फिर उन्होंने तदनुकूल दिनका निश्चय कर सबके सामने प्रकट किया कि अमुक दिनको पंचासरके बड़े मन्दिरमें शास्त्रविचार किया जायगा । पुरोहितने भी एकान्तमें जा कर राजासे निवेदन किया कि 'आगन्तुक मुनियोंके साथ शहरके Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनेश्वर सूरिके चरितका सार । २९ निवासी यतिजन शास्त्र - विचार करना चाहते हैं । ऐसा विचार न्यायवादी राजाके समक्ष ही किया हुआ शोभा देता है । इसलिये आप श्रीमान् कृपा करके उस समय वहां पर प्रत्यक्ष रूपसे उपस्थित रहनेका अनुग्रह करें ।' राजाने कहा - 'यह युक्त ही है । हम वैसा करेंगे ।' बाद में निश्चित किये गये दिनको उसी मन्दिरमें श्रीसूराचार्य आदि ८४ आचार्य अपनी अपनी समृद्धिके अनुरूप सज्जित हो कर, वहां पर आ कर बैठे । प्रधानोंने राजाको भी उचित समय बुला भेजा, सो वह भी वहां आ कर बैठ गया । फिर राजाने पुरोहितसे कहा - 'तुम जा कर अपने सम्मत मुनियों को बुला लाओ ।' वह जा कर वर्द्धमान सूरिसे बोला - 'सभी मुनिगण सपरिवार वहां पर आ कर बैठ गये हैं । श्रीदुर्लभराज भी आ गये हैं । अब आपके आगमनकी प्रतीक्षा की जा रही है । राजाने सब आचार्योंको तांबूल देकर सम्मानित किया है ।' पुरोहित के मुखसे यह वृत्तान्त सुन कर वर्द्धमानाचार्य अपने ईष्ट देव गुरुका मनमें ध्यान कर तथा उनका स्मरण कर, पण्डित जिनेश्वर आदि कुछ विद्वान् शिष्यों के साथ, शुभ शकुन पूर्वक चले और देवमन्दिरमें पहुंचे । राजाके बताये हुए स्थान पर पण्डित जिनेश्वरने आसन बिछा दिया जिस पर वे बैठ गये । जिनेश्वर भी उनके चरणके समीप ही अपना आसन डाल कर बैठ गये । राजाने उनको भी फिर तांबूल देना चाहा । तब उन्होंने कहा - 'राजन् ! साधुओंको तांबूलभक्षणका निषेध है। शास्त्रोंमें कहा है कि' - ब्रह्मचारी यतियोंको और विधवा स्त्रियोंको तांबूलका भक्षण करना मानों गोमांसका भक्षण करने जैसा है ।' इससे विवेकी लोग जो वहां उपस्थित थे उनको अच्छी प्रसन्नता हुई । 1 फिर वर्द्धमानाचार्यने कहा - 'हमारी ओरसे ये पण्डित जिनेश्वर जो कुछ उत्तर- प्रत्युत्तर करेंगे वह हमें - स्वीकृत है, ऐसा आप सब समझें ।' सबने उसका स्वीकार किया । इसके बाद सूराचार्य, जो उन सब चैत्यवासी यतिजनोंके मुख्य नायक थे, उन्होंने विचार उपस्थित करते हुए कहा - 'जो मुनि वसति अर्थात् गृहस्थके मकानमें रहते हैं वे प्रायः षड्दर्शन - बाह्य समझने चाहिये । षड् दर्शन में क्षपणक ( दिगंबर ) जटी ( जटाधारी) आदि सब आ जाते हैं ।' इसका निर्णय देनेके लिये उन्होंने 'नूतनवादस्थल' पुस्तिकाकोपढनेके लिये अपने हाथमें लिया । इसको सुन- देख कर जिनेश्वरने बीच-ही-में यह प्रश्न उपस्थित किया कि महाराज दुर्लभदेव ! आपके यहांके लोगोंमें क्या पूर्व पुरुषोंकी चलाई हुई पुरातन नीतिका प्रवर्तन हैं या आधुनिक पुरुषोंकी चलाई दुई कोई नवीन नीतिका प्रचार है ?' राजाने उत्तरमें कहा - 'हमारे देशमें अपने पूर्वजोंकी निश्चित की हुई राजनीतिका ही प्रचलन है, दूसरीका नहीं । तब जिनेश्वरने फिर कहा - 'महाराज ! हमारे मतमें भी, अपने पूर्वपुरुष गणधर और चतुर्दशपूर्वधर आदि जो हो गये हैं उन्हीं का कहा हुआ मार्ग प्रमाण माना जाता है, दूसरा नहीं ।' तब राजाने कहा"यह तो ठीक ही है ।' तब फिर जिनेश्वरने कहा - 'महाराज ! हम दूर देशसे यहां पर आये हैं । पूर्व पुरुषों के बनाये हुए ग्रन्थ आदि हम अपने साथ नहीं लाये हैं । इसलिये आप इनके मठमेंसे शास्त्रोंके गट्ठड मंगवाने की व्यवस्था करें जिससे उनके आधार पर मार्ग-अमार्गका निश्चय किया जाय । राजाने उन स्थानस्थित आचार्योंको उद्देश्य करके कहा - 'ये ठीक कहते हैं । आप लोग अपने स्थान पर संदेशा भेज दें जिससे मेरे राजकर्मचारी जा कर उन पुस्तकोंके गट्ठडको यहां पर ले आवें ।' उन्होंने मनमें समझ लिया कि - Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि । उसमेंसे तो इन्हींका पक्ष सिद्ध होगा । इसलिये वे मौन रहे । राजाने अपने नोकरोंको भेजा और कहा , कि शीघ्र ही पुस्तक यहां पर ला कर हाजर करो । तदनुसार वे शीघ्र ही वहां लाये गये । ___ पुस्तकोंके आते ही सद्भाग्यसे जिनेश्वर सूरिके हाथमें सबसे पहले दशवैकालिक सूत्र नामक ग्रन्थ आ गया । उसको खोल कर उन्होंने उसमेंकी यह गाथा पढी ___अन्नटुं पगडं लेणं भइज्ज सयणासणं । उच्चारभूमिसंपन्नं इत्थीपसुविवज्जियं ॥ साधुओंको कैसी वसतिमें ठहरना चाहिये इसका वर्णन इस गाथामें किया है । इसका अर्थ समझाते हुए जिनेश्वरने कहा- ऐसी वसतिमें साधुओंके ठहरनेका शास्त्रोंमें विधान है न कि देवमन्दिरोंमें । सुन कर राजाने मनमें समझ लिया, कि इनका यह कथन युक्तियुक्त मालूम देता है । उन अन्यान्य सब अधिकारियोंने भी समझ लिया कि हमारे गुरु निरुत्तर हो गये हैं । फिर भी वे सब अधिकारी एक दूसरेको कहने लगे, कि ये हमारे गुरु हैं, ये हमारे गुरु हैं- इत्यादि । उन्होंने सोचा, ऐसा कहनेसे राजा समझेगा कि जो हमारे गुरु हैं वे मान्य पुरुष हैं; अतः उनके विरुद्ध वह कुछ अभिप्राय नहीं प्रकट करना चाहेगा। परंतु राजा तो न्यायवादी था इसलिये उसने सब कुछ सत्य समझ लिया था । इतनेमें जिनेश्वर सूरिने कहा- 'महाराज ! देखिये तो सही इनमेंसे कोई तो मंत्रीके गुरु हैं, कोई श्रीकरणाध्यक्षके गुरु हैं और कोई पटवोंके गुरु हैं । इस तरह यहां पर सब कोई सबके संबन्धी दिखाई दे रहे हैं । लेकिन हमारा कोई संबन्धी नहीं दिखाई देता ।' तब हंस कर राजाने कहा- 'आप हमारे संबन्धी है - हमारे गुरु हैं।' राजाके मुखसे ये शब्द सुन कर वे सब आचार्य खिन्नमनस्क हो गये । फिर राजा व्यंग्य करते हुए बोला- 'ये सब अधिकारियोंके गुरु इस तरह बडी बडी गद्दियों पर बैठे हुए हैं तो फिर हमारे गुरु क्यों इस प्रकार नीचे आसन पर बैठे हुए हैं ?' इस पर जिनेश्वरने कहा 'महाराज ! साधुओंको गद्दी पर बैठना शास्त्रमें निषिद्ध है। और फिर उसके समर्थनमें उन्होंने कितनेक शास्त्रके श्लोक कह सुनाये । राजाने पूछा - 'आप लोगोंके ठहरनेके स्थानका क्या प्रवन्ध हुआ है ?' तो जिनेश्वरने उत्तरमें कहा- 'यहां विपक्षियोंके ऐसे प्राबल्यमें हमें कहां ठहरने की खतंत्र जगह मिल सकती है। हम तो वहीं पुरोहितजीके आश्रयमें ठहरे हुए हैं।' सुन कर राजाने आज्ञा दी कि करडीहट्टीमें जो नावारिसका एक बडा मकान पडा है वह इन मुनियोंको ठहरनेके लिये दे दिया जाय । राजाने फिर पूछा- 'आप लोगोंके भोजनकी क्या व्यवस्था है ?' तो इसके उत्तरमें भी जिनेश्वरने वैसी ही दुर्लभता बताई । फिर राजाने पूछा- 'आप सब कितने साधु हैं ?' जिनेश्वर – 'अठारह ।' राजा- 'अहो एक हाथीके पिंडसे सब तृप्त हो जायेंगे।' जिनेश्वरने कहा- 'महाराज ! हम मुनियोंको राजघरानेका अन्न लेना निषिद्ध है ।' राजा- 'अच्छी बात है, मेरे आदमियोंके द्वारा आपको भिक्षा सुलभ हो जायगी।' ___ इस प्रकार शास्त्रविचारमें जिनेश्वर सूरिके पक्षका समर्थन होनेसे राजाने उनको सत्कृत किया और फिर वे राजसम्मानके साथ उस राजप्रदत्त वसति (उपाश्रय )में जा कर स्थिर भावसे रहने लगे; और इस प्रकार, पहले पहल, गुजरातमें 'वसतिवास की स्थापना हुई। इस प्रकार, जिनेश्वर सूरिको पाटनमेंसे बहार नीकाल देनेके लिये जो दो प्रयत्न किये गये वे दोनों निष्फल हो गये । तब उन चैत्यवासियोंने एक और उपाय सोचा । वे जानते थे कि राजा राणीका बडा वशवर्ती है - वह जो कुछ कहती है सो बह करता है । अतः उन्होंने राणीको प्रसन्न करनेके लिये एक Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनेश्वर सूरिके चरितका सार । ३१ 1 तजवीज सोची । सब जितने बडे बडे राजाके अधिकारी थे वे अपने अपने गुरुकी ओरसे आम, केले, द्राक्षा आदि फलोंसे भरे हुए थालोंमें कुछ मूल्यवान् गहने और वस्त्रादि रख कर उन्हें भेंटके रूपमें सजा कर राणी के पास ले गये । जैसे देवता के आगे पूजाका सामान रखा जाता है वैसे उस राणीके आगे जा कर उन्होंने वह सब रख दिया और अपना मनोगत भाव प्रकट किया । राणी इससे तुष्ट हो कर उनके हितमें कुछ करने की इच्छा प्रकट कर ही रही थी कि इतने ही में राजाका एक विश्वस्त कर्मचारी, जो दिल्लीकी तरफका रहने वाला था और जो जिनेश्वर सूरिका भक्तजन था, राजाका कोई विशिष्ट सन्देश ले कर वहां आ पहुंचा और उसने राणीको राजाका वह सन्देश दिया । राणी के सामने उक्त प्रकारसे भेंटके भरे हुए थालादि देख कर तथा उन अधिकारी जनोंको वहां उस प्रकार बैठे हुए जान कर, उसने समझ लिया कि जरूर यह कोई, हमारे देशसे आये हुए महात्माओंको नीकालनेका जाल रचा जा रहा है । मुझे भी इसमें कुछ प्रयत्न करना चाहिये और अपने देश के महात्माओंका पक्षपोषक बनना चाहिये । उसने जा कर राजासे निवेदन किया कि 'महाराजका सन्देश राणीको पहुंचा आया हूं'; और फिर साथमें वह बोला कि 'महाराज ! मैंने आज महाराणीके यहां बडा भारी कौतुक देखा ।' राजा - 'सो कैसा ?' पुरुष - 'महाराणी आज अर्हतकी मूर्ति बन गई है । जैसे अतकी मूर्तिके आगे पूजानिमित्त फल, आभूषण और वस्त्रोंसे भरे हुए थाल रखे जाते हैं वैसे ही आज राणीके आगे किया गया है' - इत्यादि । राजाने तुरन्त समझ लिया कि जिन न्यायवादी महात्माओं को मैंने गुरुरूपसे सत्कृत किया है, ये लोग अब भी उनका पीछा नहीं छोड़ रहे हैं । इससे राजाने उसी पुरुषको कहा कि 'तुम शीघ्र जा कर राणीको कह आओ कि महाराजने कहलाया है कि जो भी चीजें तुह्मारे सामने ला कर रखी गई हैं उनमेंसे यदि एक सुपारीमात्र भी तुमने ली है तो महाराज बहुत कुपित होंगे और उसका परिणाम अच्छा नहीं होगा ।' राणी यह सुन कर डर गई और उसने एकदमसे कह दिया कि जो जो आदमी ये चीजें लाये हैं वे सब अपने घरपर वापस ले जायँ । मुझे इनसे कोई प्रयोजन नहीं है । इस प्रकार यह उपाय भी उनका निष्फल हुआ । इसके बाद, फिर उन्होंने एक चौथा उपाय सोचा । वह था देवमन्दिरोंकी पूजाविधि न करनेरूप 'सत्याग्रह' का । उन चैत्यवासियोंने यह निर्णय किया कि यदि राजा इन देशान्तरीय साधुओंका बहुमान करता रहेगा तो हम सब इन देवमन्दिरोंको शून्य छोड कर देशान्तरोंमें चले जायेंगें । किसीने जा कर राजाको यह बात निवेदन की तो उसने कह दिया कि 'यदि उनको यहां रहना अच्छा न लगता हो तो खुशीसे चले जायें ।' राजाने उन देवमन्दिरों की पूजाके लिये दूसरे बटुक नियुक्त कर दिये और आज्ञा कर दी कि ये लोग सब देवताओंकी पूजा करते रहेंगे । पर देवमन्दिरके विना उन चैत्यवासियों का बहार रहना शक्य नहीं था । इससे कोई किसी बहाने और कोई किसी बहाने, वे सब फिर अपने अपने मन्दिरोंमें आ कर जम गये । वर्द्धमानसूरि इस प्रकार राजसम्मान प्राप्त कर फिर अपने शिष्यपरिवार के साथ देशमें सर्वत्र घूमने लगे । कोई कुछ उन्हें कह नहीं सकता था । बादमें उन्होंने अच्छे मुहूर्त में अपने पट्टपर जिनेश्वर सूरिकी स्थापना की । उनके दूसरे भ्राता बुद्धिसागरको भी आचार्य पदसे अलंकृत किया । उनकी बहिन जो कल्याणमति नामक थी, और वह भी साध्वी बनी हुई थी, उसको 'महत्तरा' का पद दिया गया । जिनेश्वर सूरि फिर अनेक स्थानोंमें विहार करते रहे और लोगोंको अपने आदर्शका उपदेश देते रहे । Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि। उन्होंने जिनचन्द्र, अभयदेव, धनेश्वर, हरिभद्र, प्रसन्नचन्द्र, धर्मदेव, सहदेव, सुमति आदि अनेक शिष्य दीक्षित किये। वर्द्धमान सूरि अपना आयुष्य काल समाप्त कर, आबूपर्वतके शिखर पर समाधिपूर्वक देवगतिको प्राप्त हुए। पीछेसे, जिनेश्वर सूरिने जिनचंद्र और अभयदेवको, विशिष्ट गुणवान् जान कर, सूरिपद समर्पित किया। वे दोनों 'युगप्रधान' बने । दूसरे और दो शिष्योंको-धनेश्वरको (जिनभद्र का नाम दे कर ) और हरिभद्रको आचार्य पद दिया । धर्मदेव, सुमति और विमल इन तीन शिष्योंको उपाध्याय पद दिया । धर्मदेव उपाध्याय और सहदेव गणी ये दोनों सहोदर भाई थे । धर्मदेवोपाध्यायने हरिसिंह और सर्वदेव गणी इन दोनों भाईयोंको तथा पण्डित सोमचन्द्रको अपना दीक्षित शिष्य बनाया । सहदेव गणीने अशोकचन्द्रको दीक्षा दे कर अपना शिष्य बनाया जो अपने गुरुका अतीव वल्लभ शिष्य बना। इनको जिनचन्द्र सूरिने विशेष प्रेमके साथ पढाया था और फिर आचार्य पदपर स्थापित किया था। फिर इन अशोकचन्द्रने अपने पदपर हरिसिंहाचार्यकी स्थापना की । तथा अन्य और दो विद्वानोंको-प्रसन्नचन्द्र और देवभद्रको- आचार्य पद दिया । इनमें देवभद्र सुमति उपाध्यायके शिष्य थे। प्रसन्नचन्द्र, बर्द्धमान, हरिभद्र और देवचन्द्र इन ४ विद्वानोंको अभयदेव सूरिने तर्कादि शास्त्रोंका अध्ययन कराया था। जिनेश्वर सूरि एक दफह आशापल्ली (आधुनिक अहमदाबादकी जगह प्राचीन नगर )में चातुर्मास आ कर रहे । उनकी व्याख्यानसभामें वहां अनेक विचक्षण श्रोता जमते थे। उनको सुनानेके लिये उन्होंने अनेक प्रकारके अर्थों और वर्णनोंसे भरी हुई 'लीलावती' नामक बडी मनोरम कथाकी खतंत्र रचना की। इसी तरह, डिण्डियाणा (मारवाड) नामक नगरमें चातुर्मास किया तब व्याख्यानके लिये 'कथानक' कोश नामक (प्रस्तुत) ग्रन्थकी रचना की। इसकी रचनाका मुख्य कारण यह हुआ कि, वहां पर जब वे चातुर्मासके लिये आये तो उन्होंने वहांके देवमन्दिर-निवासी आचार्यसे व्याख्यानमें वाचनेके लिये किसी पुस्तककी याचना की, तो उसने वैसा करनेसे इन्कार कर दिया । तब जिनेश्वर सूरि खयं, रोज दिनके पिछले दो प्रहरों में इस कथानक ग्रन्थकी रचना करते रहते थे और प्रातःकालमें इसका व्याख्यान करते थे । इस प्रकार वहां चातुर्मासमें इस ग्रन्थकी रचना की गई। _वहीं पर मरुदेव गणिनी नामक साध्वीने अनशन किया जो ४० दिनमें समाप्त हुआ और वह समाधिमरणपूर्वक वर्गको सिधारी । जिनेश्वर सूरिने उस साध्वीको 'समाधि' दिलाई थी और मृत्युके समय उससे कहा कि 'जहां जा कर तुम जन्म लो उस स्थानका हमको निवेदन करना ।' उसने स्वीकार किया कि- 'मैं ऐसा करूंगी।' इसके कुछ दिनों बाद, एक श्रावक, जिसके मनमें यह जाननेकी उत्कट इच्छा हुई कि इस वर्तमान समयमें युगप्रधानाचार्य कोई है या नहीं और है तो वह कौन ? इसके लिये उजयन्त अर्थात् गिरनार तीर्थ पर जा कर उसने तीन उपवास किये और वहांके अधिष्ठायक देव ब्रह्मशान्ति की आराधना की । ब्रह्मशान्ति यक्ष उसी समय तीर्थकरोंकी वन्दना निमित्त महाविदेह क्षेत्रमें गया हुआ था। वहां पर उसे उस मरुदेविके नूतन जन्मखरूप देवसे भेंट हुई जिसने अपना सन्देशा जिनेश्वर सूरिके पास पहुंचानेके Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३ जिनेश्वर सूरिके चरितका सार। लिये तीन गाथाएँ दीं। इन गाथाओंका अर्थ यह है कि 'मरुदेवि नामक गणिनी आर्या, जो आपके गच्छमें थी, वह मर कर प्रथम वर्गके टक्कल नामक विमानमें, दो सागरोपम आयुष्यवाले एक महर्द्धिक देवके अवताररूपमें उत्पन्न हुई है । श्रमणपति जिनेश्वर सूरिको यह सन्देश पहुँचा देना और कहना कि अपने चारित्रके पालनमें उद्यत रहना, और विशेष कुछ नहीं।' ___ ब्रह्मशान्तिने आ कर उस श्रावकको उठाया और उसके कपडेके अंचल पर 'म स ट स ट च एसे ६ अक्षर (जो उक्त ३ गाथाओंके प्रत्येक अर्द्धखण्डके आदि अक्षर थे ) लिख दिये । यक्षने कहा- 'पाटनमें जा कर आचार्योंको यह अंचल बताना । जो इनका अर्थोद्घाटन कर सकेगा वही युगप्रधानाचार्य है ऐसा समझना ।' फिर वह श्रावक पाटन गया। वहांकी सब वसतियोंके आचार्योंको जा कर उसने वह वस्त्रांचल दिखाया पर किसीने उसका रहस्य न समझा । फिर जब जिनेश्वर सूरिके पास गया तो उन्होंने चिन्तन करके उस वस्त्रका प्रक्षालन किया तब उस पर उक्त ३ गाथाएँ लिखी हुई दृष्टिगोचर · हुई। श्रावकका निश्चय हो गया कि ये ही आजके 'यु ग प्रधानाचार्य' हैं। इस प्रकार भगवान् महावीरके उपदिष्ट धर्ममार्गकी प्रभावना करके जिनेश्वर सूरि देवगतिको प्राप्त हुए । उनके पश्चात् उनके पट्टधर जिनचन्द्र सूरि बने, जिनको १८ नाममालाएँ (शब्दकोश), मय सूत्रार्थके मनमें रम रही थीं। वे सर्व शास्त्रोंके जानकार थे । उन्होंने १८००० श्लोक प्रमाण 'संवेशरंगशाला' नामक महान् ग्रंथ भव्य जनोंके हितके लिये बनाया । जाबालिपुर (आधुनिक जालोर, मारवाड )में जब वे थे तब वहांके श्रावकोंके आगे 'चीवंदणमावस्सय' इस गाथासूत्रकी व्याख्या करते हुए जो सिद्धान्त संवाद उन्होंने बतलाये वे उनके शिष्यने लिख लिये थे । उस परसे तीन सौ श्लोकवाले एक दिनचर्या' ग्रन्थकी रचना की गई जो श्रावकोंके लिये बडा उपकारी सिद्ध हुआ । इस प्रकार वे भी महावीरके धर्मका यथार्थ प्रकाश कर खर्गको प्राप्त हुए। ___ इस तरह यह जिनपालोपाध्यायरचित जिनेश्वर सूरिके चरितका यथाक्षर सार है । सुमति गणिका चरित भी इसी प्रकारका-प्रायः अक्षरशः इससे मिलता हुआ है। सोमतिलक सूरिवर्णित जिनेश्वर सूरिके चरितका सार। अब यहां पर संक्षेपमें, सोमतिलक सूरिने जिस प्रकार इनका चरित-वर्णन, उक्त धनपाल कथामें किया है उसका भी थोडासा सार, पाठकोंको कुछ कल्पना आ जाय इस दृष्टिसे, दे दिया जाता है। __इस कथाके अनुसार, जिनेश्वर सूरिकी पूर्वावस्थाका वर्णन इस प्रकार है-मध्यदेशकी वाणारसी (बनारस) नगरीमें गौतम गोत्रवाला एक कृष्णगुप्त नामका ब्राह्मण था जिसके श्रीधर और श्रीपति नामके दो पुत्र हुए। वे दोनों भाई १८ विद्यास्थानके पारगामी थे, ब्राह्मण्य कर्ममें निपुण थे और परस्पर अत्यंत प्रेम रखने वाले थे। वे हमेशां गंगा नदीमें स्नान करके विश्वेश्वर महादेवकी पूजा-अर्चा किया करते थे। फिर किसी समय उनके मनमें सोमेश्वर महादेवकी यात्रा करनेकी इच्छा हुई इस लिये वे वहाँसे चल दिये । महादेवकी भक्तिके निमित्त अपने कंधोंपर खड्डे करके, उनमें दीपक रख कर, उनको जलाते हुए वे चलने लगे । इस तरह बहुतसा मार्ग काटते हुए वे गुजरातके वढवाण नगरमें पहुंचे । वहां पर जैनाचार्य वर्द्धमान सूरि ठहरे हुए थे । रातको जब वे दोनों भाई किसी जगह ठहरे हुए थे तब उनकी इस प्रकारकी देहकष्टदायक भक्तिके वश हो कर, सोमेश्वर देव प्रत्यक्ष हुए और उनको क०प्र० ५ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ફેબ્રુ कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि । कहा कि 'वत्स ! तुम इस प्रकारका कष्ट उठा कर क्यों चल रहे हो ?' । उन्होंने कहा 'देव ! हमको इस संसारमें किसी प्रकारके ऐहिक सुखकी अभिलाषा नहीं है । हमें तो शिव-वासकी उत्कंठा है इसलिये वह जैसे प्राप्त हो उसका उपाय बताओ ।' तब सोमेश्वरने कहा 'इस नगरमें एक जैन महर्षि रहते हैं उनके चरणों का आश्रय लो, जिससे तुमको अपने कल्याणके मार्गका दर्शन होगा ।' ऐसा कह कर शिवजी अन्तर्धान हो गये । दूसरे दिन सवेरे ये दोनों भाई वढवाणकी पौषधशाला में गये जहां वर्द्धमान सूरि धर्मोपदेश कर रहे थे । उनकी प्रशान्त मूर्ति देख कर वे दोनों भाई, अपने कंधों पर जलती हुई दीपिकाओंको निकाल कर उनके चरणों में गिरे और बोले कि 'सूरिवर ! हमें अपने धर्मकी दीक्षा दे कर मुक्तिका मार्ग बतलाईये। तब सूरिने कहा 'वत्स ! पहले तुम जैन मतके तत्त्वोंका अभ्यास करो, उनका हृदयमें विमर्श करो और फिर यदि तुम्हें वे रुचिकर लगें तो उनका अंगीकार करो ।” उन्होंने उनके उपदेशानुसार जैन धर्मके मूलभूत सिद्धान्तोंका अध्ययन करना शुरू किया। थोडे हो समयमें वे इनमें अच्छी तरह प्रविष्ट हो गये और उनकी श्रद्धा इनपर दृढ जम गई । तब उनको सूरिने दीक्षा दी और बडे भाईका नाम जिनेश्वर और छोटेका बुद्धिसागर ऐसा रखा । कुछ ही समय में वे दोनों बन्धु-मुनि जैन दर्शनके बड़े समर्थ पण्डित बन गये और उनका प्रभाव सर्वत्र फैलने लगा । तब फिर कईमान सूरिने उनको आदेश किया कि 'अणहिलपुर पाटनमें चैत्यवासी 'यतिजनोंका बहुत ही प्राबल्य हो गया है, वे सुविहित साधु - मुनियोंका वहां पर प्रवेश तक नहीं होने देते हैं, इसलिये तुम अपनी शक्ति और बुद्धिका प्रभाव दिखा कर वहां पर साधुओंके प्रवेश और निवासका मार्ग खुला करो ।' गुरुकी ऐसी आज्ञाके अनुसार वे फिर अणहिलपुर गये और वहांपर सोमेश्वर पुरोहितकी सहायतासे दुर्लभराजकी सभा में उन चैत्यवासियोंसे शास्त्रार्थ कर उनका पराजय किया और वहां पर बसतिवासकी स्थापना की । वहांसे फिर वे परिभ्रमण करते हुए मालव देशकी उज्जयिनी नगरीमें गये । वहांपर राजमान्य ऐसा सोमचन्द्र नामक ब्राह्मण था जिसके साथ उनकी अच्छी प्रीति हो गई । एक दिन उस ब्राह्मणने उनसे पूछा कि 'आप लोग तो 'चूडामणि' नामक ज्योतिष शास्त्रके बडे ज्ञाता हैं । क्या मेरे मनके एक प्रश्नका उत्तर देंगे ?' जिनेश्वरने कहा 'बताओ तुम्हारा क्या प्रश्न है ?" तब ब्राह्मणंने कहा "मेरे पूर्वजोंका कुछ महानिधि जमीनमें कहीं गडा हुआ पडा है पर उसका स्थान मैं नहीं जानता । सो आपके ज्ञानसे उसका कुछ पता लगे तो मुझ पर बडा अनुग्रह होगा । यदि वह मिल गया तो उसका आधा हिस्सा मैं आपको अर्पण कर दूंगा ।' जिनेश्वर सूरिने मनमें कुछ भावि सोच कर उसके कथनका स्वीकार किया और फिर अपने ज्ञानसे उसे उस स्थानको दिखाया । वहां पर खोदने पर वह महानिधि निकल आया । सोमचन्द्र ने कहा'मुनिवर ! इसका आधा हिस्सा आपका है सो आप उसे ले लीजिये ।' सूरिने इसके उत्तरमें कहा 'विप्र ! हमें इस अनर्थकारी अर्थकी अपेक्षा नहीं है । हम तो जो अपना निजका था उसे भी छोड़ कर चले आये हैं।' यह सुन कर वह ब्राह्मण चिन्तितसा हो गया । उसके मनमें आया कि यदि ये इसमेंसे कुछ नहीं लेते हैं तो फिर मेरा वचन तो मिथ्या हो जायगा । उसके मनकी इस समस्याको लक्ष्य कर सूरिने कहा 'विप्र ! हमने जो तुम्हारी संपत्ति मेंसे आधा हिस्सा लेनेका मनोभाव प्रकट किया है उसका असली आशय यह है, Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनेश्वर सूरिके चरितका सार। कि तुम्हारे जो दो पुत्र हैं उनमेंसे एककी भिक्षा हमें दे दो। हमें सूचित हो रहा है कि ये तुम्हारे पुत्र बडे भाग्यशाली होंगे। यदि इनमेंसे एक हमारा शिष्य होगा तो वह सद्धर्मका बडा प्रभावक बनेगा और हजारोंका कल्याण करनेवाला होगा। __ सूरिका यह कथन सुन कर ब्राह्मण विचारमें पड़ गया । उसको यह बात बिल्कुल रुचिकर नहीं लगी। अपने पुत्रोंसे यह बात कहनेकी उसकी इच्छा नहीं हुई । उसने वह सारा निधि अपने पुत्रोंको सौंप दिया लेकिन उसके मनमें अपने वचनका खयाल रह रह कर कठने लगा। कुछ दिन बाद वह बीमार पडा और आखिर दशामें आ पहुंचा । मरते समय उसने अपने मनका वह शल्य पुत्रोंके आगे प्रकट कर दिया और कहा कि इसमें तुमको जैसा उचित लगे वैसा करना । उसके इन दो पुत्रोंमेंसे बडेका नाम था धनपाल और छोटेका शोभन । पिताका मृत्युकृत्य करलेने बाद, छोटे शोभनने पिताकी प्रतिज्ञाका पालन करना निश्चय किया और जिनेश्वर सूरिके पास जा कर उनका शिष्य बननेका और उस तरह अपने पिताके उक्त वचनका ऋण चुकानेका भाव प्रकट किया । __ सूरिने उससे कहा 'भाई ! हमारा धर्म हठका नहीं है। इस प्रकार अनिच्छासे किया हुआ धर्मकर्म फलदायक नहीं होता । अपने मनकी उत्कट भावनासे प्रेरित हो कर जो कर्म किया जाता है वह सफल होता है । इसलिये तुम्हारे मनमें यदि हमारी दीक्षा लेनेकी इच्छा है तो पहले तुम जैन तत्त्वोंको पढो सुनो, उनका रहस्यार्थ समझो और फिर यदि तुम्हारी उन पर श्रद्धा बैठे तो दीक्षा ग्रहण करो; अन्यथा अपने घर जाओ। आचार्यके ऐसे हितकर वचन सुन कर शोभनका मन अधिक शान्त हुआ और वह उनके पास रह कर जैन शास्त्रोंका मनन करने लगा। जब उसका मन अच्छी तरह दृढ हो गया तब उसको आचार्यने दीक्षा दी। शोभन मुनिके नामसे आगे जा कर वह बडे विद्वान् और संयमी महापुरुषके रूपमें प्रख्यात हुआ। उसका छोटा भाई धनपाल, जो बडा भारी महाकवि था, भोजराजाकी सभाका प्रधान पण्डित बना। अपने पिताके पास इस प्रकार छलसे आधी संपत्तिका हिस्सा मांगने और फिर उसके निमित्त अपनेमेंसे एक भाईको ही अपना शिष्य बना लेनेके कारण, धनपालको जैन साधुओं पर बडा क्रोध उत्पन्न हो गया। उसने भोजराजाको कह कर धारा नगरीमें जैन साधुओंका आना-जाना ही बन्ध करा दिया । इस प्रकार कितनेक वर्ष बीत जाने पर, जब शोभन मुनि एक अच्छे विद्वान् साधुपुरुषकी प्रतिष्ठा प्राप्त कर चुके तब उनको साथ ले कर जिनेश्वर सूरि धारा नगरीमें पहुंचे। गुरुकी आज्ञासे शोभन मुनि अपने भाईके घर पर गये और उससे मिले । धनपाल अपने भाईको इस प्रकार बहुत वर्षोबाद देख कर स्नेह-पुलकित हुआ । भाइके नेहके कारण वह फिर जिनेश्वर सूरिके पास भी आने-जाने लगा। धीरे धीरे सूरिने उसको जैन धर्मके उदात्त तत्त्वोंका परिज्ञान कराया और इस प्रकार उसे अपने धर्मका अभिमुख बनाया । फिर तो धनपाल भी जैनधर्मके अहिंसा-सिद्धान्तका दृढ उपासक बन कर उन्हीं जिनेश्वर सूरिका परम भक्त बन गया। बस यहीं तक इस कथामें जिनेश्वर सूरिका वर्णन है । इसके आगे फिर धनपालकी वह सारी कथा है जो प्रभावकचरित्र, प्रबन्धचिन्तामणि आदिमें मिलती है । इस कथाका यहां पर वर्णन करना आवश्यक नहीं। Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि । वृद्धाचार्य प्रबन्धावलिगत जिनेश्वर सूरि के चरितका सार । ऊपर हमने, इनके चरितका साधनभूत ऐसे एक प्राकृत 'वृद्धाचार्यप्रबन्ध ( वलि' नामक ग्रन्थका भी निर्देश किया है । इसमें बहुत ही संक्षेपमें जिनेश्वर सूरिका प्रबन्ध दिया गया है जो कि असंबद्धप्राय: है । तथापि पाठकों की जिज्ञासा के निमित्त इसका सार भी हम यहां पर दे देते हैं । ३६ इस कृतिमें, पहले वर्द्धमान सूरिका प्रबन्ध दिया है और फिर उसके बाद जिनेश्वरका प्रबन्ध है । इसमें कहा गया है कि - किसी समय वर्द्धमान सूरि परिभ्रमण करते हुए सिद्धपुर नगरमें पहुंचे जहां सदानीरा सरखती नदी बहती है । उस नदीमें बहुतसे ब्राह्मण रोज स्नान किया करते हैं । उनमें एक पुष्करणागोत्रीय जगा नामक ब्राह्मण, जो सब विद्याओंका पारगामी था, एक दिन नदीसे स्नान करके आ रहा था तब बहिर्भूमिके लिये जाते हुए वर्द्धमान सूरिसे उसकी भेंट हो गई । सूरिको देख कर उसने उनकी निन्दा की । बोला 'ये श्वेतांबर शूद्र हैं, वेद बाह्य हो कर अपवित्र ।' सुन कर सूरिने उत्तर दिया कि 'हे ब्राह्मण ! केवल बाह्य स्नानसे थोडी ही शुद्धि हो जाती है । देख तेरा ही शरीर शुद्ध नहीं है । तेरे शिर पर तो मृतक कलेवर पडा हुआ है ।' सुन कर ब्राह्मण क्रुद्व हुआ और बोला 'क्यों ऐसा मिथ्या वचन बोल रहे हो ? यदि मेरे मस्तकमें मृतक बता दोगे तो मैं तुम्हारा शिष्य बन जाऊंगा ; नहीं तो फिर तुमको मेरा शिष्य बनना पडेगा ।' सूरिने कहा 'ठीक है, तुम अपने शिर परका कपडा उतारो।' सूरिका कथन सुनते ही उसने कुपितभावसे अपने मस्तक परका कपडा एकदम जोरसे खींच कर उनके सामने झटकारा, तो उसमेंसे एक मरी हुई मछली निकल कर नीचे गिर पडी । यह देख कर वह विलक्षितसा हो गया । अपना पण हार गया और वचनपालन के निमित्त सूरिका शिष्य बन गया । 1 बाद में वह गुरुके पास बडी श्रद्धासे सब प्रकार की शिक्षा ग्रहण कर, सिद्धान्तोंका पारगामी विद्वान् बना । गुरुने योग्य समझ कर 'जिनेश्वर सूरि' इस नामसे उनको अपने पट्ट पर प्रतिष्ठित किया । पीछे वर्द्धमान सूरि तो अनशन कर स्वर्गको प्राप्त हो गये और जिनेश्वर सूरि गच्छनायक हो कर सर्वत्र विचरने लगे । फिरते फिरते वे अणहिलपुरमें पहुंचे। वहां पर ८४ गच्छोंके भट्टारक ( आचार्य ) चैत्यवासी हो कर मठपति बने हुए थे और मात्र द्रव्यलिंगीके भेषमें दिखाई देते थे । जिनेश्वर सूरिने उनके विपक्षमें दुर्लभराज की सभा में, १०२४ (?) की सालमें, वाद-विवाद किया, जिसमें वे सब मत्सरी आचार्य अपना पक्ष हार गये । राजाने तुष्ट हो कर उनको 'खर तर' ऐसा बिरुद दिया । इसके बाद उनका गच्छ ' खरतर ' के नामसे प्रसिद्ध हुआ । जिनेश्वर सूरिकी पूर्वावस्थाका जो यह वर्णन इस प्रबन्धावलि में किया गया है, इससे मिलता जुलता वर्णन, खरतर गच्छकी पिछली कुछ अन्यान्य पट्टावलियों में भी किया हुआ मिलता है । उदाहरण के तौर पर, खरतर गच्छकी जो पट्टावलि क्षमाकल्याणक गणिकी बनाई हुई है उसमें लिखा है कि - वर्द्धमान सूरि परिभ्रमण करते हुए जब सरसानामक पत्तनमें पहुंचे तो वहां पर सोमनामक ब्राह्मणके शिवेश्वर और बुद्धिसागर नामक ये दो पुत्र तथा कल्याणमती नामकी पुत्री - ये तीनों भाई-बहिन भी सोमेश्वरकी यात्राको जाते हुए उस समय उसी गांव में आ पहुंचे । वहां पर सरस्वती नदी के किनारे, किसी स्थानमें, रातको जब वे सोये हुए थे तब शिवने प्रत्यक्ष हो कर उनसे कहा कि 'तुम्हारी इच्छा आत्मकल्याण करनेकी है तो यहां पर वर्द्धमान सूरि नामक जैन आचार्य आये हुए हैं उनके पास जाओ । उनकी चरणसेवासे तुमको वैकुण्ठकी प्राप्ति होगी ।' फिर दूसरे दिन प्रातःकाल वे तीनों जन नदीमें स्नान करके बर्द्धमान सूरके पास गये और उनसे उन्होंने वैकुण्ठका मार्ग दिखानेकी विज्ञप्ति की । सूरिने उनको अहिंसामय Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७ कथाओंके सारांशका तारण । जैन धर्मके सिद्धान्त समझाये और उनमेंसे एक भाईकी मस्तककी शिखामें मरी हुई मछली लटक रही थी उसे दिखा कर, केवल ऐसे बाह्य स्नानाचारकी शुद्धिका मिथ्यात्व बतलाया । सूरिके इस उपदेशसे प्रतिबुद्ध हो कर उन्होंने उनके पास फिर जैनयतित्वकी दीक्षा ग्रहण की । इत्यादि । ___ इसके आगेका वर्णन फिर उक्त अन्यान्य प्रबन्धोंके जैसा ही दिया गया है और उसमें यह दिखलाया गया है कि किस तरह उन्होंने अणहिलपुरमें चैत्यवासियोंके साथ वाद-विवाद कर अपना पक्ष स्थापित किया । इत्यादि । कथाओंके सारांशका तारण । इस प्रकार ऊपर हमने जिनेश्वर सूरिके चरितका वर्णन करने वाले जिन प्रबन्धों-निबन्धोंका सार उद्धृत किया है, उससे उनके चरितके दो भाग दिखाई पड़ते हैं - एक उनकी पूर्वावस्थाका और दूसरा दीक्षित होनेके बादका । पूर्वावस्थाके चरितके सूचक प्रभावकचरित आदि जिन भिन्न भिन्न ३ आधारोंका हमने सार दिया है उससे ज्ञात होता है कि वे परस्पर विरोधी हो कर असंबद्धसे प्रतीत होते हैं । इनमें सोमतिलकसूरिकथित धनपालकथावाला जो उल्लेख है वह तो सर्वथा कल्पित ही समझना चाहिये । क्यों कि धनपालने खयं अपनी प्रसिद्ध कथा-कृति 'तिलकमञ्जरी'में अपने गुरुका नाम महेन्द्रसूरि सूचित किया है और प्रभावकचरितमें भी उसका यथेष्ट प्रमाणभूत वर्णन मिलता है । इसलिये धनपाल और शोभन मुनिका जिनेश्वर सूरिको मिलना और उनके पास दीक्षित होना आदि सब कल्पित हैं । मालूम देता है सोमतिलक सूरिने धनपालकी कथा और जिनेश्वर सूरिकी कथा, जो दोनों भिन्न भिन्न है, उनको एकमें मिलाकर इन दोनों कथाओंका परस्पर संबन्ध जोड दिया है जो सर्वथा अनैतिहासिक है। ___ वृद्धाचार्य प्रबन्धावलिमें, जिनेश्वरसूरिकी सिद्धपुरमें सरस्वतीके किनारे वर्धमान सूरिसे भेंट हो जानेकी, जो कथा दी गई है वह भी वैसी ही काल्पनिक समझनी चाहिये । - प्रभावकचरितकी कथाका मूलाधार क्या होगा सो ज्ञात नहीं होता । इसमें जिस ढंगसे कथाका वर्णन दिया है उससे उसका असंबद्ध होना तो नहीं प्रतीत होता । दूसरी बात यह है कि प्रभावकचरितकार बहुत कुछ आधारभूत बातों-ही-का प्रायः वर्णन करते हैं । उन्होंने अपने ग्रन्थमें यह स्पष्ट ही निर्देश कर दिया है कि इस ग्रन्थमें जो कुछ उन्होंने कथन किया है उसका आधार या तो पूर्व लिखित प्रबन्धादि है या वैसी पुरानी बातोंका ज्ञान रखने वाले विश्वस्त वृद्धजन हैं । इसमेंसे जिनेश्वरकी कथाके लिये उनको क्या आधार मिला था इसके जाननेका कोई उपाय नहीं है । संभव है वृद्धपरंपरा ही इसका आधार हो । क्यों कि यदि कोई लिखित प्रबन्धादि आधारभूत होता तो उसका सूचन हमें उक्त सुमतिगणि या जिनपालोपाध्यायके प्रबन्धोंमें अवश्य मिलता । इन दोनोंने अपने निबन्धोंमें इस विषयका कुछ भी सूचन नहीं किया है इससे ज्ञात होता है कि जिनेश्वरकी पूर्वावस्थाके विषयमें कुछ विश्वस्त एवं आधारभूत वार्ता उनको नहीं मिली थी। ऐसा न होता तो वे अपने निबन्धोंमें इसका सूचन किये विना कैसे चुप रह सकते थे । क्यों कि उनको तो इसके उल्लेख करनेका सबसे अधिक आवश्यक और उपयुक्त प्रसंग प्राप्त था और इसके उल्लेख विना उनका चरितवर्णन अपूर्ण ही दिखाई देता है । ऐसी स्थितिमें प्रभावकचरितके कथनको कुछ संभवनीय मानना हो तो माना जा सकता है। इन सब प्रबन्धोंके आधारसे इतनी बात तो निश्चित होती है कि जिनेश्वर और बुद्धिसागर ये दोनों सहोदर भाई थे और पूर्वावस्थामें जातिसे ब्राह्मण थे । मध्यदेश - शायद बनारस इनका मूल वतन था । मामणपुत्र होनेसे और बहुत बुद्धिमान् होनेसे पूर्वावस्थामें इन्होंने संस्कृत वाकायका - व्याकरण, काव्य, Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૭ कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि । कोष, साहित्य, छन्द, अलंकार आदि विषयोंका - अच्छा ज्ञान संपादन कर लिया था। मुमुक्षु और भावुक वृत्तिके होनेके कारण सांसारिक जीवन की ओर इनमें विशेष आसक्ति नहीं उत्पन्न हुई थी और तीर्थयात्रादि द्वारा ये अपना निःस्पृह जीवन व्यतीत करना चाहते थे । ऐसी स्थितिमें उनको जैनाचार्य वर्द्धमानसूरिका कहीं परिचय हो गया । कुछ विशेष संसर्गमें आनेसे, इन भाईयोंकी उन पर उनके तप, त्याग, विरक्ति, विद्याव्यासंग और लोकों पर विशिष्ट प्रकारके प्रभावको देख कर, विशेष श्रद्धा उत्पन्न हुई और अन्तमें इन्होंने उनके पास जैन यतित्वकी दीक्षा ग्रहण की । जिसने भी इन्हींके अनुकरणमें जैन साध्वीव्रतकी दीक्षा शायद इनकी एक विदुषी बहिन भी थी ले ली थी । 1 इनके गुरु बर्द्धमान सूरि, मूल दिल्लीके समीप - प्रदेश के अभोहर नगर में रहनेवाले चैत्यवासी आचार्यके शिष्य थे । ये आचार्य मठपति थे और बहुत बडी संपत्ति के स्वामी थे । वर्द्धमानको, जो प्रकृति से विरक्त स्वभाव के थे, अपने गुरुकी संपत्ति पर कोई आसक्ति नहीं उत्पन्न हुई और जैन शास्त्रोंका विशेष अध्ययन करने पर उनको वह संपत्ति त्याज्य मालूम दी । गुरुके बहुत कुछ समझाने पर भी उन्होंने मठपति होना पसन्द नहीं किया और विरक्त हो कर उद्योतनाचार्य नामक एक तपखी और निःसंगविहारी आचार्य के पास उपसंपदा ले कर उनके अन्तेवासी बन गये । वर्द्धमान सूरि जैसे विरक्त थे, वैसे विद्वान् भी थे । जैन शास्त्रोंका अध्ययन उनका खूब गहरा था । जैन यतियोंमें चैत्यवासके कारण बढे हुए तत्कालीन शिथिलाचारको देख कर, उनको उद्वेग होता था और उसके प्रतिकार के लिये वे यथाशक्ति उपदेश देते रहते थे और सर्वत्र निःसंग और निर्मम भावसे विचरा करते थे । उनके ऐसे त्यागमय जीवन के बढते हुए प्रभावको देख कर, तथा उसके कारण चैत्यवासके विरुद्ध लोगोंके मनमें उत्पन्न होते हुए भावोंको जान कर कुछ चैत्यवासी आचार्योंने उनका बहिष्कार करना और उन्हें कहीं अच्छे स्थानादिमें न ठहरने देने आदिका प्रयत्न करना शुरू किया । लेकिन धीरे धीरे वर्द्धमान सूरिका प्रभाव अधिक बढ़ता गया और जब जिनेश्वर और बुद्धिसागर जैसे बड़े प्रतिभाशाली और पुरुषार्थी शिष्योंका उन्हें सहयोग मिल गया, तब उनके विचारोंके प्रसारको और भी अधिक वेग मिला । इस पूर्व भूमिका के साथ वे गुजरातकी राजधानी अणहिलपुरमें पहुंचे थे, जो उस समय जैसा किं हमने पहले सूचित किया है, सारे भारतवर्ष में एक बहुत ही प्रसिद्ध और समृद्धिका केन्द्र होनेके साथ जैन धर्मका भी बडा भारी केन्द्रस्थान था । अणहिलपुरके प्रसिद्ध जैन मन्दिर और जैनाचार्य । अणहिलपुरकी राजसत्ता के मुख्य सूत्रधार उस समय प्रायः जैन ही थे । आबू, चन्द्रावती, आरासण आदि स्थानों में अद्भुत शिल्पकलाके निदर्शक ऐसे भव्य जैन मन्दिरोंका निर्माता विमल शाह गुजरातके साम्राज्यका सबसे बडा दंडनायक और राजनीतिकुशल मुत्सद्दी था । उसका बडा भाई वीरदेव राज्यका सबसे बडा प्रधान था । और भी ऐसे अनेक राजमान्य और प्रजानायक सेंकडों ही धनाढ्य जैन वहाँ वसते थे जिनका प्रभाव, न केवल अणहिलपुर - ही के राज्यमें, परंतु उसके आस-पास के मालवा, मारवाड, मेवाड, महाराष्ट्र आदिके सीमासमीपस्थ सभी देशोंमें, पडता था । उस अणहिलपुरमें, जैन समाजकी इस प्रकारकी बहुलता और प्रभुता होनेके सबबसे वहां पर जैन मन्दिरोंकी संख्या भी बहुत बडी थी और जैन यतियोंका समूह भी बडे प्रमाणमें रहा करता था । इन मन्दिरोंमें सबसे बडा मन्दिर पंचासर पार्श्वनाथका था जिसकी स्थापना अणहिलपुर के राजमहल की स्थापना ही के साथ, एक ही मुहूर्तमें " Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणहिलपुरके प्रसिद्ध जैन मन्दिर और जैनाचार्य । हुई थी । अणहिलपुरके साम्राज्यका मूल स्थापक पुरुष, चावडा वंशीय वनराज नृपति था, जो अपनी बाल्यावस्थामें, पंचासर गांवके जैन मन्दिरमें वसनेवाले, नागेन्द्र गच्छीय आचार्य शीलगुण सूरि एवं उनके पट्टधर शिष्य आचार्य देवचन्द्र सूरिके संरक्षणमें पला था । अणहिलपुरकी स्थापनाके समय उसने अपने उपकारी आचार्यको वहां बुला कर, उनके आशीर्वाद पूर्वक, अपना राज्याभिषेक कराया और उनको अपने गुरुके रूपमें स्थापित किया। उन्होंने पंचासर गांवसे अपने अभीष्टदेव पार्श्वनाथकी मूर्तिको वहां मंगवाया और वनराजके बनाये हुए उस नवीन जैन मन्दिरमें उसको प्रतिष्ठित किया । आचार्यने उस मन्दिरका नामकरण वनराजके नामस्मरणके साथ 'वनराज-विहार' ऐसा किया, लेकिन लोकोंमें अधिकतर वह पंचासर पार्श्वनाथके नामसे ही प्रसिद्ध रहा । इस वनराज-विहारका सर्व प्रबन्ध उक्त आचार्य देवचन्द्रसूरिकी शिष्यसन्ततिके अधिकारमें चलता था जो नागेन्द्रगच्छीय कहलाते थे । जिनेश्वर सूरिके समयमै इस गच्छके प्रधान आचार्य द्रोणाचार्य और उनके शिष्य महाकवि सूराचार्य थे । वनराज-विहारके अतिरिक्त अणहिलपुरमें और भी कई बडे जैन मन्दिर थे जो अन्यान्य राजकीय एवं धनिक जैन श्रावकोंके बनाये हुए थे। इनमें महामात्य संपकका बनाया हुआ एक थारापद्रीय महाचैत्य था जिसके अधिष्ठाता वादिवेताल शान्तिसूरि थे जो अपने समयमें जैन संप्रदायके सबसे बड़े वादी एवं तर्कशास्त्र और साहित्यविद्याके पारगामी विद्वान् थे । ये द्रोणाचार्य पूर्वावस्थामें जातिके क्षत्रिय थे और गूर्जरेश्वर महाराजाधिराज भीमदेव चालुक्यके मामा थे। शायद, बचपन-ही-में इन्होंने जैन यतित्वकी दीक्षा ले ली थी और अनेक शास्त्रोंका अध्ययन कर ये बडे समर्थ विद्वान् बने थे। चालुक्य राजकुमार भीमदेवकी संपूर्ण शास्त्रशिक्षा इन्हींके पास हुई थी, इसलिये ये राज्यमें राजगुरुके रूपमें सम्मानित होते थे । सूराचार्य जो इनके शिष्यके रूपमें प्रख्यात हुए, वास्तवमें इन्हींके भतीजे थे। इनके भ्राता संग्रामसिंहकी अकाल-ही-में मृत्यु हो जानेके कारण, इनकी भोजाईने, अपने इकलोते पुत्रको, जिसका मूल नाम महीपाल था, शिक्षा-दीक्षा देनेके लिये इन्हींको समर्पित कर दिया था । द्रोणाचार्यने इसको सब प्रकारके शास्त्रोंकी शिक्षा दे कर बहुत निपुण बनाया। फिर इसने स्नेहवश हो कर अपने पितृव्य एवं गुरुको छोड कर गृहस्थावासमें जाना पसन्द नहीं किया और यतिदीक्षा ले कर उनका त्यागी शिष्य बन गया । पीछेसे पंचासरके मन्दिरके मुख्य अधिष्ठाता आचार्यके रूपमें ये प्रतिष्ठित हुए तथा महाराजाधिराज भीमदेवकी राजसभाके सबसे अग्रणी विद्वान्के रूपमें इन्होंने सारे देशमें ख्याति प्राप्त की। मालवाके परमार सम्राटू महाराजाधिराज भोजदेवकी राजसभामें जा कर इन्होंने अपने पाण्डित्यका अद्भुत कौशल बताया और वहां पर गूर्जरविद्वत्ताकी धाक बिठा कर, भोज जैसे महाविद्वान् और महामति नृपतिको भी चकित किया । ऐसा ही प्रसिद्ध एक और चैत्य था जिसके अधिष्ठाता गोविन्दसूरि नामक आचार्य थे । ये आचार्य भी बहुत बडे विद्वान् थे और राजसम्मान्य पुरुष थे। भीमदेवके उत्तराधिकारी महाराज कर्णदेवके बालमित्र कहे जाते थे । सूराचार्यने साहित्यिक विद्याका विशेष अध्ययन इन्हींके पास किया था। सिद्धराजके समयमें जिन्होंने वादिसिंह नामक एक विदेशी महाविद्वान्को शास्त्रार्थमें पराजित किया था तथा जो सिद्धराजके विशिष्ट मित्र समझे जाते थे उन वीराचार्यके भी कलागुरु ये ही गोविन्दसूरि थे। इन वीराचार्यके गुरुओंका अधिकारमुक्त भी एक ऐसा ही बडी प्रसिद्धिवाला चैत्य था जो भावाचार्य-चैत्य के नामसे ख्यात था । सिद्धराजने मालवविजय करनेके समय जो विजयपताका हस्तगत की थी उसको ला कर इसी भावाचार्य चैत्यके बलानकके शिखर पर उत्तंभित की थी। इस भावाचार्य Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि । चैत्यके अधिष्ठाता उस समय विजयसिंहाचार्य थे जो वहांके विशिष्ट आचार्योंमेंसे एक माने जाते ४० 1 इन कतिपय बहुत प्रसिद्ध चैत्यों के अतिरिक्त वहां पर और भी कई छोटे बडे चैत्य थे जिनके आश्रय में अनेक यतिजन निवास किया करते थे और जो अपने अपने गच्छवासी गृहस्थोंके समूह के धर्मगुरु हो कर अपने अधिकृत धर्मस्थानोंका - चैत्योंका तथा उपश्रायोंका - अधिकार भार वहन किया करते थे । ये यतिजन यों तो प्रायः त्यागी ही होते थे । स्त्री और धनके परिग्रहसे प्रायः मुक्त होते थे । विद्याध्ययन, धर्मोपदेश और धर्मक्रियाएं करने - कराने में ये व्यस्त रहते थे । साहित्य, संगीत, शिल्प, ज्योतिष, वैद्यक आदि विविध कलाओं और विद्याओंका इनमें यथेष्ट आदर और प्रचार था । प्रत्येक मन्दिर और उससे संलग्न उपाश्रय सार्वजनिक शिक्षणके विद्यानिकेतन जैसे थे । जैन और जैनेतर दोनों वर्गों के उच्च जातीय बालकोंकी शिक्षा प्रायः इन्हीं स्थानोंमें और इन्हीं यतिजनोंके आश्रय नीचे हुआ करती थी । प्रत्येक मन्दिर या उसके उपाश्रयमें छोटा बडा ग्रन्थभंडार रहता था, जिसमें जैनधर्मके सांप्रदायिक ग्रन्थों के अतिरिक्त, सर्वसाधारण ऐसे न्याय, व्याकरण, साहित्य, काव्य, कोष, ज्योतिष, वैद्यक आदि सभी विषयोंके ग्रन्थोंका भी उत्तम संग्रह होता था । अपनी नित्य नैमित्तिक धर्मक्रियाएँ करते रहते हुए ये यतिजन, बाकीका सारा समय अध्ययन, अध्यापन, ग्रन्थप्रणयन और पुराने ग्रन्थोंके प्रतिलिपीकरणका कार्य नियमित किया करते थे । इनके भोजनका प्रबन्ध या तो भक्त गृहस्थोंके यहांसे गोचरीके रूप में हुआ करता था या फिर अपने स्थान - ही में किसी भृत्यजनद्वारा किया जाता था | यों इन जैन यतिजनोंका यह आचार और जीवन-व्यवहार, प्रायः मठनिवासी शैव संन्यासियों के जैसा बन रहा था; और अनेक अंशोंमें समाजके हितकी दृष्टिसे, बहुत कुछ लाभकारक भी था । परंतु जैन शास्त्रों में जो यतिजनोंका आचारधर्म प्रतिपादित किया गया है और जिसका सूचन संक्षेपमें हमने ऊपर किया है, वह इससे सर्वथा अन्य रूपमें हैं । वर्द्धमान सूरि तथा जिनेश्वर सूरि, उस शास्त्रोक्त शुद्ध यतिमार्गका आचरण करनेवाले थे । जैन यतिवर्ग के बड़े समूहमें, उक्त प्रकार के चैत्यवासका विस्तार हो कर, उसके आनुषंगिक दोषोंका - चारित्र्यशैथिल्य और आचार - विप्लव आदि प्रवृत्तियोंका - जो विकास हो रहा था उसका अवरोध कर, वे शुद्धाचारका पुनः उद्धार और प्रचार करना चाहते थे । उनकी दृष्टिमें ऊपर बताया गया चैत्यवासी यतिवर्गका आचार-व्यवहार, जैनधर्मका सर्वथा हास करने वाला था अत एव भगवान् महावीरके उपदिष्ट मोक्षमार्गका वह विलोपक था । इस कारण से चैत्यवासी यतिजनों को इनका उपदेश और प्रचारकार्य रुचिकर न हो कर अपने हितका विघातक लगना और उसके लिये इनका विरोध और बहिष्कारादि करना, उनके लिये खाभाविक ही था और इसीलिये उक्त रीतिसे जब अणहिलपुरमें पहुचे तो इन्हें, तत्कालीन जैन समाज के उस बडे भारी केन्द्रस्थानमें भी, कहीं ठहरने करनेका कोई उचित स्थान नहीं मिल सका । ये फिर उसी अणहिलपुरमें इन्होंने अपने चारित्र और शास्त्रबलके प्रभावसे किस तरह अपना विशिष्ट स्थान जमाया इसका वर्णन जो इन प्रबन्धों में दिया गया है वह मुख्य स्वरूपमें प्राय: समान है । दुर्लभराजके पुरोहित सोमेश्वर देवकी सहायता और मध्यस्थतासे, चैत्यवासियोंके साथ इनका राजसभा में वादविवाद होना और उसमें इनके पक्षका न्याय्यीपन स्थापित हो कर, न्यायप्रिय दुर्लभराजने अणहिलपुर में घसने के लिये इनको वसति आदि प्रदान करनेका जो वृत्तान्त प्राप्त होता है वह एकसा ही है और प्रायः तथ्यमय है । परन्तु सुमतिगणि और जिनपालोपाध्यायने इस वर्णनको खूब बढा-चढा कर तथा अपने Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनेश्वरसूरिकी कार्यसफलता। गुरुओंका बहुत ही गौरवमय भाषामें और चैत्यवासियोंका बहुत ही क्षुद्र एवं ग्राम्य भाषामें, नाटकीय ढंगसे चित्रित किया है - जिसका साहित्यिक दृष्टिसे कुछ महत्त्व नहीं है । तब प्रभावकचरितकारने उस वर्णनको बहुत ही संगत, संयत और परिमित रूपमें आलेखित किया है जो बहुत कुछ साहित्यिक मूल्य रखता है । लेकिन प्रभावकचरितकारने इसका कुछ सूचन नहीं किया कि चैत्यवासियोंकी ओरसे उनके पक्षका मुख्य नायक कौन था। तब सुमतिगणि और जिनपालोपाध्यायके प्रबन्धोंमें चैत्यवासीय पक्षनायकके रूपमें स्पष्टतया सूराचार्यका नाम निर्दिष्ट किया गया है। यों तो प्रभावकचरितमें सूराचार्यके चरितका वर्णन करनेवाला एक खतंत्र और विस्तृत प्रबन्ध ही प्रथित है जिसमें उनके चरितकी बहुतसी घटनाओंका बहुत कुछ ऐतिहासिक तध्यपूर्ण वर्णन किया गया है; लेकिन उसमें कहीं भी उनका जिनेश्वरके साथ इस प्रकारके वाद-विवादमें उतरनेका कोई प्रसंग वर्णित नहीं है । परंतु हगको इस विषयमें उक्त प्रबन्धकारोंका कथन विशेष तथ्यभूत लगता है । प्रभावकचरितके वर्णनसे यह तो निश्चित ही ज्ञात होता है कि सूराचार्य उस समय चैत्यवासियोंके एक बहुत प्रसिद्ध और प्रभावशाली अग्रणी थे । ये पंचासर पार्श्वनाथके चैत्यके मुख्य अधिष्ठाता थे । खभावसे बडे उदग्र और वाद-विवादप्रिय थे । अतः उनका इस वाद-विवादमें अग्ररूपसे भाग लेना असंभवनीय नहीं परंतु प्रासंगिक ही मालूम देता है । शास्त्राधारकी दृष्टिसे यह तो निश्चित ही है कि जिनेश्वराचार्यका पक्ष सर्वथा सत्यमय था अतः उनके विपक्षका उसमें निरुत्तर होना स्वाभाविक ही था । इसलिये इसमें कोई सन्देह नहीं कि राजसभामें चैत्यवासी पक्ष निरुत्तरित हो कर जिनेश्वरका पक्ष राजसम्मानित हुआ और इस प्रकार विपक्षके नेताका मानभंग होना अपरिहार्य बना । इसलिये, संभव है कि प्रभावकचरितकारको सूराचार्यके इस मानभंगका, उनके चरितमें कोई उल्लेख करना अच्छा नहीं मालूम दिया हो और उन्होंने इस प्रसंगको उक्त रूपमें न आलेखित कर, अपना मौनभाव ही प्रकट किया हो। जिनेश्वर सूरिकी कार्यसफलता। जिनेश्वर सूरिका इस प्रकार अणहिलपुरमें प्रभाव जमनेसे और राजसम्मान प्राप्त करनेसे फिर इनका प्रभाव और और स्थानोंमें भी अच्छी तरह बढने लगा और सर्वत्र आदर-सम्मान होने लगा। जगह जगह इनके भक्त श्रावकोंकी संख्या बढती रही और उनके वसतिखरूप नये धर्मस्थानोंकी स्थापना होती रही । धीरे धीरे चैत्यवासियोंका इनकी तरफ जो उग्र विरोध-भाव था वह भी शान्त होने लगा और इनके अनुकरणमें और भी कई चैत्यवासी यतिजन क्रियोद्धार करनेमें प्रवृत्त होने लगे । इनका प्रचारक्षेत्र अधिकतर गुजरात, मालवा, मेवाड और मारवाड रहा मालूम देता है ।। इनके ऐसे प्रभावको देख कर इनके पास अनेक मुमुक्षु जनोंने दीक्षा लेकर इनका शिष्यभाव प्राप्त किया। इनके ये शिष्य भी बहुत सुयोग्य निकले जिससे इनका शिष्य संप्रदाय संख्यामें और गुणवत्तामें दिन-प्रतिदिन बढता ही गया । ये शिष्य-प्रशिष्य जैसे चारित्रशील थे वैसे ज्ञानवान् भी थे । अतः इन्होंने क्रियामार्गके प्रसारके साथ साथ साहित्यसर्जन और शास्त्रोद्धारका कार्य भी खूब उत्साह और उद्यमके साथ चालू रक्खा । इनके इन शिष्योंने कैसे कैसे ग्रन्थ आदि बनाये इसका कितनाक प्रासंगिक परिचय हम ऊपर दे ही चुके हैं । तालिका-रूपसे, इसके परिशिष्टमें, उनकी यथाज्ञात समप्र सूचि देनेका प्रयत्न किया गया है जिससे पाठक इनके शिष्योंकी साहित्योपासनाका दिग्दर्शन प्राप्त कर सकेंगे। इनके मुख्य मुख्य शिष्य-प्रशिष्योंकी नामावलि जो उक्त दोनों प्रबन्धोंमें दी गई है वह अन्यान्य साधनोंसे भी समर्थित होती है और उसका कितनाक परिचय हम ऊपर यथाप्रसंग दे चुके हैं। क. प्र.६ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि । जिनेश्वर सूरिका जन्म कब हुआ, दीक्षा कब ली, आचार्यपद कब मिला और स्वर्गवास कब हुआ इसकी निश्चित मितियां इनके चरित-प्रबन्धोंमें कहीं नहीं उपलब्ध होतीं । इससे इनका संपूर्ण आयु कितने वर्षोंका था यह जाननेका कोई साधन नहीं है । तथापि दुर्लभराजकी सभामें चैत्यवासविषयक वाद-विवादके प्रसंगका निश्चित उल्लेख मिलनेसे तथा इनके बनाये हुए कुछ ग्रंथोंमें समयका निर्देश किया हुआ उपलब्ध होनेसे इनके आयुष्य एवं जीवन-कालकी आनुमानिक कल्पना कुछ की जा सकती है । इनके समय-ज्ञापक कार्यका सबसे पहला सूचन दुर्लभराजके समयका है । गुजरातके अन्यान्य ऐतिहासिक प्रमाणों द्वारा यह निश्चित रूपसे ज्ञात है कि दुर्लभराजने वि० सं० १०६६ से १०७८ तक ११-१२ वर्ष राज्य किया था । अतः इन्हीं वर्षों के बीचमें किसी समय इनका पाटण आना और वहां पर उस वाद-विवादका होना सिद्ध होता है । ___ सं० १०८० में वे जावालिपुरमें थे और वहां पर हरिभद्रसूरिकृत 'अष्टक प्रकरण' पर विस्तृत संस्कृत टीका रच कर उसे समाप्त की । इसी समय और वहीं पर, इनके लघुभ्राता बुद्धिसागर सूरिने भी अपना खोपज्ञ 'बुद्धिसागर व्याकरण' ग्रन्थ रच कर पूर्ण किया। इससे यह भी मालूम देता है कि ये दोनों आचार्य, जावालिपुरमें अधिक समय रहा करते होंगे । यह जावालिपुर इनका एक विशिष्ट कार्यक्षेत्र अथवा केन्द्रस्थानसा मालूम देता है । क्यों कि वि० सं० १०९६ में भी इन्होंने, वहीं अपने 'चैत्यवन्दनटीका' नामक एक और ग्रन्थकी रचना की थी। संवत् १०९२ में आशापल्ली (आधुनिक अहमदाबादके स्थान परबसा हुआ पुराना स्थान )में रह कर इन्होंने अपने 'लीलावती' नामक विशाल कथा-ग्रन्थकी रचना पूर्ण की। संवत् ११०८ में प्रस्तुत 'कथानककोष' ग्रन्थका प्रणयन किया । यद्यपि इसमें यह नहीं सूचित किया गया है कि इस ग्रन्थकी रचना किस स्थानमें की गई थी; परंतु उक्त दोनों प्रबन्धोंमें इसके रचनास्थानका उल्लेख किया हुआ मिलता है और वह है मारवाडका डिण्डवानक नामक गांव । संभव है यह ग्रन्थ जिनेश्वर सूरिकी अन्तिम कृति हो। __इनके बनाये हुए ग्रन्थोंमें मुख्य एक ग्रन्थ जो 'प्र मा ल क्ष्म' है उसके अन्तमें बनानेका समय और स्थानका कोई उल्लेख नहीं मिलता इसलिये उसकी रचनाका निश्चित समय ज्ञात नहीं हो सकता; तथापि उसके अन्तमें बुद्धिसागराचार्यके व्याकरण ग्रन्थकी रचना करनेका उल्लेख किया गया है इससे यह अनुमान किया जा सकता है, कि सं० १०८०, जो उक्त व्याकरणकी रचनाका समय है, उस के बाद ही कभी उसकी रचना की गई थी। १ पिछली पट्टावलियोंमें इस वाद-विवादका संवत दो तरहका लिखा हुआ मिलता है। एक है वि० सं० १०२४ और दूसरा है सं. १०८० । इसमें १०२४ का उल्लेख तो सर्वथा भ्रान्त है क्यों कि उस समय पाटणमें तो दुर्लभराजके प्रपिता मूलराजका राज्य था । शायद दुर्लभराजका तो उस समय जन्म भी नहीं हुआ था। दूसरा, जो १०८० का संवत्का उल्लेख है वह भी ठीक नहीं है। क्यों कि निश्चित ऐतिहासिक प्रमाणोंके आधार पर यह स्थिर हुआ है कि दुर्लभराजकी मृत्यु सं० १०७८ में हो चुकी थी। १०८० में तो उसके पुत्र भीमदेवका राज्य प्रवर्तमान था। इसके विरुद्धमें एक और प्रमाण जिनेश्वर सूरिका स्वयंकृत उल्लेख भी विद्यमान है। सं० १०८० में तो जिनेश्वर सूरि, जैसा कि ऊपर बताया जा रहा है, मारवाडके जावालिपुर (जालोर) में थे जब उन्होंने अपनी हारिभद्रीय-अष्टकग्रंथकी टीका रचकर समाप्त की थी। अतः उस वाद-विवादका दुर्लभराजके समयमें अर्थात् १०७८ के पहले और सं० १०६६ के बीचके किसी समयमें होना ही मानना युक्ति संगत लगता है। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनेश्वर सूरिकी ग्रन्थ-रचना । इनके स्वर्गवासके समयका सूचक कोई स्पष्ट उल्लेख हमारे देखनेमें नहीं आया; परन्तु इनके अतिप्रसिद्ध शिष्य अभयदेवाचार्यने अपनी बनाई हुई आगमोंकी टीकाओंमेंसे स्थानांग, समवायांग और ज्ञाता सूत्रकी टीकाएँ सं० ११२० में पूर्ण की थीं। इन टीकाओंके पीछे जो इन्होंने संक्षेपमें जिन शब्दोंमें अपने गुरुका वर्णन किया है उनसे भासित होता है कि शायद उस समय जिनेश्वर सूरि विद्यमान नहीं थे। उनका खर्गवास हो चुका था । अतः हमारा अनुमान है कि सं० १११० और ११२० के बीचमें कमी वे दिवंगत हुए होंगे । ७. जिनेश्वर सूरिकी ग्रन्थ-रचना । जैसा कि हमने ऊपर सूचित किया है (पृ. १४)- वर्द्धमानाचार्यके उल्लेखसे ज्ञात होता है कि जिनेश्वर सूरिने जैन धर्मके सांप्रदायिक सिद्धान्तोंके प्रतिपादक कतिपय ग्रन्थोंकी रचनाके उपरान्त काव्य, नाटक आदि जैसे सर्वसाधारणोपयोगी विषयोंके कुछ ग्रन्थोंकी भी रचना की थी; परन्तु ये सब रचनाएं अद्यापि उपलब्ध नहीं हुई। इनके शिष्य प्रशिष्यादिने इनकी 'अनेक-ग्रन्थ-प्रणेता के रूपमें प्रशंसा तो खूब खूब की है, लेकिन किसीने भी इन्होंने कितने और किन किन ग्रन्थोंकीर चना की इसका निश्चायक कोई उल्लेख कहीं नहीं किया । इससे इनकी ग्रन्थ-रचना-विषयक समप्रताकी कोई निर्णायक कल्पना नहीं की जा सकती । इनके गुरुभ्राता बुद्धिसागराचार्यने, इनके बनाये हुए ग्रंथोंमेंसे एक मात्र जैन तर्कशास्र प्रतिपादक 'प्रमालक्ष्म' ग्रन्थका उल्लेख किया है । इनके एक प्रधान शिष्य जिनभद्राचार्य (पूर्व नाम धनेश्वर )ने इनकी दूसरी एक विशिष्ट कृतिरूप 'लीलावती कथा' नामक रचनाका उल्लेख किया है । अभयदेव सूरिने इनके किसी ग्रन्थविशेषका नामोल्लेख तो नहीं किया परन्तु - जैसा कि ज्ञातादिसूत्रोंकी वृत्तियोंके प्रान्तोल्लेखोंसे सूचित होता है - इनके जैनाभिमत प्रमाणतत्त्व-प्रदिपादक ग्रन्थ, तथा नाना ग्रन्थोंकी वृत्तियां एवं कथाग्रन्थोंके निर्माता होनेकी प्रशंसात्मक स्तुति की है । अभयदेव सूरिने इनकी एक रचना 'षट्स्थानक प्रकरण' पर भाष्य लिखा जिसमें उक्त ग्रन्थके रचयिताके रूपमें इनका उल्लेख किया है । जिनपति सूरिने इनके बनाये हुए ‘पञ्चलिंगी प्रकरण' नामक ग्रन्थ पर विस्तृत टीका बनाई है जिसके उपोद्घातमें इनकी 'षट्स्थानक प्रकरण' और 'पञ्चलिंगी प्रकरण' इस प्रकार दो प्रकरण ग्रन्थोंकी रचनाका उल्लेख किया है । 'गणधरसार्द्धशतक' की बृहद्वृत्तिमें सुमति गणिने तथा जिनपालोपाध्यायने अपनी उक्त 'बृहत्पदावलि में इनके द्वारा रचित 'कथाकोशप्रकरण'का निर्देश किया है । इस प्रकार (१) प्रमालक्ष्म, (२) लीलावतीकथा, (३) षट्स्थानक प्रकरण, (४) पञ्चलिंगी प्रकरण और (५) कथाकोश-इन पांच ग्रन्थोंका नाम निर्देश तो उक्त ग्रन्थकारोंके कथनसे परिज्ञात होता है; और इन पांचों ग्रन्थों मेंसे, एक 'लीलावती कथा' को छोड कर ४ ग्रन्थ तो जैसा कि निम्नलिखित विशेषविवरणसे वाचकोंको विदित होगा, वर्तमानमें उपलब्ध भी है । 'लीलावती कथा' मूल रूपमें अद्यावधि कहीं उपलब्ध नहीं हुई। परन्तु उसका सार-भागात्मक रूप 'निर्वाणलीलावती' नामका ग्रन्थ जिनरत्न विद्वान्का बनाया हुआ उपलब्ध होता है । इन पांच ग्रन्थोंके अतिरिक्त दो वृत्ति रूपात्मक ग्रन्थ भी इनके उपलब्ध होते हैं, जिसमें एक तो हरिभद्रसूरिकृत 'अष्टक प्रकरण' की व्याख्या और दूसरा 'चैत्यवन्दन विवरण' नामकी व्याख्या है। ___ इन मुख्य प्रन्थोंके सिवा कुछ फुटकर 'कुलक', 'स्तवादि'के नाम भी इनकी रचनाके रूपमें गिनाये जाते हैं, परन्तु उनके विषयमें कुछ ज्ञातव्य उल्लेख हमारे देखनेमें नहीं आये। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि । जिनेश्वरीय ग्रन्थोंके विषयमें कुछ विशेष विवेचन । ___ उपर हमने इनके बनाये हुए जिन ग्रन्थोंका नामोल्लेख किया है उनका कुछ विवरणात्मक परिचय यहां पर देना चाहते हैं, जिससे पाठकोंको, उन प्रयोक्त विषयोंका कुछ परिचय मिल जाय । (१) हारिभद्रीय अष्टकप्रकरणवृत्ति । जिनेश्वर सूरिके बनाये हुए इन ग्रन्थों में निर्दिष्ट समयवाला जो पहला ग्रन्थ मिलता है वह हरिभद्रसूरिकृत 'अष्टकप्रकरण' नामक ग्रन्थकी वृत्तिरूप है । सुप्रसिद्ध महान् जैन शास्त्रकार हरिभद्रसूरि, कि जिन्होंने प्राकृत एवं संकृत भाषामें भिन्न भिन्न विषयके छोटे-बडे सेंकडों ही ग्रन्थोंकी रचना की है उनमें उनका एक ग्रन्थ 'अष्टक प्रकरण' नामक है । ८-८ श्लोकोंका एक छोटा स्वतंत्र प्रकरण ऐसे ३२ प्रकरणोंका संग्रहात्मक यह संस्कृत ग्रन्थ है । इन अष्टकोंमें हरिभद्रसूरिने जैनदर्शनाभिमत कुछ तात्त्विक, कुछ सैद्धान्तिक और कुछ आचार-विचार विषयक प्रकीणे विचारोंका, संक्षेपमें परंतु बहुत ही प्रौढ भाषामें, ऊहापोह किया है । यथा- पहला अष्टक 'महादेव' विषयक है जिसमें 'महादेव' किसे कहना चाहिये और उसके क्या लक्षण होने चाहिये इसका विचार किया गया है। दूसरा अष्टक 'स्नान' विषयक है, जिसमें शुद्ध स्नान किसका नाम है और उसका क्या फल होना चाहिये, इसका विवेचन है । तीसरा अष्टक 'पूजा' विषयक है, जिसमें उपास्य देवकी शुद्ध पूजा किस वस्तुसे की जानी चाहिये और वह क्यों करनी चाहिये इसका विधान है । चौथा अष्टक 'अग्निकारिका' पर है । ब्राह्मणसंप्रदायमें जो 'अग्निकर्म' अर्थात् होम-हवन का विधान है उसका वास्तविक मर्म क्या है और कौनसा होम विशुद्ध होम हो सकता है इसका इसमें खरूप निरूपण है । इसी तरह किसी अष्टकमें 'भिक्षा' विषयका, किसीमें 'भोजन' विषयका, किसीमें 'ज्ञान'का, किसीमें 'वैराग्य'का, किसीमें 'तप'का, किसीमें 'हिंसानिषेध'का, किसीमें 'मांस भक्षण-परिहार'का, किसीमें 'मद्यपानदूषण'का, किसीमें 'मैथुन परित्याग'का, किसीमें 'धर्माधर्म'का और किसीमें 'मोक्षस्वरूप'का वर्णन किया गया है । मालूम देता है उस समय धार्मिक जगत्में भारतके ब्राह्मण, बौद्ध और आर्हत संप्रदायोंमें जिन कितनेक आचार-विचार-विषयक एवं तात्त्विक-सिद्धान्तविषयक मन्तव्योंका परस्पर सदैव ऊहापोह होता रहता था और जिन विचारोंके साथ गृहस्थ एवं त्यागी दोनों वर्गोंका जीवन-व्यवहार संबद्ध रहता था, उनमेंसे. कितनेक विशेष व्यापक और विशेष विचारणीय प्रश्नोंकी मीमांसाको लेकर हरिभद्र सूरिने, इस प्रकरण ग्रन्थकी, सरल और सुबोध शैलीमेंपरंतु बहुत ही तटस्थ और युक्तिसंगत भाषामें- बडी सुन्दर रचना की है। जिनेश्वर सूरिके सन्मुख मी ये प्रश्न सदैव उपस्थित होते रहते होंगे; क्यों कि उनका कर्मक्षेत्र भी उसी प्रकारके धार्मिक जगत्के अन्तर्गत था । उनको भी सदैव अपने प्रवासमें और प्रवचनमें इस प्रकारके विषयोंका नित्य ऊहापोह और शंका-समाधान करना पडता रहा होगा । इस दृष्टिसे हरिभद्र सूरिके इन अष्टकोंका अध्ययन और मनन उनको बहुत ही प्रियकर होना स्वाभाविक है । मालूम देता है - उनके समय तक इस ग्रन्थ पर किसी विद्वानने कोई अच्छी सरल और विस्तृत टीका नहीं बनाई थी। इस लिये जिनेश्वर सूरिने इस ग्रन्थके हार्दको विशेषरूपसे स्फुट करनेके लिये और इसमें प्रतिपादित मन्तव्योंका सप्रमाण प्रतिष्ठापन करनेके लिये, इस पर यह संस्कृत वृत्ति बनाई है । जिनेश्वर सूरिकी यह वृत्ति भी हरिभद्र सूरिकी मूल कृतिके अनुरूप ही प्रौढ, सप्रमाण और परिमार्जित शैलीमें लिखी गई है । इसका प्रत्येक वाक्य और विचार, सुसम्बद्ध और सुनिश्चित अर्थका प्रकाशक है । मूलके प्रत्येक मन्तव्यको . Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनेश्वरीय ग्रन्थोंका विशेष विवेचन । ४५ प्रमाणभूत बतलाने के लिये ग्रन्थान्तरों और शास्त्रान्तरोंसे तत्तविषयक प्रमाणों और अवतरणोंके उद्धरण दे दे कर जिनेश्वर सूरिने इसमें अपने विशाल अध्ययन और विशिष्ट पाण्डित्यका उत्तम परिचय प्रदर्शित किया है। ___ जैसा कि हमने ऊपर सूचित किया है, इस ग्रन्थमें हरिभद्रसूरिने ब्राह्मण, बौद्ध और आहेत अर्थात् जैन इन तीनों संप्रदायोंमें कतिपय विशेष विचारणीय तात्त्विक और आचार विषयक प्रश्नोंके विषयमें ऊहापोह किया है । इन सब प्रश्नोंकी विस्तृत चर्चाका,- यद्यपि वह बहुत मनोरञ्जक और मननीय है तथापि- यहां पर अवकाश न होनेसे, उसका दिग्दर्शन कराना शक्य नहीं है । इसके लिये तो जिज्ञासुओंको उस ग्रन्थका ही अवलोकन करना चाहिये । जिनेश्वर सूरिने इस ग्रन्थकी वृत्ति करनेका जो अपना उद्देश आदि बतलाया है वह निम्न प्रकार है गुणेषु रागाद् हरिभद्रसूरेस्तदुक्तमावर्तयितुं महार्थम् । विबुद्धिरप्यष्टकवृत्तिमुच्चैर्विधातुमिच्छामि गतत्रपोऽहम् ॥ सूर्यप्रकाश्यं क नु मण्डलं दिवः खद्योतकः कास्य विभासनोद्यमी। क धीशगम्यं हरिभद्रसद्वचः काधीरहं तस्य विभासनोद्यतः॥ तथापि यावद् गुरुपादभक्तर्विनिश्चितं तावदहं ब्रवीमि। यदस्ति मत्तोऽपि जनोऽतिमन्दो भवेदतस्तस्य महोपकारः॥ जिनेश्वर सूरि कहते हैं कि- मैं विबुद्धि अर्थात् अल्पबुद्धि हो कर भी हरिभद्र सूरिके महार्थवाले 'अष्टक प्रकरण' की जो वृत्ति करना चाहता हूं उसमें मुख्य कारण तो हरिभद्र सूरिके गुणोंमें जो मेरा अनुराग है, वही है। नहीं तो कहां महाबुद्धिवालोंको जानने लायक हरिभद्रके गभीर वचन और कहां मेरे जैसा अल्पबुद्धिवाला उनके अर्थोंका प्रकाश करनेमें उद्यत । यह तो ऐसा ही लगता है जैसे सूर्यके प्रकाशसे प्रकाशित होने लायक आकाशके विशाल खण्डको मानों खद्योत प्रकाशित करनेको उद्यत होता है । तब मी मैंने गुरुकी पादसेवा द्वारा जो अर्थ ज्ञात किया है उसको, लज्जा छोड कर, इस विचारसे प्रकट करना चाहता हूं कि जो मेरेसे भी मन्द बुद्धिवाले जन हैं उनका इससे कुछ उपकार हो । ___ इस वृत्तिकी रचना वि. सं. १०८० में, जाबालिपुर ( आधुनिक जालोर, मारवाड राज्य ) में समाप्त हुई थी। इसकी अन्तकी प्रशस्ति निम्न प्रकार है जिनेश्वरानुग्रहतोऽष्टकानां विविच्य गम्भीरमपीममर्थम् । अवाप्य सम्यक्त्वमपेतरेकं सदैव लोकाश्चरणे यतध्वम् ॥ १ सूरेः श्रीवर्धमानस्य निःसंबन्धविहारिणः । हारिचारित्रपात्रस्य श्रीचन्द्रकुलभूषिणः॥२ पादाम्भोजद्विरेफेण श्रीजिनेश्वरसूरिणा । अष्टकानां कृता वृत्तिः सरवानामनुग्रहहेतवे ॥३ समानामधिकेऽशीत्या सहस्त्रे विक्रमाद्गते । श्रीजाबालिपुरे रम्ये वृत्तिरेषा समापिता ॥४ नास्त्यस्माकं वचनरचना चातुरी नापि तादृग , बोधः शास्त्रे न च विवरणं वास्ति पौराणमस्य । किन्त्वभ्यासो भवतु भणितौ सूदितायाममुष्मात् संकल्पानो विवरणविधावत्र जाता प्रवृत्तिः॥५ इति श्रीजिनेश्वराचार्यकृता तच्छिष्यश्रीमदभयदेवरिप्रतिसंस्कृता अष्टकवृत्तिः समाप्ता ॥ इन श्लोकोंका सारांश यह है कि- जिनेश्वरके अनुग्रहसे अष्टकोंके गम्भीर ऐसे इस अर्थका जो विवेचन किया गया है उसको ज्ञात करके, सम्यक् तत्त्वकी प्राप्तिके साथ, लोकजन सदैव सच्चारित्रके लिये प्रयत्न करें। निःसङ्ग भावसे विचरण करनेवाले, उत्तम चारित्रके पात्र और चन्द्रकुलके भूषण समान, आचार्य वर्द्धमान सूरिके चरणकमलमें भ्रमरके समान वसने वाले, जिनेश्वर सूरिने प्राणियोंके हितके लिये अष्टकोंकी Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि । 1 यह वृत्ति बनाई है । विक्रम संवत्सर के १०८० के वर्ष में सुन्दर ऐसे जाबालिपुर स्थानमें रहते हुए इसे समाप्त की है । न तो हममें कोई ऐसी 'वचन - रचना' बतानेवाली चातुरी है, न वैसा कोई शास्त्रोंका बोध है और नाही मार्गदर्शन करानेवाला, इस ग्रन्थ पर कोई पुराना विवरण ही, हमें उपलब्ध है । तथापि अपना अभ्यास बढाने के संकल्पके वश हो कर हम इस विवरणकी रचनायें प्रवृत्त हुए हैं । जिनेश्वर सूरिके इस अन्तिम उद्गारमें, उनकी अपने पाण्डित्यविषयक निरभिमानिता और साथ-ही-में अपने अभ्यासकी उत्कंठाका भी अच्छा सूचन हमें मिल रहा । उनकी वचन - रचना कैसी परिमित, परिमार्जित और भावपूर्ण है और साथ ही में उनमें कैसा विशाल शास्त्रबोध है, यह तो जो विद्वान् स्वयं इस विवरणका मननपूर्वक अध्ययन कर सकता है उसे ही इसका ठीक आकलन हो सकता है । जिनेश्वर सूरिने इस विवरणकी रचनायें, मूलग्रन्थकार हरिभद्र सूरिके समान ही अपना निराग्रहभाव प्रदर्शित किया है । क्या तो अन्य दर्शनोंके मन्तव्योंकी आलोचना - प्रत्यालोचना करते हुए और क्या स्वयूथ्योंके विचारोंका खण्डन - मण्डन करते हुए - सर्वत्र इन्होंने अपनी निराग्रह बुद्धिका आदर्श उपस्थित किया है। जहां किसी विवादात्मक विचारके विषयमें, सर्वथा निःशंक विधान करना इन्हें समुचित नहीं मालूम दिया, वहां "तत्त्वं पुनरिह केवलिनो विदन्ति” अर्थात् - इसमें तत्त्व क्या है यह तो केवली ( केवलज्ञानधारक = सर्वज्ञ ) ही जानते हैं - ऐसा कह कर अपना निरपेक्ष भाव सूचित कर दिया है; और किसी स्थानपर, जहां इनको अपना अभिप्रेत अर्थ ही विशिष्ट रूपसे प्रतिपादन करना उचित जंचा, वहां भी, युक्ति-पूर्वक बडे चातुरीभरे शब्दोंमें उसका समर्थन किया । इसका उदाहरण हमें इसी ग्रन्थके प्रणेता हरिभद्र सूरिके एक जीवनविषयक उल्लेख से ज्ञात होगा । हरिभद्र सूरके विषय में, उस समय, बहुमान्य परंपराश्रुति यह थी कि वे स्वयं चैत्यवासी आचार्यके शिष्य थे और उनकी जीवनचर्या भी कुछ कुछ अंश में चैत्यवासियोंके जैसी ही थी । यद्यपि वे बहुत विरक्त, निःस्पृह, क्रियारुचि और संयमशील आचार्य थे; तथापि उनका बहुतसा आचार-व्यवहार तत्कालीन परिस्थितिके अनुरूप, चैत्यवासियोंके ढंगका था । जिनेश्वर सूरि तो चैत्यवासके बडे कडे विरोधी थे । उन्होंने तो उसका बहुत उग्रभावसे खण्डन किया और उसके पक्षके समर्थक आचार्योंको हीनाचारी कह कर उनके प्रति कठोर अनादर प्रकट किया । चैत्यवासी यतिजन अपने पक्ष के समर्थनमें हरिभद्र जैसे महान् समर्थ शास्त्रकारका उदाहरण दिया करते थे और उनको अपना श्रद्धेय पूर्वज बतलाते थे । हरिभद्र जैसे जैन शासन के एक महान् युगप्रवर्तक और समर्थ संरक्षक आचार्यका चैत्यवासीके रूपमें स्वीकार करना जिनेश्वर सूरिको सर्वथा अभिप्रेत नहीं था । यद्यपि हरिभद्र सूरिकी शास्त्रीय रचनाओंमें ऐसा कोई स्पष्ट विधान कहीं भी नहीं उपलब्ध होता है, जिससे उनके चैत्यवासी होने का समर्थन हो सके या चैत्यवासके पक्षको उत्तेजन मिल सके । बल्कि चैत्यवासके आनुषङ्गिक दोषोंकी और चैत्यवासियोंके प्रकट शिथिलाचार की उन्होंने अनेक रूपसे निन्दा की है; तथापि वे थे उसी परंपरा के अन्तर्गत । इसका ज्ञापक एक सांप्रदायिक मन्तव्य इसी 'अष्टक प्रकरण' में अन्तर्निहित है, जिसका तात्पर्य जिनेश्वर सूरिने अपने मन्तव्यानुरूप बतला कर हरिभद्रके विषय में भी यह बात बडे अच्छे ढंग से कह दी है कि हरिभद्र तो पूरे संविग्नपाक्षिक अर्थात् संयतमार्ग के पक्ष के थे । जो संविग्नपाक्षिक होगा वह कभी अनागमिक = आगमके विरुद्ध उपदेश नहीं कर सकता । Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७ जिनेश्वरीय ग्रन्थोंका विशेष विवेचन । प्रसङ्ग यह है- इस अष्टक-संग्रह ग्रन्थमें एक प्रकरण आया है जिसमें तीर्थकरद्वारा असंयत जनको दान देनेका वर्णन है । मालूम देता है प्राचीन कालसे इस विषयमें जैनाचार्योंका परस्पर कितनाक मतभेद चला आता रहा है । हरिभद्र सूरिने इस प्रकरणमें जिस ढंगसे अपना मन्तव्य प्रकट किया है वह कुछ आचार्योको सम्मत नहीं था और इस लिये वे कहते थे कि हरिभद्र सूरिने अपने आचारका समर्थन करने की दृष्टिसे इस प्रकरणकी रचना की है - इत्यादि । उन आचार्योंका कहना था कि हरिभद्र सूरिके कुछ आचार ऐसे थे जो जैनशास्त्र-सम्मत यतिजनोंके आचारसे विरुद्ध थे । हरिभद्र सूरि जब भोजन करने बैठते तो पहले शंख बजवा कर भोजनार्थी जनोंको आमंत्रित करवाते और उनको भोजन दिलवा कर फिर अपने आप भोजन करते । यह आचार जैन भिक्षुगणके आचारसे सर्वथा विरुद्ध अतएव दूषित था । जैन मुनि किसी भी असंयत (जैनेतर) भिक्षुकको, किसी भी प्रकारका दान, न करता है न करवाता है । वैसा करनेवाला जैन मुनि विरुद्धाचारी समझा जाता है। उक्त अष्टक प्रकरणमें हरिभद्र सूरिने जिस ढंगसे असंयतदानका कुछ समर्थन किया है वह, उन अन्य आचार्योंके विचारमें, हरिभद्र सूरिके अपने निजी आचारके समर्थनके रूपमें प्रथित किया मालूम देता है । इसके उत्तरमें जिनेश्वर सूरिने उक्त प्रकरणका अपने मन्तव्यानुसार विवरण कर, हरिभद्र सूरिका भी चैत्यवासी न होना बतला कर, संविग्नपाक्षिक होना स्थापित किया है । जिनेश्वर सूरिका यह उल्लेख निम्न प्रकार है स्वकीयासंयतदानसमर्थनार्थमिदं प्रकरणं सूरिणा कृतमिति केचित् कल्पयन्ति । हरिभद्राचार्यो हि स्वभोजनकाले शङ्खवादनपूर्वकमर्थिभ्यो भोजनं दापितवानिति श्रूयते । न चैतत् संभाव्यते । संविग्नपाक्षिको ह्यसौ । न च संविग्नस्य तत्पाक्षिकस्य वानागमिकार्थोपदेशः संभवति । तत्वहानिप्रसङ्गात् ।। इस अवतरणके पढनेसे पाठकोंको जिनेश्वर सूरिकी लेखन-शैलीका और प्रतिपादन-पद्धतिका भी कुछ परिचय हो सकेगा। (२) चैत्यवन्दनविवरण । जिनेश्वर सूरिकी व्याख्यारूप दूसरी कृति जो उपलब्ध होती है वह 'चैत्यवन्दन'वरूप प्राकृत सूत्रोंकी संस्कृत वृत्ति है । इस वृत्तिकी रचना भी उन्होंने उसी ( उक्त ) जाबालिपुरमें की थी जहां उपरि वर्णित 'अष्टकप्रकरण की व्याख्या-रचना की थी । इसका रचना संवत् १०९६ विक्रमीय है । अर्थात् 'अष्टकप्रकरण' वृत्तिके १६ वर्ष बाद, इसकी रचना की गई है । यह एक छोटीसी कृति है जिसका परिमाण कोई प्रायः १००० श्लोक जितना होगा। 'चैत्यवन्दन'सूत्रपाठ जैन श्वेताम्बर मूर्ति उपासक संप्रदायमें बहुत प्रसिद्ध है। चैत्य अर्थात् अर्हद्विम्ब= जिनमूर्ति । उसकी स्तुति-पूजा किस तरह करनी चाहिये इसके ज्ञापक कुछ सूत्र पूर्वाचार्योंके बनाये हुए बहुत प्राचीन कालसे प्रचलित हैं। इनमेंसे कुछ सूत्र तो-जैसे शक्रस्तवादि - 'आवश्यक सूत्र के अन्तर्गत पठित हैंकुछ उसके बहारके हैं । इन सूत्रों पर शायद सबसे पहले हरिभद्र सूरिने एक अच्छी विस्तृत संस्कृत व्याख्या लिखी जिसका नाम उन्होंने 'ल लि त वि स्त रा' ऐसा रक्खा । हरिभद्र सूरि रचित ग्रन्थोंमें यह भी एक विशिष्ट प्रकारकी प्रौढ रचना है । सिद्धर्षि जैसे महान् भावुक विद्वान्को इस रचनाके पढनेसे उनके मानसिक भ्रमका निवारण हुआ और वे अपने जीवनके आदर्शमें निश्चल हुए। इसके परिणाममें उन्होंने 'उपमितिभवप्रपञ्चा' कथा नामक ग्रंथकी रूपकात्मक शैलीमें अपनी आध्यात्मिक आत्मकथाकी अद्भुत और अनुपम रचना की । हरिभद्र सूरिकी यह 'चैत्यवन्दनसूत्र-वृत्ति' कुछ विशेष प्रौढ एवं दार्शनिक Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૮ कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि । सिद्धान्तोंकी मीमांसासे ओतप्रोत है; इस लिये इन सूत्रोंका सुगम और सरल रीतिसे अर्थबोध हो सके इस दृष्टिको लक्ष्य करके जिनेश्वर सूरिने अपनी यह नई वृत्ति बनानेका प्रयास किया था । इस चैत्यवन्दन सूत्रपाठके कुछ आलापकोंकी (प्रकरणोंकी) पाठ्य पद्धतिके विषयमें भी पूर्वाचार्योंका परस्पर सांप्रदायिक मतभेद रहा है । जिनेश्वर सूरि एवं उनके गुरुका, एक प्रकारसे नया ही संप्रदाय प्रस्थापित हुआ था इस लिये उनको यह भी प्रतीत हुआ होगा कि हमको अपने संप्रदायके लिये किस प्रकारकी पाठ्य पद्धतिका अवलम्बन करना उचित है । अतः इस व्याख्याकी रचना द्वारा उन्होंने उसका भी विधान कर देना समुचित समझा। इसके प्रारंभमें जिनेश्वर सूरिने इस प्रकार उपोद्घातात्मक पद्य लिखे हैं .... रागाद्यरातिविजयाप्तजिनाभिधानं देवाधिदेवमभिवन्ध निराकृताधः। तच्चैत्यवन्दननियुक्तमशेषसूत्रं शक्रस्तवादि विवृणोमि यथावबोधम् ॥ १ सत्यं सन्ति नयप्रमाणविषयक्षोदः क्षमाः पञ्जिकाः । सूत्रस्यास्य चिरन्तनैः कविवृषैर्टब्धाः परं भेदवान् । नानासूरिनिमित्तकोऽपि विविधो मे संप्रदायोऽस्ति यत्, प्रायस्तस्य निवेदनं परकृतौ कर्तुं नु नो शक्यते ॥२ तस्मादेष समारम्भस्तत्प्रकाशाय युक्तिमान् । पूर्वसूरिभिरप्येवं रचिता वृत्तयः पृथक् ॥ ३ नानन्तार्थमिदं सूत्रं व्याख्यातं पूर्वसूरिभिः। नियतार्थप्रकाशेऽतो नोपालम्भोऽस्ति कोऽपि नः ॥ ४ साधुश्रावकयोरत्र न विशेषोऽस्ति कश्चन । कचित् सूत्रे क्रियायां च विशेषः साधुगोचरः ॥५ इन पद्योंका भावार्थ यह है कि- रागादि शत्रुओंको जीतनेवाले जिनेश्वर देवको वन्दन करके, उन्हींके चैत्य अर्थात् प्रतिबिम्ब ( मूर्ति ) को वन्दन करनेके ज्ञापक जो 'शकस्तवादि' विशेष सूत्र हैं उनकी यथामति व्याख्या करनेका प्रयत्न किया जाता है । यों तो इन सूत्रों पर पूर्वकालीन कविश्रेष्ठ (हरिभद्र) ने पञ्जिका रूप, नय और प्रमाण विषयक तकॉसे परिपुष्ट, जो व्याख्या बनाई है वह विद्यमान है । परंतु इन सूत्रोंके विषयों में अनेक आचार्योंके, विविध प्रकारके, मतभेद दृष्टिगोचर हो रहे हैं और इस तरह हमारा भी कुछ थोडासा भिन्नखरूप ऐसा निजी संप्रदाय है । अतः उसका प्रकाशन करनेके लिये हम इस विवरणकी रचना करते हैं । क्यों कि दूसरोंकी कृतिके आधार पर अपना अभिमत विचार प्रतिपादित नहीं किया जाता । इस लिये हमारा यह प्रयास युक्तिपुरःसर ही समझना चाहिए । क्यों कि और और पूर्वाचार्योंने भी अपना अपना अभिमत प्रतिपादित करनेके लिये इसपर अलग अलग ऐसी वृत्तियां बनाई ही हैं । इस 'चैत्यवन्दन' सूत्रको पूर्वाचार्योंने अनन्तार्थगर्भित बतलाया है । इसलिये इसका कोई एक नियतार्थ प्रगट करनेमें हमको कोई उपालम्भ नहीं हो सकता । इस चैत्यवन्दनके विधानमें साधु और श्रावक दोनोंका कोई विशेष भेद नहीं है । लेकिन सूत्रोंकी पठनक्रियाकी पद्धतिमें साधुओंका कुछ थोडासा पारस्परिक संप्रदायभेद दृष्टिगोचर जरूर होता है । इत्यादि । इसके आगे फिर शकस्तवादिका पाठ किस ढंगसे, किस आसनसे, करना चाहिये इस विषयमें आचार्योंके जो कुछ विशेष मत हैं उनका संक्षेपमें सूचन कर, अपना अभिमत सूत्रविवरण आलेखित किया है । इस विवरणकी शैली सरल और स्फुटार्थक है । मूल सूत्रका ठीक स्पष्टीकरण हो सके उतना ही अर्थालेखन इसमें किया गया है । विशेष विस्तृत शास्त्रार्थका जहां कहीं प्रसङ्ग आया वहां उसके लिये यह कह दिया गया है कि यहाँ पर बहुत कुछ कहने लायक है; परंतु वह अन्य स्थानसे (ग्रन्थान्तरसे) जान लेना चाहिये । हमें तो यहां पर, दूसरे विवरणकारोंने या व्याख्याकारोंने जो बात नहीं Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनेश्वरीय ग्रन्थों का विशेष विवेचन | કર્ बतलाई है और जो हमें अपने गुरु-संप्रदायसे ज्ञात हुई है, उसीका निर्देश करना अभीष्ट है; और फिर जहां कहीं यत् किंचित् हमने कुछ अन्य आचार्योंके कथन का स्थान शून्य न रखनेकी दृष्टिसे ही किया है । अनुवर्तन किया है, तो वह मात्र जहां कहीं अन्य आचार्योंके संप्रदाय से इनका मतभेद रहा वहां कह दिया है कि इस विषय में हमारे गुरुओंका कोई व्यवहार नहीं है इसलिये हम इसके विधानमें कोई निर्णय नहीं देना चाहते' इत्यादि । इस विवरण में उपलब्ध एक उल्लेखसे हमें यह एक ऐतिहासिक प्रमाण मिलता है कि इनके समय में पादलिप्त सूरिकी प्रसिद्ध ' तरङ्गवती' कथा मूलरूपमें विद्यमान थी । अपने एक मन्तव्य के विधानके समर्थन में इन्होंने लिखा है कि- "अत एव प्रदीप्तकाचार्येण तरङ्गवत्यां दर्शितमिति ।" इस टीकाके उपसंहार में निम्न लिखित पद्य लिखे हैं जिससे इनके मनोभावका अच्छा आभास मिलता है - नो विद्यामदविलेन मनसा नान्येषु चेयवशात् • टीकेयं रचिता न जातु विपुलां पूजां जनाद् वाञ्छता । नो मौढ्यान्न च चापलाइ यदि परं प्राप्तं प्रसादाद् गुरोः सुरेजैन मतानुरक्तमनसः श्रीवर्द्धमानस्य यः ॥ १ ॥ सत्संप्रदायोऽयमशेषभव्यलोकोपकाराय भवत्वविघ्नः । बुद्ध्येति टीकां विरहय्य नायं ( ? ) भव्यानशेषानुपकर्तुमीशः ॥ २ ॥ श्रीमजिनेश्वराचायैः श्रीजाबालिपुरे स्थितैः । पाणवते कृता टीका वैशाखे कृष्णभौतिके ॥ ३ ॥ भावार्थ - इस टीकाके बनानेमें न मेरा विद्यामदविह्वल मन ही निमित्त है, न किसीकी कृतिकी ईर्ष्या ही उत्तेजक है अथवा न लोकोंसे पूजा प्राप्त करनेकी लालसा ही कोई कारण है । इसी तरह न मूढता एवं चपलता ही इसमें प्रेरक है । केवल जैन मतमें अनुरक्त ऐसे मेरे गुरु श्री वर्द्धमान सूरिके प्रसादसे जो सत्संप्रदाय मैंने प्राप्त किया है, वह भव्य जनोंके उपकारके लिये निमित्त हो इस बुद्धिसे मैंने यह टीका बनाई है । संवत् ९६ ( विक्रमाब्द १०९६ ) के वैशाखमासमें, जाबालिपुरमें रहते हुए इस टीकाको समाप्त की । ( ३ ) षट्स्थानक प्रकरण । जिनेश्वर सूरिने जैन मतानुयायी गृहस्थ उपासकोंके कैसे आचार और विचार होने चाहिये इसको लक्ष्य करके एक छोटासा प्रकरण प्राकृत गाथाओंमें बनाया जो 'षट्स्थानक प्रकरण' के नामसे प्रसिद्ध है । इसमें श्रावक (उपासक) जीवनके उत्कर्षक ऐसे ६ स्थानोंका अर्थात् गुणों का स्वरूप वर्णन किया गया है इससे इसका नाम 'षट्स्थानक प्रकरण' ऐसा प्रसिद्धि में आगया है । इसका दूसरा नाम 'श्रावकवक्तव्यता प्रकरण' ऐसा भी है । १ 'अत्र च बहु वक्तव्यं तच स्थानान्तरादवसेयम् । इह तु वृत्त्यन्तरानुपात्तस्य स्वगुरुप्रसादावाप्तसंप्रदायस्यैवाभिधातुमिष्टत्वात् । यत्तु परैरेवोक्तं तत्र स्थानाशून्यार्थं यदि परं क्वचिदिति । ' २ ' तत्र प्रवृत्तिनिमित्तसंप्रदायो नास्माकमतो न तदर्थमायास इति ।' 'तत्रापि न प्रवृत्ती संप्रदायोऽस्माकं किञ्चित् ।' ३ पादलिप्तसूरिका नाम प्रदीप्ताचार्य के रूपमें यहां उल्लिखित किया है जो प्राकृत पलित्त का सीधा संस्कृत भाषन्तर रूप है । एक और जगह भी इन्होंने इसी नामसे इनका उल्लेख किया है । क० प्र० ७ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि । : इस प्रकरणकी मूलसूत्र भूत मात्र दो प्राकृत गाथाएं हैं जो किन्हीं पूर्वाचार्यकी बनाई हुई हैं। उन्हीं दो गाथाओंमें वर्णित पदोंके विवरण रूपमें इस प्रकरणकी रचना की गई है । इसकी मूल गाथाओंके साथ, कुल मिलाकर १०३ गाथाएं हैं । इन गाथाओंके विशेष-विवरण रूपमें इनके शिष्य नवाङ्गवृत्तिकार अभयदेव सूरिने, प्राकृत गाथाबद्ध एक भाष्यकी रचना की है । बादमें इन्हीं की शिष्य परंपरामें होने वाले, वि० सं० १२९२ में, जिनपति सूरिके शिष्य जिनपाल उपाध्यायने इस पर विस्तृत संस्कृत टीका बनाई। ____ श्रावक अर्थात् उपासक वर्गके गुणोंको लक्ष्य करके जैनाचार्योंने अनेक ग्रन्थोंकी रचनाएं की हैं और उनमें अनेक प्रकारके गुणोंका अनेक रूपसे वर्णन किया गया है । इनमें हरिभद्र सूरिका प्रसिद्ध 'धर्म बिन्दुनामक' ग्रन्थ, शान्ति सूरिका 'धर्मरत्नप्रकरण', प्रद्युम्न सूरिका 'मूलशुद्धि' अपरनामक 'सप्तस्थानक प्रकरण' आदि ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं । इन ग्रन्थोंमें श्रावकोंके व्यावहारिक और धार्मिक जीवनकी विशुद्धि और प्रगतिके लिये कैसे कैसे गुणोंकी आवश्यकता है, इसको उद्दिष्ट करके भिन्न-भिन्न प्रकारके उपदेशात्मक विचार प्रदर्शित किये गये हैं । जिनेश्वर सूरिने भी इस ग्रन्थमें अपने ढंगसे पूर्वाचार्य प्रथित २ गाथाओंके विवरणरूपमें ऐसे ही ६ गुणोंका वर्णन किया है। ये २ गाथाएं इस प्रकार हैं कयवयकम्मयभावो' सीलत्तं चेव तह य गुणवत्तं । रिउमइववहरणं चिय गुरुसुस्सूसाय बोद्धवा ॥१॥ पवयणकोसलं पुण छटुं तु होइ नायई। छट्ठाणगुणेहिं जुओ उक्कोसो सावओ होइ॥२॥ इन गाथाओंमें यह सूचित किया गया है कि - जो गृहस्थ, उत्कृष्ट अर्थात् आदर्शभूत श्रावक होना चाहे उसे इन छः स्थानोंका (गुणोंका) अपने जीवन में विकास करना चाहिये । ये छः स्थान इस प्रकार है-(१) गृहस्थ धर्मके व्रतोंका परिशीलन करना; (२) शील अर्थात् सदाचारका सेवन करना; (३) गुणवत्ताको बढाना; ( ४ ) व्यवहार सरल रखना; (५) गुरुजनों की सेवा शुश्रूषा करना; और (६) प्रवचन अर्थात् जैन मतमें कौशल्य प्राप्त करना । इन छः गुणोंका नाना प्रकारके भेदों द्वारा स्पष्टीकरण करके आचार्यने इनका खरूप इस ग्रन्थमें समझाया है । उदाहरणके लिये - दूसरे शीलस्थानके विवरणमें गृहस्थको किन किन स्थानों में जाना-या न जाना चाहिये इसका विवेचन करते हुए यह कहा है कि-वैसे धर्मस्थानोंमें कभी न जाना चाहिये जहां पाखण्डियोंका निवास हो, इतना ही नहीं, परंतु जहां आचारहीन यतिलोक रहते हैं ऐसे जैन मन्दिरोंमें भी न जाना चाहिये - इत्यादि । यह उनके समयकी चैत्यवास स्थिति और उसका जो उन्होंने विरोध किया उसका सूचक है । इसके साथ यह भी कहा है कि गृहस्थको, किसी अन्य गृहस्थके, ऐसे घर पर भी नहीं जाना चाहिये जहां घरका मालिक उपस्थित न हो; और उस घरमें तो किसी तरह न जाना चाहिये जहां अकेली स्त्री रहती हो । श्रावकको ऐसा वचन-व्यवहार भी कभी न करना चाहिये जिससे किसी दूसरेके मनमें द्वेषभाव पैदा हो और जो लोकोंमें या राजवर्गमें अप्रीति पैदा करनेवाला हो । श्रावकको अपनी वेष-भूषादि भी, अपनी जन्म भूमि, जाति और परिस्थितिके अनुरूप ही रखनी चाहिये । कभी भी नट विटादिकोंके जैसा उद्भट वेष नहीं पहनना चाहिये । कुल और देशके विरुद्धका वेष, राजाको भी शोभा नहीं देता तो फिर श्रावकजन जो नायः जातिसे वणिक होते हैं, उनको तो ऐसा वेष कभी शोभा दायक नहीं हो Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनेश्वरीय ग्रन्थोंका विशेष विवेचन । सकता । इसमें भी विशेष करके उनकी स्त्रियोंका वेष तो बहुत ही सादा और शिष्टताका सूचक होना चाहिये। __इस प्रकार वेषकी शिष्टताका कथन करते हुए जिनेश्वर सूरिने संक्षेपमें श्रावकको कैसे वस्त्र शोभा दे सकते हैं इसका भी थोडासा विधान कर दिया है । यह वस्त्र-विधान उस समयकी सादगीका सूचक है । इसमें तीन वस्त्र विशेषका सूचन किया गया है जिसमें एक तो धोती है दूसरी अंगिया है और तीसरा दुप्पट्टा अर्थात् उत्तरीय वस्त्र है । धोती कैसे पहननी चाहिये, अंगिया कैसी होनी चाहिये और उत्तरीयको कैसे डालना चाहिये इसका भी निर्देश किया गया है।' ___ इसी तरह श्राविकाओंका वस्त्र-परिधान कैसा होना चाहिये इसका भी थोडासा निर्देश कर दिया है। इसके विपरीत, नट विटादि अशिष्ट जनोंका वेष कैसा होता है उसका स्वरूप बतानेके लिये थोडासा उल्लेख करके, वैसे ही अशिष्ट समाजकी वेश्यादि स्त्रियोंका वस्त्रालंकार किस प्रकारका होता है उसका भी वर्णन किया है। ___ व्यवहार सरल रखना' ऐसा जो चतुर्थ स्थानक कहा है उसमें भी धार्मिक और व्यावहारिक दोनों दृष्टिसे श्रावकको अपना व्यवहार कैसा सीधा-सादा और प्रामाणिक रखना चाहिये, इस विषयमें कुछ लौकिक उपदेश भी कहा है। जैसा कि - अर्थोपाय अर्थात् अर्थोपार्जन निमित्त जो व्यवसाय किया जाय उसमें श्रावकको सदैव सच्चाईका व्यवहार रखना चाहिये । तोल नापमें न्यूनाधिकता न करनी चाहिये। जो वस्तु जैसी देनी-दिलानी बतलाई गई हो उसमें फेर-फार न करना चाहिये । अतिलोभके वश हो कर किसीको ऊधार आदि न देना चाहिये । जिस वस्तुका व्यापारनिमित्त संग्रह किया जाय वह प्रचलित मूल्यसे अधिक मूल्यकी न होनी चाहिये । व्यवसाय निमित्त हाथी, घोडा, बैल आदिकोंका विशेष संग्रह न करना चाहिये। क्यों कि अधिक संग्रह करनेसे उनको दाना चारादिके खिलानेमें अधिक व्यय होगा और मरजाने आदिके कारणसे हानि होगी। इसी तरहसे धान्य अर्थात् अनाजका भी विशेष संग्रह नहीं करना चाहिये । क्यों कि ज्यादह समय तक पडे रहनेसे उसमें कीडे आदिके पडनेसे सड जानेका और उससे हानि होनेका संभव रहता है । श्रावकको खास करके कपास, रूई, सूत, वस्त्र, प्रवालं, मोती, मंजिष्ठा, सुपारी इत्यादि चीजोंका व्यवसायनिमित्त संग्रह करना अच्छा है । क्यों कि ऐसी वस्तुओंके, अधिक समय तक भांडशालाओं (गोदामों) में पड़े रहने पर भी किसी विशेष प्रकारकी अर्थहानिकी संभावना नहीं रहती । बहुत लाभ होनेकी संभावनाके होने पर भी किसी ग्राहकको अंग ऊपर १ इस वन-विधानमें उस समय प्रचलित देश्य शब्दों का प्रयोग किया गया है जो विशेषज्ञोंके लिये अध्ययनीय है । यथा संतलयं परिहाणं झलंब चोडाइयं च मज्झिमयं । सुसिलिटुमुत्तरीयं धम्म लच्छि जसं कुणइ ॥ २,१६ २ नट विटोंका वेष कैसा होता है उसका उल्लेख इस प्रकार है - लंखस्स व परिहाणं गसह व देहं तहंगिया गाढा । सिरवेढो टमरेणं वेसो एसो सिडिंगाणं ॥ २,१९ ३ वेश्यादिका वस्त्र-परिधान कैसा होता है उसका वर्णन इस तरह है - असिलिट्ठ नीविबंधो चूडा संफुसइ पायनहरेहं । जंघद्धं उग्घाडं परिहाणं हवइ वेसाणं ॥ २,२० सिंहिणाण मग्गदेसो उग्घाडो नाहिमंडलं तह य । पासा य अद्धपिहिया कंचुओ सहइ वेसाणं ॥ २,२१ ४ ववहारे पुण अणं न देइ पडिरूवगं नवा कुणइ । ४,६ ५ अस्थोवाओ पुन्नं तं पुण सञ्चण ववहरंतस्स । अहवा अइलोभेणं उद्धरर्गमाइ मो दइ ॥ ४,१२ . भंड पि अइमहग्धं न संगहे कुणइ निययमुल्लाओ । आस-करि-गोणमाई न नियट्टा धारए मइमं ॥ ४,१३, Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि । ऊधार द्रव्य नहीं देना चाहिये । चाहे थोडा लाभ हो परंतु सोना चांदी आदि वस्तुओंको बन्धकमें रख कर ही किसीको रुपये आदि देना चाहिये । इस प्रकार संक्षेपमें श्रावकको द्रव्योपार्जनके निमित्त किन चीजोंका और कैसे, व्यापार व्यवसाय करना चाहिये इसका उपदेश किया गया है । ___ श्रावकको सदैव अपने पिता, माता, भ्राता, भगिनी आदि खजनोंके मनोभावके अनुकूल वर्तन रखना चाहिये और उनको कौन व्यवहार प्रिय है तथा कौन अप्रिय है इसका खयाल रखकर उनके मनको सन्तुष्ट रखना चाहिये । साथ ही में उनको सत्य वस्तुका उपदेश दे कर उनके मनोभावको सत्यनिष्ठ बनाते रहना चाहिये । इसी तरह जो अपने अभिनव सहधर्मी भाई हैं उनके भी मनके प्रिय-अप्रियादि भावोंका लक्ष्य रखना चाहिये और जिस तरह उनका मन धर्ममें अनुरक्त और स्थिर रहे वैसा व्यवहार करना चाहिये । उनसे किसी प्रकारका लडाई-झगडा अथवा असभ्य भाषण आदि न करना चाहिये । चैत्यवन्दन, पूजा, प्रतिक्रमणादि धर्मक्रियाओंके करनेमें उनके मनमें विसंवादी भाव उत्पन्न हो वैसी कोई प्रवृत्ति नहीं करनी चाहिये - बल्कि इन क्रियाओंके करनेमें उनका उत्साह बढता रहे वैसी ही प्रवृत्ति करनी चाहिये । __ छट्ठा प्रकरण 'प्रवचन कौशल' विषयक है जिसमें श्रावकको व्यवहार-कुशल होनेके बारेमें भी कुछ बातें कही हैं । इस व्यवहार-कुशलताके धर्म, अर्थ, काम और लोक ऐसे उपविभाग किये हैं। धर्मकौशल्यके विषयमें कहा है कि श्रावकको शाक्य, भौत, दिगम्बर, विप्रादि पाखंडियोंका संसर्ग नहीं रखना चाहिये; वैसे ही उन-उन मतवालोंके उपास्य देवताओंकी मूर्तियोंका क्रय-विक्रयादि भी नहीं करना चाहिये । चैत्यालय संबंधी जो द्रव्य हो उसको तथा साधारण द्रव्यको भी अपने लिये अंगऊधार नहीं लेना चाहिये, और इतना ही नहीं, परंतु जिन लोगोंने ऐसा द्रव्य ऋणके रूपमें लिया हो उनके गाडी, बैल आदिका मी, अपने कामके लिये, किसी प्रकारका भाडा आदि दिये विना, उपयोग नहीं करना चाहिये। यहां पर एक यह भी बात कही गई है कि कुछ लोग चैत्यके द्रव्यको अर्थात् मन्दिरोंमें जमा होनेवाले रूपयों वगैरह शिक्कोंको लेकर उनमेंसे अच्छे अच्छे शिक्कों को अपने पास रख लेते हैं और अपने पासवाले शिक्कोंमें जो घिसे हुए अथवा कुछ नुकसानीवाले शिके होते हैं उनको बदल कर सूत्रधार (सलावट ) आदि कर्मकर लोगोंको, वैसे शिके उनकी मजदूरीके वेतनके रूपमें दे देते हैं । सो ऐसा करना भी चैत्यद्रव्यके उपभोगके पापका भागी होने जैसा है। ये सब बातें श्रावकको धर्मकुशल बननेकी दृष्टिसे कही गई हैं। • अर्थकुशलकी दृष्टिसे कहा है कि-श्रावकको सदैव ऐसा ही भाण्ड अर्थात् माल लेना-वेचना चाहिये जिसमें किसी प्रकारका नुकसान न पहुंचे । ___ कामकुशल होनेके संबंधमें कहा है कि-श्रावक अपनी पत्नीको सदैव प्रसन्न रखनेका प्रयत्न करे । संभोगादिमें भी सावधानतापूर्वक प्रवृत्त हों। संभोग करनेके पूर्व स्त्रीसे स्नान और मुख शुद्धि आदि क्रियाएं करवानी चाहिये । उसको किसी प्रकारकी रहस्यमय बात न बतलानी चाहिये । ऐसा ही व्यवहार वेश्या स्त्रीके साथ भी रखना चाहिये । पाठकोंको यह बात पढ कर कुछ विलक्षणसा लगेगा कि श्रावकका वेश्यासे क्या संबंध । परंतु यह उस समयकी समाजमें प्रचलित सर्वसामान्य रूढिका सूचक विधान है। वेश्या जातिका उस समय समाजमें एक प्रकारका विशिष्ट स्थान था । वेश्याओंके साथ संपर्क रखना और उनके स्थानमें आना-जाना तथा उनसे सहवास करना कोई खास निंद्य व्यवहार नहीं समझा जाता था Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनेश्वरीय ग्रन्थोंका विशेष विवेचन । बल्कि एक प्रकारका श्रीमंताईका औदार्य सूचक शिष्ट आचार माना जाता था । इसलिये उस समय धनवान् और सत्तावान् जनोंका वेश्या-संसर्ग बहुत सामान्य व्यवहार था । धनिक श्रावक लोग भी जो परस्त्रीगमनका व्रत लेते थे उसमें वेश्यागमनका निषेध नहीं माना जाता था । इस दृष्टिसे वेश्या स्त्रीके साथ संभोग व्यवहार में श्रावकको कैसे कुशल रहना चाहिये इसका सूचन जिनेश्वर सूरिने यहां पर किया है । ___ इस प्रकारके सूचन पर, शायद कुछ अतिचार्चिक एवं संकीर्ण मनोवृत्तिवाले उपदेशकोंने ऐमा प्रश्न भी उठाया होगा कि जिनेश्वर सूरि जैसे परमविरागी जैनाचार्यका यह कामकुशल विषयक उपदेश देना जैन सिद्धान्तानुसार कैसे संगत हो सकता है । इसका उत्तर इस ग्रन्थके टीकाकारने स्वयं दिया है जो मनन करने लायक है । टीकाकार कहते हैं कि- 'जिनेश्वर सूरिका यह स्त्रीको प्रसन्न रखने आदिका उपदेश, विषयभावका पोषक होनेसे, जैन प्रणालिसे असंगत है' -ऐसा नहीं समझना चाहिये। क्यों कि शरीरकी रक्षाकी दृष्टिसे यह उपदेश दिया गया है और शरीर-रक्षाका उपदेश, धर्म-रक्षाका निमित्त होनेसे उसका विचार कर्तव्यसंगत है। इस प्रकार धर्म, अर्थ और काम विषयक कुशलताके उपदेशके बाद लोक-कुशलताकी दृष्टिसे भी कुछ व्यावहारिक बातें कही गई हैं; जो इस प्रकार हैं - श्रावकको अपने समाज या राष्ट्रमें जो लोक प्रधान (अग्रणी) समझे जाते हों उनसे मैत्री रखनी चाहिये । राजाके पास जाते-आते रहना चाहिये और सदैव सद्भाव पूर्वक उसकी उपचर्या करते रहना चाहिये । कभी भी राजाका अवर्णवाद नहीं करना चाहिये, उसके विपक्षियोंका संसर्ग न रखना चाहिये, और जो जो गुण उसमें विद्यमान हों उनका उच्चारण करते रहना चाहिये । इसी तरह ज्ञानसे, जन्मसे और जाति आदिसे जो जन अधिक प्रसिद्ध हैं उनके भी गुणोंकी सदा प्रशंसा करते रहना चाहिये और किसी प्रकारका कोई अपराधजनक भी उनका व्यवहार हो तो उसको यत्नपूर्वक सुधार लेना चाहिये - इत्यादि बातें लोक-कौशलकी दृष्टिसे श्रावकको ध्यानमें रखनी चाहिये। ___ऊपर जो धर्म, अर्थ, काम और लोक-कौशलके विषयकी बातें कही गई हैं. उन बातोंके करनेमें, श्रावकको न केवल ऊपरी बातोंका ही ज्ञान रखना चाहिये, अपि तु उन उन बातोंके करनेमें आवश्यक ऐसे अन्दरके भावोंकी जानकारी भी रखनी चाहिये । जैसे कि धर्म-कौशलकी दृष्टिसे श्रावकको अपने नवीन जो साधर्मी भाई आदि हों उनकी बाह्य चेष्टाओंसे- शारीरिक और वाचिक आदि प्रवृत्तियोंसे- उनके मनोगत भावोंके जाननेका प्रयत्न करना चाहिये और तदनुसार उनके धर्ममें स्थिरमनस्क होनेके उपायोंकी योजना करनी चाहिये । वैसे ही काम-कौशलकी दृष्टिसे स्त्री और वेश्याके इंगितभाव जानते रहना चाहिये और तदनुकूल अपने शरीरकी रक्षाके संबंधमें सावधान रहना चाहिये । अर्थ-कौशलकी अपेक्षासे ऋणिक (कर्जदार) आदिकी चेष्टाओंको समझ कर तदनुसार उसके साथ व्यवहार रखना चाहिये । क्यों कि कभी कभी कर्जदार दुष्टवृत्तिवाला बन कर लेनदारका घात करने-करानेमें उद्यत हो सकता है । इसलिये उसके मनोभाव जान कर तदनुसार उसके साथ व्यवहार करना चाहिये । यदि ऐसा मालूम हो जाय कि देनदारको अधिक तंग करनेसे वह किसी प्रकारका अनर्थ करनेपर उतारु हो जायगा तो उसके साथ कठोर व्यवहार न कर उसको अनुकूल बनाना चाहिये और समझना चाहिये कि वह पैसा था ही नहीं । इसी तरह लोक-कौशलकी न चायं स्त्रीप्रसादनाथुपदेशोऽसङ्गतः सावद्यत्वात् इति वाच्यम् । शरीररक्षाधारणे धर्मरक्षानिदानत्वात् ।' मुद्रित प्रति, पृ. ४७. Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि । दृष्टिसे राजाके मनोभावोंको जान कर उसके साथ अपने प्रयोजनका तदनुकूल व्यवहार करना-कराना चाहिये । राजा जब किसी पर कुपित हो तब, उससे किसी प्रकारके कार्यके लिये विज्ञप्ति नहीं करनी चाहिये । वह जब सन्तुष्ट और सुप्रसन्न हो तब ही किसी प्रयोजनके निमित्त उसे कहना-कहलाना आदि चाहिये । इत्यादि । __ इस प्रकार, इस प्रकरण ग्रन्थमें संक्षेपमें श्रावकके जीवनोत्कर्षके सूचक ६ स्थानोंका प्रकीर्णात्मक उपदेश किया गया है । ग्रन्थके अन्तमें कोई उपसंहारात्मक कथन नहीं मिलता इससे मालूम देता है कि इसकी संकलना कोई विशिष्ट प्रकारका संदर्भ ग्रन्थ रचनेकी दृष्टिसे नहीं हुई है, परंतु प्रसंगानुसार जैसे जैसे विचार स्फुरित होते गये वैसे वैसे, सूत्रात्मक रूपमें, इसकी गाथाओंकी फुटकर रचना हुई प्रतीत होती है। (४) पंचलिंगी प्रकरण । षट्स्थानक प्रकरणका अनुसन्धानरूप दूसरा ग्रंथ 'पंचलिंगी प्रकरण' है जिसकी १०१ प्राकृत गाथाएं हैं । इसमें सम्यक्त्वके ५ लिंग अर्थात् चिन्ह (लक्षण ) का स्वरूप वर्णन किया गया है । जिस मनुष्यको सम्यग् दर्शनकी प्राप्ति हुई हो उसके जीवन में उपशम, संवेग, निर्वेद, अनुकंपा और आस्तिक्य इस प्रकारके ५ आन्तरिक भावोंका विकास होता है । इस लिये जैन शास्त्रोंमें सम्यक्त्वके ये ५ चिन्ह बतलाये गये हैं । इन्हीं पांच लिंगों अर्थात् चिन्होंका खरूपवर्णन इस पंचलिंगी प्रकरण में किया गया है । यों तो यह वर्णन, प्रायः जिस तरह अन्यान्य प्राचीन शास्त्रोंमें ग्रथित किया हुआ मिलता है वैसा ही है; तथापि ग्रन्थकारके समयके तथा सांप्रदायिक पक्षके सूचक एवं पोषक ऐसे कुछ विचार भी, इसमें यत्र सत्र प्रथित हुए, दृष्टिगोचर होते हैं । जैसा कि उपशमलिंगके वर्णनमें, असदाग्रहके परित्यागका वर्णन करते हुए, उस समयमें चैत्यवासी आदि कुछ संप्रदायके यतिजनोंमें, कोई कोई क्रिया-विधान ऐसा. प्रचलित होगा जो जिनेश्वर सूरिको शास्त्रसम्मत नहीं प्रतीत होता होगा, तो उसके लिये इन्होंने वैसे क्रियाविधानका करना-कराना असद्-आग्रह बतलाया है । उदाहरणके तौर पर, जब कोई स्त्री पुरुष यतिव्रतकी दीक्षा धारण करता है तब उसको ऐसा दिग्बन्ध कराया जाता है, कि 'तुम आजसे अमुक गच्छके, अमुक आचार्यके, अमुक गुरुके, शिष्य या शिष्यिणी बने हो और इसलिये तुमको सदैव इन्हींकी आज्ञानुसार अपना जीवनव्यवहार व्यतीत करना चाहिये' इत्यादि । साधु-साध्वीके लिये इस प्रकारका दिग्बन्धका विधान तो सब आचार्योको सम्मत है, लेकिन कुछ आचार्य ऐसा ही दिग्बन्ध अपने गृहस्थ धर्मानुयायी श्रावक-श्राविकाओंको भी, श्रावकव्रतका नियम देते समय, कराते थे जो जिनेश्वर सूरिको संम्मत नहीं था। इसलिये इस विधिको उन्होंने असदाग्रहमें उल्लिखित करके, इसको मिथ्यात्व रूपसे प्रकट किया है । इसी प्रकारकी कुछ और भी क्रियाप्रवृत्तियां, जो उस समयके कुछ यतिजनोंमें प्रचलित थीं परंतु जिनको जिनेश्वर सूरि अपने सिद्धान्तसे सम्मत नहीं मानते थे, उनकी गणना उन्होंने असदाग्रहके खरूपमें ग्रथित की हैं। ___ मालूम देता है जिनेश्वर रिने अपने संप्रदायकी पुष्टि और वृदिके लिये नये नये जैन मन्दिरोका निर्माण करवाना और नये-पुराने शास्त्रोंकी प्रतिलिपियां करवा कर जैन ज्ञानभंडारोंका स्थापन करवाना विशेष महत्त्वका समझा था । इसलिये उन्होंने इस ग्रन्थमें, अनुकंपा नामक सम्यक्त्यके तृतीय लिंग प्रकरणमें, किसी तरह इस विषयका संबंध लगाकर, मन्दिर निर्माण और पुस्तकालेखनका विषय भी इसमें राम्मी१ गिहिदिसिबन्धो तह णाहवंत अवहरणमच्छरो गुणिसु । अववायपयालंबण पयारणं मुद्धधम्माणं ॥ ११ सढयाए समाइझं एवं अन्नं च गीयपडिसिद्धं । तव्वंसजाण तब्बहुमाणाउ असरगहो होइ ॥ १२ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनेश्वरीय ग्रन्थोंका विशेष विवेचन । ५५ 1 लित कर दिया है । जिनमन्दिर बनवानेका उपदेश उन्होंने किस ढंगसे किया है इसका वर्णन पढने लायक है । लिखा है कि - जिस आत्माको सम्यक्त्वकी प्राप्ति हो जाती है उसके मनमें, संसारके जीवों के कष्टों को देख कर, अनुकंपा होती रहती है; और वह सोचता रहता है कि किस तरह किसीका दुःख दूर करनेमें वह यथाशक्ति प्रयत्न करें । वह सोचता है कि संसारके दुःखोंसे मुक्त करनेवाला एक मात्र जैन धर्म है । जैन धर्मके पालन के सिवा और कोई सच्चा उपाय नहीं है । इसलिये जो जीव मिध्यात्वमं लिपटे हुए हैं उनको, जैन धर्मके प्रति अनुराग कैसे उत्पन्न हो इसका वह विचार करता है। और सोचता है, कि मैं अपने नीतिपूर्वक उपार्जित किये हुए धनसे ऐसा सुन्दर जिन मन्दिर बनवाऊं, जिसको देख कर गुणानुरागी जनों को धर्मके बीजकी प्राप्ति हो । इसी तरह वैसा ही सुन्दर जिनबिंब ( जैनमूर्ति) बनवाऊं जिसके दर्शनसे तथा पूजा - महोत्सव आदिके प्रभावसे गुणरागी मनुष्यको बोधी अर्थात् सम्यग् दर्शनका लाभ हो । इसी तरह पुस्तकालेखनका उपदेश भी जिस ढंगसे किया है वह मनन करने लायक है । कहा है कि - जिनमन्दिरादिके निर्माणका जो उपदेश ऊपर दिया गया है वह सब विधिपूर्वक अर्थात् शास्त्रोक्त रीति से किया जाना चाहिये । शास्त्रका ज्ञान पुस्तकोंके पढनेसे होता है, अतः सम्यक्त्वधारक जीव दूसरोंकी अनुकंपा के निमित्त, पुस्तकालेखनमें प्रवृत्त होता है । वह सोचता है, जैन प्रवचनरूप अमृतश्रुति के प्रभावसे मनुष्यको वस्तुके सत्यखरूपका ज्ञान होकर कुश्रुति ( मिथ्याज्ञान ) का नाश होता है । इसलिये जैनशास्त्रोंको पुस्तकके रूपमें लिखवा लिखना कर, उनका उपदेश करनेवाले साधुजनों को समर्पित करना कल्याणकर है । यहीं पर जिनेश्वर सूरिने यह भी उपदेश किया है, कि इस प्रकार श्रावक न केवल जैन मतके शास्त्रोंका ही लेखन करावे किंतु व्याकरण, छंद, नाटक, काव्य अलंकारादि ग्रन्थोंका, तथा छहों दर्शनोंके तर्क ग्रन्थोंका, एवं ब्राह्मणोंके श्रुति, स्मृति, पुराणादि ग्रन्थोंका भी, लेखन कराकर जैन साधुओंको समर्पित करें। क्यों कि विना इन शास्त्रों और ग्रन्थोंके सम्यग् ज्ञानके, उपदेशक साधुजन, अन्य मतावलंबी विद्वानोंके विचारोंका सारासार भाव नहीं जान सकते और विना वैसे जाने, अपने सिद्धान्तों का समर्थन और दूसरोंके सिद्धान्तोंका खण्डन आदि भी नहीं कर सकते । इसलिये श्रावकको ये सब शास्त्र-ग्रंथ आदि अवश्य लिखवाने चाहिये । उसको ऐसा विचारना चाहिये कि - प्रतिभा आदि गुणयुक्त जो साधुजन हैं उनको वसति, सयनाशन, आहार, ओषधि, भैषज्य, वस्त्र आदि वस्तुओं की सदैव सहायता पंहुचा कर और पुस्तकोंका समर्पण कर, जैन शासनको अन्य दार्शनिकों के आक्षेपोंसे सुरक्षित करूं और वैसा करके अन्य भव्यजनोंको जैन धर्ममें अनुरक्त करूं - इत्यादि । 1 १ सम्मद्दिट्ठी जीवो अणुकंपा परो सयावि जीवाणं । भाविदुहविप्पओगं ताण गणंतो विचितेइ ॥ ५३ नियय सहावेण हया तावदभव्वा ण मोइउं सक्का । भवदुक्खाओ इमे पुण भव्वा परिमोयणीया उ ॥ ५४ संसारदुक्खमोक्खणहेउं जिणधम्ममन्तरा नन्नो । मिच्छत्तदयसंगयजणाणं स य परिणमिजइ कहं नु ॥ ५५ नायज्जियवित्तेणं कारेमि जिणालयं महारम्मं । तदंसणाउ गुणरागिणी जंतुणो बीयलाभुत्ति ॥ ५६ कारेमि बिंबममलं दद्धुं गुणरागिणो जभो बोहिं । सज्जो लभेज अन्ने पूयाइसयं च दणं ॥ ५७ २ असिंपत्तीए निबन्धणं होइ विहिसमारंभो । सो सुत्ताओ नज्जइ तं चित्र लेहेमि ता पढमं ॥ ६१ जिणवयणामय सुहसंगमेण उवलद्ध वत्थुसन्भावं । कुस्सुइनियतभावा भयंति जिणधम्ममेगे उ ॥ ६२ जिणवयणं साहंता साहू जं तेवि साहणसमत्था । वायरणछंदनाडयकव्वालंकारनिम्माया ॥ ६३ छद्दरिणत कविआ कुतिस्थिसिद्धंतजाणया धणियं । ता ताण कारणे सव्वमेव इह होइ लिहणीयं ॥ ६४ इभाइगुणजुयाण वसही सयणासणाइणा निच्चं । आहारोसहि भेसज्जवत्थमाईहिं उवठभं ॥ ६५ काऊ पुत्याइं समप्पियं सासणं कुतित्थीणं । अधरिसणीयमेयं काहामि तओ य जिधम्मे ॥ ६६ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि । __ पिछले समयके जैन इतिहासका सिंहावलोकन करने पर, ज्ञात होता है कि जिनेश्वर सूरिके इस उपदेशको उनके अनुयायी श्रावकगणने बडी अच्छी श्रद्धाके साथ ग्रहण किया और इसको कार्यान्वित करनेमें बहुत ही उत्साह बतलाया । जिनेश्वर सूरिकी शिष्यपरंपराके अनुयायी होनेवाले श्रावकोंने पिछले सात सौ-आठ सौ वर्षों में, हजारों ही जैन मन्दिर बनवाये और लाखों जैन मूर्तियां तैयार करवाई इसी तरह लाखों ही पोथियां (प्रतियां) जैन अजैन शास्त्रों एवं ग्रंथोंकी लिखवा लिखवा कर साधु-यति जनोंको समर्पित की और उनके संग्रहके सेंकडों ग्रन्थभण्डार स्थापित किये-करवाये । जिनेश्वर सूरिने इस ग्रंथमें आगे चल कर यह भी एक बात कही है कि अनुकंपाशील व्यक्तिको चाणक्य, पंचतंत्र, कामंदक आदि राजनीति शास्त्रोंका उपदेश देना-लेना नहीं चाहिये । क्यों कि इनमें अनेक प्रकारके छल, कपट, प्रपंच, मित्रविरोध, कूटयुद्ध आदि प्रयोगोंका वर्णन किया गया है जिससे मनुष्य हिंसाकार्यमें प्रवृत्त होनेको उत्तेजित होता है । इसलिये इन हिंसा-उत्तेजक ग्रन्थोंका व्याख्यान करना उचित नहीं है। इसी तरह ज्योतिष, अर्धकांड, मनुष्य, हस्ति और अश्व चिकित्साविषयक वैद्यक, धातुवाद और धनुर्वेद आदि विषयक ग्रन्थोंका व्याख्यान करना भी उचित नहीं है । क्यों कि इन ग्रन्थोंमें अनेक प्रकारके जीव-जन्तु-विनाशक उपायोंका विवेचन किया हुआ है। सर्व प्रकारके प्राणियोंके प्रति अनुकंपाभाव रखनेवाले सम्यक्त्ववान् आत्माको किसी भी प्रकारके प्राणीके नाशका कोई विचार नहीं प्रदर्शित करना चाहिये। राजकीय, सामाजिक एवं धार्मिक दृष्टिकोणसे अहिंसा तत्त्वके विवेचकों और प्रतिपादकोंके लिये जिनेश्वर सूरिका यह कथन अवश्य विचारणीय और विवेचनीय है । __इस ग्रन्थके आस्तिक्य लिंगवर्णन नामक ५ वें प्रकरणमें, कुछ दार्शनिक विचारोंकी मीमांसा की गई है जिनमें बौद्ध, सांख्य, मीमांसा, न्याय और वेदान्त विषयक सिद्धान्तोंकी आलोचना-प्रत्यालोचना मुख्य है । इनमें जैन दृष्टिसे आत्मवाद, सर्वज्ञवाद, ईश्वरकर्तृत्ववाद, मुक्तिवाद आदि मतोंका स्थापन अथवा निरसन किया गया है । जैन दर्शनके सिद्धान्त ही आत्माको मुक्ति प्राप्त करानेवाले हैं ऐसी भावना जिसकी हो वह सम्यग्दृष्टि आत्माका आस्तिक्य नामक लक्षण है। संस्कृत विवरणजैसा कि ऊपर सूचित किया है मूलरूपसे तो यह प्रकरण १०१ गाथाका एक छोटासा ही ग्रन्थ है। परंतु इसपर व्याख्यारूपसे जिनपति सूरिने जो संस्कृतमें विस्तृत विवरण लिखा है उसका ग्रन्थ परिमाण कोई ७-८ हजार श्लोक जितना होगा । इस विवरणमें व्याख्याताने मूल ग्रन्थके विचारोंको खूब अच्छी तरह विस्तृत रूपमें विवेचित किये हैं और उनके समर्थनमें जगह जगह दूसरे शास्त्रोंके प्रमाणोंको उद्धृत कर ग्रन्थोक्त बातोंकी पुष्टि करनेका यथेष्ट प्रयत्न किया है । इस विवरणमें आस्तिक्य नामक लिंगके विवेचनमें भिन्न भिन्न दर्शनोंके उक्त आत्मवादादि सिद्धान्तोंकी जो आलोचना-प्रत्यालोचना की है वह इतनी विस्तृत और प्रौढ है कि उसे दार्शनिक चर्चाका एक स्वतंत्र एवं सुन्दर संदर्भ-ग्रन्थ कहा जा सकता है। १ चाणक-पंचतंतय. कामंदयमाइरायनीइओ । वक्खाणंतो जीवाणं न खलु अणुकंपओ होइ ॥ ७१ तह जोइसग्घकंडाइ विजय मणुयतुरयहत्थीणं । तहा हेमजुत्तिमिसुकलमक्खायंतो हणे जीवे ॥ ७२ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनेश्वरीय ग्रन्थोंका विशेष विवेचन । (५) प्रमालक्ष्म अथवा प्रमालक्षण । जिनेश्वर सूरिके रचे हुए प्रन्थोंमें यह एक खतंत्र और मौलिक रचना है । मूल संस्कृत श्लोकबद्ध है और इसपर 'खोपज्ञ' ऐसी विस्तृत संस्कृत गद्य व्याख्या है । मूलके सब मिलाकर कोई ४०५ श्लोक हैं। जैन न्यायशास्त्रके आद्य प्रतिष्ठापक आचार्य सिद्धसेन दिवाकरका बनाया हुआ 'न्यायावतार सूत्र' नामका ३२ श्लोकोंवाला एक छोटासा ग्रन्थ है जो जैन साहित्यमें बहुत ही प्रसिद्ध एवं प्रमाणभूत शास्त्र है । जैन न्यायशास्त्रका यही आदि ग्रन्थ माना जाता है । इसका आद्यश्लोक इस प्रकार है प्रमाणं खपरावभासि ज्ञानं बाधविवर्जितम् । प्रत्यक्षं च परोक्षं च द्विधा मेयविनिश्चयात् ॥ • समग्र ग्रंथका यह आदि 'शास्त्रार्थसंग्रह'रूप श्लोक है। इसमें कहे गये पदार्थोंका विस्तृत और विशद विवेचन करनेकी दृष्टिसे जिनेश्वर सूरिने वार्तिकके रूपमें ४०० श्लोक बनाये और फिर उनपर गद्यमें विशेष विवेचनात्मक वृत्ति बनाई । यह वृत्ति अनुमानतः कोई ४ हजार श्लोकप्रमाण जितनी बड़ी है । __इस .ग्रन्थमें जिनेश्वर सूरिने जैनदर्शनसम्मत प्रमाण तत्त्वकी विस्तारसे चर्चा की है और प्रमाण ज्ञानके लक्षणका खरूप प्रदर्शित किया है । इसीलिये इसका नाम 'प्रमालक्ष्म' अथवा 'प्रमालक्षण' ऐसा रखा गया है। ___ इस ग्रन्थकी रचना करनेमें मुख्य विचार जो प्रेरक हुआ है, उसका उल्लेख, ग्रन्थके अन्तमें जिनेश्वर सूरिने खयं किया है । उसका भावार्थ यह है कि - जिनेश्वर सूरिके समयतकमें, श्वेताम्बर संप्रदायके किसी विद्वान्ने कोई ऐसा ग्रन्थ नहीं बनाया था जिसमें जैनसम्मत प्रमाण ज्ञानका- अर्थात् प्रत्यक्ष, परोक्ष आदि प्रमाणोंका- लक्षण और खरूप स्पष्ट किया गया हो। इनके पहले सिद्धसेन, मल्लवादी, हरिभद्र और अभयदेव जैसे बहुत समर्थ और प्रखर ऐसे जो जैन श्वेतांबर दार्शनिक आचार्य हो गये हैं और जिन्होंने दर्शनशास्त्र एवं प्रमाणशास्त्रके साथ संबंध रखनेवाले ऐसे अनेक महत्त्वपूर्ण और प्रौढ कोटिके ग्रन्थोंकी जो रचनाएं की हैं, उनमें प्रतिपक्षी दार्शनिकोंके किये गये प्रमाणोंके लक्षणोंके खण्डनद्वारा ही खकीय सिद्वान्तोंका और मन्तव्योंका समर्थन किया गया है । परन्तु वकीय मन्तव्यानुसार प्रमाणके लक्षण आदि प्रकट रूपसे उन ग्रंथोंमें नहीं बताये गये हैं । उन आचार्योंका यह खयाल रहा कि प्रतिपक्षीके किये गये लक्षणोंको यदि हम दूषित सिद्ध कर सकते हैं और उस प्रकारसे उनके सिद्धान्तोंका खण्डन कर सकते हैं, तो फिर हमें अपने नये लक्षणोंका उद्भावन करनेकी आवश्यकता ही क्या है । और यदि अन्य दार्शनिकोंका बताया हुआ लक्षण दोषशून्य है, तो फिर हमें उसका स्वीकार करनेमें आपत्ति भी क्यों होनी चाहिये? क्यों कि जो प्रमाण वास्तवमें निर्दोष अर्थात् सत्य है वह सर्वत्र और सर्वदा सत्य ही रहेगा; उसको दोषदुष्ट अथवा असत्य कौन सिद्ध कर सकता है ? । और जो इस प्रकार वास्तविक सत्य प्रमाण है वही जैनसम्मत सिद्धान्त है । इस उदार विचारसरणिके कारण श्वेतांबर संप्रदायके पूर्वाचार्य, बौद्ध और ब्राह्मण न्यायके ग्रन्थोंका पठन-पाठन भी उसी उदार दृष्टिसे करते रहते थे और उनके अध्ययन-मननसे अपना न्यायशास्त्रविषयक ज्ञान परिपुष्ट और परिवर्द्धित किया करते थे। वे न केवल अन्य दार्शनिक ग्रन्थोंका अध्ययन-मनन कर के ही सन्तुष्ट रहते थे परंतु वैसे कुछ ग्रन्थोंपर तो उन्होंने स्वयं टीका-टिप्पण आदि भी बनाये और उनका प्रचार एवं महत्त्व भी बढाया है । दिग्नागाचार्य विरचित 'न्यायप्रवेश' सूत्र पर हरिभद्रसूरिकृत टीका - और 'धर्मेतरवृत्ति' पर मल्लवादीकृत टिप्पण तथा भासर्वज्ञकृत 'न्यायसार' पर जयसिंहसूरिकृत विवृति आदि कुछ विशिष्ट कृतियां, इसके उदाहरणखरूप, आज भी विद्यमान हैं। क० प्र०८ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर रि। श्वेतांबर संप्रदायके विद्वानोंकी इस प्रकारकी नीति-रीतिके सम्मुख, दिगम्बर संप्रदायके विद्वानोंकी विचारसरणि कुछ ठेठसे ही भिन्न प्रकारकी रही है । अन्य सांप्रदायिक साहित्यके अध्ययन-मननके विषयमें वे उतने उदार विचारके नहीं रहे मालूम देते । अपने संप्रदायके आचार्यों द्वारा बनाये गये शास्त्रों और ग्रन्थोंके सिवा अन्य सांप्रदायिक ग्रन्थों- शास्त्रोंका पठन-पाठन करनेकी ओर उनका समादरभाव प्रायः नहींसा रहा है । यहां तक कि श्वेताम्बराचार्यों द्वारा रचित जैन साहित्यका भी वे प्रायः खाध्याय करना पसन्द नहीं करते रहे । इसलिये प्रारंभहीसे दिगम्बर आचार्योंने आगम, पुराण, चरित, कथा, काव्य, व्याकरण और न्याय आदि विषयक अपने संप्रदायके उपयुक्त साहित्यका स्वतंत्र सर्जन करनेका प्रयत्न किया है । वैसे तो नेताम्बर आचार्योंने भी कथा, चरित और अन्य धार्मिक एवं तात्त्विक विषयके ग्रन्थोंकी खतंत्र रचनाएं बहुत प्राचीन समयसे ही करनी प्रारंभ कर दी थी और इस विषयका तो श्वेतांबर साहित्य, दिगम्बरीय साहित्यसे अपेक्षाकृत अधिक प्राचीन और अधिक समृद्ध भी है । तथापि व्याकरण और प्रमाणशास्त्र, जो सर्वसामान्य ज्ञानका विषय है और सभी मतों - दर्शनोंको समान रूपसे उपादेय है उस विषयके अपने खतंत्र ग्रन्थोंकी रचना करने तरफ श्वेताम्बर आचार्योंका उस समयतक कोई खास लक्ष्य नहीं गया था। दिगम्बर आचार्य पूज्यपाद देवनन्दीने विक्रमकी ६ ठी ७ वीं शताब्दीके आसपास पाणिनि, इन्द्र, चान्द्र आदि व्याकरण प्रन्योंका आलोडन कर, 'जैनेन्द्रव्याकरण' नामक स्वतंत्र ग्रन्थकी रचना की और फिर उस संप्रदायके अनुयायियोंमें उसीके पठन-पाठनका खास प्रचार होता रहा । उसके बाद ८ वी ९ वीं शताब्दीके मध्यमें, शाकटायनाचार्य नामक यापनीयसंघके आचार्यने 'शाकटायन' नामका एक और खतंत्र विस्तृत व्याकरण ग्रन्थ बनाया । इसीतरह भट्ट अकलंक देव, विद्यानन्दी, माणिक्यनन्दी आदि आचायोंने जैनसिद्धान्तसम्मत प्रमाण तत्त्वके लक्षण आदिका निरूपण करनेवाले छोटे बड़े कई तर्कशास्त्रीय प्रन्थोंकी रचनाएं की जिससे उक्त संप्रदायके अभ्यासियोंमें उन उन कृतियोंके पठन-पठनका खूब प्रचार बढ़ा । इसके मुकाबलेमें श्वेतांबर संप्रदायमें जिनेश्वर सूरिके प्रादुर्भावके समय तक- अर्थात् विक्रमकी ११ वीं शताब्दीके मध्यकाल तक- श्वेतांबर आचार्य द्वारा बनाया गया कोई स्वतंत्र व्याकरणविषयक ग्रन्थ अथवा वैसा ही कोई प्रमाणप्रतिपादक ग्रन्थ उपलब्ध नहीं था। श्वेतांबर संप्रदायमें, जैसा कि ऊपर सूचित किया है, बौद्ध एवं ब्राह्मण संप्रदाय रचित लक्षण ग्रन्थोंका ही विशेष पठन-पाठन प्रचलित था। इसलिये सांप्रदायिक प्रतिस्पर्धाके संघर्षप्रसंगमें, दिगंबर संप्रदायकी ओरसे श्वेतांबर संप्रदायके विषयमें, शायद ऐसे आक्षेप किये जाते होंगे कि-- श्वेतांबरोंके अपने निजी कोई न्याय, व्याकरणादिके लक्षणप्रतिपादक ग्रन्थ नहीं हैं अतएव इनका संप्रदाय पुरातन न होकर नवोत्पन्न है--ये पर लक्ष्मोपजीवी हैं - इनके पास अपना मौलिक सर्जन नहीं है - इत्यादि । इस प्रकारके कुछ आक्षेपोंसे प्रेरित होकर जिनेश्वर सूरिके गुरुमाता बुद्धिसागराचार्यने एक नया स्वतंत्र व्याकरण ग्रन्थ बनाया और जिनेश्वर सूरिने न्यायशास्त्रविषयक प्रस्तावित 'प्रमालक्ष्म' ग्रन्थ बनाया। इस बातका उल्लेख वयं ग्रन्थकारने निम्नलिखित श्लोकोंमें किया है प्रमाणवादिनां तस्माद्वाद एव विचारणा । साधनाभासमन्यैस्तु वादिभिरभियुज्यते ॥ ४०० तेनावधीरणाप्यत्र महतां लक्ष्मशासने । परपक्षनिरासो हि साधनाभासतोऽप्यसौ ॥ ४०१ तैरवधीरिते यत्तु प्रवृत्तिरावयोरिह । तत्र दुर्जनवाक्यानि प्रवृत्तेः सन्निबन्धनम् ॥ ४०३ शब्दलक्ष्म प्रमालक्ष्म यदेतेषां न विद्यते । नादिमन्तस्ततो ह्येते परलक्ष्मोपजीविनः ॥ ४०४ श्रीबुद्धिसागराचार्यैर्वृत्ताकरणं कृतम् । अस्माभिस्तु प्रमालक्ष्म वृद्धिमायातु सांप्रतम् ॥ ४०५ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनेश्वरीय ग्रन्थोंका विशेष विवेचन।। ५९ जिनेश्वर सूरिने प्रस्तुत ग्रन्थमें प्रमाण और नयादि विषयोंकी जो चर्चा की है उसका उपसंहार करते हुए ये श्लोक लिखे हैं । इनका भावार्थ यह है कि- पक्ष और प्रतिपक्षको लेकर जो तत्त्वचर्चा की जाती है उसके दो स्वरूप होते हैं। इनमें एक तो है वादात्मक स्वरूप-जिसमें विशुद्ध प्रमाणको लक्ष्य करके तत्त्वविचार किया जाता है । दूसरा है जल्पात्मक खरूप-जिसमें साधनाभासोंका प्रयोग होता है । जो जिज्ञासुभावसे वस्तुका सत्य खरूप जानना चाहते हैं उनकी तत्त्वचर्चा वादखरूप होती है और जो प्रतिपक्षका खण्डन और खपक्षका मण्डन करनेकी विजिगीषासे प्रेरित होकर, पदार्थमीमांसा करते हैं, उनकी वह चर्चा जल्पखरूप होती है । अतएव जो प्रमाणवादी हैं वे 'वाद'हीकी विचारणा पसन्द करते हैं और जो अन्य वादी हैं वे साधनाभासों द्वारा 'जल्पका' आश्रय लेते हैं । अतः जिनको परपक्षका निरास करना ही अमीष्ट है वे साधनाभासोंका ही खास विचार करते रहते हैं । उनका मन्तव्य है कि परपक्षका निरास करनेसे वपक्षका समर्थन स्वयं हो जायगा उसके लिये अलग प्रयास करनेकी क्या जरूरत है। इसलिये वे किसी प्रमाणखरूपका लक्षण बतलानेकी आवश्यकता नहीं समझते । यही कारण है कि हरिभद्र और अभयदेव जैसे समर्थ आचार्योंने अपने 'अनेकान्तजयपताका' और 'सम्मतितर्कटीका' जैसे महान् दार्शनिक ग्रन्थोंमें, परपक्षका निरास करनेका ही प्रयत्न किया है । उन्होंने लक्षणप्रतिपादनकी तरफ अपनी अवधीरणा - उपेक्षा प्रकट की है । इसीतरह मल्लवादीने भी 'नयचक्र' ग्रन्थकी रचनामें अपना आदर प्रकट किया परंतु प्रमाणके लक्षण बतलानेका कोई प्रयास नहीं किया। इससे जिज्ञासुओंको यह प्रश्न होगा, कि फिर जिनेश्वर सूरिको इस प्रमाणलक्षणके प्रतिपादक ग्रन्थके रचनेकी क्यों आवश्यकता प्रतीत हुई ? इसके उत्तरमें वे कहते हैं, कि उन बडे आचार्योंके उपेक्षित कार्यमें, हम दोनों (जिनेश्वर और बुद्धिसागर ) गुरु भ्राताओंकी जो प्रवृत्ति हुई है, उसके निमित्त हैं दुर्जनोंके वाक्य । वे दुर्जन कहते रहते हैं, कि इन (श्वेतांबरों )के पास अपने निजके बनाये कोई शब्दलक्षण और प्रमाणलक्षण विषयक ग्रन्थ नहीं हैं। इसलिये ये परलक्ष्मोपजीवी होकर इनका मत आदिकालसे चला हुआ नहीं है । इसलिये बुद्धिसागर सूरिने पद्यबन्ध ऐसा स्वतंत्र व्याकरण शास्त्र बनाया है और हमने यह प्रमालक्ष्म ग्रन्थ बनाया है; जो अब वृद्धिको प्राप्त हो ऐसी हमारी कामना है। मालूम देता है कि जिनेश्वर सूरि और बुद्धिसागर आचार्यके इस प्रकार, न्याय और व्याकरणके लक्षणप्रतिपादक ग्रन्थोंके प्रणयनकी प्रवृत्तिका प्रारंभ करने बाद, उनके पीछे होनेवाली पीढीमें इस १ अत एव श्रीहरिभद्रसूरिपादैः श्रीमदभयदेवसूरिपादैश्च परपक्षनिरासे तैर्यतितम्-अनेकान्तजयपताकायां तथा सम्मतिटीकायामिति । अत एव श्रीमन्महामल्लवादिपादरपि नयचक्र एवादरो विहितः । न तैरपि प्रमाणलक्षणमाख्यातं परपक्षनिर्मथनसमर्थैरपि । परपक्षनिरासादपि स्वपक्षस्य पारिपोष्यात् सिद्धिरिति । प्रमालक्ष्म, पृ. ८९ कीरशानि दुर्जनवाक्यानि इत्याह-शब्दलक्ष्म.'-शब्दलक्ष्म व्याकरणम्, श्वेतभिक्षणां स्वीयं न विद्यते । तथा प्रमालक्ष्मापि प्रमाणलक्षणमपि तेषां स्वीयं न विद्यते । नादिमन्तो नैवादावेव एते संभूताः, किन्तु कुतोऽपि निमित्तादर्वाचीना एते जाता इति । ततो येते परलक्ष्मोपजीविनः बौद्धादिप्रणीतलक्षणमुपजीवितुं शीलाः । ३ श्रीबुद्धिसागराचार्यैः पाणिनि-चन्द्र-जैनेन्द्र-विश्रान्त-दुर्गटीकामवलोक्य, वृत्तबन्धैः धातुसूत्रगणोणादिवृत्तबन्धैः कृतं न्याकरणं संस्कृतशब्द-प्राकृतशब्दसिद्धये । अस्माभिस्तु प्रमालक्ष्म-प्रमाणलक्षणम् । अत एव पूर्वाचार्यगौरव. दर्शनार्थ वार्तिकरूपेण, तत्रापि स्वाभिप्रायनिवेदनार्थ वृत्तिकरणेन च । प्रमालक्ष्मवृत्ति, पृ. ९० इस कथनके करनेमें जिनेश्वर सूरिका आशय यह मालूम देता है कि दिगंबर विद्वानोंकी तरह श्वेताम्बराचार्यों में ऐसे स्वतंत्र शब्दशास्त्र अथवा प्रमाणशास्त्र विषयक ग्रंथोंकी रचना करनेकी शक्ति या योग्यताका अभाव था सो बात. नहीं है। परंतु उनको वैसा प्रयास करनेकी कोई आवश्यकता प्रतीत नहीं हुई थी, इसलिये उन्होंने ऐसे कोई प्रन्थोंका प्रणयन करनेका खास प्रयत्न नहीं किया। Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि । प्रकारके साहित्यके सर्जनका उत्साह खूब बढा । वादी देवसूरिने न्यायशास्त्रके सभी अंग-प्रत्यंगोंका लक्षण प्रतिपादन करनेवाला 'प्रमाणनयतत्वलोकालंकार' नामक बहुत प्रौढ और प्रकृष्ट सूत्रात्मक ग्रन्थ बनाया और उस पर 'स्याद्वादरत्नाकर' नामकी खोपज्ञ ऐसी बहुत ही विस्तृत व्याख्या बनाई जो ८४००० श्लोक प्रमाण जितनी बडी थी । ऐसा ही एक बड़ा सूत्रग्रन्थ 'कलिकालसर्वज्ञ' बिरुद धारक हेमचन्द्राचार्यने 'प्रमाणमीमांसा' नामक बनाया; तथा अन्य अन्य आचार्योंने भी इस प्रकारके छोटे बडे अनेक प्रकरणग्रन्थ बनाये । व्याकरणके विषयमें मी हेमचन्द्राचार्यने 'सिद्धहेमशब्दानुशासन' नामक सर्वांग परिपूर्ण एवं सर्वोत्कृष्ट कोटिमें गिना जाय ऐसा महान् शब्दशास्त्र बनाया । वैसे ही मलयगिरि सूरिने भी एक 'मलयगिरि व्याकरण' नामक स्वतंत्र ग्रन्थकी रचना की; एवं 'गणरत्नमहोदधि' नामक आदि अन्य ग्रन्थोंकी मी अन्यान्य आचार्योंने रचनाएं की । इस तरह जिनेश्वर सूरिके बाद, कोई सौ वर्षके भीतर ही, श्वेतांबर साहित्यका भंडार, व्याकरण और प्रमाण विषयके लक्षणप्रतिपादक ऐसे अनेक उत्तम प्रकारके ग्रन्थरत्नोंकी वृद्धिसे अलंकृत होकर, संप्रदायानुयायियोंको गौरवका अनुभव कराने लगा। जिनेश्वर सूरि चाहते तो वे अकलंक देवके 'प्रमाणसंग्रह' 'न्यायविनिश्चय' आदि तथा माणिक्यनन्दिके 'परीक्षामुख' आदि ग्रन्थोंकी तरह खतंत्र प्रकरणग्रन्थ बना सकते; परंतु वैसा न करके उन्होंने सिद्धसेन सूरिके उक्त 'न्यायावतार' ग्रन्थमें ग्रथित आदि 'शास्त्रार्थसंग्रह' श्लोकको ही आधारभूत मान कर, उसके वार्तिकरूपमें अपने ग्रन्थकी जो रचना की, इसमें उनका लक्ष्य अपने पूर्वाचार्यकी कृति तरफ बहुमान प्रदर्शित करनेका भी रहा है - ऐसा उनके उल्लेखसे स्पष्ट ज्ञात होता है । उनके उल्लेखसे यह भी सिद्ध होता है कि जैन वाङ्मयमें न्यायतत्त्वकी प्रस्थापना करनेवाला वह 'न्यायावतार' ही आद्य कृति है और सिद्धसेन दिवाकर ही उस तत्त्वके प्रस्थापक आय सूरि हैं। प्रायः जिनेश्वर सूरिके ही समकालीन होनेकी जिनकी संभावना की जा सके ऐसे अन्य एक शान्तिसूरि नामक आचार्यने भी सिद्धसेन दिवाकरके इसी आद्य श्लोक पर, जिनेश्वर सूरिके समान ही, स्वतंत्र वार्तिक श्लोक और उनपर 'विचारकलिका' नामक विशद वृत्ति बनाई है । इन दोनों कृतियोंका परस्पर मिलान करनेसे ज्ञात होता है, कि ये कृतियां परस्पर एक-दूसरे ग्रन्थकारके देखनेमें नहीं आई, और अतः इस एक ही सूत्रग्रन्थ पर, इस प्रकार दो वार्तिक-रचनाएं एक साथ निर्माण हुई। इससे लाभ यह हुआ कि अभ्यासियोंको ग्रन्थके अध्ययनमें अधिक विचारकी सामग्री उपलब्ध हुई । क्यों कि शान्तिसूरिने अपने वार्तिकमें एक प्रकारसे विवेचना की, तो जिनेश्वर सूरिने अपने वार्तिकमें दूसरे प्रकारसे विचारणा की। अतः ये दोनों कृतियां एक दूसरीकी पुनरावृत्तिरूप न होकर पूरक रूप होने जैसी बनी हैं। जिनेश्वर सूरिने इस ग्रन्थमें, जैनसम्मत प्रमाणके लक्षण प्रस्थापित करते हुए अन्यदार्शनिक लक्षणोंका, संक्षेपमें परंतु सारभूत विवेचनके साथ, निरसन किया है । इस निरसनमें मुख्य करके बौद्ध, मीमांसक, नैयायिक और सांख्य जैसे मौलिक दर्शनोंके प्रमाणविचारकी आलोचना की गई है । इस आलोचनामें, बौद्ध दार्शनिकोंमेंसे खास करके दिग्नाग, धर्मकीर्ति और शान्तिरक्षित जैसे सुप्रसिद्ध और प्रमाणभूत ग्रंथकारोंके विचारोंका ऊहापोह किया गया है । मीमांसकोंमें खास करके महातार्किक भट्ट कुमारिलके १ प्रन्यारंभमें प्रास्तविकरूपसे जो ७ पद्य लिखे हैं उनमें ४ थे पद्यके चतुर्थ पादमें यह भाव व्यक्त किया गया है। अथा-'श्लोकैर्वार्तिकमाद्यसूरिसुकृतौ टीका च तत्रारमे ।' २ शान्तिसूरिकी यह प्रौढ कृति भी इसी ग्रन्थमालामें, इसी ग्रन्थके प्रकाशनके साथ साथ, प्रकट हो रही है। इसका संपादन पं. श्रीदलसुख मालमणियाने किमा है जो अपने ढंगका एक अपूर्व और विशिष्ट संस्करण है। Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनेश्वरीय ग्रन्थोंका विशेष विवेचन । मन्तव्योंका प्रतिक्षेप किया गया है । सांख्यमें सुप्रसिद्ध शास्त्रकार ईश्वरकृष्णके कथनोंका और नैयायिकोंमें सूत्रकार गौतम और उसके भाष्यकार वात्स्यायनके तत्तद्विषयक सिद्धान्तोंका परिहार प्रदर्शित किया गया है। प्रमाणात्मक ज्ञानके स्वरूप, संख्या और लक्षण आदिके विषयमें जैन दर्शनका सभी अन्य दर्शनोंके साथ कुछ-न-कुछ मतभेद है; इसलिये प्रमाणतत्त्वका विचार करते समय उन मतभेदोंका विचार करना आवश्यक हो जाता है और तत्तद् दर्शनोंके मौलिक सिद्धान्तोंका आलोचन-प्रत्यालोचन करना भी अनिवार्य हो जाता है । इसीतरह अन्य दार्शनिकोंका भी दूसरे-दूसरे दर्शनोंके साथ कुछ-न-कुछ मतभेद है ही और इसीलिये उन्होंने भी अपने-अपने सिद्धान्तके प्रतिपादक ग्रन्थोंमें अन्यान्य दार्शनिकोंके विशिष्ट सिद्धान्तोंकी यथेष्ट आलोचना-प्रत्यालोचना की है। प्रमालक्षणमें विवेचित विचारोंका संक्षिप्तसार। प्रस्तुत ग्रन्थमें जिनेश्वर सूरिने प्रारंभके १९ श्लोकोंमें, जैनसम्मत प्रत्यक्ष प्रमाणका विचार किया है और इसके अन्तर्गत सर्वज्ञकी सिद्धि और वह सर्वज्ञ जिन ही हो सकता है अन्य नहीं, यह संक्षेपमें स्थापित किया है । प्रत्यक्ष प्रमाणके खरूपके विषयमें बौद्ध तार्किकोंका जो विधान है उसका संक्षेपमें खण्डन कर, सर्वज्ञके विरुद्धमें जो कुमारिलका कथन है उसका निरसन किया है । इसीमें नैयायिकदर्शनसम्मत सर्वज्ञ ईश्वरके अस्तित्वका एवं उसके जगत्कर्तृत्वका अभाव भी सूचित किया गया है । २१ वें श्लोकसे लेकर ११३ वें श्लोक तक, परार्थ अनुमान प्रमाणका वर्णन है । इसमें अनुमान प्रमाणके साधक-बाधक हेतुओं, हेत्वाभासों आदिका विस्तारसे विवेचन किया है और अन्यान्य दार्शनिकोंके दिखाए हुए तत्तद्विषयोंके हेतु आदिकोंका ऊहापोह किया है। ११४ वें श्लोकसे लेकर ३१६ वें श्लोक तकमें, शब्द प्रमाणकी विस्तृत चर्चा उपस्थित की गई है । प्रन्थका विशेष भाग इसी प्रकरणमें व्याप्त है । शब्द प्रमाणसे तात्पर्य है आगम प्रमाणका । मोक्षमार्गका खरूप बतलानेमें एक मात्र आगम ही प्रमाणभूत साधन है । जीवात्माका पुनर्जन्म, वर्ग-नरकगमन और मोक्षप्राप्ति आदि जैसी बातोंको केवल आगमके आधार पर ही हम मानते हैं । इसलिये मनुष्यको पारलौकिक जीवन की दृष्टिसे आगम प्रमाणका स्वरूप जानना परमावश्यक है। ___ दर्शनशास्त्रकारोंने आगमका अर्थ बतलाया है 'आप्तवचन' - अर्थात् आप्तपुरुषका जो वचन अथवा उपदेश है उसीका नाम आगम है । इसलिये दर्शनशास्त्रोंमें आप्तपुरुषका भी लक्षण और खरूप बतलाना आवश्यक हुआ । अतः जिनेश्वर सूरिने इस शब्दप्रमाणवाले प्रकरणमें आगम और आप्तपुरुषके विषयमें विस्तारसे चर्चा की है । इनकी चर्चाका निष्कर्ष, जो इन्होंने प्रकरणके प्रारंभमें ही सूचित कर दिया है, उसका आशय है कि सर्वविद् वीतराग पुरुषका जो वचन है वही शब्द प्रमाण है। परंतु, इस विधानके विरुद्ध में तो दार्शनिकोंकी अनेक विप्रतिपत्तियां हैं । दर्शनशास्त्रके वाद-विवादका सबसे बड़ा और सबसे मुख्य विषय तो यही रहा है । भिन्न-भिन्न दार्शनिकोंके नाना-प्रकारके मतामत इस विषयमें उपस्थित हैं । ब्राह्मणधर्म का सबसे प्रधान और प्राचीन संप्रदाय जो मीमांसक मत या वैदिक मतके नामसे प्रसिद्ध है उसमें सर्वविद् या सर्वज्ञ पुरुषका अस्तित्व ही मान्य नहीं है । उनका मन्तव्य है कि भूत, भविष्य और वर्तमान कालके सब भावों और सब पदार्थोंके जाननेकी शक्तिवाला पुरुष न कोई, कभी, कहीं हुआ है न हो सकता है । इसलिये सर्वज्ञ जैसी कोई व्यक्तिका अस्तित्व उनको स्वीकार्य , 'सर्वविद्वीतरागोक्तः सोऽपि तस्या निबन्धनम् ॥' तथा 'सर्वविद्वीतरागस्य वचनं नापरोऽप्यसौ ॥' Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि । नहीं है । पारलौकिक जीवनके मार्गका उपदेश करनेवाला उनका आगम वेद है । वेदमें जो प्रतिपादित किया गया धर्म या कर्मका विचार है वही श्रेयस् है, वही मोक्षमार्ग है । वेदकी उत्पत्ति कब हुई इसका किसीको ज्ञान नहीं है, अतः वह सनातन अर्थात् अनादिकालीन है; उसका कर्ता कोई नहीं है इसलिये वह अपौरुषेय है । इस वेदवादी मीमांसक मतके विरुद्ध, बौद्ध और जैन दोनों मतोंने बडा प्रचंड प्रतिवाद उपस्थित किया है । इनका कहना है कि वेद सधर्म या मोक्षमार्गका प्रतिपादक नहीं हो सकता । उसमें तो हिंसा और अभिचार जैसे दुष्कर्मों का विधान किया गया है । यदि हिंसा और अभिचारके कर्म भी धर्मके निमित्त हो सकते हैं तो फिर अधर्म किस कर्मका नाम रहा । जिनेश्वर सूरिने यह भी दिखलाया है कि वेद में न केवल यज्ञ-यागके रूपमें होनेवाली हिंसा ही विहित बतलाई गई है, अपि तु मातृसंभोग और भगिनी - संभोग आदि जैसे लोकविरुद्ध कर्म भी विहित बतलाये गये हैं । ऐसे हिंसाप्रधान और लोकविरुद्धाचार प्रतिपादक आगमका प्रामाण्य कैसे स्वीकार किया जाय। इसलिये - तस्मादतीन्द्रियार्थेषु सर्वज्ञगदितागमः । मानमभ्युपगन्तव्यो न वेदस्ताविको यतः ॥ २०५ अर्थात् - अतीन्द्रिय ( पारलौकिक ) भावोंके विषयमें सर्वज्ञका कहा हुआ जो आगम है वही प्रमाणभूत मानना चाहिये, न कि अतास्विक ऐसा वेद । वेदकी इस प्रकारकी अनागमत्व विषयक आलोचनाप्रत्यालोचना करते समय, बौद्ध एवं जैन दार्शनिकोंने उसके सनातनत्व और अपौरुषेयत्वका भी खण्डन करनेका यथेच्छ प्रयक्ष किया है । 1 वैदिक, बौद्ध और जैन दार्शनिकोंके बीच में इस विषयके वाद-विवाद की परंपरा बहुत प्राचीन काल से 'चली आ रही है । तीनों मतोंके दार्शनिक ग्रन्थ इस विषयके खण्डन- मण्डनात्मक तर्क-वितर्कों से भरे पड़े हैं । पूर्वकालीन आचार्योंके प्रदर्शित किये गये तर्क-वितर्कों के उत्तर, उनके उत्तरकालमें होनेवाले आचार्योंने अपने-अपने ग्रन्थोंमें देनेका प्रयत्न किया और फिर उनके प्रत्युत्तर, उनके बाद होनेवाले आचार्योंने अपने ग्रन्थोंमें प्रथित करनेका उद्योग किया । मीमांसक मतके सबसे बडे समर्थक और सबसे बडे आचार्य भट्ट कुमारिल हुए, जिन्होंने अपने 'मीमांसा श्लोकवार्तिक' नामक प्रकृष्ट ग्रन्थमें, वेदके विरुद्ध जिन-जिन मतों संप्रदायों द्वारा जो-जो आक्षेप किये गये उनका, बहुत ही मार्मिक, तीव्र और उदग्र युक्तियों द्वारा खण्डन किया । इसके साथ उन्होंने बौद्ध और जैन आदि दर्शनोंके कुछ मूलभूत सिद्धान्तों पर भी, वैसी ही प्रचण्ड शैलीसे, बहुत उग्र आक्षेप किये । पुनः भट्ट कुमारिलके बाद होनेवाले बौद्ध, जैन आदि विद्वानोंने, उनके किये गये उन-उन आक्षेपोंके प्रत्युत्तर देने में भी वैसा ही उम्र और तीव्र प्रयत्न किया है । दर्शनशास्त्र विषयका शायद ही कोई ऐसा प्रसिद्ध ग्रन्थ हो जिसमें कुमारिल के प्रतिपादित तर्कों और विचारोंका ऊहापोह न किया गया हो । १ ऐसे लोकबिरुद्ध कर्मके कुछ वैदिक उद्धरण भी जिनेश्वर सूरिमे अपनी व्याख्यामें उद्धृत किये हैं। यथा 'यद्दा लोकबिरुद्धेऽपि' वेदे । न खलु लोके मातृभोगादि प्रशस्यते । यथा चोक्तम् - ऋग्वेदे त्रयस्त्रिंशतिमे ब्राह्मणे हरिचन्द्रकथायाम् । पाठः - 'नापुत्रस्य गतिरस्तीति सर्वे पशवो विदुः । तस्मात् पुत्रार्थं मातरं स्वसारं चाभिगच्छेदिति । एष पन्था उभयगामी' त्यादि । तथा सामवेदे सौमित्रिकाणां गोसवे यज्ञोपदेशः । पाठः - - 'एतत्ते सुभगे भगं आलिप्य मधुसर्पिषा जिह्वया लेलिहामी' त्यादि । न चैतल्लोके सम्मतम् । न च लोकप्रतीतिबाधितं प्रामाण्यं साध्यमित्यलं विस्तरेण । प्रमालक्षण- व्याख्या, २४७. Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनेश्वरीय ग्रन्थोंका विशेष विवेचन । वेदके अपौरुषेयस्व, अनादित्व और आगमत्वकी. सिद्धि करते हुए कुमारिलने खास करके जैनोंके सर्वज्ञवाद-केवलज्ञानकी भी मार्मिक आलोचना की है और उसमें यह स्थापित करनेका प्रयत्न किया, कि जैन जैसा कहते हैं वैसा सर्वज्ञ या केवलज्ञानी न कोई कभी कहीं हुआ है न हो सकता है । यदि कहा जाय कि जिन अर्थात् अर्हन् वैसे सर्वज्ञ थे, तो फिर बुद्ध और कपिल-जिनको कि तत्तदर्शन वाले वैसे सर्वज्ञ मानते हैं, सर्वज्ञ नहीं थे इसमें क्या प्रमाण है? | और यदि वे भी सर्वज्ञ थे, तो फिर उन सबके कथित सिद्धान्त परस्पर विरुद्ध कैसे? इसलिये न अर्हन् सर्वज्ञ थे, न बुद्ध और नाही कपिल । इस तरह सर्वज्ञका अभाव सिद्ध होने पर, उसका कहा हुआ वचन भी कैसे प्रमाणभूत आगम समझा जाय । इसलिये धर्माधर्मविषयक विचारमें अपौरुषेय वेद ही प्रमाणभूत आगम हो सकता है, अन्य नहीं । और इस अपौरुषेय वेदके धर्मविचारमें किसी प्रकारके सन्देह अथवा तर्कके करनेका कोई अवकाश नहीं। भट्ट कुमारिलने अपने सिद्धान्तका समर्थन करते हुए, जैन और बौद्ध तार्किकोंने वेदके विरुद्ध जो जो युक्तियां-प्रत्युक्तियां उपस्थित की थीं, उनका उत्तर देते हुए उन्होंने अन्तमें निम्न प्रकारसे बड़े कठोर शब्दोंमें इन वेदविरोधियोंकी अपभ्राजना भी की। धारणाध्ययनव्याख्यानित्यकर्माभियोगिभिः । मिथ्यात्वहेतुरक्षातो दूरस्थैर्शायते कथम् ॥ ये तु ब्रह्मद्विषः पापा वेदाद् दूरं बहिष्कृताः। ते वेदगुणदोषोक्तिं कथं जल्पन्त्यलजिताः॥ अर्थात् - जो ब्राह्मण वेदका धारण करते हैं, अध्ययन करते हैं, व्याख्यान करते हैं और उसमें प्रतिपादित नित्यकर्ममें अभियुक्त रहते हैं, उनको जब वेदके मिथ्यात्व होनेका कोई हेतु ज्ञात नहीं हुआ, तो फिर जो वेदसे दूर रहते हैं उनको वह कैसे ज्ञात हो सकता है ? । जो ब्रह्मद्वेषी होकर वेदसे दूर रहते हैं और वेदमार्गसे बहिष्कृत हैं वे पापात्मा लज्जाहीन होकर वेदके गुण-दोषकी उक्तियां कैसे बकते रहते हैं । . कुमारिलके इन आक्रोशयुक्त वचनोंका जिनेश्वर सूरिने निम्न प्रकार व्यङ्गयभरे शब्दों में उत्तर दिया धारणाध्ययनेत्यादि नाक्रोशः फलवानिह । अझैरशाततत्त्वोऽपि पण्डितैरवसीयते ॥ २४८ अर्थात् 'धारणाध्ययन' इत्यादि उक्तिद्वारा कुमारिलने जो आक्रोश प्रदर्शित किया है उसका, इस तत्त्वविचारमें कोई फल नहीं निकलता । तात्पर्य कि इस तत्त्वमीमांसामें निर्लज्ज, पापात्मा, ब्रह्मद्वेषी जैसे उद्गारोंका प्रयोग करनेसे किसी तत्त्वकी सिद्धि नहीं होती। और जो कुमारिल यह कहते हैं किवेदका नित्य गाढ परिचय रखनेवाले जब उसके मिथ्यात्वको जान नहीं सकते तो फिर जो ये उससे दूर रहनेवाले उसके जाननेका कैसे दावा कर सकते हैं । इसका उत्तर तो यह है कि - अज्ञजनों के लिये जो तस्व अज्ञात होता है उसको पण्डितजन तो अच्छी तरह जान सकते हैं, इसमें आश्चर्यकी बात क्या है ? । इस प्रकार कुमारिलके कथनोंका शंका-समाधान करते हुए जिनेश्वर सूरिने अन्तमें -प्रकरणके उपसंहारमें- इस प्रकारके कर्कश आक्षेपात्मक वचनोंके लिये, कुमारिल को भी फिर वैसे ही पाप शब्दसे संबोधित करके अपना रोष शान्त किया है । सन्दिग्धेऽपि धर्मशे भव्यजन्तोर्न कर्कशाः । अधिक्षेपस्य दायिन्यो वाचः पाप यथा तव ॥ २७३ जिनेश्वर सूरि कहते हैं कि - सर्वज्ञकी सत्ताके सन्दिग्ध होने पर भी, जो भव्यजन है उसके वैसे आक्षेपात्मक कर्कश वचन नहीं निकलते, जैसे हे पापिष्ठ कुमारिल ! तेरे निकले हैं । Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि । - मीमांसक कुमारिलकी तरह, बौद्ध तार्किक शान्तिरक्षित भी बौद्ध दर्शनके बडे समर्थक विद्वानोंमें गिने जाते हैं । उन्होंने 'तत्त्वसंग्रह' नामक विशालपरिमाण ग्रन्थकी रचना की जिसमें दार्शनिक विषयके सभी मुख्य मुख्य सिद्धान्तों की चर्चा ग्रथित है। इसमें बौद्ध सम्मत प्रमेयोंकी सिद्धिके साथ अन्य दार्शनिकों द्वारा किये गये आक्षेपोंका निरसन किया और साथहीमें अन्य दार्शनिकों के कुछ विशिष्ट मन्तव्यों पर आक्षेप भी किये । इनमें जैनदर्शनसम्मत 'स्याद्वाद' सिद्धान्तका भी समावेश है । जैनोंका 'स्याद्वाद' अर्थात् 'अनेकान्तवाद' भी अन्यान्य वादोंकी तरह दोषदूषित है - इस विषयमें जो तर्क-वितर्क उन्होंने किये हैं, खास करके उनका प्रत्युत्तर देनेका प्रयत्न जिनेश्वर सूरिने अपने इस ग्रन्थमें किया है । शान्तिरक्षितने 'स्याद्वादसिद्धिभंग' नामक प्रकरणमें जैनके अनेकान्तवादकी बडी कर्कश मीमांसा की है, इसलिये जिनेश्वर सूरिने उसका उत्तर भी उसी शैलीमें देनेका प्रयत्न किया है। कहा है कि तत्रैकाल्यपरीक्षार्थ मुधैवारटितं त्वया । स्याद्वादसिद्धिभङ्गोऽपि तवोन्मादानुमापकः ॥ १८६ अर्थात् -हे शान्तिरक्षित ! त्रैकाल्यपरीक्षाके विषयमें जो तेंने चिल्लाहट की है वह व्यर्थ ही है; और इसी तरह 'स्याद्वाद'की सिद्धिका भङ्ग करनेका जो प्रयत्न किया है वह भी तेरे उन्मादका ज्ञापक है, और कुछ नहीं है। आगम अर्थात् शब्द प्रमाणके प्रामाण्य-अप्रामाण्य वाद की यह चर्चा, केवल दर्शनान्तरोंके बीचका ही विषय नहीं बन रही, लेकिन एक ही दर्शनके अवान्तर संप्रदायोंके बीचमें भी उसका वैसा ही क्षेत्र बन रहा है। क्या वैदिक, क्या बौद्ध और क्या जैन - इन तीनों मतोंके जो अवान्तर उपसंप्रदाय हैं वे भी परस्पर अपने-अपने मन्तव्योंके लिये इसी आगम प्रमाणको उपस्थित कर वाद-प्रतिवाद करते रहे हैं। जैनदर्शनके 'स्याद्वाद'मतके अनुगामी और उपस्थापक ऐसे श्वेतांबर एवं दिगंबर संप्रदाय भी इस आगम प्रमाणको लेकर परस्पर खण्डन-मण्डनमें यथेच्छ प्रवृत्त रहे हैं । इन दोनों संप्रदायोंके बीचमें जो मुख्य मन्तव्यभेद है, वह एक इस विषयको लेकरके है कि-जो गृहत्यागी मोक्षाभिलाषी मुनि बनता है उसको वस्त्रपरिधान करना जैन आगममें विहित है या नहीं । श्वेताम्बर संप्रदाय - जैसा कि उसके नामसे ही प्रतीत होता है - मुनिको अपने संयमकी रक्षाके लिये अल्प-खल्प श्वेतवस्त्र परिधान करना आगमविहित मानता है और उसके समर्थक प्रमाण खमान्य आगमग्रंथोंसे उपस्थित करता है । इसके विपरीत दिगंबर संप्रदाय-जो कि उसका नाम ही ज्ञात कराता है -मुनिको अल्प-खल्प भी वस्त्र रखना आगमविरुद्ध मानता है और मोक्षमार्गका बाधक बतलाता है । श्वेताम्बर पक्षवाले अपने मन्तव्यके आधारभूत जिस आगमका प्रमाण प्रस्तुत करते हैं, उस आगमका दिगम्बरपक्ष अनागमत्व सिद्ध करनेका प्रयत्न करता है। दार्शनिक विषयोंके तत्त्वविचारकी मीमांसाकी दृष्टिसे दिगम्बर विद्वानोंने जो प्रमाणविषयक कुछ ग्रन्थ लिखे उनमें श्वेतांबर मान्यताका भी आगमविरुद्ध होना निर्दिष्ट किया और उसके समर्थनमें प्रमाणशास्त्र सम्मत हेतुवादके प्रयोगोंका उपयोग किया । जिनेश्वर सूरिने भी अपने इस प्रन्थमें-आगमप्रमाणवाले प्रकरणमें - निम्रन्थताके पक्ष-विपक्षमें जो दिगम्बर मन्तव्य है उसका प्रतिवाद किया और अपना पक्ष सिद्ध करनेका प्रयास किया। जिनेश्वर सूरिका कथन है कि-जैन आगममें जो कोई भी विधि प्रतिपादित किया गया है उसका अर्थ देश, काल, बल और सूत्रकी अपेक्षाको लक्ष्यमें रख कर करना चाहिये । उस अर्थका जो उल्लंघन करता है वह जिनदेवकी आशातना (अपभ्राजना) करनेवाला अतएव पाप पुरुष है । यथा Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनेश्वरीय ग्रन्थों का विशेष विवेचन | ६५ देशं कालं बलं सूत्रमाश्रित्य गदितो विधिः । जिनानाशातयेत् पापस्तदु घनतामितः ॥ ३२३ अर्थात् - जिनदेवने जो कोई विधि-विधान प्रतिपादित किया है वह सब देश, काल, बल आदिकी दृष्टिसे सापेक्ष है । जो विधि, किसी एक देशको लक्ष्य कर आचरणीय बतलाई गई हो, वही विधि दूसरे देश के लिये अनाचरणीय हो सकती है । जो विधि, किसी कालविशेषको लक्ष्य कर आवश्यक रूप से प्रतिपादित की गई हो, वही विधि अन्य कालके लिये अनावश्यक हो सकती है । इसीतरह जो आचार, युवाको लक्ष्य कर अवश्य उपयोगी बतलाया गया हो, वही आचार बाल या वृद्धके लिये अनुपयोगी हो सकता है । इसलिये किसी भी प्रकार की विधिके हेयोपादेयत्वका विचार देश, काल, बल आदिकी अपेक्षापूर्वक ही करना जैन आगमका उपदेश है । इसके विपरीत जो मनुष्य किसी भी विधि-विधानको एकान्त भावसे हेयोपादेय मानता - समझता है वह अनेकान्त मार्गका अतिक्रम करता है । I दिगम्बर - श्वेताम्बरके पारस्परिक वादका विषय जो निर्बंधता है उसके विषयमें जिनेश्वर सूरिने किस प्रकारकी प्रतिपादन शैली इस ग्रंथ में प्रयुक्त की है उसका परिचय करादेनेके लिये निम्न लिखित श्लोक उपयुक्त होंगे । निर्भयता जिनैरुक्ता निमित्तं मोक्षशर्मणः । कुतः परिग्रहस्तस्यां तस्मिन् वा सा कथं ननु ॥ १२५ धर्मार्थ स न तां हन्ति हस्त्यश्वरथशालिनाम् । राजादीनां कथं सा न को विशेषोऽपरत्र वः ॥ १२६ कैषा निर्मथता वीरैरुक्ता वस्त्राद्यभावतः । गवादीनां न सा केन कथं वा भवतामसौ ॥ १२७ आन्तरत्यागतः सैषा हन्त सा नास्ति केन नः । भावाभावौ समो हन्त परोक्षत्वाद् द्वयोरपि ॥ १२८ इन श्लोकों का तात्पर्यार्थ इस प्रकार है. - पूर्वपक्ष दिगम्बर - जिनदेवने मोक्षमार्गका कारण निर्ग्रथता बतलाई है । निर्ग्रथता वह है जिसमें किसी प्रकारका परिग्रह नहीं है । जहां परिग्रह है वहां निर्ग्रथता कैसी । यदि कहा जाय कि धर्मके निमित्त उस 1 परिग्रह का स्वीकार है; तो फिर हाथी, घोडे, रथ आदि रखनेवाले राजा आदिकों को भी वह निर्ग्रथता क्यों नहीं मानी जाय ? तुममें और उनमें फिर फरक ही क्या है ? उत्तरपक्षमें जिनेश्वर सूरि कहते हैं - वीर भगवान् ने किस प्रकारकी निर्ग्रथता बतलाई है ? यदि कहा जाय कि वस्त्रोंका जिसमें अभाव हो; तो फिर वह निर्भयता तो गाय, बैलमें भी विद्यमान है । फिर उनमें और तुममें क्या विशेष है ? यदि कहा जाय कि आन्तर भावसे जो परिग्रहका त्याग करता है उसको वह नियता प्राप्त होती है; तो फिर वह निर्ग्रथता हममें क्यों नहीं हो सकती है ? क्यों कि यह आंतर त्यागका भावाभाव तो तुम्हारे और हमारे दोनोंके लिये परोक्ष है । तुममें आन्तर त्यागका भाष है और हममें नहीं है यह कौन, कैसे, कह सकता है ? यदि कहा जाय कि आगामोंमें अल्प या बहुत, सूक्ष्म या स्थूल, किसी प्रकारका परिग्रह नहीं रखना साधुके लिये विधान किया गया है; तो फिर आप लोग ( यानि दिगम्बर मुनि ) पुस्तक और कमंडलु आदि रखते हैं उसका क्या ? यदि कहो कि धर्मक्रियामें उपकारि होनेसे उनका रखना उपयुक्त है, तो फिर वैसे ही वस्त्र भी उपकारक होनेसे उनका रखना उपयुक्त क्यों नहीं माना जाय ? । इसलिये हम तो इस व्यर्थके विवादमें एक प्रकारकी शुष्काभिमानिता ही समझते हैं; और इसलिये यह सब आगमका विप्लव है न कि सर्वज्ञका शासन । इत्यादि । न चाल्पं बहु वा न स्यात् कुण्डिकादि न चापरम् । धर्मोपकारितां नैति वृथा शुष्काभिमानिता ॥ १३२ ततो विप्लव एवायं न सर्वज्ञस्य शासनम् ॥ क० प्र० ९ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि । इस प्रकार, इस शब्द प्रमाणवाले प्रकरणमें आगमके प्रामाण्य - अप्रामाण्यको लक्ष्य करके अनेक प्रकारके मत-मतान्तरोंकी आलोचना की गई है। ३१८ वें श्लोकसे लेकर ३९४ वें तकके श्लोकमें, दर्शनान्तरोंमें माने गये उपमान, अभाव आदि प्रमाणों की चर्चा की है और जैन आचार्योंने उनको स्वतंत्र प्रमाण न मान कर अनुमान प्रमाणके अन्तर्गत ही उनका समावेश क्यों कर दिया है इसका विवेचन किया है । ३९५ से ३९९ तकके श्लोकोंमें, जैनदर्शनअभिमत प्रमाण, नय और कुनयका, विषयविभागकी दृष्टिसे विचार किया है और ४०० से ४०५ तकके श्लोकोंमें ग्रन्थका उपसंहार आलेखित किया है, जिनका उद्धरण और सार हमने इस परिचयके प्रारंभ में ही दे दिया है । (६) निर्वाणलीलावती कथा । जिनेश्वर सूरिकी कृतियोंमें सबसे बडी कृति यह कथा थी । खरतर गच्छकी कुछ पट्टावलियोंमें मिलनेवाले उल्लेखों के अनुसार इसका ग्रंथपरिमाण कोई १८००० श्लोक जितना था । यह कथा प्रायः प्राकृत में और गाथाबद्ध रचना में बनाई गई थी । यह मूल कृति अभी तक कहीं किसी भंडारमें उपलब्ध नहीं हुई है । इसका एक सारोद्धार रूप, संस्कृत श्लोकबद्ध भाषान्तर, जेसलमेर के भंडारमें उपलब्ध हुआ है । यह कथासार प्रायः ६००० श्लोक ग्रन्थपरिमाण है । यद्यपि इस ग्रन्थमें, आदि या अन्त भागमें, कहीं भी, स्पष्ट रूप से इसके कर्ताका नामनिर्देश नहीं मिलता, परंतु जेसलमेर में जो इस पुस्तककी ताडपत्रीय प्रति उपलब्ध हुई है उसकी पट्टिकापर 'जिनरत्नसूरिविरचिता निर्वाण लीलावती कथा' ऐसा उल्लेख किया हुआ मिला है । तथा ग्रन्थके अन्तके उत्साह के अन्तिम पद्यमें श्लेषरूप से 'जिनरत' इस शब्दका प्रयोग किया गया है, इससे इसके कर्ता 'जिनरत्न' है यह निश्चित होता है । ये जिनरत्नाचार्य जिनपतिसूरि के शिष्य जिनेश्वराचार्य के शिष्य थे और वि. सं. १३०४ में इनको आचार्य पदवी मिली थी । यह कथासार, २१ उत्साहोंमें विभक्त है । प्रत्येक उत्साह के समाप्ति लेखमें ' इति श्रीनिर्वाणलीलावतीमहाकथेतिवृत्तोद्धारे लीलावतीसारे जिनांके' ऐसा उल्लेख किया गया है । प्रत्येक उत्साह के अन्तिम पद्यमें किसीन- किसी स्वरूपमें 'जिन' शब्दका प्रयोग किया गया है, इससे इस कृतिको कर्ताने 'जिनांक' विशेषणसे अंकित की है । इस सारके अवलोकनसे जिनेश्वर सूरिकी मूल कृतिकी कथावस्तुका परिज्ञान तो ठीक तरहसे हो जाता है परंतु उसकी भाषा, रचना, वर्णना, कविता, छन्दोबद्धता, आलंकारिकता आदिका परिज्ञान नहीं हो सकता । ऊपर जिनेश्वर सूरिकी प्रशंसावर्णनाके प्रस्तावमें हमने जिनभद्राचार्यकृत 'सुरसुन्दरी कथा' का जो अवतरण दिया है, उसमें इस कथाकी परिचायक दो गाथाएं मिलती हैं - जिनमें कहा गया है, कि यह कथा अतीव सुललित पदसंचारवाली, प्रसन्नवाणीयुक्त, अतिकोमल श्लेषादि विविध अलंकारोंसे विभूषित एवं सुवर्णरूप रत्नसमूह से आल्हादक है सकल अंग जिसका, ऐसी वारवनिताकी तरह, सकल जनोंके मनको आनन्दित करनेवाली है । जिनरत्नाचार्यने अपने इस कथासारके उपोद्घातमें मूल कथाको, नाना प्रकारके विस्तृत वर्णनोंसे तथा अनेक रसोंसे परिपूर्ण, अत एव अल्पमेधाशक्तिवाले जनोंके लिये समुद्रकी तरह दुरवगाह बतलाई है । इसलिये इस कथाका 'मात्र कथावस्तु' स्वरूप सुधापान करने की इच्छा रखनेवाले विद्वानोंके उपकारार्थ उन्होंने इस सारभागका संकलन किया है' । १ जेसलमेरके भंडार में इस ग्रंथकी जो प्रति विद्यमान है उसके आद्य पत्रका कुछ भाग तूट गया है और जो कुछ पंक्तियां उपलब्ध हैं उनके भी कुछ अक्षर घिस गये हैं, इसलिये प्रारंभ के ११-१२ श्लोक, जिनमें सारकर्ताने उपोद्घातके रूपमें अपना वक्तव्य गुंफित किया है, पूर्ण रूपसे पाठ्य नहीं हैं । Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७ जिनेश्वरीय ग्रन्थोंका विशेष विवेचन । जिनरत्नाचार्यके इस कथेतिवृत्तके पढनेसे यह तो सुज्ञात होता है कि जिनेश्वर सूरिकी मूल कृति, प्राकृत भाषा साहित्य की एक बहुत सुंदर और उत्तम कोटिकी विशिष्ट रचना थी। जैसा कि गणधरसार्द्धशतक और बृहद्गुर्वावलिके कथनानुसार, पहले सूचित किया गया है (देखो पृ०३२), जिनेश्वर सूरिने इस कथाकी रचना आशापल्ली नामक स्थानमें की थी। यह आशापल्ली गुजरातकी विद्यमान राजधानी अहमदाबादकी जगह पर बसी हुई थी, जिसके अवशेष रूपमें आज भी वहां पर असावल नामका शाखापुर प्रसिद्ध है । शायद जिनेश्वर सूरिके मृत्युके कुछ ही समय बाद, अणहिलपुरके चालुक्य राजा कर्णदेवने इस स्थानको गुजरातकी उपराजधानी बनाया और इसका नाम कर्णावती रखा । यह आशापल्ली, जिनेश्वर सूरिके समयमें भी, भौगोलिक दृष्टिसे, गुजरातके साम्राज्यके यातायातव्यवहारका एवं रक्षणात्मक प्रबन्धका मध्यवर्ती स्थान होकर, व्यापारकी दृष्टिसे भी एक विशिष्ट केन्द्रस्थान था। इसलिये वहां पर जैन समाजका भी एक विशिष्ट वर्ग, जो राज्यसत्ता और व्यापारक्षेत्र- दोनोंमें उच्च स्थान रखता था, अच्छी संख्यामें निवास करता था । जिनेश्वर सूरिने देश-देशान्तरोंमें परिभ्रमण करते हुए किसी समय जब इस आशापल्लीमें आ कर चातुर्मास किया और यहांके वैसे विशिष्ट एवं विचक्षण वर्गवाले श्रावक-समूहको श्रोताके रूपमें देखा, तो उसके उपदेशार्थ, अपनी विशिष्ट प्रतिभाकी प्रौढिमा प्रदर्शित करनेवाली इस 'निर्वाणलीलावती' नामक वैराग्यरसोत्पादक एवं निर्वाणमार्गप्रदर्शक विशाल धर्मकथाकी अभिनव रचना की। जैन कथासाहित्यका कुछ परिचय । जैन धर्मोपदेशकोंकी कथाकथन-प्रणालिका सदैव एक ही पवित्र ध्येय रहा है और वह यह कि उनके कथोपदेश द्वारा श्रोताओंकी शुभ जिज्ञासा जागृत हो और उनकी मनोवृत्ति शुभ कर्मकी प्रवृत्तिमें प्रवृत्त हो । कथाके कहने में और रचनेमें जैसा उच्च आदर्श जैन विद्वानोंका रहा है, वैसा अन्य किसी संप्रदायका नहीं रहा । जैन कथाकार इन धर्मकथाओंके कथनमें और संकलनमें बडे ही सिद्धहस्त प्रमाणित हुए हैं । मनोरंजनके साथ सन्मार्गका सद्बोध करानेवाली इन जैन कथाओंकी तुलनामें, बराबरीका स्थान प्राप्त कर सके, ऐसी कथाएं जैन साहित्यके सिवा अन्य किसी भारतीय धार्मिक साहित्यमें उपलब्ध नहीं है । जैन साहित्य इस प्रकारकी धर्मकथाओंका एक बड़ा भारी भंडारही है। जैन साहित्यकी यह कथाराशि बहुत अधिक विशाल है। संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और देश्य भाषाओंमें गुम्फित ऐसी छोटी-बडी सेंकडों नहीं बल्कि हजारों जैन कथाओंसे जैन वाङ्मयका सुविशाल भंडार भरपूर है। इस जैन कथावाङ्मयका इतिहास उतना ही पुरातन है जितना जैन तत्त्वज्ञान और जैन सिद्धान्तका इतिहास है । अनेकानेक कथाएं तो, जैनवाङ्मयका सबसे प्राचीन भाग समझे जानेवाले आगमोंमें ही वर्णित हैं । इन आगमसूचित कथाओंकी वस्तुका आधार ले कर, बादमें होनेवाले आचार्योंने अनेक खतंत्र कथाग्रन्थ रचे और मूल कथावस्तुमें फिर अनेक अवान्तर कथाओंका संयोजन कर इस साहित्यको खूब ही विकसित और विस्तृत बनाया । इन कथाग्रन्थोंमेंसे कुछ तो पुराणोंकी पद्धतिपर रचे हुए हैं और कुछ आख्यायिकाओंकी शैली पर । उपलब्ध ग्रन्थोंमें पुराणपद्धतिपर रचा हुआ सबसे प्राचीन और सबसे बडा कथाग्रन्थ 'वसुदेवहिंडी' नामक है जो प्राकृत भाषामें 'गद्यबहुल' ऐसा आकर कथा ग्रन्थ है । इस ग्रन्थकी कथाके उपक्रमका आधार तो हरिवंश अर्थात् यदुवंशमें उत्पन्न होनेवाला वसुदेव दशार है जो संस्कृत Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि । पुराण महाभारत और हरिवंशमें वर्णित कृष्ण वसुदेवका पिता है । परंतु गुणात्यकी 'बृहत्कथा'की' तरह इसमें सेंकडों ही अवान्तर कथाएं गुम्फित कर दी गई हैं जिनमें प्रायः सब ही जैन तीर्थंकरोंके तथा अन्यान्य चक्रवर्ती आदि शलाका पुरुषोंके एवं अनेक ऋषि, मुनि, विद्याधर, देव, देवी आदिकोंके चरित भी वर्णित हैं । 'वसुदेव हिंडी' की कथाएं प्रायः संक्षेपमें और साररूपमें कही गई हैं । इन कथाओंमेंसे कुछ कथाओंको चुन-चुन कर, पीछेके आचार्योंने छोटे बडे ऐसे अनेक स्वतंत्र कथाग्रंथोंकी रचनाएं की और उन संक्षिप्त कथाओंको ओर भी अधिक पल्लवित किया । 'वसुदेवहिंडी' नामक ग्रन्थ जो वर्तमानमें उपलब्ध है उसकी संकलना संघदास क्षमाश्रमण नामक आचार्यने की है जो विक्रमकी चौथी पांचवीं शताब्दीमें हुए मालूम देते हैं । इसी समयमें विमलसूरि नामक आचार्य हुए जिन्होंने वाल्मीकिके संस्कृत रामायण और व्यासके महाभारतीय हरिवंशके अनुकरणरूप 'पउमचरियं' और 'हरिवंसचरियं' नामक दो खतंत्र एवं सुसंकलित ग्रन्थोंकी प्राकृतमें रचना की, जिनमें ब्राह्मणोंके रामावतार और कृष्णावतारके साथ संबन्ध रखनेवाली पौराणिक कथाओंको, जैन शैलीके ढांचेमें ढाल कर जैनीय रामायण और हरिवंशका सर्जन किया। इसके बाद, फिर अनेक ग्रन्थकारोंने इन्हीं दो कथाओंको लक्ष्य कर, संस्कृत, अपभ्रंश, कन्नड, प्राचीन गूर्जर आदि भाषाओंमें अनेक ग्रन्थोंकी रचनाएं की । कृष्णावतारकी कथाके साथ कौरव पांडवोंकी कथाका तथा जैन तीर्थकर अरिष्टनेमिकी कथाका भी संबन्ध जुडा हुआ है, इसलिये इनकी कथाको लक्ष्य करके 'पांडवचरित' और 'नेमिनाथचरित' नामके भी अनेक खतंत्र कथाग्रन्थ रचे गये । जैन धर्मके पौराण प्रवादानुसार, इस विद्यमान मानवयुगके प्रारंभमें आदि राज्यसंस्थापक और प्रथम धर्मप्रवर्तक इक्ष्वाकुवंशके ऋषभदेव नामक तीर्थकर हुए जो नाभि और मरुदेव नामक युगल कुलकरके पुत्र थे । उस ऋषभदेवने ही विद्यमान मानवजातिमें सबसे प्रथम समाजव्यवहार, राज्यतंत्र और धर्ममार्गकी शिक्षाका प्रवर्तन किया। इससे बहुधा उनको आदिनाथ या युगादि देवके नामसे भी जैनवाङ्मयमें सम्बोधित किया जाता है। उनके सौ पुत्र हुए जिनमें ज्येष्ठ पुत्रका नाम भरत रक्खा गया था । वह भरत इस हमारी आर्यभूमिका सबसे पहला सार्वभौम चक्रवर्ती राजा हुआ इसलिये हमारे इस पृथ्वीखण्डका नाम 'भारतवर्ष' या 'भरतक्षेत्र' ऐसा प्रसिद्ध हुआ । भरतके और और भाईयोंको, इस भरतभूमिके अन्यान्य प्रदेश जागीरीके रूपमें बांट दिये गये जहां उन्होंने अपने खतंत्र नगर बसा कर अपने वंशजोंके लिये राज्य स्थापित किये । पीछेसे ये ही सब राजवंश भिन्न-भिन्न क्षत्रिय राजकुलोंके नामसे प्रसिद्ध हुए । पुराणोंमें वर्णित सूर्यवंशीय और चंद्रवंशीय सब राजकुल उन्हीं ऋषभदेवके पुत्रोंकी सन्तानरूप हैं । इस प्रकारका ऋषभदेवके अवतारका और जैनधर्मके प्रारंभका पौराण वृत्तान्त होनेसे, ऋषभदेवकी कथाने भी जैनवाङ्मयमें विशिष्ट स्थान प्राप्त किया है और इस कथासूत्रको जैन कथाकारोंने बहुत ही विकसित और विस्तृतरूपमें ग्रथित किया है। ऋषभदेव, भरत चक्रवर्ती एवं इनसे संबद्ध ऐसी अनेक अवान्तर कथाओंकी वस्तुको आधार रूपमें रख कर, पिछले जैन विद्वानोंने प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश आदि भाषाओंमें अनेकानेक कथाग्रन्थोंकी रचनाएं कीं । जैन धार्मिक संप्रदायकी मान्यता अनुसार, इस प्रवर्तमान मानवयुगमें जैसे ऋषभदेव सबसे पहले धर्मप्रवर्तक तीर्थकर हुए वैसे सबसे अन्तिम महावीर तीर्थकर हुए । ऋषभदेवसे ले कर महावीर तकके बीचके कालमें, कुल मिलाकर वैसे २४ तीर्थकर हुए, भरत आदि १२ चक्रवर्ती सम्राट् हुए, राम कृष्ण आदि ९ वासुदेव - अर्धचक्रवर्ती, और वैसे ही उनके प्रतिस्पर्धी ९ प्रतिवासुदेव सम्राट् हुए । जैन मान्यतानुसार इस चालू मानव युगमें, भारतवर्षमें इस प्रकार धर्म और राज्यकी Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | जिनेश्वरीय ग्रन्थोंका विशेष विवेचन । ६९ दृष्टिसे, सबसे बडे ५४ महापुरुष उत्पन्न हुए । इसलिये इनको शलाका पुरुषकी उपमा दी गई। शीलांक सूरि जैसे आचार्योंने इन ५४ ही शलाका पुरुषोंकी कथाओंको एक संग्रहके रूपमें गुम्फित करनेकी दृष्टिसे 'चउपन्न महापुरिसचरिय' नामक शलाकापुरुषचरित रूप, एक बहुत बडे प्राकृत ग्रंथ की रचना की। इसी प्रकारसे और और आचार्योंने भी इन शलाकापुरुषोंकी कथाओंके संग्रहात्मक छोटे बडे कई चरित्र ग्रंथ बनाये । कुछ आचार्योंने इन शलाकापुरुषोंमेंसे किसी एक महापुरुषके कथासूत्रको अवलंबित कर और फिर उसमें उसके पूर्व भवके वृत्तान्तोंकी सूचक कथाएं एवं वैसी ही अन्य संबन्धोंकी सूचक कथाएं जोड जोड कर, उन उन महापुरुषोंके नामके खतंत्र ऐसे बडे चरित ग्रंथों की भी विशिष्ट रचनाएं करनेका प्रयास किया है । इस प्रकार आदिनाथचरित, सुमतिनाथचरित, पद्मप्रभचरित, चन्द्रप्रभचरित, श्रेयांसचरित, शान्तिनाथचरित, मल्लिनाथचरित, अरिष्टनेमिचरित, पार्श्वनाथचरित, महावीरचरित आदि अनेक तीर्थकरोंके कई प्रकारके स्वतंत्र चरितग्रन्थोंकी रचनाएं निर्मित हुईं। ये सब कथामन्थ पुराण शैलीके हैं । जिस तरह ब्राह्मणोंके पुराणोंमें सूर्य एवं चन्द्र वंशीय आदि राजवंशोंका; वसिष्ठ विश्वामित्र आदि ऋषि मुनियोंके कुलोंका; ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि देवताओंके अवतारोंका; एवं इन्द्र, सूर्य, चन्द्र, अग्नि, वायु, लक्ष्मी, सरस्वती, इला आदि अनेकानेक प्रकारके देव-देवियोंके जन्म-जन्मांतरोंका वर्णन किया गया है; उसी तरह इन जैन चरितग्रन्थोंमें जैन मान्यतानुसार कल्पित इक्ष्वाकुवंश, हरिवंश आदि राजवंशीय नृपोंके; ऋषभ आदि धर्मतीर्थप्रवर्तक जिनवरोंके; भरत सगर आदि चक्रवर्तियोंके नमि विनमि आदि विद्याधरोंके; पुण्डरीक आदि यति मुनियोंके; ब्राह्मी सुन्दरी आदि सती साध्वियोंके राम, कृष्ण, रुद्र आदि ब्राह्मण धर्ममें माने जानेवाले ईश्वरावतारीय व्यक्तियोंके एवं सौधमेंन्द्र, चमरेन्द्र आदि देवयोनीय देवताओंके जन्म-जन्मांतरोंका वर्णन किया गया है। इन पौराणिक शैलीके कथाग्रन्थोंसे भिन्न एक आख्यायिकाकी पद्धति पर लिखे गये कथाग्रन्थोंका वर्ग है जो वासवदत्ता, कादंबरी, नलचरित, दशकुमारचरित आदि संस्कृत साहित्यकी सुप्रसिद्ध लौकिक कथाओंके ढंग पर रचा गया है। इन कथाओंमें किसी एक लोक प्रसिद्ध स्त्री अथवा पुरुषकी जीवनघटनाको केन्द्र बना कर, उसके वर्णनको काव्यमय शैलीमें, शृंगार करुण आदि रसोंसे अलंकृत करके, अन्तमें वैराग्य विषयक वस्तुको संकलित किया जाता है । कथाके विस्तारको बढ़ानेकी दृष्टिसे उसमें मुख्य नायक अथवा नायिकाके साथ अनेक उपनायक-उपनायिकाओंके कथावर्णनोंको जोडा जाता है और फिर उन सबके पूर्वजन्म अथवा आगामी जन्मका परस्पर संबन्ध लगा कर, तत्तद् व्यक्तिके किये गये शुभाशुभ कर्मोंके फलका परिणाम दिखाया जाता है और अन्तमें उस कर्मफलके अनुसार, नायक अथवा नायिकाको सद्गति अगर दुर्गतिकी प्राप्ति बतला कर कथा समाप्त की जाती है । इन कथाओंकी रचनाशैली इस ढंगकी होती है कि जिससे श्रोताओंको शंगार आदि भिन्न-भिन्न रसोंका कुछ आस्वाद भी मिलता रहै, रसिक कथावर्णनोंसे. कुछ मनोरंजन भी होता रहै और कर्मोंके शुभाशुभ विपाकोंका परिणाम जान कर सन्मार्गमें प्रवृत्त होनेकी रुचि भी बढती रहै । इस शैलीके कथाग्रन्थोंमें सबसे पहली कथा पादलिप्त सूरिकी 'तरंगवती' अथवा 'तरंगलोला' थी जो दुर्भाग्यसे अब मूल रूपमें उपलब्ध नहीं है । पादलिप्तसूरिकी मूल कथा बहुत बडी थी और वह शृंगारादि विविध रसों एवं काव्यचमत्कृतिद्योतक नाना प्रकारके अलंकारोंसे भरपूर महती १ पिछले कुछ आचार्योने ९ वासुदेवके भ्राता जो बलदेव कहे जाते हैं, उनको भी शलाका पुरुषकी गणनामें सम्मीलित किये हैं और यों ५४ की जगह ६३ शलाकापुरुष बतलाये हैं । पुष्पदन्त नामक महाकविने अपभ्रंश भाषामें 'तिसहिलक्खणमहापुराण' बना कर और हेमचन्दाचार्यने संस्कृतमें 'त्रिशष्टिशलाकापुरुषचरित्र' नामक बड़ा ग्रंथ बनाकर उनमें इन ६३ ही महापुरुषोंकी संकलित कथाएं प्रथित की है। Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि । मनोरंजक कृति थी। इस कथाका ९ वी १० वीं शताब्दीमें लिखा गया एक संक्षिप्त सार-भाग मिलता है जिसका जर्मनीके खर्गवासी महापण्डित प्रो. लॉयमानने जर्मन भाषामें सुन्दर भाषान्तर किया और उस परसे हमने गुजराती अनुवाद करा कर, 'जैन साहित्यसंशोधक' नामक त्रैमसिक पत्रमें उसे प्रकाशित किया है । पादलिप्त सूरिकी कथाशैली कैसी थी उसकी कुछ कल्पना विज्ञ पाठकोंके इसके पढनेसे हो सकेगी । इस प्रकारके कथावर्गमें हरिभद्र सूरिकी 'समरादित्य कथा' दाक्षिण्यचिन्ह उद्योतन सूरिकी 'कुवलयमाला कथा,' विजयसिंह सूरिकी 'भुवनसुन्दरीकथा' आदि अनेक मुख्य ग्रन्थ हैं । जिनेश्वर सूरिकी यह 'निवोणलीलावती' कथा भी इसी कथावर्गकी एक कृति है। निर्वाणलीलावती कथासारका संक्षिप्त परिचय । इस कथाके वर्णनके पढनेसे ज्ञात होता है कि जिनेश्वर सूरिने उद्योतनसूरिकी कुवलयमाला कथाका कुछ अनुकरण किया है । कुवलयमालामें क्रोध, मान, माया, लोभ और मोह इन दुर्गुणोंके विपाकोंका वर्णित करनेकी दृष्टिसे कथावस्तुकी संकलना की गई है। इसी तरह इस कथामें भी इन्हीं दुर्गुणोंके साथ हिंसा, मृषा, चौरी, व्यभिचार, परिग्रह आदि पापोंके सहकारका संबन्ध मिलने पर उनके विपा. कोंका फल कैसा कठोर मिलता है इस वस्तुको लक्ष्य कर सारी कथा संकलना की गई है। इसके कथासूत्रको, संक्षिप्तकर्ता जिनरत्न सूरिने अपने उक्त संक्षेपमें, निम्न रूपसे दो पद्योंमें प्रकट किया है कौशाम्ब्यां विजयादिसेननृपतिश्चास्योत्तमांगं किल __श्रेष्ठिश्रीसचिवौ पुरंदरजयस्पृक्शासनौ दोलेते । शूरश्चापि पुरोहितो हृदयभूः सौभाग्यभंग्याद्भुतो___ऽध:कायो धनदेवसार्थप इमे श्रीमत्सुधर्मप्रभोः॥१ पादाभोरुहि रामदेवचरिताधाकर्ण्य दीक्षाजुषा सौधर्मे त्रिदशा बभूवुरुदयनिस्सीमशर्मप्रियाः । ते श्रीसिंहनृपादितामुपगताः श्रीनेमितीर्थेऽसिधन् संक्षिप्येति कथांगनांगभणितिर्विस्तार्यते श्रूयताम् ॥ २ कथाका उपक्रम इस तरह किया गया है मगधदेशके राजगृह नगरमें सिंह नामका राजा और उसकी रानी लीलावती, एक जिनदत्त नामक श्रावक मित्रके संसर्गसे जैन धर्मके प्रति श्रद्धाशील बनते हैं । जिनदत्तके धर्मगुरु समरसेन सूरि कमी परिभ्रमण करते हुए राजगृहमें आते हैं, तब राजा और रानी, जिनदत्तके साथ आचार्यके पास धर्मोपदेश सुननेको जाते हैं । आचार्यके अप्रतीम रूपसौंदर्य और ज्ञानसामर्थ्यको देख कर राजाके मनमें, उनकी पूर्वावस्थाकै वरूपको जाननेकी इच्छा होती है और वह उनसे उस विषयमें अपनी जिज्ञासा प्रकट करता है । आचार्य पहले तो कहते हैं कि 'सत्पुरुषोंको अपने आचरणके बारेमें कुछ कहना उचित नहीं होता है । तथापि तुमको इससे बहुत कुछ आत्मलाभ होनेकी संभावनासे मैं अपने जन्म-जन्मांतरोंकी बातें विस्तारसे कहता हूं, जिनको ध्यानपूर्वक सुनना।' इस प्रकार प्रस्तावनाखरूप प्रथम उत्साहकी समाप्ति होती है और दूसरे उत्साहमें कथाका पूर्व वृत्तान्त शुरू होता है। १ यहां पर संक्षिप्त कथाका पहला उत्साह समाप्त होता है। इस उत्साहकी समाप्तिसूचक पुष्पिका इस प्रकार है - "इति श्रीवर्द्धमानसूरिशिष्यावतंसवसतिमार्गप्रकाशकप्रभुश्रीजिनेश्वरसूरिविरचितप्राकृत-श्रीनिर्वाणलीलावती- . महाकथेतिवृत्तोद्धारे लीलावतीसारे जिनाङ्के श्रीसिंहराजजन्म-राज्याभिषेक-धर्मपरीक्षा-श्रीसमरसेन सुरिसमागमव्यावर्णनो नाम प्रथमः प्रस्ताबनोत्साहः । ग्रंथान ३३९॥" Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनेश्वरीय ग्रन्थोंका विशेष विवेचन । यह वृत्तान्त इस प्रकार है - वत्सदेशकी कौशांबी नगरीमें विजयसेन नामक राजा, उसका जयशासन नामक मंत्री, सूर पुरोहित, पुरंदर श्रेष्ठी और धन सार्थपति ये पांच व्यक्ति परस्पर मित्र भावसे अपना व्यावहारिक जीवन सुखरूपसे व्यतीत करते हैं। किसी समय एक सुधर्म नामक जैन श्वेतांबराचार्य उस नमें आते हैं जिनके दर्शनके लिये ये पांचों जीव श्रद्धापूर्वक जाते हैं और उनका धर्मोपदेश श्रवण करते हैं । आचार्य मोक्षमार्गका उपदेश करते हुए जीवके संसारमें परिभ्रमणका और नाना प्रकारके दुःखोंके अनुभागी बननेका कारण पांच आश्रव, पांच मोहकषाय और पांच इन्द्रियोंका परिणाम बतलाते हैं । कहते हैं कि - इन्द्रियैर्विजितो मोहकषायैजीयतेऽसुमान् । ततः प्राणातिपातादौ सक्तो ज्ञानादि हारयेत् ॥ अर्थात् इन्द्रियोंके वश हो कर प्राणी मोह कषायोंसे पराभूत होता है और फिर प्राणातिपातादि रूप हिंसादि पापोंमें प्रवृत्त हो कर अपने ज्ञानखरूपको खो बैठता है । इसके बाद आचार्य हिंसा और क्रोध, मृषा और मान, चौरी और कपट, मैथुन और मोह एवं परिग्रह और लोभ - इन पांच आश्रव और कषायोंके युग्मभावोंका स्वरूप वर्णन करते हैं और प्रत्येक युग्मके विपाकका फल, जीवको कैसा दुःखदायक और जन्म-जन्मांतरोंमें रुलानेवाला होता है इसके उदाहरण रूपमें, एक-एक व्यक्तिकी अलग-अलग कथा कहते हैं । इस प्रकार दूसरे प्रस्तावमें, हिंसा और क्रोध के उदाहरण खरूप, एक रामदेव नामक राजपुत्रकी कथा कही गई है; तीसरे प्रस्तावमें, मृषा और मानके उदाहरणमें, एक सुलक्षण नामक राजपुत्रकी; चौथे उत्साह में, चौरी और कपट युग्मके उदाहरणमें, वसुदेव नामक वणिक्पुत्रकी; पांचवें उत्साह में, मैथुनासक्ति और मोहके युग्मभावके उदाहरण में, वज्रसिंह नामक राजकुमारकी; और छठे उत्साह में, परिग्रह और लोभ के द्वंद्वभाव के दृष्टान्तस्वरूप, कनकरथ नामक राजपुत्रकी कथा कही गई है । इसी तरह फिर स्पर्श, रसना आदि पांचों इन्द्रियोंकी आसक्तिके विपाकका परिणाम बतलानेकी दृष्टिसे आगे के पांच उत्साहोंमें पांच भिन्न भिन्न व्याक्तियोंकी कथाएं कही गई हैं । इनमें स्पर्शेन्द्रिके विपाक वर्णन स्वरूपकी प्रथम कथा, इसी राजा विजयसेनके निजके पूर्व जन्मके संबंधकी है, जो सुधर्म सूरिके सन्मुख उपस्थित प्रधान श्रोता है । - इसी तरह फिर रशनेंद्रियके उदाहरणमें, राजमंत्री जयशासनके पूर्व जन्मकी; घ्राणेन्द्रियके खरूपकथनमें, राजश्रेष्ठी पुरंदर के पूर्वजन्मकी; चक्षुरिन्द्रियके विकार - वर्णनमें, धन सार्थपके पूर्वजन्मकी; और श्रवणेन्द्रियकी आसक्तिके विपाकवर्णनमें, शूर पुरोहितके जन्म-जन्मांतर की कथा कही गई है । सुधर्म सूरिके मुखसे इस प्रकारका धर्मोपदेश सुन कर उन दसों व्यक्तियों को अपने अपने पूर्व जन्मकी स्मृतिका ज्ञान हो जाता है और फिर वे सब विरक्तचित्त हो कर सुधर्म सूरिके पास दीक्षा ले कर यथाशक्ति ज्ञानोपासना और तपः सेवन में जीवन व्यतीत करते हैं । अन्तमें मर कर वे सब सौधर्म नामक स्वर्गमें देवभवको प्राप्त होते हैं । वहां पर वे दसों देव, परस्पर मित्रके रूपमें होते हैं और अपना देवजीवन पूर्ण करके फिर इसी भारतवर्ष में अलग अलग स्थानोंमें मनुष्यजन्म धारण करते हैं । उन्हीं दशों जीवोंमेंसे, उक्त रसनेन्द्रियके विपाकवर्णन में जिस जयशासन मंत्रीकी कथा कही गई है उसीका जीव इस मनुष्य जन्ममें मलयदेशके कुशावर्तपुरमें जयशेखर राजाके पुत्र के रूपमें जन्म लेता है। जिसका नाम समरसेन रखा जाता है । राजकुमार पूर्वजन्म के कुछ कुसंस्कारोंके कारण बडा आखेटक व्यसनी बन जाता है और सदैव मृगयासक्त हो कर प्राणिहिंसामें प्रवृत्त रहता है । उसके पूर्वभवका मित्र सूर पुरोहितका जीव जो देवभव में विद्यमान है वह आ कर उसे प्राणिहिंसा से निवृत्त हानेका प्रतिबोध देता है। उससे प्रतिबुध्द हो कर कुमार समरसेन धर्मनन्दन नामक गुरुके पास दीक्षा ले कर, क्रमसे ७१ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि । विशिष्ट धर्माचार्य बनता है । उग्र व्रताचरणके प्रभावसे उसको विशिष्ट ज्ञानकी प्राप्ति होती है और वह अपने उस ज्ञानसे पूर्वभक्के वे अन्य मित्रजीव, कहां जन्म ले कर किस प्रकारका जीवन व्यतीत कर रहे हैं इसका वृत्तान्त ज्ञात करता है । फिर उन उन स्थानोंमें जा कर, उनको धर्मोपदेश द्वारा लौकिक जीवनकी निःसारता समझा कर, पारमार्थिक जीवनके पथपर चलने की अर्थात् संसार त्याग कर मुनिजीवनकी आराधना करनेकी प्रेरणा करता है । क्रमसे वे सब दीक्षित हो कर अपना आत्मकल्याण करते हैं और अन्तमें आयुष्यके पूर्ण होने पर निर्वाण प्राप्त करते हैं । जिसको उपलक्ष्य करके मूल कथासूत्र गुंथा गया है वह मगधका राजा सिंहराज भी, उन्हीं दस जीवोंमेंका, पहली कथाका मुख्य नायक, कौशांबीके विजयसेन राजाका जीव है और उसकी रानी लीलावती भी, कपट और चौरीके उदाहरणमें जिस वणिक्पुत्र वसुदेवके जन्मकी बात कही गई है, उसीका जीव है । पूर्वभवके मित्रभावको लक्ष्य कर, पूर्व जन्मका जयशासन मंत्रीका जीव समरसेन सूरि इनको भी प्रतिबोध करनेके लिये राजगृहमें आते हैं और इनकी जिज्ञासासे प्रेरित हो कर इस प्रकार अपने सब साथियोंके जन्म-जन्मान्तरोंकी कथा इनको सुना कर, संसारसे मुक्त होनेकी प्रेरणा करते हैं । सूरिके उपदेशसे प्रतिबुद्ध हो कर सिंहराज और रानी लीलावती भी दीक्षा ले लेते हैं और अन्तमें वे भी सबके साथ निर्वाणभाव प्राप्त करते हैं। .. इस प्रकार १० जीवोंके जन्म-जन्मांतरोंकी कथाजालसे इस 'महाकथा'की संकलना की गई है। • यों तो अन्यान्य जैन कथाओंमें जिस प्रकारकी सामान्य वस्तुशैली दृष्टिगोचर होती है वैसी ही शैली और वैसा ही वस्तुनिरूपण इसमें भी है; परंतु विषयके खरूपचित्रणमें जिनेश्वर सूरिकी सिद्धहस्तता बहुत अच्छी मालूम देती है । यद्यपि हमारे सामने मूल रचना विद्यमान नहीं है इससे उसके कत्रित्व और वर्णन-विस्तारकी हमें ठीक कल्पना नहीं आ सकती, तथापि जिनरत्न सूरिके इस संक्षेप कथासारके पढ़नेसे इतना तो जरूर जाना जा सकता है कि मूल कथाके कई वर्णन तो बहुत ही सजीव और सरस होंगे। क्रोधी, मानी, कपटी, विषयासक्त और लोभी जीवोंके स्वभावोंके जो प्रासंगिक चित्र इसमें अंकित किये गये हैं वे बहुत कुछ स्वाभाविक और भावस्पर्शी हैं । उद्धतचरित्र राजकुमार, धनलोभी वणिक्पुत्र, विद्याजड ब्राह्मणसन्तान - इत्यादिकोंके विचारों और व्यवहारोंके कई जगह बहुत ही तादृश चित्र आलेखित किये गये हैं । राजाओं और राजपुत्रोंको लक्ष्य करके जो भिन्न भिन्न प्रकारकी राज नीतिका उपदेश दिया गया है वह भी बडा सुन्दर और शिक्षादायक है । यदि कहीं इस कथाकी मूल रचना प्राप्त हो जाय तो बह एक बडी महत्त्वकी निधिके मिलने जैसी आनन्दोत्पादक होगी। Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनेश्वरीय ग्रन्थोंका विशेष विवेचन - कथाकोश प्रकरण । ७. कथा कोशप्रकरणम् । जिनेश्वर सूरिकी उपलब्ध कृतियोंमें यह प्रस्तुत 'क था कोश' नामक ग्रन्थ शायद अन्तिम रचना है । इस रचना के विषयमें उक्त 'गणधर सार्द्धशतक वृत्ति' तथा 'बृहदुर्वावलि' में लिखा है, कि जिनेश्वर सूरिने एक समय मारवाड के डिंडूआना नामक गांवमें चातुर्मास रहते हुए वहांके चैत्यवासी आचार्य के पाससे व्याख्यानमें बांचने लायक किसी पुस्तककी मांग की, तो उसने अस्वीकार कर दिया । तब उन्होंने स्वयं इस ग्रन्थकी नई रचना की और श्रोताओंको व्याख्यानमें सुनाया । जिनेश्वर सूरिने इस ग्रन्थकी रचना समाप्तिका सूचक समय तो इसमें अंकित किया है, लेकिन स्थानका सूचन नहीं किया; इससे यह तो निश्चित रूपसे नहीं कहा जा सकता कि उपर्युक्त कथनमें कितना तथ्य है । तथापि गुर्वावलि आदिकी श्रुतिपरंपराकी प्राचीनताका विचार करनेसे उक्त कथनमें अश्रद्धा करने का कोई खास कारण नहीं मालूम देता । इस ग्रन्थके अन्तिम प्रशस्ति-लेख से ज्ञात होता है कि इसकी रचना वि. सं. ११०८ के मार्गशीर्ष मासकी कृष्णपंचमी के दिन पूर्ण हुई थी । इसकी प्रथम प्रति जिनभद्र सूरिने लिख कर तैयार की थी और फिर उस परसे अन्य अन्य पुस्तक लिखे गये । ७३ यह ग्रन्थ मूल और वृत्ति रूप है । मूल गाथा बद्ध है और वृत्ति गद्यरूपमें है । मूल तो बहुत ही संक्षिप्तरूपमें है - कुल ३० गाथाएं है । इन गाथाओं में जिन कथाओंका नामनिर्देश किया गया है वे कथाएं वृत्तिके रूपमें विस्तार के साथ गद्यमें लिखी गई हैं । मुख्य कथाएं ३६ हैं और अवांतर कथाएं ४ - ५ हैं । इस तरह सब मिलाकर प्रायः ४०-४१ कथाएं इसमें गुम्फित हैं । इन कथाओं में की बहुतसी कथाएं तो पुराने ग्रन्थोंमें जो मिलती हैं उन्हींको ग्रन्थकारने अपनी भाषा में अपने ढंग से प्रथित की हैं; परन्तु कुछ कथाएं स्वयं जिनेश्वर सूरिकी नई भी कल्पित की हुई मालूम देती हैं । इसका उल्लेख उन्होंने मूलकी २६ वी गाथामें स्पष्ट रूपसे कर भी दिया है । इस गाथामें वे कहते हैं कि इस प्रकरणमें हमने जो कथानक कहे हैं उनमेंके बहुतसे तो प्रायः जैनशास्त्रों में चरितरूपसे प्रसिद्ध ही है, परंतु भावुक जनोंके उपकारार्थ कुछ कथानक अपने परिकल्पित भी इसमें हमने निबद्ध किये हैं । मालूम देता है इस प्रकारके कल्पित कथानकोंकी रचनाके विषयमें उस समयके कुछ पुराणप्रिय विद्वानोंका विरोधभाव रहता था - जैसा कि आज भी जैन साधुओंमें ऐसा विरोधभाव यत्र-तत्र दृष्टिगोचर हो रहा है - और वे कल्पित कथाओंकी सृष्टिको शास्त्रविरुद्ध समझते थे । इसलिये जिनेश्वर सूरिने इस ग्रन्थ में अपना स्पष्ट अभिप्राय व्यक्त कर दिया है कि ये कल्पित कथानक भी उसी तरह भव्य जनोंको हितकारी हो सकते हैं जिस तरह पुराणप्रसिद्ध चरितवर्णन होते हैं । अपने कथन की पुष्टिके लिये वे २७-२८ वीं गाथामें ऐसा हेतु बताते हैं - इस प्रकारका जो चरित-वर्णन किया जाता है उसका केवल यही हेतु है कि उसके श्रवणसे भविक जीवों की सत् क्रियामें प्रवृत्ति हो और असत् क्रिया से निवृत्ति हो । यही फल यदि कल्पित वर्णन से भी होता हो और वह वर्णन यदि शास्त्रविरुद्ध विचारका सूचक न हो तो उसके कथनमें कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिये । इस कथा कोशकी संकलनासे मालूम देता है कि इसकी रचनामें कर्ताका उद्देश किसी विशिष्ट विषयका निरूपण करना नहीं है । सामान्य श्रोताओंको जैन साधुओं द्वारा सदैव दिये जानेवाले जिनदेवकी पूजा आदि स्वरूप प्रकीर्ण उपदेशको ले कर ही ये कथाएं ग्रन्थबद्ध की गई हैं । इनमेंकी पहली ७ कथाएं, जिनेन्द्रदेवकी पूजा करनेसे क्या फल मिलता है इस विषयको लक्ष्य करके कही गई हैं । क० प्र० १० Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि । ८ वी कथा जिनदेवके गुणगानके फलखरूपको बतानेके लिये कही गई है । ९ वी साधुके वैयावृत्त्यकर्मके फलको दिखानेवाली भरत चक्रवर्तिकी प्रसिद्ध कथा है । १० वीं से लेकर २५ वीं तककी १६ कथाएं साधुओंको दान देनेसे कैसा फल मिलता है इसके उदाहरण-खरूपमें कही गई हैं । फिर ३ कथाएं जैन शासनकी उन्नति करनेके फलकी निदर्शक हैं । दो कथाएं साधुजनोंके दोषोंकी उद्भावना करनेसे कैसा कटु फल मिलता है इसके उदाहरण में हैं । इसी तरह १ कथा साधुजनोंका अपमान निवारणके फलकी वाचक, १ कथा विपरीत ज्ञानके फल की प्रकाशक, १ धर्मोत्साहकी प्रेरणाके फलकी सूचक, १ अपरिणत जनको धर्मदेशनाके वैयर्थ्यकी निरूपक, १ जिनशासनकी सद्देशनाके महत्त्वकी निदर्शक; एवं एक जैन धर्ममें उत्साहप्रदान करनेके फल की द्योतक है । __ ये सब कथाएं प्रायः प्राकृत गद्यमें लिखी गई हैं। कहीं कहीं प्रसंग वश कुछ संस्कृत पद्य उद्धृत किये गये हैं और दो-एक स्थानोंमें अपभ्रंशके भी पद्य दिये गये हैं । एक देशी रागमें गाई जानेवाली अपभ्रंश चउप्पदिका ( चौपाई ) भी इसमें उपलब्ध होती है ( देखो, पृ० ४२-३). __ कथाओंकी प्राकृत भाषा बहुत सरल और सुबोध है । इसमें तत्सम और तद्भव शब्दोंके साथ सेंकडों ही देश्य शब्दोंका भी उपयोग किया गया है जो प्राकृत भाषाओंके अभ्यासियोंके लिये विशिष्ट अध्ययनकी सामग्रीरूप है । ग्रन्थकारकी वर्णन-शैली सुश्लिष्ट और प्रवाह-बद्ध है । न कहीं विशेष समासबहुल जटिल वाक्योंका प्रयोग किया गया है; न कहीं अनावश्यक, शब्दाडंबरद्योतक अलंकारोंका उपयोग किया गया है । स्पष्टार्थक और समुचित-भाव बोधक छोटे छोटे वाक्यों द्वारा कर्ताने अपना वर्ण्य विषय बड़े अच्छे ढंगसे व्यक्त किया है। कथाओंका आरंभ, पर्यवसान और अन्तर्गत वस्तुवर्णनकी शैली, तो जो जैन कथाकारोंकी एक निश्चित पद्धति पर रूढ हुई है, वही शैली इसमें भी प्रयुक्त है । क्या मनुष्य, क्या देव और क्या पशु-पक्षी आदि क्षुद्र प्राणी- सभी जीवात्माओंको जो सुख-दुःख मिलता है वह सब अपने पूर्वकृत अच्छे बुरे कर्मका फल-स्वरूप है । कर्मके इस त्रिकालाबाधित नियमकी सर्वव्यापकता और सर्वानुमेयता सिद्ध करनेकी दृष्टि से ही प्रायः समग्र जैन कथाओंकी सभी घटनाएं घटाई जाती हैं । प्रत्येक प्राणीके वर्तमान जन्मकी घटनाओंका कारण पूर्व जन्मका कर्म है और उस पूर्व जन्मके कर्मका कारण उसके पहलेके जन्मका कृत्य है। इस प्रकार जीवात्माकी जन्म-परंपराका और उसके सुखदुःखादि अनुभवोंका कार्यकारणभाव बतलाना और उससे छुटकारा पानेका मार्गबोध कराना यही जैन कथाकारोंका मुख्य लक्ष्य रहा है । जिनेश्वर सूरिने भी इसी लक्ष्यको सामने रख कर इस कथानक-संग्रह की रचना की है इससे इसकी शैली मी वही होनी थी जो अन्य कथाग्रंथोंकी होती है । परंतु जैसा कि हमने ऊपर 'निर्वाणलीलावती'के वर्णनमें सूचित किया है - जिनेश्वर सूरि एक बडे सिद्धहस्त ग्रन्थकार हैं और अपनी वर्ण्य वस्तुके खरूप-चित्रणमें ये अच्छे निपुण और प्रतिभाशाली कवि हैं । अतः जहां कहीं इन्होंने प्रासंगिक वर्णनका आलेखन किया है वह बहुत ही सजीव और खाभाविक मालूम देता है । इन वर्णनोंमें तत्कालीन सामाजिक नीति-रीति, आचार-व्यवहार, जन-खभाव, राज-तंत्र एवं आर्थिक तथा धार्मिक संगठन आदि बातोंका बहुत अच्छा चित्रण किया हुआ मिलता है जो भारतकी तत्कालीन सांस्कृतिक परिस्थितिका अध्ययन और अनुशीलन करनेवाले अभ्यासियोंके लिये मी पठनीय एवं मननीय सामग्री-खरूप है । Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनेश्वरीय ग्रन्थोंका विशेष विवेचन - कथाकोश प्रकरण । ७५ कथाप्रन्थोंकी आधुनिक परिभाषाके अनुरूप यदि हम जिनेश्वर सूरिकी इन दोनों कृतियोंका - 'निर्वाण लीलावती' और 'कथाकोशप्रकरण' का - विभाग करें तो पहली कृति विशदरूपवाले बृहत्काय एक उपन्यास ( नवलकथा ) के रूपमें है और यह दूसरी कृति भिन्न भिन्न विषयनिरूपक संक्षिप्त कथाओंका (फुटकर कहानियोंका - शॉर्टस्टोरिजका ) संग्रह - ग्रन्थ के रूपमें है । इस कथासंग्रहकी प्रत्येक कथामें जिनेश्वर सूरिने कुछ-न-कुछ अपना स्वतंत्र रचना - कौशल प्रदर्शित किया है और अपने वर्ण्य विषयको सुन्दर भाव, भाषा और वर्णनसे अलंकृत किया है । इसके उदाहरणस्वरूप यहां पर कुछ कथाओंका सार देना उपयुक्त समझा है जिससे पाठक मूल ग्रन्थके खरूपको ठीक ठीक समझ सकें । सबसे पहले शालिभद्र की कथाका परिचय पढिये । शालिभद्रकी कथाका सार । अत्यंत दरिद्रावस्था में भी साधुको पूर्वभव में भाव पूर्वक अन्नदान देनेसे अगले जन्ममें कैंसी विपुल समृद्धि प्राप्त हुई इसके उदाहरणस्वरूप वणिक्पुत्र शालिभद्रकी कथा जैन साहित्य में बहुत प्रसिद्ध है । जिनेश्वर सूरिने भी इस ग्रन्थमें उस कथाको निबद्ध किया है । कथावस्तु तो वही है जो अन्यान्य ग्रन्थों में ग्रथित है; परंतु उसके कहने की शैली जिनेश्वर सूरिकी अपने ढंग की निराली है । इस कथामें जहां मगधका राजा श्रेणिक, शालिभद्रकी माताके आमंत्रणसे, उसके घर पर अपनी रानी चेलणाके साथ, भोजन करनेके लिये आता है, उस प्रसंगका जिनेश्वर सूरिने जैसा वर्णन आलेखित किया है उस परसे, उस समय में बहुत बडे धनाढ्य वणिग् जनों की समृद्धि कैसी विपुल होती थी और किस तरह वे उसका उपभोग करते थे इसका बडा मनोरम और तादृश्य चित्र मनमें अंकित हो उठता है । जो प्राकृत भाषा के ज्ञाता हैं वे तो स्वयं इस वर्णनको पढ कर हमारे कथन की अनुभूति कर सकेंगे परंतु जो मूल ग्रन्थकी भाषाको नहीं समझ सकते उनके लिये हम यहां पर, उदाहरणखरूप, उस वर्णनका कुछ सार देते हैं जिससे पाठकों को जिनेश्वर सूरिकी वर्णन शैलीका कुछ आभास हो सकेगा । प्रसंग यह है - मगधकी राजधानी राजगृहमें परदेशके कुछ व्यापारी बडे मूल्यवाले रत्नकंबल बेचनेको आते हैं। कंबलोंकी कीमतें इतनी अधिक हैं कि जिससे उनको कोई बडा धनिक तो क्या खुद राजा भी, अपनी प्रिय पट्टरानी चेलनाकी बहुत कुछ मांग होने पर भी, खरीदनेकी हिंमत नहीं कर सका । इसकी खबर शालिभद्रकी विधवा माता भद्रा सेठानी - जो कि अपना सब कारोबार करनेमें बडी निपुण और सब तरह से समर्थ थी - को हुई तो उसने वे सब कंबल खरीद लिये और उनके टुकडे करके अपनी बहुओंको, जो संख्या में ३२ थीं, 'पायपोंछ' के रूपमें पैरोंके नीचे डालनेके लिये दे दिये । राजाको जब इसका पता लगा तो उसके मनमें भद्रा सेठानीके घरकी समृद्धिके बारेमें बडा कौतुक उत्पन्न हुआ । राजाने शालिभद्रसे मिलना चाहा तो भद्रा सेठानीने उसको, अपनी पट्टरानीके साथ भोजनके आमंत्रण के बहाने, अपने घर पर आनेकी प्रार्थना की और राजा उसका खीकार कर एक दिन सेठानीके घर पर आया और शालिभद्र से मिला । शालिभद्रको तो इस मुलाकातसे संसार पर विरक्ति हो गई और उसने अपनी वह विपुल समृद्धि और ३२ पत्नीयोंका त्याग कर, जैन मुनिपनकी दीक्षा ले ली और अन्तमें कठोर तपश्चर्या करके मुक्तिमार्गको प्रस्थान किया । हम यहां पर यह सारी कथा न दे कर राजा श्रेणिकका भद्रा सेठानीके घर पर आनेका जो प्रसंगवर्णन जिनेश्वर सूरिने अपने ढंगसे किया है उसका सार देते हैं - Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि । ___ "अन्यदा राजगृहमें दूर देशसे रत्नकंबल बेचने वाले बनिये आये । उन्होंने वहांके महाजनोंको कंबल बताये । महाजनोंने पूछा इनका दाम क्या है ? तो उन्होंने कहा 'एक-एककी कीमत एक-एक लाख है।' 'बहुत महंघे हैं। ऐसा कह कर किसीने नहीं लिया । वे राजमहल में गये । श्रेणिक राजाको दिखाये लेकिन बहुत महंधे होनेसे उसने भी न लिये । रानी चेल्लनाने राजासे कहा कि 'मेरे लिये तो एक लो।' परंतु राजाने न चाहा । बनिये वहांसे चले गये । घूमते फिरते वे भद्राके घर पर पहुंचे तो उसने देख कर वे सब ले लिये और मूल्य चुका दिया। रानी चेल्लना राजाके कंबल न ले देने पर रुष्ट हो गई । राजाने उन बनियोंको फिर बुलाया तो उन्होंने कहा गोभद्र सेठकी पत्नी भद्राने हमारे सब कंबल खरीद लिये हैं। राजाने फिर अपने एक प्रधान पुरुषको उसके वहां भेजा और कहलाया कि कीमत ले कर एक कंबल मेरी रानी चेल्लनाके लिये देना । भद्राने कहा- 'महाराजके साथ हमारा क्या व्यापार-व्यवहार ? बिना ही मूल्यसे कंबल दिया जा सकता है। परंतु वे सब कंबल तो मैंने अपनी पुत्रवधुओंको, पलंगके नीचे, पांव पौंछनेके लिये, डाल रखने को दे दिये हैं। बहुत समयके बने होनेसे उनमें कीडोंने कुछ धागे निकाल दिये हैं और इस लिये उनसे बहुओंके कहीं पांव न छिल जायँ इस डरसे उनके 'पायपोंछ' भी नहीं बनाये गये । महाराजका यदि उनसे कुछ काम निकल सकता हो तो, आज्ञा होने पर समर्पण कर दिये जायंगे ।' राजासे यह निवेदन किया गया । वह सुन कर प्रसन्न हुआ - अहो ! मैं कृतार्थ हूं जिसके प्रजाजनोंमें ऐसे वणिग् लोक हैं । मुझे देखना चाहिये कि कैसा उनका समृद्धिविस्तार है । प्रधान पुरुषोंको भेज कर राजाने शालिभद्रको मिलने बुलाया तो सेठानीने कहलाया कि 'महाराज, ऐसी आज्ञा न करें । शालिभद्रको आज तक चंद्र-सूर्यके भी कमी दर्शन नहीं हुए । महाराज, कृपाकरके मेरे घर पर पधारें ।' राजाने स्वीकार किया । भद्राने कहलाया मैं जब महाराजको बुलाऊं तब आवें । उसके बाद उस सेठानीने [ राजाके आगमनके स्वागत निमित्त तैयारियां की ] राजमहलके सिंहद्वारसे लेकर अपने घर तकके राजमार्गको सजानेकी व्यवस्था की । पहले बडी लंबी लंबी बल्लियां खडी की। उन पर आडे वांस डाले । उन पर वांसकी खपाटें रखीं और उनको सणकी दोरियोंसे (सूतलीसे ) खूब कसकर बांधीं। उन पर खसकी टट्टियां बिछाई गईं । उनके नीचे द्रविडादि देश (मदुरा ?) के बने हुए मूल्यवान् वस्त्रोंके चंदुए बांधे गये । हारावलियोंको लटका कर कंचुलियां बनाई गई । जालियां बनाकर उनमें वैडूर्य लटकाए गये । सोनेके बने झुमके बांधे गये । पांचों वर्गों के मिले हुए तरह तरहके फूलोंसे आच्छादित पुष्पगृह बनाया गया । बीच-बीचमें जगह-जगह तोरण लटकाए गये । सुगन्धित जलका जमीन पर छटकाव किया गया । पद-पद पर कालागुरु आदि धूपसे महकती धूपदानियां रखी गई । सर्वत्र पहरा देनेके लिये शस्त्रधारी पुरुष नियुक्त किये गये। जगह-जगह मंगलोपचार करनेवाली विलासिनी स्त्रियों द्वारा, गीत वादित्र आदिके साथ, नाटकादिका प्रबन्ध किया गया । इस प्रकार की सब सजावट करके, फिर अपने प्रधान पुरुष भेज कर सेठानीने महाराजाको, उचित परिजनोंके साथ, आनेका आमंत्रण मेजा। राजा श्रेणिक, रानी चेल्लणाके साथ पालकीमें बैठ कर सुभद्रा सेठानीके घर पर जाने निकला । रास्तेमें राजमहलोंके सिंहद्वारसे ले कर सेठानीके घरके द्वार तक जो कुछ सजावट की गई थी उसे रानी चेल्लनाको बताता हुआ, राजा सेठानीके घर पहुंचा। वहां उसका मंगलोपचार द्वारा खागत किया गया । कोठीके अंदर प्रवेश करते हुए उसने पहले तो दोनों तरफ बनी हुई, अच्छे-अच्छे प्रकारके घोडोंकी घुडशाल देखी। उसके बाद शंख और चामरोंसे अलंकृत ऐसे हाथी और हाथीके बच्चोंके समूहको देखा । भवनमें Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनेश्वरीय ग्रन्थों का विशेष विवेचन - कथाकोश प्रकरण । ७७ प्रवेश करने पर, पहली मंज़िलमें कीमती चीजोंके भंडारको देखा । दूसरी मंजिल में दास और दासी जनोंके खाने-पीनेकी सामग्री और रहनेकी व्यवस्था देखी । तीसरी मंजिलमें स्वच्छ और सुन्दर वस्त्रोंसे सज्जित रसोई बनानेवाले पाचक जनोंको, नाना प्रकारकी रसोईकी तैयारी करते देखे । वहीं एक तरफ, पानकी थैली रखनेवाले नोकर जनमें से कोई सुपारी कतर रहेथे तो कोई पानका बीडा बनाकर उनमें केसर कस्तूरी और घनसारके सुवासित पुट लगा रहे थे । चौथी मंजिल में सोने-बैठने और भोजन करनेकी शालाएं (दालान ) और उनके पासके अपवरकों ( ओरडों = कोठों ) में नाना प्रकार के भांडागार देखे । वहीं पर राजाके बैठनेका आसन बिछाया गया । सुखासन पर बैठते हुए राजाने पूछा - 'शालिभद्र कहां है ? ' सेठानीने कहा - 'महाराज, जितनेमें आपका स्वागतोपचार हो जायगा उतनेमें वह भी आ जायगा । इसलिये महाराज स्नान - भोजनादिके करनेकी कृपा करें ।' राजाने सेठानीके उपरोधसे वह प्रस्ताव स्वीकार किया । रानी चेलनाको एक चित्र-विचित्र मंडपमें बिठाई गई । वहां पर विलासिनी स्त्रियोंको बुलाई गईं और उनको सुगंधित ऐसे निर्माल्य की सामग्री दी गई। उन्होंने रानीका अभ्यंग और उद्वर्तन आदि किया । वैसे ही राजाके लिये किया गया। बाद में वे पांचवीं मंजिलपर चढे । वहां उन्होंने सब ऋतुओंमें खिलनेवाले फूलों से लदे हुए पुन्नाग, नाग, चंपक आदि सेंकडों ही प्रकारके पुष्पवृक्ष और लताओंसे संकुल ऐसा, नंदनवन के जैसा, सुन्दर कानन ( बगीचा ) देखा । उसके मध्य भागमें एक क्रीडा - पुष्करिणी ( स्नानकरने की जलवापिका) देखी, जिसके उपरका भाग ढंका हुआ हो कर कहीं पर चंद्र-सूर्यका प्रकाश भी बिल्कुल नहीं दीख पडता था; परंतु आस-पास भीतोंमें, स्तंभों में और छज्जोंमें लगे हुए पांचों प्रकारके रंग फैलानेवाले रत्नोंके प्रकाशसे जो चकचकित हो रही थी । किलीका ( नटबोल्ट ) के प्रयोगद्वारा जिसका पानी अन्दर लिया जाता तथा बहार निकाला जाता था । चंद्रमणिसे जिसकी आसपासकी वेदी बनाई गई थी। चारों तरफ तोरण लगे हुए थे और इस तरह वह देवताओंके लिये भी प्रार्थनीय वस्तु थी । राजा अपनी रानीके साथ उसमें नहानेके लिये उतरा । उसके जलके तरंगों के हिल्लोलोंसे कमी रानी अपने स्तनके भारको न संभाल सकनेके कारण खींच कर राजाकी तरफ चली जाती थी और कभी राजा मी देवीके उछाले हुए पानीके धक्कोंसे खींच कर रानीकी तरफ चला आता था । राजाके ऊछाले हुए पानीके जोरसे कभी रानीका उत्तरीय वस्त्र खिसक कर उसके नितंबोंसे लिपट जाता था और फिर कभी वहां से हट कर स्तनोंसे चिपक जाता था । कभी राजा रानीको कमल कोरकों से आहत करता था तो कमी रानी राजा को । फिर राजाने एक दफह पानीको ऐसे जोरसे ऊछाला कि जिसके धक्को न सह सकनेके कारण रानी उत्रस्त हो कर एकदम राजाको आ कर लिपट गई । इस प्रकार अच्छी तरह जलक्रीडा करके वे दोनों फिर स्वस्थ हुए । इस जल क्रीडा के समय राजाकी अंगुलीमेंसे एक बहुमूल्य मुद्रिका गिर कर पानी में पड गई । राजा इधर-उधर पानीमें देखने लगा, पर पता नहीं लगा । फिर भद्रासे पूछा कि इस मुद्रारत्नका कैसे पता लगेगा ? भद्राने अपनी दासीसे उस क्रीडा वापीके पानीको निकलवा कर, एकदम खाली करवाई तो उसमें एक जगह कोयले से रंगसे काला पडा हुआ वह मुद्रारत्न राजाको दृष्टिगोचर हुआ । राजाने तुरन्त हाथ डाल कर उसे ऊठाना चाहा, तब भद्राने कहा 'देव, बहुओंके निर्माल्यसे यह मुद्रिका मैली हो गई है; आप इसको न छुए।' फिर उसने अपनी दासीको आज्ञा दी कि मुद्रिकाको अच्छी तरह साफ़ कर महाराजाको समर्पण करे । राजाने रानीके मुंहकी ओर देखा और कहा 'तुम बनियोंकी बहुओंके प्रायपोंछके रूपमें काममें आते हैं वे मुझे ओढनेको मी नहीं कहती थीं कि जो कंबल मिलते ! । यह देखा, Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि । ऐसा कैसे कर सकती हो ? राजा फिर पुष्करिणीमेंसे बहार निकला । फिर उसके शरीर को साफ करनेके लिये सुगंध काषायित चीजें उपस्थित की गईं । गोशीर्ष आदि विलेपनकी वस्तुएं लाई गईं । फिर पहरने के लिये बहुमूल्य वस्त्र समर्पित किये गये । इस समय सूपकार ( मुख्य रसोईया ) ने निवेदन किया कि - 'महाराज, चैत्यपूजाका अवसर हो गया है ।' तब वे फिर चौथी मंजिल पर उतर आये । वहांका चैत्यभवन खोला गया । उसमें मणि, रत्न, सुवर्ण आदिकी बनी हुई जिनप्रतिमाएं देखीं । राजाने मनमें कहा - अहो यह धन्य है जिसके यहां इस प्रकारकी चैत्यकी सामग्री है । उसको पूजाके उपकरण दिये गये । नाना प्रकारके पूजोपचार के साथ उसने चैत्यवंदन किया | फिर वह भोजनमंडपमें बैठा । पहले दाडिम, द्राक्षा, दंतसर, बेर, रायण आदि चर्वणीय पदार्थ उपस्थित किये गये, जिनमेंसे यथायोग्य ले कर राजाने अपना प्रसादभाव प्रकट किया। इसके बाद ईखकी गंडेरी, खजूर, नारंग, आम आदि चोष्य चीजें हाजर की गईं। उसके बाद, अनेक प्रकारके अच्छी तरह से तैयार किये गये चाटनयोग्य लेह्य पदार्थ लाये गये । फिर अशोक, वट्टीसक, सेवा, मोदक, फेणी, सुकुमारिका, घेवर आदि अनेक प्रकारके भोज्य पदार्थ पिरोसे गये । बादमें सुगन्धीदार चावल विरंज आदि लाये गये। फिर अनेक प्रकारके द्रव्योंके मिश्रण से बनाई हुई कढी रखी गई । उनका आखाद कर लेने पर वे भाजन ( वर्तन ) ऊठाये गये । पतगृह ( धातुकी कुंडी ) में हाथ धुलवाये गये । फिर नाना प्रकारकी दहीकी बनी हुई चीजें उपस्थित की गईं, जिनका यथोचित उपभोग किया । फिर वे भाजन ऊठाये गये और हाथ साफ कराये गये । बादमें आधा ओंटा हुआ दूध जिसमें शक्कर, मधु और केसर आदि डाले गये थे, दिया गया । उसके बाद आचमन कराया गया । दाँत साफ करनेके लिये दन्तशलाकाएं दी गई । दाँतोंको निर्लेप करनेके निमित्त सुगंधि उद्वर्तन रखा गया । किंचिदुष्ण पानी द्वारा फिर हाथ धुलाये गये, जिससे अन्नादिकी गन्ध चली गई। फिर हाथों को मलनेके लिये सुगन्ध काषायित वस्तुएं उपस्थित की गईं । वहांसे ऊठ कर फिर राजा एक दूसरे मंडपमें जा कर बैठा । वहां पर विलेपन, पुष्प, गन्ध, माल्य और तांबूल आदि चीजें दी गईं । मनोरंजनके लिये विदग्ध ऐसे गायनों द्वारा वादन आदिकी सामग्री साथ, प्रेक्षणक ( नाटकादि नृत्य वगैरह ) का प्रारंभ हुआ । राजाने कहा 'शालिभद्रको देखना चाहते हैं ।' भद्रा बोली - 'आ जायगा ।' वह फिर उपर छठवीं मंजिलमें गई । शालिभद्रने, मांको आती देख खडे हो कर, स्वागत किया । पूछा - 'मां ! आप क्यों आई हैं ?' मांने कहा - 'बेटा, चौथी मंजिल पर चलो, श्रेणिक को देखो ।' शालिभद्रने कहा - 'मां यह तो सब तुम ही जानती हो कि महंगा है या सोंगा है । जैसे ठीक लगे ले लो ।' मांने कहा- 'जात, वह कोई किराना = माल नहीं है, किंतु तुम्हारा स्वामी राजा श्रणिक है । वह तुझको देखनेकी उत्कंठासे घर पर आया है ।' सुन कर शालिभद्र आश्चर्यान्वित हो कर बोला- 'मेरा भी कोई खामी है ?' फिर माताके आग्रह से वह नीचे उतरा । देवकुमार जैसे सुंदर खरूपवाले कुमारको देख कर राजाने उसे अपनी भुजाओंसे ऊठा लिया और फिर अपनी गोद में बिठाया । क्षणभर बाद ही माता भद्राने कहा कि - 'देव, इसे जानेकी आज्ञा दीजिये ।' राजाने पूछा - 'क्या कारण ?' भद्रा - 'देव, यह मनुष्योंके गन्ध माल्य आदिके गन्धको सहन नहीं कर सकता । क्यों कि प्रतिदिन इसको देवता ही दिव्य प्रकारके विलेपन, पुष्प, गन्ध आदि देते हैं; खानेके लिये भी वैसे ही दिव्य प्रकारके फलादि और पीनेका पानी भी वैसा ही उनके द्वारा आता है । एक बार पहने हुए वस्त्र फिर कभी दुबारा नहीं पहने जाते । अतः इसे जाने दीजिये ।' राजाने कहा - 'यह सब चेलना ( रानी ) नहीं Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनेश्वरीय ग्रन्थोंका विशेष विवेचन-कथाकोश प्रकरण। जानती है, इस लिये कहती है कि वणिक् स्त्रियां ऐसे पायपोंछ बनाती हैं और मैं जो राजाकी अग्रमहिषी हूं उसे वह ओढनेको भी नसीब नहीं । परंतु यह सब उस सत्कर्मका फल है जो पूर्व भवमें किया गया है । धन्य हो तुम पुत्र, ऊठो जाओ।' शालिभद्र ऊठकर अपने स्थान पर गया। राजा भी ऊठा और जानेके लिये अपनी पालकीमें जा कर बैठा । तब भद्रा सेठानीने कुछ बढिया जातिके घोडे और हाथीके बच्चे मंगवा कर राजाको भेंट किये । तब राजाने कहा - 'रहने दीजिये इन्हें यहीं; और भी जो कोई वस्तु आवश्यक हो मुझे उसकी सूचना देना ।' भद्राने कहा - 'देव, यह बात ठीक ही है । महाराज तो सबकी चिंता करनेवाले हैं । किंतु यदि आप मेरी इस तुच्छ भेंटका स्वीकार नहीं करेंगे तो मेरे चित्तको शान्ति नहीं होगी; इसलिये कृपा करके इसका खीकार कीजिये । फिर राजाके मंत्रियोंने कहा कि- 'देव, इसका स्वीकार करना उचित है ।' तब आग्रहवश हो कर उसने उसका ग्रहण किया और वह अपने स्थान पर गया। शालिभद्रकी कथामें जिनेश्वर सूरिका किया गया यह वर्णन, उस मध्यकालीन भारतीय सामाजिक स्थितिका एक ऐसा तादृश चित्र हमारे सामने उपस्थित करता है जो मानों आंखों देखा जा रहा हो । जिनको बड़े-बड़े धनवानों और राजा-महाराजाओं द्वारा आधुनिक एवं युरोपीय पद्धतिसे दिये जानेवाले भोजन-समारंभोंका कुछ अनुभव होगा वे इस वर्णनकी वास्तविकताका ठीक आभास प्राप्त कर सकेंगे। सिंहकुमार नामक राजकुमारकी कथाका सार जैसा कि हम वर्तमान समयमें भी कुछ ऐसे सामाजिक प्रसंगोंकी घटनाएं देखते हैं जिनमें अपनी प्रियतमा स्त्रीके निमित्त, कभी कोई युवराज और कभी कोई सम्राट भी, अपनी राजगादीका त्याग कर कहीं प्रदेशान्तरोंमें चले जाते हैं और सामान्य नागरिककी तरह अपना दाम्पत्य जीवन व्यतीत करते हैं। वैसी ही कुछ घटनाएं कभी कभी प्राचीन भारतमें भी होती रहती थी जिसका एक उदाहरणरूप कथानक भी जिनेश्वर सूरिने प्रस्तुत ग्रन्थमें निबद्ध किया है ।। ___ यह कथानक इस प्रकार है- सीहकुमार नामका एक राजकुमार है जिसका सुकुमालिका नामक एक बहुत ही सुंदर और चतुर राजकुमारीके साथ पाणिग्रहण हुआ है; और दोनोंमें परस्पर अत्यंत ही प्रेम और स्नेहका उद्रेक है । राजकुमार बडा धर्मिष्ठ है और देव-गुरुकी उपासनामें रत रहता है । एक दिन कोई विशिष्ट ज्ञानी धर्माचार्य आते हैं जिनको वन्दना करनेके लिये राजकुमार जाता है। धर्माचार्यको अतिशय ज्ञानी जान कर राजकुमार पूछता है कि- 'भगवन् , मेरे पर मेरी पत्नी सुकुमालिकाका जो अत्यंत गाढ अनुराग रहता है वह क्या यों ही खाभाविकरूप है या किसी पूर्व जन्मका कोई विशेष स्नेहसंबंध उसमें कारणभूत है ?' इसके उत्तरमें सूरिने उसके पूर्व जन्मकी कथा कह सुनाई; जो इस प्रकार है इस भारतवर्षमें कौशाम्बी नगरीमें एक सालिवाहन नामक राजा हो गया जिसकी प्रियंवदा नामकी महादेवी थी । उनका ज्येष्ठ पुत्र तोसली नामक था। वह बडा उत्कृष्ट रूपवान् एवं रतिविचक्षण हो कर युवराज पद पर प्रतिष्ठित था। उसी कौशाम्बीमें धनदत्त नामका एक सेठ रहता था जिसकी नन्दा स्त्री और सुन्दरी नामक पुत्री थी। वह सुन्दरी अत्यंत रूपवती थी, परंतु उसका ब्याह वहींके एक सागरदत्त नामक सेठके पुत्र जसवर्द्धनके साथ किया गया जो शरीरसे बहुत ही कुरूप था। इससे सुन्दरीको वह पसन्द नहीं पडा । उसके दर्शनमात्रसे ही वह उद्विग्न हो जाती थी तो फिर संभोग Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वरसूरि । आदिकी तो बात ही कहां । इस तरह उसकी रसिक मनोवृत्ति नारककेसे दुःखका अनुभव किया करती थी, परंतु कुलमर्यादाके अंकुशके नीचे दबी हुई और कहीं पर जाने-आनेके प्रसंगसे वंचित रहती हुई वह अपना जीवन यों ही व्यतीत कर रही थी। ___ किसी समय उसका पति जसवर्द्धन, अनेक प्रकारका माल इकट्ठा करके परदेशमें व्यापार करनेके लिये जानेको उद्यत हुआ, तो उसने अपनी पत्नी सुन्दरीसे भी साथमें चलनेके लिये आग्रह किया । लेकिन वह तो उससे बहुत ही निर्विण्ण थी । नाम भी लेना सुनना पसन्द नहीं करती थी तो साथमें जानेकी तो बात ही कैसी ? उसने कहा- 'मेरा शरीर बिल्कुल ठीक नहीं है । पेटमें शूल ऊठा करता है, खानेमें कभी रुचि नहीं होती है, खाया हुआ हजम नहीं होता है और निद्राका तो सर्वथा नाश ही हो गया है । ऐसी हालतमें मैं कैसे तुम्हारे साथ चलूं ? यदि रास्तेमें ही मेरी मृत्युकी अपेक्षा हो तो मैं चलनेकी तैयारी करूं? ।' यह सब बात उसके सासु-ससुरने सुनी तो उन्होंने अपने पुत्रसे कहा कि- 'बेटा, बहुको यहीं रहने दो और तुम जा कर कुशलपूर्वक जल्दी वापस आओ।' यों जसवर्द्धन परदेश गया . और सुन्दरी वहीं रही। उसके जाने बाद सागरदत्त सेठने सोचा- पतिकी अनुपस्थितिमें इस बहुकी रक्षा करना दुष्कर-कार्य है। यदि कोई खराब काम करती दिखाई दी, तो कुछ कहने-सुनने पर कलहका कारण बनेगा और जसवर्द्धन भी आने पर इसकी विप्रतारणा करेगा। इससे यह अपने पिता धनदत्तके घर पर रहे तो अच्छा है । सेठने यह परामर्श अपनी स्त्रीसे भी किया और उसने भी इस विचारको पसन्द किया। फिर सेठने सुन्दरीके पिता धनदत्तको इस वृत्तान्तसे ज्ञात किया और कहलाया कि 'बहु अपनी माँके पास रह कर औषधि वगैरहका उपचार करावें तो अच्छा है; इसलिये इसको वहां बुला ली जाय । धनदत्तने कहा'हमारे लाड-प्यारके कारण तो थोडासा कुछ कहने पर भी यह रुष्ट हो जायगी । और तुम तो इसके अभिभावक हो इसलिये कुछ कठोर वचन कहोगे तो भी कोई अनुचित नहीं समझा जायगा और हमको उसमें कोई आपत्ति नहीं होगी । इसलिये यह तुम्हारे घर पर ही रहे सो अच्छा है।' इस पर सागरदत्त सेठने उसके रहने-करनेका प्रबन्ध अपने घरके ऊपरकी मंजिलमें कर दिया । वह सदा वहीं रहती है । दासीयां उसको वहीं स्नान भोजनादि कराती रहती हैं और वस्त्र पुष्पादि देती रहती हैं। इस तरह उसका समय व्यतीत हो रहा है । एक दिन दर्पण हाथमें लिये हुए मकानके झरोखेमें बैठ कर वह अपने केस संवार रही थी। इतनेमें अपने कुछ स्नेहाल मित्रोंके साथ राजकुमार तोसली उसी रास्तेसे हो कर, कहीं जानेको निकला । सुन्दरी और राजकुमारकी परस्पर दृष्टि मिली और एक-दूसरेकी ओर दोनोंके मनका आकर्षण हो कर अनुराग उत्पन्न हुआ। अपने मित्रके मुँहकी ओर देखते हुए राजकुमारके मुँहसे यह एक पुराणा सुभाषितरूप उद्गार निकला ___अनुरूप गुण और अनुरूप यौवन वाला मनुष्य जिसके पास नहीं है। उसके जीनेमें भी क्या स्वाद है-वह तो मरा हुआ ही है । ___ इसको सुन कर, अपने शरीरके मरोडको दिखलाती हुई सुन्दरीने भी, वह सुन सके इस तरह प्रत्युत्तरमें कहा जो पुण्यहीन होता है वह प्राप्त हुई लक्ष्मीको भी भोगना नहीं जानता, जिनमें साहस होता है वे ही पसई लक्ष्मीका उपभोग कर सकते हैं। Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनेश्वरीय ग्रन्थोंका विशेष विवेचन - कथाकोश प्रकरण । राजकुमार उसके अभिप्रायको समझ कर अपने स्थान पर चला गया । वह सुन्दरी भी तोसलीके रूपसे मोहित हो कर और अपना हृदय खो कर बैठी रही । जब विकालवेला हुई तो उसकी सूहविया नामक दासीने आ कर उसको ब्यालू कराया और पुष्प-तांबूल आदि दे कर फिर वह अपने स्थान पर चली गई । सुन्दरी भी अपने कमरेके दरवाजेको बन्ध कर और झरूखेको खोल कर बिछानेमें बैठ गई। पहरभर रात्रिके जाने पर वह तोसली राजकुमार वहां आया और विद्युदुत्क्षिप्तकरण (बीजलीकी तरह लपक कर कहीं ऊपर चढ जानेकी कला ) द्वारा झरूखेमें चढ गया और चुपकेसे कमरेमें घुस कर अपने हाथोंसे सुन्दरीकी आंखें दबा लीं। उन दोनोंके बीचमें, फिर परस्पर स्नेहपूर्ण वार्ता-विनोद होता रहा और रति-विदग्ध राजकुमारके रति-विलाससे रंजित हो कर वह सुन्दरी उसके प्रति अत्यंत अनुरागवती हो गई । रात्रिके समाप्त होनेका समय आ जाने पर वह कुमार जैसे आया था वैसे ही पुनः अपने स्थान पर चला गया । सुन्दरी भी रतिक्रीडाके श्रमसे थकी हुई शय्यामें सूर्योदय होने तक सोई रही। सूह विया दासी समय पर दतवन-पानी ले कर आई तो उसने सुन्दरीको गहरी नींदमें सोई देखी । उसने मनमें सोचा जिसका पति परदेश गया हुआ है वैसी स्त्रीका इतने समय तक सोते रहना अच्छा नहीं है । वह चुपचाप वहीं बैठी रही । जब सुन्दरी बहुत देरके बात जगी और ऊठ कर बैठी हुई तो उसने पूछा- 'स्वामिनि, क्यों आज इतनी देर तक सोई रही?' सुन्दरीने कहा- 'पतिके वियोगमें सारी रात नींद नहीं आई, अभी अभी सबेरा होनेके समय कुछ आंख मिली।' दासीने पूछा- 'खामिनि, तेरे होठोंपर यह क्या हुआ है ?' सुन्दरी- 'शरदीके मारे फट गये हैं।' दासीने पूछा-'तेरी आंखोंमेंसे यह काजल कैसे गल रहा है ?' सुन्दरीने कहा-'पतिके वियोगमें रोना आ गया, इससे आंखें मलनी पडी।' दासीने पूछा- 'खामिनि, यह तेरे गालों पर, तोतेकी चांचसे लगे हुए जैसे क्षत काहेके हैं ?' सुन्दरी बोली-'पतिके विरहमें उसकी उत्कट याद आ जानेसे अपने आपको जैसे वैसे आलिंगन करनेके कारण कुछ हो गया होगा।' सूहवियाने कहा- 'मैं तेरे पास सोया करूंगी जिससे एक-दूसरेका आलिंगन किया करेंगे।' सुन्दरी बोली- 'छीः छीः, पतिव्रताके लिये यह अनुचित होता है।' दासीने पूछा- 'स्वामिनि, आज तेरा यह कबरीबन्ध बिखर कैसे गया ?' सुन्दरीने कहा- 'बहिन, तूं बडी चालाक है; कैसे कैसे प्रश्न पूछ रही है ? । पगली, भर्ताके अभावमें शय्या तपी हुई रेतीके टिंबेके जैसे लगती है । उसमें सारी रात इधरसे-उधर उथल-पुथल करते रहने पर कबरीबन्ध कैसा संवारा हुआ रहेगा ? । ऐसे ऐसे प्रश्न करके क्या तूं श्वशुरकुलका क्षय तो नहीं देखना चाहती?' सूह वियाने कहा- 'छीः छीः खामिनि, ऐसा मत समझ कि तेरे श्वशुरकुलका क्षय होगा, बल्कि इसकी तो परम उन्नति होगी।' ऐसा कह कर सूहविया चली गई । सुन्दरीने भी दूसरी रातको राजकुमार तोसलीके आने पर उससे कहा- 'यदि मेरा कहना करो तो कहीं दूसरी जगह चले चलो । क्यों कि जब मेरे श्वशुरको यह सब क० प्र० ११ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि । हाल मालूम होगा तो वह राजाको जा कर मिलेगा । राजा भी रक्षा करना चाहेगा । यदि वह तुमको जानेगा तो न मालूम क्या करेगा, इसलिये यहांसे निकल कर चले जाना ही अच्छा होगा।' तोसली कुमारने यह प्रस्ताव स्वीकार किया। उसने अपने मकान पर जा कर कुछ बहुत मूल्यवान रत्नादिक साथमें ले कर, दो अच्छे तेजवान् घोडे तैयार किये । एक अपने लिये और एक सुन्दरीके लिये । उसको झरूखेसे नीचे ऊतार घोडे पर बिठाई । राजकुमार स्वयं था इसलिये किसीने भी थाने आदिमें कहीं रोक-टाक नहीं की और वे शहरसे बहार निकल गये । चलते चलते दूरके राज्यान्तरमें कहीं किसी नगरमें जा कर ठहरे । वे दोनों घोडे बेच दिये और पानी भरने तथा रसोई आदि करनेके लिये एक दासीको रख ली और धान्य इंधन आदि लाने करनेको तथा घरकी चौकी करनेको एक नोकर रख लिया। इस तरह दोनों परस्पर अत्यन्त स्नेह और प्रेमभावसे अपना जीवन व्यतीत करने लगे । खभावसे वे दोनों बहुत दानप्रिय थे और खल्पकषायी (रागद्वेषादिकी मन्द भावनावाले ) थे । किसी समय उनके घर पर भिक्षाके निमित्त एक साधुयुगल आया । उसको उन्होंने बहुत ही सद्भावपूर्वक आहारदान दिया जिसके पुण्यसे अगले जन्ममें उत्तम मनुष्य अवतार मिला । वे ही तोसली और सुन्दरीके जीव तुम अब इस प्रकार सीहकुमार और सुकुमालिकाके रूपमें उत्पन्न हुए हो।' इत्यादि । पाठक इस कथाके वस्तु और घटनाके खरूपको पढ कर समझ सकते हैं कि जिनेश्वर सूरिने अपने समयके सामाजिक जीवनकी रीतियोंके चित्र किस प्रकार अंकित किये हैं । तत्कालीन समाजकी दृष्टिसे कुछ निंद्य और निम्न श्रेणिकी समझी जानेवाली ऐसी घटनाको भी कैसी सहानुभूतिपूर्वक शैलीमें उन्होंने आलेखित किया है यह भी खास ध्यान देनेलायक वस्तु है । धर्माधर्मविषयक मीमांसाकी दृष्टिसे इस कथाका विचार किया जाय तो जिनेश्वर सूरिके कथनानुसार तोसली और सुन्दरीका वह स्नेहपूर्ण सहचार, किसी प्रकारके पापकर्मका सूचक नहीं । लौकिक व्यवहारके नियमानुसार विवाह-संबन्धसे जुड़े हुए स्त्री-पुरुषके बीचमें परस्पर प्रेम और स्नेह नहीं है, और उसके निमित्तसे वे यदि एक-दूसरेसे पृथक् हो कर किसी अन्य व्यक्तिके साथ जुडकर अपना सांसारिक जीवन बिताना पसन्द करें, तो जैन सिद्धान्त उसमें धर्माधर्मका या पापपुण्यका कोई सम्बन्ध नहीं लगाना चाहता । जीवनके विकासकी दृष्टिसे- आत्माकी उन्नतिकी अपेक्षासे- उसमें कोई भी सम्बन्ध साधकबाधक नहीं है । ऐसे सम्बन्धका अच्छा-बुरापन केवल लौकिक दृष्टिसे- लोकव्यवहारकी प्रचलित रूढि व मान्यताकी दृष्टिसे- है, न कि पारमार्थिक अर्थात् आध्यात्मिक दृष्टिसे । इसलिये आधुनिक सामाजिक सुधारकी दृष्टिसे किये जानेवाले विधवा-विवाह किंवा लग्नविच्छेद विषयक विधानोंका और नियमोंका, अथवा साम्यवादकी नई नीति-व्यवस्थाका, जिसमें खेच्छापूर्वक स्वीकृत किसी स्त्री-पुरुषका सहचारखरूप दाम्पत्य जीवन वैधानिक माना गया है, जैन सिद्धान्तके तात्त्विक दृष्टिकोणसे, कोई हेयत्व या उपादेयत्व नहीं माना जा सकता। → जैन सांप्रदायिक विचारोंकी चर्चाका कुछ चित्रण - प्रस्तुत ग्रन्थमें जिनेश्वर सूरिने, प्रसंगवश कहीं कहीं तत्कालीन प्रचलित कितनीक जैन सांप्रदायिक रूढियों और अनुष्ठानोंका भी अच्छा चित्र आलेखित किया है और उनके विषयमें अपना खाभिप्राय व्यक्त किया है जो जैन संप्रदायके इतिहासके अध्ययनकी दृष्टि से विशेष मननीय है । उदाहरणके लिये पृ. ७८ से ८४ तकमें एक मनोरथ नामक श्रावकका कथानक है वह पठनीय है । Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनेश्वरीय ग्रन्थोंका विशेष विवेचन - कथाकोश प्रकरण । मनोरथ श्रावककी कथाका सार । चंपा नामक नगरीमें मनोरथ नामक एक श्रमणोपासक रहता है जो चैत्य और साधुगणकी पूजामें सदैव रत और साधर्मिकोंमें वात्सल्यवाला है । एक दिन पौषधशालामें बहुतसे श्रमणोपासक इकट्ठे हो गये और उनमें परस्पर, दानके देने न देनेके विषयमें निम्न प्रकारका वार्तालाप चल पडा । एक वीर नामक श्रावकने कहा- 'गृहस्थोंके लिये दान ही एक परम धर्म है ।' तब सिद्ध नामक श्रावक बोला- 'यह ठीक है । किंतु जो द्रव्य-भाव ग्राहकशुद्ध है वही दान मोक्षका कारण है ।' तब निनने कहा- 'कैसा दान द्रव्यशुद्ध कहा जाता है ?' सिद्धने कहा- 'उद्गमादि दोष रहित जो दान दिया जाता है वह द्रव्यशुद्ध है ।' इसपर वीरने पूछा- 'तो क्या देश-कालकी अपेक्षासे उद्गमादिदूषित दान शुद्ध नहीं होता ? क्यों कि आगममें तो कहा है कि 'जयणा' पूर्वक आधाकर्म आहार भी कभी लेना उचित होता है । इसलिये ग्राहकशुद्ध होना ठीक है, द्रव्यशुद्धिसे क्या मतलब है ?' इस पर पुन्नाने पूछा- 'ग्राहकशुद्ध किसको कहते हैं ?' ___वीरने उत्तर दिया- 'मूलगुण-उत्तरगुणसे विशुद्ध ऐसा जो साधु है वह ग्राहक कहलाता है । उसको जो दिया जाता है वह ग्राहकशुद्ध कहा जाता है । इसका जिक्र भगवती सूत्रमें है । उससे ज्ञात होता है कि - अशुद्ध दान भी शुद्ध ग्राहकको दिया जाय तो उससे बहुत निर्जरा होती है । इसलिये ग्राहकशुद्ध दान ही शुद्ध दान है ।' इस पर दुग्गाने कहा- 'अरे भाई, ऐसा मत कहो, जो दायकशुद्ध है वही शुद्ध दान है ।' तब चच्च बोला-'दायकशुद्ध कैसा होता है ?' दुग्गने उत्तर दिया- 'जो दाता परम श्रद्धासे देता है वह दायकशुद्ध है । ग्राहकशुद्धि और द्रव्यशुद्धिसे क्या मतलब है ? देखो, रात्रिमें सिंहकेशरकी याचना करनेवाला कैसे विशुद्ध ग्राहक हो सकता है, तो भी दायकशुद्धिके होने पर ग्राहकको केवल ज्ञान उत्पन्न हो गया था; और दाता भी बडी भारी निर्जराका भागी बना था । इसलिये दायकशुद्धिवाला दान ही मोक्षका कारण होता है।' इसपर मुग्ध नामक श्रावकने कहा- 'दायकशुद्धिके विना भी, ग्राहकशुद्धिके न होने पर भी, और द्रव्यशुद्धिके अभावमें भी, तुमने दानको मोक्षका कारण वर्णन किया है । इसलिये इसमें किसी प्रकारके विचारकी कोई आवश्यकता नहीं । जैसे तैसे भी दान मोक्षका निमित्त है।' राम बोला- 'अरे, ऐसा मत प्रलाप कर । इस तरह तो कार्पटिक और तटिक आदि हृष्टपुष्ट भीखमंगोंको दिया गया दान भी मोक्षका कारण कहना पडेगा ।' • मुग्ध बोला – 'इसमें जैन मतसे विरुद्ध क्या है ? दिया हुआ दान मोक्षका ही कारण होना चाहिये । नहीं तो फिर "जिन भगवान्ने कभी अनुकंपा दानका निषेध नहीं किया" ऐसा जो शास्त्रवचन है उसका क्या अर्थ होगा?' ___रामने कहा- 'छी: छीः, अरे महानुभाव इस तरह घोडेकी पूंछको बछडेको चिपकानेकी कोशिश न कर । सुन मैं तुझे एक लौकिक आख्यान इस विषयमें कहता हूं। Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि । रामका कहा हुआ लौकिक आख्यान । किसीएक देशके कोई नगरमें एक चतुर्वेदी ब्राह्मण रहता था। वह छात्रोंको वेद पढाये करता था। एक दफह किन्हीं छात्रोंने उससे कहा- 'हमको वेदान्त पढ़ाइये । वह उनकी योग्यताकी परीक्षा करनेके निमित्त बोला- 'उसके लिये तो कुछ क्रिया करनी पडती है ।' छात्रोंने पूछा- 'सो कैसी ?' उसने कहा'काली चतुर्दशीके दिन श्वेतवर्णके छाग ( बकरे )को मारना होता है; लेकिन ऐसी जगह पर, जहां कोई भी न देखता हो । फिर उसका मांस पका कर खाना चाहिये । बादमें वेदान्तका श्रवण करनेकी योग्यता प्राप्त हो सकती है।' इस बातको सुन कर, उनमेंसे एक छात्र श्वेत छागको ले कर काली चतुर्दशीकी रात्रिको गांवके बहार कहीं निर्जन स्थान पर गया और उस बकरेको मार कर, उपाध्यायके पास ले आया। उपाध्यायने समझ लिया कि यह अयोग्य है। इसमें कुछ भी विचार-शक्ति नहीं है। इससे उसको वेदका रहस्य कुछ नहीं बतलाया । एक दूसरा छात्र भी इसी तरह बकरेको ले कर एकान्त स्थानमें गया । लेकिन उसने कुछ विचार किया । देखा तो ऊपर आकाशमें टिग-मिग टिग-मिग करते हुए तारे मानों उसकी ओर ताकते हुए नजर आये । इससे वह शून्य ऐसे एक मन्दिरमें गया। सोचता है तो वहां भी वह देवताकी मूर्ति मानों उसे देख रही है ऐसा प्रतीत हुआ। बादमें वह फिर किसी एक शून्य घर (खण्डहर )में गया, तो वहां भी उसे विचार हुआ कि - मैं स्वयं इसे देख रहा हूं, यह बकरा भी मुझे देख रहा है; और जो कोई अन्तर्ज्ञानी पुरुष होगा वह भी इसे देखता ही होगा। फिर उपाध्यायने तो यह कहा है कि- “जहां कोई भी न देखता हो वहां इसे मारना" इससे इसका तात्पर्य तो यह मालूम होता है कि इसे न मारना चाहिये । इत्यादि । इस आख्यानके रहस्यसे यह बात समझनी चाहिये कि-दुःखितोंमें अनुकंपाभाव रखना ही अनुकंपादान है । और ऐसे दुःखित संसारवासी सब जीव हैं । इसलिये पृथ्वी आदि असंख्य प्रकारके जीवोंका विनाश करके आहार बनाना और उसको वैसे ग्राहकोंको दानरूपमें दे कर अनुकंपा करना संगत नहीं है । क्यों कि इसके लिये जो वे त्रस-स्थावर जीव मारे जाते हैं वे क्या अपने वैरी है ? और वे क्या अनुकंपाके योग्य नहीं है ? यदि ऐसा न होता तो भगवान् , जो कि एकमात्र परहितमें ही निरत थे, उन्होंने क्यों नहीं बावडी-कूएं-तालाव आदि बनवानेका उपदेश दिया । इस लिये परमार्थ भावसे सर्व सावध योगका त्याग है वही अनुकंपा दान है । वैसा त्याग साधुको ही होता है । श्रावकको तो वह देशमात्रसे होता है । इसलिये अपनी अपनी भूमिकाके उचित दीन आदि जनोंको ग्रास आदिका दान देना वह उचित दान कहलाता है । इसलिये सूत्रका अर्थ विचारपूर्वक करना चाहिये। ___ यह सुन कर, सिर हिलाते हुए जल्लने कहा – 'मैंने इन सब बातोंसे यह अर्थ समझा है, कि "किसीने, किसीको, कुछ नहीं देना चाहिये ।" जैसा कि छात्र-छाग न्यायसे सिद्ध होता है ।' ___ तब एक साल नामक और भाई बोला- 'अरे देवानुप्रिय, तूंने कुछ भी ठीक नहीं समझा है । कह तो यह तूंने कैसे समझा कि "किसीने, किसीको, कुछ नहीं देना चाहिये ?" - जल्लने जवाब दिया- 'द्रव्यशुद्ध तो कुछ भी नहीं है । क्यों कि अचिंतित ऐसा तो किसीको संभव होता नहीं । साधुको दान देना यह तो सभीको चिंतित ही होता है । और इसका तो तुम निषेध करते हो । दायकशुद्धि भी किसीकी नहीं होती । क्यों कि कहा तो यह है कि न्यायमार्गसे प्राप्त अन्नपानी आदि द्रव्यका दान ही द्रव्यशुद्धि कहलाता है । वह न्यायमार्ग हम जैसे कूट और कपट कर्मसे व्यवहार करनेवाले बनियोंके यहाँ कैसा । इसलिये हमारा दिया गया दान द्रव्यशुद्ध कैसे हो सकता है ।। Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनेश्वरीय ग्रन्थों का विशेष विवेचन - कथाकोश प्रकरण । ८५ यदि इसको द्रव्यशुद्धि मान भी लो, तो भी दायकशुद्धि कहां है ? क्यों कि दायकशुद्ध दान वह है जो निराशंस भावसे दिया जाता है । सो तो हममें है नहीं । सब कोई दाक्षिण्यता और आशंसा ( लाभाकांक्षा ) के भावसे दान देता है । दाक्षिण्यता जैसी कि - मुझे सभा में गुरुमहाराजने बुलाया था; आशंसा जैसी कि - परलोकमें मुझे सुख मिलेगा । इसलिये ऐसे दानमें कहां दायकशुद्धि रही । इसीतरह ग्राहकशुद्धि भी नहीं है । क्यों कि शास्त्रका कथन है कि एक भी शीलके अंगका नाश होने पर सभी शीलांगों का नाश होता है । आगममें कहा है कि - "मनसा आदि करणोंके भेदसे, आहारादि कारणमें, साता आदिको लक्ष्य करके, पृथ्वि आदिकमें, क्षांति आदि धर्मोंका विपर्यय न होना चाहिये” सो ऐसा होना श्रद्धामें नहीं बैठता । इसलिये ग्राहकशुद्धि भी कैसे कुछ हो सकती है ? । ' । - जलकी ये सब बातें सुन कर वहां बैठे हुए केका, पूना, धर्मा आदि बोल ऊठे कि – 'अरे ऐसा मत बोल । ऐसा कहने पर तो तूं मिध्यात्वी बन जायगा । क्यों कि शास्त्रविचारका विपर्यय करना ही तो मिथ्यात्व है । इसके सिवा विपर्यासके सिर पर कोई सींग थोडे ही नजर आते हैं । इसलिये तूंने यह सब बातें मिथ्यारूपसे कही हैं । इसकी आलोचना कर और प्रायश्चित्त ले, नहीं तो दुर्गतिमें जायगा इस पर वहां बैठे हुए दत्तने कहा- 'इस बात पर तो मुझे एक आख्यानक याद आ गया है जो सुनना चाहो, तो सुनाऊं ।' सबने कहा- 'हां हां, सुनाओ सुनाओ' - तब दत्तने निम्नगत आख्यान कहा । दत्तका कहा हुआ आख्यान । 1 एक गच्छ में पांच सौ साधु, और एक हजार साध्वियोंका परिवार था । साधुओं में कोई ऐसा ( असमर्थ ) नहीं था जो नित्यवास रहनेके योग्य हो । वे सब गुरुके साथ विचरा करते थे । आर्यिकाओं में कुछ ऐसी (वृद्धायें ) थीं जो किसी एक नगर में प्रायः स्थिर रूपसे रहा करती थीं। उनमें एक रज्जा नामक साध्वी थी जो गलत्कुष्ठा थी, इसलिये वह सबसे अलग एक दूसरे उपाश्रयमें रहती थी । इस तरह एकाकिनी रहने के कारण वह खिन्न रहा करती थी । एक दिन वह उन अन्य साध्वियोंके पास आई और यथायोग्य वंदनादि करके बैठ गई । तब उन आर्याओंने पूछा - 'महानुभावा तेरा शरीर कैसा है ?' तो उसने कहा - 'प्रासुक पानीके पीनेके कारण यह मेरा शरीर ऐसा हो गया है ।' उसकी बात को सुन कर उन आर्याओंके शरीर में कंप हो आया । 'इस प्रकारका प्रासुक पानीसे हमारा भी शरीर कहीं ऐसा न हो जाय । इसलिये हमें भी क्यों ऐसा पानी लेना चाहिये' - इस प्रकारकी चिंता उनके मनमें होने लगी । एक आर्याने सोचा- 'यह कथन ठीक नहीं है । क्यों कि तीर्थंकर भगवान तो सर्व भावों के स्वभावको जानने वाले हैं, परहितनिरत और विगतरागदोष हैं, सो वे कैसे इस लोक और परलोकमें प्रत्यवाय करनेवाली क्रियाका उपदेश कर सकते हैं ? इससे इसका कहना संगत नहीं मालूम देता ।' इस प्रकार उसके मनमें अत्यंत संवेगभाव उत्पन्न हो गया और उसके फलस्वरूप उसको केवल ज्ञानकी प्राप्ति हो गई । उसने फिर अपने ज्ञानसे यथास्थित वस्तुस्थितिको जान लिया और बोली कि - 'हला आर्याओ, तुम मत विचिंतित बनो । मैंने केवल ज्ञानसे जान लिया है और तुमको कहती हूं, कि तुमने जो मनमें यह विचारा है कि हमें प्रासुक पानी नहीं पीना चाहिये; इसके लिये तुम आलोचना करो और प्रायश्चित्त लो । और रज्जा, तूं इस प्रकार पानीका दोष निकालती हुई तीर्थंकरों की आशातना ( अवज्ञा ) करती है। इससे तो तूं अनंत भवों तक संसार में भ्रमण करेगी । तेंने धन्ना वणिक्के लड़के का मुंह जो सेडेसे भरा हुआ था, उसको साफ किया था और ठंडे ( कच्चे ) पानी से धोया था; Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि । इससे प्रवचन देवता तुझ पर कुपित हुई कि-ऐसा करके तुझने आर्याधर्मको लधुतासे दूषित किया है और अतएव तुझे इस दुष्कृत्यका फल मिलना चाहिये । इसलिये उसने तेरे आहारमें कुष्ठजनक योग (वस्तु) मिला दिया और उससे तेरा शरीर ऐसा हो गया । इसमें पानीका कोई दोष नहीं है ।' सुन कर सब आर्याओंने आलोचना की । रज्जाने पूछा - 'भगवती ! मैं भी शुद्ध हो सकती हूं ? ।' केवली (आर्या ) ने कहा- 'क्यों न शुद्ध हो सकती है, यदि कोई प्रायश्चित्त दे तो ।' इस पर वह बोली 'भगवती, आप खयं केवली हैं, तो फिर आपसे अधिक अन्य कौन समर्थ हो सकता है ?' केवलीने कहा - मैं भी दे सकती हूं, यदि शुद्धिके योग्य कोई प्रायश्चित्त देखू तो। किंतु तैंने जिस कुवचन द्वारा तीर्थकरकी आशातना की है और उससे जो कर्मबन्ध हुआ है वह तो किसी प्रायश्चित्तसे छूट नहीं सकता - वह तो अवश्य भोगना ही पडेगा।' इत्यादि । ___ इससे वह दत्त कहता है कि- 'हे महानुभावो, यदि यह बात सच जानो तो फिर क्यों कहते हो कि प्रायश्चित्त लो । इस कथानकके अनुसार तो इसके लिये कोई प्रायश्चित्त ही नहीं हो सकता । । तब जल्लने पूछा- 'इसमें तीर्थंकरकी क्या आशातना हुई है।' दत्तने कहा- 'सुनो, तुमने कहा कि कोई साधु नहीं है । भगवान् वर्द्धमान खामीने कहा है कि भारतवर्ष में दुप्पसह आचार्यपर्यंत चारित्र रहैगा । सो तुमारे कथनके मुताबिक भगवान मृषावाद बोलनेवाले हुए । और फिर जो ये धर्मा और केका आदि श्रावकजन, जिनकी इच्छा प्रव्रज्या लेनेकी हो रही है, इनके मनमें भगवानके वचनमें विपर्यासभाव पैदा होगा । जैसा कि तुमने कहा कि-एक शीलांगके माशसे सभी शीलांगोंका नाश होता है तो फिर प्रव्रज्या लेनेसे क्या फल मिलेगा। इससे ये प्रव्रज्याविमुख बनेंगे । ऐसे अनेकोंके प्रव्रज्याविमुख बनने पर शासनका विच्छेद होगा। जो प्रव्रज्याविमुख होंगे उनके मनमें कुविकल्प पैदा होनेसे वे मिथ्याभावको प्राप्त हो कर, अनन्त संसारमें परिभ्रमण करते रहेंगे। वे फिर उन अनन्त भवोंमें अनन्त जीवोंका नाश करते रहेंगे जिसका पाप कर्मबन्ध तुमको भी लगेगा। फिर तुमने यह भी कहा कि कोई श्रावक भी नहीं है । सो ऐसा सुन कर जिनके मनमें कुछ धर्मकी श्रद्धा उत्पन्न होती होगी वे समझेंगे कि यह धर्म तो खाली विटंबनाओंका सारमात्र है; इसलिये इसका पालना निरर्थक ही है । इस प्रकार न साधु होंगे, न श्रावक होंगे और ना ही फिर जैन शासन होगा । इसलिये इस प्रकारका कथन करते हुए तुम्हारे लिये, रज्जा आर्याके उदाहरणकी तरह, कैसा कोई प्रायश्चित्त हो सकता है ? ___ इन श्रावकोंकी ऐसी विचित्र तर्काभासवाली बातें सुन कर पास नामक श्रावक जो कुछ विशेष जानकार था, बोला- 'अरे महानुभावो, तुम कोई स्वाध्याय क्यों नहीं करते हो; तुमको इन विचारोंसे क्या प्रयोजन है ? क्यों कि शास्त्रके आदेशानुसार जो गीतार्थ नहीं है उन्हें न तो कोई देशना करनी चाहिये, न कोई वस्तुविचार करना चाहिये । वह युक्तायुक्त कथनको ठीक नहीं जान सकता । और फिर जानते हुएको मी धर्माभिमुख मनुष्योंको विघ्नकारक हो ऐसा कोई कथम नहीं करना चाहिये । केवल सूत्रमात्रके पढनेसे अथवा जाननेसे और अर्थागमकी उपेक्षा करनेसे कोई जानकार नहीं कहा जा सकता । तुमने जो शीलांगविनाश आदिकी बातें की हैं उनके बारेमें बहुत कुछ उत्सर्ग-अपवादरूप शास्त्र-उपदेश है। ___ इत्यादि बातें कहते हुए उस पास श्रावकने फिर बकुश-कुशील आदि साधुओंके भेद बतलाये । और कहा कि- वर्तमानमें इन्हीं साधुओं द्वारा धर्मका प्रवर्तन होता रहता है । इस लिये तुमको गुणग्राही बन कर, सार-असार विभागका चिन्तन करते हुए, गुणोंका पक्षपात करना चाहिये । यथाशक्ति उनकी भक्ति Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनेश्वरीय ग्रन्थोंका विशेष विवेचन - कथाकोश प्रकरण । 1 1 करनी चाहिये । क्यों कि आज भी हमें ऐसे कई साधु दिखाई देते हैं जो द्रव्य - आदिके प्रतिबन्धसे रहित हैं, यथाशक्ति दिनको भी स्वाध्याय करते हैं और विकथासे दूर रहते हैं । प्रायः समितियोंके पालनमें अप्रमत्त होते हैं, यथास्फुट जैनागमों के सारकी प्ररूपणा करते हैं और एषणासमितिपूर्वक आहारगवेषणा करते हैं । तो फिर ऐसा कैसे कहा जाय कि साधु नहीं हैं । इसलिये हे भाइयो, अन्यथाभाव न करना चाहिये । इसी तरह कई श्रावक भी शुद्ध दायक होते हैं । और यह जो कहा कि - सब कुछ चिंतित ही होता है, सो भी साधुओंके प्रत्यनीक ऐसे पापिष्ठोंका मिध्याभिनिवेश है । क्यों कि साधु विकाल समयमें तो आहारके लिये निकलते नहीं । और फिर क्या तुम्हारे घरोंमें, रसोई कर लेनेके बाद ऐसे मूग आदि नहीं बचते रहते हैं, जो गौ आदिको खिलाये जाते हैं ? | क्या बच्चों को सबेरे खिलानेके लिये, घरोंमें चावल आदि वघार कर नहीं रखे रहते ? और अपने घरों में विकालमें पकाए हुए मांड आदि जो हवादानमें रखे रहते हैं क्या तुम उन्हें नहीं जानते ! यह सब जानते हुए भी यह कैसे कहते, हो कि साधुओं को शुद्ध दान मिल ही नहीं सकता । ऐसा कहने से तो जो आधाकर्मादिक आहार ग्रहण करनेवाले शिथिलाचारी साधु हैं उनका स्थिरीकरण होगा, और जो उद्यत - विहारी हैं उनकी अवज्ञा होगी । वह अभव्य या दुर्भव्य ही कहलायेगा जो इस प्रकारके वचनों द्वारा साधुओंकी तरफ भक्तिभाव रखनेवालोंका श्रद्धाभंग करता है । भक्तिपूर्वक दान देनेवालोंको देख कर जो कोई शिथिलविहारी होता है वह भी आधाकर्मादिका ग्रहण करनेसे लज्जानुभव करता है । परंतु यदि, जो आधाकर्मादि ग्रहण नहीं करते हैं उनके लिये भी तुम्हारे जैसे ऐसा कहे कि वे ग्रहण करते हैं तो, फिर शिथिल - विहारी उलटा लज्जा छोड कर ही आधाकर्मादिके ग्रहण में प्रवृत्त होगा । इसलिये अनजानोंके सामने सर्वथा खुले मुंहसे केवल कर्मबन्धका ही कारण होनेवाला ऐसा विवाद न करना चाहिये । इस विषय में साधुओंके पास मैंने एक आख्यानक सुना है जो मैं तुम्हें सुनाना चाहता हूं । यह सुन कर वे सब बोले सुनाओ । तब पार्श्वश्रावकने यह कथानक कहा B पार्श्व श्रावकका कहा हुआ कथानक । yosरकिनी नगरी में एक पुण्डरीक राजा था और उसका छोटा भाई कण्डरीक युवराज था । वहां पर एक समय स्थविर (साधु) आए। दोनों भाई उन्हें वन्दन करने गये । धर्मोपदेश सुन कर वे अपने घर पर आये, तो राजाके मनमें उपदेश सुन कर विरक्तभाव हो आया । इसलिये उसने अपने छोटे भाईसे कहा - 'मैं दीक्षा लेना चाहता हूं, इसलिये यह राज्यभार तुम ग्रहण करो ।' युवराजने कहा- ' स्वयं ही दीक्षा लेना चाहता हूं । इसलिये राज्यका पालन तुम ही करो। तुम्हारे सिवा राज्यधुराको धारण करने योग्य और कोई नहीं है ।' यह सुन कर राजाको अपना विचार स्थगित रखना पडा । कण्डरीकने ast धामधूमके साथ दीक्षा ली । वह खूब तपस्या करने लगा । दो-दो दिन के उपवास नियमित रूपसे करते रहते, कुछ काल बाद उसे बडी भयानक खुजलीका रोग हो गया । धीरे धीरे वह रोग असह्य हो कर दाहज्वरके रूपमें परिणत हो गया । स्थविर फिर घूमते-फिरते उसी पुण्डरीकिनी नगरीमें आये और गांवके बहार उद्यानमें ठहरे । राजा और अन्य प्रजाजन वन्दन करनेको गये । स्थविरका धर्मोपदेश सुना । राजाने अपने भाईको रोगग्रस्त देख कर गुरुसे कहा - 'आप मेरी यानशालामें आ कर ठहरें; जिससे वैध, औषध और पथ्यादिके यथाप्रयोग द्वारा मैं कण्डरीककी परिचर्या कर सकूं ।' गुरुने स्वीकार किया । वे यानशाला में जा कर ठहरे । राजाने परिचर्या करानी शुरू की । रूक्षता के कारण वह रोग हुआ था इसलिये स्निग्धवस्तुओंके प्रयोग द्वारा उसकी प्रतिक्रिया प्रारंभ की गई । लक्षपाकादिकसे अभ्यंग कराया 612 Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૯૮ कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि । जाने लगा और नाना प्रकारके व्यंजनोंसे पूर्ण, उष्ण एवं स्निग्ध भोजन दिया जाने लगा । सोनेके लिये कोमल स्पर्शवाली शय्या बनाई गई । इन उपचारोंसे कुछ ही समयमें उसका शरीर ठीक हो गया । तब गुरु वहांसे विहार करनेका विचार करने लगे । परंतु कण्डरीक, वैसे परित्यागी हो कर भी आहारादिमें मूच्छित हो कर, वहांसे विहार करने की इच्छा नहीं रखने लगा । राजा उसके अभिप्रायको किसी प्रकार जान कर कहने लगा- 'धन्य हो भाई ! तुम, जो इस प्रकार स्नेहके बन्धनको छोड़ चुके हो और हम तुम्हारे विरह से कातर बने हुए हैं । तुम अपने गुरुके साथ विहार करनेको उद्यत हो रहे हो सो ठीक ही है; क्यों कि तुम्हारे जैसे परित्यागिको वही शोभा देता है । परंतु कभी कभी हमारा भी स्मरण करते रहना ।' यह सुन कर कण्डरीकने मनमें सोचा - 'भाई के मनमें तो मेरे विषय में ऐसी संभावना हो रही है । मैं इसे कैसे अन्यथा करूं ? इसलिये मुझे यहांसे विहार करना ही अच्छा है ।' यह विचार कर वह बोला'गुरुमहाराज जब विहार करना चाहते हैं तब मुझसे कैसे यहां पर रहा जा सकता है ?' सुन कर पुण्डरीकने कहा - 'सो तो तुम्हारे जैसोंके योग्य ही है।' इस प्रकारके उपाय द्वारा राजाने उसे वहांसे विहार करवाया ।" इत्यादि । पार्श्व श्रावक कहता है - 'इस प्रकार अन्य साधुको भी- जो कोई किसी प्रकारसे शिथिलमनस्क हो जाता हो तो - अनुकूल वचन द्वारा विश्वास उत्पन्न करके विहारकार्यमें उद्यत बनाना चाहिये । और जो कोई अपनी वाचालता दिखला कर प्रत्यनीक भावको प्रकाश करता है और कर्णकटु ऐसा असंबद्ध कथन सुसाधुके विषयमें करता है; तथा यथास्थित आगमको न जानता हुआ भी तद्विषयक विचारोंमें सिर मारता है, वह शान्तस्वभावी साधुओं में भी 'कुपितभावका' आविर्भाव करता है । इस प्रकार साधुओंके विषयके कुविचारोंको सुन कर अभिमुख जनोंको धर्ममें विघ्न होता है और साधुओंको असमाधि । साधुका अभ्याख्यान करनेसे जीवको दीर्घ संसारीभाव ( बहुत काल तक संसारमें परिभ्रमण करते रहनेका पापकर्म ) प्राप्त होता है; और ईसर की तरह अत्यंत दुःखका भागी बनता है ।' यह कथन सुन कर वे सब श्रोताजन बोले कि - 'भाई, वह कौनसा ईसर था, जिसने साधुका अभ्याख्यान करनेसे दीर्घसंसारित्व प्राप्त किया ?' इस पर पार्श्वने निम्न प्रकार ईसर की कथा कह सुनाई - पार्श्व श्रावकका कहा हुआ ईश्वरका कथानक । अतीत कालमें एक गांवमें एक आभीरपुत्र पास के किसी दूसरे गांवसे, किसी प्रयोजनके निमित्त अया । उस गांव में रातको एक तीर्थंकर मोक्ष प्राप्त हुए, इससे देवताओंने आ कर वहां उद्योत किया और विमानों से आकाशको आच्छादित कर दिया । आभीरदारकको यह दृश्य देख कर आश्चर्य हुआ और वह मनमें सोचने लगा, कि ऐसा मैंने कभी कहीं देखा है । इस प्रकार चिंतन करते हुए उसे जातिस्मरण ज्ञान हो आया । पूर्वजन्म में साधुधर्मका पालन करके वह मर कर स्वर्गमें गया था - - इसका साक्षात्कार उसे हुआ और उस जन्ममें ज्ञानका जितना अध्ययन किया था उसकी स्मृति हो आई । उसका मन फिर संविग्नभावको प्राप्त हो गया और उसने स्वयं पंचमुष्टि लोच कर सामायिक व्रत ले लिया । देवताने आ कर उसे साधुवेष उपकरण दे दिये । वह फिर एक विचित्र स्थानमें जा कर बैठ गया जहां लोगोंका समूह भी आ आ कर जमने लगा । वह उन लोगोंको धर्मोपदेश देने लगा । इस प्रसंग में, उस प्रसिद्ध गोशालक ( जो भगवान महावीरका शिष्य बन कर पीछेसे उनका प्रतिस्पर्धी धर्माचार्य बना था ) का जीव जो उस समय, ईसर नामसे कोई कुलपुत्रकके रूपमें अवतरित हुआ था, वह भी उस जनसमूहमें आ कर बैठ गया । उसने फिर उस प्रत्येकबुद्ध मुनिको पूछा, कि 'तुम्हारा जन्म Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनेश्वरीय अन्थोंका विशेष विवेचन - कथाकोश प्रकरण । कहांका है और किसके बेटे हो ?' वह साधु वीतराग था, मिथ्या नहीं बोलने वाला था। उसने कहा'मैं अमुक गांवके अमुक आभीरका पुत्र हूं।' इस पर ईसरने पूछा- 'किसके पाससे तुमने यह व्रत लिया है और किससे शास्त्र पढा है ?' साधुने उत्तर दिया- 'किसीसे नहीं, मैं प्रत्येकबुद्ध ( खयं दीक्षित) हूं।' यह सुन कर उस ईसरने लोगोंको उद्देश करके कहा- 'अरे, देखो तो सही, आभीरपुत्र हो कर और किसीसे कुछ न पढ कर, हमको ठग रहा है । तो क्या हम तुझसे भी हीन हैं जो तेरे पास धर्म सुनें । अरे, ऊठो, चलो, यह क्या जानता है ? । किसी गणधारीके पास चलें ।' साधु पर आक्षेप करनेवाले उसके वचनको सुन कर वहां बैठी हुई जनसभाको आघात हुआ । किं तु यह तो एक तुच्छ किंकर है, ऐसा सोच कर किसीने कुछ कहा सुना नहीं । सब चुप हो कर बैठे रहे । वह ऊठ कर, गांवमें जहां दूसरे गणधारी साधु थे वहां गया । वहां पर व्याख्यान चल रहा थाउसमें विषय आया, कि जो पृथ्वीकायका संघट्ट करता है उसको उस निमित्तसे होनेवाला कर्मबन्ध छ महिनोंकी वेदना भुगतने पर छुटता है, परिताप करनेवालेको बारह वर्षकी वेदना भुगतने पर और उपद्रव करनेवालेको लाख वर्ष तक वेदनानुभव करने पर छुटता है ।' यह सुन कर ईसर बोला - 'अहो साधुमहाराज, क्यों ऐसा आलजाल बोल रहे हो! तुम तो ऐसा कह रहे हो जिसे सुन कर कोई भिक्षा भी तुम्हें देनेके लिये तैयार न होगा । तुम स्वयं पृथ्वीपर चलते हो तो फिर कैसे संघट्ट या परिताप नहीं होता और मूत्र और विष्ठा करनेसे उपद्रव भी करते ही हो । इससे तो तुम अन्यथावादी और अन्यथाकारी सिद्ध होते हो । अरे भाइयो, ऊठो इसके पाससे, और जहां वह प्रत्येकबुद्ध उपदेश कर रहा है उसके पास चलो।' ऐसा कह कर वह वहांसे फिर उसी जगह गया। वहां भी उस समय उसी विषय पर व्याख्यान हो रहा था। तब ईसर बोला-'अहो महाराज, ऐसा अनाप-सनाप मत कहो । तुम आभीरपुत्र हो कर क्या जानते हो ? क्या पृथ्वी ऊपर चलते हुए तुम संघटन, परिताप, उपद्रवादि नहीं करते ? इससे तो तुम्हारी प्रव्रज्या ही निरर्थक है । सदैव पृथ्वीकायका संघटनादि जनित कर्म परलोकमें जा कर भोगना होता है । इसलिये तुम ठीक धर्मोपदेश करना नहीं जानते । अरे लोगो, ऊठो यहांसे और आओ मेरे पास । मैं स्वयं तुमको ऐसा अच्छा धर्मोपदेश सुनाता हूं जो सुखपूर्वक किया जा सके ।' ऐसा कहता हुआ वह दूसरी जगह जा कर बैठ गया और आने-जाने वाले लोगोंसे अपना मनःकल्पित उपदेश करने लगा। इस तरह उसके कहते हुए, धर्माभिमुख जनोंको विपर्ययभाव पैदा करते हुए, अभिनव धर्मियोंको सन्दहेशील बनाते हुए, दृढधर्मियोंको सविशेष कलुषितभाव उपजाते हुए और साधुओं पर अभ्याख्यान देते हुए उसने सातवीं नरकका आयुष्य उपार्जन किया । इतनेमें भवितव्यताके वश उसके सिरपर बीजली पडी और मर कर वह सातवीं नरकमें गया। इसलिये हे भाईयो, ऐसे विचारोंसे कोई मतलब नहीं है । साधुजनोंकी निन्दा करनेसे निश्चित रूपसे दुर्गति होती है । इस कथनको सुन कर, उन सब श्रावकोंको संवेगभाव हो आया और वे सब बोले कि 'भाई, तुमने जो कहा है सो सही है ।' ___ इस अवसर पर मनोरथने कहा - 'जो मन्दभाग्य होते हैं उन्हींको ऐसे असद् विकल्प हुआ करते हैं । जो ऐसा कहते हैं कि साधुओंको अचिंतित कैसे प्राप्त हो सकता है? - सो सुनो, तुम जानते ही हो कि मेरी दुकान पर रोज सेंकडों घडे घीके लिये-दिये जाते हैं और बेचे जाते हैं; सेंकडों मन गुड-खांडका लेन-देन होता है; सेंकडों ही गांठे कपडेकी ली-दी जाती हैं और हजारों ही कंबल खरीदे और बेचे क० प्र० १२ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि। जाते हैं। ऐसे कारोबारवालेके वहां साधुओंको कोई वस्तु लेनेमें कैसे कोई अनेषणीय दोष लग सकता है। इसलिये भाईयो, आज मैं तुम्हारे सामने यह अभिग्रह लेता हूं कि जितने भी साधु इस चंपानगरीमें विहार करते हुए आयेंगे उन सबको मैं घी, गुड, वस्त्र और कंबल, जितनी मात्रामें आवश्यक होंगे उतने दूंगा, तब तक कि वे अपनी अनिच्छा प्रकट नहीं करेंगे। इस प्रकारका अभिग्रह करते हुए उसने अपने विशुद्ध परिणामोंके कारण वैमानिक जातीय उच्च कोटिके देवभवका आयुष्य कर्म उपार्जित किया। ऐसी प्रतिज्ञा ले कर वह फिर प्रयत्नपूर्वक साधुओंके आगमनकी प्रतीक्षा करता रहा परंतु उन दिनों वहां कोई साधु आये गये नहीं और उसके अभिग्रह की सफलता हुई नहीं। इसी बीचमें फिर उसकी मृत्यु हो गई । अपने शुभ परिणामके कारण मर कर वह ईशान देवलोकमें इन्द्रत रूपमें उत्पन्न हुआ। वहांसे च्युत होने पर महाविदेहमें जन्म ले कर मोक्ष प्राप्त करेगा।' इस कथानकगत वर्णनसे पाठकोंको इसका कुछ परिज्ञान भी होगा कि उस समयमें जैन श्रावकोंके बीचमें सामान्य चर्चाके कैसे कैसे विषय होते थे और किस तरह वे परस्पर विचार-विनिमय किया करते थे। इस कथासे यह भी ज्ञात होगा कि उस समयमें भी श्रावकोंमें ऐसा एक वर्ग था, जो वर्तमानकी तरह, साधुओंके आचार-विचारोंके विषयमें शंका-कुशंकाएं किये करता था तथा शास्त्रोक्त आचारके पालनके वारेमें सन्देहशील रहता था । साधुओंके धर्मोपदेशका प्रधान लक्ष्य भी या तो शास्त्रों की चित्र-विचित्र बातोंका वर्णन कर लोगोंको बुद्धिवादसे विमुख कर श्रद्धाजीवी बनानेका होता था, या साधुओंकी विद्यमान स्थितिका समर्थन कर उनकी तरफ श्रावक जनोंका भक्तिभाव बढानेका होता था। जिनेश्वर सूरिने इस कथाकोशमें, उक्त कथाके अतिरिक्त साधुओंकी श्रद्धापूर्वक भक्ति-उपासना करनेसे और उनको अन्न-वस्त्रादिका दान देनेसे परजन्ममें कैसा पुण्यफल मिलता है तथा इसके विपरीत साधुओंकी निन्दा जुगुप्सा करनेसे एवं उनपर दोषारोपण करनेसे कैसा पापफल मिलता है- इसके वर्णनमें और भी कई कथानक आलेखित किये हैं। इनमें कई कथानक तो कथा-वस्तुकी दृष्टिसे और सामाजिक नीतिरीतिके दृष्टि से भी अच्छे मनोरंजक तथा हितबोधक है । जैनधर्मका यह सिद्धान्त है कि मनुष्यका कोई भी कृत्य या कर्म केवल उसके बाह्य क्रियाकलापके खरूप परसे ही शुद्ध या अशुद्ध नहीं समझा जाता । उस कृत्य या कर्मके पीछे करनेवालेकी जो मनोवृत्ति होती है वही उसके शुद्ध-अशुद्ध भावकी सर्जक होती रहती है । लोकव्यवहारकी दृष्टिसे बहुत कुछ दान-धर्म करनेवाला मनुष्य भी अन्तरंगके शुद्ध भावके बिना कुछ पुण्यलाभ नहीं कर सकता । इसलिये प्रस्तुत ग्रन्थमें, ग्रन्थकारने दान देने वाले और दान लेने वाले अर्थात् दाता और ग्राहकके आन्तरिक और बाह्य ऐसे शुद्धाशुद्ध भावोंका तथा कर्मोंका, शुभाशुभ फल बतलानेके लिये अनेक कथानकोंका गुम्फन किया है। ऊपर लिखे गये मनोरथके कथानकमें यह बतलाया गया है कि उसने किसी वस्तुका दान न दे कर भी, केवल अपने दानशील मनोभावके कारण, उच्च प्रकारका देवजन्म प्राप्त किया। अगले एक कथानकमें यह बताया है कि बहुतसा दान दे कर भी, मनकी संकुचितताके कारण, एक यक्ष नामका श्रावक उत्तम प्रकारके फलसे वंचित हुआ । ___ यह कथानक आध्यात्मिक भावसूचक हो कर भी खरूपसे मनोरंजक है इसलिये पाठकोंके निदर्शनार्थ इसका सार भी दे देते हैं । कथानक इस प्रकार है Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनेश्वरीय ग्रन्थों का विशेष विवेचन-कथाकोश प्रकरण । यक्ष श्रावकका कथानक । इस भारतवर्षके वसंतपुर नामक नगरमें यक्ष नामका एक श्रमणोपासक साधुओंको शुद्ध ऐसे भक्त पानादिका दान करता हुआ रहता था । एक दिन, तपसे जिसका शरीर कृश हो गया है, केशलोचसे जिसका मस्तिष्क शुष्क चर्म हो गया है और जलादिक संस्कारके अभावके कारण जिसका देह. विवर्ण हो गया है ऐसे अनगार तपस्सीको, भिक्षाके निमित्त अपने घरकी तरफ उसने आते देखा। उस मुनिका नाम सुदत्त था । यक्ष उसे आते देख, एकदम ऊठ खडा हुआ और घीसे भरा हुआ भाजन ले कर श्रद्धापूर्वक उसे देनेको तत्पर हुआ । सुदत्त मुनि अन्तर्ज्ञानी था। उसने यक्षके श्रद्धाशील मनोभावकी तर-तमताका चिन्तन करते हुए मनमें पर्यालोचन करना शुरू किया, कि ऐसे श्रद्धाशील जीवका कैसा आयुष्यबन्ध होता है । यक्ष बडी भक्तिसे उसके पात्रमें घी डालने लगा। पात्र पूरा भर गया, तो भी साधु अपने मनोविचारमें मग्न होनेके कारण, 'बस, भाई बस करो' आदि कुछ नहीं बोला । यक्ष घी डालता ही रहा और पात्रके भर जाने पर वह फिर उसमेंसे बहार निकल कर नीचे गिरने लगा। इसे देख कर यक्षका मन विचलित हो गया । वह सोचने लगा - यह साधु कैसा प्रमत्त है जो 'बस भाई अब बस कर' आदि कुछ नहीं बोल रहा है । इसको यह दान देनेसे क्या फल है ? । ज्यों ज्यों इस प्रकारका विचार उसके मनमें उग्र होता जा रहा था, त्यों त्यों उसका पूर्वमें बन्धा हुआ शुभ आयुष्य भी क्षीण होता जा रहा था और वह अपने उच्च भावोंसे नीचे गिरता चला जाता था। उसकी उस मानसिक क्रियाको जान कर साधुके मुंहसे यह शब्द निकल गया कि 'अरे भाई नीचे मत गिर !' सुन कर यक्षने कहा 'यह साधु तो उन्मत्त मालूम देता है जो गिरते हुए घीको रुकने का कहता है ।' साधुने भी घी शब्दको सुन कर उसकी तरफ ध्यान दिया और जमीन पर गिरते हुए उस घीको देखा । वह बोला- 'मिथ्या मे दुष्कृतम्' (मैंने जो दुष्कृत् किया उसके लिये खिन्न हूं) अहो, घी दुल गया !' तब यक्षने कहा'इतनी देर कहां गया था जो अब 'मिच्छामि दुक्कड' दे रहा है ? तूंने घीको गिरनेके लिये टोंका, लेकिन यह न रुका । घी कोई थोडी ही आज्ञाधीन वस्तु है जो रुकजानेकी आज्ञा सुन कर बन्ध हो जाय ।' साधु सुदत्तने कहा- 'अरे भाई, क्यों ऐसे उल्लंठ वचनसे अपनी आत्माको ठगता है । यह तो तेरे लिये और भी फोडे पर फुनसी जैसा हो रहा है ।' सुन कर यक्षने मनमें सोचा 'यह साधु क्यों ऐसी असम्बद्ध बात बोल रहा है ? और फिर बोला 'भगवन् , यह आपका सरोष वचन है ।' तब साधुने कहा-'मेरे मनमें न पहले, न वर्तमानमें और न बादमें कोई रोष होसकता है । जैसा मैंने देखा वैसा कहा है। तब यक्षने विनम्र हो कर कहा 'भगवन् , बताइए यह क्या बात है ?' तब मुनिने कहा- 'जब मैं तेरे घरमें मिक्षाके लिये प्रविष्ट हुआ तब ज्ञानसे तेरे मनोभावोंका पर्यालोचन करनेमें एकाग्र हो गया । मैंने ज्ञात किया कि तूं विशुद्ध परिणामके कारण, प्रतिक्षण उच्च-उच्चतर देव योनिका आयुष्यबन्ध उपार्जन कर रहा है । इस विचारनिमग्नतासे मैं घीकी तरफ खयाल न कर सका । जब घी नीचे गिरने लगा तब तेरे विचार भी फिरने लगे और तूं मनकी विपरिणामताके कारण उस उच्च देवायुष्यबन्धसे च्युत होने लगा। तब मैंने तेरे परिणामोंको लक्ष्य करके यह कहा कि 'नीचे मत गिर !' जब तैंने उल्लंठ वचनका प्रयोग किया था तब तूं भ्रष्टदर्शन ( श्रद्धानसे पतित) हो कर, तिर्यंचयोनिके योग्य आयुष्यबन्धका भागी हो रहा था । इसलिये मैंने कहा 'यह तो फोडे पर फुनसी जैसा हो रहा है; क्यों कि एक तो तेरा देवायुष्यबन्ध मष्ट हो गया और फिर उस पर यह नीच कोटिका तिर्यंचायुष्यबन्ध तूं उपार्जन कर रहा है । इसीलिये यह फोडे पर फुनसी जैसा कर्म है । ऐसा कथन करते हुए मेरे मनमें किसी प्रकारका भी रोष नहीं है।' Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि । ___ सुन कर यक्षके मनमें संवेगभाव हो आया । और वह बोला- 'भगवन् , तुम फिर अपना घृतपात्र रखो जिससे मैं तुमको वैसे ही घीका दान करूं और स्वर्गका आयुष्य उपार्जन करूं ।' इस पर साधु सुदत्तने कहा - 'भद्र, घीके देनेसे देवताका आयुष्य नहीं प्राप्त होता, किं तु उस प्रकारके उच्च परिणामसे होता है । और वैसा उच्च परिणाम तो निरीह मनुष्यको संभवित होता है । बाकी तो यह सब क्रय-विक्रय करने जैसा व्यापार होगा। ___ यक्षने पूछा- 'भगवन् , आप कहां रहते हैं ?' साधु ने कहा - 'अमुक उद्यान में ।' तब यक्षने कहा'यदि आपका उपरोध न हो तो मैं वहां आऊंगा।' इस पर साधुने कहा- 'शुभयोगका आराधन करके कर्मक्षय करनेवाले भव्य जीवोंको साधु कभी मनाई नहीं करते । और न कभी ईर्यापथिक दोषकी संभावनासे ऐसा कहते हैं कि आना । इसलिये हम तुमको क्या कहें ? । बस इतना ही कह सकते हैं कि हमारा कोई उपरोध नहीं है ।' ऐसा कह कर साधु चला गया । यक्ष फिर उचित समय पर साधुके पास गया । वन्दना करके बैठा और कहने लगा कि - 'महाराज, उस समय घीको उस प्रकार दुलता हुआ देख कर मैंने जो ऐसा सोचा था कि 'अहो यह साधु प्रमत्त है' तो क्या मैंने वह दुष्ट चिन्तन किया था ?' साधु सुदत्त - 'हाँ, श्रमणोपासक ! नहीं तो कैसे तूं अच्युत जैसे खर्गके आयुष्यबन्धसे पतित होता ? और जो तैंने उल्लंठ वचन कहा वह तो दुष्टचिंतित ही था । क्यों कि वह प्रतिनिविष्ट चेष्टित था । प्रतिनिवेश प्रदोषरूप होता है और प्रदोषभाव तो वेषधारी पर भी नहीं करना चाहिये । क्यों कि वैसा भाव धारण करनेवालेको जन्मांतरमें भी वैसा ही प्रदोषभाव पैदा हो आता है और इस प्रकार वैरभावकी परंपरा चलती रहती है।' यक्ष- 'भगवन् , क्या प्रत्यक्ष दोषदर्शन होने पर भी विपरिणाम उत्पन्न नहीं होता ?' साधु - 'किसीको होता है और किसीको नहीं ।' यक्ष - इसमें अच्छा कौन है ?' । साधु-'जिसको विपरिणाम नहीं होता । लिंगमात्र धारण करनेवाले पर भी विपरिणाम नहीं होने देना चाहिये । केवल वस्तुखभावका विचार करना चाहिये । विना प्रदुष्टभावके विपरिणाम उत्पन्न नहीं होता। यक्ष - 'तो क्या भगवन् , मेरा कृत्य आलोचनाके योग्य है ?' साधु- 'अवश्य । यक्ष - 'तो फिर मुझे प्रायश्चित्त दीजिये ।' फिर साधुने उसको प्रायश्चित्त दिया जिसका स्वीकार कर वह अपने घर गया। अतः ऐसा न करना चाहिये यह इस कथानकका उपदेशात्मक तात्पर्य है । वस्त्रदान पर धनदेवकी कथा।। ऐसी ही एक मनोरंजनात्मक कथा वस्त्रदानको लक्ष्य करके कही गई है सो भी पढिये । किसी एक नगरमें धनदेव नामक एक धनाढ्य गृहस्थ रहता था जो बौद्ध मतका उपासक था । जैन साधुओंके पास वह कभी नहीं जाता था। उस गाँवमें एक दफह धर्मशील नामक जैन आचार्य आ पहुंचे। Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनेश्वरीय ग्रन्थोंका विशेष विवेचन - कथाकोश प्रकरण । उनके शिष्य समुदायमें जो कितनेक तरुणवयस्क श्रमण थे वे धनदेवके विषयमें सुन कर परस्पर बातें करने लगें कि- 'अरे, क्या अपनमेंसे किसी के अंदर विद्या और विज्ञानकी कोई ऐसी शक्ति नहीं है जो इस धनवान् धनदेवके पाससे अन्न, वस्त्र, कंबलादि कुछ दिला सके ?' यह सुन कर एक साधुने कहा'मेरे पास वैसी विद्या है जिससे मैं ये चीजें दिला सकता हूं। परंतु वह विद्यापिण्ड दोषसे दूषित होगा; अतः वह साधुओंके लिये अकल्पनीय है । यदि इस पर भी आप लोगोंकी यह इच्छा हो कि उससे कुछ संयममें लाभ ही होगा, तो मैं वैसा प्रयोग कर सकता हूं।' अन्य साधुओंने कहा - 'कोई हर्ज नहीं है तुम प्रयोग करो। ___ तब उस साधुने अन्य दो साधुओंको उसके घर पर भेजे । खयं एकान्तमें रह कर विद्याका आह्वान करने लगा। विद्याबलसे अधिष्ठित हो कर, धनदेव उन आये हुए साधुओंको देखते ही ऊठ खडा हुआ और बोला- 'आज्ञा दीजिये भदन्त, मैं क्या सेवा करूं?' साधुओंने वस्त्र आदिकी याचना की। तब वह बडी भक्तिके साथ अच्छे अच्छे वस्त्र उनको देने लगा । रोकने पर भी न रुकना चाहा और कहने लगा और भी लीजिये, और मुझ पर अनुग्रह कीजिये ।' साधुओंको जितने वस्त्र आवश्यक थे उतने ले कर वे वापस लौटे और फिर उस विद्यावान् मुनिने अपनी विद्याका उपसंहरण किया । धनदेव जब स्वस्थमनस्क हुआ तो 'हा, दुष्ट दुष्ट !' ऐसा पुकारने लगा । सुन कर लोक इकट्ठे हो गये और पूछने लगे कि 'अरे, क्या हुआ ?' वह बोला – 'न जाने क्या हुआ, मैंने अपना सब घरका सार श्वेतपटों ( श्वेताम्बर साधुओं )को दे डाला है ।' सुन कर लोक कहने लगे-'यदि तैंने दिया और साधुओंने लिया तो इसमें साधुओंका क्या दोष है ? ऐसा कहते हुए तो तूं उस दानके फलसे भी वंचित होगा।' ___ इस प्रकार दान दे कर भी मनमें खिन्न होनेसे, उसको न तो कुछ पुण्य ही प्राप्त हुआ और न कुछ कीर्ति ही मिली । इसलिये ऐसा न करना चाहिये । इस कथामें जैसा धनदेवकी श्रद्धाहीन मनोवृत्तिका चित्र आलेखित किया गया है वैसा ही युवक साधुओंकी कुतूहलात्मक एवं अपरिणत मनोवृत्तिका अंकित चित्र भी चिन्तनीय एवं आलोचनीय है । इन दोनों कथाओंका सार यह है कि श्रद्धाके विना दिया हुआ दान कुछ फलदायक नहीं होता। ___ जैनमन्दिरोंकी पूजा-विधिक विषयमें कुछ विचारणीय चर्चा । जैसा कि जिनेश्वर सूरिके चरितसे ज्ञात होता है उनके समयमें जैन संघमें, जैन मन्दिरोंकी स्थापना, पूजाप्रणाली और जैन साधुओंका उनके प्रति कर्तव्योपदेश आदि बातों पर, संघके भिन्न भिन्न अवान्तर गच्छों - संप्रदायोंमें अनेक प्रकारके वाद - विवाद चलते रहते थे । एक प्रकारसे जैन संघकी सर्व प्रकारकी प्रवृत्तियोंका और विचारोंका केन्द्रस्थान मन्दिरसंस्था ही बन रही थी। इस मन्दिरसंस्थाके विषयमें जैन संघमें - क्या साधुओंमें और क्या श्रावकोंमें - रोज नित्यनये प्रश्न उपस्थित होते रहते थे और फिर उन पर उनके बीचमें नाना प्रकारके शास्त्रीय और सामाजिक विधानों और परंपराओंकी तरह तरहकी आलोचना प्रत्यालोचना चला करती थी। एक तरफ, जैन साधुओंमें एक ऐसा पक्ष था, जो जिनमन्दिरोंकी स्थापना ही को सर्वथा जैनशास्त्रविरुद्ध बतला कर उसके उपदेष्टा और उपासक दोनोंहीको जैनाभास कहता और उन्हें मिथ्यामति गिनता था। कोई दूसरा पक्ष, जैन मन्दिरकी स्थापनाको तो शास्त्रसम्मत मानता था, Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरी। परंतु उसकी पूजाविधिके आडंबरको अनाचरणीय कहता था । कोई तीसरा पक्ष, पूजाविधिके आडंबरको तो उचित मानता था, परंतु उसमें साधुओंका सीधा संपर्क होना अनुचित समझता था । कोई चौथा पक्ष, मन्दिरोंकी स्थापना और संरक्षाके बारेमें साधुओंका मात्र उपदेशात्मक अधिकार बताता था; तो कोई पांचवां पक्ष, उन मन्दिरोंकी सर्वाधिकारिताका साधुओं ही पर निर्भर होना स्थापित करता था। कोई अन्य पक्ष,एक मन्दिरमें एक ही जिनमूर्तिकी स्थापना करना शास्त्रोक्त कहता था; तो कोई उसके विरुद्ध, अनेकों मूर्तियोंकी पंगतको अधिक आत्मलाभकी वस्तु मानता था। कोई कहता था, तीर्थंकरमूर्ति वीतरागभावकी प्रतीक है, इसलिये उसको स्त्रीजातिका स्पर्श न होना चाहिये और इसलिये श्राविकावर्ग (जैन स्त्रीमंडल )को उसकी पूजा-अर्चा न करनी चाहिये; तो कोई अन्य पक्ष कहता था, न केवल श्राविकाओंको ही जिनभक्ति करनी चाहिये किंतु जिनमूर्तिके सामने वारांगनाओंका नृत्य-गान भी पूजाका अंग होनेसे उसे अबारितरूपसे होने देना चाहिये । कोई कहता था, मन्दिरोंकी रक्षाके निमित्त साधुओंको सदैव उनमें निवास करना कर्तव्य है; तो कोई कहता था, मन्दिरकी भूमि तो देवद्रव्यकी वस्तु है अतः उसमें बैठ कर धर्मोपदेशका करना-सुनना भी भक्तजनोंके लिये देवद्रव्यका उपभोग करने समान पापजनक कृत्य है । कोई कहता था, सूर्यास्तके बाद मन्दिरोंको उद्घाट-द्वार रखना भी निशाचरके जैसा निषिद्ध कृत्य है; तो कोई कहता था सारी रात मन्दिरोंमें गान, वादन, नृत्य, रास आदिका करना कराना परम भक्तिभावका द्योतक है । कोई कहता था, मन्दिरोंकी और मूर्तियोंकी प्रतिष्ठा परम ब्रह्मचारी ऐसे साधुवर्गके हाथसे होनी चाहियेतो कोई कहता था, जो साधु मन्दिरप्रतिष्ठादिके सावधकर्ममें प्रवृत्त होता है वह अनन्तकालतक संसारमें परिभ्रमण करनेके पापका भागी होता है – इत्यादि । इस प्रकार इस जैनमन्दिरकी संस्थाके विषयमें अनेक तरह के तर्क-वितर्कपूर्ण मत-मतान्तर जैन संघमें उस समय प्रचलित थे और जैन संघकी प्रायः सारी कार्यशक्ति और प्रवृत्ति इसी संस्थाके पक्षविपक्षमें परिसमाप्त होती थी। जिनेश्वर सूरि भी इन्हीं नाना पक्षोंमेंसे एक पक्षके प्रस्थापक और प्रचारक थे, यह इनके चरितमें दिये गये पूर्वोक्त वर्णनसे स्पष्ट है । इन्होंने इस विषयके अपने पक्षके विचारोंका थोडा-बहुत सूचन, प्रस्तुत कथाकोश प्रकरणमें एक कथाद्वारा भी प्रकट किया है जो इस विषय पर अच्छा प्रकाश डालता है । पाठकोंके परिचयार्थ इस कथानकका प्रायः अविकल भाषान्तर नीचे दिया जाता है । ___यह कथानक, इस ग्रन्थमें ३२ वां है, जो पृष्ठ १२५ पर धवल क था न क के नामसे मुद्रित है । इस कथानककी उद्देशात्मक जो मूलगाथा (क्रमांक २१) जिनेश्वर सूरिने बनाई है उसका भावार्थ यह है - "जो मनुष्य जैनशास्त्रका यथार्थभाव न जान कर जिनवचनकी अन्यथा विचारणा करता है वह धवल नामक वणिक्पुत्रकी तरह अनेक वार कुगतिमें परिभ्रमण करता रहता है । जिनमन्दिरके विधान विषयमें धवल वणिक्पुत्रकी कथा। अच्छा तो यह धवल कौन था और किस तरह उसने जैनशास्त्रके विचारोंकी अन्यथा विचारणा की और उसके कारण किस तरह वह कुगतिका भाजन हुआ, उसको पढिये । इस कथाकी प्रारंभिक उपक था जिनेश्वर सूरिने जो दी है उसका प्रस्तुत विषयके साथ कोई विशेष संबंध नहीं है, जिससे उसका उतना अंश छोड कर मूल कथाहीका अवतरण यहां दिया जाता है । इस उपकथाका उपक्रम ऐसा होता है - इस भारतवर्षके जयपुर नामक नगरमें एक विक्रमसार नामका राजा था जो जैनधर्मका पालन करता था। उस नगरमें एक समय, समंतभद्राचार्य नामके एक Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनेश्वरीय ग्रन्थों का विशेष विवेचन -कथाकोश प्रकरण । ९५ जैनाचार्य, जो चार ज्ञानके धारक थे, अपने बहुतसे शिष्योंके साथ आये और नगरके बहार सहस्राम्रवन नामक उद्यान में ठहरे । उनका आगमन सुन कर राजा अपने पूरे राजसाही ठाठके साथ उनको वन्दन करने गया और यथोचितरूपसे वन्दनादि कर वह आचार्यके सन्मुख धर्मोपदेश सुननेके लिये बैठ गया। उस समय, जनप्रवाद सुन कर उस सभामें, एक अन्धा मनुष्य, एक छोटे लडके द्वारा हाथ पकडा हुआ वहां आ कर एक किनारे बैठ गया । वह अन्धा फटे-तुटे कपडे पहने हुआ था। उसके सारे शरीर पर मक्खियां भिनभिना रही थीं । पसीने और मैलसे भरे हुए उसके शरीरसे बदबू फैल रही थी। उसे देख कर तरुणियोंको उद्वेग होता था, कुमारोंको वह क्रीडाका घरसा प्रतीत होता था, यौवनोन्मत्तोंको उपहासका स्थान मालूम देता था और विवेकी जनोंको करुणाका पात्र एवं पापफलका मूर्तिमान् दृष्टान्त ज्ञात होता था । राजाने उसे देख कर, कुतूहलभावसे आचार्यसे पूछा कि- 'भगवन् , इसने जन्मान्तरमें ऐसा क्या पाप किया था जो ऐसे दुःखित जन्मको प्राप्त हुआ है.' आचार्यने राजाके प्रश्नके उत्तरमें उसके पूर्व जन्मकी इस प्रकार कथा कहनी शुरू की। _इस भारत वर्षकी अयोध्या नामक नगरीमें पूर्व कालमें चन्द्रकेतु राजा राज्य करता था । उस नगरीमें धवल, भीम और भानु नामके तीन व्यापारी रहते थे जो परस्पर स्नेहानुबद्ध हो कर समान आय-व्ययवाले और सहकार भावसे व्यापार-व्यवसाय किया करते थे। वे श्रावकधर्मका पालन करते थे। वहां पर एक समय अजितसेन नामके आचार्य आये जो नगरके नंदन नामक उद्यानमें ठहरे । नगरमें समाचार पहुंचे कि ऐसे ऐसे एक आचार्य आये हैं । सुन कर नगरके अन्यान्य जनोंके साथ राजा उनको वन्दन करने गया । धवल, भीम और भानु नामक तीनों मित्रश्रावक भी वहां पहुंचे । सभी सूरिको वन्दनादि कर धर्मोपदेश सुनने बैठ गये । आचार्यने अपने उपदेशका विषय पसन्द किया मिथ्यात्वका खरूप-वर्णन । (१) आभिग्रहिक, (२) अनभिग्रहिक, (३) आभिनिवेशिक, (४) सांशयिक, और (५) अनाभोगिक ऐसे पांच प्रकारके मिथ्यात्वोंका वर्णन करते हुए उपसंहारमें सूरिने कहा कि यह पांचों ही प्रकारका जो मिथ्यात्व है वह स्थूल विचारसे है, परमार्थसे तो जो विपर्यास है वही मिथ्यात्व है । वह विपर्यास इस प्रकारका समझना चाहिये । जैसे कि, किसी जिनमन्दिरके विषयमें कोई यह सोचे कि यह मन्दिर न तो मैंने बनवाया है और न मेरे किन्हीं पूर्वपुरुषोंने बनवाया है । इसलिये इसमें पूजा-संस्कार आदि करनेके लिये मुझे क्यों आदर बताना चाहिये ? अथवा कोई किसी मन्दिरमें प्रतिष्ठित मूर्तिके विषयमें ऐसा सोचे कि यह मूर्ति मैंने अथवा मेरे पूर्वजोंने बनवाई है इसलिये इसकी पूजादिमें मुझे उत्साहित होना ठीक है लेकिन दूसरोंकी बनाई मूर्तिके लिये वैसा उत्साह बतानेसे क्या लाभ ? इस प्रकारका विचार करके जो कोई मन्दिरादिमें पूजादि करता है उसकी वह प्रवृत्ति सर्वज्ञ (जिनभगवान )के मतानुसार संगत नहीं है । क्यों कि सभी मूर्तियों में एक अरिहंतका ही व्यपदेश किया जाता है । यदि वह अरिहंत भी परकीय समझा जाय तो फिर पत्थर, लेप्य (प्लास्टर ) और पित्तलादि पदार्थ ही पूजनीय हो जायेंगें । इस प्रकार पत्थरादिकी पूजा-अर्चा करनेसे कोई कर्मक्षय नहीं होता, कर्मक्षय तो तीर्थंकर विषयक गुणके पक्षपातके कारण होता है । नहीं तो, इस प्रकारका पत्थरादिका सद्भाव तो शंकर आदिके बिंबोंमें भी विद्यमान है इसलिये उनका भी वन्दन कर्मक्षयका कारण होगा । इस तरह मत्सरभावके कारण दूसरोंके बनाये हुए मन्दिरोंमें पूजादिके करने-करानेमें विघ्न करनेवालोंका महामिथ्यात्व ही समझना चाहिये । वैसे प्राणीको तो ग्रन्थिभेद भी संभवित नहीं होता। Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि । इसी तरह जो पार्श्वस्थ आदि साधु हैं उनकी कुदेशनासे विमोहित हो कर जो सुविहित साधुओंको बाधा करने-करानेवाले होते हैं वे भी वैसे ही महामिथ्यात्वी हैं। __जो लौकिक ज्ञाति-जातिके पक्षपाती हो कर साधुओंको दानादि देनेमें प्रवृत्त होते हैं किं तु गुणागुणकी विचारणासे नहीं, वे भी वैसे ही विपर्यासभाव ( मिथ्यात्व )के भाजन होते हैं । __ क्यों कि पूजाके योग्य तो गुण ही होते हैं । उन्हींको लक्ष्य कर दानादिमें प्रवृत्ति होनी चाहिये । उसीके निमित्तको ले कर कार्य करना चाहिये, किसी ज्ञाति-जातिसे क्या मतलब है । क्यों कि स्वजाति और ज्ञातिमें भी धर्महीन होते हैं । अतः उनको दान देनेमें कुछ थोडा ही फल होता है ? जिनमें गुण होता है और उसीको निमित्त करके जो दान दिया जाता है वही फलदायक है । बाकी खजाति और खजनादिके मोहसे जो दानादिमें प्रवृत्ति होती है वह तो विपर्यास ( मिथ्यात्व )ही है। ___ इस विपर्यासरूप मिथ्यात्ववाला चाहे जितना शास्त्रज्ञानका धारक होने पर भी वह अज्ञानी ही है । जो विपरीतमति होता है उसका ज्ञान कार्यसाधक नहीं बनता । अतः वह उसका अज्ञान ही है । __ और इस प्रकार जीवमें विपर्यासभावके होने पर, चाहे जैसी दुष्कर तपश्चरणवाली क्रियाएं की जाएं पर वे मोक्षसाधक नहीं बनतीं । क्यों कि वह बहारसे प्राणीहिंसा और मृषावादका विवर्जन ( अर्थात् अहिंसा और सत्यका पालन ) करता हुआ भी अंतरसे अविरत ( विरतिशून्य ) ही होता है। मनुष्यको पंचम गुणस्थान की प्राप्ति होने पर देशविरति और छटे गुणस्थान की प्राप्ति होने पर सर्वविरतिका उदय होता है । न कि प्रथम गुणस्थानवर्तीको । प्रथम गुणस्थानस्थित प्राणीको अनन्तानुबन्धि आदि सोला ही प्रकारके कषायोंका बन्धन और उदीरण होता रहता है । उसके निमित्तसे दीर्घस्थितिवाली और तीव्र-अनुभागवाली अशुभ प्रकृतियोंका बन्ध होता है । उनके उदय होने पर प्राणीका मनुष्य, नारक, तिर्यक्त्व, कुमनुष्यत्व, कुदेवत्वकी गतिरूप संसारमें परिभ्रमण होता है और उसके कारण वह अनेक दुःखोंका भागी होता है । इसलिये, हे महानुभावो, सम्यक्त्वपूर्वक चारित्रमें यत्नशील होना चाहिये । उसीका बहुमान करना चाहिये । इत्यादि । इस प्रकारका धर्मोपदेश चलने पर, बीचमें उस धवलने आचार्यसे कहा कि- 'महाराज, आपका ऐसा कहना ठीक नहीं है कि - 'मैंने अथवा मेरे पूर्वजोंने यह जिनमन्दिरादि बनवाये हैं' ऐसा समझकर इनमें पूजादिके लिये प्रवृत्त होना विपर्यास है । हमको यह विचार श्रद्धेय नहीं लगता । यदि जिनभवन, जिनमूर्ति, महोत्सव, पूजादिका करना विपर्यास है तो फिर सम्यक्त्वका कारण तो कोई रहा ही नहीं ।' ___ आचार्यने कहा- 'भद्रमुख, ऐसी प्रवृत्ति परमार्थसे जिनालंबनवाली नहीं है । क्यों कि शास्त्रों में कहा है कि जिनेश्वरोंकी आज्ञासे बाह्य ऐसी सांप्रदायिक सर्व प्रवृत्ति संसारभ्रमणका फल देनेवाली होती है । यद्यपि वह तीर्थंकरको उद्देश करके की जाती है, पर वास्तवमें - तत्त्वकी दृष्टिसे वह वैसे उद्देशवाली नहीं होती । इत्यादि । तथा ऐसा भी न समझना चाहिये कि बडे-बुड़े लोग ऐसा करते थे, तो क्या वे सब अजान थे ? । क्यों कि कहा है कि- "लोकोंमें जो गुरुतर माना जाता है वह भगवान् ( जिनेश्वर )को भी इष्ट ही होता है ऐसा नहीं है।" इसके बीचमें भीमने कहा- 'धर्म और अधर्म यह तो सब लोकव्यवहारके आधार पर अवलंबित है । किसी भी धर्मार्थाने प्रत्यक्षादि ज्ञानसे जान कर कोई अनिन्दित मार्ग का आचरण नहीं किया है । धर्मार्थी हो कर ही लोक दानादिमें प्रवृत्त होते हैं।' Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनेश्वरीय ग्रन्थोंका विशेष विवेचन - कथाकोश प्रकरण । ९७ उत्तर में सूरिने कहा - 'भद्र, यह लोक कौन हैं ? | यदि 'पाषंडी लोक हमारे अपेक्षित लोक हैं' - ऐसा कहो, तो वे तो सब परस्पर विरुद्ध मतवाले हैं; अतः वे सर्वसम्मत ऐसा कोई कार्य कर ही नहीं सकते । यदि कहो कि 'जो गृहस्थ लोक हैं वे ही लोकव्यवहार के निदर्शक हैं' - तो वे भी नाना देशों में नाना प्रकार के आचार-विचारवाले हो कर परस्पर विरुद्ध व्यवहारवाले दिखाई देते हैं । अतः उनके आचरित धर्मका भी कैसे एकत्व हो सकता है । इसलिये तुम्हारा यह कथन किसी बातको सिद्ध नहीं करता । ' फिर इसके उत्तर में भानुने कहा - 'लोकसे तात्पर्य हमारा जैनधर्मके माननेवाले श्रावकजनसे हैं । उन्हीं को हम प्रमाण मानते हैं, औरोंको नहीं । इस दृष्टिसे हम कहते हैं कि जिसका तुम प्रतिषेध करते हो उसका व्यवहार तो बहुतों में दिखाई दे रहा है। क्या वे सब अनजान हैं ? । वे भी धर्मार्थी हैं और कहीं भी उन्होंने सुना या देखा होगा तब ही तो वे ऐसा कर रहे हैं न ? तो क्या हम उनकी प्रवृत्तिका समादर करें या तुम्हारे जैसे एकाकीके वचनका ?' सूरि बोले - 'भद्र, मेरा वा अन्य किसी छद्मस्थ मनुष्यका स्वतंत्र वचन कोई प्रमाणभूत नहीं होता । हम जो कहते हैं वह तो जिनवचनका अनुवाद मात्र है । हम अपनी ओरसे कुछ नहीं कह रहे हैं ।' जो कह रहे हैं वह स्वमतिविकल्पित है ? भी धर्मार्थी इसपर धवल बोला- 'तो क्या अन्य जन हैं और आगमहीका कथन करते हैं ।' सूरि बोले - 'क्या एक जिनशासन में भी आगम हैं, जो ऐसा कहा जाता है ? सर्वज्ञ अपने अपने अलग सर्वज्ञ हैं और अपने अपने अलग भिन्न भिन्न हो सकते हैं, परंतु उनमें परस्पर मतभेद तो संभव नहीं हो सकता । क्यों कि मतभेद तो मूढजनोंमें होता है और सर्वज्ञ तो मूढ़ नहीं है ।' धवलने उत्तर में कहा 'यह ठीक है कि सर्वज्ञोंमें मतभेद नहीं हो सकता, तथापि मतभेद वाली देशनायें जरूर दीखाई दे रहीं हैं । तो फिर हम जैसे छद्मस्थोंको यह कैसे ज्ञात हो कि यह तो जिनमतके अनुसार कह रहा है और यह उससे अन्यथा ? । इससे तो तुम्हारे मतसे ऐसा समझना होगा कि केवलज्ञान प्राप्त करके फिर श्रावक बनना चाहिये । और केवलिको तो स्वयं श्रावकधर्मके करनेका कोई प्रयोजन ही नहीं रहता । इससे तो यह भी सिद्ध हुआ कि केवली हुए विना उसके पहले किसी भी कार्य में प्रवृत्त नहीं होना चाहिये । और शुभ प्रवृत्तिके किये विना केवल ज्ञान उत्पन्न नहीं होता । सो यह तो विषम समस्या उपस्थित हो रही है । ' 1 - सूरिने समाधान करते हुए कहा- 'क्या सर्वज्ञ प्रणीत और छद्मस्थप्रणीत वचनोंमें किसी प्रकारका विशेषत्व ज्ञात नहीं किया जा सकता ? सर्वज्ञके वचनमें पूर्वापर विरोध नहीं होता और दूसरोंके वचन में वैसा होता है । यही इसमें भेद है ।' 1 धवल बोला- 'यदि ऐसा है तो तुम्हारे वचनमें हमको विरोध भासित हो रहा है । जो वचन बहुजन प्रवृत्तिके विरुद्ध है वह विरुद्ध ही है ।' इसपर सूरिने कहा - 'हम तो सर्वज्ञके वचनको दीपकस्थानीय मान कर उसका विचार कर रहे हैं, और तुम लोकाचारका कथन कर रहे हो; इससे मालूम देता है कि यह मिथ्यात्वमोहनीय कर्मका ही विलास है ।' तब भीमने कहा - 'तो क्या जीत व्यवहार ( आचरणा) अप्रमाण है ? ' सूरि - 'प्रमाण है; किन्तु तुम उसका लक्षण नहीं जानते ।' क० प्र० १३ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि। भीम-'तो तुम बतलाओ। अजितसेन सूरिने कहा- 'जीत व्यवहार उसका नाम है - जो अशठ पुरुषोंने, कहीं, किसी कारणसे, असावद्य ऐसा व्यवहार आचरित किया और जिसका दूसरोंने निषेध न कर बहुमानपूर्वक स्वीकार किया और उसका आचरण भी किया ।। इसपर धवल बोला- 'तो क्या स्वयंकारित अथवा निजपूर्वजकारित जिनमन्दिर, जिनबिबादिका पूजादि करना शठोंका आचरित व्यवहार है ?' । इसका समाधान करनेकी दृष्टिसे सूरिने कहा कि- 'इस विषयका मैं एक आख्यान तुमको सुनाना चाहता हूं सो सुनो।' कुन्तला रानीका आख्यान । क्षितिप्रतिष्ठित नामके नगरमें एक जितशत्रु राजा था जो श्रावकधर्मका पालन करनेवाला था । उसकी सब रानियोंमें प्रधान ऐसी एक कुन्तला नामकी पट्टरानी थी। किसी समय राजाके मनमें यह विचार हुआ कि मैं दीक्षा ले कर प्रव्रज्याका पालन करनेमें तो असमर्थ हूं, वैसे ही उत्तम प्रकारके देशविरति व्रतका पालन भी ठीक नहीं कर सकता । इसलिये दर्शनविशुद्धिका कारणभूत अच्छा चैत्य (जैनमन्दिर ) मैं बनवाऊं । ऐसा विचार कर अपने भवन (राजप्रासाद )के निकट ही एक चैत्य उसने बनवाया और उसमें महापूजाके योग्य भव्य प्रतिमा प्रतिष्ठित कराई । प्रतिदिन वह उसकी पूजा करने लगा । 'यथा राजा तथा प्रजा' इस नीतिके अनुसार उस राजाकी रानियोंने भी श्रावकधर्म स्वीकार किया। उन्होंने भी राजाके बनाये हुए उस मन्दिरकी जगतीमें अपने अपने वैभवके अनुसार देवकुलिकायें (छोटे छोटे मन्दिर) बनवाई । कुन्तला पट्टरानीने भी वहीं एक अच्छा बडा मन्दिर बनवाया । वह उसमें रोज पूजा-स्नान आदि करवाती । उस विशाल मन्दिरमें पूजाके लिये जो मालाकार ( माली लोक) फूल लाते तो उन्हें वह कहती- सब फूल मुझे ही आ कर देना और किसीको मत देना । इसी तरह जो गायन, वादक नर्तक-नर्तिकादि आते उन्हें अन्य देवकुलोंमें जानेसे रोकती और अपने मन्दिरमें आनेको कहती। कभी वह ऐसा सुनती या देखती कि किसी दूसरी रानीके मन्दिरमें महोत्सव हो रहा है, तो वह मनमें खूब चिढती । यदि ऐसा कुछ सुनती देखती कि औरोंके मन्दिरमें कुछ अच्छा नहीं हुआ है, तो उससे उसके मनमें खुशी होती । इस प्रकारके ईर्ष्याभावके कारण और मृत्युके समय भी अपने मानसिक व्यापार व व्यवहारका कुछ पश्चात्ताप न कर, एवं किसी प्रकारकी आलोचना न ले कर, वह मर कर उसी नगरमें काली कुतियाके रूपमें पैदा हुई । पूर्वभवके अभ्यासके कारण वह उसी अपने बनाये हुए मन्दिरके अंगनमें जा कर पडी रहने लगी। अन्य समय कोई केवलज्ञानी साधु वहां आये । राजा अपनी अन्य रानियोंके साथ उनको वन्दन करने गया । अवसर पा कर राजाने अपनी मृत रानीके विषयमें पूछा कि- 'भगवन् , मेरी पट्टरानी कुन्तला देवी मर कर कौनसे वर्गमें अवतीर्ण हुई है ?' सुन कर केवलीने कहा- 'वह तो मर कर इसी नगरमें काली कुतिया हुई है और जो उसके बनाए हुए मंन्दिरमें हमेशां पड़ी हुई दिखाई देती है वही वह कुन्तला है।' तब राजाने पूछा- 'भगवन् , यह कैसे ? वह तो वैसी उत्तम प्रकारकी चैत्यभक्ति करती थी । उसका ऐसा फल कैसे हुआ ? Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनेश्वरीय ग्रन्थोंका विशेष विवेचन-कथाकोश प्रकरण । केवलिने कहा- 'उसकी वह चैत्यभक्ति नहीं थी; किं तु 'मैंने ऐसा किया है। इस प्रकारके अपने आत्माभिमान( अहंकार )के पोषणके निमित्त उसकी वह ईर्ष्यालु प्रवृत्ति थी । जब किसी अन्य रानियोंके जिनमन्दिरोंमें महोत्सव होता था तो वह उसको बिगाडने के लिये अपनी शक्तिभर कोशीश करती थी। यदि वैसा करने पर भी कहीं कोई उत्सव हो जाता था तो वह अपनेको मरी हुई जैसे मानने लगती थी। इसलिये उसकी वह जिनभक्ति नहीं थी- प्रद्विष्ट प्रवृत्ति थी। उसी प्रदोषभावका यह फल है ।' यह कथानक सुना कर अजितसेन सूरिने उन धवल आदि श्रावकों को कहा कि- 'हे महानुभावो, इसलिये किसी अन्य आलंबनको ले कर प्रवृत्ति करनेसे कोई लाभ नहीं होता । जिनभगवान्के गुणोंका बहुमान करनेकी अभिलाषाहीसे पूजादि कर्तव्य करने चाहिये; न कि किसी अन्य आलंबनको उद्दिष्ट करके ।' सुन कर धवलने कहा- 'अहो, आज तक तो सब अपने अपने चैत्यालयों में पूजा संस्कारादि करके धर्म करते रहते थे, अब तुमने इसको मिथ्यात्व बतलाया है । अब फिर जो अन्य कोई आचार्य आयेगा वह तुम्हारे किये हुए वर्णनको मिथ्यात्व कहेगा । ऐसी स्थितिमें हमें कहां जाना चाहिये ? इससे तो यह सिद्ध होता है कि इस धर्मश्रवणमें कुछ भी लाभ नहीं है ।' ऐसा कह कर धवल ऊठ खडा हुआ । आचार्यके उपर उसको खूब रोष हो आया और वह अपने घर चला गया । ___ समन्तभद्र सूरिने उस धवल के जन्मकी कथाको आगे चलाते हुए विक्रमसार राजासे कहा कि- 'वह इस तरह फिर मिथ्यात्वभावको प्राप्त हो कर अपनेको तथा दूसरोंको व्युद्ग्राहित करता हुआ और उसीप्रकार चैत्यादिका पूजन करता हुआ तथा कुछ तपश्चर्यादि भी करता हुआ, आयुष्यके पूर्ण होने पर मर कर किल्विषयोनिके देवभवको प्राप्त हुआ । वहांसे मर कर फिर मनुष्य, तिर्यंच, नरक आदि गतियोंमें चिर काल तक परिभ्रमण करता हुआ, अब यह इस अन्ध पुरुषके अवतारके रूपमें पैदा हुआ है ।' समन्तभद्र सूरिके इस कथनको सुन कर उस अन्ध मनुष्यको जातिस्मरण ज्ञान हो आया और उस ज्ञानके प्रभावसे उसने अपने पूर्व जन्मके दुश्चरितके विलासको प्रत्यक्ष किया । तब उसको संवेगभाव उत्पन्न हुआ और वह बोला – 'भगवन् , आपने जो कहा है वह सब सत्य है । अब मुझे इस संसारसमुद्रसे पार करनेकी कृपा करो ।' ___ आचार्यने कहा- 'महानुभाव, हम तो वचनमात्रसे मोचक है । वयं तीर्थंकर भी दूसरेके किये हुए कर्मका क्षय नहीं करा सकते । जैसे जन्मान्तरमें तुमने गुरुका वचन नहीं मान्य किया वैसे अब भी मान्य नहीं करो तो मुझसे कैसे तुम्हारा निस्तार हो सकता है । गुरु तो अच्छे वैद्यकी तरह उपाय ही बतलाते हैं । वह उपाय अपनी अपनी भवितव्यतानुसार किसीको अच्छा लगता है किसीको नहीं ।' राजा- भगवन् , सभी प्रकारके संशयोंका निवारण करनेवाले ऐसे जिनवचनका जो आप उपदेश करते हैं क्या वह भी किसीको कभी अच्छा नहीं लग सकता है ?' . गुरुने कहा - 'महाराज, जो मिथ्यात्वमें मोहितमति हैं, दीर्घसंसारी हैं और कुग्रहसे गृहीत हैं उनको कहा गया जिनवचन भी, जैसे ज्वरपीडित मनुष्यको दूध अच्छा नहीं लगता वैसे, यथार्थरूपमें परिणत नहीं होता । इस विषयका का लि क श्रु त में एक आख्यान कहा गया है, उसे सुनाते हैं, सो सुनिये । सावद्याचार्यका आख्यान । _इसी भारत वर्षमें, अतीत कालकी कई अनन्तकालीन अवसर्पिणीयोंके पूर्व, एक हुंडा-अवसर्पिणी नामक कालमें होने वाले चौवीस तीर्थंकरोंके उत्पन्न हो जानेके बाद, अन्तिम तीर्थकरके तीर्थमें असंयत जनोंकी Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि । पूजाका माहात्म्य बढानेवाला एक आश्चर्यजनक प्रसंग हुआ । उस समय बहुतसे साधुलोक विहारचर्या से भग्न हो गये । मासकल्प पूरा हो जाने पर भी वे दूसरी जगह बिहार करके नहीं जाते थे - अरे मास क्या वर्ष अन्तमें भी कहीं जानेकी इच्छा नहीं करते थे । इससे उनको वसति देनेवाला सध्यातर ( श्रावक ) वर्ग भी भग्नपरिणाम हो गया । यदि कभी कोई साधु इधर-उधर विहार करके चले जाते थे, तो फिर उनको ठहरनेके लिये वे श्रावक अपना स्थान नहीं देते थे । ऐसी परिस्थितिके हो जाने पर जब साधुओंको ठहरने करने का कोई स्थान नहीं मिलने लगा, तो वे सोचने लगे कि किस तरह हमको अपने रहनेका स्थायी स्थान प्राप्त करना चाहिये । सोचते हुए उपाय सूझ आया । यदि इन गृहस्थोंको चैत्यालय बनाने के काम में प्रेरित किया जाय तो उसके द्वारा, मन्दिरके साथ हमें सदैव रहनेका मकान भी मिल सकेगा । अतः उन्होंने उपासक जनोंको उपदेश देना शुरू किया, कि जो मनुष्य अंगूठेके जितनी भी जिनप्रतिमा बनावेगा वह सुखोंकी परंपराका उपभोग करता हुआ और बोधिलाभको प्राप्त करता हुआ, सिद्धिपदको प्राप्त करेगा । और जो समूचा जिनमन्दिर ही बनानेका उद्यम करेगा, उसको तो तुरन्त ही बहुत बडा फल प्राप्त होगा । इसलिये - 'हे महानुभावो, तुम मन्दिरोंके बनानेका उद्योग करो । जहां तुम्हारा काम अटकेगा वहां हम तुम्हें सहायता करेंगे।' इस तरह उन्मार्गप्रवृत्त, लिङ्गोपजीवी, इह लोकसुखार्थी और परलोकपराङ्मुख ऐसे उन साधुओंने बहुतसे जिन चैत्य उस गांव में खडे करवाये ।' 1 इस कथनको सुन कर बीचही में उस विक्रमसेन राजाने पूछा कि - 'क्या भगवन्, इस प्रकार जिनमन्दिरोंका बनवाना अयुक्त है ? ' समन्तभद्र सूरिने कहा - 'महाराज, यह गृहस्थों के लिये एक कर्तव्य है, लेकिन सो भी आगमोक्त विधिपूर्वक; परंतु साधुओंके लिये नहीं । साधुओंको तो उपदेशके समयमें, उचित अवसर पर, द्रव्यस्तव रूपसे इसकी प्ररूपणा करनेका अधिकार है; किंतु क्रियाकालमें कोई सहयोग देनेका नहीं है । वह सहयोग इस प्रकारका कि यहां पर गड्डा करो, यह मिट्टी निकालो, पत्थर लाने के लिये गाडियां तैयार करो, माल (वनमें) जा कर फूल चिन लाओ - इत्यादि प्रकारका आदेशात्मक कर्म करना साधुके लिये कर्तव्य नहीं है । क्यों कि साधुने तो पृथ्वी काय आदि जीवों की हिंसा के लिये त्रिविध-त्रिविध ( न करना, न कराना और न अनुमोदना - इस प्रकारका ) प्रत्याख्यान किया है । यदि वे इस प्रकारका आदेश करें तो फिर उनकी वह हिंसानिवृत्ति कैसे निभ सकती है ? इसलिये साधुओंको वणिक्पुत्र के दृष्टान्तके समान गृहस्थोंके आगे धर्मोपदेश करना ही कर्तव्यमात्र है ।' 1 सुन कर राजाने कहा- 'भगवन्, वह वणिक्पुत्रका दृष्टान्त सुनाइये तो कैसा है ?' तब गुरुने इस प्रकार यह दृष्टान्त सुनाया - वणिक्पुत्र दृष्टांत | एक नगर में एक समय राजाने कौमुदी महोत्सव के मनाये जाने की घोषणा करवाई और आज्ञा दी कि नगरमें जितना भी कच्छ बान्धनेवाला पुरुषवर्ग है वह आज रातको उद्यानमें चला जाय । आज रातको नगर में रानियां अर्थात् राजमहलकी स्त्रियां घूमेंगीं फिरेंगीं । इसलिये जो कोई पुरुष बहार नहीं चला जायगा उसे शारीरिक शिक्षा मिलेगी राजा भी स्वयं नगरसे बहार जा रहा है; इसलिये सब नगरजनों को बहार निकल जाना चाहिये । इस घोषणाको सुन कर सब नागरिक जन बहार निकल गये । परंतु एक सेठके ६ पुत्र थे वे अपने किसी महत्त्वके व्यापारिक कार्यमें आसक्त हो कर वक्त पर बहार नहीं निकल पाये और शहर के दरवाजे बन्ध हो गये । इससे वे नगरसे बहार न निकल पाये और उस रातको रास्ते में ही कहीं खण्डहरसे पडे हुए किसी एक मकान में सो गये . Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनेश्वरीय ग्रन्थोंका विशेष विवेचन-कथाकोश प्रकरण । दूसरे दिन सूर्य निकलने पर राजा वापस नगरमें आया । वे वणिक्पुत्र भी धूलसे भरे हुए वैसे ही शरीरके साथ राजाके पीछे पीछे चलनेवाले लोगोंके अन्दर सम्मीलित हो कर, राजाको जिस तरह ज्ञात न हो सके उस तरह, उसके साथ हो लिये । किसी खास जगह पर रुक कर राजाने फिर अपने नोकरोंसे पूछा कि- 'कल रातको शहरमें कोई रह तो नहीं गया था ? किसीने मेरी आज्ञाका उल्लंघन तो नहीं किया था ?' जैसा कि संसारमें देखा जाता है - कई ऐसे दुर्जन भी होते हैं जो दूसरोंको हेरान करनेमें आनन्द मानते हैं । इससे किसीने राजाको कहा कि- 'अमुक बनियेके पुत्र बहार नहीं आये थे। तब वे राजाके आगे आ कर खडे हुए और बोले कि 'महाराज, हम तो आपके साथ ही अभी शहरमें दाखिल हो रहे हैं। यह कोई झूठ कह रहा है।' तब उस दुर्जनने कहा- 'अरे तुम बहार कहां आये थे ? अभी तो राजाके शहरमें प्रवेश करने के वक्त आ कर मिले हो । यदि ऐसा नहीं है तो फिर पण करो।' सुन कर वे सब चुप हो गये । राजाने रुष्ट हो कर उनको प्राणदंड देनेकी आज्ञा दे दी । इस बातको सुन कर नगरके लोगोंके साथ सब महाजन एकत्र हुआ। उसने उनको प्राणदण्डसे मुक्त करनेकी प्रार्थना की, परंतु राजाने नहीं सुनी । तब उन लडकोंके बापने राजासे कहा-'महाराज ! ऐसा मत कीजिये, इनको छोड दीजिये और मेरा जो सारा घरसार है उसे ले लीजिये।' पर राजाने नहीं माना। फिर वह बोला- 'अपराधके दण्डखरूप किसी एक लडकेका वध करके आप अपने कोपका प्रशमन करें, और दूसरे पांचको मुक्त करनेकी कृपा करें।' इस तरह उसने फिर चारके, तीनके और दो पुत्रोंके छोडेनेकी प्रार्थना की । पर राजा कुछ नहीं सुनना चाहता है । तब वह करुणविलाप करता हुआ उसके पैरोंमें चिपक गया और बोला कि'महाराज, मेरा ऐसा सर्वथा कुलनाश न करिये । एकको तो किसी तरह छोडिये।' इसपर राजाने उसके ज्येष्ठ पुत्रको मुक्त किया । इत्यादि । आचार्य इस 'वणिकपुत्र दृष्टान्त'का भावार्थ बताते हुए कहते हैं कि- इसमें राजाके स्थान पर श्रावकको समझना चाहिये । पुत्रोंके स्थान पर षटकाय जीव और पिताके स्थानके तुल्य साधु लेना चाहिये । जैसे पिताको अपने किसी भी पुत्रका वध इष्ट नहीं है, इसलिये वह उस वधकार्यमें इच्छापूर्वक अपनी अनुमति नहीं देता है । इसीतरह साधुओंकी भी वधकार्यमें कोई अनुमति नहीं समझना चाहिये । यतिजन हैं सो पहले तो साधुधर्मका ही उपदेश करते हैं । उसके ग्रहण करनेमें जो असमर्थ होते हैं उनके लिये पौषध, सामायिक आदि व्रतोंका उपदेश देते हैं । उनके करनेमें भी जो असमर्थ होते हैं उनके लिये जीवहिंसा भी केवल शुभ-अध्यवसायके निमित्तसे हो तो ठीक है, इसलिये द्रव्यस्तवरूप जिनभवन आदि करवानेका उपदेश करते हैं । क्यों कि उससे भी विशुद्ध सम्यक्त्व आदि गुणोंका लाभ होता है, और क्रमसे मोक्षप्राप्ति होती है । जिनमन्दिरमें जनबिंबकी पूजा, स्नात्र आदि प्रवृत्तिको देख कर भव्यजनोंको सम्यक्त्व आदि गुणोंका लाभ होता है । वे भी उससे प्रतिबुद्ध हो कर फिर विरति ग्रहण करते हैं; जिससे जीवोंकी रक्षा होती है । जो जीव मोक्ष जाते हैं वे संसारके अस्तित्वपर्यन्तके सब जीवोंको अभयदान देते हैं । इसलिये उस निमित्त किया गया जीववध उनको फल नहीं देता । अतएव वह जीवघात भी शुभ-अध्यवसायका निमित्त होनेसे ख-पर दोनोंको मोक्षका हेतु होता है । और यदि सर्वप्रथम ही जिनमन्दिरादिका उपदेश दिया जाता है तो उसमें जीवनिकायके वधकी स्पष्ट अनुमति होगी और उससे अशुभ बन्ध होगा। इसलिये महाराज ! उस कालके साधुओंने जो जिन मन्दिरादि बनानेका उपदेश दिया था वह विधिपूर्वक नहीं दिया गया था। अतः शास्त्रोंमें यह कहा है कि संयममें शिथिलयोगी बन जानेसे उन्होंने अपने Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि। निर्वाहके योग्य वसति बनवाने का निमित्त बना कर वे मन्दिर बन्धवाये, न कि गुण-दोषका सम्यक् निरूपण करके परोपकारकी दृष्टिसे बन्धवाये थे । यहां फिर बीचमें, विक्रमसेन राजाने आचार्यसे पूछा कि- 'जो श्रावक सामायिक ले कर बैठा है उसकी पुष्पादिसे जिनमूर्तिकी पूजा करनी योग्य है या नहीं ?' - इसके उत्तर में आचार्यने कहा कि नहीं। तब राजाने पुनः प्रश्न किया कि- 'क्यों नहीं ? क्यों कि उसने सामायिक व्रत लेते समय सावधयोगका प्रत्याख्यान किया है और जिनपूजा तो सावद्य नहीं है । यदि ऐसा न होता तो फिर साधुवन्दनासूत्रमें “वंदणवत्तियाए पूयणवत्तियाए सकारवत्तियाए" इस प्रकारका विधान कैसे किया गया है ?' उत्तरमें समाधान करते हुए सूरिने कहा - 'महाभाग, उसका तो भावार्थ यह है कि साधुओंका वचनमात्रसे ही द्रव्यस्तव करनेका अधिकार है, न कि शरीरसे । और यह वचनमात्रका अधिकार भी देशनाके समयमें; न कि "तुम बाडी( बगीचे )में जा कर फूलोंको चिन लाओ, स्नान-पूजा करो, धूप दो, आरती उतारो" इस प्रकारका क्रियाविधिके समयमें, साक्षात् आदेश करनेका अधिकार है । धर्मोपदेश करते समय द्रव्यस्तवका सविस्तर निरूपण करना ही उनका कर्तव्य है। - इस प्रकारका और भी कितनाक शंका-समाधान निदर्शक वर्णन यहां पर आचार्य ने किया है जिसे सुन कर राजा विक्रमसेनको संतोष हुआ और वह फिर आचार्यसे, उस सावद्याचार्यकी कथाका आगेका भाग सुनानेके लिये प्रार्थना करते हुए बोला- 'हां भगवन् , यह सब ठीक ही है। अब आप आगेकी प्रस्तुत कथा कहिये। __ तब आचार्यने कथाके सूत्रको आगे चलाते हुए कहा- 'तब फिर वहां पर जिस यतिजनके जितने .. श्रावक आये उनको बुला कर मन्दिरके बनवानेमें नियुक्त किये । परंतु उन्होंने अपनी साधनसंपत्ति और शक्तिका कोई खयाल करके उसका प्रारंभ नहीं किया था जिससे वह कार्य शीघ्र समाप्त हो जाय । उन्होंने तो अपने उपकारक ऐसे गुरुओंके हितके अनुरोधसे कार्य शुरू किया था । इसलिये सिर्फ जिनबिम्बके बैठाने मात्र जितने स्थानवाले मन्दिरका भाग बनवा कर, उसके पास अपने निवासके लिये, बडे पक्के और मजबूत मठ बनवाये और उनमें वे सुखसे रहने लगे । इतनेमें, जिनागममें बतलाई हुई क्रियाओंमें निरत और स्व-परके शुभ-अध्यवसायोंके कारणभूत ऐसे कुलप्रभ नामके आचार्य, साधुधर्मके नियमानुसार विचरण करते हुए, अपने पांच सौ शिष्योंके साथ, उस गाँवमें आ पहुंचे । गाँवके श्रावक उनका बहुमान करने लगे। उन स्थानस्थित साधुओंको इसकी खबर मिली, तो उन्होंने सोचा कि यह आचार्य क्रियानिष्ठ है, अतः लोगोंको बहुमान्य होगा और लोग इसके कहनेमें चलेंगे । इसलिये इसको अपने अनुकूल बनाना चाहिये- ऐसा विचार करके वन्दनादि द्वारा उनका आदरोपचार करने लगे। इस प्रकार वहां रहते हुए कुलप्रभ सूरिका जब मासकल्प पूरा होने आया तो वहांसे वे विहार करनेको उद्यत हुए । तब उन गाँवनिवासी साधुओंने कहा कि- 'भगवन् , आप यहीं वर्षाकालीन चातुर्मास व्यतीत करें ।' सूरिने उत्तरमें कहा- 'मुझे यह कल्पनीय (आचरणीय ) नहीं है । यहां रहनेका मुझे प्रयोजन क्या है ?? ___ उन्होंने कहा- 'न भगवन्, ऐसा मत कहिये । ये श्रावक लोग आपमें अनुरक्त हैं । आपके वचनसे ये जो अधुरे पडे हुए जिनमन्दिर हैं जल्दीसे पूरे हो जायंगे; और अन्य भी नये मन्दिर बनेंगे । इसलिये कल्पातिक्रमसे अर्थात् समय हो जाने पर भी अधिक ठहरने में आपको यह निमित्त है ही ।' सूरिने कहा- 'साधुओंको सावध वाणी बोलना कल्प्य नहीं है।' उन साधुओंने पूछा- 'इसमें सावध वाणीका कहां प्रसंग है !! Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनेश्वरीय ग्रन्थोंका विशेष विवेचन- कथाकोश प्रकरण । १०३ सूरिने कहा - 'उद्दिष्ट करके चैत्यादिका बनवाना सावध वचन है । द्रव्यस्तवके उपदेशके समय द्रव्यस्तवकी प्ररूपणा करना अनवद्य कर्म है ।' तब उन साधुओंने कहा - 'अहो, ये तो चैत्य भवनोंका बनवाना भी सावद्य कर्म बतला रहे हैं । इसलिये इन्हें तो सावद्याचार्य के नामसे संबोधन करना अच्छा होगा ।' फिर तो सर्वत्र उनकी वैसी ही प्रसिद्धि हो गई और वे वहांसे अन्यत्र चले गये । इस कथनको लक्ष्य करके समुद्रदत्त सूरि उस विक्रमसार राजासे कह रहे हैं कि - 'हे राजन्, तुम जो यह प्रश्न कर रहे हो कि क्या कोई ऐसा भी व्यक्ति होगा जो जिनवचनका बहुमान न करना चाहेगा; सो इस प्रसंगसे समझ सकते हो ।' तब फिर राजाने पूछा कि - 'भगवन्, क्या वे सूरि फिर वहां कभी आये या नहीं ?" आचार्य ने कहा - 'अन्य किसी समय उन शिथिलाचारियोंमें परस्पर विवाद खडा हो गया । कोई कहने लगे कि इन गृहस्थों को जो पहले हमने आग्रहपूर्वक पूजादिमें नियुक्त किया है ये प्रमत्त भावसे तथा धर्म मन्दोत्साहसे चैत्योंके रक्षण और पूजादि कार्यमें ठीक प्रवृत्त नहीं हो रहे हैं, इसलिये यदि ये कार्य स्वयं हम नहीं देखेंगे या करेंगे तो मार्गका ( अपने मतका ) नाश हो जायगा । शक्ति और सामर्थ्य के रहते हुए चैत्योंकी उपेक्षा करना युक्त नहीं है । इसलिये कालोचित जो कार्य हैं वे साधुओंको स्वयं ही करने चाहिये । तब दूसरे उनके कथनका विरोध करने लगे और कहने लगे कि नहीं स्वयं ऐसे कार्य नहीं करने चाहिये । इत्यादि । इस तरह की पक्षापक्षीसे उनके बीचमें बड़ा भारी विवाद खडा हो गया और वह किसी तरह भी मिटता हुआ नहीं दिखाई देने लगा । तब किसीने कहा - ' वह सावद्याचार्य बहुश्रुत हैं, उनको यहां बुलाना चाहिये । वे आगम जानते हैं । आगमके ज्ञानके विना इस प्रकारका विवाद नहीं मिट सकता ।" यह विचार सबको संमत हुआ । उन्होंने दो साधुओं को उन आचार्य के पास भेजा । वे वहां यथासमय पहुंचे और आचार्यसे कहने लगे कि 'हमको अपने संघने आपके पास भेजा है।' आचार्यने पूछा'किस लिये ?' तो उन्होंने कहा - 'इस इस प्रकार हमारे वहां परस्पर बडा विवाद उत्पन्न हो गया है सो आपके आने से मिट जायगा ।' 1 इस पर सूरिने कहा – 'मेरे एक विचारको सुन कर तो तुमने मुझे सावद्याचार्य बना दिया है; और अब जो मैं वहां गया तो न मालूम कैसा क्या करो, जिसको मैं जीवनतक भी न भूल पाऊं । इससे तुम्हारे वचनसे वहां पर हमको जानेकी क्या जरूरत है । और फिर हमारे वहां जाने पर भी कोई उपकार नहीं होगा । क्यों कि वे साधु प्रवचनकी भक्तिसे शून्य हैं । जिनके मनमें जिनवचन पर बहुमान हो उनके ऐसे उल्लाप नहीं होते । यदि प्रसंगवश वर्णन करते हुए कथकके वचनमें, किसी तत्त्वके विषयका, कोई संशय उत्पन्न हो जाय तो उसका कारण पूछना चाहिये और उसको भी अपने कथन के समर्थन में जिनवचन बताना चाहिये; और वैसे जिनवचनको 'तथेति' कह कर स्वीकार करना चाहिये । जिनकी नीति ऐसी नहीं है उनके बीचमें जा कर मैं क्या कर सकता हूं ?' 1 यह सुन कर उन आगंतुक साधुओंने कहा- 'भगवन्, ऐसा आप मत कहिये । आपके आगमन से वहां बहुतों पर अनुग्रह होगा इसलिये अवश्य चलिये ।' सूरि बोले - 'भाई अनुग्रहमें तो कर्मका क्षयोपशम ही कारणभूत है । आचार्य तो उसके निमित्त मात्र हैं और वह भी भवितव्यता के योगसे ही किसीको होता है। किं तु उपकारभावके सन्दिग्ध होने पर भी किसी-न-किसी को संबोधिभाव प्राप्त हो जाय इस उद्देशसे छद्मस्थको देशना तो करते ही रहना चाहिये ।' Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि । इस विचारको लक्ष्य करके 'वर्तमान-योग' हुआ और शरीरादिका कोई कारण बाधक न हुआ तो विहार करते हुए हम वहां पर आनेका प्रयत्न करेंगे।' . सुन कर वे आवाहक ( आमन्त्रण करनेवाले ) साधु चले गये । बादमें सावद्याचार्य भी विहारक्रमसे चलते हुए यथासमय वहां पहुंचे । वहांके निवासी साधुओंने उनके आने की खबर सुनी तो, वे बडे ठाठ-पाठसे गाँवके चतुर्विध संघको साथ ले कर उनका स्वागत करनेके लिये सम्मुख गये । __ उस गाँवमें एक मुग्ध आर्यिका ( संयतिनी ) रहती थी जो यह देख कर सोचने लगी कि - यह कोई तीर्थकरके जैसा महात्मा आ रहा है, जिसका स्वागत करनेके लिये संघ इस प्रकारके ठाठसे निकल रहा है । इससे बडी उत्कट भक्तिके साथ आचार्यके समीप जा कर, उसने वन्दन किया । वैसा करते समय उसके सिरके बाल आचार्यके पैरोंको लग गये । आचार्यने यह देखा । औरोंने भी देखा, परंतु वे न जान सके कि यह अच्छा है या बुरा । आचार्यका बडे उत्सबके साथ गाँवमें प्रवेश कराया गया और ठहरनेके लिये योग्य वसति दी गई। ___विश्रान्ति लेनेके बाद उन यतियोंने कहा - 'हमारे बीचमें इस इस प्रकारका वाद-विवाद चल रहा है । इसका निर्णय देनेमें आप हमें प्रमाण हैं।' सूरिने कहा- 'हम आगमका व्याख्यान करेंगे इसमें युक्तायुक्त क्या है इसका विचार तुम खयं करना। अन्यथा किसीएक पक्षकी मुझ पर अप्रीति होगी ।' आचार्यके इस वचनको सबने बहुमानपूर्वक खीकार किया । ___ अच्छे मुहूर्तवाले दिनमें व्याख्यानका प्रारंभ हुआ। वे सभी यति आ कर सुननेको बैठने लगे । आचार्य अपने कंठगत सूत्रोंका उच्चारण करके फिर उनका व्याख्यान करते थे । क्यों कि उस समय तक पुस्तक लिखे नहीं गये थे। इस प्रकार व्याख्यान करते हुए, एक समय एक गाथा सूत्रका आचार्यने उच्चारण किया, जिसका भावार्थ यह था कि "जिस गच्छ (साधुसमुदाय) में कारणके उत्पन्न होने पर भी यदि साधु, चाहे वह फिर केवली ही क्यों न हो, स्वयं अनन्तरिक रूपसे ( अर्थात् सीधा) स्त्रीका करस्पर्श करे तो वह गच्छ मूल गुणसे भ्रष्ट हुआ समझना चाहिये।" __इस गाथाका उच्चारण करनेके बाद आचार्यको उसका अर्थ समझानेके वक्त खयाल हुआ कि इसको न समझाना ही ठीक है । क्यों कि इसका मतलब समझ लेने पर ये लोक दुर्बुद्धिवाले होनेसे उस दिन मेरे पैरोंका उस साध्वीके केशोंसे जो संघट्ट स्पर्श हो गया था उसका स्मरण करते हुए, मेरा उड्डाह करें गे। इसलिये इसको नहीं पहूं तो कैसा ? अथवा नहीं ऐसा नहीं करना चाहिये । क्यों कि आगमका छिपाना अनन्त संसारमें , भवभ्रमणका कारण होता है । इससे जो कुछ होना हो सो हो, मुझे गाथा तो पढनी ही चाहिये - ऐसा विचार करके उन्होंने वह गाथासूत्र पढा और उसका व्याख्यान किया। __गाथाका व्याख्यान सुनते ही वहां पर बैठे हुए वे सब यति एक साथ बोलने लगे कि- 'तुम्हारा उस दिन उस संयतिनीके केशोंसे पादसंघट्ट हो गया था इसलिये तब तो तुम मूलगुणभ्रष्ट सिद्ध होते हो। अतः या तो इसका ठीक समाधान करो या इस आसनसे फिर नीचे उतरो । नहीं तो फिर पैरोंसे पकड कर घसीटते हुए तुमको हमें बहार निकालना पडेगा ।' __उन शठोंका यह आलाप सुन कर वह आचार्य भयभीत हो कर खिसाना बन गया और उसके शरीरमें पसीना-पसीना हो गया। उससे कोई ऐसा उत्तर देते नहीं बना, कि- 'अरे, इसमें तुम्हारे कथनका कहां कोई अवकाश है ? क्यों कि इसमें जो यह कहा गया है कि 'जो स्वयं करता है। इसका तात्पर्य यह Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनेश्वरीय प्रन्थों का विशेष विवेचन - कथाकोश प्रकरण। १०५ है कि जो किसी उद्देशपूर्वक स्पर्श करता है। हमारा उसके केशोंके साथ संस्पर्श होनेमें कोई उद्देश नहीं था । उद्देशपूर्वक स्पर्श होनेमें इस सूत्रका संबंध है; न कि अनाभोग यानि अनजानपनसे संघट्ट होने में । साधु भिक्षा लेने जब जाता है उस समय, यदि किसी श्राविकाका हाथ भिक्षा देते समय साधुको स्पर्श कर लेता है तो उससे कोई थोडा ही मूलगुण-नाश होता है । हां यदि उसमें किसी प्रकारका रागभाव कारणभूत होगा तो वह अवश्य दोषका निमित्त होगा । हमारा उसमें वैसा कोई भावदोष सर्वथा नहीं था । तथापि अनाभोगसे जो संघट्ट हो गया उसके दोषके निवारणके लिये हमने तप आदिका प्रायश्चित्त कर ही लिया है । इसलिये तुम्हारे इस कथनका कोई अर्थ नहीं है।' इत्यादि प्रकारका कुछ समाधायक उत्तर उस आचार्यसे देते नहीं बना और डर कर उसने उनसे कहा कि-'अरे भाई, आगममें जो उत्सर्गअपवाद मार्ग बतलाया गया है तुम उसे नहीं जानते । ऐसा कह कर उस आचार्यने एक अन्य गाथासूत्र सुनाया जिसका अर्थ यह है कि- "जिनेश्वर भगवान्ने न तो किसी प्रकारके कर्मके करनेकी अनुज्ञा दी है और न किसीका निषेध ही किया है । उनकी तो यही आज्ञा है कि जो भी कार्य किया जाय वह सत्यपूर्वक हो ।" आचार्य द्वारा पढे गये इस गाथासूत्रको सुन कर, जिस तरह मेघकी गर्जनासे मयूरोंको आनन्द होता है उसी तरह, उन सबके हृदयको निर्वृति हुई । वे सब अपने अपने पक्षमें दृढ हो गये। सावधाचार्यको भी उत्सूत्रका प्ररूपण करनेसे अनन्त-संसारका अशुभ बन्ध प्राप्त हुआ । इसलिये [ समुद्रदत्तसूरि उस विक्रमसार राजासे कहते हैं कि-] 'हे महाराज, जो अभव्य और दीर्घसंसारी होते हैं उनको जिनवचन यथार्थखरूपमें परिणत नहीं होता । जो आग्रही होते हैं वे अपने अपने अभिप्रायके पोषण निमित्त उस वचनके उतने अंशका उपयोग कर लेते हैं; शेष अंशको छोड देते हैं।' सुन कर विक्रमसार राजाने कहा कि- 'भगवन् , आप जैसा कहते हैं वैसा ही है।' उस अन्ध पुरुषने भी कहा कि- 'यदि आप जानते हों कि मैं आराधना कर सकूँगा तो मुझे अनशन व्रत कराइये ।' सूरिने अपनी ज्ञानशक्तिसे उसकी योग्यता जान कर उसे अनशन कराया । वह उसका आराधन करके अपना आयुष्य पूर्ण कर स्वर्गलोकको प्राप्त हुआ। इसलिये यह गाथा कही गई है कि अदिट्ठसमयसारा जिणवयणं अण्णहा परुवेंता। धवलो व कुगइभायण तह चेव हवंति ते जीवा ।। इस गाथाका अर्थ इस कथाके आरंभमें दिया हुआ है । इस प्रकार यह धवलकी कथा समाप्त होती है। इस प्रकार, इस प्रन्थमें जिनेश्वर सूरिने जो कथानक आलेखित किये हैं वे अपने अपने ढंगसे विशिष्ट वस्तुखरूप और भावबोधके वर्णनात्मक हो कर तत्कालीन सामाजिक और सांस्कृतिक परिस्थितिके विशेष निर्देशक हैं धवलके इस कथानकके पढनेसे ज्ञात होता है कि इस कथानकके गुम्फन करनेमें मुख्य उद्देश जिनेश्वर सूरिका, यह बात बतानेका रहा है, कि जैन यतिवर्गमें किस तरह चैत्यवास रूपी संस्थाकी उत्पत्ति हुई और किस तरह उस प्राचीन काल में जैन साधुओंका एक वर्ग अपने आचारमें शिथिल हो कर, अनियत रूपसे सदा-सर्वत्र परिभ्रमण करते रहनेकी-अर्थात् वनोंमें और निर्जन प्रदेशोंमें इधर उधर घूमते फिरते रहने खरूप परिव्राजक धर्मका पालन करनेकी- अपेक्षा वसतिनिवासी हो कर रहनेकी अभिलाषासे जैन मन्दिरों की सृष्टिका निर्माण करने-करानेमें प्रवृत्त हुआ । इस कथानकमें जो क. प्र. १४ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि । यह सावद्याचार्यका कथानक संकलित किया गया है वह एक पुराना कथानक है । कुन्तला रानीका कथानक भी शायद पुरातन हो । क्यों कि इस कथानकका उल्लेख अन्य ग्रन्थकारोंने भी किया है । इस कथानककी वस्तुसे जिनमन्दिरोंके बनवानेके विषयमें जिनेश्वर सूरिका कैसा अभिमत था और उनके समयमें जैन मन्दिरोंकी क्या व्यवस्था चल रही थी तथा जैन श्रावकों में मन्दिरोंके बारेमें कैसा ममत्वभाव और पक्षापक्षीका संघर्ष होता रहता था, इसका चित्र हमें देखनेको मिलता है । इसमें कहा गया सावद्याचार्यका कथानक बहुत सूचक है । सावद्याचार्यवाली घटना किस समय घटी थी इसका कोई ज्ञापक समय जिनेश्वर सूरिको ज्ञात नहीं था; तथा जिस कालिकश्रुतके आधार पर उन्होंने इस कथानकका संकलन किया है उसमें भी इसके समयका कोई सूचक निर्देश न होनेसे इस घटना को अतीतकालीन किसी अवसर्पिणीकालमें होनेवाली बतलाई गई है । परंतु हमारी ऐतिहासिक दृष्टि हमें स्पष्ट बतलाती है कि यह घटना किसी अनन्तकाल पहलेके अवसर्पिणीकालकी नहीं है परंतु इसी वर्तमान अवसर्पिणीकालकी है । जिनेश्वर सूरिने यद्यपि कालिकश्रुतोक्त कथानकका अविकल भावानुवाद ही अपने वर्णन में प्रथित करनेका प्रयत्न किया है, तथापि अज्ञातरूपसे - या अपने कथनको अविसंवादी बनानेकी दृष्टिसे - उनके कथन में, एक ऐसा ऐतिहासिक विसंवादी उल्लेख निबद्ध हो गया है जो हमको इस घटनाका ऐतिह्य तथ्य सूचित कर देता है । यह उल्लेख वह है जिसमें जिनेश्वर सूरिने यह कहा है कि कुवलयप्रभ सूरि अर्थात् सावद्याचार्यने, उन वसतिवासी साधुओंको आगमका व्याख्यान सुनाना प्रारंभ किया, तब उन्होंने अपने कंठस्थ सूत्रपाठ ही का उच्चारण कर उसपर अपना व्याख्यान करनेका क्रम रखा था - 'क्यों कि उस समयतक पुस्तक लिखे नहीं गये थे।' इस कथनमें पुस्तक लेखनविषयक जो यह सूचन है वह स्पष्ट रूपसे - देवर्द्धिगणी द्वारा वलभीमें वि. सं. ५१० के आसपास जो वर्तमान जैनागम पुस्तकारूढ किये गये, और उसके पहले जैन श्रमणोमें आगमका सूत्रपाठ प्रायः कण्ठस्थ रूपसे ही परंपरागत चला आता रहता था - यह जो जैन इतिहासकी सर्वमान्य और सर्वविश्रुत श्रुतपरंपरा है, उसीका निर्देश करता है । जिनेश्वर सूरिके मनमें तो यही ऐतिहासिक तथ्य रममाण हो रहा था, लेकिन कालिकश्रुतोक्त कथनका अविकल अनुवाद करनेकी दृष्टिसे उनको इस घटनाका वर्णन, किसी अतीतानन्तकालीन अवसर्पिणीमें होनेका निबद्ध करना पडा । इस विषय में बहुत कुछ विचार-विमर्श करने जैसा है, लेकिन उसका यहां पर विशेष अवकाश नहीं है, अतः सूचनमात्र करके ही 'इत्यलं प्रसंगेन' कहना उचित होगा । संप्रदाय भेद होनेके सूचक कथानक यति - मुनियों में जो संप्रदायभेद होते रहते हैं उनमें प्रायः मुख्य कारण तो परस्पर व्यक्तिगत ईर्ष्या ही बनती रहती है । किसी आचार्य या गुरुजन द्वारा, किसी समर्थ व्यक्तिका, किसी-न-किसी कारणसे, कुछ अपमान हो गया या स्वकीय अपेक्षित कार्य सिद्ध न हुआ, तो वह व्यक्ति फिर उस आचार्य या गुरुजनमें दोषारोपण करनेकी और उसके द्वारा अपना विशेषत्व या महत्त्व ख्यापन करनेकी चेष्टा करना प्रारंभ करता है और उसके लिये किसी-न-किसी सैद्धान्तिक भेदकी सृष्टि करके अपना पक्ष बनाना चाहता है । कुछ भक्त लोग, चाहे जिस कारण से जब उसके पक्षके पोषक बन जाते हैं, तब वह फिर अपने पक्षको नये संप्रदाय, समुदाय, गच्छ या गण इत्यादिके रूपमें संगठित करके, पुराने शास्त्रोंके कुछ अस्पष्ट कथनों का अथवा परस्पर साधकबाधक प्रमाणोंका, अपने अभीष्ट विचारानुसार संदर्भ बिठा कर एवं अपने विपक्षके + देखो, सन्देह दोलावलि प्रकरण- जिनपतिसूरिकृत, पृ. ७ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनेश्वरीय ग्रन्थोंका विशेष विवेचन - कथाकोश प्रकरण । १०७ विचारोंका खण्डन कर, स्वकीय पक्षके शास्त्रोक्त होनेकी और अन्य पक्षके अशास्त्रीय होने की प्ररूपणामें प्रवृत्त होता है । और इस तरह समाजमें एक नये पक्ष या मतकी स्थापना हो कर, उसके स्थापकका जैसा प्रभाव और सामर्थ्य होता है उसके अनुसार, उसका प्रवाह आगे बढता है और स्थापक व्यक्तिके 'अहंत्व' या 'ममत्व' को सन्तुष्ट करता है । जैन धर्मानुयायियोंमें जितने भी भिन्न-भिन्न संप्रदाय उत्पन्न हुए हैं उन सबकी उत्पत्तिमें मूल तो कोई ऐसा ही 'अहंत्व' 'ममत्व'सूचक काषायिक भाव ही प्रायः मुख्य कारण है । खयं श्रमण भगवान् श्री महावीरके साक्षात् जामाता राजकुमार जमालिके चलाए हुए पक्ष या मतसे ले कर आज पर्यंतके जैन इतिहासमें न जाने ऐसे कितने पक्ष और विपक्ष चले हैं और उनमेंसे कितने कालके प्रवाहमें बहते बहते विलीन हो गये हैं - इसकी गिनती कौन कर सकता है ? । जिनेश्वर सूरिने प्रस्तुत ग्रन्थमें, ईर्ष्यावश हो कर अपने गुरु-धर्माचार्यके विरुद्धमें एक मुनिचन्द्र नामक साधुने किस तरह गुरुके उपदेशको अशास्त्रीय बतलानेका प्रयत्न किया और किस तरह उनके भक्तोंको श्रद्धाविमुख बनानेका उपदेश दिया उसका अच्छा चित्र अंकित किया है । उसका कुछ सार इस प्रकार है गुरुविरोधी मुनिचन्द्र साधुका कथानक __ एक धर्मघोष सूरि नामके आचार्य थे जिनके अनेक शिष्योंमेंसे मुनेचन्द्र और सागरचन्द्र नामक दो प्रधान शिष्य थे । इनमें मुनिचन्द्र ज्येष्ठ शिष्य हो कर सूरिका स्वयं भागिनेय था लेकिन बहुत आत्मगर्विष्ठ था और सूत्रोंके अक्षर मात्रको रटते रहने वाला हो कर भावार्थके विचारकी दृष्टि से शून्य था। सागरचन्द्र एक राजकुमार था और आंतरिक विरक्तिसे भावित हो कर उसने संसार त्याग किया था और सूरिका अत्यंत विनम्र विनेय था। धर्मघोष सूरि जब बहुत वृद्ध हो गये और उनको अपना जीवनपर्याय पूर्ण होनेके निकट दिखाई दिया तो उन्होंने अनशन करनेका विचार प्रकट किया । उस समय मुनिचन्द्रने मनमें सोचा कि- मैं सूरिका भाणेज हूं, शास्त्रोंका ज्ञाता हूं और मेरे बहुतसे वजन भी हैं; इसलिये मृत्युके समय सूरि मुझे ही अपना उत्तराधिकारी आचार्य बनावेंगे । लेकिन सूरि तो बडे महानुभाव थे; मध्यस्थ चित्त हो कर केवल गुणोंका बहुमान करनेवाले थे। उन्होंने सागरचन्द्रको ही विशेष योग्य समझ कर उसे अपने पदपर स्थापित किया और सब गीतार्थ साधुओंने भी उसका बहुमान किया । फिर आचार्य तो अनशन कर स्वर्गको प्राप्त हुए । मुनिचन्द्र अपने गुरुके इस प्रकारके व्यवहारसे असन्तुष्ट हो गया । वह अपने खजनोंको बहकाता हुआ और सूरिपर प्रद्वेषभाव धारण करता हुआ पृथक् हो कर विचरने लगा । बादमें, सूत्रमात्रके शब्दोंको पकड कर और उसके विषयविभागको लक्ष्यमें न रख कर, लोगोंको अपनी इच्छानुसार उसका उपदेश देने लगा । यह परिभ्रमण करता हुआ एक समय साकेत नगरमें पहुंचा जहां उसके गुरुके प्रतिबोधित किये हुए बहुतसे भक्त श्रावकजन रहते थे। वह सागरचन्द्र राजकुमार भी वहींका निवासी था। वहां पर कितनेक ऐसे लोग भी थे जो पहले जैन शासनसे विरोधभाव रखते थे। उनको धर्मघोष सूरिने निम्न प्रकारका माध्यस्थमात्र सूचक धर्मोपदेश दे दे कर अपने धर्म के अनुरागी बनाये थे । वे सूरि अपने उपदेशमें श्रोताओंको कहा करते थे कि- 'देखो, जिसको इस लोकमें भी फलकी कुछ आकांक्षा होती है वह ठाकुर वगैरह राजपुरुषकी सेवा करता है । इसी तरह इसलोक और परलोकके फलकी इच्छा रखने वालेको किसी देवकी सेवा करनी चाहिये । पर देवता परोक्ष होनेसे उसके गुणोंका ज्ञान नहीं हो सकता-जैसे कोई घडा सामने न होनेसे उसके गुणोंका ज्ञान नहीं हो सकता । लेकिन यह Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि । 1 तो निश्चित है कि परलोक अवश्य है और पुण्य-पाप भी अवश्य हैं । इसलिये इनकी प्ररूपणा करने वाला मी कोई देव अवश्य होना चाहिये । परंतु वह देव अपने जैसे स्थूलदृष्टि वालोंको प्रत्यक्ष नहीं दिखाई देता । अतः जो कोई भी देवरूपसे हमें ज्ञात हों उसको प्रणामादि करते रहना चाहिये । उसके आयतन अर्थात् स्थान की सार-संभाल लेते रहना चाहिये और पूजादि कार्य करते रहना चाहिये। ऐसा करते हुए इनमें जो कोई देवाधिदेव होगा उसकी पूजासे हमारा निस्तार हो जायगा । इसके विपरीत जो कोई पाखंडी विशेष के वचनोंमें विश्वास रख कर, किसी एक ही देवकी उपासना करनेमें आग्रहबद्ध हो जाता है और अन्य देवोंकी तरफ अवज्ञाभाव धारण कर लेता है वह तत्त्वदर्शनसे वंचित रहता है । अतः तत्रदर्शनकी इच्छा रखने वाले मनुष्यको सर्वत्र समदृष्टि होना चाहिये' - इत्यादि । धर्मघोष सूरिका ऐसा निरपेक्ष उपदेश उन लोकोंके हृदयमें ठंस गया । उन्होंने समझा कि ये मध्यस्थ दृष्टि वाले हैं और सच कहनेवाले हैं । इससे उन लोगोंका जो जैनधर्मके प्रति विरोधभाव था वह हठ गया वे 'भद्रभाव' वाले बन गये । उनमेंसे जिनको जैन प्रवचन पर विशेष विश्वास हो गया वे सूरिके पास ' दर्शनप्रतिमा' का स्वीकार कर, 'दर्शन श्रावक' बन गये । जिनको देशविरति लेनेकी इच्छा हुई उन्होंने एकविधादि ' विरतिभाव' ग्रहण किया । इस प्रकार धर्मघोष सूरिके उपदेशसे जो धर्मानुरागी बने थे वे लोक, मुनिचन्द्रका अपने नरगमें आगमन जान कर और अपने धर्मगुरुके ये भागिनेय एवं ज्येष्ठ शिष्य हैं इस भावसे उनको वंदन करने आये । उन लोकोंमें जो 'भद्रभाव' वाले मनुष्य थे उनको मुनिचन्द्र ने पूछा कि - 'तुम्हारा धर्मानुष्ठान कैसा चलता है ?' तो उन्होंने कहा कि - 'आपके गुरुने जो सर्व देवोंको प्रणामादि करते रहनेका उपदेश दिया है वह ठीक चल रहा है ।' तब उस साधुने कहा- 'तुमको तो मेरे गुरूने ठग लिया है । उन्होंने तुमको और अपनेको - दोनोंको संसारमें भटकते रहनेके योग्य बना दिया है । तुमको मिथ्यात्व में चिपका कर संसार में भटकाना चाहा है और उन्मार्गका उपदेश करके अपनेको भी भवकूपमें गिराया है । ऐसे धर्मानुष्ठान से कुछ कार्यसिद्धि नहीं होती' - इत्यादि । इस प्रकारके उसके वचन सुन कर वे 'भद्रभावी' मनुष्यं वापस जैनधर्मके प्रति अश्रद्धावान् बन गये । चैत्य और साधुओंको बाधा करने वाले बन गये । फिर इस प्रकार वे मिथ्याभाव प्राप्त कर संसारगामी बने । 1 जिन्होंने 'सम्यक्त्वव्रत' ग्रहण किया था उनको वह कहने लगा कि - 'तुम्हारेमें गुरूने वैसी कौनसी योग्यता देखी जिससे तुमको 'सम्यक्त्ववत' दिया गया है ? सम्यक्त्वके योग्य तो वह होता है जिसमें औदार्य, दाक्षिण्य, पापजुगुप्सा, निर्मलबोध और जनप्रियत्व आदि गुण होते हैं । इनमेंसे तुममें कौनसे गुण हैं? किसानोंको और गरीबोंको चूसने वाले तुम बनियोंमें 'औदार्य' कैसा ? कौडी-कौडीके लिये पिता माता भाई और पुत्रादिके साथ भी लडाई झघडे करते दूसरोंकी संपत्तिको हर लेनेकी इच्छा रखने वालोंको 'पापसे जुगुप्सा' हों उनमें 'निर्मलबोध' कहां और जो अपने खजनोंसे लडते रहते हैं इस तरह तुम्हारा व्यवहार तो ऐसा आमूल हीन स्वरूपका है; इसलिये मैं क्या पूछताछ करूं ?' उसके इस प्रकार के दोषदर्शक वचनों को सुन कर उनके मनमें आया कि यह जो कहते हैं वैसा ही ठीक होगा । सो इस प्रकार वे 'सम्यक्त्वव्रत' से पतित हो गये । रहने वालोंमें 'दाक्षिण्य' कैसा ? हमेशां कैसी ? जिनमें ये दोष भरे हुए उनकी 'जनप्रियता' भी कैसी ? तुम्हारी धर्मप्रवृत्तिके विषय में --- इसी प्रकार जिन लोकोंके दिलमें प्रव्रज्या लेनेकी कुछ इच्छा हो रही थी, उनसे उसने कहा कि - ""प्रवज्या लेनेके लिये तुम्हारी क्या योग्यता है ? जिस प्रव्रज्याका आराधन चक्रवर्ती, बलदेव, महामांडलिक Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनेश्वरीय ग्रन्थों का विशेष विवेचन-कथाकोश प्रकरण । १०९ आदिने किया है उसका तुम्हारे जैसे तुच्छ बनिये कैसे आराधन कर सकते हैं ? प्रव्रज्याकी विराधना करनेसे तो संसारभ्रमणके सिवा और कोई फल मिल नहीं सकता और इसीलिये यह कहा है कि 'अविधिकृताद् वरमकृतम् ।' अर्थात् अविधिपूर्वक काम करनेकी अपेक्षा न करना अच्छा है । इसीलिये शास्त्रोंमें यह भी कहा है, कि कुरुड - उकुरुड नामक साधु दुष्कर तपश्चरण करते हुए भी श्रमणभावका विराधन करने से सातवीं नरकमें गए । इसलिये पहले श्रावककी जो ११ प्रतिमाएं हैं उनका पालन करके ही पीछे प्रव्रज्या लेनी चाहिये । क्यों कि इस प्रव्रज्याका पालन करनेमें तो बडे बडे महारथी भी भग्न हो जाते हैं, तो फिर तुम्हारे जैसे बनियों मात्रकी क्या दशा हो सकती है ?' इन बातों को सुन कर वे प्रव्रज्याकी इच्छा रखने वाले लोक भी गृहवास ही में रहनेकी दृढ भावना वाले बन गये । इस प्रकार उसके अविधिपूर्वक धर्मविचार प्रकट करनेसे, बहुतसे जन धर्मवासना से रहित हो गये और अन्य साधुजनोंके द्वेषी एवं धर्मविमुख बन गये । और जो मूढ धार्मिक जन थे वे उसको 'यह भगवान् शुद्ध मार्गी प्ररूपणा करते हैं' ऐसा मान कर उसकी खूब पूजा करने लगे । 1 1 साकेत नगर में मुनिचन्द्रके द्वारा इस तरह लोकोंको बहकाने वाले धर्मविचारका प्रचार सुन कर वे सागरचन्द्रसूरि भी अपने बहुतसे शिष्यों को साथ ले कर वहां पहुंचे । नगरके बहार उद्यानमें ठहरे । उस मुनिचन्द्र के बहकाए हुए जनोंको छोड कर बाकी सब जन उनको वन्दनादि करनेके लिये उद्यान में पहुंचे। उन्होंने मुनिचन्द्र और उसके भक्तजनोंको भी बुलाया लेकिन वे पहले यों तो नहीं गये । बाद में किसी देवताके उपद्रवकी आशंकासे भयभीत हो कर वे फिर सूरि के पास पहुंचे । सूरिने उन सबके सामने मुनिचन्द्रके विचारोंका अच्छी तरह खण्डन किया और शास्त्रोंके उत्सर्ग - अपवादात्मक कथनों का मर्म समझाते हुए कहा कि - 'इस प्रकार मुनिचन्द्रने जो क्रियामार्गके लोपके विचार प्रकट किये हैं वे भ्रान्त हैं । क्रियावादका निषेध करनेसे जैन शासनका अपराध होता है और उसके पापसे जीब दुर्गतिको जाता है' । अपने सन्मुख बैठे हुए श्रोता जनोंको संबोधन करते हुए उन्होंने कहा कि - 'अहो जिनदत्त, जिनवल्लभ, जिनरक्षित, जिनपालित, अर्हदत्त - ( जिनेश्वर सूरिने अपने श्रोता श्रावकों का जो नामकरण किया है वह खास ध्यान देने लायक है ) आदि श्रावको ! तुम धन्य हो, जो तुम्हारे हृदयरूपी आंगन में मोक्षफलका देने वाला सम्यक्त्वरूप वृक्ष वृद्धि पा रहा है । क्यों भाई मुनिचन्द्र ! हमारे गुरुने क्या ऐसा अनुचित आचरण किया था जो तुमने इनको और गुरुको भी उपालंभ देनेका प्रयत्न किया है ! तुमने जो विचार प्रदर्शित किये हैं वे न तो किन्हीं 'अंग - उपांग' आदि सूत्रोंमें देखे जाते हैं न 'प्रायश्चितादि' प्रन्थों में उपलब्ध होते हैं । और तुमने इनको बनिये कह कर एवं किसान आदिकों को लूटने वाला बतला कर, इनमें जो क्षुद्रता के दोषोंका आरोप किया है वे दोष क्या औरोंमें नहीं होते हैं ? तुम्हारे विचारसे तो फिर दूसरोंके पास याचना करने वाले ब्राह्मणोंमें भी उदारता कैसी हो सकती है ? । इसी प्रकार पराए देशोंको लूटने वाले और निरपराधी धनिकोंका धनापहरण करने वाले क्षत्रियोंकी भी क्या उदारता हो सकती है ? वैश्य जितने हैं वे तो सब बनिये ही हैं । और जो शूद्र हैं वे तो सब हल और गाडी चलाने वाले हो कर, सदैव करके भारसे दंडाक्रांत होने वाले, और प्रजाजनोंके सभी प्रकार के अपमानको सहन करने वाले पामर होते हैं । इसलिये उनमें भी औदार्यका गुण कैसे संभवित हो सकता है ? । इसी तरह तुम्हारे विचारसे तो बाहुबली जैसे भाई के साथ लडने वाले भरत में भी 'दाक्षिण्यता' के गुणकी संभावना कैसे की जा सकेगी ? । फिर जो राजादि लोक हैं वे तो प्रायः मांसाहारी होते हैं तो फिर उनमें 'पापसे जुगुप्सा' करने वाले गुणका आविर्भाव कैसे संभवित हो सकता है ? और जो 'सर्वजन - psp Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि । वल्लभ' के गुणकी बात कही सो तो तीर्थंकर में भी संभव नहीं हो सकता। क्यों कि तीर्थंकरका भी सर्वजनवल्लभ होना शक्य नहीं है । तब फिर अन्य जनोंकी तो बात ही क्या है ? इसलिये केवल सूत्रके शब्दों को पकड कर नहीं बैठना चाहिये, लेकिन उसके विषयविभागकी विचारणा करनी चाहिये । तुमने जो यह विचार प्रकट किया, कि बनियोंका प्रव्रज्या पालन कैसा - इत्यादि । सो भी तुम्हारा भ्रमजनक है । शालिभद्र, धन्ना, सुदर्शन, जंबू, वज्रखामी, धनगिरि आदि बडे बडे मुनि हो गये जो जातिसे वर्णिक थे । तुमने अपने ये सब भ्रान्त विचार प्रकट करके तीर्थंकरोंकी आशातना की है और उस आशातनाका फल है दीर्घकाल तक संसारमें परिभ्रमण करते रहना' - इत्यादि । इस प्रकार सागरचन्द्र सूरिके कथनको सुन कर उस मुनिचन्द्रके मनमें बडा रोष उत्पन्न हुआ । लेकिन सागरचन्द्र राजपुत्र होनेसे भयके मारे उसको कुछ वह प्रतिउत्तर नहीं दे सका और वहांसे कुपित हो कर चला गया। उसके जो कुछ भक्तजन बन गये थे वे सागरचन्द्र सूरिके धर्मोपदेश से पुनः अपने मार्ग में स्थिर हो गये और मुनिचन्द्र के विचारोंकी निन्दा करने लगे । मुनिचन्द्र अपने उन्मार्गदर्शक विचारोंके कारण मर कर दुर्गतिको प्राप्त हुआ । इत्यादि । * जिनेश्वर सूरिने इस कथाको खूब विस्तारके साथ लिखा है । हमने तो यहां पर इसका केवल सारार्थ मात्र दे दिया है । पाठक इस कथानकके वर्णनसे यह जान सकेंगे कि उस समय में भी जैन साधुओं में कैसे कैसे विचारोंका ऊहापोह होता रहता था । इसी तरह के विलक्षण विचारोंका ऊहापोह आज भी जैन साधुओं में वैसे ही चलता रहता है जिनका दिग्दर्शन समाजको भिन्न भिन्न मतोंके स्थापक उत्थापक वर्गोंके परस्परके खण्डन- मण्डनसे अनुभूत हो रहा है । ये सब मतवादी परस्पर एक दूसरेको मिथ्यावादी और जैनशासनके विराधक कहते रहते हैं । * जिस प्रकार इन उपर्युक्त कथानकोंमें श्वेतांबर जैनसाधुओंके परस्परके मतभेदोंके और पक्षापक्षीके संघर्षसूचक विचारोंका चित्र अंकित किया गया मिलता है इसी प्रकार कुछ अन्य कथानकोंमें दिगंबर जैन संप्रदाय एवं बौद्ध और ब्राह्मण संप्रदायके अनुयायियों के साथ भी जैन साधुओंका कैसा संघर्ष होता रहता था इसके चित्र भी अंकित किये गये मिलते हैं । श्वेताम्बर - दिगम्बर संघर्ष सूचक कथानक २५ वां कथानक एक दत्त नामक साधुका है जिसमें यह बताया गया है कि किस तरह दिगंबरा - उपासकोंने एक श्वेतांबर भिक्षुकको लोकोंमें निन्दित बनानेकी चेष्टा की और कैसे उस साधुने अपने बुद्धिचातुर्य से उस चेष्टाको विफल बना कर उलटमें उन्हींको लज्जित बनानेका सफल प्रयत्न किया । इस छोटेसे कथानकका सार पढिये । जिनेश्वर सूरिने लिखा है कि- भगवान् महावीरके निर्वाण बाद, कुछ शताब्दियोंके व्यतीत होने पर, बौटिक नामका एक निन्हव संप्रदाय उत्पन्न हुआ । उस समय एक संगम नामक स्थविर ( श्वेतांबर ) आचार्य थे जिनके ५०० शिष्य थे । उन शिष्योंमें एक दत्तक नामका साधु था जो बडा घुमक्कड था । किसी एक प्रयोजनके लिये आचार्यने उसको एक दफह एकाकी ही किसी ग्रामान्तरको भेजा । वह चलता चलता संध्या समय किसी एक छोटेसे गांवमें पहुंचा और वहां रात रद्दनेके लिये अपने योग्य कोई Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनेश्वरीय ग्रन्थोंका विशेष विवेचन-कथाकोश प्रकरण । वसतिकी तलाश करने लगा; पर वह न मिली । तब वह वहां पर जो एक बौटिक चैत्यालय ( दिगंबर जैनमन्दिर ) था उसमें चला गया। यह मेरे लिये योग्य एषणीय स्थान है, ऐसा समझ कर वहीं उसने रात्रिवास व्यतीत करना चाहा । इसका पता जब बौटिक श्रावकोंको लगा, तो द्वेषवश उन्होंने उसका उड्डाह करनेकी दृष्टिसे, कुछ पैसे दे कर एक वेश्याको रातको उस साधुके पास भेजा । फिर उन्होंने मन्दिरके दरवाजे बन्ध करके उसको बाहरसे ताला लगा दिया । प्रहरभर रात्रिके बीतने पर वह गणिका (वेश्या) उस साधुको हैरान करनेको उद्यत हुई। पर दत्त विरक्त था इसलिये वह निष्प्रकंप हो कर बैठ रहा । साधुकी वैसी निष्प्रकंपताको देख कर वह गणिका उपशान्त हो गई और विनम्र हो कर कहने लगी कि- 'तुमको क्षुब्ध और भ्रष्ट करनेके लिये मुझे इन दिगंबर उपासकोंने पैसे दे कर यहां पर भेजी है । साधुने कहा - 'अच्छा है, एक किनारे जा कर सो जा । तुझे तो पैसेसे मतलब है और किसीसे तो नहीं ।' फिर उस साधुने उस वेश्याके सामने ही, उस मन्दिरमें जो दिया जल रहा था उसकी ज्वालासे अपने जितने वस्त्र और रजोहरण आदि उपकरण थे उन सबको जला दिया और मन्दिरमें जो एक पुराना मोरपिच्छ पड़ा हुआ था उसको उठा लिया। सवेरा होने आया तब उन दिगंबर श्रावकोंने लोगोंको इकट्ठा करके कहना शुरू किया कि- 'देखो, इस मन्दिरमें रातको एक श्वेतपट साधु वेश्याको ले कर आ कर घुस गया है ।' तब सूर्योदय होने पर उन्होंने मन्दिरका दरवाजा खोला, तो वह दत्त उस वेश्याके कंधेपर अपना हाथ रखे हुए बहार निकलने लगा । लोगोंने देखा तो वह तो सर्वथा नग्न क्षपणक था । लोक कहने लगे- 'अरे, यह तो निर्लज्ज क्षपणक है, जो वेश्याके साथ यहां आ कर रहा है और अब भी इसके गलेमें विलग कर इसको ले जा रहा है !' तब दत्तने कहा - 'अरे, तुम मेरी अकेलेकी क्यों हंसी उडा रहे हो । ऐसे तो बहुतसे क्षपणक हैं जो इसी तरह रातको वेश्याओंके साथ रहा करते हैं।' तब फिर वे लोग बौटिक श्रावकोंकी हंसी उडाने लगे और कहने लगे कि-'बस, ऐसे ही तुम्हारे गुरु हैं। ठीक ही है, जो ऐसे भांडजैसे नंगधडंग होते हैं उनकी तो ऐसी ही गति होती है । मालूम देता है कि इसीलिये श्वेतांबरोंने वस्त्र ग्रहण किया है; और उन्हींका पक्ष सत्य मालूम देता है तुम्हारा नहीं ।' इत्यादि । यह कथानक इस बातका चित्र उपस्थित करता है कि दिगंबर और श्वेतांबर संप्रदायके बीचमें किस तरहका परस्पर द्वेषभाव रहा करता था और एक संप्रदाय वाले दूसरे संप्रदाय वालोंको नीचा दिखानेके लिये कैसे कैसे क्षुद्र और उपहसनीय प्रयत्न किया करते थे । मालूम देता है यह सांप्रदायिक प्रद्वेष और संघर्ष बहुत प्राचीन कालसे ही चला आ रहा है और अब भी वह शान्त नहीं हुआ है । दिगंबरों द्वारा श्वेतांबरोंका उपहास किये जानेकी ऐसी ही एक जुगुप्सनीय घटनाका उल्लेख, वादी देवसूरिके प्रबन्धोंमें मिलता है जिसमें यह कहा गया है कि सुप्रसिद्ध दिगंबराचार्य वादी कुमुदचन्द्रके भक्तोंने, कर्णावतीमें एक श्वेतांबर वृद्धा आर्याको, रास्तेके बीचमें निर्लज भावसे नचानेका निंद्य प्रयत्न किया था और उसी द्वेषमूलक प्रयत्नके परिणाममें वादी देवसूरिको सिद्धराज जयसिंहकी सभामें भट्टारक कुमुदचन्द्र के साथ वादमें उतरना पड़ा और उसमें दिगंबर पक्षको बडा भारी पराजय सहना पडा, इत्यादि । जैन और बौद्ध भिक्षुओंके संघर्षकी कथा इसके बादके २६ वें जयदेव नामक कथानकमें एक सुचन्द्रसूरि नामक जैन श्वेतांबर आचार्यका जयगुप्त नामक बौद्ध भिक्षुके साथ वादविवादमें उतरनेका वर्णन दिया गया है जिसमें बौद्ध संप्रदायके Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि । साथ श्वेतांबर साधुओंका कैसा संघर्ष होता रहता था इसका चित्र हमें देखनेको मिलता है । कथाका कुछ सार इस प्रकार है इस भारतवर्षके साकेत नामक नगरमें यदु नामक राजा राज्य करता था, जो तश्चनिक अर्थात् बौद्ध मतका भक्त था । उसके मनमें भिक्षुमत यानि बौद्धमत ही तत्त्वभूत पदार्थका उपदेश देनेवाला मत है और अन्य कोई मत वैसा नहीं है,-ऐसी मान्यता ठंसी हुई थी और इसलिये वह साधुओंका अर्थात् जैन साधुओंका कभी बहुमान नहीं करता था-प्रत्युत इस प्रकार उपहास किये करता था कि-ये साधु तो उस स्याद्वाद मतको मानने वाले हैं जिससे किसी प्रकारका लोकव्यवहार सिद्ध नहीं होता है । इस 'स्याद्वाद'के सिद्धान्तानुसार माता भी अमाता, पिता भी अपिता, धर्म भी अधर्म, मोक्ष भी अमोक्ष और जीव भी अजीव सिद्ध होता है । इस तरह इस सिद्धान्तसे कोई बात घट नहीं सकती। इसीलिये जो अरिहंत है वह भी सर्वज्ञ नहीं सिद्ध हो सकता;- इत्यादि प्रकारके विचार वह अपने सभास्थानमें भी प्रकट किये करता था। उस राजाका मंत्री सुबन्धु नामक था जो जैन श्रमणोपासक था । राजाद्वारा किये जाने वाले अपने धर्मके उपहासवचनोंको सुन कर, उसके मनमें खेद होता रहता था । एक समय वहां पर सुचन्द्र नामक जैन श्वेतांबर आचार्य आये तो उनको मंत्रीने वह सब बात सुनाई और कहा कि - 'इस इस प्रकार राजा [ अपने धर्मके विरुद्ध ] बोलता रहता है।" सुन कर सूरिने कहा- 'भाई, जो बाडीमें ताडते रहते हैं वैसे बैल तो घर घरमें होते हैं । परंतु जिसके सिरपर बडे तीक्ष्ण सींग होते हैं और जिसका स्कन्ध खूब मांसल हो कर कठोर टक्कर लेनेमें बडा मजबूत होता है वैसे वृषभ (मत्त सांड )के आगे दहाडना कठिन होता है । इसलिये इसमें कुछ तथ्य नहीं है' इत्यादि । अपने गुप्त चरोंद्वारा राजाको यह बात ज्ञात हुई तो उसने अपने धर्मगुरु जयगुप्त भिक्षुको कहा कि- 'वाद-विवादका आव्हान सूचन करनेवाला श्वेतांबर साधुओंको 'पत्र' (चेलेंज) देना चाहिये ।' तब उस भिक्षुने वह पत्र तैयार किया और उसे सिंहद्वारपर लगा दिया गया । सुचन्द्रसूरिने उसको ले लिया और फाड कर फेंक दिया । फिर सूरि राजद्वारमें गये और जयगुप्तको विवाद करनेके लिये बुलानेकी खबर दी । सूरिने पत्रकी व्याख्या की और वादविषयक अपनी प्रतिज्ञा समझाई । वादका विषय और उसके प्रतिपादनकी शैलीका निर्णय किया गया । सूरिने कहा- 'इस शैलीके मुताबिक या तो हम पूर्वपक्ष करें और उसका उत्तर जयगुप्त भिक्षु दें; या फिर भिक्षु पूर्वपक्ष करें और हम उसका उत्तर दें। इसमें कहीं एक भी दोष आया तो उसका सबमें पराजय माना जाय । इस प्रतिज्ञाके अनुसार, जयगुप्त भिक्षुने 'क्षणिकवाद'को मुख्य करके अपना पूर्वपक्ष उत्थापित किया । सूरिने उसका अनुवाद करते हुए उसे 'दूषित' सिद्ध किया । भिक्षुसे उसका ठीक उत्तर देते नहीं बना । परंतु राजा उसका पक्षपाती होनेसे उसने 'जयपत्र' देना नहीं चाहा और कहा कि- 'वाद अभी और होना चाहिये। ऐसा कह कर उस दिन सभा बन्ध कर दी गई । भिक्षु उठ कर चले गये और सब लोकोंको कहने लगे कि- 'हमारी जीत हुई है । लेकिन राजा मनमें तो समझ गया था कि मेरे गुरुओंकी हार हुई है। इससे उसके मनमें उलटा द्वेष बढा और वह जैन साधुओंके छिद्र ढूंढने लगा । सूरिको यह ज्ञात हुआ । उधर जो बौद्ध मती थे वे राजाको कहने लगे कि - 'इन श्वेतांबरोंको देशसे बहार कर देना चाहिये ।' तब राजाने कहा कि-'प्रसंग आने पर ऐसा किया जायगा । इनके बहुत लोक भक्त हैं, इसलिये सहसा कुछ करनेमें कहीं प्रजाका विरोध भाव न हो जाय ।' उधर सूरिने अपने शिष्योंमें जो सबसे अधिक बड़ा तपखी था Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनेश्वरीय ग्रन्थोंका विशेष विवेचन -कथाकोश प्रकरण । ११३ उसको कहा कि- 'देवताका स्मरण करो।' तब उसके कायोत्सर्ग ध्यान करने पर देवता आई, तो उसको सपस्त्रीने कहा - 'राजा हमारा अनिष्ट करना चाहता है; इसलिये इसको कुछ शिक्षा देनी चाहिये ।' उत्तरमें देवताने कहा- 'जब यह कोई अपराध करेगा तब वैसा किया जायगा; तुम सब अभी निरुद्विग्नभावसे शान्त रहो ।' इधर उस जयगुप्त भिक्षुने एक चरिका ( जारण-मारण जादू-टोना आदि करते रहनेवाली दुःशील परिव्राजिका)को बुला कर कहा कि- 'इस सुचन्द्रको अपने फंदेमें फसा कर उसपर कुछ कलंक लगाओ। उसने स्वीकार किया । वह फिर एक समय, बे वक्त साधुओंके स्थानमें आई । सूरिने उसे कहा – 'एकाकी स्त्रीका साधुओंके उपाश्रयमें इस तरह आना निषिद्ध है ।' तब उसने कहा - 'मैं धर्मश्रवण करनेके लिये आई हूं।' तो सूरिने कहा - 'इसके लिये साध्वियोंके स्थानमें जाओ।' उसने फिर कहा - 'मेरे यहां आनेसे तुम्हारा क्या अपराध होता है ? तुम्हें अपनी चित्तशुद्धिको ठीक रखना चाहिये। तुम जब राजमार्गमें, चैत्यालयमें अथवा भिक्षाके लिये लोगोंके घरोंमें जाते हो तब क्या आंखों पर पट्टी बांधके जाते हो? इस प्रकारका चक्षुरिन्द्रियका निरोध करनेसे कुछ थोडा ही लाभ होता है । अन्तरकरणका निरोध करना चाहिये । अन्तरका निरोध होनेसे ही ब्रह्मचर्यका स्थैर्य होता है । मेरे यहां आनेसे तो तुम्हारी लोकोंमें उलटी पूजा बढेगी । इसलिये वृथा ही तुम मुझे रोकना चाहते हो।' सुन कर सूरिने कहा- 'इसका विचार लोगोंके सामने किया जाना चाहिये । अभी तुम अकेलीके साथ यहां पर हमें कोई बातचीत नहीं करनी है ।' सुन कर वह रुष्ट हुई और उठ कर चली गई। लोगोंके सामने जा कर कहने लगी- 'ये साधु तो ब्रह्मचर्यसे भ्रष्ट हैं । अपने व्रतको छोड कर इन्होंने मेरे साथ दुराचार किया। मैंने इनको संतुष्ट करके किसी तरह फिर व्रतमें स्थिर किया है' - इत्यादि । उसकी ये बातें सुन कर, अन्य लोक श्रावकोंको देख कर तालियां देते और हंसते हुए कहने लगे'क्यों भाई, सुनी है न अपने गुरुओंकी यह बात ?' तब श्रावकोंने उस स्त्री को फटकारते हुए कहा कि- 'अरे पापिनी, महामुनियोंके बारेमें ऐसा कहती हुई तूं नरकमें जायगी । तेरे इन झुलसे हुए गाल, लटकते हुए स्तन और शोभाहीन शरीरको देख कर, अन्य भी कोई मनुष्य तुझसे विषयसेवा करना नहीं चाहेगा तो फिर हे निर्लज्ज नारी, ये मुनि जो नित्य स्वाध्यायमें निमग्न रह कर कामका जिन्होंने उन्मूलन कर दिया है और जिनके चित्तको देवियां भी चलायमान नहीं कर सकतीं, वे तेरे साथ कामसेवाकी इच्छा करेंगे ? इनको वन्दन करनेके लिये, विविध प्रकारके आभूषणोंसे अलंकृत हो कर राजा, अमात्य, पुरोहित, क्षत्रिय, सेठ और सार्थवाह आदिके घरानों की बहु-बेटियां आती रहती हैं, परंतु उनकी तरफ इनका कभी किंचित् भी वैसा दृष्टिनिपात होते किसीने नहीं देखा और तूं निर्लज, इस प्रकार इन पर दोषारोपण कर रही है ?' तब वह बोली- 'अरे इस बातको तुम क्या जानो ? वह तो मैं ही जानती हूं जिसके आठों अंगोंका इन्होंने उपभोग किया है ।' श्रावकोंने कहा - 'जानेगी जब राजकुलमें (राजाके दरबार में ) घसीटी जायगी । ऐसी बातें करते हुए वे सब श्रावक इधर-उधर चले गये । फिर सुबन्धुमंत्रीके साथ सलाह करके वे सुचन्द्रगुरुके पास पहुंचे। उन्होंने गुरुसे वह सब हाल कह सुनाया । गुरुने कहा- 'वह यहां पर ऐसी ऐसी बातें करती हुई आई थी । हमने उसको सर्वथा. फटकार दिया था। मालूम देता है कि उसका इस प्रकार प्रलाप करनेके पीछे राजाका भी कुछ कारस्थान है । तब भी ऐसे बकती हुई उसको बांहसे पकड कर राजकुलमें घसीट ले जाओ। इसमें कुछ भी विलंब मत करो । अन्तमें सब अच्छा होगा।' क. प्र. १५ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि । -फिर उन श्रावकोंने उसको लोगोंके बी वमें जब ऐसा बकती हुई देखी तो उसे बांहसे पकड कर सुबन्धुके पास ले गये । उसने भी कहा कि- 'पापे, चल राजकुलमें ।' तो वह झटसे चलनेको तैयार हो गई । तब श्रावकोंने समझ लिया कि निश्चय ही इसमें राजाका कुछ कारस्थान है । लेकिन शासनदेवता सत्यकी जरूर रक्षा करेगी । सुबन्धुने फिर कहा- 'राजा प्ररुष्ट हुआ है और उसीने इससे ऐसा करवाया है । तब भी राजकुलमें जाना ठीक है ।' बादमें वे सब राजाके पास पहुंचे । उन श्रावकोंका अग्रणी एक यक्ष नामक श्रेष्ठी था उसने पहले राजासे निवेदन किया कि - 'महाराज, तपोवन तो राजरक्षित सुने जाते हैं । और शास्त्रोंमें भी कहा है कि - 'राजा न्यायपूर्वक प्रजाका परिपालन करता हुआ प्रजाके किये हुए धर्म कर्मका षष्ठांश भाग प्राप्त करता है । राजाके लिये सब दानोंसे अधिक दान प्रजाका परिपालन करना है ।' यह रंडा जो इस प्रकार अपने चिभडे हुए गाल, पडे हुए स्तन आदिक विरूप अंगोंके कारण, देखने पर भी उद्वेग उत्पन्न करती है और अपने जन्मांतरमें उपार्जित अशुभ कर्मके फल को इस प्रकार भुगतती हुई मी, साधुओं पर द्वेषभाव धारण कर उनके बारेमें असमंजस बातें बकती रहती है । इसलिये महाराज को इस विषयमें उचित उपाय करना चाहिये ।' • सुन कर राजाने उस रंडाको लक्ष्य करके कहा- 'हे हताशे, यदि तैंने धर्मनिमित्त अपना आत्मा समर्पित किया है तो फिर उसके लिये विवाद (झगडा ) किस बातका है ? अगर तैंने उसका भाडा (किराया) लिया है तो उसके लिये भी विवादकी क्या जरूरत है ? अगर तुझे भाडा नहीं मिला है तो समझ तुझे धर्म होगा, इसलिये इस विवाद ( झगडा )का कोई अर्थ नहीं है । अथवा जो तुझे भाडा चाहिये, तो ये श्रावक दे देंगे- फिर इसमें झगडेकी बात कहां रही ? अगर ये श्रावक न देना चाहेंगे तो यह धर्म मुझे ही हो; मैं वह दे दूंगा । इसलिये चले जाओ; इस झगडेका तो कुछ भी अर्थ नहीं है ।' सुन कर वह यक्ष श्रावक बोला- 'महाराज, क्या वे साधु ब्रह्मचर्यभ्रष्ट हैं जो आप ऐसा कह रहे हैं ?' राजाने कहा'मैंने अपना जो राजकीय लगाव है उसको छोड कर, और कुछ दान भी दे कर, तुम्हारा झगडा मिटाना चाहा है । यदि तुमको यह रुचिकर नहीं है तो फिर वे साधु आनी 'शुद्धि' करें ।' यक्षने उत्तरमें कहा'महाराज, यदि जो कोई किसीका दुश्मन बन कर, अंधे, पंगु, कोढी आदि जीवितनिरपेक्ष मनुष्योंद्वारा किसीको सताना चाहे और उसके लिये सताये जानेवाले मनुष्यको ही अपनी 'शुद्धि' बतलानी पडे, तब तो हगने-मूतनेके लिये भी 'शुद्धि' करनी होगी। ऐसा करने पर, फिर किसी कार्यविशेषकी कोई महत्ता ही नहीं रहती है और कोई 'दिव्य' प्रयोगके लिये स्थान ही नहीं रहता है । इससे तो यही सिद्ध होता है कि जो रक्षक समझा जाता है वही विलुपक ( भक्षक) बन रहा है ।' सेठके वचन सुन कर राजाको क्रोध हो आया और वह बोला- 'अहो देखो, इन बनियोंके ये बचन ! बोलो फिर तुम ही कहो, इसमें और क्या किया जाय ? यदि ऐसी 'शुद्धि' नहीं की जायगी तो फिर तुम्हारी स्त्रियों, बहुओं और पुत्रियोंकी विटजनोंसे रक्षा कैसे की जा सकेगी ?' यह सुन कर सोम नामक सेठने कहा- 'देव, समान धन और साधन वाले किसी व्यक्तिके द्वारा, किसी व्यक्ति पर, कुछ कलंक लगाया जाता है तो उस प्रसंगमें 'दिव्य' आदिके प्रयोग द्वारा 'शुद्धि' की जाती है । परंतु कलंक लगाने वाला 'हीन' कोटिका होता है तो उसका तो निग्रह किया जाता है ।' तब राजाने कहा- 'अखण्ड ब्रह्मचारी तो भिक्षु ( बौद्ध साधु ) ही होते हैं । श्वेतांबर (जैन साधु ) वैसे नहीं है । इसलिये यदि वे 'दिव्य' द्वारा अपनी 'शुद्धि' नहीं करना चाहें, तो भी मैं तुम्हारे दाक्षिण्यके कारण उनका जीवित हरण करना नहीं चाहूंगा; और नाक काटलेने आदिकी शिक्षा करने पर भी तुमको बडा Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनेश्वरीय ग्रन्थोंका विशेष विवेचन-कथाकोश प्रकरण । दुःख होगा। इससे तो यही अच्छा है कि यह नारी ऐसा बकती हुई रहै । मैं उन साधुओंको भी नाककाटने की शिक्षा नहीं करता । बस तुम अपने घरों पर चले जाओ ।' यह सुन कर यक्षने कहा- 'इसका क्या इतना ही दंड है जो इस प्रकार बोलती है ? इसके दंडमें तो उसीकी जमानत लेनी चाहिये जो ऐसा बुलवाता है !' राजा - 'सो ( जमानत देनेवाला) कैसे जान पडेगा ? और वह न्यासक ( जमानत देनेवाला) मी तुम्हें स्वीकार्य होगा या नहीं ?' तब दत्तने कहा'जो आपको स्वीकार्य होगा वह हमको भी खीकार्य होगा ।' तब राजाने कहा- 'ऐसी कोई जमानत लेना हमारे दण्डका विषय नहीं है । इसमें फिर क्या किया जाय ?' तब यक्षने कहा- 'महाराज तब तो आप ही को यह पसन्द है और इसीलिये इसको कोई शिक्षा नहीं दी जाती है । लेकिन यह अच्छा नहीं है। बांसको विनाशके समयमें फल लगता है । इसी तरह की तुम्हारी मति हो रही है । इसमें हम और क्या कहें। सुन कर राजा रुष्ट हो गया और बोला- 'अरे, उन दुराचारी साधुओंको कैदमें डाल दो । और इन बनियोंका सब सर्वस्व छीन कर इनको देशसे बहार निकाल दो।' सुन कर श्रावक वहांसे उठ खडे हुए । उन साधुओंको भी राजाके कर्मचारियोंने पकड कर कैदमें डाल दिये । तब वह तपखी साधु कायोत्सर्ग करके खडा हो गया। वह देवता आई और बोली- 'तुम सब निरुद्विग्न हो कर रहो । मैं सब अच्छा कर दूंगी।' फिर उस देवतासे अधिष्ठित हो कर राज्यके जो हाथी थे वे पागल हो गये । उन्होंने अपने महावतोंको उठा कर दूर फेंक दिया और जो घुडशाल थी उसको उध्वस्त कर दिया । राजमहलोंके आंगनमें जो कोई मनुष्य चलता नजर आता था उसे मार डालने लगे और राजमहलोंकी भींतोंको गिराने लगे । बडा कोलाहल मच गया। राजके कोटार तोड डाले गये । हाथियोंको वश करनेवाले मनुष्य आये तो उनको भी पिस दिया गया । फिर वे हाथी उन बौद्ध भिक्षुओंके विहार (स्थान) तरफ लपके । मोतके डरसे भिक्षु इधर-उधर भाग निकले । बुद्धके विहारोंको नष्ट कर दिया गया; परंतु सन्मुख आनेवाले श्रावकोंका कुछ नहीं किया गया । फिर उन हाथियोंने बाजारको तहस-नहस कर डाला । लोगोंकी खूब भाग-दौड होने लगी। सारे नगरमें महाकोलाहल मच गया । यह सब देख कर राजा बहुत भयभीत हुआ। फिर गीला पटशाटक ओढ कर, हाथमें धूपका कडछा ले कर और अपने प्रधान सामंतादिकोंको साथमें रख कर बोलने लगा- 'मैंने कोपका प्रभाव अच्छी तरह देख लिया है । जिस किसीका मैंने अपराध किया हो वह मुझे क्षमा करें । मुझ पर कृपा की जाय - मैं शरण आ रहा हूं।' तब अंतरिक्षमें रहनेवाली उस देवताने कहा - 'अरे दास ! तूं मरा समझ । अब कहां जा सकता है ? तब राजाने प्रार्थना की - 'स्वामिनी, अनजानपनमें मैंने जो कोई अपराध किया हो उसे कहिये । मैं उसकी क्षमायाचना करूं।' तब देवताने कहा - 'पापिष्ठ, जब साधुओंको कलंक दे रहा था तब तो तूं बुद्धिमान् था और अब अनजान बन गया है । क्यों तैंने देवेन्द्रोंको भी वन्दनीय ऐसे साधुओंकी अवमानना की ? क्यों न्याय्यकथन करते हुए भी श्रावकोंको तिरस्कृत किया ? कहां वे भिक्षु गये जो साधुओंको देशनिकाला दिलवाना चाहते थे ? । तूं तो अब अपने इष्टदेवताका स्मरण कर । तेरा जीवित नहींसा समझ ले ।' राजा भयभीत हो कर कहने लगा- 'खामिनी ऐसा मत करो। मुझे प्राणभिक्षा दो । मैं किये हुएका प्रायश्चित्त करूंगा ।' तब देवताने कहा- 'तूं तो अभव्यसा दिखाई देता है । तो मी अभी छोडे देती हूं। यदि फिर कभी साधुओंका अथवा श्रावकोंका द्वेष किया है तो वैसा करूंगी जिससे भाग भी नहीं सकेगा। राजाने कहा- 'जो खामिनी कहेंगी वह सब करूंगा ।' देवी - 'यदि ऐसा है तो फिर जा उन साधुओंका सत्कार कर और श्रावकोंको सन्मान दे।' Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि । तब 'तथेति' कह कर उस यदुराजाने वह सब संपादित किया । वैसा करने पर फिर वे सब हाथी अपने अपने स्थान पर जा कर खडे हो गये और उपद्रव शान्त हो गया । लेकिन साधुओंका द्वेषकरनेवाले कर्मके फलसे, वह राजा अनन्तकाल तक अनेक दुःखोंकी परंपराको अनुभवता हुआ संसारमें परिभ्रमण करता रहेगा।' इस प्रकार बौद्ध पक्षपाती और जैनद्वेषी जयदेवकी कथा समाप्त होती है । ब्राह्मणधर्मीय सांप्रदायिकोंके साथ जैनसाधुओंका संघर्ष जिस तरह उपर्युक्त कथानकमें बौद्ध सांप्रदायिकोंके साथ जैन साधुओंके संघर्षका चित्र आलेखित किया गया है, इसी तरह ब्राह्मण धर्मीय त्रिदंडी, संन्यासी, शैव आदि मतोंके अनुयायी जनोंके साथ, श्वेतांबर साधुओंका किस प्रकारका संघर्षण आदि चलता रहता था, इसके चित्रणके भी कुछ कथानक जिनेश्वर सूरिने दिये हैं । उदाहरणके रूपमें, इनमेंके एक त्रिदंडीभक्त कमल वणिकके कथानकका (क्रमांक ३०) सार देते हैं । त्रिदंडीभक्त कमल वणिकका कथानक कौशांबी नगरीमें एक कमल नामक वणिक रहता था । वह त्रिदंडी (संन्यासी) संप्रदायका भक्त था । अपने मतके सिद्धान्तोंको ठीक जान कर वह जैन साधुओंका आदर नहीं करता था । एक दिन बहुतसे लोगोंकी सभामें बैठा हुआ उसका गुरु त्रिदंडी (संन्यासी) जैन साधुओंका कुछ अवर्णवाद करने लगा कि- 'ये श्वेतपट ( श्वेतांबर साधु ) तो ऐसे हैं वैसे हैं' इत्यादि । सुन कर कमल उसको अच्छा मानता था और उसका कुछ विरोध नहीं करता था । इतनेमें एक जिनदत्त सेठका पुत्र अर्हदत्त उस तरफसे निकला और उसने वह कथन सुना । अपने साधुओंकी निंदाको न सहन करता हुआ वह वहां पर जा कर बैठ गया। कहने लगा – 'कमल ! तुम इस तरह साधुओंकी निन्दा करवा रहे हो सो क्या तुम्हारे जैसोंके लिये यह ठीक कहा जाय ? ये त्रिदंडी तो सदा मत्सरदग्ध होते हैं - साधुओं के तपस्तेजको सहन न करते हुए अंडसंड बकते रहते हैं। परंतु तुम तो मध्यस्थ हो, तो क्या इनको ऐसा बकनेसे रोक नहीं सकते ? यों ही यहां बीचमें बैठे रहते हो? क्या तुमको भी इनका कथन अच्छा लगता है ? सुन कर कमलने कहा- 'भाई, वस्तुखभावके सुननेमें क्या दोष है ? ईख मीठा है, निंब कडुआ है - इस प्रकारका कथन सुननेमें क्या कुछ विरोध भाव होता है जिससे रोष किया जाय ! क्या 'निंब मधुर नहीं होता' ऐसा नहीं कहना चाहिये ? किसीको दोषके लिये कुछ उपालंभ नहीं देना चाहिये क्या? श्रेष्ठिपुत्र, तुम अपने साधुओंको कुछ सिखामण दो।' सुन कर अर्हद्दत्तने कहा- 'हमारे साधु ऐसा कौनसा बुरा आचरण करते हैं ? कमलने कहा- 'वे तो लोकाचारसे रहित होते हैं । लोकाचारकी बाधासे धर्मकी सिद्धि नहीं होती । इसीलिये कहा है कि - तस्माल्लौकिकाचारान् मनसाऽपि न लंघयेत् । अर्थात् लौकिक आचारोंका मनसे भी उल्लंघन नहीं करना चाहिये ।। अर्हद्दत्त - 'यह लोक कौन है ? क्या पाषंडी जन लोक हैं या गृहस्थ जन लोक हैं ! यदि पाषंडी जन लोक हैं, तो वे तो परस्पर समी एक दूसरेके आचारको दूषित कहते रहते हैं। यदि गृहस्थ जन लोक हों, तो वे तो इस प्रकार ६ तरहके कहे जाते हैं - १ उत्तमोत्तम, जैसे चक्रवर्ती, दशार आदि । २ उत्तम, Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनेश्वरीय ग्रन्थों का विशेष विवेचन- कथाकोश प्रकरण । ११७ राजा आदि । ३ मध्यम, सेठ सार्थवाह आदि । ४ विमध्यम, अन्य कुटुंबी (किसान) आदि । ५ अधम, श्रेणिगत ( सुवर्णकार, कुंभकार, लोहकार आदि शिल्पकर्मकर) समुदाय । ६ अधमाधम, चंडाल आदि । इनमेंसे चक्रवर्ति आदिका आचार उत्तम माना जाय तो वह साधुओंको हो नहीं सकता । क्या ये तुम्हारे गुरु चक्रवर्तीकी ऋद्धि-समृद्धि के आचारसे युक्त हैं ? यदि कहो कि उत्तम जन हैं वे लोक हैं, तो क्या ये तुम्हारे त्रिदंडी गुरु राजाओंकेसे आचारोंका - जैसे कि परकीय देशोंका भंग करना, धनापहार करना, मृगया खेलना, मांसादि भक्षण करना - इत्यादि बातोंका आचरण करते हैं ? यदि कहो कि लोकसे मध्यम जनोंका तात्पर्य है, तो उनको भी व्यापार करना, जहाज चलाना, खेती करना, ब्याज- बट्टेसे धनकी वृद्धि करना, पुत्र-पुत्रियोंका व्याह करना, गाय, भैंस, ऊंट, घोडा आदिका संग्रह करना - इत्यादि प्रकारके आचार अभिमत हैं; इसीतरहसे विमध्यम जनोंका आचार पात्रमें दान देना आदि है | यदि तुम्हारे गुरु भी इन्हीं आचारोंका पालन करते हैं, तो फिर इन लोकोंमें और तुम्हारे गुरुओं में फर्क ही क्या रहा? यह तो बडा अच्छा गुरुस्थान प्राप्त किया ऐसा कहना चाहिये ! यदि शेष कुटुंबी ( किसान आदि ) जन लोक शब्दसे अभिप्रेत हैं तो क्या ये उनके जैसे कूट तोल मापका व्यवहार करने वाले और खेत बोना, ईख लगाना, पानी सींचना, क्यारे बनाना- इत्यादि प्रकारका कृषिकर्म करने वाले हैं ? यदि ऐसा ही करते हैं, तो इनका गुरुपद बहुत ही ठीक समझना चाहिये ! अगर कहो कि अधम जन लोक शब्दसे लेना चाहिये, तो फिर कुंभार, धोबी आदिके आचारोंका अनुसरण करना होगा; सो क्या तुम्हारे गुरु वैसे ही आचार वाले हैं ? यदि अधमाधमजन लोक शब्दसे लेना कहोगे, तो फिर चांडाल आदि जनोंके आचारोंका श्रेष्ठत्व मानना पडेगा । सो ही यदि ठीक है, तो फिर तुम्हारे गुरु भी धन्य ही हैं, जिनके ऐसे आचार हैं !' - इत्यादि प्रकारका अर्हदत्तका वैतंडिक विचार सुन कर, कमल खीज गया और बोला कि – 'अरे, तूंने यह सब कहां सीखा था ?' लोक-समाचार वह कहा जाता है जिसमें कहा गया है कि 'नित्यस्त्रायी नरकं न पश्यति' अर्थात् जो नित्य स्नान करता है वह नरकको नहीं जाता । इसीतरह शौच करने के विषयमें ऐसा कहा है कि 'एका लिंगे गुदें तिस्र' इत्यादि । यही लोक-समाचार है और ऐसा समाचार श्वेतांबरोंमें नहीं है । ' सुन कर अर्हदत्त ने कहा- 'भाई कमल ! यह आचार अव्यापक है । कोई श्रुतिवादी (ब्राह्मण ) इस प्रकार से शौचविधि नहीं करता । सब कोई राखका व्यवहार करते हैं । तो क्या फिर वे लोक बाह्याचरी सिद्ध नहीं होते ! फिर लोकमें तो यह आचार भी नित्य नहीं है । क्यों कि अतिसारादिके होने पर इस विधिका भी पालन नहीं किया जाता । तथा तुम्हारे घरोंमें जो बच्चे होते हैं वे तो सबको छूते फिरते हैं । जो यौवन-धन - गर्वित हैं वे अनजानी वैश्याओंका मुंह चाटते फिरते हैंउनका अधरपान करते रहते हैं । वे वैश्याएं धोजन हैं, रंगारिन हैं, या इंबनी हैं यह कौन जानता है । उनके मुंहकी लालाको चाटने वालोंकी शौच शुद्धि क्या होगी ? वे फिर अपने घर में जब आते हैं तब बासन- बरतनों को छूते ही हैं । ऐसे जनोंके घरों पर भोजन लेने वाले त्रिदंडियोंके आचार कैसे शुचिवान् समझे जांय ! फिर ये त्रिदंडी जब राजमार्गमें हो कर निकलते हैं तब, उस समय पनिहारियों आदि के वर्णशंकर समूहका संघट्ट होने पर, स्पर्शास्पर्शका विचार कहां किया जाता है ? इसलिये यह शौचवादीपना निरर्थक है । और जो यह कहा कि नित्य स्नान करने वाला नरकको नहीं जाता, इसमें तो त्रिदंडीयोंकी अपेक्षा मगर, मच्छ, कछुए आदि जलचरोंकी अधिक जीत होगी । इसलिये भाई कमल अच्छी तरह सोच विचार कर मनुष्यको बोलना चाहिये । जिसमें मी तुम्हारे जैसों को तो विशेष रूपसे ।' तब कमलने कहा - 'इसके लिये तुम लोगोंको मना करो, हमको Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि । उसमें कोई आपत्ति नहीं होगी ।' तब अर्हदत्तने कहा- 'क्या तुम अनीतिको रोकना पसन्द नहीं करते ? यदि करते हो तो फिर तुमको भी लोगों को ऐसे निंदात्मक कथनसे रोकना चहिये । और फिर लोक क्या इन भागवतोंके विरुद्धमें भी कुछ कहते नहीं रहते हैं ?' कमलने उत्तर में कहा- 'क्या हमारे त्रिदंडी भी तांबरों की तरह विरुद्ध लोकाचरण करते हैं ?' उत्तरमें अर्हद्दत्तने कहा- 'सो मैं नहीं कहता - लोगोंको पूछो ।' इस तरह वह कमल वणिक, त्रिदंडियों द्वारा जो साधुओंकी निंदा की जाती थी उसको पसन्द किया करता था, लेकिन रोकता नहीं था । उसके पापसे वह मर कर दुर्गतिमें गया और अनेक जन्म-जन्मांतरोंमें भयंकर दुःख भोगता रहा । बादमें, किसी पुण्यके उदयसे महाविदेहमें एक अच्छे कुलवान सेठके वहां पुत्ररूपसे उसने जन्म लिया । लेकिन जब वह पांच वर्षका हुआ तो महामारीकी बिमारीके सबबसे उसके घरके सब मनुष्य मर गये । वह अनाथ हो कर घर-घर से भीख मांगने जैसा हो गया । अन्य किसी समय में वहां पर केवलज्ञानी महात्मा आये तो अन्यान्य लोगोंके साथ वह भी उनको वंदन करनेको गया । अवसर पा कर उसने केवली से पूछा कि - 'भगवन् ! मैंने किसी पूर्व जन्ममें ऐसा क्या अशुभ कर्म किया है जिसके फल से ऐसे बडे अच्छे धनवान् कुलमें जन्म ले कर भी मैं इस प्रकार की दुःखित अवस्थाको प्राप्त हुआ ? बालपनमें ही माता-पिता मर गये, धन जो जिसके पास था वह उसीके पास रह गया, जो भी जमीनमें कुछ होगा वह जमीनमें ही दबा रहा और मैं वैसे बापका बेटा हो कर भी भीख मांगता फिरता हूं और सो भी अच्छी तरह नहीं पा रहा हूं - घर-घर पर कठोर वचन सुननेको मिलते हैं । तो मेरे कौनसे कर्मका यह फल है ? । I तब केवलीने कहा- 'भद्रमुख, प्रायः जीर्णशेष ऐसे पुरातन कर्मका यह फल है ।' ऐसा कह कर उन्होंने उसके उस पूर्वजन्मका सब हाल कह सुनाया और कहा कि - 'साधुजनों की निंदामें अनुमती देनेवाले उसी कर्मका यह फल तूं भोग रहा है ।' तब उस लडकेने पूछा कि - 'अब इसकी शुद्धिके लिये कोई प्रायश्चित्त भी है ?' उत्तरमें केवलीने कहा कि - 'साधुजनों का सम्मान बहुमान - सत्कार आदि कार्य करनेसे ये अशुभ कर्म दूर हो सकते हैं । तब वह श्रावक बना और यह अभिग्रह किया कि 'जब कोई साधुजन विचरते हुए इस शहरमें आवेंगे तो मैं उनका अभिगमन- वंदन नमन आदि किया करूंगा और शक्तिके मुताबिक उन्हें अन्न और वस्त्रका दान दूंगा । यदि प्रमादके वश किसी दिन मैं यह न कर सका तो उसदिन मैं अन्नका त्याग करूंगा ।" इस प्रकारका अभिग्रह ले कर वह अपने भावविशुद्धिसे फिर उन आवरक कर्मोंका क्षयोपशम होने लगा और उसके परिणाममें उसकी वह नष्ट हुई संपत्ति प्रकट होने लगी । वह फिर बडी उत्कट भक्तिसे साधुओंका अभिगमन- वंदनादि सत्कार करने लगा और उनको अन्नादिका दान देने लगा । वस्त्र - पात्र - कंबल आदि वस्तुएं दे कर साधुओंको सम्मानित करने लगा । इस तरह बहुत समय तक श्रावक धर्मका पालन करके और फिर उत्तरावस्थामें श्रमणत्रत ग्रहण करके उसका आराधन करने लगा । अन्तमें मर कर सौधर्म स्वर्ग में उत्पन्न हुआ और फिर वहांसे च्युत हो कर मोक्ष गतिको प्राप्त हुआ । घर पर गया । उसकी इस कथानकगत वर्णनसे यह ज्ञात होगा कि शौचाचारप्रधान ब्राह्मणधर्मीय त्रिदंडी संन्यासी आदि परिव्राजकों द्वारा, जैन साधुओंके शौचाचार विषयक विचारोंके बारेमें कैसे आक्षेप किये जाते थे और जैनों द्वारा उसके किस तरह प्रत्युत्तर दिये जाते थे । * - - Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनेश्वरीय ग्रन्थोंका विशेष विवेचन-कथाकोश प्रकरण । ११९ शौचवादी ब्राह्मणभक्त कौशिक वणिकका कथानक ऐसा ही एक और कथानक जिनेश्वर सूरिने लिखा है जिसमें यह सूचित किया गया है कि सामान्य ब्राह्मण भी अपनी जातिके गर्वका कैसा अहंकार रखता है और जैनोंके शौचाचारकी कैसे निन्दा किये करता है । यह कथानक २९ वां, कौशिक वणिक कथानक है । पाठकोंके मनोरंजनार्थ एवं ज्ञानार्थ इसका मी सार यहां दे देते हैं। पाटलिपुत्र नामक नगरमें एक कौशिक नामक जन्मदरिद्री वणिक रहता था। उसी नगरमें वासव नामक एक धनवान् श्रमणोपासक (श्रावक) था जो कौशिकका बालमित्र था । वह कौशिक वणिक ब्राह्मणोंका भक्त था । उसके पडोसहीमें एक सोमड नामक ब्राह्मण रहता था जो अपनी जातिके लिये बडा गर्व रखता था। सोमड और कौशिक दोनोंका उठना बेठना एक साथ रहा करता था। - एक दफह वे दोनों साथ बैठे हुए थे। उस समय वह डोडा (ब्राह्मण ) जैन साधुओंकी निन्दा करने लगा। कौशिकने उसको कुछ मना नहीं किया और चुप हो कर बैठा रहा । इतनेमें वह वासव वहां पर आ पहुंचा । उसे देख कर सोमड बोलता हुआ चुप हो गया । वासबने पूछा - 'कौशिक, क्या करते हुए बैठे हो ? कुछ भी खुशी होने जैसा कोई प्रसंग मिला है क्या ?' कौशिकने कहा - 'नहीं, वैसा तो कुछ नहीं है ।' वासव- 'क्यों वैसा क्यों नहीं है ? साधुनिन्दासे बढ़ कर भले आदमियोंके लिये खुशी होनेका और क्या प्रसंग हो सकता है ?' कौशिक बोला- 'मैंने क्या अपराध किया ?' वासव - 'यदि इस डोडे (ब्राह्मण ) को निन्दासे रोक नहीं सकता है, तो क्या उठ कर दूसरी जगह चले जाना भी नहीं बनता है ? क्या तुझे इस नीतिवाक्यका पता नहीं है कि- 'जो महापुरुषोंके विरुद्ध बोलता है वह ही नहीं बल्कि जो वैसा सुनता रहता है वह भी पापका भागी बनता है । इसलिये तूं तो इस डोडेसे भी अधिक पापी है । और अरे डोड! तूं खुद कैसा है जो साधुओंको निंद रहा है ? डोड'वे शौच धर्मसे वर्जित है इसलिये ।' वासव - 'बता तो वह कौनसा शौच धर्म है जिससे हमारे साधु वर्जित है ? । सोमडने कहा- 'शास्त्रोमें कहा है कि- “मनुष्यको शौच शुद्धिके निमित्त, लिंगको एक वार, गुदाको तीन वार, एक हाथको दश वार, और दोनों हाथोंको सात वार मिट्टीसे साफ करना चाहिये । यह शौचविधि गृहस्थोंके लिये हैं । ब्रह्मचारियोंको इससे दुगुनी, वानप्रस्थोंको तिगुनी और यतियों को चारगुनी शौचशुद्धि करनी चाहिये ।" इत्यादि । सुन कर वासवने कहा - 'अरे भाई, तब तो तूं मर गया समझ । क्यों कि तुम्हारे मतमें तो मधुसूदन (विष्णु)को सर्वगत बतलाया है । जैसा कि नीचेके श्लोकमें कहा है - अहं च पृथिवी पार्थ ! वाय्वग्निजलमप्यहम् । वनस्पतिगतश्चाहं सर्वभूतगतोऽप्यहम् ॥ यो मां सर्वगतं ज्ञात्वा न हनिष्यति कदाचन । तस्याहं न प्रणस्यामि स च न मे प्रणस्यति ॥ इस कथनानुसार पृथ्वी भी वासुदेव है, जल मी वासुदेव है । उन्हींसे शौच किया जाता है ! तो फिर इस तरह अपने; देवद्वारा आपका धावन आदिकी क्रियाएं करना संगत है क्या ? । और जो तूं यह कहता है कि साधु तो शूद हैसो तूंने वह श्लोक पढा है या नहीं ? जिसमें कहा गया है कि जो ब्राह्मण हो कर तिलमात्र प्रमाण भी भूमिका कर्षण करता है वह इस जन्ममें शूदत्व प्राप्त करता है और मर कर नरकमें जाता है। नरकमें जाता है .. तिलमात्रप्रमाणां तु भूमि कर्षति यो द्विजः । इह जन्मनि शूद्रत्वं मृतो हि नरकं व्रजेत् ॥ _f जिनेश्वर सूरिने जैन निन्दक ब्राह्मणके लिये यह नया शब्द प्रयोग किया है जो शब्दकोशवालोंको विचारने लायक है। Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि ।। फिर तुम तो ब्राह्मण हो कर स्वयं हल - जोत्र आदि देते दिलाते हो । अरे डोडु ! यह तो जीभसे दाभका काटना जैसा तुम्हारा व्यवहार है; इसलिये हठ, यहां से दूर हो । और तूं कौशिक, हमारा बालमित्र हो कर भी हमारे गुरुओंकी निन्दा सुन कर दुगुना खुश हो रहा है और हमारे सन्मुख भी तूं इसे मना नहीं कर रहा है ? इसके लिये हम तुझे क्या कहैं ?' कौशिक - 'क्या मैं लोगोंका मुह बन्ध कर सकता हूं? इसमें मेरा क्या अपराध है ?' ऐसा कह कर वे डोड्ड और कौशिक दोनों दूसरी तरफ चले गये। एक दिन फिर वह डोड दुकानमें बैठा हुआ साधुओंकी निन्दा करने लगा और कौशिक उसमें अपना अर्धहास्य मिलाने लगा । इतनेमें उसके सिर परके आकाशमार्गसे एक विद्याधर मिथुन उड कर निकाला । विद्याधरीने उस डोडुकी बातें सुनी और वह अपने पतिको कहने लगी कि- 'यह बहुत ही साधुनिन्दा कर रहा है इसलिये इसे कुछ शिक्षा करनी चाहिये ।' तब विद्याधरने अपने विद्याबलसे उसके शरीरमें १६ भयंकर रोग पैदा कर दिये और कौशिकको भी ज्वर और सांसके दो दुष्ट रोगोंसे आक्रान्त बना दिया । उनसे पीडित हो कर वे दोनों मृत्युको प्राप्त हुए और नरकगतिमें गये । इत्यादि । - इस प्रकार ब्राह्मणोंके साथ होते रहने वाले जैन साधुओंके आक्षेप-प्रतिक्षेप और वाद-विवादरूप संघर्षणके चित्र कुछ अन्यान्य कथानकोंमें भी अंकित किये गये दृष्टिगोचर होते हैं । इन कथानकोंके वर्णन परसे ऐसा ज्ञात होता है, कि जैन साधुओं पर ब्राह्मणोंका आक्षेप, मुख्य करके शौच धर्मको लक्ष्य कर होता रहता था और ब्राह्मणों पर जैन साधुओंके आक्षेप, खास करके वेदविहित हिंसाधर्मके एवं ब्राह्मण जातिके महत्त्व विरुद्ध होते रहते थे । ब्राह्मणों और जैनोंका यह पारस्परिक संघर्ष केवल शाब्दिक या वाचिक वाद-विवाद तक ही सीमित नहीं रहता था; कभी कभी तो वह शारीरिक शिक्षा और पीडाके रूपमें भी परिणत होता रहता था । ब्राह्मणों द्वारा जैन श्रमणोंको सताये जानेके अनेक दृष्टान्त जैन कथाओंमें मिलते हैं । जिनेश्वर सूरिने भी ऐसे कुछ कथानक इस ग्रन्थमें ग्रथित किये हैं, जिनमें ब्राह्मणों द्वारा जैन साधुओंको शारीरिक कष्ट पहुंचानेके प्रसंग चित्रित मिलते हैं। नीचे एक ऐसा ही कथानकका भावार्थ दिया जाता है जिससे यह ज्ञात होगा कि किस तरह एक ब्राह्मण जैन साधुओंको कष्ट देना चाहता है और उसके प्रतिकार रूपमें किस तरह जैन श्रावक अपने पक्षके राजा द्वारा ब्राह्मणोंको दण्ड दिलाता है । धनदेव नामक ३१ वें कथानकमें इसका चित्र अंकित किया गया है जिसका सार निम्न प्रकार है। ब्राह्मणके उपद्रवसे जैनसाधुकी रक्षा करनेवाले धनदेव श्रावकका कथानक कुशस्थल नामक नगरमें हरिचंद नामका राजा राज्य करता था। वहां पर धनदेव नामक सेठ रहता था जो जैनधर्मका दृढ उपासक था। वह जीवाजीवादि तत्त्वोंका जानने वाला पुण्य-पापको समझने वाला और सम्यक्त्वमूलादि अणुव्रतोंका पालन करने वाला था । चैत्यपूजा करनेमें वह रत रहता था और साधर्मिकोंमें वात्सल्यभाव रखता था । वह नगरके सेठ, सार्थवाह, आदि धनिक जनोंका नेत्र खरूप हो कर, बहुतसे कार्यों में लोक उसकी सलाह लेते थे । इस प्रकार वह सब जनोंका सम्मानित, बहुमानित और श्रद्धास्पद हो कर श्रावक धर्मका परिपालन करता रहता था । Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनेश्वरीय ग्रन्थों का विशेष विवेचन- कथाकोश प्रकरण । १२१ एक दिन वहां विष्णुदत्त नामक ब्राह्मणने निष्कारण ही कुपित हो कर देशान्तरसे आये हुए सुव्रतसूरिके साधुओंको भिक्षानिमित्त फिरते देख कर, अपने छात्रों द्वारा उनको कडी धूपमें खडे करवा कर अटकमें रखा । धनदेव सेठने उनको देखा और वन्दन करके पूछा कि - 'भन्ते, आप क्यों इस तरह धूपमें खडे हैं ?' तब उनमें गुणचन्द नामक जो एक ज्येष्ठ साधु था उसने कहा - 'विष्णुदत्त ब्राह्मणने अपने छात्रों द्वारा हमको रोक रखा है और जाने नहीं देता है ?' वह ब्राह्मण अपने मकानमें उपर बैठा हुआ था उसको पुकार कर धनदेवने कहा कि - 'भाई, किसलिये साधुओं को सता रहा है ?" उसने कहा - 'इन्होंने मुझ पर कोई कार्मण प्रयोग कर रखा है, इसलिये ऐसा किया जा रहा है ।' सुन कर सेठने साधुओंसे कहा - ' जाईये भन्ते, आप अपने वसतिस्थानमें ।' फिर उसने अपने मनुष्य द्वारा उन छात्रोंको गलेसे पकडवाया तो वे चिल्लाने लगे । विष्णुदत्त मकानमें उपर रहा हुआ सेठको धमकाने लगा कि - 'अरे किराट ! ( वणिकजनों को कुत्सित भावसे सम्बोधन करना होता है तब इस निन्दासूचक किराट शब्दका व्यवहार किया जाता है ) क्यों वृथा मौत मांग रहा है ?' सुन कर सेठने उत्तर में कुछ नहीं कहा । साधु अपने स्थानमें चले गये और सेठ मी अपने घर गया । फिर सेठने मनमें सोचा, शास्त्रोंका उपदेश है कि - " सामर्थ्य के होने पर, आज्ञा भ्रष्टके कार्यकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिये । और यदि अनुकूल साधन हो तो उसको शिक्षा देनी - दिलानी चाहिये ।” सो इस वचनका स्मरण करता हुआ वह राजकुलमें गया; और राजासे कहने लगा कि - 'देव, पूर्वर्षियोंके ऐसे वचन हैं कि – अनार्य और निर्दय ऐसे पापी मनुष्यों द्वारा यदि तपखीजन सताये जायं, तो राजा पिताकी तरह उनकी रक्षा करे । ज्ञान, ध्यान, तपसे युक्त और मोक्षाराधनमें तत्पर ऐसे साधुओं की रक्षा करता हुआ राजा, उनके धर्म कर्ममेंसे छठवां भाग प्राप्त करता है' - इत्यादि । सुन कर राजाने पूछा - 'सेठ ! क्या बात है ? सेठने कहा - 'देव ! विष्णुदत्त ब्राह्मणने अपने छात्रों द्वारा साधुओंको कडी धूपमें खडा करवा कर उनको कष्ट पहुंचाया है । ऐसा तो किसी अराजक तंत्रमें हो सकता है । महाराजके राजशासनमें तो आज तक ऐसी कोई नीति नहीं देखी गई है। इसमें अब आप जो करें सो प्रमाण है ।' सुन कर राजाने कोटवालको बुलाया और आज्ञा की कि - 'उस डोड्डे को ( जिस तरह वणिकके लिये उपर्युक्त 'किराट' कुत्सावाची शब्द है इसी तरह ब्राह्मण के लिये यह ' डोड्ड' कुत्सावाची शब्द है ) जल्दी बुला कर लाओ ।' इसी बीच में वह विष्णुदत्त भी बहुतसे डोड्डों को साथमें ले कर राजकुलके द्वार पर आ कर खड हो गया । प्रतिहारके निवेदन करने पर वे सभाभवनमें गये । 'स्वस्ति न इन्द्रो वृद्ध श्रवा इत्यादि प्रकारका आशीर्वाद देते हुए राजाको अक्षत (चावल) समर्पित करने लगे । राजाने उनका स्वीकार नहीं किया । फिर वे ब्राह्मण जमीन पर बैठ गये । राजाने कहा - 'क्या राजा तुम हो या मैं हूं ?' ब्राह्मणोंने कहा – 'किसलिये यह प्रश्न किया जा रहा है ? ' राजाने कहा - 'तुम राजाकी तरह व्यवहार कर रहे हो इसलिये ।' ब्राह्मणोंने पूछा - 'किसने और कहां ?" तब राजा ने पूछा कि - 'किसलिये तुमने साधुओं को क्रेशित किया है ?" क० प्र० १६ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૨૨ कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि । तब उस डोड्डेने कहा- 'साधुओंने मुझ पर कार्मण प्रयोग किया है इसलिये उनको अटकमें रखा था । धनदेव सेठने एक लाख दीनारोंकी हमारी थापण (धरोहर) रख छोडी है।' तब राजाने कहा- 'उन्होंने जो कार्मण किया है तो मुझसे आ कर कहना था । मैं उसका दण्ड देता । लेकिन तुम शिक्षा करनेवाले कौन ?। और सेठने कहा- 'तुम अपनी थापण (धरोहर ) उठा ले जाओ। तो डोडेने कहा- 'हमारे पास लाख दीनार नहीं है। फिर राजाने कहा- 'यदि यह सही निकला कि उन साधुओंने यंत्रादि (कार्मण) कर्म किया है तो मैं उनके हाथ कटवा डालूंगा, और यदि उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया है और तुमने असत्य बात बना कर कही है तो फिर तुम्हारी जीभ कटवाई जायगी । इस लिये अपनी 'शुद्धि' करके दिखाओ।' ब्राह्मणोंने कहा- 'महाराज ! क्या ब्राह्मणोंके सन्मुख ऐसा उल्लाप करना उचित है ? शास्त्रकारका आदेश है कि -- "ब्राह्मण यदि सब पापोंसे लिप्त हो, तब भी उसको किसी तरह मारना न चाहिये । अपराधी ब्राह्मणको उसके सब धनके साथ, विना शारीरिक हानि पहुंचाये, राष्ट्रसे बहार कर देना चाहिये ।" - इत्यादि । सुन कर राजाने कहा- 'ब्राह्मण कहते किसको हैं ! जो जितेन्द्रिय हैं, क्षान्तिमान् हैं, श्रुतिपूर्ण कर्णवाले हैं, प्राणिहिंसासे निवृत्त हैं, और परिग्रहसे संकुचित रहते हैं वे ब्राह्मण हैं; और वे ही मनुष्योंके पूज्य समझे जाते हैं । अकार्यमें प्रवृत्त होनेवाला जातिमात्रसे ब्राह्मण, ब्राह्मण नहीं कहा जाता । इसलिये या तो 'शुद्धि' करो अथवा फिर देश छोड कर बहार चले जाओ। तुम्हारे लिये और कोई गति नहीं है । ___ इस बीचमें एक अन्य डोड्डेने कहा- 'महाराज ! यह तुम्हारा अन्याय है । ऐसा कहते हुए तुम्हारे सन्मुख ही मैं गलेमें फांसा खा कर लटक मरूंगा।' ___ सुन कर, भृकुटी चढाते हुए, राजाने अपने मनुष्योंको सूचना दी । उन्होंने एकसाथ सब ब्राह्मणोंको पकड लिया । राजाने कहा - 'तुम खयं क्यों मरोगे? - मैं ही तुम्हें मरवाऊंगा।' तब ब्राह्मणोंने कहा- 'महाराज ! क्या इन अधम शूद्रोंके लिये ब्राह्मणोंके उपर इस प्रकार निर्दय होना उचित है ? राजा- 'क्या सूतके डोरे (धागे) से [ यज्ञोपवीतके सूतको लक्ष्य कर यह कथन है ] तुम ब्राह्मण हो या क्रियासे ? यदि सूत्रमात्रसे ब्राह्मणत्व आ जाता है, तब तो अब्राह्मण कोई नहीं रहेगा । यदि क्रियासे ब्राह्मणत्व है, तो साधुओंकी हत्या करने में निरत और उन्मार्गमें प्रवृत्त ऐसे तुम्हारी क्रिया कौनसी है ? साधुओंकी हत्या करनेरूप क्रियासे तो ब्राह्मण बन नहीं सकते । इससे तो फिर डोंब और चंडाल आदि भी ब्राह्मण माने जाने चाहिये । यदि कहो कि होम-यागादि क्रियाके कारण ब्राह्मणत्व है, तब भी साधुओंको क्लेशित करनेवाले तुम ब्राह्मण नहीं हो।' ब्राह्मणोंने (धनदेव सेठको उद्देश करके) कहा- 'अरे किराट ! तुझे ब्रह्महत्याका पाप लगेगा । इससे तेरा कहीं छुटकारा न होगा।' राजा- 'मैंने तुमको अन्याय करनेवाले समझ कर पकडा है और बन्दी बनाया है, फिर इस किराटको क्यों शाप दे रहे हो ! यदि तुममें कुछ भी शक्ति है तो मुझसे कहो । अथवा नीतिसे वर्तो । Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनेश्वरीय ग्रन्थों का विशेष विवेचन-कथाकोश प्रकरण। १२३ खाली वाणीके आडंबरसे कुछ नहीं होनेवाला है । यदि तुम जा कर उन साधुओंकी और सेठकी क्षमा नहीं मांगो तो मैं तुमको छोडनेवाला नहीं हूं।' राजाके कथनको ब्राह्मणोंने मान्य किया । साधुओंकी और सेठकी उन्होंने क्षमायाचना की । सेठकी इससे सर्वत्र प्रशंसा हुई कि- अहो ! सेठने साधुओंका कैसा प्रभाव बढाया है । इत्यादि । इस तरह श्रावक धर्मका पालन कर वह सेठ मर कर खर्गमें गया ।। जिनेश्वर सूरिका विविध विषयक शास्त्रोंका परिज्ञान __इस प्रकार प्रत्येक कथा जिनेश्वर सूरिने किसी-न-किसी विषयको उद्दिष्ट करके अपना बहुशास्त्रपरिज्ञान और सांप्रदायिक सिद्धान्त प्रकट करनेका प्रयत्न किया है। इन कथाओंमें जो प्रासंगिक वर्णन किये गये हैं उनसे ज्ञात होता है कि ग्रन्थकारको अपने सैद्धान्ति ज्ञानके विषयोंके सिवाय आयुर्वेद, धनुर्वेद, नाट्यशास्त्र, संगीतशास्त्र, कामशास्त्र, अर्थशास्त्र, धातुवाद, रसवाद, गारुड और तांत्रिक शास्त्र आदिके विषयोंका भी बहुत कुछ परिज्ञान था। सूरसेना-कथानकमें( पृ. २७-२८) गर्भवती स्त्रीको अपने गर्भकी ठीक परिपालना करनेके लिये किस तरहका अपना आहार विहार आदि रखना चाहिये इसका वर्णन आयुर्वेद शास्त्रके कथन मुताविक किया गया है । जिनदत्तके कथानकमें (पृ. २४) राजकुमारने धनुर्वेद शास्त्रके अनुसार जो शिक्षा प्राप्त की थी उसका उल्लेख किया है । इस शास्त्रमें धानुष्ककलाके आलीढ, प्रत्यालीढ, सिंहासन, मंडलावर्त आदि जिन प्रयोगोंका वर्णन आता है उनका संक्षिप्त निर्देश भी इस कथानकमें किया गया है। __ सिंहकुमारके कथानकमें (पृ. ४०-४१) गान्धर्व कलाका परिचायक कुछ वर्णन करते हुए, तंत्रीसमुत्थ, वेणुसमुत्थ और मनुजसमुत्थ नादोंका वर्णन किया है । नादका उत्थान कैसे होता है, उसके स्थानभेदसे कैसे खरभेद होते हैं, और फिर उसके ग्राम, मूर्च्छना आदि कितने प्रकारके रागभेद आदि होते हैं - इसका सूचन किया गया है । इसमें यह भी सूचित किया गया है कि यह शास्त्र तो बहुत बडा कोई लाख श्लोक परिमित विस्तारवाला है । ___ इसी कथानकमें आगे (पृ. ४५) भरतके नाट्यशास्त्रका उल्लेख है । सिंहनामक राजकुमारके सन्मुख एक कुशल नर्तिका जब नृत्य करने लगी और उसने नृत्यका प्रयोग करते समय यथास्थान ६४ हस्तक और ४ भ्रूभंगोंके साथ तारा, कपोल, नासा, अधर, पयोधर, चलन आदिक भंगोंका अभिनय किया और फिर राजकुमारकी परीक्षाके लिये कपोलभंगके स्थानमें ताराभंग करके विपर्यय अभिनय किया, तो राजकुमारने उसके उस विपर्यय भावके लिये पूछा कि- 'यह किस शास्त्रके विधानानुसार अभिनय किया जा रहा है । इसके उत्तरमें उसने कहा कि- 'भरतशास्त्रके अनुसार ।' तो प्रत्युत्तरमें राजकुमार कहता है कि- 'भरत शास्त्र तो सूत्र और विवरणके साथ सारा ही मेरे कंठस्थ है । उसमें तो कहीं ऐसा विधान नहीं है ।' इत्यादि । सुन्दरीदत्त कथानकमें (पृ. १७२-७३ ) धातुवाद और रसवाद शास्त्रका उल्लेख है । रसशास्त्र में रसके कितने प्रकार हैं और उससे किन पदार्थों की निर्मिति आदि होती है इसका संक्षिप्त सूचन है । सुन्दरीदत्त, सागरदत्त नामक सेठका इकलौता पुत्र था । उसको विविध प्रकार की विद्या-शिक्षा दिलानेके . Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि । लिये पिताने कलाचार्यों द्वारा उसका विद्याध्ययन करवाया । पुत्रने यद्यपि गांधर्व, नाट्य, अश्वशिक्षा, शस्त्रसंचालन आदि कई कलाएं सीखी थीं तथापि सेठको उसमें अनुराग नहीं था। सेठ 'अर्थशास्त्र के महत्त्वको अधिक समझता था इसलिये उसने पुत्रसे कहा, कि 'गांधर्व, नाट्य आदि सब कलाएं तो परोपजीविनी कलाएं हैं । अर्थात् इन कलाओंके ज्ञाताओंका जीवन दूसरोंकी कृपा और सहायताके उपर निर्भर रहता है । हमको इनकी आवश्यकता नहीं । हमें तो जिससे 'त्याग, भोग, और धर्म' सिद्ध होता है उस 'अर्थ' से प्रयोजन है । वह 'अर्थ' जिसके द्वारा प्राप्त होता हो वही कला हमारे लिये महत्त्वकी कला है । इसलिये उस सेठपुत्रने 'धातुवाद' और 'रसवाद' की शिक्षा प्रावीण्य प्राप्त किया । इत्यादि । इससे हमें यह संकेत मिलता है कि जिनेश्वरसूरिके समयमें भी विपुल अर्थोपार्जनका उपाय 'धातुविज्ञान' और 'रसविज्ञान' समझा जाता था । आजके हमारे इस युगमें भी अर्थोपार्जनका सबसे बडा सहायक 'विज्ञान' यही हो रहा है। इसी सुन्दरीदत्त कथानकमें एक जगह (पृ. १७६) राज्यपालनके कार्यकी दुष्करताका वर्णन किया गया है जिसमें कौटल्यके अर्थशास्त्रगत विचारोंका ठीक अनुवाद दिया गया प्रतीत होता है । इसमें राजाको अपना राज्यपालन करते हुए किस तरह सब प्रकारसे सावधान रहना चाहिये, इसका जो वर्णन है उसमें कहा गया है कि- राजाको अपनी स्त्रीका भी विश्वास नहीं करना चाहिये । अपने पुत्रोंकी एवं अमात्य और सामन्तोंकी विश्वस्तताका भी सदा परीक्षण करते रहना चाहिये । हाथी, घोडे, वैद्य, महावत, महाश्वपति, दूत, सांधिविग्रहिक, पानीहारक, महानसिक, स्थगिकावाहक, शय्यापालक और अंगरक्षक आदि सब पर शंकाकी नजर रखनी चाहिये । ___ इस प्रकार, राजतंत्रकी रक्षाके लिये राजाओंको कैसे कैसे छल-कपट आदिके प्रयोगोंका उपयोग करना पडता है - इसका जो वर्णन दिया गया है वह कौटल्यके अर्थशास्त्रमें राजपुत्ररक्षण, निशान्तप्रणिधि, अमात्यशौचाशौचज्ञान आदि प्रकरणोंमें जो विधान मिलता है ठीक उसीका सूचन करनेवाला है । नागदत्त कथानकमें (पृ. १२-१३) एक राजकुमारको कालसर्पके डसनेका प्रसंग आलेखित है जिसमें यह बताया गया है कि किस तरह गारुडिकोंने गारुडशास्त्रोक्त मंत्र - तंत्र आदिका प्रयोग करके मृत राजकुमारको जीवित करनेका निष्फल प्रयत्न किया- इत्यादि । __इस तरह इस ग्रन्थमें कहीं पुत्रजन्मोत्सव, कहीं विवाहोत्सव, कहीं चैत्यपूजा-उत्सव आदि भिन्न भिन्न प्रकारके सामाजिक, धार्मिक और व्यावहारिक विषयोंके वर्णनके जहां जहां प्रसंग प्राप्त हुए वहां वहां, जिनेश्वर सूरिने अपने लौकिक और पारलौकिक बहुविध परिज्ञानका विशिष्ट परिचय करानेकी दृष्टिसे, अनेक प्रकारकी विचार-सामग्रीका संचय प्रथित करनेका सफल प्रयत्न किया है, और इसलिये जैन कथासाहित्यमें इस ग्रन्थका अनेक दृष्टिसे महत्त्वपूर्ण स्थान है। Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनदत्तसूरिविरचित गणधरसार्द्धशतकप्रकरणान्तर्गत जिनेश्वर सूरि चरित वर्णनम् । अथ समस्तसुविहितहितगुणावासवसतिवासोद्धारधुराभारधारणधवलधौरेयान् श्रीमज्जिनेश्वरसूरिपुषयान् चरणाराधमपूर्वकं शरणीकुर्वन्नवदातगुणोत्कीर्तनपूर्वकं गाथात्रयोदशकमाह - १. तेसि पयपउमसेवारसिओ भमरो व सबभमरहिओ। ससमय-परसमयपयत्थसत्थवित्थारणसमत्थो ॥६४ २. अणहिल्लवाडए नाड' व दंसियसुपत्तसंदोहे ।। पउरपए बहुकविदूसगे य सन्नायगाणुगए ॥ ६५ ३. सड्डियदुल्लहराए सरसइअंकोवसोहिए सुहए । - मज्झे रायसहं पविसिऊण लोयागमाणुमयं ॥६६ ४. नामायरिएहि समं करिय वियारं वियाररहिएहिं । वसहिविहारो साहूण ठाविओ ठाविओ अप्पा ॥६७ ५. परिहरियगुरुकमागयवरवत्ताए य गुजरत्ताए । वसहिविहारो जेहिं फुडीकओ गुजरत्ताए ॥ ६८ ६. तिजयगयजीवबन्धू जब्बंधू बुद्धिसागरो सूरी। कयवायरणो वि न जो विवायरणकारओं जाओ॥ ६९ ७. सुगुरुजणजणियभद्दो जिणभद्दो जविणेयगणपढमो। स-परेसि हिया सुरसुंदरी कहा जेण परिकहिया ॥ ७० ८. कुमुयं वियासमाणो विहडावियकुमयचक्कवायगणो। - ओयमिओ जस्सीसो जयम्मि चंदो व जिणचंदो ॥ ७१ ९. संवेगरंगसाला विसालसालोवमा कया जेण । · रागाइवेरिभयभीयभवजणरक्खणनिमित्तं ॥ ७२ १०. कयसिवसुहत्थिसेवोऽभयदेवोऽवगयसमयपयखेवो। - जस्सीसो विहियनवंगवित्तिजलधोयजललेवो ॥७३ ११. जेण नवंगविवरणं विहियं विहिणा समं सिवसिरीए । काउं नवंगविवरणमुज्झिय भवजुवइसंजोगं ॥ ७४ १२. जेहिं बहुसीसेहिं सिवपुरपहपत्थियाण भवाणं। सरलो सरणी समगं कहिओ ते जेण जंति तयं ॥ ७५ १३. गुणकणमवि परिकहिउं न सकई सकई वि जेसि फुडं । - तेसि जिणेसरसूरीण चरणसरणं पवजामि ॥ ७६ '१प्र. उदयमिओ। क. प.1 Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनेश्वरसूरिचरितवर्णन । [क० परिशिष्ट १. व्या०-तेषां जिनेश्वरसूरीणां चरणान् शरणं त्राणम्, चरणाः शरणं चरणशरणमिति वा, प्रपधे अङ्गीकरोमीति संबन्धः । यः कीदृशः ? तेषां श्रीवर्द्धमानाचार्याणां पादा एव क्रमा एव, पद्माः कमलानि पदपद्मास्तेषां सेवा पर्युपास्तिः पदपद्मसेवा, तस्यां रसिको गाढासक्तः । किंवदित्याहभ्रमरवद् मधुकरवत् । सबभमरहिओ ति - सर्वेषु व्याकरण-षटतर्क-नाटका-ऽलङ्कार-च्छन्दः-काव्य-ज्योतिषवेद-पुराणादिशास्त्रेषु । भ्रमो भ्रान्तिः संशयः सर्वभ्रमस्तेन रहितः त्यक्तः । अत एव खसमया आत्मसिद्धान्ता दशवैकालिका-ऽऽवश्यकौघनियुक्ति-पिण्डनियुक्त्योत्तराध्ययन-दशा-कल्पव्यवहारा-ऽऽचाराद्यङ्गैकादशक-कालिकश्रुतौपपातिक-राजप्रश्नीयाद्यकालिकश्रुत-संग्रहणी-क्षेत्रसमास-शतक-सप्ततिका-कर्मप्रकृत्यादयः, परसमया बौद्ध-न्याय-सांख्यादिसिद्धान्तास्तेषां पदार्थसार्थाः । तत्र पदानि विभक्त्यन्तानि, तेषां अर्था वाच्याः पदार्थाः, तेषां सार्थाः समूहाः, तेषां विस्तारणं प्रकाशनम्, तत्र समर्थः । अस्यां गाथायामेकवचनान्तत्वं विशेषणेषु गुणाधिकबहुवचनयोग्यता प्राप्तावपि सामान्यापेक्षयाऽवगन्तव्यमिति । २. तथा, यैरित्यप्रेतनगाथायां वर्तमानं डमरुकमणिन्यायेन, 'अणहिल्लवाडए'- इत्यस्यामपि गाथायां संबध्यते. यैः श्रीजिनेश्वराचार्यः, अणहिल्लपाटके अणहिल्लपाटकाभिधाने पत्तने मध्य(ध्ये) राजसभं राज. सभाया मध्ये- 'पारे मध्येऽग्रेऽन्तः षष्ठया वा' (हैम० ३।१।३०) इत्यव्ययीभावसमासः. प्रविश्य स्थित्वा । लोकश्चागमश्च तयोरनुमतं सम्मतं यत्र एवं यथा भवति, कृत्वा नामाचार्यः सह विचारं धर्मवादम् । यैः कीदृशैरित्याह-वियाररहिएहि-विचाररहितैरिति विरोधः । अथ च विकाररहितः निर्विकारैरित्यर्थः । वसतौ निवासोऽवस्थानं साधूनां स्थापितः प्रतिष्ठितः; स्थापितः स्थिरीकृत आत्मा । वसतिव्यवस्थापनं चाणहिलपाटकेऽकारि । कीदृशे तस्मिन्नित्याह - नाटक इव दशरूपक इव नाटकाख्ये । कीदृश अणहिल्लपाटके, कीदृशे च नाटके इत्युभयोरपि श्लिष्टं विशेषणसप्तकमाह - 'दंसियसुपत्तसंदोहे' - इति । सुपात्राणां गौरवर्ण-लम्बकर्ण-विशालभाल-विशालान्तर्वक्षःस्थल-विशालकपोलस्थल-पद्मदलाक्ष-लाक्षारसाक्तसुश्लिष्टपाद-मधुरनाद-गन्धर्वकलाविचक्षण-प्रतिदिनप्रवर्तितदेवगृहादिक्षणनायक-नायिकालक्षणानां संदोहः समूहः सुपात्रसंदोहः । दर्शितश्चक्षुर्गोचरतां प्रापितः सुपात्रसंदोहो येन, तस्मिन् दर्शितसुपात्रसंदोहे । यदि वा मङ्गलघट-घटिका-वाघटिका-मणिक-करवक-स्थालीप्रमुखाणां राजमानराजतसौवर्णवर्णाव्य-रत्नाढ्यगृहभूषणविशालस्थाल-कच्चोलशुक्तिप्रमुखाणां चापणस्थापितानां सुपात्राणां सद्भाजनानां संदोहः कूटो यत्र तस्मिन् । नाटकपक्षे च राम-लक्ष्मण-सीता-हनुमद्-वालि-सुग्रीव-लकेश्वर-बिभीषणादीनां सुपात्राणां संदोहः संदर्शितो यत्र तादृशे । सुपत्तसंदेहे- इति पाठे तु, पत्तनपक्षे, यदा ताम्बूलरसरञ्जितौष्ठाः सदनुष्ठाननिष्ठादविष्ठाः सुरंगनारंगकाधिष्ठितचरणाश्चरणाचारचारिमाऽतिक्रान्तोत्सूत्रक्रियोपदेशनिरता रतासक्तिप्रवृत्ता वाणिज्यकलान्तरद्रविणवितरणसंयतादिकलत्रीकरणापत्योत्पादनपरस्परपाणिग्रहणकारणादिनानाप्रकाराश्रयासमंजसचेष्टाविधातारः केचिद् गुरुकर्माणो दरीदृश्यन्ते तत्र । ततो भवति विवेककलितानां भवभीरूणां भव्यात्मनां मनस्ययं संशयः- यदुत किमस्ति कापि सत्पात्रं न वेति । अत उक्तम् -दर्शितसुपात्रसंदेहे इति । नाटकपक्षे च रामादिसुपात्राणां सम्यक् समुत्पन्नसामाजिकप्रतीतिदेहाः शरीराणि । __ तथा 'पउरपए'त्ति-प्रचुराणि प्रभूतानि प्रतिगृहद्वारकूपिका-सहस्रलिङ्गादिमहातडाग-वाप्यादिसद्भावेन पयांसि अम्भांसि यत्र तस्मिन् प्रचुरपयसि, इति अणहिलपाटकपक्षे । नाटकपक्षे च प्रचुराणि विस्तीर्णानि प्रलम्बानि पदानि यत्र ताशे' । तथा च वेणीसंवरणे पदानि Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणधर सार्द्धशतकप्रकरणान्तर्गत मन्थायस्तार्णवाम्भःप्रति कुहर वलन्मन्दरध्वानधीरः कोणाघातेषु गर्जत्प्रलयघनघटान्योऽन्यसंघट्टचण्डः । कृष्णाक्रोधाग्रदूतः कुरुकुल निधनोत्पत्तिनिर्घातवातः केनास्मत्सिंहनादप्रतिरसितसखो दुन्दुभिस्ताडितोऽयम् ॥ 'बहुकविदूसगे य'त्ति - कवयः काव्यकर्त्तारः, दूष्याणि देवाङ्गवस्त्राणि 'दूष्यं वाससि तद्गृहे दूषणीये चे 'ति हैमानेकार्थवचनात् । दूष्याण्येव दृष्यकाणि बहूनि प्राज्यानि कवि-दूष्याणि यत्र तस्मिन् । तथा यदि वा सप्तमीलोपात्, बहुकविदूष्यगेये - गेयं गीतम्, इति पत्तनपक्षे । नाटकपक्षे च बहुकविदूषके बहव एव बहुकाः, प्रभूता विदूषका यत्र तथाविधे । विदूषकलक्षणं च रुद्रटालङ्कारेऽभिहितम् । यथा - ० परिशिष्ट ] भक्तः संवृतमन्त्रो नर्मणि निपुणः शुचिः पटुर्वाग्ग्मी । चित्तज्ञः प्रतिभावांस्तस्य भवेन्नर्मसचिवस्तु ॥ १ त्रिविधः स पीठमर्दः प्रथमोऽथ विटो विदूषकस्तदनु । नायक गुणयुक्तोऽथ च तदनुचरः पीठमर्दोऽत्र ॥ २ विट एकदेशविद्यो विदूषकः क्रीडनीयकप्रायः । निजगुणयुक्तो मूर्खो हासकराकारवेषवचाः ॥ ३ ॥ तथा च नलविलासनाटके विदूषक हास्यकवचांसि । ततश्च बहुकविदूषके नाटके । तथा 'सन्नायगाणु गए 'ति - पत्तनपक्षे, शोभननाय कैर्विशिष्टमण्डलगृहमामादिखामिभिरनुगते संबद्धे । नाटकपक्षे च चतुर्धा नायक उक्तः । तथा च नायकलक्षणं शास्त्रेऽभिहितम्, यथा नेता विनीतो मधुरस्त्यागी दक्षः प्रियंवदः । रक्तलोकः शुचिर्वाग्मी रूढवंशः स्थिरो युवा ॥ १ बुद्धधुत्साहस्मृतिप्रज्ञाकलामानसमन्वितः । शूरो दृढश्च तेजस्वी शास्त्रचक्षुश्च धार्मिकः ॥ २ भेदैश्वतुर्धा ललितशान्तोदात्तोद्धतैरयम् । निश्चिन्तो धीरललितः कलासक्तः सुखी मृदुः ॥ ३ सामान्यगुणयुक्तश्च धीरशान्तो द्विजादिकः । महासत्त्वोऽतिगम्भीरः क्षमावानंविकत्थनः ॥ ४ fort निगूढाहंकारी धीरोदात्तो दृढव्रतः । दर्पमात्सर्य भूयिष्ठो मायाछद्मपरायणः ॥ ५ धीरोद्धतोऽत्यहंकारी चलश्चण्डो विकत्थनः । सदक्षिणः शठो धृष्टः पूर्वा प्रत्यन्यया हृतः ॥ ६ दक्षिणोऽस्यां सहृदयो गूढविप्रियकृत् सदा । व्यक्ताङ्गो वितथोऽदुष्टोऽनुकूलस्त्वे कनायकः ॥ ७ एवंरूपचतुर्विधनायकानुगते नाटके "" । ३. तथा 'सड्डियदुलहराए' त्ति - सह ऋच्या चतुरङ्गचमूरु विनिचय विरचितचक्रवाल विशालसारतारवज्ञेन्द्रनील-मरकत-कर्केतन-पद्मराग-मुक्ताफल- शशिकान्त-सूर्यकान्तादिरत्नमणिभाण्डागार - शालि - तन्दुलगोधूम-मुद्रादिसद्धान्यकोष्ठागार निर्जितरतिरूपाप्रतिरूपाप्रचुरान्तः पुरसार्द्धषोडश वर्णिक सुवर्णरजतादिमहाविभूस्या वर्तते इति सार्द्धिकः । तादृशो दुर्लभराजा महीपतिर्यत्र तस्मिन् सार्द्धिक दुर्लभराजे, इति १ प्र० क्षमावेद्यवि २ प्र० संरक्षिणः । ३ प्र० दृष्टः । ४ प्र० कृच्छठः । Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनेश्वरसूरिचरितवर्णन । क० परिशिष्ट पत्तनपक्षे । सा(ना.)टकपक्षे च सती शोभना उत्कृष्टा धीर्बुद्धिर्येषां ते सद्धियस्त एव सद्धीकाः । खार्थे कप्रत्ययः । तेषां सद्धीकानां दुर्लभो दुःपापो रागश्चेतसोऽनुबन्धो यत्र तस्मिन् सद्धीकदुर्लभरागे । अत्र धस्य ढत्वं प्राकृतत्वात् । अयमत्राभिप्रायः-किल ये केचन संसारविषमकान्तारपरिभ्रमणनिर्विण्णाः, समस्तापायविनिर्मुक्तमुक्तसौख्याभिलाषुकाः, निरतिचारचारित्रश्रीसमूपगूढविग्रहाः, प्रतिहतकुमहाः, तत्त्वविचारचातुरीधुरीणास्त एव तत्त्ववृत्त्या सुमतय इत्युच्यन्ते । तदुक्तम् - बुद्धेः फलं तत्त्वविचारणं च देहस्य सारं व्रतधारणं च । अर्थस्य सारं तु सुपात्रदानं वाचःफलं प्रीतिकरं नराणाम् ॥ ततस्तेषां सुन्दरधिषणानां चेतस्येतदेव सदैव निरर्चि जागर्ति । यथा - कान्तेत्युत्पललोचनेति विपुलश्रोणीभरेत्युन्नतो न्मीलत्पीनपयोधरेति सुमुखाम्भोजेति सुभ्रूरिति । दृष्ट्वा माद्यति मोदतेऽभिरमते प्रस्तौति विद्वानपि प्रत्यक्षाशुचिपुत्रिकां स्त्रियमहो! मोहस्य दुश्चेष्टितम् ॥१ यल्लज्जनीयमतिगोप्यमदर्शनीयं बीभत्समुल्बणमलाविलपूतिगन्धि । तद् याचतेऽङ्गमिह कामिकृमिस्तदेवं किं वा दुनोति न मनोभववामता सा॥२ शुक्रशोणितसंभूतं नवच्छिद्रं मलोल्बणम् । अस्थिरलिकामात्रं हत योषिच्छरीरकम् ॥ ३ धन्यास्ते वन्दनीयास्ते तैस्त्रैलोक्यं पवित्रितम् । यैरेष भुवनक्लेशी काममल्लो निपातितः ॥ ४ तथा-माता भूत्वा दुहिता भगिनी भार्या च भवति संसारे । बजति सुतः पितृतां भ्रातृतां पुनः शत्रुतां चैव ॥ ५ सुखी दुःखी रङ्को नृपतिरथ निःस्वो धनपतिः प्रभुर्दासः शत्रुः प्रियसुहृदबुद्धिर्विशदधीः । भ्रमत्यभ्यावृत्त्या चतसृषु गतिष्वेवमसुमान् हहा संसारेऽस्मिन् नट इव महामोहनिहतः॥६ इत्यादिमोहविकटनाटकं परिभावयतां सतां सुधियां कुतूहलाद् गीत-नृत्तबहुलापरासमञ्जसचेष्टनाटकनिरीक्षणे प्रमादचरिते कथङ्कारं नाम मनागपि मनः प्रादुर्बोभवीति । तथा 'सरसइअंकोवसोहिए'त्ति- सरखतीनाम्नी निम्नगा तस्या अङ्क उत्सङ्गस्तेन उपशोभिते विराजिते । यदि वा, सरस्वत्या गीर्देवताया अङ्कश्चिद्रं व्याकरण-साहित्य-तर्कादिशास्त्रपरिज्ञानं येषु ते सरखत्यकाः । ते चासाधारणविशेषणसामर्थ्यान्नानाशास्त्रकर्तारः श्रीमदभयदेवसूरिप्रख्याः सूरयस्तैविभूषिते । अथ वा, खराः षड्जादयः, स्मृतय ऋषिप्रणीताः, तद्योगात् तद्विद उच्यन्ते । अकानधीयन्ते, अणि, आकः । ततः खराश्च स्मृतयश्चाङ्काश्च स्वरस्मृत्याङ्कास्तैरुपशोभिते । मिन्नप्रदेशवर्तिगान्धर्विकस्मृत्युचारकामावलीपाठकाधिष्ठित इत्यर्थः । यदि वा, खरः शब्दस्तेन च यश उपलक्ष्यते । यदि वा, खन एव वचस्तत्प्रधानाः, सत्यः पतिव्रताः स्त्रियस्तासां अङ्कः । 'अङ्को- भूषा-रूपकलक्ष्मसु । चित्राजौ नाटकाचंशे स्थाने क्रोडेऽन्तिकागसोः । इति हैमानेकार्थवचनात्, अन्तिकं तेनोपशोभिते, इति पचनपक्षे । नाटकपक्षे च किल.. पञ्चसन्धि-चतुर्वृत्ति-चतुःषष्टयङ्गसंयुतम् । षशिल्लक्षणोपेतं नाटकं कवयो विदुः॥ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क. परिशिष्ट ] गणधरसार्चशतकप्रकरणान्तर्गत अत्र च चतस्रो वृत्तयः कैशिकी-सात्वत्यारभटी-भारतीलक्षणाः । ततोऽत्र सरखतीति शब्दान्तरेण भारती वृत्तिरुपलक्ष्यते । तस्याश्च र प्रसाध्य मधुरैः श्लोकै कार्यसूचकैः। ऋतुं कश्चिदुपादाय भारतीवृत्तिमाश्रयेत् ॥ १ 'भारती संस्कृतप्रायो वाग्व्यापारो नटाश्रयः।' २-इत्यादि । शेषाणां च वृत्तीनाम् - तयापारात्मिका वृत्तिश्चतुर्धा तत्र कैशिकी । गीत-नृत्य-विलासाद्यैर्मृदुशृङ्गारचेष्टितैः॥३ विशोका सात्वती सत्त्व-शौर्य-त्याग-दयार्जवैः। आरभटी पुनः- मायेन्द्रजालसंग्रामक्रोधोद्धान्तादिचेष्टितैः ॥४ शृङ्गारे कैशिकी वीरे सात्वत्यारभटी पुनः। रसे रौद्रे सबीभत्से वृत्तिः सर्वत्र भारती ॥ ५ इत्यादिखरूपं नाटकलक्षणादवसेयम् । अकस्तु प्रत्यक्षनेतृचरितो बिन्दुव्याप्तिपुरस्कृतः। अङ्को नानाप्रकारार्थसंविधानरसाश्रयः ॥ ६ इत्यादिनाटकलक्षणोक्तखरूपः । ततश्च सरखती च अश्व ताभ्यां उपशोभित इत्यर्थः । तथा 'सुहए'त्ति-शोभनाः काम्बोज-बाहीक-पारसीकादयः शुक्तिरन्ध्रदेवमणिरोचमानादिप्रशस्त. समस्तलक्षणोपेता उच्चैःश्रवानुकारिणो हयास्तुरगा यत्र, तस्मिन् सुहये । यदि वा, सुभगे हृदयप्रियेसकलफल-पुष्प-भक्ष्य-वस्त्र-तीक्ष्णनागरखण्डनागवल्लीदलसोपारकपूगफलादिनानाप्रकारमनोहरवस्तुरत्नाकरत्वेन विषयिणां मुग्धबुद्धीनां लोचनसाफल्यकारिदर्शने इत्यर्थः । अन्यथा पुनस्तत्त्ववृत्त्या समस्तसौख्यनिधाननिर्वाणदानदुर्ललितानां परमेष्ठिनामेव वर्ण्यमानं सुभगत्वं श्रेष्ठमिति । नाटकपक्षे च मुग्धानां सुखदे सातावहे" । इति विशेषणसप्तकार्थः । अमुमेवार्थ पुनः सविशेषमाह - 'वसहिविहारो जेहिं फुडीकओ गुजरत्ताए ।' वसत्या चैत्यगृहवासनिराकरणेन परगृहस्थित्या सह, विहारः समयभाषया भव्यलोकोपकारादिधिया ग्रामनगरादौ विचरणम् , वसतिविहारः । स वैर्भगवद्भिः स्फुटीकृतः । सिद्धान्तशास्त्रान्तःपरिस्फुरन्नपि लघुकर्मणां प्राणिनां पुरः प्रकटीकृतः । कस्याम् ! गूर्जरत्रायाम् - सप्ततिसहस्रप्रमाणमण्डलमध्ये । किंविशिष्टायाम् ? परिहृतगुरुक्रमागतवरवा यामपि । परिहृता श्रवणमात्रेणाप्यवगणिता, गुरुक्रमागता गुरुपारम्पर्यसमायाता, वरवार्ता विशिष्ट-शुद्धधर्मवार्ता यया सा तथा । तस्यामपि । अपिः संभावने। नास्ति किमप्यत्रासंभाव्यम् , घटत एवैत, दित्यर्थः । परं तादृश्यामपि । प्रतीयमानार्थपक्षे पुनः- गुरुः पिता, 'गुरुर्महत्याङ्गिरसे पित्रादौ धर्मदेशके'इत्यनेकार्थवचनात् । तस्य गुरोः क्रमः गुरुक्रमः । 'क्रमः कल्पांहिशक्तिषु, परिपाट्याम्'- इति वचनात् । कल्प आचारः खकन्यकावराङ्गीकारणलक्षणः । तेन गुरुक्रमेण आगता आयाता गुरुक्रमागता । सा बासौ वरवार्ता च, 'भर्चा भोक्ता पतिर्वरः'- इत्यभिधानचिन्तामणिवचनात् , वरो भत्ती तस्य वार्ता कथा वरवार्ता । परिहता त्यक्ता गुरुक्रमागतवरवार्ता यस्याम् , तन्निवासिलोकेनेति गम्यते । तत्स्थलोकोपचारात् सैव वा व्यपदिश्यते । ततः परिहृता गुरुक्रमागतवरवाची यया सा तथा, तस्यामिति समासः । अत एव'गुजरत्ताए'ति-गुज्जो नट-विटादिः, तत्र रक्ता आसक्ता, तस्यां गुज्जरक्तायाम् । खपतिं परित्यज्य कृतान्यगृहप्रवेशायामित्यर्थः । अत्र पक्षे, अपिर्निन्दायाम् । Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनेश्वरसूरिचरितवर्णन । [क परिशिष्ट अपि संभावना-शङ्का-गर्हणासु समुच्चये । प्रश्ने युक्तपदार्थेषु कामचारक्रियासु च ॥ इत्यनेकार्थपाठात् । तथा च शिष्टलोका अपि निन्दन्तः पठन्ति । यथा सत्यं नास्ति शुचिर्नास्ति नास्ति नारी पतिव्रता। तत्र गूर्जरके देशे एकमाता बहुपिता ॥ १ जराजर्जरमप्यङ्गं बिभ्रत्यो गूर्जरस्त्रियः। दृढकञ्चकसंदाना मोहयन्ति महीमपि ॥२-इत्यादि । ६. तथा 'तिजयगय'त्ति-त्रिजगद्गतजीवबन्धुत्रिविष्टपनिविष्टप्राणिबान्धवः, येषां प्रभूणां बन्धुर्यद् बान्धवः सहोदरो बुद्धिसागराभिधानः सूरिराचार्यः । कृतवादरणोऽपि विहितवादकलहोऽपि, न यो विवादरणकारको जातः संपन्न इति विरोधः । अथ च कृतखनामानुरूपव्याकरणोऽपि विवादरणकारको न जात इति विरोधपरिहारार्थः । तदुक्तमेभिरेव श्रीपूज्यैः श्रीबुद्धिसागराचार्यैः वृत्तैर्व्याकरणं कृतम् । अस्माभिस्तु प्रमालक्ष्म वृद्धिमायातु सांप्रतम् ॥ १॥ ('प्रमालक्ष्म' प्रान्ते ) ७-८. तथा, सगुणजनानां प्रकृतिसौम्याक्रूराशठ-सदाक्षिण्य-विनीत-दयापर-मध्यस्थगुणानुरागिप्रमुखलोकानाम् , जनितभद्रः-दर्शनमात्रेण देशनामृततरङ्गिणीपयःपूरप्लावितश्रवणपुटतटाकरितविवेककन्दलीकन्दलतया वा प्रोल्लासितकल्याणः जिनभद्रनामा सूरिः, येषां विनेयगणस्य अन्तेवासिवृन्दस्य मध्ये प्रथमो मुख्यः । खपरयोरात्मेतरयोर्हिता अनुकूला 'सु र सुन्दरी कथा' येन परिकथिता । परितः सामस्त्येन आदित एव निर्माय उपदिष्टा भव्यलोकायेत्यर्थः । तथा येषां शिष्यो विनेयो यच्छिष्यः, जगति भुवने, उदयं अभ्युन्नतिम् , चन्द्रपक्षे उदयं पर्वतम् , 'उदयः पर्वतोन्नत्यो'रिति पाठात् , इतः प्राप्तः । किंवत् ? चन्द्र इवेत्युपमानम् । किं नामधेयः ? इत्याह - जिनचन्द्रसूरिनामा सुगृहीतनामधेयः । उभयोरपि साम्यमाह - कोः पृथिव्या मुत् हर्षः, कुमुदम् , विकासयन् विस्तारयन् - इति सूरिपक्षे । चन्द्रपक्षे पुनःकुमुदं कैरवं विकासयन् संकुचितं सत् प्रसारयन् । पुनः कीदृशः? विघटितो विश्लेषितो व्यभिचार विसंवादं असत्पक्षतामिति यावत् प्रापितः। कुमतान्येव कणभक्ष-अक्षपाद-शाक्य-सांख्यादिकुदर्शनान्येव चक्रवाकाः कोकास्तेषां गणः संघातः कुमतचक्रवाकगणः । विघटितः कुमतचक्रवाकगणो येन, स विघटितकुमतचक्रवाकगणः- इत्युभयपक्षेऽपि । यदि वा, विघटितो वियोजितः कुमतचक्रस्य कुदर्शनसमूहस्य वादगणो जल्पसमूहो येन, स विघटितकुमतचक्रवादगणः- इति सूरिपक्षे । चन्द्रपक्षे च-विघटितः कोः पृथिवीलोकस्य मता रम्याकारधारित्वेन इष्टा ये चक्रवाकास्तेषां गणो येन, स विघटितकुमतचक्रवाकगण इति । ९. तथा, तस्यैवासाधारणगुणस्तुतिं कुर्वन्नाह - सं वे ग रङ्गशाला यथार्थाभिधाना महती कथा । कीडशीस्याह - विशालशालोपमा-विशालः विस्तीर्णः स चासौ शालश्च प्राकारो विशालशालः, तेन उपमा सादृश्यं यस्याः, सा विशालशालोपमा। कृता विहिता येन श्रीजिनचन्द्रसूरिणा । किमर्थम् ? इत्याह - रागादिवैरिभयभीतभव्यजनरक्षणनिमित्तम् । रागादयो राग-द्वेष-प्रमादाविरति-मिथ्यात्वाज्ञान-मदन-दुष्टमनो-वचन-कायादयस्ते च ते वैरिणश्च शत्रवो रागादिवैरिणस्तेभ्यो भयं साध्वसं तेन भीतास्त्रस्ता रागादिवैरिभयभीताः, ते च ते भव्यजनाश्च मुक्तिगामिजन्तवश्व, तेषां रक्षणं त्राणं तस्मै, तन्निमित्तम् । यथा विशालशालमध्यस्थाः परचक्र-चौर-चरट-पटलकृतकष्टाभावेन धनकनकरत्नसमृद्धाः प्रसिद्धा जना निराबाधाः प्रमोद Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क० परिशिष्ट ] गणधरसार्द्धशतकप्रकरणान्तर्गत मनुभवन्ति, एवं यां शृण्वन्तो भव्या निरन्तरं संवेगरङ्गशालमध्यपातिनो राग-द्वेष-प्रमादादिवैरिभिर्न क्षणमपि पराभूयन्ते इत्यभिप्रायः । १०. तथा, कृतशिवसुखार्थिसेवः विहितमुक्तिसाताभिलाषिपर्युपास्तिः, अभयदेवनामा श्रीयुगप्रवरगणधरः । कीदृशः ? 'अवगयसमयपयखेवो'ति- सूचनमात्रत्वात् सूत्रस्य, अत्र क्षेपशब्देन निक्षेपो गृह्यते । ततोऽवगतो विज्ञातः समयपदानां सिद्धान्तशब्दाना क्षेपो निक्षेपो नामादिविन्यासो येन, स अवगतसमयपदक्षेपः । नानाविधविशुद्धसिद्धान्तामृतरसपानरसिको हि भगवानिति भावः। तथा च सिद्धान्ते ___ नाम ठवणा दविए खित्ते काले भवे य भावे य । ___ एसो खलु ओहिस्सा निक्खेवो होइ सत्तविहो ॥ इत्यवधिपदस्य सप्तधा निक्षेपः प्रतिपादितः । अथवा, सह मदेन दर्पण वर्तन्त इति समदाः साहङ्काराः। पदानि- 'पदस्थाने विभक्त्यन्ते शब्दे वाक्येऽङ्कवस्तुनोः । त्राणे पादे पादचिहे व्यवसायापदेशयोः' । - इत्यनेकार्थवचनात् , शब्दा वाक्यानि वा तेषां क्षेपः प्रेरणम् , उच्चारणमिति यावत् , पदक्षेपः । समदानां दर्पोद्भुरकन्धराणां वादिनां पदक्षेपः पद-वाक्योच्चारणं समदपदक्षेपः । ततोऽपकृतः तत्त्वाप्रतिपादकत्वलक्षण-प्रतिज्ञाहानि प्रतिज्ञान्तर-प्रतिज्ञाविरोधाद्यभिधान-द्वाविंशतिनिग्रहस्थानप्रोद्भावनेन बाधितो निराकृतो निषिद्ध इति यावत् समदपदक्षेपो येन, स अपकृतसमदपदक्षेपः । निरन्तरं विसृत्वरोद्धरतरगी र्वाणवाणीकुपणीप्रहारदारितदर्पिष्ठदुरूढदुर्वादिवृन्द इत्यर्थः । “ए ए छच्च समाणा' - इति प्राकृतलक्षणादत्र व्याख्याने 'अवगिये ति प्राप्तावपि इकारखराभावः । अपगतो दूरीभूतः समयपदानां सिद्धान्तवाक्याना क्षेपः, 'क्षेपो गर्वे लङ्घननिन्दयोः, विलम्बे रणहेलासु' - इति वचनात् , निन्दालङ्घनं वा अतिक्रमणं यस्मात् , स अपगतसमयपदक्षेप इति वा । यदि वा, समयः __ 'समयः शपथे भाषा-संपदोः कालसंविदोः । सिद्धान्ताचारसङ्केतनियमावसरेषु च ॥ क्रियाकारे च निर्देशे' - इति वचनात् , साध्वाचारः १, सिद्धान्तः २, सङ्केतः ३, अवसरः ४, नियमो ५ वा. पदं स्थानं संयमक्षेत्रासंयमक्षेत्ररूपम् । क्षेपश्च समयोचितो विलम्बः । ततः समयश्च पदं च क्षेपश्च समयपदक्षेपाः, अवगता ज्ञाताः समयपदक्षेपा येन, स अवगतसमयपदक्षेप इत्यर्थः । यच्छिष्यो येषां पूज्यानां विनेयः । ११. तस्यैवानन्यसाधारण विशेषणमाह - 'विहियनवंगवित्तिजलधोयजललेवोत्ति- अत्र जललेपो इत्यत्र डलयोरेकत्वाजड इति ज्ञेयम् । तत्रापि 'द्रव्यानयने भावानयनम्' - इति न्यायाज्जाड्यमिति द्रष्टव्यम् । ततो विहिता रचिता, खयमिति गम्यते, विशेषेण मुक्त्यर्थिनां सिद्धान्तशरणानां शुद्धात्मनामेकान्तेनैव हिता पथ्या, मुक्तिमार्गप्रदर्शनदीपिकाकल्पत्वेन वा विहिता, नवसंख्यानां स्थानाङ्गादीनां अङ्गानां वृत्तिर्विवरणं नवाजवृत्तिः, विहिता चासौ नवाङ्गवृत्तिश्च सैव जलं सलिलं विहितनवाङ्गवृत्तिजलम् , तेन धौतः प्रक्षालितो जाड्यलेपः अज्ञानपङ्कपुटो येन, स विहितनवाङ्गवृत्तिजलधौतजललेपः । एतच्चासाधारणगुणवर्णनं प्रभुश्रीजिनवल्लभसूरिभिरपि श्रीचित्रकूटीयश्रीवीरप्रशस्तावकारि । तद्यथा श्रीवीरान्वयि वृद्धये गुणभृता नानार्थरनैर्दधे यः स्थानादिनवाशेवधिगणः कैरप्यनद्धाटितः। तद्वंश्यः खगुरूपदेशविशदप्रक्षः करिष्यन् शुभां तट्टीकामुदजीघटत् तमखिलं श्रीसंघतोषाय यः॥ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनेश्वरसूरिचरितवर्णन । [ क० परिशिष्ट न च वाग्देवताप्रसादोल्लसितवाग्विलासानां नवाङ्गीविवरणकरणमत्यद्भुततमं निःसीमशेमुषीसमुल्लासवासभवनत्वाद् विपश्चिताम् । तदुक्तम् - ૨ उदन्वच्छिन्ना भूः स च निधिरपां योजनशतं सदा पान्थः पूषा गगनपरिमाणं कलयति । इति प्रायो भावाः स्फुरदवधिमुद्रामुकुलिताः सतां प्रज्ञोन्मेषः पुनरयमसीमा विजयते ॥ इति । अनन्तरविशेषणार्थमेव भयन्तरेण स्पष्टयति । येन नवाङ्गविवरणं विहितं विधिना गुरूपदेशानुसारादिना, समं सह शिवनिया सिद्धिलक्ष्म्या, कर्तुं विधातुं नवं अननुभूतपूर्वं नूतनं गवि पृथिव्यां वरणमिव । ' इव' शब्दाध्याहारः कार्यः, 'सोपस्काराणि वाक्यानी' त्युक्तेः । वरणकं चाविधवयुवतीमधुरमङ्गलोच्चार कुमारिकामुखकमलघु सृणमण्डनालङ्कारदानादिपूर्वकः परिणयनसत्यङ्कारदारदानप्रकारः प्रसिद्ध एव । किं कृत्वा ? ' उज्झित्ता' विहाय, भवयुवतीसंयोगम् । भवः संसारः स एव युवती, तस्याः संयोगं संपर्कम् । वर्तमाने भवे जन्मनि वा युवतीसंयोगं नारीपरिभोगम्, अङ्गीकृतनिरुपचरितचारित्र श्रीसमुपगूढाङ्गत्वाद् भगवत इति । १२. तथा, यैर्बहुशिष्यैः प्रभूतविनेयैः, शिवपुरपथप्रस्थितानां निर्वाणनगरमार्गं प्रति प्रचलितानां भव्यानां मोक्षार्थिप्राणिनाम्, सरला अकुटिला सरणिः पद्धतिः, मार्ग इत्यर्थः कथिता उक्ता । पुंस्त्वमत्र प्राकृतत्वात् । ते भव्याः येन मार्गेण यान्ति गच्छन्ति तकत्, शिवपुरं पूर्वनिर्दिष्टम् । १३. तथा, गुणकणमपि गुणलेशमपि परिकथयितुं न शक्नोति । सत्कविरपि महाविचक्षणोऽपि येषामाराध्यपदाम्भोजानाम्, स्फुटं प्रकटमेतत् तेषां जिनेश्वरसूरीणां चरणशरणं प्रपद्ये । ॥ इति गाथात्रयोदशकसमासार्थः ॥ * [ सुमतिगणिकृतं श्रीजिनेश्वरसूरिचरित्रवर्णनम् |] अत्र चायं वाचनाचार्य पूर्ण देवमणि मुख्यवृद्धसंप्रदायः । (१) अम्भोहरदेशे जिनचन्द्राचार्यो देवगृहनिवासी चतुरशीतिस्थावल कनायक आसीत् । तस्य च व्याकरण - तर्क- च्छन्दो - ऽलङ्कारविशारदः शारदचन्द्रचन्द्रिकावदातनिर्मलचेता वर्द्धमाननामा शिष्योऽभूत् । तस्य च प्रवचनसारादिग्रन्थं वाचयतश्चतुरशीतिराशातना आयाताः । ताश्चेमाः, तथा हि 'खेल' केलि' कर्लि' कला कुललयं तंबोल' मुग्गालयं " - [ इत्यादि ] आसायणाओ भवभ्रमणकारणं इय विभावि जइणो । मलिणत्ति न जिणमंदिरम्मि निवसंति इय समओ ॥ एताश्च परिभावयतस्तस्येयं मनसि भावना समजनि - यद्येताः कथञ्चिद् रक्ष्यन्ते तदैव भवकान्तारनिस्तारः स्यात् । अन्यथाऽगाधभवाम्भोधिमध्यनिपतितैरस्माभिरनन्तशो जन्म-जरा-मरण- दारिद्य-दौर्भाग्य - रोग-शोकादिसंतापपात्रमेवात्मा आत्मदौरात्म्यादात्मनैव कृतो भविष्यति । यत उक्तम् आसायणमिच्छत्तं आसायणवजणा य सम्मत्तं । आसायणानिमित्तं कुव्वद्द दीहं च संसारं ॥ अयं च स्वकीयशुभाध्यवसायस्तेन वर्द्धमानाभिधानसाधुना खगुरवे निवेदितः । ततस्तेन गुरुकर्मणा जिनचन्द्राख्येन तद्गुरुणा चिन्तितम् - अहो ! न सुन्दरोऽस्यायमाशयः, तदेनमाचार्य पदे संस्थाप्य देवगृहा Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क० परिशिष्ट ] गणधरसार्द्धशतकप्रकरणान्तर्गत रामादिप्रतिबन्धनियन्त्रितं करोमी'ति । तथैव चाकारि तेन । तथापि तस्य पुण्यात्मनो मनो न रमते चैत्यगृहावस्थितौ । युक्तं चैतद् । यतः दुर्गन्धपङ्ककलिते शबतापरीतदुस्खोटिकोटिकयकोटकुटुम्बकीर्णे । त्यक्ते सुपत्रिभिरलम्बत शुभ्रपक्षाः किं कुत्सिते सरसि पादमपि क्षिपन्ति ॥ ततो 'वत्स ! एतत्सर्वं देवगृहमारामवाटिकादिकं त्वदायत्तं खेच्छया विलस । माऽस्मांस्त्वदेकप्रमाणान् मुच्च' इत्यादिकोमलालापपुरस्सरं निवार्यमाणोऽपि - ___'क ईप्सितार्थस्थिरनिश्चयं मनः पयश्च निम्नाभिमुखं प्रतीपयेत् ॥' इति न्यायेन 'यथा तथा प्रभो! कस्यापि सुविहितगुरोरङ्गीकारेण मया खहितमनुष्ठातव्यम्' इति विहितनिश्चितप्रतिबन्धः खाचार्यानुज्ञातः कतिपययतिपरिवृतो ढिल्ली-वादलीप्रमुखस्थानेषु समाययौ । ६२) तस्मिंश्च समये तत्रैव श्रीउद्द्योतनाभिधानसूरयः सुविहिताः पूर्वमेव तत्पुण्यप्रेरिता इव विहृता अभवन् । ततस्तचरणकमलमूले शुद्धमार्गतत्त्वं निश्चित्य ते श्रीवर्द्धमानसूरयः सुनिश्चितोपचितहितसंपत्तिमुपसंपत्तिमाददिरे । तदनन्तरं श्रीवर्द्धमानसूरीणामियं चिन्ता जाता - यदुतास्य सूरिमन्त्रस्य कोऽधिष्ठाता ? तत्परिज्ञानायोपवासत्रयं चक्रुः । यावत्ततीयोपवासे धरणेन्द्रः समागतः । उक्तं च तेन यथा-- 'सूरिमन्त्रस्याहमधिष्ठायकः ।' निवेदितं सर्वसूरिमन्त्रपदानां प्रत्येकं फलम् । ततो जातः स्फूर्तिमानाचार्यमन्त्रः । तेन सस्फूर्तयः सपरिवारा वर्द्धमानसूरयो जज्ञिरे । ६३) अस्मिन् प्रस्तावे विज्ञप्तं पण्डितजिनेश्वरगणिना- 'भगवन् ! ज्ञातस्य जिनमतस्य किं स्याद् विशिष्टं फलम् , यदि कापि गत्वा सन्मार्गप्रकाशो न विधीयते ? श्रूयते च विस्तीर्णो गूर्जरत्रादेशः, किन्तु प्रचुरचैत्यवास्याचार्यव्याप्तश्च । अतो यदि तत्र गम्यते इति मे मनः । ततः श्रीवर्द्धमानाचार्यरुक्तम् - 'युक्तमुक्तं भवता । परं शकुन-निमित्तादिकं परिभाव्यते ।' परिभावितं जातं च शुभशकुनादिकम् । ततो भामहमहत्सार्थसहिता आत्मनाऽष्टादशाश्चलिताः सूरयः । क्रमेण च पल्लीं प्राप्ताः। बहिर्भूमिगतानां तत्र पण्डितजिनेश्वरगणिसमन्वितानां श्रीवर्द्धमानसूरीणां मिलितः सोमध्वजो नाम जटाधरः। जाता तेन सहेष्टगोष्ठी । ततो गुणं दृष्ट्वा चक्राणे प्रश्नोत्तरे सूरिभिः । यथा का दौर्गत्यविनाशिनी हरिविरिंच्युग्रप्रवाची च को वर्णः को व्यपनीयते च पथिकैरत्यादरेण श्रमः। चन्द्रः पृच्छति मन्दिरेषु मरुतां शोभाविधायी च को दाक्षिण्येन नयेन विश्वविदितः को वा भुवि भ्राजते । अनोत्तरम् ‘सो म ध्वजः' -द्विय॑स्तसमस्तः । सा ओम् , अध्वजः, सोमध्वजः । ततस्तुष्टोऽसौ जटाधरः । समुत्पन्नः श्वेताम्बरदर्शनेऽस्य बहुमानः । कृता प्रासुकान्नदान-लोकसमक्ष-गुणस्तुत्यादिका प्रतिपत्तिस्तेन । ततस्तेनैव भामहसंघातेन सह प्रस्थिताः । प्राप्ताश्च क्रमेणाणहिलपत्तने । उत्तीर्णा मण्डपिकायाम् । तस्यां च प्राकारमात्रेऽपि नास्त्याश्रयः । सुविहितसाधुभक्तः श्रावकोऽपि नास्ति, यः स्थानादिकं याच्यते । यावत्तत्रोपविष्टानामेव घों निकटीभूतः । ततोऽभिहितं पण्डितजिनेश्वरेण यथा- 'भगवन् ! एवमेवमुपविष्टानां न किमपि कार्य सिध्यति।' श्रीवर्द्धमानसूरयः -- तर्हि सुशिष्य ! किं क्रियते ? ।' जिनेश्वरपण्डितः - 'यदि यूयं ब्रूथ तदोच्चैर्गुहं दृश्यते तत्र व्रजामि ।' वर्द्धमानसूरयः -- 'वज ।' क. प.2 Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनेश्वर सुरिचरितवर्णन । [क० परिशिष्ट ततः सुगुरुचरणाम्भोजान्यभिवन्द्य गतस्तत्र । तच्चोचैर्गृहं श्रीदुर्लभराजमही वल्लभसत्कपुरोहितसंबन्धि वर्त्तते । तदानीं च पुरोहितः खशरीराभ्यङ्गं कारयंस्तिष्ठति । पण्डितजिनेश्वरेण तस्यामतः स्थित्वा पठितं यथा - १० सर्ग -स्थिति-क्षयकृतो विशेषवृषसंस्थिताः । श्रिये वः सन्तु विप्रेन्द्र ! ब्रह्म- श्रीधर - शङ्कराः ॥ इत्याशीर्वादप्रसन्नमानसः स राजपुरोधाश्चिन्तयति - अहो ! विचक्षणोऽयं व्रती कश्चित् । अत्रान्तरे मन्दिरान्तर्वर्त्तिविविक्तशालाप्रदेशे - 'ॐ ऋषभं पवित्रं पुरुहूतमध्वरं यज्ञं महेशम्' इत्यादिवेदवाक्यपरावर्त्तनामन्यथा कुर्वतइछात्राञ् श्रुत्वोक्तं पण्डित जिनेश्वरेण - 'मेत्थं वेदपदानोच्चारिष्ट, किं तत्थम्' इत्येतदाकर्ण्य विस्मयमानसः पुरोधाः कोमलगिरा पप्रच्छ - 'नन्वनधीतं नहि कश्चिन्नाम शुद्धमशुद्धं वेदमिति परिच्छिनत्ति । ततो वैपरीत्येन वेदवाक्यपरावर्त्तनं युष्माभिर्वेदपाठानधिकारिभिः शूद्वैः कथमवागामि ? ।' 1 - जिनेश्वर पण्डितेनोक्तम् – 'महाभाग्यशेखर ! द्विजेश्वर ! यथा आत्थ यूयम्, तथैवैतत् । नहि शूद्राणां वेदपाठाधिकारः । किन्तु नहि वयं शूद्राः । किं तर्हि, वेदचतुष्टयाध्यायिनो विप्रजातिनः । तथा तपसा तापसो ज्ञेयो ब्रह्मचर्येण ब्राह्मणः । पापानि परिहरंश्चैव परिव्राजोऽभिधीयते ॥ इति पूर्वर्षिप्रतिपादितब्रह्मचरणलक्षणा एव वयम् ।' पुरोहितः सानन्दम् - 'भो ! यतिपुङ्गवाः ! कुतो देशाद् यूयमत्रागताः ? ।' पण्डितजिनेश्वरगणिः – 'ढिल्लिकापुरीतिलकाङ्कितात् ।' - पुरोधाः - 'किं तद् धन्यं धरणीतलमेतस्मिन् पत्तने यदलञ्चक्रे चक्रादिलक्षणोपलक्षितं युष्मादृशमुनिराज - हंसचरणन्यासैः ? ।' पं० जिनेश्वर :- 'विशालतपनातपशालायां वयं स्थिताः स्मः ।' पुरोहितः - 'किमिति तत्रावस्थिताः ? ।' पं० जिनेश्वरः - 'पुरोहित मिश्राः ! शेषस्थानानां विरोधिभिरवष्टब्धत्वात् ।' पुरोहितः - 'भवद्दशानामपि शान्तात्मनामकृतागसां केचिद् विपक्षाः सन्ति ? ।' पं० जिनेश्वरः - द्विजोत्तम ! मुनेरपि वनस्थस्य स्वानि कर्माणि कुर्वतः । उत्पद्यन्ते त्रयः पक्षा मित्रोदासीन - शत्रवः ॥ पुरोहितः - ' अहह ! चन्दनशीतलानामपि युष्मादृशानां पापाः केचिदप्रियकारिणः ?' - इति क्षणं विषद्य, पुनः 'अथ के पुनस्ते दुर्विधेया मया ज्ञेयाः ? ।' पं० जिनेश्वरः - 'महात्मन् ! अस्तु कल्याणमेषाम् । किं नस्तेषां चर्चाकदर्थनेन ।' पुरोहितः - स्वगतम्, अह, त एते सुकृतात्मानः परदोषपराङ्मुखाः । परोपतापनिर्मुक्ताः कीर्त्यन्ते यत्र साधवः ॥ ततः कथमेते महात्मानः स्वविरोधिनां नामोत्कीर्त्तनं करिष्यन्ति ? किञ्च ममापि तेषां दुरात्मनां नामश्रवणमश्रेयस्करम् । तद्भवत्वेवमन्यत् पृच्छामीति । प्रकाशम् - " एतावन्त एव यूयमागताः स्थ किमुतान्येऽपि केचिन्मुनयः सन्ति ? | पं० जिनेश्वरः – ‘येषां वयं शिष्यलेशास्ते आसते खमनीषा विशेष विक्षिप्तसुरगुरवस्त्रि जगद्गुरवोऽस्मद्गुरवः परित्यक्तपरिग्रहगृहिणीधनधान्यखजनस्नेहसंबन्ध भूरयः सुगृहीतनामधेयाः श्रीवर्द्धमानसूरयः ।' पुरोधाः - सविस्मयम्, 'सर्वेऽपि कियन्तो भवन्तः ।' Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क. परिशिष्ट ] गणधरसार्द्धशतकप्रकरणान्तर्गत पं० जिनेश्वरः - 'अष्टादशपापस्थानविरता अष्टादशसंख्या वयं वर्तामहे ।' पुरोहितः - खगतम् , 'अहो! यादृशाः त्यक्तदाराः सदाचारा मुक्तभोगा जितेन्द्रियाः। गुरवो यतयो नित्यं सर्वजीवाभयप्रदाः ॥ इति दमाध्याये प्रतिपादिताः सद्गुरवस्तादृशा एते महात्मानः । तदेतान् खगृह एवानाय्य निर्धूतरजसः, तच्चरणपूतरजसा पुनामि स्वगृहाङ्गणम् । भवामि सततमेतेषां प्रत्यक्षपुण्यपुञ्जानामीक्षणेनेक्षणसाफल्यभागिति । पुनः प्रकाशम् , -- 'भो महासत्त्वाः! चतुःशालविशालमदीयगृहे एकस्मिन् द्वारे प्रविश्य एकस्यां शालायां तिरस्करिणीं दत्त्वा तिष्ठथ सर्वेऽपि यूयं सुखेन । भिक्षावेलायां मदीयमानुषेऽग्रीकृते ब्राह्मणगृहेषु भिक्षयाऽपि न किमपि खूणं भवतां भविष्यति ।' ततः पण्डितजिनेश्वरगणिः-'केऽन्ये भवभ्योऽप्यौचितीचारचेतसः' इति भणन् , अपेक्षन्ते न च स्नेहं न पात्रं न दशान्तरम् । सदा लोकहितासक्ता रत्नदीपा इवोत्तमाः ॥ इति च पठन् , गतः खगुरुसमीपे । निवेदितः समस्तोऽपि वृत्तान्तः । ततः समीचीनमेतदिति विचिन्त्य तेऽपि तथैव सर्व कुर्वन्ति । ६४) एवं च तत्र स्थितानां स्वधर्मकर्मनिरतानां पत्तनमध्ये समुच्छलिता वार्ता- यदुत वसतिपाला यतयः समायाताः सन्ति । श्रुता च चैत्यगृहनिवासिभिः साध्वाभासैः । ततस्तैर्मिलित्वा आलोचितम् - 'यदुताहो! न शोभनमेतद् यदेते वसतिपाला अनाजग्मुः । यतः- “वयं सुविहिताः सदैवागमोक्तक्रियाकारिणश्चैत्यवासपरिहारिणः, एते पुनः खच्छन्दचारिणः, सिद्धान्तोत्तीर्णभवार्णवपातकारिदेवद्रव्यापहारिणः, सदैकत्र वासिनः, कामोन्मादनताम्बूलाश्चान्ताखादनसचित्रविचित्रान्दोलनपल्यङ्कगण्डोपधानगल्लमसूरिकादिशृङ्गारचेष्टाविशेषप्रकटनेन नटविटादिवद् महाविलासिनः" - इत्याद्युल्लपनपूर्वकमात्मानं बकवृत्त्या परमधार्मिकत्वेन जनमध्ये प्रतिष्ठापयिष्यन्ति; अस्माँश्च सर्वत्रानाचारिण इति कृत्वा व्यवस्थापयिष्यन्ति । ततो यावदेष कोमल एव व्याधिस्तावच्चोच्छिद्यते' - इत्यात्मशङ्कितैस्तैरालोच्य चिन्तित उपायः । यथा- 'वयं तावदधिकारितनयानध्यापयामः । ते चामत्कथितकारिण एव । ततस्तानावयं तन्मुखेन दूषणमेषामारोप्यैतानुच्छेदयामः ।' ततस्तैराहूता अधिकारिपुत्राः स्वच्छात्राः । प्रलोभिताः खजूरद्राक्षावर्षोपलादिप्रदानेन । भणिताश्च युष्माभिर्लोकमध्ये एवं भणनीयम् - 'यदुतैते केचन परदेशात् श्वेताम्बररूपेण श्रीदुर्लभराजराज्यच्छिद्रान्वेषिणश्चराः समागताः सन्ति ।' कृतं च तत् तथैव तैः । ततः सा वार्तोदकान्तस्तैलबिन्दुरिव प्रसृता पत्तनमध्ये । प्रसरन्ती च राजसभायामपि प्राप्ता । ततो दुर्लभराजमहीभुजाऽभिहितम् - 'अहो! यद्येवंविधाः क्षुद्राः कापटिकाः श्वेतपटाः केऽप्याजग्मुः । ततस्तेषामाश्रयः केन दत्तः ।' तत्रस्थेनैव केनाप्युक्तम् - 'देव ! तवैव गुरुणा ते खगृहे धारिताः।' ततोः दुर्लभराजेनोक्तम् - 'आकारय तम् ।' आकारितः पुरोहितः, भणितश्च - 'भो शान्तिकर्तः ! श्वेताम्बररूपधारिणो ये हेरिका अत्र आगतास्तेषां किमिति त्वया स्थानमदायि? ।' पुरोहितेनोक्तम् - 'केनेदं दूषणमुद्भावितम् – यत् हेरिकास्ते ? । किं बहुना यद्येषां दूषणमस्ति, तदा पारुत्थलक्षेणैषा कर्पटिका प्रक्षिप्ता । पुनर्ययेषां मद्गृहवर्तिनां मुनीनां मध्ये दूषणगन्धोऽप्यस्ति तदोत्पाटयत्वेतां तदूषणवक्तारः ?' - इत्युक्त्वा स्थितः पुरोहितः। ततः सन्ति तत्रामात्यश्रेष्ठिप्रमुखाः प्रभूतास्तद्भक्ताः प्रधानपुरुषाः।' परं न कश्चिदुत्पाटयति कर्पटिकाम् । को नाम परकीयां रुष्टां गृह्णाति ? । ततो भणितं राज्ञः पुरः पुरोहितेन- 'देव! Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ श्रीजिनेश्वरसूरिचरितवर्णन । [क० परिशिष्ट न विना परिवादेन रमते दुर्जनो जनः । श्वेव सर्वरसान् भुक्त्वा विनाऽमेध्यं न तृप्यति ॥ महतां यदेव मूर्धनि तदेव नीचास्तृणाय मन्यन्ते । लिङ्गं प्रणमन्ति बुधाः काकः पुनरासनीकुरुते॥ ततो देव ! ये केचन मद्गृहे वर्तन्ते मुनयस्ते मूर्तिवन्तो धर्मपिण्डाः क्षान्ति-दान्ति-सरलत्व-मृदुत्वतपः-शील-सत्य-शौच-निष्परिग्रहत्वप्रमुखगुणरत्नकरण्डाः, चेतसाऽपि न पिपीलिकाया अप्युपतापमिच्छन्ति; कुतः पुनरेवं विधमिह-परलोकविरुद्धमकार्य ते करिष्यन्ति ? अतो न तेषां दूषणलेशोऽप्यस्ति । परं केषाश्चिद् दुरात्मनां विलसितमेतदिति ।' राज्ञोऽपि चित्ते प्रतिभातं तद्, यथाह पुरोहितस्तथैवैतत् संभाव्यत इति । ६५) ततः एतां वार्तामाकर्ण्य सर्वैरपि सूराचार्यप्रभृतिभिः परिभावितम् – यदेतान् परदेशागतान् वादे निर्जित्य निस्सारयिष्यामः । ततस्तैराहूयाभिहितः पुरोहितो यत् - 'युष्मद्गृहावस्थायियतिभिः सह वयं विचारं कर्तुकामा आस्महे ।' तेषां पुरस्तेनोक्तम् – 'तान् पृष्ट्वा यत् खरूपं तद् भणिष्यामि ।' ततः खसदने गत्वा भणितास्तेन ते भगवन्तो यथा- 'विपक्षाः श्रीपूज्यैः सह विचारं कर्तुं समीहन्ते ।' तैरुक्तम् - 'किमत्रायुक्तम् ? एतदर्थमेव वयमागताः । परमत्रार्थे त्वया न मनागपि भेतव्यम् । किन्त्विदं( त्थं) ते युष्माभिर्वक्तव्याः- 'यदि यूयं तैः सह विवदितुकामास्तदा ते श्रीदुर्लभराजप्रत्यक्षं यत्र भणिष्यथ तत्र विचारं करिष्यन्ति । ते हि सद्धर्ममार्गप्रकटनार्थमेव विसंकटग्रामनगरादिष्वटाट्यमानाः सर्वत्र विरचन्तीति । ततो राजसमक्षं ते विचारकरणेऽतीव सोत्कण्ठास्तिष्ठन्तीति ।' ततस्तेषां पुरस्तथा पुरोधसोदिते, तैः समस्तैरात्मपाण्डित्यगर्वितैश्चिन्तितम् - सर्वेऽप्यधिकारिणस्तावदस्मद्वशवर्तिनस्तेभ्यो वैदेशिकेभ्यः कीदृगस्माकं भयमिति । भणितं च-'भवतु राजसमक्षं विचारः ।' ततः प्रमाणितं तद्वचः पुरोहितेन । तैरप्यमुकस्मिन् वासरे पंचासरीयबृहद्देवगृहे विचारो भविष्यतीति निश्चित्य, निवेदितं सर्वेषां पुरः । पुरोहितेनाप्येकान्ते भणितो नृपो यथा- 'देव ! आगन्तुकमुनिभिः सह स्थानस्थिता विचारं विधातुकामास्तिष्ठन्ति । स च विचारो न्यायवादिराजसमक्षं क्रियमाणः शोभते । ततो युक्तायुक्तविचारदौस्तत्र विचारप्रस्तावे भवद्भिः प्रसद्य प्रत्यक्षैभवितव्यम् ।' राज्ञोक्तम् – 'किमयुक्तम् ! कर्तव्यमेवैतदस्माभिः । ६६) ततो निष्टंकितदिने तस्मिन्नेव देवगृहे सिंहासनगद्विकाचक्कलकादिप्रचुरतरमहत्तरासनाटोपेन पूर्वदेश-दक्षिणदेशाद्युद्भवविचित्रकच्चिका-नर्मिका-पट्ट-हीर-जादरि-गोजिकानिरग्रकीटधेतपीठराढिकापकल्लपट्टादिश्वेततराच्छाच्छतरप्रच्छादनपटीकटीतटीपट्टकप्रलम्बलम्बमानदशादण्डोद्दण्डस्पष्टनष्टाभिधेयरजोहरणनामधेयपदार्थकाण्डप्रमाणातिक्रान्तसन्दशप्रान्तमुखवस्त्रिकोज्वलमहामूल्यसूक्ष्मोचिकामेचककीचकोज्वल. बकचकायमाननिर्मानदण्डकादिवेषाडम्बरेण बहलताम्बूलरसाहितदशनरङ्गलिङ्गलिङ्गिनीतूलिकापट्टांशुकाच्छादनपट्टकलितललितसुखासनश्रीकरणिकामात्यश्रेष्ठिप्रमुखधनाढ्यश्राद्धनानाभक्तिविशेषवेषसविशेषभूषणभूषाविष्कृतस्फारतारशृंगारश्राविका विहितखकीयाचार्यगुणवर्णनानिबद्धधवलमङ्गलगीतोच्चारादिबृहत्स्फटाटोपेन सूराचार्यप्रभृतिचतुरशीतिसंख्य चैत्यवास्याचार्याः सूर्योदय एवागत्य खहस्तन्यस्तवादस्थलपुस्तिकाः समुपविविशुः। राज्यप्रधानपुरुषैराकारितः श्रीदुर्लभराजमहाराजोऽपि महता भटचट परिकरेणागत्योपविष्टस्तत्र । ततोऽभिहितं राज्ञा- 'पुरोहित ! क्षिप्रमाह्वानय तान् खसम्मतान् देशान्तरायातानार्यान् ।' ततस्त्वरितत्वरितपदं गत्वा श्रीवर्द्धमानसूरीन् एवं विज्ञपयति- 'भगवन् ! पंचासरीयदेवगृहे सर्वेऽप्याचार्याः सपरिवारा उपविष्टाः। श्रीदुर्लभराजमहीवल्लभश्च । सर्वेऽपि आचार्याः पूजितास्ताम्बूलदानेन भूभुजा । इदानीं युष्माकमागमनमवलोक्यते । एतत् पुरोहितमु खादाकर्ण्य श्रीवर्द्धमानसूरयः श्रीसुधर्मस्वामि-जंबूखामिप्रभृतिचतुर्दशपूर्वधरान् Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क० परिशिष्ट ] गणधर सार्द्धशतकप्रकरणान्तर्गत १३ युगप्रधानानपरानपि सूरीन् विन्यस्य हृदयपुण्डरीके पण्डितश्रीजिनेश्वरप्रमुख कतिपय गीतार्थ साधुभिः सह प्रचलिताः पंचासरीय चैत्याभिमुखम् । कन्यागोशङ्ख मेरीदधिफलपुष्पमालाद्या लोक मांगलिक्य रूपानुरूपसुराकुनदर्शनसंभाविताः संभाविताभिलाषित सिद्धयः प्राप्ताश्च तत्र । उपविष्टाः पंडितजिनेश्वरदत्त निषद्या यां श्री दुर्लभराजदर्शितस्थाने । पण्डितजिनेश्वरोऽपि गुरुणाऽनुज्ञातोऽवनतगात्रः स्वगुरुपादान्त एवोपविवेश । १७) अत्रान्तरे नृपतिस्ताम्बूलदातुं प्रवृत्तः । ततः सभासमक्षमाचचक्षे भगवद्भिः श्रीवर्द्धमानाचायैः'महाराज ! अस्मदागमे मुनीनां ताम्बूलभक्षणस्नान पुष्पमालागन्धनख केशदशनादिसंस्कारादिकं निषिद्धमस्ति । ततः - संजमे सुट्टियप्पाणं विष्यमुक्काण ताइणं । तेसिमेयमणाइन्नं निग्गंथाण महे सिणं ॥ उद्देसियं कीयगडं नियागमभिहडाणि य । राइभत्ते सिणाणे य गंधमले य वीयणे ॥ सब्वमेयमणानं निग्गंथाण महेसिणं । संजमम्मि य जुत्ताणं लहुभूयविहारिणं ॥ इत्यागमं पठित्वा, यद् राजाग्रतो व्याख्यानार्हं तद् व्याख्यातं श्रीमदाचार्यैः । राजा - 'ताम्बूलभक्षणे को दोषः ?" आचार्याः - 'कामरागवर्द्धनं ताम्बूलमिति जगद्विदितमेतत् । तथा च पठ्यते लोके - ताम्बूलं कटुतिक्तमुष्णमधुरं क्षारं कषायान्वितं पित्तघ्नं कफनाशनं कृमिहरं दौर्गन्ध्य निर्नाशनम् । वक्त्रस्याभरणं विशुद्धिकरणं कामाग्निसंदीपनं ताम्बूलस्य सखे त्रयोदशगुणाः स्वर्गेऽपि ते दुर्लभाः ॥ अतो ब्रह्मचारिणां तांबूलभक्षणं रागवृद्धिहेतुत्वादत्यन्तं दुष्टमेव । स्मृतावप्युक्तम् - ब्रह्मचारियतीनां च विधवानां च योषिताम् । ताम्बूलभक्षणं विप्रा गोमांसान्न विशिष्यते ।। स्नानमुद्वर्तनाभ्यंगनखकेशादिसंस्क्रियाम् । धूपं माल्यं च गन्धं च त्यजन्ति ब्रह्मचारिणः ॥ एतच्छ्रुत्वा विवेकप्रवेकलोकस्य जातो हृदये प्रमोदो गुरुषु बहुमानश्च । श्रीवर्द्धमानाचार्यैरुक्तम् - 'आचार्यैः सह विचारे प्रक्रान्तेऽस्मच्छिष्य एष पण्डितजिनेश्वरो यदुत्तरप्रत्युत्तरं प्रदास्यति तदस्माकं प्रमाणम् ।' सर्वैरपि भणितमेवमस्तु । ६८) ततश्चतुरशीत्याचार्यघटागरिष्ठेन सूराचार्य चैत्यवासिना जल्पितम्, यथा - ' शृण्वन्तु भोः ! सर्वेऽपि क्षितिपतिमन्त्रिप्रभृतयो लोकाः ! यदस्माभिरुच्यते ।' मन्त्रयादयस्तत्पाक्षिका वदन्ति - ' वदन्तु भवन्तस्तिष्ठामो वयमेते श्रवणोवीं कृतश्रवणाः ।' राजा पुनस्तदानीं समस्तानपि तांश्चैत्यवास्याचार्यसाध्वाभासांश्च चकचकायमा नोच्छ्रितसमीकृतन ताविरलशिरःकुन्तलांस्ताम्बूलरस रञ्जितौष्ठपुटर दनान् बहल कौतूहलाव लोकनाक्षिप्तमृगेक्षणानिरी चिक्षिषेतस्ततः क्षिप्तस्फारेक्षणेन हृष्टपुष्टाङ्गान् घृष्टालक्तकरसरक्तपादन खां स्तीक्ष्गीकृतन खशुक्तिकान्, सुरभिचम्पकतैलाभ्यतगात्रोच्छलद्बहलपरिमलान् पटवासधूपितपटावगुण्ठितान् वीक्ष्य, चिन्तयां चकार - अहो ! सविलासचेष्टकायाः खल्वमी विटप्राया महामूढत्वेन व्यतिरिच्यन्ते नेष्टकायाः । पश्यतामी पुनर्महानुभावाः स्वभावानीचा अपि नीचासनोपविष्टाः समूलमूर्द्धजोन्मूलनावलोक्यमानासमासमारचिताविततखर१रुष Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनेश्वरसूरिचरितवर्णना [ क० परिशिष्ट धूसरोत्तमाङ्गकेशाः मलपटल विशदंशुकरदन देहपादविपादिकाः दर्शनमात्रेणैवोपलभ्यमानशान्तता लिङ्गिततपोनिष्ठमूर्तयः । निश्चितं ये केचन गुणरत्नालङ्कृतगात्रात्रिजगन्महनीयमहा शीलवतपात्राण्युच्यन्ते ते एते महाव्रतिनः - इत्येवं विमृशति क्षितीशे, अत्रान्तरे समुपन्यस्तं सूराचार्येण । 1 ૪ १९ ) यथा - 'भो भोः वसतिपालाः ! सावधानमनोभिः श्रूयतां युष्माभिः । जिनभवननिवास वेदानीत मुनीनां समुचितः, तत्रैव निरपवादब्रह्मव्रतस्य संभवात् । यतीनां च तदेव गवेष्यते । न च शेषत्रतानामिव तत्रापि सापवादत्वमस्तीति वाच्यम् । सिद्धान्तेऽस्य सर्वत्रतेषु निरपवादत्वेनैव प्रतिपादनात् । तथा चोक्तम् - नवि किंचि अणुन्नायं पडिसिद्धं वावि जिणवरिंदेहि । मुत्तुं मेहुणभावं न तं विणा रागदो सेहिं ॥ वसतिवासे तु युवतीजनमनोहारि शब्दश्रवणादेर्न ब्रह्मव्रतं सम्यग् निर्वोढुं पार्थते, उत्कलिकादिप्रादुभवात् । तथा हि- नितम्बिनीनां कोकिला कलकूजितं गीतादिरवमधरितर तिसौन्दर्यं च रूपमुपलभ्य भुक्तभोगानां यतीनां पूर्वानुभूतनिधुवनविलसितप्रतिसन्धानादयः, अभुक्तभोगानां च तत्कुतूहलादयः प्रादुर्भवेयुः । यतीनां च सततं कर्णपीयूषवर्षि विशद गम्भीरमधुरखाध्यायध्वानं निशम्य केषां चित्तु शरीरागण्यलावण्यश्रियं निर्वर्ण्य प्रोषितपतिकादीनां तरुणीनां रिरंसादयः प्रादुष्युः । एवं चान्योऽन्यं निरन्तररूप|वलोकन गीतश्रवणादिभिर्दुर्मथमन्मथ दौः स्थ्याच्चारित्रमोषादयोऽनेके दोषाः पुष्येयुः । यथोक्तम् - श्रीवज्जियं वियाणह इत्थीणं ठाण जत्थ रुवाणि । सदा य न सुब्वंती तावि य तेसि न पिच्छंति ॥ बंभवयस्स अगुत्ती लज्जानासो य पीइवुड्ढी य । साहुतवोधणनासो निवारणा तित्थपरिहाणी ॥ लौकिका अप्याहुः - शृणु हृदय रहस्यं यत्प्रशस्यं मुनीनां न खलु न खलु योषित्सन्निधिः संविधेयः । हरति हि हरिणाक्षी क्षिप्तमक्षिक्षुरप्रप्रहतशमतनुत्रं चित्रमप्युन्नतानाम् ॥ जिनगृहवासे तु न तथा निरन्तरस्त्रीसंसक्ति संभवः । कदाचिच्चैत्यवन्दनार्थमेव क्षणमागत्य गन्त्रीणां श्राविकादीनां यतिभिः सह तथाविधप्रसंगानुपपत्तेः । तस्मात् प्राणातिपातादिवदने कदोषदुष्टत्वेन परगृहनिवासत्वेऽनुपपन्ने सति जिनगृहवास एवाधुनिकसाधूनां सांगत्यं निरत्तीयर्त्ति । तथा हि, ऐदंयुगीनां जिनगृहवासमन्तरेणोद्यानवासो वा स्यात् परगृहवासो वा स्यादिति विकल्पयुगल कमुदयपदवीमासादयति । तत्र द्वितीय विकल्पः समुत्पन्नः किल दासेरक इव प्रथमत एव निर्वरपदप्रहारजर्जरीकृताङ्गत्वेन नोत्थातुमुत्सहते । प्रथमोद्यानपक्षोऽप्यसपक्ष इव नास्मत्पक्षविक्षेपदक्षतामुपक्षिपति । स्त्रीसंसक्त्याद्याधाकर्मिकादि - दोषकलाकलितत्वात् । तथा हि- उद्यानेऽपि निवसतां यतीनां नूतनचूताङ्कुराखादकूजत्कलकण्ठपञ्चमो - द्वारेणोन्मीलद्वहलविचिकिलबकुलमालतीपरिमलेन च तन्तन्यते समाहितचेतसामप्युत्कलिकोल्लासः । पञ्चमोद्वारादीनामुद्दीपन विभावत्वेन भरतादिशास्त्रेऽभिधानात् । तथा चिक्रीडिषागतकामुककामिनीसंकुलत्वेन स्त्रीसंसक्त्यादौ पुनः किं ब्रूमहे । अथ वा नवनवतरशास्त्राभ्यासपरावर्तनपराणां यतीनां मा भूवन्नेतज्जन्या दोषाः, तथापि लोकसंचारशून्योद्यानभूमौ वसतां सतां चौरचरटभटादिभिर्वस्त्र पात्राद्युपकरणापहारस्यापि संभवः । तदपहारे च शरीरसंयम विराधनाप्रसङ्गः । अथ 'समोसढा उज्जाणे भयवंतो जुगंधरायरिया |' तथा 'ठिओ भयवं वइरसामी उज्जाणे' इत्याद्यनेकधोद्यानवासः श्रूयत इति चेत्, सत्यम् ; सोऽनापातासंलोक गुप्तैकद्वारोद्यानविषयः । तस्य च प्रायेण कलिकाले लोकस्य राजतस्करचरटाद्यु Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क० परिशिष्ट ] गणधर र्द्धशतकप्रकरणान्तर्गत १५ पप्लवैर्बाधितत्वेन दौः स्यादसंभव एव - इत्युद्यानवासः कथमधुन | तनमुनीनां कल्प्यमानः शोभेत । तस्मादिदानीं जिनगृहवास एव साधूनां संगतः प्रतिभाति । न च तत्राधार्मिकादयो दोषाः । तथा च प्रयोगः– चैत्यमिदानींतनमुनीनामुपभोगयोग्यम्, आधाकर्मादिदोषरहितत्वात् तथाविधाहारवत् । न चायमसिद्धो हेतुः, जिनप्रतिमार्थं निष्पादिते आयतने आधाकर्मादिदोषानवकाशाद् । यत्यर्थं क्रियमाणे हि तस्मिन्नाधाकर्मादिदोषः प्रादुर्भवेत् । किं च यतीनां चैत्यनिवासमन्तरेण सांप्रति कजिन भवनानां हानिः स्यात् । तथा हि- पूर्वं कालानुभावादेव श्रीमन्तोऽव्यग्रचेतसो देवगुरुतत्त्वप्रतिपत्तिभर निर्भरतयैतदेव परं तत्त्वमिति मन्यमानाः श्रावकाः परमादरेण चैत्यचिन्तामकरिष्यत् । सांप्रतं तु दुःषमादोषान्नक्तंदिवं कुटुम्बसम्बलचिन्तातापजर्जरितचित्ततयेतस्ततो धावतां प्रायेण दुर्गतानां श्राद्धानां खभवनेऽप्यागमनं दुर्लभम्, आस्तां जिनमन्दिरे । तथा च कुतस्त्या तत्समारचनादिचिन्ता तेषाम् । श्रीमतां तु प्रतिकलं मदालसवार विलासिनीघनसारशबलमलयजर सपंकिलपीनकुचकलशपीडनदुर्ललितानां निरन्तरमेव भूरिभूरि लिप्सया पार्थिवसेवावाकिनां जिनगृहावलोकनमेव न संपद्यते, दूरे तच्चिन्ता । तदभावे च जिनसदनानां विशर रुता स्यात् ; तथा च तीर्थोच्छित्तिरा पनीपद्यते । चैत्यान्तर्निवासे तु यतीनां तदुद्यमे च भूरि कालं जिनभवनान्यव तिष्ठेरन् ; तथा च तीर्थाव्यवच्छेदः । तदव्यवच्छित्तिहेतोश्च किञ्चिदपवादासेवनस्यागमेऽपि समर्थनात् । यदाह - " जो जेण गुणेण हिओ जेण विणा वा न सिज्झए जं तु" इत्यादि । तदेवं सूक्ष्मेक्षिकया विमृशतां विदुषां चेतसि चैत्यवास एवेदानीं संगतिमङ्गतीति ।' (११) इत्यादि सूराचार्योपन्यस्तं समस्तमपि स्वहृदयेऽवधार्य, ततो 'भाविनि भूतवदुपचार' इति न्यायादुक्तं समुत्कटप्रावादुककर टिकरटतटपाटन पटिष्ठनिष्ठुर प्रकोष्ठ के सरसटाभारभासुरकेसरिणा भगवता श्रीजिनेश्वरसूरिणा । यथा - 'भो भोः सभासदः ! सदैव सर्वत्र यमलजननीप्रति मामलहृदः किंचिद्युक्तायुक्त विचारविषयमुपन्यस्यमानं प्रेक्षापूर्व कारिणो मात्सर्यमुत्सार्य माध्यस्थ्यमास्थाय सावधानीभूय शृण्वन्तु भवन्तः सन्तः । तत्र 'जिनभवननिवास एवेदानींतनमुनीनां समुचितस्तत्र निरपवादब्रह्मत्रतस्य संभवाद्, यतीनां च तदेव गवेष्यत' इत्यादिना, 'बंभवयस्स अगुत्ती' इत्याद्यन्तेन यद् यतीनां परगृहवसतिदूषणं बभाषे भवता भवतापहारिहारिशीलशालिना; तदिदानीं विकल्पपूर्वकं विचार्यते । तथा हि - यदियं परगृहवसतिः दृष्यते भवता यतीनां तत् किं सर्वदा उत इदानीमेव ? यद्याद्यः पक्षः, तदानीमुद्यानादिषु वसतां यतीनां कथंचिच्चौर द्युपद्रवात् कथं प्रतीकारः स्यात् ? । न च तदानीं कालसौस्थ्येन चौराद्युपसर्गाभावात् उद्यानवास एव यतीनां श्रूयते न परगृहवास इति वाच्यम् । तदापि तस्कराद्युपद्रवस्यानेकधाऽऽकर्णनात् । तथा तस्मिन्नपि काले मुनीनां परागाराश्रयस्यागमेऽभिधानाच्च । यदुक्तम् - बाहिरगामे त्या उज्जाणे ठाणवसहिपडिलेहा । इहरा उ गहियभंडा वसही वाघाय उड्डाहो ॥ सन् विय हिंडता वसहिं मग्गति जह उ समुहाणं । लद्धे संकलिय निवेयणं तु तत्थेव उ नियट्टे ॥ तथा वृषभकल्पनया स्थापिते ग्रामादौ यतीनां वसतिगवेषण चिन्तायामुक्तम् - नयइसु घिप्पइ वसही पुण्यामुहं ठविय वसहं । वामकडीइ निविद्धं दीही कयअग्गिमिकपयं ॥ सिंगक्खोडे कलहो ठाणं पुण नत्थि होइ चलणेसु । अहिठाणे पुट्टरोगो पुच्छम्मिय फेडणं जाण ॥ मुद्दमूलम्मिय चारी सिरे य ककुहे य पूयसक्कारो । खंधे पट्टीइ भरो पुट्टम्मि य धायउ वसहो ॥ न चैवंविधा वसतिर्ग्रामादिमध्यमन्तरेण संभवति । उद्यानवासे एव च तदानीमभिमते प्रतिपदमुक्तन्यायेन ग्रामाद्यन्तर्वसतिनिरूपणा नोपपद्येत । एवं च तदानीमपि परगृहबसतेर्यतीनां भावान्न प्रथमः पक्षः । Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ श्रीजिनेश्वरसूरिचरितवर्णन । [क० परिशिष्ट अथ द्वितीयपक्षः कक्षीक्रियते । अत्रापि पृच्छामः- कुतो दोषादधुनैव यतीनां परगृहवासो दूष्यते ! 'स्त्रीसंसक्त्यादे'रिति चेत् न, अस्य दोषस्य तदानीमपि भावात् । न च तदापि तत्संसक्तिरहितवसतिपरिग्रहे तदलामे वाऽभिहितयतनां विहायान्यः समाधिः । तथा च स इदानीमप्याश्रीयताम् , न्यायस्य समानत्वात् । एवं च उक्तयतनाविधायिनां ख्यादिसंसक्तवसताविदानीमपि ब्रह्मचर्यगुप्त्यादयो दोषाः परास्ताः । यदपि 'तस्मादिदानीं जिनगृहवास एव साधूनां संगतः प्रतिभाती'त्यादि, 'यत्यर्थ क्रियमाणे हि तस्मिन्नाधाकर्मादिदोषः प्रादुर्भवेद्' इत्यन्तमुक्तम् , तदप्यधिकतरदोषकवलितत्वेन चौरचरटत्रासोल्लासात् पलायमानस्यात्यन्तरौद्राकारसमग्रसनरसिकरसनापिशाचाक्रान्तविकटाटवीसंकटनिपातकल्पनामुपकल्पयति । तथा हि, परगृहे कदाचिदाधाकर्माङ्गनासंसक्तिप्रभृतिदोषदर्शनात् तत्त्यागेन जिनसदनान्तर्निवसतां सतां शीलधनवतां साधूनां प्रत्यहं भगवत्पुरतः स्फारशृङ्गारोदाररम्भातिलोत्तमावतारतारमधुरखरगायन्नृत्यद्वार विलासिनीसाजभङ्गसानङ्गापाङ्गनिरीक्षणक्षणदाकराकरवदनकुन्दकलिकाविशदरदनमसृणपङ्काहीनपीनस्तनघटपृथुलश्रोणीत. टप्रलोकनादिवातसंधुक्षणेनेदानी तथाविधसत्त्वविवेकविकलसैक्ष्यादिमुनीनां कथं सातिरेका मन्मथविकाराङ्गारा न दीप्येरन् ? ततश्चेदमुपस्थितम् - यत्रोभयोः समो दोषः परिहारश्च तादृशः । नैकपर्यनुयोज्यः स्यात् तादृश्यार्थ विचारणे ॥ प्रत्युतायं विशेषोऽस्मत्पक्षे स्त्रीसंसक्तपरगृहे कदाचिद् वसतामप्युक्तदोषासंभवः, तत्र यतनाभिधानात् । भवत्पक्षे तु चैत्यवासस्य सर्वथा वर्जनीयत्वेन क्वचिदपि यतनाऽनभिधानादेतदोषपोषः केन वार्यते । न च वक्तव्यं गृहिगृहाणां संकीर्णत्वाद् यतनाकरणेऽपि नोक्तदोषमोषः कर्तुं शक्यत इति । प्रमाणयुक्तस्यैव गृहिमन्दिरस्य प्रायेण यत्याश्रयणीयत्वेनाभिधानात् , तत्र चोक्तदोषपरिहारस्य सुशकत्वात् । अतएव गृहिणा सकलगृहसमर्पणेऽपि यतीनां तस्यान्यस्य वा दौर्मनस्यनिरासाय मितावग्रहाध्यासनं सूत्रे प्रत्यपादि । यदुक्तम् - एवमम्ह वि जं जोग्गं तं देयं जइ भणिज इय भणिओ। चली खद्रा य मम सेसमणनाया तब्भ मर॥ अणुनाए वि सव्वम्मि उग्गहे घरसामिणा। तहावि सीम छंदंति साहू तप्पियकारिणो ॥ झाणट्ठा य भायणधोवणट्ठा दुण्हट्टया अत्थणहे उयं वा । मिउग्गहं चेव अहिट्टयंति मासो व अन्नो व करिज मत्तुं ति ॥ प्रमाणयुक्तपरगृहालाभे तु संकीर्णेऽपि तस्मिन् यतनया वसता न दोषः । यदुक्तम् - नत्थि उ पमाणजुत्ता खुडलियाए वसंति जयणाए ति । किं च जिनगृहवाससमर्थनमात्मनो महानर्थकारित्वान्न चारिमाणमञ्चति । सिद्धान्ते चैत्यान्तर्वासस्य मुनीनामत्यन्ताशातनाहेतुत्वेनोक्तत्वात् । तस्याश्वाल्पीयस्या अप्यनन्तभवामयवृद्धिकारणत्वेनापथ्यासेवनतुल्यत्वात् । तथा चागमः - दुन्भिग्गंधमलस्सावि तणुरप्पेस अण्हाणिया। उभओ बाहओ चेव तेण ठंति न चेइए ॥ जइ वि न आहाकम्मं भत्तिकयं तह वि वजियं तेहि । भत्ती खलु होइ कह इहरा आसायणा परमा ॥ आसायणमिच्छत्तं आसायणवजणा य सम्मत्तं । आसायणा निमित्तं कुव्वइ दीहं च संसारं ॥ तस्मात् कथंचिदाधाकर्मिकवसतिनिवासस्यापि सिद्धान्ते प्रतिपादितत्वात् , जिनभवननिवासस्य चात्यन्तदूषितत्वाद् वसतिवासः साधूनामुपपन्न इति । तथा च प्रयोगः- यतीनां परगृहवासो विधेयः, निःसंगताऽभिव्यञ्जकत्वात् , शुद्धोञ्छग्रहणावदिति । तथा, यदपि च, 'किं च चैत्यवासमन्तरेणे'त्याविना तथा Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क० परिशिष्ट ] गणधर सार्द्धशतकप्रकरणान्तर्गत च 'तीर्थाव्यवच्छेद' इत्यन्तेन तीर्थाव्यवच्छित्त्या चैत्यवासप्रतिष्ठापनम्' तदपि विचारभारगौरवाक्षमस्वात् केवलं मुग्धलोकविप्रतारणमेव । यतः केयं तीर्थाव्यवच्छित्तिः ? किं यतीनां चैत्यान्तर्वासेन भगवद्देवगृहबिम्बाद्यनुवृत्तिः ? आहोखित् शिष्यप्रति शिष्यपारंपर्येणा विच्छिन्नप्रसरा सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्रप्रवृत्तिः ? न तावदाद्यः, चैत्यवासमन्तरेणापि भगवद्विम्बाद्यनुवृत्तिमात्रदर्शनात् । तथा हि- पूर्वदेशेऽद्यापि तादृक्प्राकृतलोकेन कुलदेवताबुच्या नमसितकीकृता । अपेयाभक्ष्यादिनाऽपि नमस्यमानानां जिनबिम्बानामनेकधोपलब्धेः, अन्यतीर्थिकपरिगृहीतानां च तेषां तथैवानुवृत्त्युपलम्भाच्च । तथा चैतावतैव भवदभिमततीर्थाग्यवच्छित्तिसिद्धेः किं निःफलेन चैत्यवाससंरम्भेण: । न चैतावता तीर्थाव्यवच्छेद कार्येण निःश्रेयसादिफलसिद्धिः, मिथ्यादृष्टिपरिगृहीतानां प्रतिमानां मोक्षमार्गानङ्गत्वेनाभिधानात् । 'मिच्छद्दिट्ठिपरिग्गहियाओ पडिमाओ भावगामो न हुंति त्ति' वचनात् । अथ द्वितीयः [वि]कल्पस्तर्हि सैव तीर्थाव्यवच्छित्तिरभ्युपेयतां मोक्षमार्गत्वात् किं तदनुगुणोत्सूत्रचैत्यवासाश्रयणेन ? यदुक्तम् - 2 'सीसो सझिलो वा गणिव्वओ वा न सुग्गइं निंति । जत्थेएँ नाणदंसणचरणा ते सुग्ग ईमग्गो ॥' सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्रानुवृत्तिं विना च जिनगृह बिम्ब सद्भावेऽपि तीर्थोच्छित्तिः । अत एव जिनान्तरेषु केषुचिद् रत्नत्रयविरहात् कापि जिनबिम्बसम्भवेऽपि तीर्थोच्छेदः प्रत्यपादि । स्वमतिकल्पिता चेयं प्रकृता तीर्थ व्यवच्छित्तिरागमविसंवादित्वाद्धेयैव । यदाह - 'म य समयवियप्पेणं जहा तहा कयमिणं फलं देइ । अनि आगमाणुवाया रोगतिमिच्छाविहाणं व ॥' १७ किं च भवतु जिनगृहाद्यनुवृत्तिस्तीर्थाव्यवच्छित्तिः, तथापि न यति चैत्यवास- जिनगृहाद्यनुवृत्योः श्यामत्व- मैत्रतनयस्वयोरिव प्रयोज्य - प्रयोजकभावः । तथा हि- श्यामो देवदत्तो मैत्रतनयत्वात् ; न चात्र श्यामत्वे मैत्रतनयत्वं प्रयोजकम्, किं तु शाकाद्याहार परिणतिलक्षण उपाधिः । एवं न यति चैत्यान्तर्वासप्रयुक्ता तदनुवृत्तिस्तदन्तर्वसद्भिरपि यतिभिः सातशीलतया तच्छीर्णजीर्णोद्धारादिचिन्तामकुर्वाणैस्तदनुवृत्तेरनुपपत्तेः; किं तु तच्चिन्ताप्रयुक्ता तदनुवृत्तिः । तां च श्राद्धैरेव कुर्वद्भिस्तदनुवृत्तिः कथं न स्यात् ? । न चोक्तन्यायेन श्राद्धानां दुर्गतानां श्रीमतां चेदानीं तच्चिन्ताकरणासंभव इति वाच्यम् । दुःषमादोषात् केषांचित् तथात्वेऽप्यन्येषां महात्मनां शुद्धश्रद्धाबन्धुराणां तत्संभवात् । तथा हि - दृश्यन्त एवं संप्रत्यपि केचन पुण्यभाजः श्रावकाः खकुटुम्बभाराटोपं [स] क्षमतनयेषु निक्षिप्य जिनगृहादिचिन्तामेव सततं विदधानाः । अतस्तैरेवानुवृत्तिहेतुतच्चिन्तासिद्धेः किमिदानींतना भवादृशा अपि सूरयश्चैत्यापदेशादनेकानारम्भानारभमाणा मुधैव क्लिश्यन्त इति । यदि 'जो जेणे' त्यादिना तीर्थानु च्छित्तिहेतोरपवादासेवनेन चैत्यवासस्थापनम्, तदप्यविदित सिद्धान्ताभिप्रायतां भवतः प्रकटयति । अस्यान्यार्थत्वात् । अत्र हि यः कश्चिद् यत्यादिर्येन ज्ञानादिना गुणेनाधिको येन च विना यत्संघादिकार्य महत्तमं न सिद्ध्यति, तेन तत्र स्वगुणवीर्यस्फोरणं विधेयमित्ययमर्थः । तथा हि - एतदुत्तरार्द्धमेवं स्थितं 'सो तेण तम्मि कजे सवत्थामं न हावे' इति । अतो नैतस्मादपि भवदभिप्रेतसिद्धिः । §१२ ) एवं च समस्तपरोपन्यस्तोपपत्तिनिराकरणाद् यतीनां जिनभवननिवासनिषेधसिद्धौ स्वपक्षे साधनमभिधीयते । जिनगृहवासो मुनीनामनुचितः, जायमानदेव खोपभोगादिमत्त्वात् । प्रतिमापुरतो क० प० 3 Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनेश्वर सूरिचरितवर्णन || [ क० परिशिष्ट भक्तवितीर्णबलिग्रहणवत् । न चायमसिद्धो हेतुः । तत्र संवसतां देवद्रव्योपभोगस्य शयनासनभोजनादिकरणेनानेकजन्मदारुण विपाकस्यावश्यंभावित्वात् । नापि विरुद्धः, हेतोर्मुनियोग्यताया व्याप्यत्वे हि स स्यात्, न चैवमस्ति । 'देवस्स परीभोगो अनंतजम्मेसु दारुणविवागो । जं देवभोगभूमिसु बुड्ढी न हु वडह चरिते ॥' इति सिद्धान्तेन देवभूमिभुञ्जानस्य यतेश्चारित्राभावेन विपाकदारुणत्वस्य प्रतिपादितत्वात् । नापि सत्प्रतिपक्षः । आगमोक्तत्वादिप्रतिबलानुमानस्य प्रागेव निरस्तत्वात् । नापि बाधितविषयः । प्रत्यक्षादिभिरनपहतविषयत्वात् । न च प्रत्यक्षेणैव संप्रति जिनगृहे वासदर्शने तद्वासस्य धर्मिणो मुन्ययोग्यतायाः साध्यधर्मस्य हेतुविषयस्य बाधितत्वेन विषयापहारात् कथं न हेतुर्बाधित विषय इति वाच्यम् । तेषां मुन्याभासत्वेन तत्र तद्वासदर्शनेनापि न तद्वासस्य मुन्ययोगताया बाधितत्वमिति हेतोविषयापहाराभावात् न बाधितविषयत्वमिति । ततश्चैत्यं मुनीनामुपभोगयोग्यम्, आधाकर्मादिदोषरहितत्वात् - इति भावत्को हेतुरुक्तन्यायेन मुनीनां चैत्योपभोगयोग्यताया देवद्रव्योपभोगादिदोषैरागमे बाधित - त्वात् कालात्ययापदिष्टः । एवं च सति भगवद्गुणगायन पण्यस्त्रीनर्तन- शङ्खपटह मेरी मृदङ्गाद्यातोद्यवादनकुलविचिकिलमालतीप्रमुखामोदितसकलजिनभवनमालापूजा विच्छित्तिविरचनादिभक्त्यर्हद्भवने देवद्रव्यो १८ पभोगात् । यदीच्छेनरकं गन्तुं सपुत्रपशुबान्धवः । देवेष्वधिकृतिं कुर्याद् गोषु च ब्राह्मणेषु च ॥ तथा - नरकाय मतिस्ते चेत् पौरोहित्यं समाचर । वर्ष यावत् किमन्येन माठपत्यं दिनत्रयम् ॥ इत्यादिप्रकारेण लोकनिन्दितात् माठपत्यात् दीर्घसंसारकार्याशातनातश्च कम्पमानाः साधवो जिनमतनिष्णाताः कथंचिन्न संवसन्ति । किं तु - "ताहे सामी वासावासे उवागए तं चैव दूइजंतगगामं एह । तत्थेगम्मि उडप वासावासं ठिओ ।' - 'ताहे सामी रायगिहं गओ तत्थ वाहिरियाए तंतुवायग्गहसालाप एगदिसि अहापडिरूव अणुणवत्ता चिट्ठा ।' तथा - तथा - 'अन्नया आयरिया मज्झन्हे साहुसु भिक्खं निग्गएसु सन्नाभूमिं गया वइरसामी विं पंडिस्सयवालो त्ति ।' इत्यादि आवश्यक 5- चूर्ण्यादिग्रन्थेषु बहुशो दर्शनात्; साक्षादेव तीर्थकृद्गुणधरनिषेवितायाम् ; 'संविग्गसणिभद्दग सुत्ते नीयाइ मुत्तहाछंदे । वच्चंतस्स पसु ( ? ) वसहीपमग्गणा होइ ।' इत्यादिना सप्रपञ्चं जिनादिभिरनेकधा प्रतिपादितायाम् ; तथा - 'धन्या अमी महात्मानो निःसंगा मुनिपुंगवाः । अपि क्वापि स्वकं नास्ति येषां तृणकुटीरकम् ॥' इत्यादिवचनसंदर्भलोकप्रशस्यधन कनकतनयवनिताखजनपरिजनत्यागरूप परिग्रहतामुख्यास्पदभूतायाम् ; तथा - सिञ्जायरु त्ति भन्नइ आलयसामि त्ति ।' तथा - 'सिञ्जायरो पहू वा पहुसंदिट्ठो न होइ कायवो ।' तथा - मुत्तूण गेहं तु सपुत्तदागे वाणिजमाईहि कारणेहिं । सुर्य व......... art दे सिञ्जायसे तत्थ स एव होइ ॥ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणधर सार्द्धशतकप्रकरणान्तर्गत तथा - जो देइ उवस्सयं मुणिवराण तवनियमबंभजुत्ताण | ते दिना वत्थन्नपाणसयणासणविगप्पा || क० परिशिष्ट ] इत्यादि- बहुधा सिद्धान्ताक्षरदर्शन संजाततात्त्विकावबोधबुधजनबहुमतायां वसतावेव सत्याभिधेयानगारनामधेयाः साधवोऽवस्थानमाबनते, न त्वत्यन्तापवादेऽपि जिनसद्मनीति स्थितम् । इत्थमुपन्यासप्रबन्धेनोत्तरीकृतशून्य दिक्चक्रतारतरलावलोकनसूराचार्यं विधाय, ऊर्ध्वं कृतभुजदण्डेनोक्तं भगवता कदध्वध्वान्तध्वंसनभास्करेण श्रीजिनेश्वरसूरिणा । यथा - एवं सिद्धान्तवाक्यैर्बहुविधघटनाहेतुष्टान्तयुक्तरुक्तैरस्माभिरेतैरवितथसुपथोद्भासनोष्णांशुकल्पैः । कुग्राहग्रस्तचेताः परगृहवसतिं द्वेष्टि योऽसौ निकृष्टो दुर्भाषी बद्धवैरः कथमपि न सतां स्यान्मतो नष्टकर्णः ॥ ६१३ ) इति तार्किकसभासच्च क्रमानम्य, राजादिलोकप्रत्यायनार्थं भूयोऽप्यभिदधे श्रीजिनेश्वरसूरिणा 'महाराज ! युष्माकं लोके किं पूर्वपुरुषदर्शिता नीति: प्रवर्तते, उताधुनिक पुरुषदर्शिता नूतना ?" राज्ञोक्तम् -'अस्मद्देशे समस्तेऽपि पूर्वजवणराजनीतिः प्रवर्तते नान्या ।' श्रीजिनेश्वरसूरिणोक्तम् - 'महाराज ! अस्माकमपि मते गणधरैश्चतुर्दशपूर्वधरैश्व यो मार्गों दर्शितः स एव प्रमाणीक्रियते, नान्यः । राज्ञोक्तम् - " इत्थमेवैतत् पूर्वपुरुषव्यवस्थापित एव पन्थाः सर्वत्र प्रमाणपदवीमध्यास्ते ।' जिनेश्वरसूरिणोक्तम्'"महाराज ! वयं दूरदेशादागताः, पूर्वपुरुषविरचितखसिद्धान्तपुस्तकानि न कानिचिदानीतानि । तदेतेषां मठेभ्यो महाराज ! यूयमानाययत पूर्वपुरुष विरचितसिद्धान्त पुस्तकगंडलकम्, येन युष्माकं प्रत्यक्षं सन्मार्ग - निश्वयाक्षराणि दर्शयामः । ततो राज्ञोक्तम्- 'अहो ! युक्तमेते वदन्ति भो भोः श्वेताम्बर सूरयः ! खकीयं श्वेताम्बरमेकं प्रेषयत पुस्तकदर्शनार्थं येन मदीयपुरुषा आनयन्ति ।' १९ I तत एतेषामेव पक्षस्तेष्वपि भविष्यतीति निश्चिन्वन्तः, श्रीजिनेश्वरसूरिव ग्भल्लिशल्यितान्तर्हृदया इवास्तनिशितवचनशस्त्रास्तूष्णींभूय स्थिताः सर्वेऽप्याचार्याः । राजपुरुषैस्तु गत्वा यत् प्रथमत एव हस्ते चरितं तदेवानीतं शीघ्रं पुस्तकगंडलकम् । आनीतमात्रमेव छोटितम् । तत्र श्रीदेवगुरुप्रसादाद् दशवैकालिकं चतुर्दशपूर्वधरविरचितं निर्गतम् । तत्र च प्रथममेवायं निर्जगाम श्लोको यथा - - 'अन पगडं लेणं भएज सयणासणं । उच्चारभूमिसंपन्नं इत्थीपसुविवज्जियं ॥' श्रीजिनेश्वरसूरिणोक्तम् -'एवंविधे परगृहे वसन्ति साधवो न देवगृहे ।' श्रीदुर्लभराजचितेऽतीव तल्लमम्, भणितं च - - 'अहो ! यथा वदन्त्येते तथैवैतत् । सर्वैरप्यधिकारिभिर्ज्ञातं यदुत निरुचरीभूताः सर्वथाऽस्मद्भुवः । ततः सर्वेऽधिकारिणो वदन्ति श्रीकरणिकप्रभृतयः प्रत्येकम् - देव ! एते अस्माकं गुरवः, एते अस्माकं गुरवः - इति । येन राजाऽस्मत्कारणेनाऽस्मद्गुरूनपि बहु मन्यते । राजा च न्यायवादी यावन्न किंचिज्जल्पति । 1 १४ ) अत्र प्रस्तावे भणितं विचक्षणशिरोमणिना श्रीजिनेश्वरसूरिणा - 'महाराज ! कश्चिगुरुःश्रीकरणाधिकारिणः, कश्चिन्मांडपिकाधिकारिणः, कश्चिन्मन्त्रिणः, कश्चिच्छ्रेष्ठिनः समभूत् । महाराज ! या नष्टिः (धिष्ठि, प्र०) सा कस्य सत्का भवति ?' राज्ञोक्तम्- 'मदीया' । जिनेश्वरसूरिणोक्तम् - 'तर्हि महाराज ! कोऽपि कस्यापि सम्बन्धी जातो वयं न कस्यापि । ततो राज्ञा आत्मसम्बन्धिनो गुरवः कृता । Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनेश्वरसूरिचरितवर्णन। [क. परिशिष्ट ततो महाराजेनोक्तम् – 'सर्वेषां गुरूणां सप्त सप्त गब्दिका रत्नपटीनिर्मिताः, किमित्यस्मद्रूणां नीचैरासने उपवेसनम् ! किमस्माकं गब्दिका न सन्ति ।' ततो जिनेश्वरसूरिणोक्तम् - 'महाराज ! साधूनां गब्दिकोपवेशनं न करपते ।' राजा-'किमिति ?' श्रीजिनेश्वरसूरिः- 'महाराज! शृणु भवति नियतमत्रासंयमः स्वाद्विभूया नृपतिककुद ! एतल्लोकहासश्च भिक्षोः । . स्फुटतर इह सङ्गः सातशीलत्वमुचैरिति न खलु मुमुक्षोः सङ्गतं गन्दिकादि ॥ इति वृत्तार्थो व्याख्यातः । राज्ञोक्तम् – 'कुत्र यूयं निवसत !' सूरिणोक्तम् – 'महाराज! विरोधिरुद्धवात् कथं स्थानम् ?' राज्ञोक्तम् - 'अहो अमात्य! अस्ति करडिहट्टिकामध्ये बृहत्तरमपुत्रगृहम् , तद्दापयितव्यमेषाम् ।' तत्क्षणादेव लब्धम् । भूयोऽपि पृच्छति महाराजः- 'भोजनं केन विधिना भवताम् ?' अत्रान्तरे पुरोहितः - 'देव किमेषां महात्मनां वयं ब्रूमहे । 'लभ्यते लभ्यते साधु साधु वै यन्न लभ्यते । अलब्धे तपसो वृद्धिलेब्धे देहस्य धारणम् ॥ । अतः कदाचिदोदरपरिपूर्तिः कदाचिदुपवसनमेतेषाम् । राजा सानन्दं सविषादं च- 'यूयं कति साधवः स्थ? ।' पुरोहितः- 'देव ! सर्वेऽप्यमी अष्टादश ।' राजा- 'एकहस्तिपिण्डेन सर्वेऽपि तृप्ता भविष्यन्ति ।' ततो भणितं जिनेश्वरसूरिणा- 'महाराज ! राजपिण्डो न कल्पते मुनीनामिति पूर्वमेव सिद्धान्तपठनपूर्वकं प्रतिपादितं युष्माकं पुरतः। ततोऽहो! निःस्पृहत्वममीषां मुनीनामित्युत्पन्ना प्रीतिः । ततो तेन राज्ञा प्रत्यपादि- 'तर्हि मदीयमानुषेऽग्रतः स्थिते सुलभा भिक्षा भविष्यति । } किं बहुना ? - इत्थं वादं कृत्वा विपक्षान् निर्जित्य, राजामात्यश्रेष्ठिसार्थवाहप्रभृतिपुरप्रधानपुरुषैः सह भट्टघट्टेषु वसतिमार्गप्रकाशनयशःपताकायमानकाव्यबन्धान् दुर्जनजनकर्णशूलान् साटोपं पठत्सु सत्सु, प्रविष्टा वसतौ भगवन्तः श्रीजिनेश्वरसूरयः । एवं गूर्जरत्रादेशे श्रीजिनेश्वरसूरिणा प्रथमं चक्रे चक्रमूर्द्धसु पादमारोप्य वसतिस्थापनेति । १५) द्वितीयदिने विपक्षरचिन्ति- जज्ञे तावन्निरर्थकमुपायद्वितयम् । इदानीमन्य एवैतन्निष्काशनोपाय! कश्चिन्मयते । पट्टराज्ञीप्रियोऽयं नृपः, यत् सा भणति तत् करोति, तवारेणैते निष्काश्यते इति खाभिप्रा. यस्तैः स्वकीयाधिकारिश्रावकेभ्यो निवेदितः । ततस्ते आम्रकदलीफलद्राक्षादिफलभाजनानि प्रधानवस्त्राण्याभरणानि च प्राभृतं गृहीत्वा गता राज्ञीसमीपे । तस्या अग्रेऽहत्प्रतिमाया इव पुरो बलि विरचनं चके । राज्ञी तुष्टा तत्प्रयोजनविधानाभिमुखी बभूव । अत्रान्तरे राज्ञः किश्चिद् राज्ञीसविधे प्रयोजनमुपस्थितम् । ततो ढिल्लिकादेशसम्बन्धी पुरुष आदेशकारी राज्ञा तत्र प्रेषितो यदुतेदं प्रयोजनं राश्यै निवेदय । 'देव! इदानी निवेदयामी'त्युक्त्वा शीघ्रं गतः । राजप्रयोजनं निवेदितं राश्यै । प्रभूतानधिकारिणो नानाढौकनिकाचावलोक्य तेन चिन्तितम् - ये मम देशादागता आचार्यास्तेषां निःसारणोपाय एष संभाव्यते । पर मयापि स्वदेशागताचार्याणां पक्षस्य पोषकं राज्ञः पुरो भणनीयम् । गतस्तत्र । 'प्रयोजनं निवेदितं भवताम् । पर देव हरकौतुकं तत्रगतेन दृष्टम् । राजा-'कीदृशं भद्र !' 'देव ! राज्ञी जिनवरबिम्बाकृतिर्जाता। यथा अहंदरे बलिविरचनं क्रियते एवं राश्या अग्रे कैश्चित् कृतम् ।' राज्ञा चिन्तितम् - ये मया न्यायवादिनो गुरुत्वेनाजीचक्रिरे तेषां पृष्ठिमद्यापि पापा न मुञ्चन्ति । ततो राज्ञा भणितः स एव पुरुषः, यथा- 'शीघं रावीपार्थे गत्वा भण, यद देव एवं भाणयति- यत् तवाने दत्तं कैश्चित् तन्मध्यादेकमपि पूगीफलं यदि गहीतं Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क० परिशिष्ट ] गणधर सार्द्धशतकप्रकरणान्तर्गत २१ तदाऽऽत्मनः स्थानं चिन्तनीयम् ।' ततस्तेन तथोक्ते भयभीतया भणितं राज्ञ्या- 'भो ! यद् येनानीतं तत्तेन स्वगृहे नेतव्यम् । मम नास्ति प्रयोजनं पूगीफलमात्रेणापि । एवमेषोऽप्युपायो विफलता प्राप्तः । १६ ) ततश्चिन्तितस्तैश्चतुर्थ उपायो यथा - यदि राजा देशान्तरागतमुनीन् बहुमंस्यते तदा सर्वाणि देवसदनानि शून्यानि मुक्त्वा देशान्तरेषु वजिष्याम इति प्रघोषश्चक्रे । केनापि राज्ञे निवेदितम् । राज्ञोक्तमतीव शोभनम्, गच्छतु यत्र रोचते । राज्ञा देवगृहपूजका वृत्या बटुका धारिताः । सर्वे देवाः पूजनीया युष्माभिरिति भणित्वा । परं देवगृहमन्तरेण बहिःस्थातुं न शक्यते । ततः कोऽपि केनापि व्याजेनागतः । किंबहुना सर्वेऽप्यागताः स्थिताश्च गृहेषु । 1 (१७) श्रीवर्द्धमानसूरिरपि सपरिवारः क्षितिपतिसम्मानेनास्खलितप्रचारः सर्वत्र देशे विहरति । कोऽपि किमपि कथयितुं न शक्नोति । ततः श्रीजिनेश्वरपण्डितः शुभलग्मे खपट्टे निवेशितः । द्वितीयोऽपि भ्राता बुद्धिसागर आचार्यः कृतः । तयोर्भगिनी कल्याणमतिनाम्नी महत्तरा कृता । पश्चात् जिनेश्वरसूरिभिर्विहारक्रमं कुर्वद्भिः जिनचन्द्र- अभय देव- धनेश्वर- हरिभद्र- प्रसन्नचन्द्र-धर्मदेवसहदेव - सुमतिप्रभृतयो बहवः शिष्याः प्रचक्रिरे । ततो वर्द्धमानसूरयः सिद्धान्तविधिना समाधिना देवलोक श्रियं प्राप्ताः । (१८) पश्चात् श्रीजिनेश्वरसूरिभिः श्रीजिनचन्द्राभयदेवौ गुणपात्रमेताविति ज्ञात्वा सूरिपदे निवेशितौ । क्रमेण युगप्रधानौ जातौ । अन्यौ च द्वौ सूरी धनेश्वरो जिनभद्रनामा, द्वितीयश्च हरिभद्राचार्यः । तथा धर्मदेव - सुमति - विमलनामानस्त्रय उपाध्यायाः कृताः । धर्मदेवोपाध्याय - सहदेवगणी द्वावपि भ्रातरौ । धर्मदेवोपाध्यायेन हरिसिंह - सर्वदेवगणी भ्रातरौ सोमचन्द्रपण्डितश्च शिष्या विहिताः । सहदेव गणिना अशोकचन्द्रः शिष्यः कृतः । सचातीय वल्लभ आसीत् । स च श्रीजिन चन्द्रसूरिणा विशेषेण पाठयित्वा आचार्यपदे निवेशितः । तेन च खादे हरिसिंहाचार्यो विहितः । अन्यौ द्वौ सूरी प्रसन्नचन्द्र - देवभद्राख्यौ । देवभद्रः सुमत्युपाध्यायशिष्यः । प्रसन्नचन्द्राचार्य प्रभृतयश्चत्वारोऽभयदेव - सूरिणा पठितास्तर्कादिशास्त्राणि । अत एवोक्तं श्रीचित्रकूटी प्रशस्तौ श्रीजिनवल्लभसूरिभिः, यथा - सतर्कन्यायच चर्चित चतुरगिरः श्रीप्रसन्नेन्दुसरिः, सूरिः श्रीवर्द्धमानो यतिपतिहरिभद्रो मुनीड् देवभद्रः । इत्याद्याः सर्वविद्यार्णवकलशभुवः संचरिष्णूरुकीर्ति - स्तम्भायन्तेऽधुनापि श्रुतचरणरमाराजिनो यस्य शिष्याः ॥ (१९) श्रीजिनेश्वरसूरय आशापट्टयां विहृताः । तत्र च व्याख्याने विचक्षणा उपविशन्ति । ततो विदग्धमनः कुमुदचन्द्रिकासहोदरी संविभवैराग्यवर्द्धनी 'लीलावती' अभिधाना कथा विदधे श्रीजिनेश्वरसूरिभिः । तथा डिंडियाणकग्रामप्राप्तैः पूज्यैर्व्याख्यानाय चेत्यवास्याचार्याणां पार्श्वाद् याचितं पुस्तकम् । तैः कलुषितहृदयैर्न दत्तम् ततः पश्चिमप्रहरद्वये विरच्यते प्रभाते व्याख्यायते । इत्थं च तत्रैव 'कथानककोशः ' चतुर्मास्यां कृतः । 1 ९२०) तथा मरुदेवानाम्नी गणिन्यभूत् । तया चानशनं गृहीतम्, चत्वारिंशद्दिनानि स्थिता, श्रीजिनेश्वरसूरिभिः समाधानमुत्पादितं तस्याः । भणिता च यत्रोत्पत्स्यते तत्स्थानं निवेदनीयम् । तयापि Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ श्री जिनेश्वरसूरिचरितवर्णन । [ क० परिशिष्ठ 'एवं भगवन् ! विधास्ये' इति प्रतिपन्नम् । पञ्चपरमेष्ठिनः स्मरन्ती सा स्वर्गं गता । जातो देवो महर्द्धिकः । एवं च तावदितश्च श्राद्ध एको युगप्रधाननिश्चयाय श्रीउज्जयन्तगिरी गत्वा, 'साधिष्ठायकं सिद्धिक्षेत्रमेतद्, अतोऽम्बिकादिदेवताविशेषो यदि मम युगप्रवानं प्रतिपादयिष्यति ततोऽहं भोक्ष्ये नान्यथे 'ति सत्त्वमालम्व्यावस्थितः । उपवासान् कर्तुमारब्धः । एतस्मिन्नवसरे महाविदेहे श्रीतीर्थङ्करवन्दनार्थं गतस्य ब्रह्मशान्तेस्तेनार्यि काजीवदेवेन संदेशको दत्तः । यथा त्वया श्रीजिनेश्वरसूरीणाम इदं निवेदनीयम् । तथा हि 'मरुदेवीनाम अजा, गणिणी जा आसि तुम्ह गच्छग्मि । समि गया पढमे, जाओ देवो महिडिओ || १ कलयम्मि विमाणे दुसागराऊ सुरो सम्प्पन्नो । समसस्स जिणेसर रिस्स इमं कहिजासि ॥ २ टकउरे जिणवंदणनिमित्तमेवागरण संदिट्ठे | चरणम्मि उज्जमो मे ! कायव्वो किं च सेसेहिं ॥ ३ तेनापि च ब्रह्मशान्तिना स्वयं गत्वाऽसौ संदेशकः सूरिपादानां पुरो न प्रकाशितः । किं तर्हि युगप्रधान - निश्चयनिमित्तप्रारब्धोपवासश्रावक उत्थापितः । ततस्तस्याञ्चले लिखितान्यक्षराणि यथा - 'म सटसटच' भणितश्च गच्छ पत्तने यस्याचार्यस्य हस्तेन प्रक्षालितानि यास्यन्त्येतान्यक्षराणि स एवेदानतनकाले भारते वर्षे युगप्रधानः । ततस्तेन श्रीनेमिजिनं वन्दित्वा कृतपारणकेन पत्तनमागतेन सर्वासु वसतिषु गत्वा दर्शितान्यक्षराणि, परं न केनापि बुद्धानि । यदा तु श्रीजिनेश्वरसूरिवसतौ गत्वा दर्शितान्यक्षराणि तदा वाचयित्वा गाथात्रयमेतदिति समुत्पन्नप्रतिभैश्चेतसि पर्यालोच्य श्रीजिनेश्वरसूरिभिस्तान्यक्षराणि प्रक्षालितानि । ततस्तेन श्रात्रकेण चिन्तितम् - निश्चितं युगप्रधान एष इति । विशेषतो गुरुत्वेन चाङ्गकृत इति । इत्येवं श्रीमहावीरतीर्थङ्करदर्शितधर्मप्रभावनां कृत्वा श्रीजिनेश्वरसूरयः देवलोकं प्राप्ता इति ॥ (२१) पश्चाज्जिन चन्द्रसूरिवर आसीद् यस्याष्टादशनाममालाः सूत्रतोऽर्थतश्च मनस्यासन् । सर्वशास्त्रविदा नाष्टादश (?) सहस्रप्रमाणा 'संवेगरंगशाला' मोक्षप्रासादपदवीजभूता भव्यजन्तूनां कृता । येन जाबालिपुरे विहृतेन श्रावकाणामग्रे व्याख्यानं 'चीवंदणमावस्ये' त्या दिगाथायाः कुर्वता ये सिद्धान्तसंवादाः कथितास्ते सर्वे सुशिष्येण लिखिताः । शतत्रयप्रमाणो दिनचर्याग्रन्थः श्राद्धानामुपकारी जातः । सोsपि श्रीवीरधर्मं याथातथ्येन प्रकाश्य दिवं गतः ॥ इति सुमतिगणिकृद्गणधर सार्द्धशतकवृहद्वृत्तिगतं श्रीजिनेश्वरसूरिचरित्रवर्णनं समाप्तम् । Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्ञातकर्तृक-कतिचित्-खरतरगच्छ पट्टावलिगताः श्रीजिनेश्वरसूरिविषयकाः संक्षिप्तोल्लेखाः। [१] उद्योतनमरि पट्टधर ] श्रीवर्द्धमानसूरिभिः श्रीविमलदंडनायकः प्रतिबोधितः । तदभ्यर्थनया षण्मासीं यावदाचाम्लानि कृत्वा षण्मासान्ते ध्यानाकृष्टः धरणेन्द्रः समागतः । हस्तं योजयित्वा पृष्टवान् - भगवन् ! किमर्थमाकृष्टः ? भगवता उक्तम् – पातालात् श्रीजिनमूर्ति प्रकटीकुरु, यथान पर्वते प्रासादं कारयामः । ततो धरणेन्द्रेण पातालात् श्रीयुगादिमूर्तिर्वज्रमयी प्रकटीचक्रे । तदा च गुरुणा स्तुता पन्दिता । ततः धरणेन्द्रात् श्रीसूरिमन्त्ररहस्यानि पृष्टानि । तेन सर्वाणि कथितानि । ततः श्रीविमलदंडनायकेन तत्रस्थान मिथ्यादृष्टीन् द्विजानाकार्य मूर्तिर्दर्शिता । उक्तं च-भोः ! पश्यत, अत्र श्रीजिनमूर्तिश्चिरंतना प्रकटीजाता । भवद्भिरुक्तमभूत् यत् श्वेताम्बरतीर्थ नाभूत् । तदलीकं जातम् । अथ प्रासादकरणे निषेधो न कार्यः । ततो विमलदंडनायकेन प्रचुरद्रव्यं दत्वा फकारपंचकेन भूमि पूरयित्वा प्रासादः कारितः। श्रीजिनशासने महती प्रभावना तीर्थोन्नतिश्चक्रे । श्रीपत्तनवास्तव्यौ जिनेश्वर-बुद्धिसागरौ ब्राह्मणौ । महाविद्वांसौ । मोक्षार्थ सोमनाथवन्दनाय चलितौ । सोमनाथस्तयोरुपरि संतुष्टः । सन्मुखं समागत्य कथितम् - किमर्थमत्र समागतौ ? ताभ्यामुक्तम् - मोक्षाय । तेनोक्तम् -- मम सेवया मोक्षो न प्राप्यते । तर्हि मोक्षः कस्य पार्श्वे याच्यते ? तेनोक्तम् - श्रीवर्द्धमानसूरीणामादेशं कुर्वाथाम् , यथा मोक्षः प्राप्यते । ताभ्यामुक्तम् - ते कुत्र संति साम्प्रतम् ।। तेनादिष्टौ तत्र पत्तने संति । तौ तत्र समागतौ । गुरुभिः सम्यक्, प्रतिबोधितौ । क्रमेण जिनेश्वरस्य भट्टारकपदं जातम् । बुद्धिसागरस्य आचार्यपदं जातम् । पश्चात्वयं अनशनेन अर्बुदाचले दिवं गताः । श्रीजिनेश्वरसूरिभिः लीलावतीकथा अनेकार्था कृता, कथाकोशश्च । तथा मरुदेविगणिन्या अनशनं गृहीतम् । चत्वारिंशदिनानि स्थिता । श्रीजिनेश्वरसूरिणा समाधानमुत्पादितम् । भणितम् - यत्रोत्पत्स्यसे तत्स्थानं कथनीयम् । तया अंगीकृतम् - कथयिष्यामि । तदा ब्रह्मशान्तिः श्रीसीमंधरस्वामिवन्दनाथ महाविदेहे गतः । तस्याने मरुदेविदेवेन श्रीगुरूणां च म स ट स ट च इति संदेशो भणितः । मरुदेविनाम अजा गणिणी जा आसि तुम्ह गच्छमि । सग्गमि गया पढमे, देवो जाओ महडिओ ॥१ रकलयंमि विमाणे दुसागराऊ सुरो समुप्पन्नो । समणेसस्स जिणेसरसूरिस्स इमं कहिज्जासु ॥२ टकउरे जिणवंदणनिमित्तमेवागएण कहेजासु । चरणमि उजमो मे कायव्यो किं विसेसेण ॥३ संवत् १०२४ (!) वर्षे अणहिल्लपत्तने चैत्यवासिनो निर्जिताः । श्रीदुर्लभराजसमक्षं श्रीजिनेश्वर, सूरिभिः पूर्वं यदाशीर्वादो दत्तस्तच्चेत्थम् - श्रिये कृतनतानंदाः, विशेषवृषसंगताः। भवन्तु तव राजेन्द्र ! ब्रह्म-श्रीधर-शंकरराः ॥१ इति श्रीजिनेश्वरेण श्रीदुर्लभराज्ञः आसीर्वादो दत्तः । विशेषधर्मेण संगताः । द्वितीयपक्षे विः पक्षी राजहंसः, शेषः शेषराजः, वृषः वृषभस्तैस्संगताः । ब्रह्मज्ञानश्रीधारिणस्तीर्थ कराः । ब्रह्मा विष्णुमहेश्वरश्च । आशीर्वादानन्तरं वादः । पश्चात्ते निर्जित्य खरतरबिरुदः प्राप्तः । श्रीधनपालपितृप्रतिबोरकारकः । शोभनदीक्षादायकः । ततो द्वादशवर्षानन्तरं धनपालः प्रतिबोधितः । सम्यक्त्वधारी सुश्रावको जातः । Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनेश्वरसूरिचरितवर्णन । [क० परिशिष्ट तेह नह पाटि श्रीवर्धमानसूरि जिणे मालवार्थी रचुंजय यात्रार्थ जातां संघसु रात्रे रोहिणीशकटमध्ये आकाशे बृहस्पतिप्रवेश देखी गच्छवृद्धि थाती जाणी समीपस्थ अन्य साधु-अभावे बद्दाख्य निज शिष्यनइ वासाभावेन छगण चूर्णीय वासक्षेप करी सूरिपद दीधउ । ततो गच्छवृद्धिः । जिणे १३ पातिसाह छत्र हालक चन्द्रावती नगरी स्थापक विमलदण्डनायक कारित श्रीअर्बुदाचलोपरि श्रीविमलवसही प्रासादि ध्यानबलि बालीनाह क्षेत्रपाल अनइ बज्रगय श्रीआदीश्वरनी मूर्ति प्रकट करी थापी । वली जिणे ६ मासतांइ आंबिल करी धरणेन्द्र प्रकट करी सूरिमंत्र शुद्ध कीधउ । आबू उपरि स्वर्गि पहुता । तेहनइ पाटि श्रीजिनेश्वर पूरि हूया । ते किम ? श्रीवर्धमानसूरि सरसइ पाटणि सान करी आवता जिनेश्वर बुद्धिसागर भाई । ब्रह्मणना मस्तकमांहि रही माछली दिखाडी । दया चित्तइ प्रतिबोधी दीक्षा लहि निकल्या । क्रमइ क्रमइ बेइ साधु भाई गीतार्थ हूया । वर्धमानसूरिइ जिनेश्वरसूरि पाटि थाप्या । बुद्धिसागरनइ आचार्यपद दीधउ । कल्याणमति महत्तरा कीधी । श्री जनेश्वरसूरि अणहिल्लपाटणि पहुता । तिहां सोम पुर हितन्इ घरे रह्या । पुरोहितनइ साहाय्यइ करी संवत १०८० वरसि दुर्लभराज सभामांहि ८४ चैत्यवासी साथि वाद करतां राजइ पुस्तिका आणावि भण्डारमांहि श्रीदशवैकालिकसूत्र पुस्तिका ते माहि - "अन्नत्थं पगडं लेणं०" ए गाथायइ करी चैत्यवासी जीता । राजाई कह्यउं ए अति खर। ते भणि खरतर बिरुद लाधउं । मरुदेवी गणिन्या अनशनेन ४० दिनस्थितायां श्रीजिनेश्वरेण समाधानमुत्पादितम् । भणितं च खोत्पत्तिस्थानं वाच्यम् । ततः खगोत्पन्नया श्रीसीमंधरवंदनार्थ गतया श्रीब्रह्म शान्तिः प्रोक्तः । श्रीगुरूणामिदं वाच्यम् -- 'म स ट स ट च' इति । कोऽर्थः । “मरुदेवी नाम अजा." १ "टक्कलयंमि वियाणे०" २ "टक्कउरे जिणवंदणं०" ३ श्रीजिनेश्वरसूरिनइ पाटि संवेगरंगशालाप्रकरणना करणहार श्रीजिनचन्द्रसूरि हुआ। तेहनइ पाटि श्रीवर्धमानसूरि तेरह पातिसाह छत्रोद्दालक चन्द्रावती नगरीथापक विमल दण्डनायक कारित श्रीआबू ऊपरि श्रीविमलवसही प्रासादि ध्यानबलि वालीनाह क्षेत्रपाल अनइ हीरामय आदीसरनी मूरति प्रगटि करी थापी । वली जिणे छम्मास ताई आंबिल करी धरणेंद्र प्रकट करी सूरमंत्र खरो करायओ। ___ एकदा प्रस्तावि श्रीवर्धमानसूरिइ सरसइ पाटणि सनान करी आवतां जिनेश्वर अनइ बुद्धिसागर बे भाइ ब्राह्मण तेहना माथामांहि रही मांछडी दिखाडी दया दीषानी प्रतिबोधी दीखीया । तेहनि बहिनि कल्याणमति ते पीण दीखी । क्रमइ बेई साधु गीतार्थ थया । वर्धमानसूरइ श्रीजिनेश्वरसूरिनइ पाटि थाप्या । बुद्धिसागरनइ आचारिजपद दीधउ । कल्याणमति महत्तरा कीधी । श्रीजिनेश्वरिसूरि अणहिल पाटणि पहुंची तिहां सोमपुरोहितनइ घरे रह्या । पुरोहितनइ साहाज्यइं करी संवत दस सय असीयइ श्रीदुर्लभराज सभामांहि चोरासी चैत्यवासीसुं वाद करतां राजपुत्रीयइ आणी भण्डारमांहि थी दशवैकालिक पोथी ते मांहि 'अन्नत्थ पगडं लेणं' इत्या दि गाथायइ करी चैत्यवासी खोटा करी जीता। राजायइ काउ ए अति खरा । तिहा जिनेश्वः सूरइ खरतर बिरुद लाधउ । * * Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमदवर्द्धमानसूरिशिष्यश्रीजिनेश्वरसूरिसन्दब्धं कथा कोशप्रकरणम् । ॥ ॐ नमः सर्वज्ञाय ॥ नत्वा जिनं गुरुं भक्त्या वर्द्धमानं समासतः । कथाकोशस्य विवृतिं वक्ष्ये सूत्रानुसारतः ॥ १ ॥ इह चालीव दुर्लभं लब्ध्वा मानुषत्वमार्यदेशोत्पत्त्यादिकां च समासाद्य' समग्रसामग्रीं सुखलिप्सुभिः पुरुषार्थेषु यत्नो विधेयः । यत उक्तम् - धर्मार्थकाममोक्षाणां यस्यैकोऽपि न विद्यते । अजागलस्तनस्येव तस्य जन्म निरर्थकम् ॥ परमपुरुषार्थश्च मोक्ष एव । तस्यात्यन्तिकानाबाधसुखहेतुत्वात् । तस्य च सम्यक्त्वादीनि साधनानि । 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' - इति पूर्वसूरिवचनात् । अतस्तदुत्साहजनकं कथाकोशाख्यं 10 प्रकरणं चिकीर्षुराचार्यः शिष्टसमयपरिपालनाय विघ्नविनायकोपशान्तये च इष्टदेवतास्तवपूर्वमभिधेयप्रयोजनादिप्रतिपादकामिमामादावेव गाथामाह - नमिऊण तित्थनाहं तेलोक्कपियामहं महावीरं । वोच्छामि मोक्खकारणभूयाई कइ वि नायाई ॥ १ ॥ , अत्र गाथार्धेनेष्टदेवतास्तवम् उत्तरार्धेन च प्रयोजनादीन्याह - 'कइ वि नायाई' इत्यभिधेयपदम् | 15 'मोक्खकारणभूयाइँ' प्रयोजनपदम् । तदन्तर्गत एवाभिधेयाभिधानलक्षणः सम्बन्धोऽप्युक्त एवेति । पदघटना - - 'नत्वा'- - प्रणम्य, कम् ? - 'तीर्थनाथम् ' - चतुर्विधश्री श्रमणसङ्घाधिपम् । किंभूतम् ? – - ' त्रैलोक्यपितामहम्' – लोकत्रयस्य हितत्वात् पूज्यत्वाद् गुरुत्वाच्च पितामहम् । पातीति पिता, धर्म एव तज्जनकत्वाद्वा । कतम मित्याह - 'महावीरम् ' - चरमतीर्थकरम् । अत एव प्रस्तुततीर्थनाथम् । 'वक्ष्ये' - अभिधास्ये, 'मोक्षकारणभूतानि' - सम्यक्त्वाद्युत्साहजनकानि । 'कतिचित्' - स्तोकानि, 'ज्ञातानि' - उदाहरणानि दृष्टान्ता - 20 निति गाथासंक्षेपार्थः । - यथाप्रतिज्ञातमेवाह जिणपूयाए तहाविह भावविउत्ता पावए जीवो । सुरनरसिवसोक्खाइं सूयगमिहुणं इहं नायं ॥ २ ॥ 5 26 'जिनानाम् * - तीर्थकराणाम्, तह्निम्बानामपि पूजा तत्त्वतस्तेषामेव पूजा, जिनपूजा, तया; किंभूतया ? - ' तथाविध' भाववियुक्तयाऽपि ' - विशिष्ट बहुमानशून्ययाऽपि । अपेर्गम्यमानत्वात् । 1 B वासाद्य । 2 B मुक्ख । 3A विउत्ताय । 4 B पूजया जिनेन्द्राणां । 5 B नास्ति ' तथाविध' । 6 B नास्ति वाक्यमिदम् । Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनेश्वरसूरिकृत-कथाकोशप्रकरणे [२ गाथा 'प्रामोति'-लभते, 'जीव' - सत्त्वः, विषयप्राधान्यात् । 'सुरनरशिवसौख्यानि' -तदुत्तरं भावप्राप्तदेवलोकनृमोक्षशर्माणि । 'शुकमिथुनमिह ज्ञातम् । किं तच्छुकयुगलम् ? - अत्र कथानकम् । तचेदम् - -> १. शुकमिथुनककथानकम् । अस्थि इहेव भारहे वासे विंझगिरिपायमूले एगा महाटवी । तत्थ य एगत्थ पएसे एगो सिंबलि, पायवो भूमीपेरंतनिरूवणथमिव गयणयलमइगओ, उत्तरावहो व्व पढंतकीरसंघाओ चिट्ठइ । तत्थ य- 'मा सुहारोहवच्छसाहानिवेसियनीडा भिल्लाईणमभिभवणिज्जा भविस्सामो' -त्ति बुद्धीए एगेणं सुयजुयलेणं कयं तस्स सिहरे नीडं । अन्नया विरहिणीहिययवणदावानलो साहीणपिययमाणं पमोयसंजणगों पत्तो वसन्तो। तम्मि य मंजरिजंति पायवा । तओ छुहापीडिजमाणं तं सुयमिहुणयं सहयारमंजरीओ गहाय सनीडमाग च्छइ । ताओ य पुप्फफलभरक्ताओ न सकइ सनीडं पाविउं । इओ य तत्थेव अडवीपएसे वेयड्ड10 वासिविजाहरेहिं भगवओ तिलोयनाहस्स जुगादिदेवस्स मुत्तासेलमई पडिमा पइट्ठिया अहेसि । जओ' सावरि विजं जया देंति पडिच्छंति य तया तीसे पडिमाए महामहिमं काऊणं तीसे पुरओ देंति पडिच्छंति य । तओ सबरवेसधारिणो विज्जाहरा तं विजं साहेति । तं च सुयमिहुणयं विस्सामनिमित्तं तं पएसमागयं । ताओ मंजरीओ भगवओ सीसे मुंचइ । खणं विसमित्ता सनीडं गच्छइ । एवं वचंति वासरा । अण्णया य" विज्जाहरेहिं विरइयविसिट्टपूयं तं दद्दूण- 'पूयणिजो को वि एसो, ता अम्हे वि एवं पूएमो त्ति' - संजाय15 बुद्धिणो अन्नायजिणगुणतणओ विासेठ्ठतब्बहुमाणविरहिएण तेण सुयमिहुणेण पूयणत्थं ठवियाओ मंजरीओ भगवओ सीसे । तओ य विसयब्भासजोगेणं निबद्धं तहाणुरूवं देवाउयं । पालिय तिरियाउयं मरित्ता उववन्नं देवेसु मिहुणगं। मिहुणगभावेण पउत्तावहिणा नाओ पुवभवो सुरलोयागमणकारणं च । तओ आगम्म कया तीए पडिमाए महामहिमा" । पावियं सम्मत्तं । तओ तित्थगराणं कल्लाणगेसु नंदीसराइगमणेणं तहा तित्थयराणं समोसरणकरण-"पिच्छणयदंसण-धम्मसवण-पज्जुवासणाईहिं वोलिंति पायसो दिय. 2" हाई । तओ संपत्तं विसुद्धतरदसणं । देवाउयक्खएणं चुओ देवो पढमतरं । तहाविहभवियवयाए सागेए नयरे जियसत्तुणो रन्नो धारिणीए देवीए समाहूओ गब्भे पुत्तत्ताए ति । जाओ पुण्णेसु दियहेसु सुकुमालओ देवकुमारोवमो दारगो । कयं वद्धावणयं । तो निवत्ते सूइकम्मे, अइकंते वारसाहे, कयं सुरसुंदरो ति से नामं । पंचधाईपरियरिओ वडिउं पयत्तो" । देसूणअट्ठवरिसो उवणीओ लेहायरि यस्स । अहिजियाओ पडिपुण्णाओ कलाओ। जाओ "वारिजयजोग्गो । वरिजंति पहाणरायकण्णगाओ। 25 नेच्छइ परिणेउं । विसन्नो जणगो । इओ य सा मिहुणयदेवी पाडलिपुत्ते "अरिमद्दणरन्नो पउ. मावईए गन्भे सुरलोगाओं चुया, आहूया धूयत्ताए । जाया कालेणं अधरियसुरंगणारूवा । पइट्ठियं से नाम पडिरूवति। वड्डिया देहोवच्च(च)एणं । *गहियाओ इत्थीजणजोग्गाओ कलाओ। जाव जोवणस्था। सा य पुरिसद्देसिणी, नेच्छइ परिणे । तओ से पिउणो पुरोहिएण सिटुं- 'अप्रवृत्ते रजस्येनां कन्यां दद्यात् पिता सकृद्' - इत्यादि । विसन्नो अरिमद्दणो-हा ! नरए पाडिस्सई" एस त्ति । भणियं 20 मंतिणा चंदेण- 'देव ! मा विसायं करेह, कारेह सयंवरं'। भणियं सेसमंतीहिं- 'न एसो चकवट्टि-वासु 1B °पदंत। 2 B °संजणओ। 3 'य' नास्ति B| 4 B सकिंति। 5 A इय। 6A जुयाइ । 7 B जाओ। 8 B दिति। 9A भगवंतो। 10 'य' नास्ति B। 11 B हरेहि। 12 A कोइ । 13 'एयं' नास्ति A। 14 A उववन्न। 15 B 'महिमा' इत्येव। 16 B पिच पवत्तो। 18 A. वारेजय। 19 B निच्छइ। 20 B जणओ। 21 A अरिदमण। 22 B°लोयाओ। 28 A वट्टियदे। 24 A गाहिया। 25 A जाया। 26 नास्ति वाक्यमिदं BI 27A पाहिस्सति । Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या ] जिनपूजाविषयक-शुकमिथुनककथानकम् । ३ 1 - देव पडिवासुदेवाइ विरहिए काले कीरइ । अनायगे आओहणाइअसमंजस संभवाओ' । भणियं रन्ना - ' ता किं कीरउ ?' । भणियं सुमहणा - 'देव ! एईए रूवं चित्तफलए लिह | विय पेसेह पडिराईणं; रायकुमाराण य रूवं चित्तफलयलिहियमाणावेह । तत्तो नज्जिही भावो एईए, ताण य' । पडिस्सुयं रन्ना । पेसिया चित्तफलयहत्था पडिराईण पुरेसु' पुरिसा । गओ एगो सागेए । दंसियं चित्तफलयं जियसत्तुणो । तेण वि पेसिओ सो पुरिसो सुरसुंदर कुमारसमीवे । गओ सो तत्थ । पविट्ठो पडिहारनिवेइओ । दंसियं चित्तरूवं । जाओ अणुरागो' कुमारस्स । अवि य - निज्झाएइ कुमारो जं जं अंगं सिणिद्धदिट्ठीए । तत्तो दुबलगा इव पंकक्खुत्ता न उत्तरइ || तओ उच्छलिओ रोमंचो । मुत्ताहलभूसियंगो विव जाओ सेयबिंदु विच्छुरियंगावयवो । ससज्झसो विव किंचि अवत्तक्खरं भणतो पुणरुतं पलोइउं पउतो । तओ पन्हुट्ठो अप्पा, अवगयलज्जो भणिउमादत्तो - गोतक्खलणेण सुंदरि ! मा रुससु नत्थि एत्थ मह दोसो । वाया एत्थऽवरज्झइ न माणसं एत्थ पत्तियसु ॥ तह वि अवराहसं खमसु ममं तुज्झ पायपडिओ हं । निस्संसय मह जीवस्स सामिणी देवि तं एक्का' ॥ 1 salt विलवंतो निवेइओ परियणेण जणयाणं । तुट्ठो राया धारिणी य । सद्दाविओ फलहियावाहओ गोहो; भणिओ य - - 'अरे ! का एसा ?' । भणियमणेण - ' अरिमद्दणस्स रन्नो पउमावईए देवीए अत्तिया पडिरूवा नाम एसा दारिय' 'त्ति । भणियं रन्ना कुमारस्स - 'एयं वरेह ' । भणियं गोहेण 'देव ! सा पुरिससिणी पचजुखणा वि परिणेउं नेच्छइ' – इच्चाइ सिट्ठो पुववइयरो । 'ता देव ! कुमाररूवं चित्तफलयलिहियं पेसेह, जेण विन्नायतीयभावा' वारेज्जयं "कारेमो' त्ति । बहुमन्नियं रन्ना । पेसियं कुमाररूवफलयं । तं गहाय गओ गोहो नियसामिणो समीवे । दंसियं फलयं रन्नो । कहिओ वुतंतो । ओ सही हत्थे दाऊण पेसियं फलयं पडिरूवाए । गया सा तं गहाय । भणिय मणाए - 'पिच्छ पियसहि ! किंचि अच्छेरयं' ति । गहियं तीए फलयं । निरूविडं पयत्ता । जाव जायसज्झमाए अच्छि - 20 पिच्छिएहिं " निरूवियं कुमाररूवं सवंगेहिं । जाओ" आबद्धसेओ से विग्गहो । खलइ भारई । पहरिउमादत्तो विसमसरो । गहिया रणरणएणं । पम्हुट्टो अप्पा | करेइ पणयकुवियाई । निरूवेइ दिसाओ । उट्टि - यह झचि, नीससह उन्हं - उन्हाई दीहनीसासाई । भणियं वसंतियाए से सहीए " - " पियस हि ! किमेयं ?' ति । भणियं पडिरूवाए " - ' गोत्तक्खलणाए ममं परिभवइ अज्जउत्तो' । अवरोप्परं निरिक्खिय हसिऊण भणियं गोरीए - 'जो पियसहिं पवंचइ अलाहि एएण सुंदरि पिएण । वच्च अरे सुरसुंदर दइयाए घरं न कज्जं ते ' ॥ भणियं पडिरूवाए - 1 A पुरे। 2B अणुराओ । 3 नास्ति 'किंचि' B णस्स । 7 B दारिया एस ति । 8 A जोव्वणा वि । 12 A जाव | 13 A बिनहो । 14 A पणई° । BI 17 A चोयणाए । 18 A. संभरिओ । 10 'हाहा सामि ! न जुतं सहीण जं" चोयणाए मं मोत्तुं । जइ जासि निच्छयं तो मरामि तुह विरहसंतता' ॥ एत्यंतरे समागया से जणणी । संवरिओ" अप्पा । विलिया झति । भणियं जणणीए - 'पुत्ति ! न कया अज्ज चेइयाणं पूया ?, न वंदिया गुरुणो ?, आगच्छ, भोयणवेला अइक्कमइ; ता भुंजसु संपयं' ति । 3 4 B 0 मिह जीयस्स । 5 A एक । 6 A अरिदम9 B भावो । 10 B करेमो । 11 A °पेच्छिए हैं। 15 B सहियाए । 16 A रूवाए वृत्तं; 'गोत्तं' नास्ति 15 25 Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनेश्वरसूरिकृत-कथाकोशप्रकरणे [ २ गाथा समाहूयाओ वसंतियापमुहाओ सहीओ - 'आगच्छह, भुंजह" ति । भणियमणाहिं - 'अम्हे राइणो समीवं संपयं गमिस्सामो । जिमियाओ, न पुणो भोत्तत्रे' संपयमिच्छा अस्थि' ति । गयाओ रन्नो समीवं । निवेओ तो । तुट्ठो राया । पेसिया पहाणपुरिसा जियसत्तुराइणो – 'जहा सिरिमिव केसवो, गोरीमिव संभू, रइमिव मकरकेऊ, सयराहं गिन्हाउ सुरसुंदरकुमारो पडिरूवं, पुत्रकयकम्मपायवफलमणुहवउ विसयसुहमणाए सद्धि, एयस्स कारणे चेव पयावरणा निम्मिया एस ति । जओ अन्नरायकुमाराण नामपि न सोडमिट्ठमणाए, सुरसुंदर चित्तलि हियरुवदंसणेणं जाया मयरकेउणो सरगोयरं ति; ता अकालहीणं' पेसेह कुमारं ' - ति भणिऊण । गया ते सागेए । बहुमन्निया जियसत्तणा । पडिवन्नं aari | गणिओ पत्थाणदियहो । पयट्टो पहाणमंतिसामंतसहिओ सुरसुंदरकुमारो । कमेण पत्तो पाउलिपुत्तसमासन्नगामंतरे । तत्थावासियस्स गया पहाणपुरिसा निवेइउं कुमारागमणं । तुट्ठो अरिमद्दणो । 10 निरूविओ आवासो । संपट्टिओ सबलवाहणो राया अत्तोगईयाए । कुमारस्स दंसियमावासद्वाणं । पेसियं खाण- जव-घासाइयं करि तुरयाणं । समादत्ता कोडुंबियपुरिसा लक्खपागाइतेल्लहत्था कुमाराईणं संवाहणाए । संवाहिऊण उबट्टिया पहाणगंधसारेहिं' चुण्णेहिं । मज्जाविया कालाणुरूववारिणा । उवfterओ गंधकासाइयाओ । ताहिं विसोहियसरीराणमुवणीयं विलेवणं । समप्पियाई 'सुगंधिकुसुमाई | नियंसाविया पहाणखोमजुयलाई । उबविट्ठा वरासणेसु । समादत्तं पिच्छणयं । 1 यावसरे समागयाओ पडिरूवाए सहीओ । पडिहाराणुन्नायाओ 'य पविट्ठाओ । दिन्नाई आसणाई । सुहासणत्थाणं निरूवियं तत्तोहुत्तं कुमारेण । भणियं वसंतियाए - 'पडिवन्नंमि तुमंभी पहरइ मयरद्धओ कह" कुमर ! । पडिवन्नपालणे वि हु कह णु पमाओ महासत्त !' ॥ विहसिय भणियं सुबुद्धिणा कुमारामचेण - 'अद्दिस्समाणसत्तू पहरइ कुमरे " वि निद्दओ मयणो । पडिरूवानामक्खरसवणेणं चिंतणेणं च ॥ तो पहरंतो ठाही अवरोप्परमीलणंमि एयाण । तो वारिज्जयदियहं सिग्घयरं सुयणु ! चिंतेह' ॥ 15 20 ४ 13 दावियाई वत्थाईणि " सहीणं । पेसियाइं पहाणकुसुमाई पडिरूवाए । गयाओ तीए समीवं । समप्पि - याई कुसुमाई । गहियाइं तीए । चिंतियमणाए - 'पण्हमेयं, ता पेसेमि उत्तरं । जओ कुसुमागमेण पइणो संवासेण" कज्जं' ति । तओ पेसिया अणाए सेज्जा कुमारस्स । नायमणेण । एयावसरे समागया नाणावंजणसमाउला रसवई । भुत्ता जहा विहिं । एवं वच्चंति दियहाई । जाव समागयं वारिज्जयदिणं । 25 तओ कयकोउगमंगलो सेयवरगंधहत्थिखंधगओ सियायवत्तेणं धरिज्जंतेणं, उद्घुबमाणेहिं" सियचामरेहिं", पढतेणं भट्टघट्टेणं, गायमाणेहिं वरगायणमिहुणगेहिं", अहिणविज्जंतो वरनाडएहिं, दाविज्जंतो अंगुलि - सहस्सेहिं, पेच्छिज्जंतो अट्टालगगयाहिं वरनायरीहिं", पत्तो सुरसुंदर कुमारो " वारिज्जयमंडवदारं । कयाईं तत्थ सहीहिं सालियाजोग्गयाई" करणिजाई । पविट्ठो अन्तरे । दिट्ठा सियचंदण विलित्तंगी सियकुसुमसोहिया नियत्थसियदुगुल्ला देवयाए पुरओ पडिरूवा । अवि य 1 30 अद्धच्छिपिच्छिएहिं" पिच्छइ कुमरं जया उ पडिरूवा । अमयरसेण व सित्ता वेएइ अपुवरसमेसा ॥ B सयंवरायंति । 1 A हुंजह । 2 B भुत्तव्वे । 7 B सारचुणेहिं । 8 B सुगंध । 9 'य' नास्ति A 10 A वत्थाणि । 13 A कुसुमागमे । 14 A संवासे । 15 B जहाविहं 18 A वरपाणमिहुणेहिं । 19 B नाहिं | 20 A वारेज्जय° । 23 A कुमारं । । 3 4 B कारणा । 5 B हाणं । 6 A अरिदमणो त्ति । कह कुमार । 11 A कुमारे । 12 B 16 A 'माणीहिं | 21 A जोगाई | 17 A 'चामराहिं । 22 A पेच्छिएहिं । Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या ] जिनपूजाविषयक-शुकमिथुनककथानकम् । अमयासारासित्तो कुमरो वि य तीए दंसणाहिंतो । किंपि अणग्धेयरस' पत्तं मिहुणं करप्फंसें ॥ सिलोगाइदाणपुव्वयं निग्गओ माइहराओ । समागओ वेइयाए । समाढत्तं अग्निहोत्तं माहणेण । तओ जहाविहि दाणपुव्वयं परियंचिओ हुयासणो चत्तारिवेलाओ मिहुणएणं । तत्थ य आऊरिया संखा । पवाइयाई तुराई । पगीयाओ अविहव विलयाओ । पढियं माहणेहिं । तओ वित्तो वीवाहो । उवविहं मिहुणयं, सहीओ कुमारमित्ता य वेइयाए । नचंति वारविलासिणीओ। अरिमद्दणो वि पहाण- . मंडवासीणो सइए य साहस्सिए य दाणविसेसे पडिच्छइ । पसाएइ य तहारिहेहिंतो तहारिहाणं । निउत्ता कोडुंबियपुरिसा – 'सबाहिरब्भंतरं आसियसमज्जियं, ऊसियपडायं, वंदणमालोवसोहियघरदारं, विमुक्कचारागारं, उस्सुकं, उक्करं, अचाडभडप्पवेसं नगरं करेह कारावेह य । एयमाणत्तियं खिप्पमप्पिणह' । तेहिं वि 'तह' ति संपाडियं । पूइज्जति नगरदेवयाओ, दक्खिणिज्जंति माहणा, सकारिजंति गुरवो, समाणिज्जंति 'कुलसुवासिणीओ। कुमारो वि सालियाहिं परिहासं कुणइ । जाव खणमेकं पडिरूवावि य कुमरं 10 पिच्छइ अद्धच्छियाहिं । ताहे वाहराविओ कुमारो राइणा सह नियगपरिवारेण । नियंसाविओ सपरियणो पहाणवत्थाहरणाई । दंसियाओ से संपयाणीकयाओ करि-तुरय-संदणावलीओं । तओ भुत्ता सह राइणा सबे वि । वाहरिया पडिरूवा । समप्पियाओ अइसिणिद्धाओ अणेगदास-चेडीओ। दिन्नाओ भूरि वारुयाओ । समप्पिया दससाहस्सिएणं गोवएणं दस वया । उवणीयाइं पंचवन्नाइं अमाणसत्तिजुताई संखाइयाई रयणाई । निरूविया कोलघरिया पहाणामच्चा य । गओ कुमारो सपरियणो नियगावासं । 15 समागयाओ सहीओ तमुद्देसं सह पडिरूवाए । समागया जणणि-जणगा । भणिओ सुरसुंदरो- 'पुत्त ! पडिवालेसु कइ वि दियहाई जाव 'विओगानलदुक्खं जिणामो । एसावि मणयं खरहियया हवइ' ति ।। पडिस्सुयं कुमारेण । नियत्तो राया वि । धीरियाओ सहियाओ ठियाओ विउसविणोएणं कंचि कालं। जाव समागतो पदोसकालो । संपत्तो निउत्तपरियणो मंगलनिमित्तं । कयाई मंगल्लाई कुमारस्स । पडिरूवाए य आरत्तियाणंतरं समाढतं पिच्छणयं । भणियाओ सहीओ कुमारेण- 'जवणियंतरियाओ निय-10 सहीए समं खणंतरं चिट्ठह, जाव परियणोऽवसरनिमित्तमागच्छइ । नवरं न एत्थ मन्नू कायबो । "रायाणं । दारा ण सव्वजणपिच्छणिज्जा भवंति, ठिई एस' ति । पडिस्सुयं ताहिं । समागया लोया । सम्माणिऊण । सिग्घयरं पेसिया । निरूविया अंगरक्खा । ठिओ कुमारो जवणियभंतरे । ठिया विसिट्ठविणोएणं । भणियं वसंतियाए - 'कुमार ! विस्समसु, परिगलिया रयणी बहुगा' । निरूवियाओ ताणं सिज्जाओ विचित्तपडमंडवे । समाणचा पाहरिया । पेसियाओ सहीओ । तत्थ ठिओ सयणिज्जे पडिरूवाए सह 23 कुमारो । खणंतरं विसयसुहमुव जिय” विगयसज्झसं पसुत्तं मिहुणयं । जाव पाहाइयतूरखुम्मीसवरवारविलासिणीगीयरवेणं पढ़तभट्टघट्टनिग्योसेणं विबुद्धं मिहुणयं । उवणीयं मुहसोयं, पंचसोगंघियं तंबोलं च । उवविट्ठमासणे । उवणीयं घयभायणं । पाडिया दिट्ठी दोहि वि । समप्पियं तं पुरोहियस्स । महुभायण-दहिभायणाई पि । तेसु वि पाडिया दिट्ठी। ताई पि तहेव । उवणीयाई पहाणाइं अहयाइं नासानीसासवोज्झाइं चक्खुहराई वत्थाई । नियंसियाइं दोहिं पि । कयं चंदणचंदणयं । “आबद्धाइं आभरणाइं 30 कुसुमाइं च । समागयाओ सहीओ । पसाइयाइं वत्थगंधमल्लाइं तासिं । समाढत्ता पुरिसा- 'हत्थिरयणं वारुयाओ य पउणीकरेह' । तेहि वि 'तह' ति उवट्ठवियं सव्वं । समारूढो सह देवीए कुमारो हत्थिर । 2 B मिहणयकरकसा। 3 B माइहरयाओ। 4 B वाइयाई। 5A कुलसोवासिणी। 6A वाहरिओ। 7 A संदणालीओ; B दसणावलीओ। 8A दिणाई। 9 A. विओया। 10 B समागओ पओससमओ। 11A राइणं। 12 A तीहिं। 13 B सुहं भुंजिय। 14 A आविद्धाई। Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२ गाथ श्रीजिनेश्वरसूरिकृत-कथाकोशप्रकरणे यणे । विलद्धाओ वारुयाओ सहीणं । तओ सियायवत्तपिहियंबराभोगो' समुद्भुव्यमाणेहि सियचामरेहि' पयट्टो । नंदणवणाभिहाणं* उज्जाणं संपत्तो । पलोइडं पयत्तो । अवि य महमहइ चंपयलया वासेइ दियंतराणि कंकिल्ली । केयइपरिमलभरियं रमणीयं सव्वमुज्जाणं ॥ मालइगंधाइट्टा गंडयले करिवरस्स मोत्तूणं' । रुंटइ इओ तओ चिय भसलाली तत्थ उज्जाणे ॥ । सहयारमइवहंती नक्खत्तपहाओ कीर रिंछोली । उय पोमरायमरगयहि व्व सुसाहुपारणए । परपुट्ठकलरवो पइदिसासु दिसि दिसि बलायपंतीओ । पइदिसि सिहंडिकेका दिसि दिसि य सिलिंधपुप्फाई ॥ दिसि दिसि कुंदलयाओ दिसि दिसि वियसंतपाडलामोओ।दिसि दिसि पुप्फभरोणयतिलयलयाओ विरायंती॥ इय पिच्छंतो वच्चइ जाव य सुरसुंदरो तहिं कुमरो । ताव य पेच्छइ मुणिणो आयाते" महासत्ते ।। अवि य10 परिसुसियमंससोणियपरूढनहरोममलिणसव्वंगे । सूराभिमुहं उड़े वाहाहिं पयावयंते उ ॥ ते दह्रण उत्तिन्नो कुमारो" कुंजराओ सह पियाए, वंदिया विणएणं । जाव पायविहारेण थोवंतरं गच्छह ताव पेच्छइ - एगे उड्डजाणू-अहोसिरे" झाणकोट्ठोवगए धम्मसुक्काइं झायंते, एगे वायणं पडिच्छंते पुव्वगयस्स, एगे सज्झायंते अखलियवयणपद्धईए । ते वि वंदिया परमभत्तीए । जाव थेवंतरं गच्छइ ताव पेच्छइ - एगे वागरणं परूवेंते", एगे जोइसमहिजंते, अन्ने "अंगमहानिमित्तमणुसीलयंते। ते वि वंदिया। 15 कोऊहलखित्तमणो" जाव थेवंतरं गच्छइ ताव पिच्छइ - अणेयविणेयपरियरियं धम्मघोसाभिहाणं सूरि रत्तासोयतले पुढविसिलावट्टए निविढं धम्मं देसयंतं । तं दट्टण हरिसिओ कुमारो । तिपयाहिणीकाऊण वंदिय उवविट्ठो सुद्धधरणीए सपरियणो नाइदूरमणासन्ने कुमारो । भगवयावि आसीसप्पयाणेण समासासिय पत्थाविया देसणा । तओ संसयवुच्छेयणी वाणी समायन्निऊण भणियं कुमारेण - 'भयवं! मम असेसरायधूयाओ वरिजंतीओ वि चितुव्वेयकारिणीओ अहेसि । अधरियसुरंगणारूवाओ सयंवरमागयाओ 20 न वरियाओ । एईए पडिरूवाए पडिबिंबदसणेण वि मयणाउरो जाओ । एसावि पहाणा रायकु मारा नेच्छिया । मम पडिबिंबदसणमेत्तेण वि मयणसरगोयरं गय ति । ता किमेत्थ कारणं ति सोउमिच्छामि, जइ अणुवरोहो भयवंताणं' । भणियं भयवया- 'चिरपरूढाणुरागवियंभियमेयं । भणियं कुमारेण - 'कहं ?' ति । तओ साहिओ भयवया सूयगमिहुणवुत्तंतो । तओ ईहापोहं करेंताणं समुप्पन्नं जाई. सरणं । तओ गुरुवयणे संजायपच्चओ भणिउमाढत्तो-'अवितहमेयं, असंदिद्धमेयं, जं तुब्भे वयह । 25 अहो जिणसासणस्स माहप्पं । जं भावविहूणकिरियामित्तेण" वि ईइस कल्लाणपरंपरं पत्त म्हि । जायाई थिरयराइं जिणसासणे दोन्नि वि । भणियं च णेहिं - 'भयवं ! निम्विन्ना संसारवासाओ, ता सव्वदुक्ख. क्खयकारिणीए साहुकिरियाए अणुग्गहं करेह, जइ अत्थि जोग्गया' । भणियं सूरिणा- 'जुतमेयं नाय. भववुतंताणं । न य छज्जीवनिकायोवमद्दरूवं गिहत्थावत्थमणुमन्नंति साहुणो । किं तु चारित्तावारगं भोगहलं अस्थि । न विसिट्ठोवक्कमेण उवक्कमिउं तीरइ विणा उवभोगेण" । ता एरिसमत्थि, जं जाणह तं 1A विहियवराभोगो। 2 A °माणी हिं। 3A °चामराहिं। 4A नंदणाभिहाणे। 5A उजाणे। 6 इदं वाक्यं नोपलभ्यते BITA मुत्तण। 8A °वयंती। 9A पउम। 10 B पिच्छइ। 11 B आयाविंते। 12 नास्ति पदमिदम AI 13 इदं पदं नोपलभ्यते BI 14 A अहोसिरो। 15 B निरूविते। 16 A अटुंग। 17 B °माणसो। 18 A नास्ति 'ताव पिच्छइ । 19 A °वोच्छेणिं वाणिं। 2 A आसि। 21 B नास्ति पदमिदम। 2:2 B कुमारे। 23 Bनिच्छया इया। 24 A°मोत्तण। 25A छज्जीवकाओमद । 26 A उवकामि। 27 B विणाभोगेण । Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या जिनपूजाविषयक-शुकमिथुनककथानकम् । कुणह' ति । भणियं कुमारेण - 'भयवं ! किं गहियमुक्काए दंसणविडंबणसाराए' पव्वज्जाए । नवरं देह गिहिपाउग्गं धम्म' । दिन्नो भगवया, गहिओ णेहिं भावसारं । वंदिय समुट्ठिओ तत्तो । एवं पइदियह सूरिसमीवं गच्छन्तो गहियट्ठो 'पुच्छियट्ठो विनिच्छियट्ठो जाओ अट्ठिमिंजपेमाणुरागरत्तो । अयमेव निगंथे पावयणे मोक्खमग्गे अटे, सेसे अणढे-त्ति मण्णमाणो, अणइक्कमणिज्जो सदेवमणुयासुरस्स वि लोयस्स दढधम्मो जाओ सह पडिरूवाए सुरसुंदरो। ___ अन्नया आपुच्छिय अरिमद्दणं संपढिओ नियनगरं सुहवासरे। 'कइवयपयाणएहिं संपाविओ कालेणं । तओ सोहणतिहि-करण-लग्गेसु पवेसिओ महया विभूईए जियसत्तुणा सयमभिमुहनिजाणेण । सम्माणिओ तदुचियपडिवत्तीए । पडिया सासु-ससुराणं पाएसु पडिरूवा । सम्माणिया इच्छाइरित्तदाणेणं । कारिओ पासायवडिंसओ। समप्पिओ कुमारस्स । ठिओ तत्थ सह पडिरूवाए । तओ नाणाविहविणोएणं रमंताणं धम्मपालणेक्कचित्ताण य अइक्कंतो को' वि कालो । ___ अन्नया समागया बहुस्सुया बहुसीसपरिवारा विजयसेणसूरिणो । निवेइयं उज्जाणपालएणं । निग्गओ वंदणवडियाए राया, कुमारो वि सह पियाए । पत्थुया देसणा । विरत्ता पाणिणो । पडिबुद्धो राया जियसत्तू भणिउमाढत्तो- 'अवितहमेयं जं तुब्भे वयह । नस्थि संसारस्स सारत्तणं । जम्म दुक्खं जरा दुक्खं रोगा य मरणाणि य । अहो दुक्खो हु संसारो जत्थ कीसंति जन्तुणों ॥१॥ जाणामि भंते ! जीवेण जं कयं कम्मं सुहं वा जइ वा दुहं । कम्मुणा तेण संजुत्तो गच्छइ उ परं भवं ॥२॥ अस्से हत्थी मणुस्से य पुरं अंतेउरं तहा । सबमेयं परिचज जीवो गच्छइ एगओ ॥३॥ तओ तेणजिए दव्वे दारे य परिरक्खिए । कीलंतेऽन्ने नरा भंते हहतुट्ठमलंकिया ॥४॥ न कोई कस्सई भाया न माया न पिया तहा । तकरा व" विलुपंति भंते सव्वे वि नायओं ॥५॥ एगो मे सासओ अप्पा नाणदंसणसंजुओ । सेसा मे बाहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा ॥६॥2॥ जत्तो अहं समायाओ तत्तो किं चि न आगयं । इओ वि गच्छमाणेण नेयव्वं नेय किंचि वि ॥७॥ नरएसु महादुक्खं तिरिएसु अणेगसो । अणुभूयं मया भंते संसारंमि अणंतए ॥ ८॥ ता उव्विग्गं मणो मज्झ एयंमि भवचारए । अणुग्गहं तओ किच्चा नित्थारेह इओ ममं ॥ ९॥ तुम्मे माया पिया तुब्भे तुब्भे निय"बंधवा सुही। जिणधम्मो"इमो जेहिं दंसिओ सिवसाहगो॥१०॥ जाव रजेऽभिसिंचामि कुमारं सुरसुंदरं । ताव मुंडे भवित्ता णं पव्वयामि न संसयं ॥ ११॥ 23 __ भणियं भगवया- 'अविग्यं देवाणुप्पिया मा पडिबंधं करेह' । तओ वंदिऊण गओ नियभवणे । समाहूया मंतिसामंतादओ, भणिया य– 'सुरसुंदरकुमारं रज्जे "अहिसिंचह, जेणाहं पचयामि' । तओ "सोहणे लग्गे अहिसित्तो सुरसुंदरो रायपए। जियसत्तू वि महाविभूईए सह धारिणीए जणयंतो भव्वसत्तपडिबोहं, दाऊण महादाणं, पूइऊण समणसंवं वत्थाई हिं, पवइओ सूरिसमीवे । धारिणी वि" समप्पिया पवाविऊण सुभद्दाए पवित्तिणीए । . 1 B विडवणासाराए। 2 B गहियमणेहिं। 3 B नास्ति पदमेतद् । 4 A अणिटे। 5A रिउमट्टणं । 6 पतितानि रे कइवयपयाण' एतान्यक्षराणि A आदर्श। 7 A कोइ। 8 B°वालएण। 9 B पाणिणो। 10 B कोवि। 11 B इव लुपंति। 12 B इओ य। 13 B नियगा। 14 B जेण धम्मो। 15 B अभिसिंचह। 16 A सोहण। 17 'वि' नास्ति BI Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्नया समाहूओ गन्भो पडिरूवाए 'महासुविणसूइओ । पसूया पुण्णदियहेसु देवकुमारोवमं दारयं । 'अइकंते वारसा हे पट्ठावियं से नामं पुरंदरोति । जाओ कमेण अट्ठवारिसिओ । गहियाओ कलाओ, वरियाओ पहाणरायकन्नाओ' । गाहिओ पाणिं । ठाविओ 'जुवरायपए । एवं वच्चइ कालो । 1 15 अन्नया पव्वाणुपुवि विहरमाणा समागया ते पुव्ववण्णिया सुरसुंदरराइणो धम्मायरिया धम्मघोसा-भिहाणा सूरिणो पुप्फकरंडगे उज्जाणे । अहापडिरूवं समणजणपाओग्गं विचित्तमवग्गहं " गिव्हित्ताणं विहरंति । निवेइयं उज्जाणपालएणं । तुट्टो राया । महाविभूईए निग्गओ सह देवीए भगवंतो" वंद10 णत्थं । तिपयाहिणी काऊणं वंदिय उवविट्टो उचियभूमिभागे । भगवया वि से समाढत्ता धम्मका । एगे अभव्वजीवा अणाइपरिणामजोगओ जाया । संसारपारगामी न कयाह वि जे भविस्संति ॥ १ ॥ ते नियसहावनिया पुणरुत्तं चउगईसु हिंडता । डिसामिसं व सुहं समुवगया जंति दुक्खोहं ॥ २ ॥ कवि दिवसाइँ र भुंजंता विसयसेवणासाए । असमंजसाई काउं बंधिय नरयाउयं दीहं ॥ ३॥ उपपति वराया घोरे तिमिसंधयारनरयंमि । घडियालयनीहरणे को दुक्खं वन्निरं तरइ ॥ ४ ॥ ततो नीहरियाणं परमाहम्मियकया उ जा वियणा । अहोंति कम्मवसगा ताओ न तीरंति वन्नेउं ॥ ५ ॥ तत्तो वि कम्मवसगा नाणाविहदुक्खतवियतिरिएसु । उववति वराया निमेसमेतं पि सुहहीणा ॥ ६ ॥ तत्तो कहिं चि मणुयत्तणे वि दारिद्दवाहिसयसहिया कहकह व पाणवित्तिं कुणंति मरणं विमग्गंता ॥ ७ ॥ सरकुले वि जाया अंधा बहिरा वि वाहिगहगहिया । पावा पावमईया मरिउं नरयंमि गच्छति ॥ ८ ॥ दिव्ववसा लद्धूण वि रायसिरिं तीए विनडिय संता । जिणसासणावमाणं काउं गच्छंति नरएसु" ॥९॥ देवत्तमि पत्ते हवंति " अभिओगिया य किब्बिसिया | तत्तो चुया दुरंते भमंति पुणरुत्तसंसारे ॥ १० ॥ ता भो" दिव्वहयाणं ताणं किं कीरई इहं ताणं । जिणभासियं न तेसिं मणयं पि हु माणसे ठाइ ॥ ११ ॥ 15 20 श्रीजिनेश्वरसूरिकृत - कथाकोशप्रकरणे [ २ गाथा ओ जियसत्तू रायरसी नाणातवोकम्मेहिं अप्पाणं' भावेमाणो विहरिय किंचि' कालं, आलोइय पडिक्कतो कयाणसणो गओ सुरलोगं । एवं चैव धारिणी वि अज्जा गया देवलोगं । सुरसुंदरी जाओ महाराया । पालेइ रज्जं । पडिरूवाए सह विसयसुहमणुहवइ । अइकंतो को वि' कालो । 25 ८ 30 1 नास्ति पदमिदम् B 2 A कंचि । 3 B ‘सुक्खं । 4 A कोइ । 5 B ° सुमिणय° । 6 B कन्नगाओ । 7 A जुवराया । 8B पुव्ववंदिया । 9B करंडए । 10 A ओगहित्ता | 11 B भगवओ । 12 B पयाहिणं । 13 'से' नास्ति B 14 B उववज्जंति । 15 B नरयम्मि | 16 B भवंति । 17 B तत्तो । Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या ] जिन पूजाविषयक - शुकमिथुनककथानकम् । भव्वा वि कालपरिणइवसंगया जिणवरिंदभणियम्मि । धम्मम्म य 'पडिणीया होऊणं जंति नरएसु ॥ १२ ॥ चुलसीइजो लिक्खाउलम्मि हिंडंति दुक्खसंतत्ता । पुणरुत्तं संसारे सुहलेसविवज्जिया पावा ॥ १३ ॥ लडूण वि जिणवणं अभावियत्थं विवज्जिय निमित्तं । जायं दिव्याणं तहडिओ ताण संसारो ॥ १४ ॥ नयसयपमाणगहणं जिणवयणविणिच्छिय'त्थमवियड्ढा । अन्नत्थ निउत्तं पि हु अन्नत्थ निउंजिय' भणति ॥ १५ ॥ सासयजिणबिंबाणं घयखीरदहीहिं किजइ न पहाणं । ता किमिमाण कीरइ न य रायाईण सिद्धमिणं ॥ १६ ॥ चरि पि हु उवएसं वयंति 'मइमोहगं अधीराण । न गति वावि पोक्खरि भंडाण' किमच्चणं न तहा ॥ १७ ॥ सुत्तम्मि उ उवट्ठ तह त्ति पडिवत्तिगोयरं होई । उव समुत्तसाहियदिट्ठतो होइ चरियं तु ॥ १८ ॥ खाईपत्तं सव्वत्थ वि दीसए न सुत्तम्मि । जं न य पडिसेहो तत्थ उ मोणं चिय होइ गीयाणं ॥ १९ ॥ चरिए किं पिदीसह उवएसपएण साहियं ने य" । तत्थ वि जुत्तमजुत्तं वत्तव्यं नेव गीयाणं ॥ २० ॥ अविणिच्छियवयणाओ आणा पडिकूलिया जिनिंदाण । तत्तो भवो अणतो मोणं चिय होइ ता जुत्तं ॥ २१ ॥ जहठियमबुज्झमाणा भणंति चिइवंदणं न सड्डाणं । तिन्नि वि” कड्डइ जाव उ जईणमिणमाह समयन्नू ॥ २२ ॥ न गणति निव्विसेसं वंदणमेयं विसेसियं चरणं । नय सावजनिषित्ती एयं पि" न ताण जं घडइ ॥ २३ ॥ आवस्सयाहिगारी न सावगो पन्नवेंति अवियड्डा | लोउत्तर आवस्सए उवासगा किं न दिट्ठा भे ॥ २४ ॥ एवंविहं भणता जिणवयणं जे कुणंति अपमाणं । आसाणा य एसा अनंतभवदारुणविवागा ॥ २५ ॥ अहिमवि बुज्झता जिणवयणं आसवे अरंभित्ता" । आरंभपरिग्गहओ पावं" बंधंति तह चैव ॥ २६ ॥ सावज्जजोगविरई दुलहा जीवाण भवसमुद्दम्मि । दुक्खतविया वि जम्हा गिण्हंति न चैव काउरिसा ॥ २७ ॥ 1 B धम्मंमि पचणीया । निजुंजिय । 6A चरिमं । 11 B वा । 12 A एयंमि । क० २ 2 A लेसा विवड्ढियो । 3 B विवज्जय । 7 B मयमोहगं । 8 A न यणंति । 13A 14 B निरंभित्ता । 15 A पादं । 4 A वयणमणिच्छिय० । 5 B 9 B भंडाबिंबाण । 10 A तेय । 6 10 15 20 25 20 Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनेश्वरसूरिकृत-कथाकोशप्रकरणे [२ गाथा पावेंति' दव्वओ तं पासत्थविहारिणो भवित्ताणं । कागणिहेउं कोडिं हारेंति पवंचिया दुहओ ॥ २८ ॥ काण वि पुण धन्नाणं अइयारविवज्जियाए दढजत्तो। विहिगहियपालणम्मी संसारभयाउरमईणं ॥ २९ ॥ ता भो महाणुभावा दुलहं लहिऊण माणुसं जम्मं । तत्तो वि य अइ दुलहं जिणवयणं पाविउं कह वि ॥ ३० ॥ मिच्छत्तमोहविजया सद्दहिउं किं पमायवसगा भो । निरवजं पव्वजं पवजिउं किं न उजमह ॥ ३१ ॥ आसवदारनिरोहो पव्वजाए न अन्नहेऊ उ । न य तन्निरोहविरहे बंधनिरोहो इह जुत्तो ॥३२॥ बंधनिरोहाभावे न य मोक्खो ने य तं विणा होइ । संसारसंभवाणं दुक्खाण कहिंचि वोच्छेदो ॥ ३३॥ एमाइ भगवओ देसणं सोच्चा भणियं रन्ना- 'अवितहमेयं भंते !, जाव, नवरं पुरंदरकुमारं रज्जे अहिसिंचामि, ता करेमि पव्वज्जापडिवत्तीए तुम्ह पायमूले सहलं माणुसत्तणं' ति । उठ्ठिया परिसा, गया जहा15 ठाणं । रायावि गओ सगिहं । समाहूया सामंत-मंतिणो । अहिसित्तो पुरंदरो रायपए, जाओ राया । तओ भणियं सुरसुंदरराइणा- 'देवि ! तुमं किं काउमिच्छसि ?' । भणियं पडिलवाए - 'जं देवो काही'। भणिया सामंतादयो- 'भो ! पुरंदररायं जहाविहिमुवचरेज्जाहि । न अण्णा गिहवासे गइ' ति । भणियं सुबुद्धिणा पहाणामच्चेण - 'देव ! तुह पयसेवपसाया लद्धो धम्मो जिणिंदपन्नत्तो । परमत्थओ तुम चिय अम्ह गुरू तेण सेवट्ठा ।। __ तुम्ह पयाण न भणियं मुयह ममं संजमं करेउं जे । अणुवत्तणारिहा जं सम्मत्तगुरू न संदेहो । तुम्भेहि वि पव्वजं सामि भयंतेहिं किमिह कायव्वं । गिहवासेण करिस्सं पव्वजं अज निरवजं ॥ अणुमयमिणमन्नेहिं वि सुबुद्धिवयणं असेसमंतीहिं । सामंतेहिं तहच्चिय भणियं तेसिं तओ रन्ना ॥ निय-नियपुत्ते ठावह निययपए सासिउं पयत्तेण । भणिओ पुरंदरो अह सुरसुंदरराइणा एवं ॥ 'पुत्तय ! मम पयछायादुल्ललिया सव्वे वि सामंतादयो अओ "नावमाणेयव्वा एए । जओ एए च्चिय 23 अणुरत्ता तव रायसिरीए निबंधणं । विरत्तपरियणो हि परिभस्सइ "रायसिरीओ'। भणियं पुरंदरेण - 'जं देवो आणवेइ तं करिस्सं' ति । घोसावियं नयरे पडहयदाणपुव्वं - 'भो भो जरामरणभओविग्गो राया सुरसुंदरो पव्वयइ । जस्स अस्थि इच्छा सो आगच्छउ । राया तस्स निक्खमणमहिमं करेइ । जो वा इच्छा कुटुंबनिव्वाहं पव्वयंतो तस्स वित्तिं कप्पेइ' । तं सोऊण एगओ संभूय आगया पहाणनागरया । निवेइया रन्नो पडिहारेण, पवेसिया य, दावियाइं आसणाई । सुहासणस्था भणिया तेण - 'भणह किं भे! कीरउ । 30 भणियं मुद्धसेटिणा नगरनायगेण - साहीण सयलभोगा नरनाहा पव्वयंति जइ देव । असहीण साहणाणं अम्हाण किमेत्थ कायव्वं ॥ जइ जम्ममरणभीया रायसिरि" उज्झिऊण चक्कहरा । पडिवजंति चरितं कायव्वं अम्ह किं अन्नं ॥ 1B पार्विति। 2 Bहारिंति। 3 Bई जुत्तो। 4 A वोच्छेओ। 5A कुरुसेव। 6 B तुम्हे । 7A अणुमयमणुमन्ने हिं। 8A इह। 9Aन अमाणेयवा। 10A रायरिसीए। 11A रायरिसीओ। 12 A रायरिसिं । 20 Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या ] जिनपूजाविषयक-नागदत्तकथानकम् । सप्पुरिससेवियम्मी मग्गे भव्वाण उज्जमो जइ ता । जाणंता वि न केणं पव्वजं अम्हि काहामो॥ बहुमयमेयमन्नेसि पि । भणियं रन्ना- 'साहु साहु भो! उचियमेयं विवेयजुत्ताणं, पुजंतु मणोरह' त्ति निरूवियं लग्गं । तओ सामंतामच्चपउरनरनारिपरिवुडो पव्वइओ महाविभूईए राया पंचसयपुरिसपरिवुडो । देवी पडिरूवा वि संजईसहस्सपरिवुडा समप्पिया पियंकराए पवत्तिणीए । अहिगया सामायारी । तओ छट्ठमाइतवोकम्मेहि अप्पाणं भावमाणो, अहिन्जिय अंगाई एक्कारस, निरइयारं । संजमं पालिऊण आलोइयपडिकंतो समाहिपत्तो कालमासे कालं काऊण उववन्नो सुरसुंदरो साहू सोहम्मे सागरोवमाऊ विमाणाहिवई । एवमेव पडिरूवा वि तत्थेव विमाणे जाया तस्सेव सामाणियदेवत्ताए । पुणो वि सिणेहाणुगयाणं तत्थाइक्तमाऊयं । एवं सुमाणुसत्त-सुदेवत्तरूवाई हिंडिय कइ वि भवग्गहणाई सहजोगेण कीरजीवो पावियचक्कवट्टिभोगाई, इयरी वि सामंतभावेण होऊण, पव्वजं पाविय, पालिय निरइयारं सामन्नं, उप्पाडिय केवलं, पडिबोहिय भव्वसत्ते पत्ता मोक्खं दोन्नि वि जण त्ति । जइ ता भावं ।। विणावि पूया जिणबिंबाणं एवंविहफलविवागा परंपरेण भावपूयाहे उत्तणओ। जा पुण पढमं चेव भावसारा सा विसेसेण मोक्खहेउ ति । अओ कायव्व ति उवएसो ॥ ॥सूयगमिहुणक्खाणयं समत्तं ॥१॥ यदुपदेशपदेषु शुकमिथुनाख्यानकं कथ्यते तदन्यत् , एतच्चान्यत् । तेन पत्तननामादिषु अन्यादृशेषु ततः कथानकात्, न संमोहः कार्यः । विचित्रचरिते अत्र संसारे जीवानां न सन्ति तानि यानि संवि-15 धानकानि न संभवन्तीति । साम्प्रतं भावयुक्ताया जिनपूजायाः फलमाह - पूयंति जे जिणिंदं विसुद्धभावेण सारदव्वेहिं । नर-सुर-सिव-सोक्खाइं लहंति ते नागदत्त व्व ॥ ३ ॥ गाहाव्याख्या – 'पूजयन्ति ये' केचन, 'जिनेन्द्र' तीर्थकरम् , 'विशुद्धभावेन' सम्यक्त्वयुक्त- 20 परिणामेन । 'सारद्रव्यैः' पुष्पगन्धवस्त्रमणिरत्नकाञ्चनादिभिः । 'नरसुखानि' श्रीमत्कुलोत्पादः, भोगशक्तमव्याहतं वपुः, खाधीनानि च भोगाङ्गानि । 'सुरेषु' विमानाधिपत्यं प्रभृति । 'शिवसौख्यं मोक्षसुखम् । सौख्यशब्दः प्रत्येकमभि संबध्यते । किं वत् 'नागदत्त इव' इति । भावार्थः कथानकगम्यः । तच्चेदम् - -->२. नागदत्तकथानकम् ।इह भारहे वासे वेयड्दाहिणेणं लवणस्स उत्तरेणं गंगानईए पञ्चत्थिमेणं सिंधुनईए पुरत्थिमेणं बहुदिवसवन्नणिज्जं सुविभत्ततियचउक्कं सुविसुद्धविपणि"मग्गोवसोहियं तुंगपागार परिक्खित्तं गंभीरसजलवर. पउमरेहिरपरिहापरिगयं पोक्खरणिवाविदीहियासहस्सोवसोहिय पेरंतं काणणुज्जाणारामविभूसिय दियंत 1A काहामे। 2 B परियरिया। 3 पतितानि हिं अप्पाणं भावेमाणो' इमान्यक्षराणि A आदर्श। 4 नास्ति पदमेतत् A। 5 नास्ति 'पुणोवि' A1 6A रचिते। 7 इदं पदं नास्ति A1 8 B युक्तेन प्रीत्या। 9 नास्ति 'प्रभृति' BI 10A प्रत्येक सं। 11B विवणि। 12 B°पायार। 13 A°धर। 14 A सोडियं । 15A रामभूसिय। Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ श्रीजिनेश्वरसूरिकृत-कथाकोशप्रकरणे [३ गाथा चकपुरं नाम नयरं । तत्थ महसेणो नाम राया। चेइयसाहुपूयारओ, जिणसासणगहियट्ठो 'पुच्छियट्ठो विणिच्छियट्ठो अद्विमिंजपेमाणुरागरत्तो, असहेजो सदेवमणुयासुरस्स वि तिलोयस्स, निग्गंथाओ 'पवयणाओ अणइक्कमणिज्जो । अयमेव निगंथे पावयणे अटे, सेस अणढे त्ति भावणाभावियमइ त्ति । तस्स य पाणपिया पउमसिरी नाम देवी । चेइयसाहुपूयारया, जिणसासणे भावियमईया । तीए सह जम्मंतरो. 5 वज्जियसुकयतरुफलं विसयसुहमणुहवंतो रजं पालेइ महसेणराया । एवं वचंति दियहा। अन्नया समाहूओ गब्भो देवीए । जाओ पुण्णेसु दियहेसु दारगो । कसं वद्धावणयं । अइते मासे कयं से नाम मेहरहो ति । जाओ कमेण अट्टवारिसिओ । समप्पिओ लेहायरियस्स । अहिजियं वागरण' छंद-अलंकाराइ । अहिगयाओ कलाओ । साहुसेवाए य जाओ अभिगयजीवाजीवो, चेहय-साहु साहम्मियपूयणनिरओ । विणीओ जणणि-जणयाणं । संमओ सामंतामच्चाणं । बहुमओ नागराणं । अक्ख10 यनिहाणं तकुयाणं (8)* । दइओ रमणीणं* । कोमुइससि व्व सयलजणमण नयणाणंदणो । जसकित्ति भूसियभुवणोदरो। किं बहुणा ? - वड्डेतो जाओ सयलगुणनिहाणं । पत्तो पढमजोव्वणं । गाहिओ एगदिवसेण बत्तीसाए रायकन्नगाणं पाणि । ताहिं सह विसयसुहमणुहवंतस्स वच्चइ कालो। अन्नया चउद्दसीए काऊण अव्वावारपोसहं अंतेउरमझेगदेसट्ठियाए वियणाए पोसहसालाए सव्वं दिवसं ठिओ सज्झायधम्मसवणाइविणोएण। वियाले य कयावस्सओ सज्झायं काऊण पसुत्तो भूमीए 15 संथारए, एगागी दारं ढकिऊण पोसहसालाए । तत्थ य पसुत्तो, अड्डरत्तसमए अप्पडिहयगइ तणओ भवियव्वयाए, अनिवारियतणओ दिव्वगईए", विरसावसाणयाए संसारसुहस्स, सपज्जवसाणयाए आउयस्स, कालचोदसीए कुलियवेलाए खइओ कालसप्पेण । उक्कडयाए विसस्स, पसुत्तो चेव घारिओ, गओ पंचत्तं मेहरहकुमारो । जाए पहाए समागओ सेजापालगो" । वाहरिओ वि जाहे न देइ पडिवयणं ताहे सिढे अंतेउरे उग्घाडियं दुवारं । दिट्ठो पंचत्तमुवगओ । ताहे समुट्ठिओ अकंदसद्दो अंतेउरियाणं, 20 किमेयं किमेयं ति" भणंतो । सोऊण अक्कंदसदं समागओ महासेणराया अत्थाणाओ उट्ठिऊण । हा हा ह ति भणंता समागया पउमसिरी वि । निरूवंतेहि दिट्ठो दाहिणपायतले डंको । तओ घोसावियं नयरे'जो रायउत्तं उट्ठावेइ तस्स राया गामसहस्सं देइ, सुवण्णलक्खं च' । तं सोऊण" मिलिया "बहवे गारुडिया । दिट्ठो रायउत्तो । तओ" एगेण जाउंडिएण" भणियं - 'देव ! पउंजामि नियसत्तिं । यतो गारुडे भणितम् - पादाङ्गुष्ठे "पृष्ठे गुल्फे जानुनि वराङ्गनाभितटे। हृदये स्तनेऽथ कण्ठे पवनगतौ नयनयोः क्रमशः ॥ भ्रूशंखश्रवणेष्वथ शिरसि च जीवो हि वसति जन्तूनाम् । तत्रैव च याति" विषं सर्वेषां तनुभृतां नूनम् ॥ प्रतिपदमारभ्य तिथिं क्रमो ह्ययं भवति दक्षिणे भागे। पुंसस्तथाङ्गनाया वामे भ्रमणं समुद्दिष्टम् ॥ ___ 1 नास्ति B। 2 B असहिजो। 3 A पावय। 4 B चालत्तए। 5 B मई। 6 A पुण्णे दिवहे. सुदा। 7 B वागरणं। 8 B अहिगय। * इदं वाक्यद्वयं नोपलभ्यते A आदर्श। 9 'मण' नास्ति BI 10A गयत्तणउ। 11A देवगइए। 12 B सेज्जावालो। 13 B अंतेउरियाणं । 14 A किमेयं तो सोऊण। 15 B सोऊणं। 16 B बहवे मिलिया। 17 'तओ' नास्ति BI 18A जावंडिएण । 19 'पृष्ठे नास्ति B 20 Bच। 21 B नाति । Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या ] जिनपूजाविषयक-नागदत्तकथानकम् । तओ'जहातिहिविभागेण सो पएसो छारेण मलिज्जइ, ताहे निविसो होइ' । भणियं रना- 'पडं. जसु सिग्घं एयं विहिं । पउत्तो विही । किं मओ जीवइ कोइ । विरओ जाउंडिओ। भणियं अन्नेण'देव ! दिट्ठो 'एयावत्थो कुमारो । किं तु जं मज्झ फुरइ तं पउंजामि । देवपुण्णेहिं सव्वं सोहणं भविस्सई' । भणियं रन्ना - 'मा विलंबेह" । तओ पेच्छयाणं मज्झाउ समुट्ठाविया सोलसजणा । ततोछट्ठयसरसंजु सुत्तं विणिसित्तु पेच्छयकरेसु । तालपहारेहिं समं गायावइ चच्चरि एयं ॥ जइ पइहरियओं ऑदियओं पीयलओं जि पइद्धउ' । उट्टिय' नचहि पुत्तडा किं अच्छहि मुद्धउ ॥ अस्थि एस जोगो, किं तु सो कालदट्ठो मओ न जीवइ ति, नियत्तो सो वि । अन्ने वि" जे तत्थ पहाणगारुडिया ते कालदट्ठो असज्झो ति मोणेण चेव ठिया । अन्नेण भणियं- 'देव! अमंतमूलं मम . गारुडं अस्थि' त्ति । भणियं राइणा -- 'सिग्वं पउंजसु' । तओ तेण भालबट्टे उड्डनसाए पहओ "टोणाए ।। न जाओ विसेसो । तओ वामनासियाए कीलसरिसो "करकरओ चउरंगुलप्पमाणो दोरओ गाढं पवेसिओ। तहावि न को वि" गुणो जाओ । तओ छारं गहाय नाभीए पक्खिविय अवणामियाए गाढमकमिओ । तहावि तह च्चिय ट्ठिओ । एमाइ अन्नं पि जं जस्स गुरूवएसेण आगयं विसनिम्महणं विहाणं" तं तेण तत्थ" पउत्तं, न य को वि गुणो संजाओ । ताहे भणियं सुबुद्धिमंतिणा"- 'देव ! किं कायरो होह । किं मया वि" जीवंति । किं जाणंता वि अयाणया होह । करेह जं कायव्वं' । ताहे कयं ण्हाण-। विलेवणाइयं मयकिच्चं । कया य कुजाहिया । समारोविओ तत्थ मेहरहकुमारो । ठविया अंगवाहिया" तस्स । समाहयं विसमतूरं । उक्खितो मसाणं पइ । समुच्चलियाओ" तेण समं मरणत्थं तब्भारियाओ। नीणियाई चंदणागरुदारुयाइं । जाओ अकंदसदो अंतेउरियाणं । पिट्टिउमाढत्ताओ कंखिणीओ। एयावसरे तं तारिसं वइससं दट्टण पउमसिरी पडिया धस ति धरणिवढे । चुण्णियाइं बाहुवलयाई । पन्भटुं उत्तरिज । विलुलिओ केसहत्थओ । विप्पइण्णाइं सिरसंजमियकुसुमाइं । भग्गा दिट्ठी । २० निबद्धं दंतसंपुडं । ततो" रन्ना चिंतियं- 'अहो ! पेच्छह देवविलसियं ? ति । ततो सित्ता सीयलसलिलेण । उक्खित्वाइं सिसिरंबुकणाणुगाई तालविंटाइं । उग्घाडियं दंतसंपुडं । लद्धा चेयणा । विलविङ पयत्ता । अवि य"हा हा विहि विहि रे दिव्व भणसु कह नेसि मह पियं पुतं । रे धाह धाह गेण्हह रे मुट्ठा देव मुट्ठति ॥ हा पुत्त पुत्त हा वच्छ वच्छ मा मुंच मं अणाहं ति । हा पुत्तय हा पुत्तय कत्थ गओ कत्थ कत्थ चि ॥2 हा हा मुट्ठा मुट्ठा हा मुट्ठा देव देव मुट्ठ ति । एवं विलवंती सा कलुणं कलुणाई रोवंती ।। पिट्ठपिट्टओ आगच्छइ । जाव गया मसाणे । विरइया चिया । तओ पडंति सासु-ससुराणं पाएसु सुण्हाओ । एयावसरे समागओ कुओ वि एगो साहू । सो ठिओ पुरओ । सव्वेसिं भणियमणेण - 'महाराय ! संसारठिइं बुज्झंता वि किं मुज्झह ।। तित्थयरो चक्की वा हलहर गोविंद मंडलनिवो वा । जो पाणेहिं विउत्तो न एत्थ तं मज्झ साहेह ॥ 1B तहातिहिभागेण । 2 B एवं। 3 B कोवि। 4 B एसावत्थो। 5A विलंबेहि। 6A परहियओ। 7A पइट्टाउ। 8 B उद्विउ । 9A नवहिं। 10 नास्ति 'अन्ने वि' A। 11 A ढोणाए। 12 B कररवो। 13 B न को गुणो। 14 'विहाणं' नास्ति BI 15 'तत्थ' नास्ति B। 16 B सुबुद्धिणा । 17 B मया कया वि। - 18 B कुक्कहिया। 19 B°वाया। 20 B समुच्चालियातो। 21 A कंखनीओ। 22 B तओ। 23 A देव्व। 24 नास्ति B| 25 A देव देव त्ति। 26 A हा मुट्ठा हा मुद्दा मुट्ठा । Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ श्रीजिनेश्वरसूरिकृत-कथाकोशप्रकरणे [३ गाथा देविंदा असुरिंदा तिपल्लपरमाउणो य नरतिरिया । गेवेजणुत्तरसुरा मच्चुमुहं राय ! संपत्ता ॥ किं न सुयं जिणवयणे सट्ठिसहस्साई सगरपुत्ताणं । सयराहं मञ्चमुहं पत्ता ता किं विलावेहिं' ॥ राया वि समणवयणं जह जह निसुणेइ तह तह सरीरं । अमयरसेण व सित्तं मण्णइ सुयविरहपज्जलियं ॥ भणियं रत्ना- 'महाभाग ! किं करेमि, पेच्छ, देवी कलुणकलुणाई रुयमाणी, पेच्छह, सुहाओ 5 मरणम्मि उवट्टियाओ । तो किं भणामि' । भणियं साहुणा – 'पउमसिरि ! संसारियजीवाणं ववहारीणं अहेसि तं बहुसो । सम्वेसि पि हु माया पिया य भाया य भइणी' य ॥ सव्वेसि पि हु भज्जा भत्ता दासो सुही य वेरी य । ता केत्तियाण तणए रोयसि पुत्ताण पउमसिरि !' । देवी वि तस्स वयणं जह जह निसुणेइ दुक्खसंतत्वा । तह तह से अंगाई अमयरसेणं व सिंचंति ॥ भणियं देवीए - 'भयवं! जाणामि सच्चमेयं । किं पुण माऊए केरिसं हिययं । पेच्छह मम सुण्हाओ " मरणम्मि उवट्ठिया सव्वा' । भणियं साहुणा- 'भो भो सुंदरीओ! किं न याणहछुहतण्हाए जलणे जलम्मि उब्बंधिउं मयाणं वा । वणयरदेवनिकाए उववाओ वण्णिओ समए ॥ जइ जीविए विरत्ता वल्लहविरहम्मि दूसहे ता मे। तह मरह जह पुणो वि हु दुक्खमिणं नेय पाउणह ॥ गुरुआणासंपाडणरयाओ सज्झायझाणजुत्ताओ। पव्वजं पडिवज्जिय मुंचह पाणे अणासंसा' । जह जह निसुणेति गिरं महुरं महभागसाहुणो तस्स । तह तह पियविरहानलविज्झवणं होइ सव्वासि ॥ 18 अणिमिसदिट्ठीए निवो तं साहुं सव्वहा निरूवितो । पिच्छइ अच्छिनिमेसं परिहरइ धरं च नो छिवइ । नायं, न होइ मणुओ एसो ति । भणियं रत्ना- 'भयवं! को सि तुमं? । सो भणइ- 'किं न पेच्छसि साहुवेसं !' । भणियं रन्ना - 'पेच्छामि, किं तु न होसि तं मणुओ। जम्हाअच्छिनिमेसं मणुओ न रक्खइ ने य भूमिछिवणं च । तं पुण दोन्नि वि रक्खसि तो देवो को वि तं भंते ॥ पयडेहि निययरूवं साहसु इह आगओ सि किं कजं । केण' वि तुमम्मि दिट्टे दुक्खोहो वियलइ असेसो' । 20 भणियं साहुणा - 'जइ एवं ता उवविसह खणंतरं जेण साहेमि सव्वं' ति । निसन्ना सव्वे वि समासन्ननग्गोहपायवच्छायाए । जाव हारकेऊरअंगयवर किरीडकुंडलविरायंतअंगावयवो, गेवेजहारअद्धहारामिलाणवणमालारेहंतवच्छत्थलो, पवरसीहासणा सीणो छत्तचामराडोयकलिओ" वेणुवीणासारंगीतिसरियावावडवरसुरंगणाविसरपरिगओ दिट्ठो देवो । गयं कत्थ वि साहुरूवं । ताव य तल-ताल-मुयंगपणव-करड झल्लरि-कंसाल-भाणय-संख-काहलहत्था समुवट्ठिया नागकुमारा से पुरओ । समाढत्तं पेच्छणयं चोजपज्जाउलो जाओ सव्वो लोगो । भणियं देवेण- 'महाराय ! एसो सो हं तव पुत्तो भवणवइनिकाए दाहिणसेढीए धरणिंदो जाओ। तव्वेलं विसघारियस्स न तहा सम्मतविसुद्धी अहेसि । तेण भवणवईसु उववन्नो । अन्नहा कयपोसहो सोहम्माइसु उववज्जिज्जा । तओ हं पज्जत्तीभावमुवगओ ओहिं पउंजामि- 'को हं किं वा मए कयं' -ति जाव पेच्छामि तुब्भेहिं समाढत्तं वइससं । तओ अहिणवुप्पन्नदेवकिच्चं परियज्ज" इहागओ म्हि । तओ एस अहं, जं तुम्ह करेंतओ" अहेसि तं सव्वं सविसेसं 30 करेमि । किं सोगमुव्वहह' । भणियं देवीए -'ता पुत्त! इहं चिय अच्छसु, जाव अम्हे जीवामो' । भणियं देवेण - 'अंब ! तुम्हाणुराएण इह असुइबीभच्छे मच्चलोए आगओ ति, कुओ मे एत्थावत्थाणं" । किं तु पुत्तनेहकायराए सत्तट्ठदिणेसु आगंतूण पडियरिस्सं । तद्धिई कायव्वा' । भणियं पुणो पउमसि 1B भगिणी। 2A अणमिस। 3 B पेच्छसे। 4 B दुन्निवि। 5 B ता। 6B साहह । 7 B केण तुमम्मि । 8 नास्ति 'जेण' BI 9 B°परि। 10 B'सुहासणा। 11 'कलिओ' नास्ति BI 12 B धरणिंदत्ताए। 13 B सोहम्मे। 14 B परिवज्जिय। 15 B करेंतो। 16 B °वत्थाणं ति। Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या ] जिन पूजाविषयक - नागदत्त कथानकम् । रीए - 'पुत्त ! एयाओ कुलबालियाओ कहं भविस्संति ?' । भणियं देवेण - 'अंब ! वंतमुत्त पिचासवाएहिं को देवेण याहिं सह संबंधो ? । किं च - खणमेत्तमागओ तुम्हाणुरोहेणं किं करिस्समेयाहिं ?' । भणियं देवीए - 'पुत्त ! एयाओ नियसमीवे नेहि' । भणियं देवेण - 'अंब ! न देवाण रूवं सरूवत्थं माणुसेहिं मंसचक्रहिं दहुं पिसक्किज्जइ, तेयबहुलत्तणओ । तेण न एयाण तत्थ गमणं । ता करिंतु पव्वज्जं निरवज्जं सयलदुक्खविणासणहेउ भूयं ' । भणियं रन्ना - 'पुत्त ! को संपयं रज्जधुरं वहिही ?' । भणियं देवेण - s 'ताय ! भविस्सइ देवाणुभावेण मे पुत्तो' । भणियं रन्ना - 'पुत्त ! किं सो तुह सरिच्छो भविस्सर । कुओ एवं नयगोहमित्तेण रज्जधुरा वोढुं पारीयइ' । भणियं देवेण - 'ताय ! देवलोयचुओ महासतो सो जम्मंतरकयपुण्णाणुभावेण उण्णबलवाहणो पसाहियासेस पाडिवेसियरायो सन्यनुसासणस्स समुण्णइ कार को भविस्सइ । केवलं – अहं नागराया, मए विदिन्नो नागदत्तो त्ति से नामं कायव्वं' । पडिस्सुयं राया । विसज्जिओ देवो । संकारियं मेहरहकुमारसरीरं । कयाई मयकिच्चाई । कालेणं मणयं विगयसोगो 10 जाओ । समप्पियाओ से अंतेउरियाओ पुप्फसिरीए मयहरियाए । पव्वावियाओ तीए, गाहियाओ सिक्खं । पालिऊण सामण्णं नाणाविहतवेण सोसियअप्पाणं गयाओ सुरलोयं । अन्नया पउमसिरी जाया आवन्नसत्ता । तइयमासे जाओ जिणपूयाकरणे दोहलो | साहियं राइणो - 'देव ! मम एरिसो दोहलो - जाणामि जइ जिणाययणेसु अट्ठा हिया महिमाओ कारे मि; साहुणो फास्यएस णिज्जेहिं भत्त-पाण-उसहेहिं पहाणवत्थ - कंबल - रयहरण- पडिग्गहेहिं पडिलाहेमि; साहम्मिए समाहूय अस- 15 णाइणा वत्थालंकाराईहि य पूयइत्ता अकरदंडभरे करेमि ; तहा नाणाविहवाहिबिहुरियंगे अंगिणो विज्जोसहाईहिं पडियरिय जिणधम्मे जोएमि; तहा अंध- पंगुलय-दारिद्दियाइणो दुहियदेहिणो संपूरियइच्छियमोरहे काउं जिणधम्मपरायणे करे मि; घोसावेमि सव्वदेसे अमारिं' ति । भणियं रन्ना - ' - 'देवि ! गभाणुभावो एसो, ता संपाडेमि सव्वं, न अधिई कायव्वा । नवरं जिणधम्मे जोइउं जंति न जंति वा न नज्जइ । जओ एयाण मज्झे दीहसंसारिया वि अभव्वा बि अस्थि । ता किं ते जिणधम्मे जोइउं 20 सक्किज्जंति' । भणियं देवीए - 'देव ! अनुकूलेणं आढता दव्वओ वि पडिवज्जति । जइ पुण भावओ वि कस्सइ परिणमिज्जा' । ता किं न पज्जत्तं । जओ - १५ सयलम्मि वि जियलोए तेण इहं घोसिओ अमाघाओ । एक्कं पि जो दुहत्तं सत्तं बोहेइ जिणवणे' ॥ सओ भणियं रन्ना - 'देवि ! एवं सव्वहा गब्भाणुभावो । एस को वि जिणधम्मभावियमई महासतों नागराजसमाइट्ठो तुह गब्भे समुत्पन्नो 'ति । तओ सविसेसं संपाडियं रन्ना सव्वं । संपूरियदोहला पुण्ण- 25 दियहेसु' पसूया पउमसिरी । जाओ दारओ । समाढत्तं वद्धावणयं । समाणचाओ अट्ठाहियाओ चेइयभवणेसु । पूइज्जंति विज्जादेवयाओ । सम्माणिज्जंति सावया । सोहिज्जंति चारगागाराहं । मुच्चंति बंदीओ । डिज्जति अन्न- घयाइमाणाइं । कीरंति य हट्टसोहाओ । ऊसिज्जंति पडायाओ । पूइज्जंति नयरदेवयाओ । दक्खिणिज्जंति माहणा । सम्माणिज्जंति पासंडिया । एयं पुण अणागमियं ति न भणियव्वं, उचिट्ठिई एसा राईणं ति । कयं सम्मज्जिउवलित्तं सव्वं नयरं, निबद्धगिहदारबंदणमालं । पइट्ठिया य 30 पुण्णकलसा वरपउमपिहाणा उभओ पासिं नायर गिहदारेसु । वियरिज्जति करि-तुरया सामंतामच्चाईणं । पसाइज्जंति नायराणं वत्थाभरणाइयाई । एवं वित्ते सुयजम्ममहूसवे, अइकंते बारसाहे, मित्त- नाइपुरओ कयं से नामं नागदत्तो चि । समाहूया साहूणो । भणियं रन्ना - 'भयवं ! लोगावेक्खाए विनियते मे 1 A परिणवेज्जा | 2 B दियसु पउमसिरीए जाओ । 3 B समात्ताओ । 4 'दक्खिणिज्जंति पाखंडिणो ।' इत्येष B गतः पाठः । Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ श्री जिनेश्वर सूरिकृत-कथाकोशप्रकरणे [ ३ गाथा असुइए असणाइणो वत्थकंबलाईहि य अणुगिण्हह ' । पूइय सम्माणिय पेसिया वंदणपुव्वयं ति । एवं चसो पंचधाइपरिग्गहिओ वड्ढिउमारो । जाओ अट्ठवारिसिओ । गाहिओ कलाओ। नीओ चेइअभवणे । दंसियाओ पुव्वपुरिसकारियाओ जिणपडिमाओ । भणियं रन्ना - 'पुत्त ! पुव्वपुरिसागओ एस धम्मो अम्हाण । ता एत्थ दढपइण्णेण होयव्वं । भणियं नागदत्तेण - 'जमाणवेइ ताओ' । पत्तो जोव्वणं । संजाओ सव्वलोयहि ययाणंदणो सूरो चाई सोहग्गनिहाणं । रूवेण कामदेवो । परिणीयाओ पहाणरायकन्नाओ । ताहिं सह विसयसुहमणुभवतो तिक्कालं पूयापुरस्सरं आगमविहिणा भावसारं चिह्नवंदणं कुणंतो, अट्टमीचा उद्दसीसु सविसेसपूयाए सव्वजिणभवणेसु वंदणविहाणं समायरंतो * । विणीओ जणणि-जणयाणं । सुहंसुहेणं कालमइवाहेइ । अन्नया अत्थाणगयस्स राइणो समागओ उज्जाणपालगो' । भणियमणेण - 'विजयउ' देवपायाणं । 10 देव ! साहुकप्पेणं विहरंता, वाउरिव अप्पडिबद्धा, पंकयमिव निरुवलेवा, अंबरं पिव निरालंबणा, समसत्तुमित्ता, तुल्ललेडुकंचणा, धरणि व्व सव्वंसहा चउनाणोवगया, तीयाणागय वट्टमाणभाव वियाणया, सव्वसंसयवोच्छेयकरा, समागया नंदणुज्जाणे धम्मनंदणाभिहाणा सूरिणो' । तुट्ठो राया । दिन्नं से पारितोसियं' सुवन्नलक्खं । घोसावियं नयरे - 'भो भो भव्वा ! नंदणुज्जाणे समोसड्ढा धम्मनंदणायरिया । तव्वंदत्थं राया महसेणो संपट्टिओ सबलवाहणो । ता तुब्भे तप्पायवंदणं करेह पावमलपक्खालणं' । समाइहं 15 अंतेउरे - 'सव्वाओ देवीओ पहायाओ वत्थालंकारभूसियाओ सज्जाओ होंतु' । भणियं नागदत्तस्स 'पुत्त ! कयण्हाणाइविहाणो सज्जो ठाहि' । सयं पविट्टो राया मज्जणघरं । हाओ जहाविहीए । उवणीया गंधकासाइया । निमज्जियं तीए अंगं । परिहियं महग्घं पहाणपट्टणुग्गयं खोमजुयलं । गहियाई विसेस - आभरणाई । नीहरिओ मज्जणघराओ । बहुभट्ट-घट्टाणुगओ "सामंत- मंतिपरियरिओ समागओ” बाहिर मंडवे । उवविट्ठो पुरस्थाभिमुहो सीहासणे । जहारिहं सेससामंतादओ य । तओ समाहूओ 20 पउमतारो - 'कप्पेसु अभिसेयहस्थि मम, जयकुंजरं कुमारस्स । सेसे य सेससामंताईणं ति । वारुयाओ देवी सज्जिय उवणेहिं । एवं संदणवई भणिओ । तहेव महासवई वि भणिओ - 'तुरए जहारिहं समप्पेहि' । भणिया पाइक्काहिवइणो- 'कमसो पुरओ ठायह' । ' तह 'त्ति वयणाणंतरं सव्वं पउणं जायं । तावं य तयणंतरमसि-खेडयहत्था बहवे " फारक्का, तयणंतरं ठिया पुरओ निबद्धतोणीरा उप्पीलिय राणा वाहावलंबधाणुहिया, पुरओ वरकुंतपाणिणो पभूया । तओ मत्तमायंगघडाओ, तओ वारुयानि - 25 वहो, तओ संदणालीओ, तओ आसवारा । एवं चलिओ चाउरंगिणीए सेणाए सह महसेणराया । ताय पहयाई तूराई । पूरिया संखा । तओ छत्तमालाहिं उच्छायंतो नहंगणं, मत्तमायंगपयनिक्खेवेण य महीवीढं" नितो इव पायालं, बहिरंतो " दिसामंडलं तूररवेणं, तुरयखुरुक्खित्तखोणी खेहाए निरुंभंतो तारयपहं," पक्कलपाइक्ककयकोलाहलेणं बहिरंतो इव सुइविवराणि, नगरमज्झं मज्झेण पयट्टो सूरिवंदणत्थं राया । ताव य संपट्टिया बहवे नायरा । एगे भत्तीए, एगे रायाणुवतीए, अन्ने कोऊहलेणं । जाव कमेण पत्तो तमुद्दे । उइण्णो राया सपरियणो कुंजराहिंतो, अन्ने य नियवाहणेहिंतो । 30 अवणीय पंच कउहाणि रायलच्छीऍ चिंधभूयाणि । छत्तं खग्गोवाणह मउडं तह चामराओ य ॥ 1 A अणुगे 6A विहउ । 'सामंत' B AI 16 A ताहिं | । 2 A वंदणपुव्वं नियत्तो त्ति । 7 B पारिओ । 12 नास्ति B 3 'सो' नास्ति B 8 B मज्जणहरं । 9 A निमज्जं तीए । 13 B असंखाईया | 14 रहनेमि घण घणा - 4 A कुतो । 5 B वालओ । 10 नास्ति 'विसेस' A 11 नास्ति संघद्वेणं । 15 नास्ति वाक्यमिदं Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या ] जिनपूजाविषयक-नागदत्तकथानकम् । उम्मुक्कपुप्फतंबोलो एगसाडिएणं उत्तरासंगेणं । देवीओ सविसेसियाए सीसदुवारियाए' एगग्गमणा सवे पविट्ठा उग्गहं । तिपयक्खिणी काउं वंदिय उवविट्ठा सबे वि जहारिहं सुद्धभूमीतले । पत्थुया भगवया धम्मदेसणा तीयाणागयसंसयसंदोह निम्महणी । कहंतरं नाउं रन्ना भणियं - 'भयवं! एस नागदसकुमारो सव्वजण'इट्ठो सुभगो पियदंसणो सव्वगुणनिहाणं । ता इमिणा अन्नभवे किं कयं सुभं जेण इमा एरिसी माणुसिड्डीपत्ता ।। ___सओ भणियं भगवया- 'सुणसु, अस्थि कोंकणविसए सोप्पारयं नाम नयरं । तत्थ नागदत्तो नाम मालिओ परिवसइ । तस्स य पिइपज्जागओ आरामो । तत्थ पुप्फाणि गहाय गुंथइ विक्किणइ पट्टणवीहीए । एवं से कुटुंबनिबाहो भवइ । अन्नया जिणदाससावगकारियजिणभवणे" जिणबिंबपइट्ठामहोच्छवे" कीरते मिलिए पभूयलोगे समागओ नागदत्तो पहाणसयवत्तियाकुसुममालाभरिंयछज्जओ । एत्थंतरे वित्तं ण्हवणं जिणस्स । दिटुं जिणबिंबं तक्खणपइट्ठियं अईव आणंदकारयं नागदत्तेण । आणं- 10 दिओ चित्तेण । 'एस देवो' ति तुट्टो 'पूरमि सहत्थेण परमेसरं'ति जाओ परिणामो । लक्खिओ से भावो अइसयनाणिणा तप्पएसटिएण सीहरिणा जिणबिंबपइट्ठागएण । वाहरिओ गुरुणा- 'भद्द ! अच्चणीओ एस" भगवं संसारुच्छेयकारगो' । तओ अईव आणंदिओ नागदत्तो । पूइओ सहत्थेण भगवं भावसारं । परित्तीकओ संसारो संवेगाइसएण निबद्धं उत्तमभोगफलं सुहाणुबंधिकम्मं । अणुमोइयं पुणो पुणो गुरुणा । कया धम्मदेसणा। आविब्भूयं" से अवत्तसम्मइंसणं । गओ नियगेहे । पभायसमए पुप्फु-15 चयनिमित्तं संपत्तो नियमालए । अइगुविलसइवत्तियाछोडेसु पुप्फुच्चयं कुणंतो खद्धो सप्पेण । गओ" पंचत्तं । उववन्नो सोहम्मे पलिओवमाऊ देवो । आभोइओ पुवभवो । नायं जिणबिंबपूयाए फलमेयं ति । देवकिच्चं परिचज समागओ सोपारए अट्ठाहियामहोच्छवे" । पयडीभूओ देवो । साहिओ निययवुत्तंतो लोयस्स-अहो जिणपूयाए एरिसं महाफलं ति । दढधम्मा जिणबिंबपूयारया जाया पभूया पाणिणो । देवेण वि कया महिमा । अणुसासिओ गुरुणा । जायं विसुद्धं सम्मत्तं । तओ तित्थयरसमोसरणाइकरणेणं 20 जिणबिंबपूयणेण य निव्वत्तियं सुभतरं कम्मं । ततो देवलोगाओ आउक्खएणं एसो समुप्पण्णो तुम्ह पुत्तत्ताए । पुवब्भवब्भासाओ गब्भत्थस्स चेव जाया सुभा धम्ममई । एसो सो नागदत्तो जिणबिंबपूयाफलेण एरिसो सव्वजणहिययाणंदकारी संजाओ' ति । एवं भगवओ वयणं सोऊण ईहापोहं करेंतस्स जायं जाई. सरणं नागदत्तस्स । संजायपच्चओ भणिउमाढत्तो- 'अवितहमेयं सव्वं पच्चक्खीभूयं तुम्हाणुभावेणं' ति । एत्थंतरम्मि चिंतियं पउमसिरीए- 'अहो सच्चं वागरेइ भगवं, तं नूणं नत्थि जं न जाणइ । ता पुच्छामि 23 नियसंदेहं । कस्स कम्मविवागणं महेरहकुमारेण सह विओगं पावियम्हि । चिरजीविणो कीय वि पुण्णमंतीए" पुत्ता हवंति । किं पुण न मज्झ एवं' ति । पुट्ठो जहाचिंतियं धम्मनंदणसूरी । भणियं भगवया- 'सुणेहि साविए ! सुयविरहकारणंचंपाए नयरीए दो वणिया वयंसया चंद-चंदणाभिहाणा एगदिवसजाया सह वड्डिया अन्नोन्नाणुरचा निवसति । तत्थ य कामज्झया नाम गणिया का म स त्थ कुसला नवजोवणा अईव रूवसंपयाकलिया । परिवसइ । अन्नया चंद-चंदणाणं एगत्थ मिलियाणं मिहो कहासंलावे जाए - 'जन्नं सहस्संबवणे उज्जाणे 1A सेसदु। 2A 'मणो। 3A उवविट्ठो सव्वो। 4 A भूतले। 5A 'धम्म' नास्ति। 6B गयसंदेह । 7 B°जणस्स। 8 B निहणं । 9 'इमा' नास्ति BI 10A माणुसड्डी। 11 B°कारिए जिणाययणे। 12 B महूसवे। 13 'एस' नास्ति A। 14 A आविभूयं। 15 A°छिडेसु। 16 A मओ। 17 B महूसवे। 18 B पुन्नबंतीण । क०३ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनेश्वरसूरिकृत-कथाकोशप्रकरणे [३ गाथा कामज्झयाए गणियाए सद्धिं भोगाइं भुंजमाणा उज्जाणसिरिं पच्चणुभवामो'-अणुमयं दोण्हं पि । समाणत्ता कोडंबियपुरिसा - 'गच्छह सहसंबवणे उज्जाणे पोक्खरिणिपालितले एगं दारुमंडवं काउं संमजिओवलितं उल्लोयपुप्फहराभिरामं करेत्ता निवेएह' । अन्ने भणिया- 'असणाइयं उवक्खडेत्ता तस्थेव साहरह' । 'तह' त्ति संपाडियं तेहिं । तओ दो वि जाणवरं आरूढा । गया कामज्झयाए गेहं । .5 अब्भुट्ठिया तीए । भणियमणाए – 'सागयं भदाणं, आसणपरिग्गहेणं अणुगेण्हह' । भणियमणेहिं - 'तुमए सह उज्जाणसिरिं पच्चणुभविस्सामो' । 'तह' ति मण्णियं तीए । समारूढा जाणं । गया तत्थ । पोक्खरिणीए जलकीडं करित्ता चोक्खा सूइभूया मंडवतलमुवगया तमाहारमाहारेति । भुत्ता गहियतंबोला किंचि वि कालं मिहो “कहाहिं अच्छिऊण कामज्झयाए सह भोगाइं भुंजंति । जाव विगालसमओ। भणियं तेहिं-'उज्जाणं पेच्छामो' । पयट्टा दो वि वयंसगा । थेवभूमिभागं गया पिच्छंति “वच्छसाहाए 10 वणमऊरिं" भयभीयं । भणियं चंदणेण – 'भवियव्वमेत्थ कारणेणं, जं एसा अणिमिसाए दिट्ठीए अम्हे अवलोएइ' । गया ते तं चेव पएसं । केकारवं करेमाणा उड्डीणा सा। तत्तो दिवाइं तत्थ निरूवेंतेहि दोन्नि मऊरिअंडगाई। गया ते दो वि अंडए गहाय सगिहेसु । मऊरी वि आगया गएसु तेसु तं पएसं । ते अंडए अपेच्छमाणी मुच्छिज्जइ, पडइ, तल्लुविल्लियं करेइ, करुणकरुणाई कूवइ । तओ तप्पच्चयं बद्धं विओयवेयणिज कम्मं तेहिं वणियदारगेहिं । दाणवसणिणो य ते । तप्पञ्चयं बद्धं मणु15 याउयं भोगफलं च कम्मं । कालेण मया दो वि नियआउक्खए । तत्थ चंदजीवो एस महसेणराया जाओ । चंदणों पुण मणयं मायाववहारी, बंधित्ता इत्थिगोयं कम्मं, उववन्ना तुमं पउमसिरि ति । पुव्वनेहाणुभावेण समुदाइयवेयणिज्जत्तणउ कम्मस्स जाओ तुम्ह संजोगो। तक्कमुदयाओ जाओ मेहरहकुमारेण सह विओगो । ततो सूरिवयणसवणाणंतरं ईहापोहं करेंताणं तयावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमेणं दोण्हं पि उववन्नं जाईसरणं । निवडियाइं भगवओ पाएसु । भणिउमाढत्ताई - 'अवितहमेयं भंते 20 जं तुब्भे वयह' ति । पुणो भणियं पउमसिरीए – 'किं "नं भंते ! मेहरहकुमारेण "सकम्मं कयं जेण अप्पाउए जाए, उयाहु जं अम्हाणं विओयवेयणिजे कम्मे उदिण्णे तेण से मेहरहे अप्पाउए जाए?' ति। भणियं भगवया- 'भद्दे ! न परकीयं कम्मं अन्नस्स पहवइ । किं तु सयं कडाइं कम्माइं जीवा उवमुंजंति' । भणियं देवीए - 'किं नं भंते ! कम्मं तेण कयं जेण अप्पाउए जाए ? ति । ' भणियं भगवया- 'साविए ! एस पुत्वभवे मगहाविसए बंभाणगामे" नंदो नाम गाहावई अहेसि । 25 पयईए धम्मसद्धिओ दाणरूई । तओ णेण कारावियाई सत्तागाराइं; पयट्टावियाओ पवाओ । तेण दाणफलेणं भोगहलं बद्धं कम्मं । अणेगएगिंदियाइ जीवविहेडणाओ" अप्पाउए जाए । तओ कालमासे मओ, उववन्नो तुम्ह पुत्तत्ताए । संपयं मणुयाण वासकोडी परमाउयं । तस्स य मेहरहकुमारस्स दसवासलक्खाइं आउयं जायं । तुम्हावच्चत्तणे पत्ते भवियव्वयानिओगेण सम्मत्तं पावियं' ति- एयं सोऊण पडिबुद्धा बहवे पाणिणो । महसेणराया वि नागदत्तं रज्जेऽभिसिंचिय सह देवीए सामंतामच्चसत्थवाहाइ30 सहिओ निक्खंतो धम्मनंदणसूरिपायंतिए । पउमसिरी वि. अणेयसामंताइमहिलसहिया पव्वाविय समप्पिया फग्गुसिरीए मयहरियाए । अहि जिऊणं एकारस अंगाई, परिवालिऊणं निरइयारं सामण्णं, : 1 नास्ति 'उजाणे AT 2 B पुक्ख। 3 B°कीलं। 4 B सिट्ठकहाहिं। 5A तत्थ। 6 A वण मंजरिं। 7 A मंजरिअंडयाइं। 8 B आउयखए। 9 B चंदसेणो। 10A समुदाय। 11 A तं। 12 A से कम्मकए। 13 B विओगवेयणिजेणं से मेहरहे। 14 A बंभणिगामे। 15 B गाढावई। 16 A एगिंदियाए। 17 A°विहेडणयाए उ। Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या जिनपूजाविषयक-नागदत्तकथानकम् । गयाइं सुरलोग सव्वाणि वि । नागदत्तो वि जाओ पसाहियासेसमंडलो महाराया। निउत्ता सव्वट्ठाणेसु सावगा । सेससावगा वि कया उस्सुका अकरा अदंडा अचारभडप्पवेसा । देवयं पिव सम्माणणिज्जा । उस्सप्पंति जिणहरेसु रहजत्ताइमहूसवा; पूइज्जति साहुणो फासुयएसणिज्जेहिं असणाइएहिं वस्थपत्ताइएहिं य । उण्णइं पावियं सव्वन्नुसासणं नागदत्तराइणा । एवं वच्चइ कालो । जाओ सिरीए महादेवीए पुत्तो विजओ नाम । अहि जियकलो ठाविओ जुवरायपए ति । अन्नया अत्थाणासीणस्स राइणो समागओ उज्जाणपालगो सहयारमंजरिं गहाय, पडिहारनिवेइओ पविट्ठो रण्णो पायंतिए । समप्पिय चूयमंजरिं पायवडिओ विन्नवेइ – 'देव ! विरहिणीहिययतरुपरसू समुच्छलिओ परहुयासद्दो । दइयाविउत्तपहियचियासच्छहा जाया किंसुयनियरा । माणिणीमाणनिम्महणो वियंभिओ दाहिणानिलो । अओ देव ! समागओ मयरकेउणो अग्गाणीयाहिवई वसंतो । अओ देवो पमाणं । तहा, देव! कोहदावानलविज्झवणपोक्खलावत्तो, माणगिरिवज्जासणी, मायाकुडंगिनिसिय-10 परसू, लोहद्दहगिम्हमायंडो, चउदसपुव्वी चउनाणोवगओ अजिणो वि जिणो इव वागरंतो, समागओ दमघोसो नाम सूरी; तत्थेव उजाणे समोसढो' ति । तओ तिवलिभासुरं भिउडिं काउं "फुरफुरायमाणाहरेण कोववसविणिजंतझंकारपुरस्सरं अच्छोडिया चूयमंजरी कुट्टिमतले । भणियं च - 'अरे हय ! अपत्त भगवंताणं पच्छा साहेसि आगमणं, वसन्तागमणं पढमतरं साहेसि । अवसर दिट्ठिमग्गाओ। एस चेव ते दंडो, जं वसंतनिवेयणम्मि पारिओसियं तं नत्थि' त्ति । भणियमुजाणपालएणं- 'तेणं चिय भगवओ। पउत्तिनिवेयणफलं मज्झ तहट्ठियं चेव । जओ वसंतपउत्ती सामिणा अवहडा, ता पारिओसिआ साहुपउत्ती चेव 'चिट्ठइ' त्ति । तओ हसिऊण राइणा दावियं सुवण्णलक्खं । गओ सबलवाहणो राया वंदणवडियाए । वंदिय दमघोससूरिं, उवविठ्ठो उचियदेसे । समाढत्ता देसणा । अवि यअनियत्तारंभाणं बंधो असुहो तओ उ संसारो । असुहो सो पुण नरए ते पुण सत्तेव पण्णत्ता ।। सागरमेगं तिय सत्त दस य सत्तरस तह य बावीसा । तेत्तीसं जाव ठिई सत्तसु वि कमेण पुढवीसु॥ 20 __ तासु वि तिसु परमाहम्मियजणियं दुक्खं, अवरोप्परजणियं, खेतपच्चयं च । तितो य तिसु खेत्तपञ्चयं अवरोप्परजणियं च । एगमि य खेतपञ्चयमेवा । अच्छिनिमीलियमे नत्थि सुहं दुक्खमेव अणुबद्धं । नरए नेरइयाणं अहोनिसिं पच्चमाणाणं ।। मिच्छसमोहणीए अइदीहे पेलवे य वेयणिए । एगिदिएसु जीवा सुहुमा सुहुमेसु वचंति ॥ तत्थ य पजते [ °सु अ० ] पज्जत्तेसु वि तहा अणंतेसु । पज्जत्तापज्जचय"पत्तेयसरीरिसु तहेव ॥ पत्तेयसरीराणं वाऊपज्जत-सुहुम-इयराणं । उस्सप्पिणी असंखा कायठिइ वणम्मि उ अणंता ॥ वियलिंदिएसु भमिउं कालं संखेजयं सुदुक्खत्तो । पंचिंदिएसु गच्छइ तत्थ वि पावं समजिणइ ।। तत्तो गच्छइ नरए तत्थ य पुव्वुत्तयाइं दुक्खाई। तत्तो वि हु नीहरिउ पुणो वि तिरिएसु नरएसु ॥ अस्सण्णी खलु पढमं दोच्चं च सिरीसिवा तइय पक्खी । सीहा जंति चउत्थि उरगा पुण पंचमि पुढविं॥ छटिं च इत्थियाओं मच्छा मणुया य सत्चमि पुढविं । पुव्वुत्तमाउयं पुण सत्तसु वि कमेण नायचं ॥ मणुएसु वि उप्पण्णा जाएजाणारिएसु देसेसु । धम्मो त्ति अक्खराइं जत्थ न नजंति सुविणे वि ।। 1B वागरितो। 2 A काउं फुराय। 3A हर पत्त । 4 A परिसेसाओ। 5A बिइ त्ति। 6 B दवावियं। 7 A अयराणं। एतदन्तर्गतपाठस्थाने B आदर्श 'चउसु खित्तपच्चइयं अवरोप्परं जणियं च' एतादृशः पाठः समुपलभ्यते। 8 B संतत्तं। 9 B मोहणीयं अइदीहं पेलवं च वेयणियं। 10 B जीवा वयंति सुहमे सणं ते सु। 11 B पजत्तेयरबायर । Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० श्रीजिनेश्वरसूरिकृत-कथाकोशप्रकरणे [ २ गांधा पुण धम्मविणा पावं काऊण जंति नरएसु । तिरिए दुक्खिएसुं पुणरुत्तं एत्थ संसारे ॥ आरियदे से पत्ते जाइविहूणा य कुलविहूणा य । अंधा बहिरा पंगू दारिद्दभरहुया बहुसो || वाहिसयता वियंगा कुलप्पसूया वि अंधबहिराई । * होऊण कुत्थियंगा मिच्छत्तविमोहिया तह य ॥ न जिणो न य नेव्वाणं न य अप्पा कोइ भूयअइरित्ते । ता पुन्नपावसत्ता न काइ किं मे मुहा दिक्खा * ॥ ' एए अदिन्नदाणा अडंति भिक्खं गिहागिहं पावा । पासंडियवसवडिया एमाइ भणितु अवियड्डा || बंधंति पावभारं मंसे मज्जे य इत्थिसु पसत्ता । नाणारंभसयाई काउं गच्छति नरएसु ॥ ता भे महाणुभावा! दुलहो सव्वन्नुभासिओ धम्मो | मोक्खेकसाहणं पाविऊण मा सेवह पमायं ॥ मा रज्जह* विसएसुं पेरंतदुहावहेसु तुच्छेसु । कोडीए कागिणिं किं मुहाए नरनाह हारेसि ॥ एवं सोऊण पडिबुद्धा बहवे पाणिणो । भणियं नागदत्तराइणा - 'जाव विजयं कुमारं रज्जे अभि" सिंचामि, ताव करेमि सहलं माणुसत्तणं पवज्जापडिवत्तीए' । भणियं दमघोससूरिणा - 'अविग्धं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं करेसु' । गओ सगिहं । अहिसितो जेट्ठपुत्तो विजओ रायपए । अणुसासियो परियणो । समाढत्ता जत्ता' जिणाययणे । समाहूया सावगा । भणिया य - 'भो भो देवाणुप्पिया ! जाणह च्चिय तुठभे जहा दुलहं जिणाण वयणं 'संसाराडविगयाण सत्थाहतुल्लं, भवसमुद्दुत्तारणे जाणवत्तं, दारिद्दकंद कोद्दालं, " रागाइविसपरममंतो । तओ तं लद्धूण संसारदुहाण उच्छेयणे जइयवं । जेसिं पुण सरीरपरिकम्मणाविरहेण " अन्नेण वा कारणेण केणइ न पवज्जाए इच्छा अस्थि ", ते भणंतु जस्स जं नस्थि", पूरेमि मे वंछियं । करेह य सामाइयपोसहाइयं अणुट्ठाणं' ति । तओ जं जेण इच्छियं तं तस्स दाऊण, रहनिक्खमणं कारिय, 10 - arre साहम्मिए पपूइय, साहुणो पडिलाहिऊण फासुयएसणिज्जेहिं आहारेहिं वत्थकंबलपत्ताइएहिं, दाऊण किविणवणीमगाईण आघोसणापुव्वयं जमिच्छियं" दाणं, अइक्कंते" वित्ते, पव्वइओ महाविभूईए । जद्दिवसं पव्वइओ तद्दिवसमेव एयारिस अभिग्गहं गेण्हइ - 'गुरुअणुन्नाओ कप्पइ" मे जावज्जीवं 20 छ छट्ठेणं अनिक्खित्तेण तवोकम्मेणं विहरित्तए । पारणगदिणे वि कोद्दवकूरो उण्होदरणं आयंबिलेणं पारणयं कप्पइ मे णण्णह' ति । कमेण अब्भसिया सामायारी । अहीयाई एक्कारस अंगाई । तओ तेण पयत्तेणं हिएणं उरालेणं तवोकम्मेणं निम्मंससोणिए अट्ठिचम्मावसेसे कडकडेंतसंधिबंधणे यावि जाए, चिंतियमणेण - जाव अत्थि मे उट्ठाणपरक्कमे ताव करेमि पाओवगमणं । चिंतिय, गुरुं वंदिय, I पुच्छइ - 'तुब्भेहिं अब्भणुण्णाओ करेमि पाओवगमणं' । तओ गुरुणाऽणुण्णाओ [ समण° ] समणीओ य खामेइ । आलोइयपडिक्कतो गीयत्थसाहुसहिओ मेहघणसनिकास पव्वयमारुहह । विपुलं सिलापट्टयं पडिलेहेइ, पमज्जइ, संथारयं संथरइ, तत्थारुहइ, "पुरत्याभिमुहो निसीयइ । एवं भणइ - 'नमोत्थु णं अरहंताणं भगवंताणं' इत्यादि । नमोत्थु णं मम धम्मायरियस्स, धम्मोवएसगस्स, धम्मदायगस्स दमघोस सूरिणो । पुव्विपि य मए तस्स समीवे सव्वे पाणाइवाए जाव सव्वे परिग्गहे; तहा सव्वे कोहे जाव मिच्छादंसणसल्ले पच्चखाए । इयाणि पि तस्सेव पुरओ पच्चक्खामि सव्वं पाणाइवायं जाव परिग्गहं; सव्वं कोहं जाव 30 मिच्छादंसणसलं वोसिरामि । जं पि य इमं सरीरगं तं पि अ पच्छिमेहिं ऊसासनीसासेहिं घोसिरामि' त्ति कट्टु निसन्नो संथारए । तत्थ य वियुज्झमाणपरिणामो समारूढो खवगसेढिं । उप्पाडियं केवलनाणं । 1 25 1 B बिह्वीणा । *–* एतदन्तर्गता पंक्तिः पविता B आदर्शे । 2A °मयाई । 3B देखिओ। 4B रजहु । 5 B कागिनी । 6 B हारेह । 7 नास्ति ' जत्ता' B 8 B जिणाययणेसु । 9 B कंताराडइ° | 10 B कुदालं । 11 A अस्थि त्ति । 12 A नत्थि त्ति । 13 B किमिण° । 14 B नास्ति पदमेतत् । 15 A अइकंतो वत्ते । 16 नास्ति 'कप्पर में' B 17 B पुव्वाभिमुहो । t -1 एतचिहान्तर्गत पाठस्थाने B आदर्शे 'सव्वं पाणाइवायं जाव सध्वं परिग्गद्दं पच्चक्खायं' इत्येष पाठः । Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या ] जिनपूजाविषयक-जिनदत्तकथानकम् । समारूढो सेलेसिं । पत्तो चरिमुस्सासनीसासेहिं मोक्खं ति । समागया धरणिंदाइया देवा । निवडिया पुप्फवुट्ठी । वुटुं गंधोदयं । आहयाइं तूराइं । 'अहो! आराहियंति उच्छलिओ देवसहो । संकारियं देवेहिं से कडेवरं ति । तओ जइ पूयाए जिणाणं भावओ कीरमाणाए एसफलविवागो, तओ बुद्धिमया तत्थेव जइयव्वं ति उवएसो । ॥ नागदत्तकथानकं समाप्तम् ॥ २॥ न केवलं भावसारपूजाया एष गुणः, किन्तु पूजाप्रणिधानेनापीति दर्शयितुमाह - पूयापणिहाणेण वि जीवो सुरसंपयं समजिणइ । जिणदत्त-सूरसेणा-सिरिमाली-रोरनारि व्व ॥ ४ ॥ व्याख्या- 'पूजाप्रणिधानेनापि'-सपर्याचिन्तनेनापि, 'जीव' - सत्त्वः, 'सुरसम्पद'-देवलक्ष्मीम् , 'उपार्जयति' -प्राप्नोति । किं वदित्याह - 'जिनदत्त-सूरसेना-श्रीमालि-रोरनार्य इव । इव ॥ शब्दः प्रत्येकं सम्बध्यते, उपमानवाचकः । जिनदत्त इव, सुरसेनेवेत्यादि । भावार्थः कथानकेभ्योऽवसेयः। तत्रापि तावदाचं जिनदत्तकथानकमुच्यते -०३. जिनदत्तकथानकम् ।वसन्तपुरे पउमरहो राया । पउमावई से देवी । तीए पउमसिरी धूया । तत्थैव नयरे धणसत्यवाहस्स धणदेवीभारियाए धणसिरी नाम धूया । ताओ य दो वि पउमसिरी-धणसिरीओ एगदिवस- 15 जायाओ एगपंसुकीलियाओ एगत्थाहिजियाओ ति अवरोप्परं 'निब्भरनेहाणुरायरचाओ जायाओ वयंसियाओ । पत्तजोषणा पउमसिरी परिणीया कुसुमपुरे पउमप्पहरन्नो कमलावईए देवीए पुचेण पउमकेसरकुमारेण । तत्थेव नयरे धणावहेण जिणदासइब्मपुत्तेण परिणीया धणसिरी । दोन्नि वि गयाओ ससुरकुलेसु । पियाओ निय-नियदइयाणं परोप्परं सिणेहजुत्ताओ कालमइवाहेति । __ अन्नया कालगते पउमप्पहनिवे जाओ पउमकेसरो राया । धणावहो वि जणए परोक्खीभूए जाबो 20 सेट्ठी । धणसिरी वि गिहसामिणी जाया। कमेण य जाया पुत्ता चत्वारि धणसिरीए । पउमसिरी वि जाया अग्गमहिंसी । सा पुण पुत्वकयकम्मवसओ जाया मरंतवियाइणी । परितप्पइ गाढं । पुच्छह जाणए -- 'कहं पया थिरा हवई' ति करेह तब्भणियाई, न य से कोई विसेसो जायइ । धणसिरी वि गच्छद तीसे गिहे । सा य तीसे पुरओ रोयइ दुक्खिया । भणियं धणसिरीए एगते-'भयणि ! मा रुयह । अहं निच्छएणं पुत्तं पसवामि, तो संपयं जो जम्मिही, तं ते दाहामि । जओ समगं चेव गम्भ- 23 दिवसो अम्हाणं । पसवणसमओ वि तदणुरूवो संभावियइ । ता पच्छन्नमेव नियजायं मम समप्पणीयं । अहं पि निययं तुह पयच्छिस्सं ति । नवरं मा संसारे पडिही रज्जसिरीमोहिओ, ता से जिणदत्तो वि नाम कायवं । जेण नामाणुसारं किरियं करेइ' । पडिवन्नं तीए । अन्नया दिव्वजोगेण समगमेव पसूयाओ दोनि वि । तओ देवीए वाहरिया अम्बधाई । सिट्ठो वुत्तो । धणं' होज्जासि ति भणिम समप्पियं मयडिम्भरूवं । गया सा तं गहाय धणसिरीए समीवं । तीए वि समप्पिओ पुत्तो, तं मयगं. गहाय । आगया धावी दारगं गहाय । समप्पिओ देवीए दारगो पच्छन्नमेव । ताव य समाणताओ 1A तित्थयरनेहाणु। 2B समगेणं। 3 Bवाहराविय। 4 Bपुव्ववृत्तंतो। 5Bवणं। 6A नास्ति 'मव। Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૨ श्रीजिनेश्वरसूरिकृत-कथाकोशप्रकरणे [४ गाथा दासचेडीओ- 'रायाणं वद्धावेह जीवंतो दारगो जाओ' ति । पहावियाओ समकालभृरिदासीओ ति । अवि य एक्का गरुयपओहरदुबहउबहणसुढियसवंगी । तूरंती वि न सक्कइ गंतुं सहस ति रायकुलं ॥ गरुयनियंबा एक्का तणुई दुवहपयोहरा बाला । भंगभएण न धावइ परिलंबंती न संपत्ता ॥ नेउर-अंड्डय-संकल-दुबहउव्वहणखलियगइमग्गा । धावंती वि न पत्ता ठियंतराले रुयंती उ॥ घणवट्टाहयहारुच्छलंतसंरुद्धदिद्विपसरा उ । आहुडइ पडइ धावइ रायउलं ने य संपत्ता ॥ अहिणवबोहियमयणा तरलच्छी तरलगमणदक्खा उ । पत्ता रायसमीवं 'विजयउ देवो' इमं भणइ॥ पउमसिरीए सामिय ! देवकुमारोवमो सुओ जाओ। ता देवपायपुरओ पियं निवेएमि अवियप्पं ।। तओ रन्ना हरिसवसविसट्टाणणेण धोयं सयं से मत्थयं । दिण्णं संखाइयं पारितोसियं दाणं । " समाढत्तं वद्धावणयं । अवि य गहिरसरतूरसदं वियंभमाणं दिसासु सोऊण । उत्तट्ठा व दिसिगया समासिया दूरदेसम्मि ॥ वीणावेणुविलासिणिगीयरवुम्मीसमुखसद्देण । ववहरइ जणो सण्णाए तत्थ संरुद्धसुइविवरो॥ मइरामत्तविलासिणिबहुकरणवियड्डनट्टसमयम्मि । थरहरइ धरासेसो जाओ तह सावसेसु ति ॥ पिट्ठावयरेणुसमुच्छलंतसंरुद्धसुरपहाभोए । रविणो अपत्तपसरा किरणा लज्जा इव विलीणा ।। डझंतागुरुचंदणनयलपसरंतधूमपडलेणं । मुच्छिज्जंति घणागमसंकाए पउत्थवइयाओ ॥ एवं च अइकंते वद्धावणए, ठिइवडियं करेंताणं वित्त असुईए, संपत्ते बारसाहे, भुंजावियं सयणवगं । तस्सेव पुरओ नाम काउं उज्जए नरनाहे भणियं देवीए - 'जिणदत्तो त्ति कीरउ नाम' । भणियं रन्ना'देवि! न अम्हाण पुव्वपुरिसाण एसा उली । ता किमेयं ति?' । भणियं देवीए - 'देव! नाणाविहेसु देवेसु उववाइएण न जायं किंचि फलं । तओ मए जिणो उववाइओ, ताव य एसो जीवंतो जाइओ । 20 ततो तेण दिनो, अओ जिण द त्तो त्ति नाम कीरउ । मणियं रण्णा । कयं से नामं जिणदत्तो ति । पंचधाइपरिग्गहिओ वड्डिउमाढत्तो । कालेण जाओ अहवारिसिओ। समप्पिओ लेहायरियस्स सोहण दिणे। बारसहिं वरिसेहिं निस्सेसियाओ कलाओ गहियाओ । इओ य उम्माहिया देवी पुत्तस्स । करयलनि-म्मियकवोला असूणि मुयमाणी दिट्ठा अंगपरिचारियाए । पुच्छिया तीए- 'सामिणि ! किमेयं ?' । न देइ उत्तरं देवी । ताहे निवेइयं तीए रन्नो । समागओ राया । दिट्ठा तदवत्था देवी । भणियमणेण - 25 'देवि! किमेयं ', न साहइ किंचि । भणियं रन्ना - 'मण्णे अणरिहो अहं एयस्स अट्ठस्स सवण याए । भणियं देवीए-'देव! न स केइ अद्वे रहस्से वा, जस्स अणरिहा तुब्भे सवणयाए । ता सुणेह ताव, मम पुत्ता चेव न जीविया । जिणप्पसाएण एस एगे सुए जीविए, तस्स वि बारसमो संवच्छरो अदिट्ठस्स, ता किं मम जीविएणं' ति । तओ देवीसंभारियसुयविरहानलो आउलीहूओ राया । समाणत्तो नेमित्तिओ- 'लेहसालाओ जिणदत्तकुमारस्स घरागमणवासरं निरूवेहि' । निरूविय भणियमणेण30 'देव! सबोवाहिविसुद्धो कल्ले पहरमेते कुमारस्स देवपायदंसणावसरो' त्ति । आणत्ता आरक्खिया'नगरं संमजिउवलितं, ऊसियपडागं करावेह । कल्ले पहरमेत्ते पेसह नयरदेवयाणं बलीओ । समाढ वेजह वद्धावणयं' । भणाविओ लेहायरिओ- 'कल्ले अमुगवेलाए कुमारं गहिऊण रायसमीवमागंतवं । ' कह कह वि वोलीणं तं दिणं, राई य । पञ्चसे निसन्नो अस्थाणमंडवे राया । रयावियं कुमारस्स • 1A इमा। 2A नास्ति 'सयं'। 3A नास्ति। 4 B संवच्छरेहिं। 5 B °पडियारियाए। 6 B तयवत्था। 7 'वासरं' नास्ति BI 8 B 'भणिय' नास्ति । Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या ] जिनपूजाविषयक-जिनदत्तकथानकम् । वरासणं, कलासूरिणो य । समागया मंतिसामंतादओ इट्ठवेलाए । बहुभट्टघट्टथुवंतो कलारिसमेओ समागओ कुमारो । पणमिओ राया। 'दावियमासणं सूरिणो। निवेसिओ उच्छंगे कुमारो। निरूवि. उमाढत्तो राया कुमारं । जाव पेच्छइ वामखंधसिहरं वीणादंडेण घटुं । तज्जणियउवरिमभागं कणिट्ठियाअहोभागं च पडियं अट्टणं । नायं वीणाए छुरियाए य अस्थि अब्भासो । पेच्छइ मज्झिमतज्जणियपेरंतेसु अट्टणाई । नायं अत्थि कोदंडे अब्भासो । पडिघट्टियाइं पासाई दह्रण नायं जं कुंते अस्थि । पयरिसो। सरीरस्स निम्महंतपरिमलमुवलब्भ नायं गंधजुत्तीए वियड्ढो । पूरियासेसतक्कुओ ति नायं रसजुत्तीए वियड्डो त्ति । रंगयारत्तनहग्गं दद्रूण नायं चित्तकलानिउणो ति । परिसुद्धपयच्छंदालंकारगभं वयणमुवलब्भ नायं एएसु निउणो ति । तओ निरूवियाई मंतिसामंतनयरनायगाणं मुहाई । भणियमेएहिं - 'देवपायाणुमयाणं किं निरूवियन्वमस्थि । लोगच्छेरयभूया देवपायारिहा भवंति' । पुट्ठो कलासूरी'उवज्झाय ! गहियाओ कुमारेण कलाओ?' । भणियमुवज्झाएण- 'देव ! सच्चं भणामि ?' । भणियं ॥ राइणा- 'को मुसावायकालो ?' । 'ता देव! न गहियाओ कलाओ' । तओ राइणा चिंतियं- 'हा किमेयं ? - कलागाहिणो लक्खणाई ताव दीसंति, एसो पुण वाहरइ न गहियाओ । ता किमेयमवरोप्परविरुद्धं ति । भणियं रन्ना- 'उवज्झाय ! अधरियासेसधीधणस्स तुज्झ सीसपयमुवगम्म कुमारेण न गहियाओ कलाओ, किमेत्थ कारणं ? । नवरं कुमारो अजोग्गो दुव्विणीओ वा भविस्सइ' त्ति । भणियमुवज्झाएण-'मा मा देवो एवं समुल्लवउ; कुमाराउ को अण्णो उचियपवित्तिकारगो?' । भणियं रन्ना- 'ता कहं न । गहियाओ कलाओ?' । भणियमुवज्झाएणं- 'देव ! अणुरूवा(व ?)वरविरहियाहिं कुलकण्णगाहिं व कलाहिं देव! सयंवराहिं गहिओ कुमारो' त्ति । तं सोउं तुट्ठो राया। दावियं पारितोसियं कुमारसूरिणो। भणिओ कुमारो- 'पुत्त ! तुह विरहानलपलित्तंतकरणं नियदंसणासारेण नियत्तसंतावं करेहि नियमायरं' ति । पणमिय रायपायकमलो पत्तो जणणीए गिहं । पणमिया जणणी । कयं ओवारणयं तीए । निवेसिओ उच्छंगे । चुंबिओ उत्तिमंगे । भणियं च - 'पुत्त ! कढिणवज्जसिलायलघडियं ते माऊए 20 हिययं, जा तुह विरहे वि पाणे धरेइ' । भणियं कुमारेण - 'अंब! दिव्वगईवसगस्स को मम अव- .. राहो ?' । एयावसरे समागतो पडिहारो । भणइ - 'कुमार ! देवो समाइसइ-जियसत्तुणा महारायस्स पियदसणा नाम दिारिया समागया सयंवरा । सा राहं विधिऊण परिणेयव्वा । ता वाहरह कुमारं' ति । आपुच्छिय जणणिं उट्ठिय पत्तो जणयसगासं । भणियं रन्ना- 'पुत्त ! सयंवरा राहं विधिऊण परिणेयव्वा । ता किं सा इच्छिज्जउ, उयाहु किंपि कारणं भणिउं परिहरिजउ' । भणियं कुमारेण - 25 'जइ अदुट्ठलक्खणा, किं परिहरिजई' त्ति । कया तीए उचियपडिवत्ती । दाविओ आवासो । पेसियं भोयणाइयं । भोयणावसाणे य समागओ तीए महंतगो विमलो नाम । सुहासणत्येण भणियं विमलेण – 'देव ! जिणदत्तकुमारस्स जियसतुणा सयंवरा पेसिया पियदंसणा नाम धूया । सा य धणुकलाए रंजिया परिणेयव्वा' । भणियं कुमारेण - 'जो जत्थ लद्धमाहप्पो होइ सो तबिसए परिक्खं करेइ । इत्थीए पुण गंधव्वाइयाओ कलाओ इच्छिज्जंति, न धणुकला; ता किमेयं ? । भणियं विमलेण-'कुमार ! . सेसकलाहिं परिच्छिय धणुकलाए परिच्छियव्वो सि । जम्हा धणुकलाहीणस्स न रजं निव्वहई । भणियं कुमारेण- 'किं असि-कुंत-चक्क-सत्तिमाइयाई न होंति रजसिरीए रक्खगाइं । भणियं विमलेण'कुमार ! भारहे वि धणुद्धरस्स पाहण्णं दिण्णं', ता किं कुमारो एवं भणइ ? । अब्भत्थो य तीए 1B दवावियं। 2 'राया' नास्ति B1 3 B पणयराय। +-एतद्दण्डातगताः पंक्तयः पतिताः A आदर्श । 4 B रक्खाई। 5 B नास्ति 'दिण्णं'। . Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ श्रीजिनेश्वरसूरिकृत-कथाकोशप्रकरणे [• गाथा धणुब्वेदो सुत्तओ, किरियाए वि किंचि किंचि' । भणियं रन्ना - 'पुत्त ! जहिच्छियं संपाडिजउ तीए'। मण्णियं कुमारेण । निरूवियमक्खाडयं, बद्धा मंचा, निहओ नालो, समारोवियाइं तस्सुवरिं अट्ठ चक्काई ईसि भमंताई । बीयदिवसे गओ राया सबलवाहणो ससामंत-महंतनायरो सह देवीपमुहंतेउरेण । समागया सव्वालंकारविभूसिया पियदंसणा। भणियमणाए - ‘मंचाहिंतो अजउत्तो इहागच्छउ' । गओ 'सो तत्थ । भणियं पियदसणाए- 'अजउत्त! पत्तच्छेज्जं दंसेहि' । दंसियं । एवं-चित्त-लेह-गंधजुत्तिपमुहेसु पुच्छिओ, निव्वूढो य । 'अजउत्त ! धणुकलं दंसेहि केत्तिय पयसंठाणा, कम्मि व कइ वा हवंति संधाणा । दंसेऊणं मज्झं विवसु राहं पयत्तेण ॥ भणियं कुमारेण- 'आलीढ-पञ्चालीढ-सीहासण-मंडलावत्तेसु सातको' नाओ। पच्चालीढ-गरुडासणविनायकपय-मंडूकासण-वाराह-उभयवाराह-हणुमंत-आहेसर-नट्टारंभेसु वा रिसिकन्नो नातो । एएसु " चेव चलिए धणुए भरहो नाओ । विण्हुपए छंदो नाओ । जंघपए भरहो नाओ । एएसु पयट्ठाणेसु एयाई संघाणद्वाणाई भवंति' । एमाइ सवित्थरं सोऊण तुट्ठा पियदंसणा। भणियमणाए - 'अजउत्त! उपरिमचक्के जा पुत्तिलिया तं वामअच्छीए विंधसु' । विद्धा सा तेण । उढिओ जयजयसहो । समुट्ठाइओ कलयलो । तुट्ठा जणणि-जणया । तओ वरमालाए उमालिओ कुमारो पियदसणाए । निरूवियं लग्गं । परिणीया जहाविहिणा । कारिओ पासाओ। समप्पिओ जिणदत्तस्स । वद्धावणए समागतो धणा15 बहो धणसिरी य । पूइओ पहाणवत्थाभरणेहिं राया सह देवीए पुत्तसुण्हाहिं । भणियं देवीए- 'तुम्हाण चेय एयं वद्धावणयं' ति । राया धणावहो य जाणंति-पीइसब्भावं देवी दंसेइ । भणियं देवीए - 'पुत्त ! मम निव्विसेसं धणसिरी दट्ठन्वा, धणावहो पुण पिउणो निव्विसेसो ति । वाया पडिवन्ना वि तह त्ति दहव्वा' । भणियं कुमारेण - 'जमाणवेइ अंबा' । एवं जिणदत्तकुमारस्स पियदंसणाए सह विसयसुहमणुहवंतस्स बच्चइ कालो। 20 अण्णया समागया सहसंक्वणउज्जाणे जयाभिहाणा सूरिणो । परिसा निग्गया । गतो धणावहो धणसिरी य वंदणवडियाए । कहिओ धम्मो । पडिबुद्धा पाणिणो । जाया चरणपडिवत्तिसद्धा धणावहधणसिरीणं । गया णियगेहे । समाहूओ राया जिणदत्तो पउमसिरी य । सम्माणियाइं उचियपडिवत्तीए । सिट्ठो निययाभिप्पाओ-'ता एयं धणधनं जेहपुत्तं कुडंबभारे ठवेत्ता अम्हे पव्वइस्सामो । एस तुम्हाणं उच्छंगे पक्खित्तो' । भणियमियरेहिं - 'जं अम्हाणं अत्थि तं एयस्स साहीणं' ति । महाविभूईए पवइओ घणावहो धणसिरी य । लओ रयणावलि-मुत्तावलि-भद्द-महाभद्द-सिहनिक्की लियाइतबोकम्मेहि य अप्पाणं भाविऊण, तीसं वरिसाइं सामण्णं परियागं पाउणिता, आलोइय पडिकंताई कालं काउं गयाइं सुरलोगं ति। राइणो पउमकेसरस्स भवियव्वयावसेणं उप्पण्णो वाही । आवाहिया वेजा, किरियं करेंति । न जाओ गुणो सन्वायरलग्गाण वि। तओ पच्चक्खाओ वेजेहिं अधारणिजमिति कट्ट। अहिसित्तो जिणदत्तो 30 रायपए । जाओ महारातो । पउमकेसरो वि अभिभूओ अईव कुट्ठवाहीए । तओ भणिओ जिणयत्तेण'ताय ! धम्मेण धणं वियरह' । सो य पयईए निद्धम्मो । तओ भणियमणेण- 'पुत्त ! किं धणेण धम्मो लब्भइ, सेसमंडोवगरणं वा । ता वच्छ! पयारिओ केणावि' । कओ आगारसंवरो जिणदत्तरन्ना । पउमकेसरो वि रज्जे रहे य मुच्छिओ मओ, गओ पढमपुढवीए । कयं नीहरणं । पउमसिरी अणुमरंती 1 B सत्तको। 2 B एएसु य ठाणेसु। 3 B नास्ति । 4 B महाराओ। Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या ] जिनपूजाविषयक - जिनदत्तकथानकम् । २५ महया किच्छेण वि धरिया' परियणेण । कयाइं मयकिचाइं । कालेण य विगयसोगीभूया देवी राया य । एवं वचइ कालो । I अन्नया य' तियससंघसंथुव्वमाणो अणेयसीसपरियरिओ पच्चक्खी कय असे सदवभावपज्जयो समागओ अमियतेओ नामा केवली । जाओ जणे पवाओ । तओ जिणदत्तराया भत्तिकोऊहले हिं" निम्गओ सविडीए जणणीए अंतेउरेण य समेओ भयवओ 'वंदणवडियाए । वंदिय उबविट्ठा सव्वे वि उचिठाणे | भगवया वि पत्थुया धम्मदेसणा, संसारासारत्तणं मोक्खसुहस्स य अणोवमत्तं दंसयंती । तओ पडिबुद्धा पाणिणो, जिणदत्तस्स वि भिन्नो मोहगंठी । आविब्भूयं सम्मत्तं । असेससत्ताण संसय - वोच्छितिं दट्ठूण मणोगए वि भावे अवितहं कहेमाणं केवलिमवलोइऊण पुच्छियं" रन्ना - 'भयवं ! मम पिया कहिं गओ' त्ति । भगवया भणियं - 'भद्द! निरइयारसामण्णस्स फलं जइ तब्भवेण मोक्खो न हो, तो सुरलोगो नियमेणं ति । तव जणणि-जणगाणि य" सामण्णं काउं गयाणि सुरलोगं' । तओ 10 चिंतियं रन्ना - 'अहो ! किमेयमवरोप्परविरुद्धं ? । एते" य विरुद्धं न भासंति । ता किं मया अण्णहाऽवधारियमेयं ति । ता पुणो वि" पुच्छामि " । भणियं रन्ना - ' भयवं ! मम पिया रज्जे रट्ठे य मुच्छिओ अनियत्तपावारंभो, तस्स कुओ पबजापालणं ति । माया पुण एसा " जीवंतिया चेव चिट्ठइ, ता कहमेयं ?' ति । भणियं भगवया - 'भद्द ! तुह घणावहो पिया, घणसिरी माया । न पुण" पउमकेसरो जणओ, एसा वि पउमसिरी जणणी व' त्ति । साहिओ पुत्रवुत्तंतो । मण्णियं सवं पउमसिरीए । 15 तओ भणियं रन्ना - 'भयवं ! किं मए अन्नजम्मे कयं जेणाहं राया जाओ, न सेसा ताण पुत्त ?' त्ति । भणियं केवलिणा – 'भद्द ! " निसामेह - 1 वसंत पुरे नगरे गणाइच्चो नाम अलग्गओ आसि । देहडी से भारिया । ताणं जसाइच्चो नाम खुडलगो" पुत्तो । अण्णया मओ गणाइच्चो । वित्तिरहिया सीयंती देहडी परघरेसु कम्मं काउमारद्धा । जसाइच्चो वच्छए रक्खाविज्जइ, न रक्खइ; परडिंभाण य जं पेच्छइ तं नियमायरं मग्गइ | अंबाडिओ 20 जणणीए । रोवंतो निग्गओ गेहाओ । पत्तो रायमग्गं । दिट्ठो य सागरस्स सेट्ठिणो पुत्तो घणो मयरंदुद्दाम विट्टहारिमहुयरी विसराणुगम्ममाणमग्गपुप्फछज्जियावावडकरो, घणसारुम्मी ससरस गोसीसभायणसंगओ, वियंभंतामोयसुगंधीकयरच्छा मुहगंधपरिग्गहो चंदणागरुकप्पूरसंजोय जणियधूयाइपूयंग " जुत्तो जिणाययणे" वश्चंतो । चिंतियं जसाइच्चेण - कहिं मण्णे" एस गच्छिही ? । मया वि तत्थेव गंतव्वं । गओ घणो चेइयहरे । कया पवेसनिसीहिया । पविट्ठो ठावियमेगत्थ पूओवगरणं, पमज्जिय धरणीयलं निवेसिओ 25 तिक्खुत्तो मुद्धा | कयाओ तिण्णि पयाहिणाओ " । मुहं संजमिय पविट्ठो गब्भहरे । निम्मल्लियं च भगबओ उसभनाहस्स बिंबं । विलितं गोसीसचंदणेण । पूइयं पहाण कुसुमेहिं । पक्खित्ता सुगंधिगंधा । समुक्खित्तो सयलजिणाययणमाऊरें तो गंधुद्धुरो धूवो । कयं "सुगंधिसालितंदुलेहिं जिणपुरओ सोत्थियाइ समालिहणं । चिंतियं जसाइच्चेण - अहो ! पुन्नवंतो एस पुरिसो, जो देवाणं एवं पूयं करेइ । देवाण वि एस एव देवो, जम्हा असाहारणगुणेहिं पूयणीओ होइ । जओ - 1 1 B धीरिया । 2 A अन्नया तियसंघ' । 3 A कोउहल्लेणं । 4 'य' नास्ति A 5 B वंदना । 6A नास्ति 'तओ' । 7 'संसय' नास्ति AI 8 A मणोवि । 9 B मा । 10 A पुच्छिउं । 11 B 'जणगा य । 12 B एएय । 13 'वि' नास्ति B 14 B पुच्छिस्सामि । 15 A सा । 16 B उण । t -1 एतदन्तर्गतान्यक्षराणि पतितानि 19 B धूयाइ 17 B आदर्शे । 21 B मत्ते A निसामेहि | 22 B पयाहियाओ । 18 B खुट्टुलओ । 23 A सुगंध । यापू 20 B व्ययणेसु । क० ४ । 30 Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ श्रीजिनेश्वरसूरिकृत-कथाकोशप्रकरणे [४ गाथा रागद्दोसवसट्टा कामग्गहमोहिया य अन्नाणा' । संसारमणुसरंता देवं पूयंति दुक्खत्ता ॥ देवो वि तहारूवो कत्तो ताणं तओ उ एतसिं । तोसियजूयारियलच्छिपतितुलं इमं नेयं ॥ एवं विहस्स एवं विहाउ पूर्य करेंति जे निच्चं । ताण कयत्थं जम्मं अन्ने संसारदुक्खफला ॥ कत्तो मणोरहो वि हु मज्झमभागस्स ईइसे देवे । एवंविहपूयाए करणम्मि अपुण्णवंतस्स ॥ कइया होही दियहं जम्मि अहं एरिसं महापूयं । देवाहिवस्स सम्मं एयस्स करेज भत्तीए ॥ तओ उत्तमगुणाणुरागाओ निबद्धमुच्चागोयं मणुयाउयं पहाणभोगा य । सुइरं अच्छिऊण इओ तओ हिंडिऊण भोयणत्थी गओ जणणीसमीवे । भणियमणेण - 'भोयणं मे देहि' । भणियं देहडीए – 'वच्छ ! वच्छए न रक्खसि, कुओ मे भोयणं' । उढिओ तत्तो अवमाणेण, पयट्टो एगं दिसं गहाय पडिओ अडवीए । दिट्ठो तत्थ फलभारेण' णओ किंपागतरू । भुक्खिएण भक्खियाई फलाइं । पसुत्तो तस्सेव तले । 10 विसफलभक्खणेण गओ पंचत्तं । चेइयपूयापसंसणनिबद्धभोगो उववण्णो धणसिरीए कुच्छिसि त्ति । तओ ईहापोहं करेंतस्स जायं जाइसरणं । पञ्चक्खीभूयं सव्वं । तओ पायवडिओ भणिउमाढत्तो- 'अहो! भगवंताणं पूयामाहप्पचिंतिएण वि एरिसं फलं' ति । तओ गाढतरं लोगो पूयाए उज्जमपरो जाओ। वंदिऊण भगवंतं गया सव्वे सट्ठाणेसु । जिणदत्तरन्ना भणिया पउमसिरी- 'अम्मो जइ पुत्वभवजणणि आणावेमि, ता किं जुत्तमजुत्तं वा ?' । भणियं पउमसिरीए- 'पुत्त ! जुत्तं, आणाविऊण धम्मे निजोइ15 जइ । 'इष्टं धर्मे नियोजये' इति जनप्रवादात्' । पुणो भणियं रन्ना - 'अम्मो जइ ता पूयाए चिंत णस्स वि एवंविहं फलं ता तुमं सव्विद्धीए भगवंताणं तित्थगराणं पूर्व करेसु, साहूण य फासुय-एसणिजं भत्तपाणोवगरणाइयं देजासु । अम्हे" रायसिरीण विनडिया कुओ एवं करिस्सामो?' । भणियं पउमसिरीए - 'पुत्त ! पव्वजं करेमि अहं' । भणियं रन्ना- 'किमेत्थ भणामि । जं तुम्मे करिस्ससि, तं पिट्ठओ अहं पि करिस्सामि । तुम्ह" विरहे किं मम घरवासेण । तुम मम विओयं पुव्वं न सहंती, 20 ता कहमियाणि पि सहिस्ससि । ता सव्वहा गिहत्थपाउग्गं धम्मं करेसु' त्ति । पेसिया आसवारा वसंत पुरे, भणिया य ते तेण- 'तत्थ गंतूण परपेसणकारियं देहडिं नाम रोरमहिलं पुच्छेजाह, तं उवलब्भ भणेज्जाह - अम्हे तुह आवाहया आगया, जसाइच्चेण पेसिया । जसाइच्चो राया जाओ। तुम सिग्घमागच्छाहि' । गया ते, आगया तं गहाय । सम्माणिया य सा । दिण्णं घरं, भूरि धणं, दासीओ य। भणिया य– 'अम्मो ! धम्मं करेह । पूयाकरणचिंतणेण मए रजं पत्तं; ता तुमं जिणपूयं करेसु । दाणं देसु साहूणं' । पडिस्सुयं तीए । धणधम्मो वाहरित्ता भणिओ- 'भद्द ! तुम मम भाया; ता मे जं नत्थि तं भणसु, जेण संपाडेमि' । तेण भणियं - 'सव्वं पुज्जइ संतोससारस्स, किं च नत्थि जं कुटुंबभारे ठवेमि । अन्नहा पध्वजं करेज्जा' । भणियं रन्ना- 'जो पव्वजं करेइ सो विरत्तकुटुंबाइकज्जो करेइ । ता किं भे कुटुंबचिंताए । भणियं धणधम्मेण - ‘मा मा एवं भणसु । एवं करेंताण सम्वन्नुणो" सासणं मइलिज्जइ । अविहीए मुक्कं कुटुंबयं सीयइ । सीयंतं अकजं करेइ । तओ लोगो भणेजा30 पेच्छह पाविटेण कहं कयं कुटुंबयं । किह सो सम्वन्न , जो एवं कुटुंबयं विनडिय धम्मं करावेइ । तो विसेसलोगा संसारे पाडिया होज्जा । अओ "झाडपरिवाहेणावि जो तुरियउ सो तुरियउ चेव"त्ति पेसिओ 1 A अन्नाणी। 2A तओ त्ति। 3A एयं। 4 B मज्झमभग्गस्स एरिसे। 5A करणं पि। 6 B तओ। 7 A फलभरो। 8 A तत्थेव। 9A जाई। 10 Bहूयं । 11 A अम्हं। 12 A रायसिरी । 13 Aजओ। 14 A तुज्झ। 15 B सव्वन्नुसा। 16B कुडंबं । “अड...डपरिवाहेणी वि तुरितो सो तुरिओ चेव त्ति"-इति A आदर्शस्थितः पाठः। Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या ] जिनपूजाविषयक-सूरसेनाकथानकम् । सगिहं धणधम्मो । जं किंचि कज्जं तं मम कहेयव्वं' -ति भणिऊण जिणदत्तराया वि केवलिसमीवे पवण्णो दुवालसविहं गिहिधम्मं । पालेइ जहाविहीए । पूएइ. तिकालं जिणबिंबे । पडिलाहेइ साहुणो । अदंडकरभरा कया सावया । घोसावियं नयरे - 'जिणधम्मपरस्स सावयलोयस्स जं न पुज्जइ तं मम भंडाराउ' घेत्तव्वं, न विसीयव्वं' ति । एवं बहुकालं सावगधम्मं पालिऊण गओ सुरलोगं जिणदत्तो । अओ भण्णइ पूयापणिहाणेण वि जीवो सुरसंपयं समज्जेइ त्ति । जइ वि मणुयभवंतरिओ सुरलोगो जाओ तहावि तं चिय । निबंधणं सूरसेणा-सिरिमालीणं सम्मत्तपत्तीए' अणंतरं सुरलोयगमणं न विरुज्झइ त्ति । ॥ जिनदत्तकथानकं समाप्तम् ॥३॥ ०४. सूरसेनाकथानकम् ।___ सांप्रतं सूरसेना-खिइपइट्ठियं नयरं । तत्थ मेहो राया । पियंगुलया से देवी । तीए सह विसयसुहमणुहवंतस्स वच्चइ कालो । सा वि' अवियाउरी परितप्पइ पुत्तकए । अण्णया करयलमलिया इव 10 कमलमाला नित्तेया परिसुसियसरीरा करयलपल्हत्थकवोला असूणि मुयमाणी दिट्ठा अंबधावीए । पुट्ठा य- 'पुत्ति ! किं ते सोयकारणं । देवी न देइ उत्तरं । तओ धावीए निवेइयं रन्नो । समागओ राया । दिट्ठा देवी । परियणोवणीए उवविट्ठो वरासणे । भणियं च- 'देवि ! किं ते वाहइ ?' । दीहं नीससिय भणियं देवीए - 'देव ! तुह पायावन्नाए" किं मे जं न वाहइ ?' । भणियं रन्ना- 'नाहमप्पणो" अवराहं संभरामि, ता साहेउ देवी' । भणियं देवीए - 'जइ तुम्हे आयरवंता होह ता तं किं पि । अस्थि जं मज्झ न सिज्झइ ?' । भणियं रन्ना – 'पाणा वि .तुहायत्ता, ता भणसु जं ते नत्थि' । भणियं देवीए – 'किं ते भणिएण, जइ देवो दुक्खस्स अंतगवेसणं न करेइ' । भणियं रन्ना - 'भणसु नीसंक' । भणियमाणाए – 'किं देवो न याणइ विहलजीवियाओ जोसियाओ जासिं थणमूला कक्खदेसं, कक्खदेसाओ थणमूलमइसरंतो कोमलकरयलेहिं गहिओ बालो न देइ “मम्मणुल्लावए । मम मंदभागाए कुओ एयं ति । ता किं मम जीविएण तणयरहियाए' । भणियं रन्ना - 'देवि ! धीरा भव, जओ अड्डरते करा- 20 लवेयालभीसणमसाणे कालचउद्दसीए नियमसं विक्किणेऊण, अहवा कच्चाइणीपुरओ नियमसाइं हुणिऊण देवयमाराहिऊण सव्वहा ते पुत्तं संपाडेमि' । एवं भणित्ता उढिओ राया। उवविट्ठो बाहिरत्थाणमंडवे । समागया मंतिणो । साहिओ देविवुत्तंतो नियपइण्णाकरणं च – 'ता भो! साहेह किमेत्थ कायव्वं । भणियं मइविहवमंतिणा- 'देव! "दंडपहाणं कायव्वं नीई विदो" न पसंसंति । देवेण पुण दंडपहाणा पइण्णा कया । न हि परो जेण संताविज्जइ । सो चेव दंडो (परे परे वि दंडो") अप्पदंडपरिहारनिमि- 25 त्तमेव परिहरिजई' ति । भणियं रन्ना – 'अन्नहा मरइ निमंतं देवी' । भणियं सुबुद्धिणा- 'आत्मानं सततं रक्षेद् दारैरपि धनैरपि' - इति वचनं नीतिविदः । राइणा भणियं- 'अण्ण उवायंतरं साहेह, भणियं विमलमइणा-'देव ! वस्तुखभावो नान्यथा कर्तुं शक्यते-वंझा अवंझा कहं कीरउ' । तओ पज्जाउलीभूओ राया चिठ्ठइ खणंतरमेगं । इओ य एगो देवो आसण्णचवणसमओ तित्थयरवंदणत्थं गओ महाविदेहे । वंदिओ तित्थयरो । पत्थावे पुच्छिओ भयवं- 'मम इओ चुयस्स कहिं उप्पत्ती भवि- 30 ____1 A जिणधम्मो। 2 B सावगा। 3 B पुजइ। 4 A भंडागाराउ। 5 B विसिइयव्वं । 9A परिहाणेण । 7 B सम्मत्तुपत्तीए। 8 B नास्ति 'सह'। 9 B सा य। 10 Bधाईए। 11 A पायाअवन्नाए । 12 B अहमप्पणोवराह न। 13 B नास्ति 'होह ता'। 14 B नम्मण्णु। 15 B दंडं। 16 B विओ। 17 A आदर्शगतोऽधिकः पाठः। Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ श्रीजिनेश्वरसूरिकृत-कथाकोशप्रकरणे [ ४ गाथा स्सइ ?' । भणियं तित्थयरेण - 'भद्द ! जंबुद्दीवे भारहे वासे 'खिइपइट्टिए मेहस्स रन्नो पियंगुलयाए कुच्छिसि पुत्तत्ताए उववज्जिहसि' । तओ वंदिय भगवंतं देवो तत्थागओ पण्णवणट्ठा तेसिं, जेण पडिवन्नसम्मत्ताणं कुले उववन्नस्स सुहेण धम्मे पडिवत्ती मे भवइ' त्ति । तओ य साहुरूवं काऊण अत्थाणिare " आगओ मेहरायस्स । धम्मलाभिओ* राया अब्भुट्टियो । रन्ना दावियमासणं । वंदिय उवविट्ठा 5 सव्वे वि । भणियं रन्ना - 'भयवं ! वइससं पत्ता संपयं ता नित्थारेह' एयाउ' । भणियं साहुणा - 'केरिसं वइससं' ?' | साहिओ वृत्तंतो । भणियं साहुणा - 'महाराय ! निसामेहि 1 उच्चट्ठाणगएसु गहेसु गुरु- बुहनिरिक्खिए लग्गे । पढमं चिय आहाणं धम्मेणं होइ नरनाह ! ॥ उच्चागोयं जाई कुलं च दीहाऊयं सुरुयत्तं । अणुकूलेसु गहेसुं जम्मो नरनाह ! धम्मेणं ॥ are - मणि - रयणसारो विहवो जीवाण होइ धम्मेण । करि तुरय- करह - महिसी - गोपसवो होंति धम्मेणं ॥ 10 गरुयनियंबा खामोयरीउ उण्णयपओहराओ य । धम्मेण भारियाओ होंति' विणीयाणुरत्ताओ ॥ 15 तत्थ य - रागद्दोसवसट्टो मिच्छत्तन्नाणमोहियमईओ । कज्जाकज्जअवेया संसारियदुक्खसंतत्तो ॥ - सरणं विमग्गमाणो परओ' देवाणं धावइ लोगो' । संसारकारणाई" देवाण वि ता किमेएहिं " ॥ इत्थीसंगा रागो दोसो नरनाह ! पहरणेहिंतो । अण्णाणं एत्तो" च्चिय जम्हा सो" कह भवे सरणं ॥ दोसेहिं जेहिं लोगो वट्टइ देवो वि वट्टए तेसु । ता कह तत्तो ताणं जियाण भवजलहिबुड्डाणं ॥ 20 जियराग दोसमोहो सव्वन्नू सव्वदंसणी भयवं । तियसवइपूयणिज्जो जो सो देवो भवे सरणं ॥ जो विगयरायदोसो सव्वन्नु तस्स वयणमविगप्पं । होइ जहत्थं नरवर ! तब्भणिओ होइ सो धम्मो ॥ ससमय-परसमयविऊ गंभीरो दित्तिमं सिवो सोमो । जियरागदोसमोहो मज्झत्थो परहिए निरओ ॥ सव्वत्थापडिबद्धो निस्संगो निब्भओ निरासंसो । अप्पडिकम्मसरीरो साहइ जिणदेसियं धम्मं ॥ एवंवि नरीसर ! होइ गुरू तारओ भवोहाओ । सव्वन्नुभणियधम्मं भव्वहियट्ठाए देतो ॥ 25 सो पुर्ण सम्मत्ताई जइ - गिहिभेएण वण्णिओ दुविहो । जइधम्मो खंताई अणुव्वयाई य इयरो उ ॥ एवंविधम्मरओ नियमा साहेइ इच्छियं कज्जं । ता नरपुंगव ! कीरउ मह वयणा एरिसो धम्मो ॥ सुवियड्डा अणुरता मित्ता धम्मेण होंति नरनाह ! । आएज्जं जसकित्ती य होइ धम्माओ नन्नतो ॥ सव्वजणाणं सुहया सूरा चाई कला वियड्ढा य । जणणि-जणयाणुरत्ता धम्मिट्ठसुया वि धम्माओ ॥ सो पुण धम्मो नरवर ! आगहपरिवज्जिएहिं नायव्वो । आगहवसा न पेच्छइ वत्थुसहावं वियड्डो वि ॥ तस्स पुण होति मूलं देवागमगुरुजणो जओ तेण । धम्मत्थमुज्जरणं ते निदोसा गहेयव्वा || 30 1 एयावसरे वियलिओ सव्वेसिं मिच्छत्तमोहगंठी, उप्पाडियं सम्मत्तं । भणियमिमेहिं सव्वेहिं वि - 'अवितहमेयं भंते ! ता देसु अम्हाणं गिहिधम्मं' । दिण्णो य सो जहाविहाणेण । भणियं साहुणा - 'महाराय ! सम्म भाइणिं" देविं पियंगुलयं पि करेज्जासि' । तओ पुत्तजम्मे समागयपचया सुहेणं सम्म संबुज्झि सइ सयमेव । इह आउव्वेयम्मि पुत्तलाभनिमित्तं एस विही भणिओ - गुरुदेवयपूयरओ मासं निवसेज्ज" बंभचेरेण । खीरमहुखंडभोई खट्टं दव्वं विवज्जंतो ॥ किसरपडलपूयाई भुंजइ इयरी वि मासमेगं तु । गुरुदेवयपूयरया पइसेज्जं वज्जए सम्मं ॥ 1 B खीपइ° । 12 B भविस्सइ त्ति । रेहि । 6 B व संति । 7 B हुंति । 12 B एवं 13 B सो देवो कह° । 3 B आगओ अत्थाणियाए । 8B वरउ । 9 B लोओ । 14 A धम्मो । 15 B भायणं । 4 B धम्मलाहिओ । 5 B नित्था10 B णाई । 11 B किमेएणं । 16 B निविसिज्ज । Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या ] जिनपूजाविषयक-सूरसेनाकथानकम् । कुंकुमनाएसरसंजुयं तु लिंगंकलक्खणामूलं । घयपिढे उदुसमए नामणयं देज देवीए ॥ निस्सेसकलाकुसलो होही पुत्तो न एत्थ संदेहो । उच्छंगगयं वसभं तम्मि दिणे पिच्छिही सुमिणे ॥ नवकारेणं नरवर ! देजय पीहं इमस्स जायस्स । पंचमदिणम्मि नालं नवकारेणं तु छिंदेज्जा ॥ नालनिमित्तं जत्थ य खणिहह' भूमिं तु तत्थ ठाणम्मि । गुरुयं महानिहाणं पेक्खिस्सह रयणपडिपुण्णं ॥ तं गिहिज्जह नालं पयंतरे चेव तस्स निहणिज्जा । निहिसारो से नाम कायव्वं बारसे दिवसे ॥ चेइयघरम्मि निजह पाडेजह तं तु बिंबपाएसु । समणाण सुविहियाणं नेयव्वो निच्चपासम्मि ॥ एवं भणिऊण गओ साहू । पहट्ठो मेहराया धम्मलाभेण पुत्तलाभवत्तया य । गओ राया देवीसयासं । कहिओ वुत्तंतो। तुट्ठा देवी । समाढत्तो भोयणबंभचेरविही सव्वो वि । अण्णया "उदुण्हायाए पइणो संवासेणं सो देवो देवलोगाउ चुओ समाहूओ गम्भे पियंगुलयाए । पेच्छइ य तीए चेव रयणीए सुविणे उच्छंगगयं वसहं । दट्टण य देवीए निवेइयं रन्नो। भणियं रन्ना-'देवि! साहुसमाइटुं दिट्ठमेयं तए । सुविणयं । ताऽवस्सं ते पुत्तेण होयव्वं । बहुमण्णियं देवीए । सुहेण वड्डइ गब्भो । तइयमासे जाओ दोहलओ। तं जहागयणयलमणुलिहंतं दसदिसिपसरंतनिम्मलमऊहं । धवलुव्वेल्लिरधयवडमालाकलियं जिणाययणं ॥ कारेज्जा कइ य अहं तत्थ य वररयणहेमनिम्मवियं । लहु काराविय बिंबं तत्थ पइट्ठे करावेस्सं ॥ रहजतं पि करेजा तत्थ य संपावियाण साहूणं । फासुयअकय अकारियभत्तं पाणं सभेसजं ॥ वत्थं पत्तं वसहिं देजा जइ परमभत्तिसंजुत्ता । जत्तागयसाहम्मियसंघ पूएमि दाणेणं ॥ निवेइओ दोहलओ। पूरिओ रन्ना सविसेसतरो" । तओ वोच्छिन्नदोहलाए गब्भो वविउमाढत्तो।। जाव नवण्हं मासाणं अट्ठमाणं राइंदियाणं बहुपडिपुण्णाणं जाओ दारगो । निवेइओ रन्नो । दिन्नं पारितोसियं "पियंवइयाए। कयं वद्धावणयं । दिन्नो नमोक्कारुच्चारपुव्वं से पीहओ। नमुक्कारेण चेव छिन्नो नालो । निहम्मंते य दिह्रो महानिही । गहिओ राइणा । अण्णत्थ विवरं काऊण नियं नालयं । 20 पूरिओ सो पएसो रयणेहिं । बद्धं हरियालियाए पीढं । उचियसमए कयं से नामं निहिसारो ति। जाओ कालेण कलाजोग्गो । उवणीओ लेहायरियस्स । गहियाओ कलाओ । नीओ साहुसमीवे । सुया देसणा गुरुसमीवे । तं जहापंचेंदियत्तणं माणुसत्तणं आरिए जणे सुकुलं । साहुसमागमसुणणा सद्दहणा रोगपव्वज्जा । हं भो देवाणुप्पिया ! इमाइं दुलहाइं सवठाणाइं । लभ्रूण मा पमायह करेह जिणदेसियं धम्मं ॥ भणियं निहिसारकुमारेण – 'सव्वविरईए असत्तो त्ति देह मे सावगधम्म' । दिन्नो गुरुणा सम्मत्तमूलो तदुचिओ सावगधम्मो । पालइ सावगधमं । एवं वच्चंति दिवसा । अण्णया समागओ पाडिवेसियधम्मरायपेसिओ नागवलो नाम पहाणनायगो । सम्माणिओ मेहरन्ना । पुट्ठो आगमणकारणं । सो भणिउमाढत्तो-'चंपाए नयरीए धम्मराइणो लच्छिवईए देवीए कणगावली नाम धूया । सा च नेमित्तिएण समाइट्ठा, जहा- निहिसारस्स अग्गमहिसी भविस्सइ त्ति । तओ धम्म- 30 रन्ना चिंतियं - सोहणमेयं, एयनिमित्तं चेव सोहियं । भवउ अम्हं मेहरन्ना "सह संबंधो । तो चिंतिया 1A पेच्छही। 2Bखणिहयभूमीओ। 3 B गरूयं। 4 B उउ। 5 B दिट्रो। 6 B °गओ वसभो। 7 B सुमिणं । 8 B °मकारिअ। 9 B पाणं च मे। 10 B इह परम। 11 B विसेसयरो। 12 B पियंवईए। 13 नमोकारोच्चारण। 14 B समं। Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० श्रीजिनेश्वरसूरिकृत-कथाकोशप्रकरणे [ ४ गाथा सा निहिसारस्स - एयवइयरसाहणत्थमागओ अहं ति । तओ जह जाणह जोगं वा पत्तं वा ता पेसेह निहिसारं जेण कणगावलिं परिणेइ । जओ -.. निहिसारगुणकहा कविमुहाओ वियरइ समुद्दपज्जतं । सयलकलापडिपुण्णे चाए भोए य सोजने ॥ कन्नाए वि वरगुणे वन्नेउं तरइ छम्मुहो नवरं । ता अणुरुवगुणड्ढे गुणाओ उक्करिसमायंति ॥ • एवं ठिए देवो पमाणं' । भणियं राइणा - 'चिंतेमो' । दावियमावासठाणं नागबलस्स, खाण-पाणाइयं च । समाहूया मंतिणो। साहियो वइयरो - 'तां किमेत्थ जुत्ताजुत्तं ?' । भणियं सुबुद्धिणा - 'देव ! धम्मराइणो अम्हाण य परोप्परमाजम्मं वेरं सीमाकज्जाइसु । ता वेरीणं घरे कुमारो वच्चइ, न सोहणमेयं । मा दिग्गहं गेहिज्जा । भणियं विमलमइणा - ' किं कुमारो ता ण पाउगो गच्छिही । सव्वग्गेण वि, जं से बलं तचियाओ समहिगेण जाही, ता न एयं भयं । अण्णं चिंतेह | भणियं मइसारेण - ' तहा वि तस 10 घरे भोत्तव्वं भविस्सइ; ता जइ वेरिओ त्ति अविस्सासो, न गम्मइ' । भणियं बुद्धिसारेण - 'एयं पि अस्थि । निघणो वेरेण सोहियं पि इच्छेजा । ता इहेव कण्णा वाहरिज्जउ' । भणियं मइविहवेण - ' किं न जाणह ?, जं भणियं नीईए – अविस्ससिओ सत्तू धूयं दाऊण तीसे हत्थेण विसाई दाविऊण हंतव्वो' त्ति । रन्ना भणियं - 'पुवि चेव राइणा सत्तणो पहाणवग्गो दाणसम्माणाईहिं भिंदियव्वो । पउत्तो य एस विही अम्हेहि । तओ तस्संतियाओ मइसागरामच्चाओ एस वइयरो निज्जिही । ता सो पुच्छिज्जओ' । सव्वेहिं बहुमणियं राइणो वयणं । पेसिओ पच्छण्णं विस्संभट्टाणीओ गोहो तस्स समीवे । तेण वि जहत्थमुवलब्भ भाणियं - 'भो हिय अच्छिओ एस तुब्भेहि समं । एत्थ न कोइ दोसो । पच्चुलं उवगारं काही एस करितुर दाणाइयं' ति । तहावि मंतिणो न पत्तियंति मेहरायसंतिया । भणियं तेहिं - 'को सत्तुमहंतयस्स उवरि विस्सासो । मा नियसामिभत्तीए अम्हे दुहेज्जा' । भणियं सुबुद्धिणा - ' न संभवइ एयं बहुसु ठाणेसु दिट्ठपच्चओ सो देवस्स, अइबहुमाणवंतो' त्ति । राइणा भणियं - 'मइधणं बीयं [त]स्सेव मंतिणं पुच्छामो, तओ 20 नज्जिही भावो । भणियमियरेहिं । - ' एवं कीरउ' । पेसिओ अण्णो गोहो तस्स समीवे । तेणावि भणियं - 'पेसह कुमारं, नत्थि भयं' ति । तओ सम्माणिओ नागबलो वत्थालंकारेहिं; भणिओ य सिग्घं लग्गं निरूविय जाणावेज्जाह जेण कुमारो समागच्छइ । गओ नागबलो । लग्गं निरूविय पुणो वि आगओ कुमा 15 वाहगो । पट्टिओ निहिसारो चउरंगिणीए सेणाए सह । तव्विसए पविट्ठस्स पयाणाणुरुवद्वाणे घासखाण-अन्न-पाणाइयं सव्वं पउणी करेइ नागबलाइट्ठो लोगो । एवं सुहेण पत्ते धम्मरायरायहाणीए चंपा - 25 पुरीए बद्धाविओ धम्मरायपुरिसेहिं । कारियमूसियपडायं नयरं । नीहरिओ रन्नो अन्नोगइयाए । समालिंगिओ सायरं । दाविओ नयरीए बाहिं आवासो । निउत्ता पुरिसा कायव्वेसु । जाव, कमेण पत्तं लग्गदिणं । परिणीया महाविभूईए कणगावली । दिन्नं भूरिदाणं धम्मराइणा निहिसारस्स कणगावलीए य। आणीया नियआवासे' । वोलीणाई कइ वि दिणाई भोगे भुंजमाणस्स तीए सद्धिं । जाया पाणाण वि वल्लहा कणगावली निहिसारस्स । अन्नदियहे य समादत्तं पेच्छणयं पुरओ निहिसारस्स । अवि य - 20 वीणा-तिसरिय-सारंगिया इसम्मी सकागलीगीयं । गिज्जइ वेणुरवो वि हु उच्छलइ तदंतरालेसु ॥ पणवमुइंगाण खो परिमउउ कागलीए कालम्मि । तारम्मि तारसहो उच्छलइ मुइंगमाईण || सुवियड्डूनट्टियाए पयखेन विसुद्ध हत्थय विसुद्धं । दिट्ठीखेव कवोलयभूभंगजुयं सहइ नहं ॥ 1 A सुकुमारो | 2 B न इत्थ कोवि दोसो । +- एतदन्तर्गता पङ्क्तिः पतिता A आदर्शे । हाणीए । 4 A अन्नोगयाए । 5 B निययावासि । 6 B उच्छलइ । 3A धम्मराय Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या ] जिनपूजाविषयक - सूरसेनाकथानकम् । ३१ 6 ओ अईव रससमागए पेच्छणए सहसा उच्छलिओ दुंदुहिसदो नगरीए पुव्वुत्तरदिसाभाए । दीसंलि उवरमाणा देवा । निसुम्मए जय जय सहो । नगरोवरि महया सद्देण उग्घोसेमाणा सुम्मंति देवा, जहा'भो भो लोया ! रुद्द एण' पाविद्वेण जोइजसा मारिया; अकयपावस्स सुद्धसहावस्स अंगरिसिणो दिन्नो आलो' त्ति | नगराओ य नइपूरो इव नीहरंतो दीसइ जणसंघाओ एगाभिमुहो सहसंबवणे उज्जाणे वच्चं तो । लओ' तं दहूण 'किमेयं किमेयं ?' ति जायकोउगेण भणिओ नंदणनामो नियपुरिसो कुमारेण - ' किमेयं कत्थ वा एस जणो 'जाइ ? - त्ति सम्मं निच्छिऊण मागच्छसु' । 'जमाणवेसि' त्ति भणिऊण निग्गओ नंदणो । पेच्छइ नीहरंतं जणं, न देइ को वि से उत्तरं रहसवसपज्जाउलो । तओ अवरोवरजणं पुच्छंतो' तत्तो पडिउत्तर मलहंतो गओ नगरीमज्झे । तत्थ य रायमग्गे आवणासीणो एगो दिट्ठो वुडवाणियगो । पणापुव्वयं पुट्ठो नंदणेण - 'माम ! कहिं एस लोगो जाइ ?' । भणियं वाणियगेण - 'उवविससु' । दावियमासणं, उवविट्टो नंदणो । भणियं वाणियगेण - - 'सुद्धसहावाण वि पावकारिणो देंति 'छोभगमणिङ्कं । तं चिय कल्लाणनिबंधणं तु सरले जणे होइ ॥ ― 30 " वच्छा एत्थेव नयरीए अस्थि कोसियञ्जो उवज्झाओ चट्टे पाढेइ । तस्स य दुवे धम्मचट्टा - अंगरिसी, रुद्दओ" य । अंगरिसी पयईए धम्मसद्धिगो", सरलसहावो, पियंवओ, सच्चपइण्णो, अकोहणो, दयालू यt । रुद्दओ उण " मुसावाई, अदत्तहारी, परअब्भक्खाणरओ, निग्विणो य । पादत्थिणो दोणि वि" वृत्ताणत्तयाइ" विणयं कुणंति" उवज्झायस्स । अन्नदिवसे विगाले" आणता 15 को सियज्जेण - 'पभाए अणज्झाओ, ता अडवीए" कट्ठभारयं एगं एगं दो वि इंधणट्ठा आणेज्जाहे" । डिस्सुयं दोहिं वि । पभाए" गओ अंगरिसी अडवीए दारुयनिमित्तं । रुद्दओ पुण" जूयकरपेक्खणयाइसु" कोउगेण इओ तओ" हिंडतो ठितो," जाव मज्झव्हे सुमरिओ उवज्झायाएसो । पहाविओ अडविहुत्तो । उवज्झाओ रूसिस्सइ - त्ति चिंतंतो दिट्ठो तेण अंगरिसी महल्लकट्ठभारएणं गहिएणं आगच्छंतो | सुट्टुयरं भीओ । इओ य" जोइजसा नाम" थेरी एत्थेव " नयरीए वत्थवा, पर- 20 घरे कम्मं काउं निहइ । तीसे य डहरगो पंथगो नाम दारगो । लोयसंतिए वच्छरुए" रक्खइ । गावीओ बाहिं दुज्झंति त्ति पण्णियमुग्गाहिऊण जोइजसा पंथगस्स भुंजावणट्ठा" अडवीए गया । भुंजाविऊण पंथयं दारुयाणि " गहाय ( उंछवित्तीए बंधिय भारयं गहाय * ) तेण मग्गेण आगच्छंती दिट्ठा रुद्दएण | विजणं च वट्टइ । तओ तेण निग्घिणेण गलयं मोडिऊण मारिया जोइजसा, पक्खित्ता मग्गासन्नझिरिंडे । कट्ठभारयं तीए संतियं गहाय, सिग्घयरं पहाविओ मग्गंतरेण । पत्तो उवज्झायसमीवे । कट्टभारयं मोत्तण सीसं धुणंतो हत्थे मलंतो भणइ - 'उवज्झाय ! तेण तव दुट्ठसीसेण इंधणनिमित्तं मारिया वराई जोइजसा । पक्खित्ता झिरिंडे । हा! हा ! अहो अकज्जं कयं पाविद्वेण' । एयावसरे समागतो अंगरिसी । मुक्को कट्ठभारओ । तओ अनिरूविऊण गुणदोषं, किमेत्थ सच्चं मुसं वा, का वा एयस्स पई रुहगस्स वा केरिसित्ति अचिंतिऊण" संजायकोवेण भाणिओ" उवज्झाएण - 'अरे रे पाविट्ठ ! 1 A भद्दएण । 2 A जाइसा । 3B नइव । 4 B 'तओ' नास्ति । 5 B गच्छइ । 6 B रहस्सपज्जा - उलो । 7 B पुच्छंतो उत्तर° । 8 B नास्ति पदमेतत् । 9 B छोहग° । 10 B वित्थएच्छे कोसियजो' । 11 B नास्ति । 12 A °सद्धिणो । 13A नास्ति 'य' । 14 'उण' नास्ति B 15 B दुरन्निवि । 16 B णत्तयं । 17 B कुव्वंति । 18B वियाले । 19 B अडवीउ । 20B आणिजह | 22 B उण 23B जूयफपिक्खणगाइसु । 24 नास्ति B 'तओ' । 25 B ठिओ । 'नाम' । 27 B इत्थेव । 28 A लोस्स । 29 A वच्छए । 30 B भुंजावत्थं । * कोष्ठकगतः पाठो नोपलभ्यते B आदर्शे । 32 'च' नास्ति B 25 21 B पहाए । 26 A नास्ति 'य' 31 B दारुवाणि । 34B गओ । 33 B मुत्तूण | 35 B कहूं वा । 36 B चिंतिऊण । 37B भणियं । 10 Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 ३२ श्रीजिनेश्वरसूरिकृत - कथाकोशप्रकरणे [ ४ गाया थी वज्झापरिगय तुमे जोइजसा मारिया, तीए संतियं कट्टभारयं गहाय आगओसि !" । सो' वराओ भणइ - 'अभासा अभास चि ! नाहं एयं वइयरं जाणामि' । तओ रुदएणं भणियं - 'अरे पाव ! मम वारेंतस तु एयं कयं; तुमे अहं वारिओ - मा उवज्झायस्स कहेज्जासि' । तहावि एवंविहं कज्जं अभणतो अच्छामि । ता पाव पच्चक्खावलावी तुमं' । भणिओ अंगिरिसी उवज्झाएण - ' अवसर * दिट्ठिमगाओ, मा पुणो दिट्ठिपहमा गच्छेज्जासि' । ' हा किमेयं अकयं पावमागयं' ति रुयमाणो निम्गओ अंगरिसी उवज्झायगेहाओ । तओ जत्थ जत्थ हट्टमम्गाइसु गच्छइ, तत्थ तत्थ ते' उवज्झायसीसा रुद्द - यसमेया- 'एसो एवंविहकारि चि - भणति । तओ लोएण धिक्कारिज्जंतो निग्गओ नयरीओ । गओ उज्जाणे उवविट्ठो जक्खाययणे । चिंतिउमादत्तो - दिवम्मि विहडियम्मि अदिट्ठ-असुयाण भायणं जाओ । परभवकय कम्मेहिं व रुद्दओ भाणिओ एवं ॥ 10 कस्स 'वि अब्भक्खाणं दिन्नं रे जीव ! आसि कइयावि । ता तस्स फलं संपइ अणुहवसु अरागदोसिल्लो ॥ एमाइसुहज्झवसायस्स जायं जाईसरणं । सुमरियं पुवभवकयं सामण्णं सुरलोगगमणं च । सुमरियं पुव्वाहीयं सुयं । विरत्तेण कओ पंचमुट्टिओ लोओ । उवणीयं देवयाए लिंगं । सुहज्झवसायस्स सुक्कज्झाणं, खवगसेढिकमेण उप्पण्णं केवलं नाणं । अथ पभायसमए समागया केवलिमहिमाए देवा । तेहिं य सव्वनयरीजणस्स सिट्ठी एस पुव्वुत्तो' तव्वइयरो | धिक्कारिओ लोएण उवज्झाएण य रुद्दओ । ” केवलिवंदणत्थं कोऊहलेण य " एस लोगो वच्चइ त्ति - एवं वुडवाणियगसिहं सोऊणं" आगओ नंदणो निहिसारसमीवे । कहिओ सबो वृत्तंतो । तओ" संजायहरिसो चलिओ निहिसारो केवलिवंदणत्थं सह कणगावलीए, सेसपरियणेण य । पत्तो उज्जाणं । जहाविहीए वंदिऊण केवलिं उवविट्ठा सव्वे वि । जहारिहं भगवया वि पत्थुया धम्मदेसणा । पडिबुद्धा पाणिणो । अवसरं नाऊण पुट्ठो अंगरिसिकेवली निहिसारेण - 'भगवं ! को हं जम्मंतरे अहेसि, किं वा मए कयं जेणेरिसा मणुस्सिड्डी पत्ता को वा एयाए 20 कणगावलीए सह संबंधो आसि, जेण अउव्वो को वि पीइविसेसो जाओ पढमदंसणे वि?' ति । भणियं केवलिणा – 'निसुणेसु ' - 25 इहेव भारहे वासे साकेयं नाम नयरं । तत्थ बलो नाम राया, रई से देवी । तीसे घूया सूरसेणा नाम । रूवेण जोव्वणेण य उक्किट्ठा । सा दिण्णा कंचीए नयरीए सूरप्पहस्स रन्नो "धणसिरीए देवीए पुत्तस्स तोसलिकुमारस्स निययभाइणिज्जस्स । परिणीया सा तेण । नीया कंचीए । कालेण मओ सूरप्पहो । जाओ तोसली राया । सूरसेणा से अग्गमहिसी । अवरोप्परं पीई । एवं वच्चंति वासराई रज्जसुहमणुहवंताणं । अण्णया समागओ समरकेसरी नाम सूरी बहुसीसपरिवारो । निग्गओ राया वंदणवडियाए । कया देसणा । जाओ सम्मत्तपरिणामो तोसलिराइणो सूरसेणाए य । तत्थ य तित्थमाहप्पे वन्निज्जंते पुच्छियं रन्ना - 'भगवं ! तित्थाणं किं तित्थं पहाणं ?' । भणियं सूरिणा - पढमं चिय पुंडरीओ, सिद्धो सत्तुंजयम्मि सेलम्मि । जायवकुमारकोडी सिज्झिस्संति अगाओ ॥ मोक्खं गया तम्मी " द्रविडनरिंदाण पंचकोडीओ । ता तं पहाणतित्थं भावविसुद्धीए हेउ ति ॥ 30 तमि जिणाण पडिमा पूएइ विसुद्धभावओ जो उ । सो पावइ निव्वाणं भवम्मि तइयम्मि अविगप्पं ॥ 3 B कहिज्जासि । 4 B अवसरहि । 5 B तत्थ भदत्त । 6 'कय" नास्ति B | 7 B करंस इ । 8 B अज । 9 B वृत्तंतो 1 'सो' नास्ति B 2 B एवंविहं । 11 'सोऊणं' नास्ति B । 12 'तओ' नास्ति A । 13 A 'धम्म' नास्ति । 14 B बलसिरी । 10 B एय एस | 15 A द्रविर° । Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या ] जिनपूजाविषयक-सूरसेनाकथानकम् । ३३ एयं सतुंजयतित्थपूयणवंदणमाहप्पं सोऊण सूरसेणाए रायग्गपत्तीए जाओ तत्थ गमणुच्छाहो । कयत्था भवामि जइ सत्तुंजए गंतूण जिणपडिमाओ सहत्थेण पूएमि । ता रायाणं तहा भणीहामि जहा तित्थं वंदावेइ' -त्ति वंदिऊण सूरिं, गहिऊण सावगधम्मं, गयाणि सट्ठाणं । अन्नया पत्थावे भणिओ राया- 'गच्छामि सत्तुंजए जत्तं करेउं, तुम्हाणुमईए, करेमि सहलं माणुसं जम्म' ति । रन्ना भणियं'देवि ! पररज्जे न तीरए गंतुं, विसेसओ देवीए । किं च, तत्थ बिंबाइं पूयणीयाई, इहई पि ताई संति । त्ति, पूएहि जहारुईए । सा पुणो पुणो भणइ । राया वि धारेइ । सूरसेणा पुण सत्तुंजयतित्थबिंबपूयणे अईव उच्छुगा । राया वि कह वि न मन्नइ । तओ असंपत्तीए मणोरहस्स, देवी कोवहरं पविट्ठा। निवेइयं धाईए रन्नो । गतो राया तत्थ । न अब्भुट्टिओ तीए । उवविट्ठो सयणीयईसाए । निम्मीलियच्छी सूरसेणा 'ठिया तुहिक्का । भणियं रन्ना- 'देवि किं ते बाहइ ? । न देइ उत्तरं । भणियं रन्ना'देवि किमेयं । भणियं देवीए - ‘मा कलयलेणं' भंजसु' । भणियं रन्ना- 'देवि ! निरवराह किं- ।। करस्स किमकारणे एसो निब्बंधो ? । न सरामि अवराहं । भणसु जं करेमि' । भणियं देवीए- 'आमाए केत्तियं पलवसि?' । मणियं रन्ना-'देवि ! पसायं कुणसु, भणसु जेण पओयणं । जेण तमवस्सं संपाडेमि' । देवीए भणियं- 'पिययम ! रायाणो सच्चपइण्णा होति । तुमं कहं मुसावाई भविस्ससि ?' । ईसिं हसिऊण भणियं रन्ना- 'भण जं करेमि'। भणियं देवीए- 'जइ एवं, ता सतुंजए चेइए वंदावेहि' । मायाए भणियं रन्ना - 'समगं चिय जाइस्सामो, घीरा भव, मा रूससु । पररजे सामग्गीए गम्मइ' ति । । तुट्टा देवी । एवं तप्परिणामपरिणयाए निबद्धं देवाउयं पुंवेदं च । रन्ना वि मायावयणेण निबद्धं इस्थिवेयं कम्म, सावगत्तणो देवाउयं च । मणुयाउयं पालिय सूरसेणा जाओ देवो । तोसलिराया से देवी । देवाउयं परिपालिय सूरसेणाजीवदेवो तुमं निहिसारो जाओ । तोसलिरायजीवदेवी एसा कणगावली जाया । एसो पुल्वभवब्भासाओ जाओ नेहाणुबंधो त्ति । ईहापोहं करेंताणं दोण्ह वि' जायं। जाईसरणं । तओ संजायपच्चएहिं दोहिं वि वंदिओ अंगरिसी केवली । भणियं च-'अवितहमेयं भंते ! 20 ता निविण्णाणि संसारवासस्स, जइ जोगिया ता देह दिक्खं । भणिवं केवलिणा-"जुत्तमेवं भवियाणं, किं तु भोगहलमस्थि । काहिह अंते संजमं । अंतगडाणि य भविस्सह । मा अघिई करेह' । केवलिं वंदिय उद्रियाणि गयाणि नियावासं । अण्णया धम्मरायं आपुच्छिऊण कणगावलीए सह समागओ खेमेण नियनगरे निहिसारो । पवेसिओ मेहरना महाविभूईए । ठाविओ जुवरायपए । एवं कणगावलीए सह "विसयसुहमणुहवंतस्स अइक्कंतो कोई कालो । अन्नया समागओ सूरसेणो नाम केवली । 25 उज्जाणपालएणं वद्धाविओ राया । घोसावियं नयरे – 'भो भो ! नायरा ! केवलिवंदणत्थं राया निग्गच्छइ । ता आगच्छह भगवओ वंदणत्थं । करेह अप्पहियं' ति । निग्गओ मेहराया सअंतेउरो, निहिसारो कणगावली य । तिपयाहिणी काऊण वंदिओ केवली सबेहि वि। निसन्ना सट्टाणेसु । भणियं भगवयाभावियजिणवरवयणो नरगावासाओ दुक्खमहिययरं । गिहवासे माणसियं वेएइ दढं अविरओ उ ॥ जइया सावज्जम्मी वट्टइ गिहवासकारणे" सड्ढो । तइया हियए दुक्खं जायइ से एरिस वियप्पा ॥ एवंविहकम्माइं संसारनिबंधणाई भणियाई। सो वि अणंतो भणिओ अजयाण चउप्पयारो य" । तहा- तम्मि अणंते नरए सत्तसु वि कमेण णंतसो गमणं । सयराहं पडिबंघई नारयदुक्खं अणंतं पि ॥ ___ 1 B ठिया सूरसेणा। 2 B कलफलेण। 3 A पलवइ। 4 B झूरसु। 5 B मायाए। 6 B पालिऊण । 7 Bदुन्हवि। 8B जइ जोग्गं देह। 9 नास्ति 'एवं B 10 नास्ति 'विसय' AI 11A कारणा। 12 Aवि। 18 B तथा। 14 B पडिबिंबह । क०५ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनेश्वरसूरिकृत-कथाकोशप्रकरणे [४ गाभा एवं तिरियगईए अणंतवाराउ जम्ममरणाई । सीउण्ह-छुहा-तण्हा-दमणंकण-वाहणाईयं ॥ एवमणंतभवम्मी कुजाइ-कुल-माणुसत्तणे दुक्खं । दारिद्द-वाहि-चारग-कुपुत्त-जर-मरणसोगाई ॥ अभिओग-किविसाहमविओगचवणाइयं च देवेसु । इय सयराहं वेइयमणेण सवासु वि गईसु ॥ ता कह तस्स मणम्मी अहिमाणो नवरि मण्णइ सचित्ते । एत्तो चिय जिणवयणं न जाउ मह माणसे वसइ॥ 5 एमाइ देसणा कया केवलिणा 'वित्थरेण । तं सोऊण पडिबुद्धो निहिसारो कुमारो। चिंतियं च - हंत ! किं मह असारसंसारनिबंधणेण गिहवासेण । ता दे पन्वयामि एयस्स भगवओ समीवे । वंदिय उट्टिया सव्वे । गया निययठाणेसु । भणिया निहिसारेण कणगावली- 'देवि ! किं कायव्वं भगवओ एरिसं वयणं सोउं ?' । भणियमणाए – 'अजउत्त! . पिहियासवदाराणं तवोवहाणेसु उज्जमंताणं । समसत्तुबंधवाणं जीवियमरणेसु तुल्लाणं ॥ 10 भावियसुत्तत्थाणं मुणिवसभाणं सुमुणियतत्ताणं । संसारियसोक्खाउ गंतगुणं ताव सुभमिहई ॥ पव्वजाइ विसाओ न जाउ भव्वाण उच्छवो नवरं । ता किमिह पुच्छियवं कीरउ निरवज्जपव्वज्जा ।। तओ गओ जणणि-जणयाण समीवे । कयपणामेण भणियं कुमारेण - 'सुयं अंबाए तारण य केवलिवयणं । तेहि भणियं- 'सुङ सुयं । एत्तो च्चिय जिणधम्मो सारो लोयम्मि न उण अण्णं पि । एसो चिय मोक्खपहो एसो चिय होइ कायव्वो ॥ 18 भणियं कुमारेण - 'जइ एवं ता अणुजाणह, निविन्नो संसारदुक्खाणं, करेमि पव्वज्ज' । भणियं पियंगुलयाए सुहोचिओ तुम पुत्त सुकुमालो य सुमजिओ । न होसी य तुमं पहू सामण्णमणुपालिउं ॥ भणियं कुमारेण - नारय-तिरिय-कुमाणुस-कुदेवमज्झम्मि किं सुहं पत्तं । जेण दुहं अणुसोढुं न होमि अम्मो समत्थो हं ॥ 20 आउम्मि पहुप्पंते जं कीरइ तं फुडं कयं होइ । तं पुण अणेयविग्धं न नज्जइ का गई तस्स ॥ सूल-अहि-विस-विसूइय-पाणिय-सत्थग्गिसंभवेहिं च । देहतरसंकमणं करेइ जीवो मुहुत्तेणं ॥ भणियं रन्ना- 'देवि ! जं कुमारो भणइ तं सच्चं । ता कुमारेण सह करेमो अम्हे वि पव्वजं' । देवीए भणियं- 'पुत्त ! कणगावली किं भणइ ?' कुमारेण – 'एसा वि पव्वज इच्छई' । तओ आहूया सामंता मच्चादओ । अहिसित्तो कणगावलीए पुत्तो घणवाहणो रायपए । महाविभूईए पव्वइयाणि चत्तारि वि । * काऊण पव्वज, पभूयकालं नाणाविहतवं च, काऊण अणसणं चत्तारि वि जायाइं अंतगडाइं ति । ता जइ पूयामणोरहो वि एवंविहविवागदाई, ता जिणपूयाए जइयव्वं ॥ ॥ सूरसेणाकहाणयं समत्तम् ॥४॥ ०५. श्रीमालीकथानकम् ।साम्प्रतं सिरिमालि ति-इंदपुरं नगरं, तत्थ इंददत्तो नाम राया। तस्स, पहाणकुलप्पसूयाणं अधरि30 यसुरंगणारूवाणं अवरावरदेवीणं बावीसं पुत्ता । सिरिमाली सव्वेसिं जेट्ठो । सव्वे वि उवणीया लेहायरि__11 B वित्थरेण केवलिणा। 2 B °गुणे। 3 B पियंगुलइयाए। 4 A संभमेहिं । Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्याल्या] जिनपूजाविषयक-श्रीमालीकथानकम् । यस्स । ते य नाहिजंति कलाओ । अट्टमढें रमंति । जइ उवज्झाओ अंबाडेइ, ता पडिमल्लयाए उवट्ठति, रुवंता माऊणं साहेति । उवज्झायावराहे ताओ य निवारेंति- ‘मा अम्ह पुत्ते अंबाडेसि' । एवं च नाहीयं किंचि वि । जं पि अहीयं तं पि असिलिटुं । अन्नया सहामच्चेण रायवाडीए नीहरंतेण रत्ना दिट्ठा एगा जुवई निययहम्मियतले । तीए रूवेण अज्झोववन्नेण पुट्ठो अमच्चो- 'कस्सेसा महिला ? । तेण भणियं'तुम्ह देवी एसा । सुबुद्धिणो धूया । नवरं देवेण जइ परं परिणयणकाले दिट्ठ' ति । विगालसमए 5 रण्णा सोवणए समाइट्ठा । तक्कम्मनिउत्ताए पवाहरिया महल्लियाए । तीए य पुट्ठो पिया । भणियं पिउणा'पुत्ति ! जं किंचि राया जंपइ परिहासाइयं, जं च तुमं करेसि अंगरक्खणाइयं, मुद्धत्तणउ जं च तुज्झ राया पुणो करेइ, जं वा पसाएइ, तं सव्वं जहट्ठियं मज्झ साहेज्जासि'; गच्छ' । पडिवण्णं तीए । सा य उदुण्हाया लग्गो गब्भो । सिटुं पिउणो । तेणं वि सव्वं पत्तए लिहियं । कालेण य जाओ से पुत्तो । कयं सुरिंददत्तो ति से नामं । कालेण जाओ कलागहणजोग्गो । समप्पिओ लेहायरियस्स | 10 भणिओ य एसो- 'अंबाडेतो मा संकेज्जासि । सव्वायरेणं कलाओ गाहेहि' । पडिस्सुयं कलासूरिणा । इओ य तस्स सुरिंददत्तस्स एगदिवसजायाइं चत्तारि डिंभरूवाणि गिहदासीणं तणयाणि । तं जहाअग्गिओ, पव्वयओ, बहुली, सागरओ य । चत्तारि वि कलाओ गेण्हंतस्स विग्धं करेंति । न य सो ताणि गणेइ । उवज्झाओ वि उग्गीरियखग्गधरे मणूसे उभओ पासिं ठवेइ, खोभजयनिमित्तं । अणुकूलपुण्णोदयभावेणं गहियाओ कलाओ । इओ य महुराए नयरीए जियसत्तू राया । तस्स निव्वुई 15 नाम धूया । माऊए पत्तजोव्वणा पिउणो पायवंदिया पेसिया । सो तं दट्टण चिंतेइ- 'अणुरूवो वरो जइ एईए होज्जा । सुम्मइ य, इंदपुरे इंददत्तस्स बहवे पुत्ता । सो य सयं कलावियक्खणो । ता नूणं तस्स पुत्ता वि कलापत्तट्ठा भविस्सति । ता तेर्सि मज्झे जो रायलक्खणधरो तस्सेव वरमालं पत्तउ, पेसेमि तत्थ सयंवर' ति । निरूविया पहाणमंतिणो । बहुपरिच्छयसंगया पत्ता तदासन्ननिवेसे । पेसिया वद्धावया, तुट्ठो इंददत्तो । 'अहं अण्णराईणं अब्भहिउ' त्ति कया उचियपडिवत्ती । दाविओ आवासो, खाण- 20 पाणाइयं च । भुत्तुत्तरकालं पेसिओ इंददत्तेण सुबुद्धी । गओ तदावासं । अब्भुडिओ तेहिं । उवविट्ठो बरासणे । भणियं सुबुद्धिणा- 'सयंवरे को विही कायव्वो?' | भणियमियरेहिजियसत्तुणो वियड्ढा कलासु तुह सामिणो इमे पुत्ता । आयन्निया इमा वि हु पत्तच्छेज्जाइपत्तट्ठा ।। गंधव-नट्ट-लेप्पगचित्ते विविहासु गंधजुत्तीसु । तरुकम्म-धाउवाए रसवाए आउवेए य ॥ वीणाए वंसम्मि य छुरियाए हत्थकंडविसयम्मि । निबडिया रायसुया राहं विधंतु' अवियप्पयं ॥ 2 ___ अन्भुवगयं मंतिणा । संपत्तो सो तत्तो नियनरवइसमीवे । कहिओ वुत्तंतो । तओ विमलमइणा भणियं- 'देव ! न नज्जइ, का गई कुमाराणं ? । रन्ना भणियं- 'किमेत्थ जाणियबं । एए बालभावाओ आरब्भ उवज्झायसमीवे ठिया । ता किं एत्तिएण कालेण न एएहिं सीलियं ?' ति । ठिया तुहिक्का मंतिणो । कया सव्वा सामग्गी । निहओ थंभो । तम्मि य उवरुवरिं वाएण भमंताई अझ चक्काई । उवरिमचक्के पुतलिया, वामच्छिओ एय विधेयव्वा । बद्धा मंचा पेरंतेसु । पसत्थदिणे गया सबे सयंवरा- 30 मंडवे; राया देवीओ य, सामंतामच्चा नागरगा य । निव्वुई वि सव्वालंकारविभूसिया अंबधाइसमेया निययपरिवारपरिवारिया दासीचक्कवाल-कंचुइपरिखित्ता समागया तत्थ । ठिया तत्थेगदेसे । भणाविओ राया- 'ताय ! सव्वकलापत्तटुं कुमारं पेसेह जेण कलासु परिच्छामि, कुमारो वि ममं परिच्छई' । आणत्तो रन्ना जेट्टपुत्तो सिरिमाली- 'पुत्तय ! जसं पयडेसु पत्तच्छेज्जाइकलाओ दंसिऊण' । विलक्खी__1 B भणिया। 2 B साहिज्जासि। 3 'य' नास्ति A1 4 B °रूवाई। 5 B ते य सो न गणेइ । 6A निविडिया। 7A विहंतु। 8 नास्ति B1 9 B विमलमंतिणा। 10 Bवामच्छितो। Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनेश्वरसूरिकृत-कथाकोशमकरणे [माया भूओ' सो तओ । नायं रन्ना-न एस एएसु कुसलो । तब्भावन्नुणा भणियं सुबुद्धिणा-'रायाणो बहुसत्तुणो होति । ता न देवस्स इह ठाणे महई वेला अवत्थाणं जुत्तं । तओ 'सवेवि पया हत्थिपए पविट्ठ ति राहावेहेणं चिय सेसकलाकोसलं नजिही' । भणाविया निव्वुई । पडिवन्नं तीए । भणिओ सिरिमाली- 'पुत्त ! राहं विंधसु' । गहियं धणुहं । कह कह वि सारिओ गुणो । खसफसीभूएण अणब्भस्थकलेण जत्तो वच्चइ तत्तो वच्चउ । संधिऊण गुणो अच्छिता मुक्को सरो उप्पराहुत्तो । जाव बावीसाए वि पुत्ताणं न एक्केण वि विद्धा राहा । विलक्खीभूया निव्वुई । राया वि अहोमुहो ठिओ, दीहुण्हे नीसासे नीससंतो । भणिओ अमच्चेण- 'देव ! किमेयं ? । भणियं रन्ना- 'पेच्छ, धरिसिओ म्हि पुत्तेहिं' । भणियमणेण- 'अण्णो वि देवस्स अस्थि पुत्तो । तं पि पेच्छह' । भणियं रन्ना- 'कुओं मे पुत्तो अन्नो। अमञ्चेण समप्पियं पत्तडयं । नायं रन्ना जहा - एयस्स धूया मए परिणीया आसि । भणियं रन्ना10 'महाभाग ! जं एएहिं न सिद्धं तं किं तेण सिज्झिहि त्ति । किं तेण विगोविएणं?' । भणियममच्चेण'आगच्छउ ताव, सो वि परिच्छिज्जउ' । भणियं रन्ना- ‘एवं होउ' । गओ आभरियविभूसिओ पञ्चक्खं कामदेवो व रूवेणं सुरिंददत्तो पिउणो सगासे । पणमिओ राया । कओ उच्छंगे । अग्पाहओ उत्तिमंगे। निरूवियाई अंगाई । नायं जहा-अस्थि अब्भासो कलासु । भणिओ रण्णा- 'पुत! राहं विधिऊण परिणेसु निव्वुई, पावेसु रायसिरिं' । भणियं कुमारेण - 'जमाणवेह देवो । तओ ॥ धरिया दुवे खग्गवावडा पुरिसा उवज्झाएण । जइ चुक्कसि ता नस्थि ते जीवियं-कि बहुणा । दोहिं खग्गधरपुरिसेहिं तज्जमाणेहिं, अग्गियाइहिं चउहिं समाणवएहिं पुव्वपरिचएणं रोडंतेहिं, बावीसाए एग. पिइएहिं विग्यं करेंतेहिं, अन्नत्थ चित्तं अकरेंतेण लक्खेकाबद्धदिट्ठिणा सुइरं निज्झाइऊण मुको बाणो। विद्धा राहा । उद्धाइओ कलयलो । समुट्ठिओ 'जय जय' सहो । पक्खित्ता वरमाला । जाव परिणीया निव्वुई सुरिंददत्तेण । ठाविओ रजे पिउणा एसो । सिरिमाली वि- 'अहं रज्जारिहो जेठ्ठपुत्तो, तओ ममं 2० मोत्तूण किराडदुहियापुत्तो कणिडओ रज्जे ठविओ, ता परिभूओऽहं' -चिंतेंतो अहिमाणेण निग्गओ इंदपुराओ । गओ पाडलिपुत्ते । ठिओ सूरसेणस्स तप्पुरवासिणो राइणो ओलग्गवित्तीए । तेण य रायपुत्तो ति दिन्नं जीवणं । सो य सूरसेणो सावगो साहुसमीवे वच्चइ वंदओ । सिरिमाली वि तेण सद्धिं वञ्चइ । अन्नया नंदीसरवत्तव्वयाए भणियं गुरुणा- 'जो मणुओ नंदीसरे चेइयाइं पूएइ परमभत्तीए, सो मरिऊण वेमाणिओ देवो होइ' ति । तओ चिंतइ सिरिमाली- 'अहो किं मम सेवाए तुच्छफलाए । ॐ पूएमि गंतूण नंदीसरे चेइयाई, जेण परलोगे वि सुहिओ भवामि' । पुच्छिओ गुरू- 'भगवं! कत्थ मंदीसरो जेण तहिं वच्चामि चेहए पूइउं' । गुरुणा भणियं- 'भद्द ! जंबुद्दीवाओ अट्ठमो दीवो नंदीसरो। न तत्थ तवबलं विज्जाबलं वा मोत्तूण अण्णेण बलेण गंतुं सक्विजइ' । तओ सिरिमालिणा चिंतियं'कत्व मम एत्तियाई पुण्णाइं जेहिं नंदीसरं दच्छिस्सामि, चेइयाई तत्थ पूयइस्सामि' । एय परिणामपरिणएण निबद्धं देवाउयं । मओ अहाउयक्खए । उववण्णो सोहम्मे । तत्थ गएण पुणरुत्तं नंदीसरग४ मणेण । तत्थ महाविभूईए अंजणपवयाइसु चेइयाणं अट्ठाहियामहिमं पूयणं करेंतेण उप्पाडियं विसुद्धतरसम्मइंसणं । तओ वि चुओ सुमाणुसत्तदेवभवेसु आहिंडिय किंचि कालं, लद्भूण सामण्णं, काऊण कम्मक्खयं, मोक्खं जाहि त्ति । एवं पूयापणिहाणेण वि जइ एवं फलं पावियं, ता सुडेयरं कायबा जिणपूय चि ॥ ॥सिरिमालि त्ति गयं ॥५॥ ___ 1 B हूओ। 2 B °हया। 3 B पिच्छह । 7 B भावं। 8 'परिणाम' नास्ति B। 4 B कुवो। 5 B पत्तं । 6 'गंतूण' नास्ति A। Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनपूजाविषयक- रोरमारीकथानकम् । ६. रोरनारीकथानकम् । साम्प्रतं रोरनारिति । मगहाविसए रायगिहं नाम नयरं । बम्हा' इव चउम्मुहं, केसवो इव लच्छीनिलयं, संकरो इव विसप्पहाणं, तत्थ विक्कतमहीवीढो सेणिओ राया । तत्थ संकरो इव अनज्जमाणजणणि जया, महामुणि व्व सुसियमंससोणिया निट्ठियाहंकारा य, खग्गिविसाणं व एगजाया, चंडिया इव पणट्ठजढरा एगा रोरथेरनारी परिवसइ । सा य परपेसणेणं भिक्खाए य कह कह वि उदरपूरं कप्पेमाणी विहरइ । दयाठाणं विवेईणं, उवहासपयं बालाणं, उव्वेवणिज्जा जोव्वणउम्मत्ताणं । अण्णा रायमग्गे परिब्भमंतीए एगत्थ दिट्ठो जणसमूहमज्झगओ तित्थयर पउत्तिवाहगो सेणियनि उत्तो भगवओ चरमतित्थयरस्स आगमणं साहेमाणो एगो पुरिसो । 'किमेस साहइ' चि रोरीए खणंतरं ठिच्चा दिण्णो कण्णो । भणियं पुरिसेणं - 'भो भो ! नायरगा ! नियकंतीए दिसाचक्कवालमुज्जोविंतो, उत्तत्तकणयच्छवी, सुरनिम्मियवरचामीयरमयपोमपंतीए पाए ठवेंतो, दोहिं वि पासेहिं सियचामराहिं उक्खि । प्पमाणीहिं उपि सियच्छत्तत्तएण पिणद्धवराभोगो, अणेयसमण समणी सहस्सपरियरिओ, विमाणमालाहिं नहं गणमापूरयंतेहिं पुरओ पिट्ठओ य धावंतामरकोडिसएहिं थुबंतो, ताडिज्जंताहिं देवदुदुहीहिं पवाइज्जमाणेहिं अणेगेहिं देवतूरेहिं देवबंदिविसरेण समुक्कित्तिज्जमाणगुणनियरो, भगवं नायकुलकेऊ तेलोक्कपियामहो 'दुज्जयअंतरारिजयएक्कलपुहइवीरो महावीराभिहाणो चउवीसहमतित्थयरो भव्व कुमुयपडिबोहणसारयससी' अज्ज रायगिहं नयरं गुणसिलयं उज्जाणं पद्द संपहारेच्छु ' आगमणयाए । एत्थंतरे कथं देवेहिं । समोसरणं । अवि य 10 15 देवाच्या ] मणि - कणग- रयणचित्तं भूमिभागं समंतओ सुरभिं' । आजोयणंतरेणं करेंति देवा विचितं तु ॥ बिंद्धाई सुरभिं जलथलयं दिव्वकुसुमनीहारिं । पयरेंति समंतेणं दसद्धवण्णं कुसुमवासं ॥ मणि-कण - रमण चित्ते चउद्दिसिं तोरणे विउविंति । सच्छत्त- सालिभंजिय-मयरद्धय चिंघसंठाणे ॥ आमिंतर - मज्झ - बहिं विमाण - जोइ - भवणाहिवकयाओ । पागारा तिन्नि भवे रयणे कणगे य रग्रए य ॥ ३७ 25 एमाइ विहिणा कए समवसरणे' पुग्वद्दारेण पविट्ठो भयवं । उवविट्ठो सिंहासने । धम्मं वागरेमाणो चिट्ठ । एयावसरे वद्धाविओ मए राया भगवओ आगमणेणं । दिण्णं मे पारितोसियं दाणं । ता भो देवाणुप्पिया ! गच्छह तुब्भे वि भगवंतं वंदिउं' ति । तीए वि रोरथेरीए 'उद्धसियरोमकूवाए सुयं तं । चिंतियं 'तीए - 'जामि भगवंतं" वंदामि । जइ नाम एवंविहदुल्ललिया एवंविहभत्तीए भगवओ वंदगा जंति, किमंग पुण अहं सव्वदुक्खनिहाणभूया न गच्छामि' चि - मोचूण भिक्खममणं गया पुव्वोवल -: द्धसिंदुवारकुसुमुच्चयनिमित्तं अडवीए । गहियाई सिंदुवारकुसुमाई | नईजले " धौऊण दंडिखंडंचले" निबद्धाहं । तत्थ (तओ ! ) पट्टिया भगवओ पूयणत्थं समोसरणाभिमुहा । छत्ताइच्छतं दूरओ चैव पैच्छंती हरिसभर निब्भरंगी - 'भगवओ पाए पूजिय वंदिस्सामि' - ति चिंतंती सकद्दमभूमीए अक्खुडिया, मम्मपएसघाएण गया पंचत्तं । उववन्ना सोहम्मे देवत्ताए । तो ओहिं पउंजइ - 'किं मे कयं ?' । दिट्ठ नियकडेवरं गहियपुष्पं । नायं - 'एयपच्चयमेयं' ति । तओ देवकिच्चं परिश्वज्ज आगओ भगवओ वंदणत्थं । इओ य सेणिओ नयरीड" नीहरंतो पेच्छइ तं रोरनारी कडेवरं । चिंतियं सेणिएण - 'निस्सीला निव्वया 5 B सुरहिं । 6 B जल11 B जळेण । 12 A 30 1 B बंभा । 2 B दुजय इकल° | 3B पडिबोहसरय ं । 4 B संपहारिच्छ । धरयं । 7 B समोसरणे । 8 B उद्धसिय° । 9B अणाए । 10 B भयवं । दंडिखंडचलं । 13 B नयराज ! Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ श्रीजिनेश्वरसूरिकृत-कथाकोशप्रकरणे [५ गाथा वराई कहिं गय!" -त्ति पुच्छिस्सामि भगवंतं । पत्तो वंदिय पुट्ठो भगवं रोरिवुतंतं । भगवया वि देवो दंसिओ, साहिओ' वुत्तंतो । पूयापणिहाणस्स एवं फलं ति । ता विसेसओ जिणपूया कायव्व ति ॥ ॥रोरनारि त्ति गयं ॥ ६॥ गतः पूजाधिकारः । तदनन्तरं वन्दनविधिमाह - जे वंदंति जिणिंदं वंदणविहिणा उ सम्ममुवउत्ता । सुरसंघवंदणिज्जा हवंति ते विण्हुदत्तो व्व ॥५॥ व्याख्या- 'ये पुण्यभाजो 'वन्दन्ति जिनेन्द्रम् , वन्दनविधिना' - पञ्चदण्डककमरूपया, 'सम्यक् - स्थानवर्णार्थालम्बनविशुद्ध्या, 'उपयुक्ता- तदर्पितान्तःकरणाः, भावसारम् । ते किमित्याह - 'सुरसंघवन्दनीया - देवव्रातनमस्करणीयाः, 'भवन्ति विष्णुदत्त इव' । भावार्थः कथानकगम्यः । तच्चेदम् - २७. विष्णुदत्तकथानकम् - मगहाविसए गोबरगामे सोमसम्मो माहणो आसि । सोमा से भारिया । तीसे पुत्तो विण्हुदत्तो' नाम । सडंगविऊ, चउक्वेयविसारओ, अग्निहोत्ताइसु माहणपसिद्धासु किरियासु रओ, अप्पाणं बहुमण्णमाणो, सेसं जगं तणाहिंतो वि लहुययरं गणेतो परिब्भमइ । उवहसइ सावगे' - 'एए सुद्दा सुद्धदाणाओ सोहिं मण्णंते । 'दक्षिणाया द्विजः स्थानं' - इति न बुद्ध्यन्ते । अन्नया मासकप्पविहारेण विहरंतो समागओ तत्थ धम्मदेवो नाम सूरी । लोगो निग्गओ वंदणवडियाए। विण्हुदत्तो चिंतेइ - 'लोगमज्झे ते समणए हयमहिए करेमि, जेण एए समणोवासगा मम भत्तिं करेंति' । गओ सो तत्थ, ठिओ पुरओ । भणिउमाढत्तो'भो भो ! तुमं केरिसं धम्मं वागरेसि । भणियं सूरिणा- 'अहिंसासारं धम्मं वागरेमि' । भणियं दिएण - 'किं नु जीववहेण हिंसा, सरीरवहेण वा ? । जइ जीववहाओ-ता जीवो अणिचो पावइ । तओ जेण कयं न सो तं भुंजइ, कारगस्स विणासाओ। अह सरीरवहेणं-ता पिइ-माईणि मयाणि डहंताणं ॥ तव्वहो; तहा मुग्गाईणं कडेवराई" भुंजमाणाणं साहूणं हिंसा पावई' । भणियं गुरुणा – 'भद्द ! न जीववहाओ, नेव" सरीरवहाओ हिंसा इच्छिज्जइ । किं तु जीव-सरीरविजोजीकरणेणं' । एमाइवयणवित्थरं सोऊण पडिबुद्धो, वंदिय उवविट्ठो विण्हुदत्तो । भणिउमाढत्तो- 'भंते ! को देवो तुम्ह ?' । भणियं गुरुणा-'सकलो निकलो य दुहा देवो । तत्थ उप्पाडियदिवनाणो, देवसंघपरिगओ, पञ्चक्खीकयअसेसदव्वखेतकालभावो, सयं कयत्थो वि तहासहावत्तणओ परहिएक्करओ धम्मं कहेइ । सो भयवं वीयरागो सयलावत्थो भण्णइ । जो पुण सयलकम्मंसविप्पमुक्को सुद्धजीवसहावो, 'अपाणिपादो ह्यमनोग्रही ते त्यादि वेयवयणपसिद्धो, सो निकलावत्थो भण्णइ' । भणियमणेण – 'एयमेयं' ति । एत्थंतरम्मि वियलिओ मोहगंठी, उप्पाडियं सम्मत्तं । तओ भणियं" विण्हुदत्तेण- 'देहि मे गिहत्थधम्म' । आरोविया रिणा दंसणपडिमा । साहिओ चेइयवंदणविही । जाओ सम्मत्तसावगो । वंदइ पूइऊण तिक्कालं चेइयाइं विहीए । मुद्दाविन्नासाणुरूवं विरएइ करचरणाइं । वण्णसमं "घोससमं "कंठोट्ठविप्पमुकं उच्चरइ __ 1 A साभिओ। 2 A जिणंदं। 3 B विठ्ठदत्तु। 4 B अत्थि। 5 B विठ्ठदत्तो। 6 B छडंग । 7 B सावगा। 8 B मन्नंति। 9 B विट्ठदत्तो। 10 B अहिंसाधम्म। 11 B कडेवराणि। 12 B नेय । 13B नास्ति पदमिदम्। 14 Bएत्थंतरे। 15A भणिदं। 16 B नास्ति । 17 B कंछ । Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या ] जिनगुणगानविषयक सिंहकुमारकथानकम् । ३९ 5 बंदासुतं । अणुसरह वंदणापयाणं अत्थं । जिणबिंबाओ दिट्ठि मणं च अन्नत्थ न निवेसेइ । अखलियं अमिलियं अविच्चामेलियं सुत्तं वंदणाए भणतो, अत्थाणुगमेण भगवओं' असाहारणगुणेसु कुणइ बहुमाणं । पुणो पुणो एवं भावसारं चेइयवंदणाकरणेणं वच्चइ कालो । पूएइ साहूणो । अन्नदाणाइणा सम्माइ सावगे । अन्नया पूइयजिणबिंबस्स, पडिकंतइरियावहियस्स, थयभणणपुव्वं सक्कत्थयं पढ़तस्स; असाहारणगुणे' भगवंताणं मणे धरेंतस्स; अरहंतचेइयाणं भणंतस्स; तेलोक्कासीणजिणबिंबाणं पुरओ ठियजिणबिंबे समाणरूवत्तणओ समारोवं करेंतस्स; न हि पमाणवण्णाइयं मोक्खकारणं, किं तु असाहारणगुणाहारतणेणं सव्वे समाणरूव त्ति संभावयंतस्स; लोगस्सुज्जोयगरं पढंतस्स; एगस्स वि बिंबस्स पुरओ वण्णपमाणाइ न वंदणागोयरं ति समाणगुणत्तणेणं उसभाईणं सन्निवेसं करेंतस्स; पञ्चक्खं पिव संभावयंतस्स; पुक्खरखरदीवङ्कं भणंतस्स; विणयाइसयदारेणं भगवंताणं चेव गुणे समुक्कित्तयंतस्स; सिद्धथयं पढंतस्स; वंदणफलं सिद्धत्तं संभावयंतस्स ' ; नाणं जीवाउ अव्वइरितं, तत्थ य भगवओ बिंबागारं अव्वइ - 10 रित्तं तं पितक्कालियभगवंताओ अव्वइरितं अणुहवंतस्स; किं बहुणा - भगवओ बिंबागारस्स य नियविनाणस्स य नाणं च जीवाओ अव्वइरितं; अओ एएहिं समरसापत्तिमणुहवंतस्स, जगस्स वि वंदणीयतमत्तणो संपाडयंतस्स; जओ तित्थयराणं न बिंबेण य अव्वइरित्तं अचाणमणुहवइ, भगवओ बिंबाणि य जगवंदणीयाणि चेव, तेहिंतो अव्वइरित्तो सो वि तह च्चियत्ति - एवं च पवड्डुमाणेण भावेण चिइवंदणं करेंतस्स विडुदत्तस्स' आगओ आउयबंधसमओ । बद्धं देवाउयं । कालेण अहाउक्खपण मओ, उववन्नो अरुणोदय विमाणसामी । अओ जाओ सव्वस्स वि तव्विमाणवासि देवदेविसंघस्स वंदणिज्जो चि । अओ वंदणाए एवंविहफलविवागं' दहूण अन्नेण वि एवं जिणबिंबवंदणा कायव्वति । पारंपरेण मोक्खो तम्फलं ति । ॥ विण्डुदत्तकथानकं समाप्तम् ॥ ७ ॥ गायंति जे जिणाणं गुणनियरं भावसुद्धिसंजणगं । ते गिज्जति सुरेहिं सीहकुमारो व्व सुरलोए ॥ ६ ॥ CONG व्याख्या - ' गायन्ति' विशिष्टगीतबन्धेन, 'ये' केचन, 'जिनानां ' - सर्व विदाम्, 'गुणानां' - ज्ञानादीनां 'निकरं ' - संघातं 'भावशुद्धिसंजनकं' - चित्तनैर्मल्यकारकम्, 'ते' दर्शनप्रभावकत्वेनापरेषां मार्गे बुद्धिजनकत्वेन पूर्वोपात्ता गायना 'गीयन्ते सुरैः' - देवैः, 'सिंहकुमारवत् सुरलोके' गता इति शेषः । इति । भावार्थः कथानकादवसेयः । तच्चेदम् - 1 B भगवंतो । 2 A असाहारणेण । 3 A विणीयाइ । 4 B भावयंतस्स । 5 B वित्थयरेण तब्बिंबेण य अव्वइरित्तं । 6A वित्त 7 B एवं विवागं । 8 B उवयाइ । ८. सिंहकुमारकथानकम् । बहुदिवसवण्णणिज्जं कुसत्थलं नाम नयरं । तत्थ य रायलक्खण संपण्णो कुसुमसेहरो राया । तस्स य अधरियगोरीसोहग्गा पउमसिरी नाम भारिया । साय पुत्तकए परितप्पइ गाढं । पुच्छर जाणए, भयइ जोगिणीओ, पूएइ नयरदेवयाओ, उवयाएइ कुलदेवयं, पियइ मूलीओ, न य जायइ से पुत्तो । अन्नया पुतअसंपत्तीए निविण्णा नियजीवियस्स । पुत्तो वा होइ मरामि वा निच्छरणं - ति मणेण कय- 20 20 25 Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनेश्वरसूरिकत-कथाकोशप्रकरणे [ ६ गाथा निच्छया ठिया कुलदेवयाए सीहिणीनामाए पाडिचरण । गयं सत्तरतं । वारेइ राया अमञ्चादओ - 'न नजइ पमत्ताओ देवयाओ किं करेइ, अन्नस्थगयाओ वा कहिंचि होति । ता किमणेण अकंडविहरेण । भणियं देवीए तुइ थणो व अह एइ खीरमन्ना गई न जं अस्थि । थीवज्झा देवीए पुत्तं वा देइ किं बहुणा ॥ ६ अट्ठमदिगे आगया अड्डरते देवया । मणियमणाए- 'हला किमेयं । भणियं देवीए - 'न नाहिसि जं एवं ?। भणियं देवयाए- 'भइणि ! सजाई एसा' । भणियं देवीए - 'सामिणि! तुमं पि उवहससु । असमत्तपइण्णा जइ जियंति उवहसइ सामि ता लोगो । अंगीकयमरणेणं उवहासपयं किमेयाणं ॥ भणिवं देवयाए – 'किं भणसि तुमं सुयणु ? । देवीए भणिया- 'पुतं देसु, अहवा पाणे पडिच्छसु । देवकाए भणियं- 'न पसवंति देषयाओ, कुओ मे पुत्तो' । देवीए भणियं॥ 'वारिजंताए वि मए पडिवण्णमिणं तु सव्वलोएण । ता अप्पत्तसुयाए सामिणि! जीयं पि मे नत्थि ॥ दुजणजणहसियकडक्खखग्गविच्छिन्नहिययसाराए। किं जीवियमविसिस्सइ सामिणि पाणा पडिच्छाहि ॥ भणियं देवयाए- 'पुत्ति ! उठेहि, होही ते पुत्तो' । भणियं पउमसिरीए- 'अस्थि एवं जं भगवई भणइ । किं तु लोगावहासमीया हं, ता देवि! लोगपञ्चक्खं पत्ते ठिच्चा उट्ठावेहि ममं' ति । पडिवन्नमिमाए । जाव सूरूग्गमे अत्थाणगयस्स रन्नो कुमारीपत्ते ठियाए उवठ्ठाविया देवी । आणंदिओ राया। 15 कयदेवपूषा जिमिया । जाव, कमेण समाहूओ गब्भो । दिछो य तीए रयणीए सीहो सुविणे। सिट्ठो पडिबुद्धाए सुविणो रन्नो । तेण वि भणियं – 'सीहविक्कमो ते पुतो भविस्सइ' । भणियं देवीए- 'अवितहमेषं वयणं होउ' । बद्धो उत्तरिजंचले सउणगंठी । ठिया सुविणयजागरियाए, गुरुदेवयकहाहि जाव परिवड्डइ गब्भो, जाओ पुन्नेसु दियहेसु । वद्धाविओ राया दासचेडीए । दिण्णं से पारितोसियं । कर्य वद्धावणयं । बारसाहे अइक्कंते कयं देवयासुविषाणुरूवं सीहकुमारो ति से नामं । जाओ कमेण अट्ठ20 वारिसिओ। समप्पिओ लेहायरियस्स । गहियाओ कलाओ। सोहणदिणे आणीओ गेहे । दिणं पारितोसियं उवज्झायस्स । भणियं रन्ना- 'पुत्त ! कत्थ ते पयरिसो?' । भणियं सीहेण- 'देवपायपसाएणं सव्वासु वि; किं तु विसेसो गंधव्वकलाए' । भणियं रन्ना - 'तातं चिय साहेसु' । 'जं देवो आणवेइ' । मणिउमाढत्तो सीहकुमारो-'साय ! तिसमुझणं गंधव्वं । तं जहा-तंतिसमुत्थं, वेणुसमुत्थं, मणुयसमुत्थं च । तत्व तंतिसमुत्थं वीणा-तिसरी-सारंमियाइअणेगविहं, मणुयजाईण हियए वियंभमाणो रागो मंद्राइ23 भेयओ तंतीए कोणयच्छिवणाइवसेणं समुप्पजइ । एवं वंसे वि । तत्थ वीणाए नालसुद्धी सल्लवज्जणेणं, तुंबयसुद्धी वट्ट समचउरंसं इत्यादिना, तंतिसुद्धी वलियोहारुअवलवज्जियवालसणसुत्तविरोहो य । एवं सारंगियाइसु वि । वेणुसुद्धी वढं अणुब्भसुक्कं अकीडखइयमित्यादि । अहवा- ताय ! लक्खवित्थराइं सत्थाइं, कित्तियाइं भणामि । मणुयभवं पुण - नाइकिसो, अथूलो, मुहगलरोगवजिओ, अहवा सव्वहा नीरोगो, पमुइओ, जोवणे वट्टमाणो, तिलतिल-गुल-कुम्मासाइभोयणविवज्जगो महु-सक्करुम्मीस पयपाई ३० तंबोलविसुद्धमुहो जो रिसो इस्थी वा, तस्स पयत्तपेरिओ मामीओ वाऊ समुच्छलइ । सो य उरे विस्थिन्नो कंठे संवट्टिओ' मुद्धाणं हणंतो मुहे संचरंतो तालउट्ठजीहादतपरावक्त्वसेणं वण्णाइं संजणंतो नादं जणेइ तार-मंद्राइभेयं । सो य नादो ठाणाइवसेणं सत्तहा सरभेएणं भिजइ । ते य सरा सामण्णविसेसमेएणं" निरूविज्जंता, ततो गामा हवंति । तेसु वि" सरेसु गामेसु य पुरिसपयत्तवसेणं एगवीसं 1 Bउवहसउ मा तं लोगो। 2 B कालेण। 3 B मंद्राव। 4A वि। 5B °सक्करमीस। 6 B विच्छित्तो। 7 B संवडिओ। 8A हरंतो। 9A °परावत्तणेणं। 10 Bअमहा। 11 A°रूवेणं। 12 A.य। . Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याक्या ] जिनगुणगानविषयक सिंहकुमारकथानकम् | ४१ मुच्छणाओ भवंति । तेसु य सरेसु बायालीसं रागा समुप्पज्जंति' । तेसु य रागेसु दुहा गीयं उप्पज्जइ । तं जहा - आगमियं देसियं च । तत्थागमियं सत्त सीगडा सत्त भाणियाओ' भाणयदुंबिलियाओ य । तत्थ देसियं च - एला-मट्ठिय- दुवई भेयमणेगविहं कालेणाहिज्जियं । ता य कालेण भणिउं तीरइ । तम्मि -3 थुई निंदा य प । न य सज्जणमुहाओ निंदा निग्गच्छइ । थुई पुण दुविहा - संतगुणुक्कित्तणरूवा, असंतगुणुक्कित्तणरूवा । तत्थ नासंतगुणे सच्चपइण्णो समुल्लवइ, मुसावाइत्तपसंगाओ । संता वि दुहा साहारणा, असाहारणा य । तत्थ जे साहारणा ते समाणेसु वा हीणेसु जणेसु संभवंति । ते वि सुप्पुरिसाणं न थुइगोयर त्ति | असाहारणा पुण जे अण्णेसिं न संभवंति, उत्तमपुरिसाणं चेव संभवंति । बहुगो य जणो रागद्दोसपाणाइवायाइस वट्टमाणो दीसह । अओ एयगुण वण्णणं न असाहारणगुणविसयं ति । किं तु एएसिं पडिवक्खो वीयरागि त्ति माइया । ते य न मणुस्समेताणं, किं तु देवजाईयाणं केसिंचि । ता ताओ वाहरावेउ पासंडिणो, पुच्छउ तेसिं धम्मं देवविसेसे य; जेण असाहारणगुणस्स 19 देवरस गुणनिबद्धं गीयं गाइऊण तायस्स गीयकलापगरिसं देसेमि' । रन्ना भणियं - ' एवं करेमि ' । दाविओ पडहगो, जहा - 'भो भो ! सव्वपासंडिणो ! राया धम्मं सुणेइ । आगच्छह सव्वे, नियधम्मं साहेह' । समागया पासंडिणो । दावियाई आसणारं । निसण्णा, पूइया तंबोलाइणा । भणिया - 'निय - नियधम्मं कमेण साहेह' । तत्थेगेण छोडियं पोत्थयं, वाइउमाढत्तो - - परिहासवसणकट्टणकरकमलनिहित्तअच्छिजुयलस्स । रुदस्स तइयनयणं पावइपरिचुंबियं नमह || भणियं कुमारेण - इयरजणो इव देवो इत्थीजणसंगओ जया रमइ । ता कह इयरजणो इव वंदिज्जर सिट्ठलोएण ॥ ता अलमेतेण । अन्नो कोइ' भणउ । अन्नो भणिउमादत्तो - गिरिनइसमुद्दकाणणगामागरनगरसंगया वसुहा । उदरम्मि जस्स निवसइ तं देवं नमह भत्तीए ॥ भणियं सीहेण - हुं हुं न जुत्तमेयं धरणी उदरट्ठिया जया जस्स । ता रहवरो सयं वा कत्थ ठिओ वाहयमिणं ता ॥ अन्नेण भणियं - संहार - सिट्ठि- सत्ता पयावई जो करेइ विस्सस्स । तं नमिउं बंभाणं भणामि तत्तं निसामेह || सीहेण भणियं - अवरोप्परं विरुज्झइ न कयाइ अणेलिसं जगं वयणं । संहार - सिट्ठिकरणे बंभस्स इमं न चिंतेह ॥ अवरेण पोत्थयमुच्छोडिउं भणियं - अवहरइ भयं तुट्ठो रुट्ठो तं देइ जो तमाइच्चं । नमिउं भणामि तत्तं एगग्गमणा निसामेह ॥ भणियं सीहेण - रूसह तूसइ देवो अम्हाहिंतो विसिस्स केण । ता अलमिमिणा अन्नं भणसु तओ भणियमेगेण ॥ 1 A उप्पजंति । 2 B समुप्पज । SA देखिजं । 7 B कोवि । 8 B तस्स । क० ६ 4 B भाणिओ । 5 A गुणाण° । 6 B एण 15 20 25 30 Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ _ श्रीजिनेश्वरसूरिकृत-कथाकोशप्रकरणे [६ गाथा माइंदजालसुविणयउवलंभसमं जयं' इमं सव्वं । जो भणइ तं नमंसिय सुगयं तत्ताई वोच्छामि ॥ भणियं कुमारेण - जइ सव्वमसंतमिदं माइंदसमं जयं ति ता कस्स । को वा किं वा साहइ वयणमिणं जुत्तिपरिहरियं ॥ 5 अण्णो संपयं भणउ । पडिहारेण भणियं - ‘एत्तिया चेव एए । ता उठूह, गच्छह सट्ठाणं' । गया विलक्खीहूया । भणियं सीहेण- 'एत्तिया चेव किं एए हवंति। भणियं पडिहारेण – 'अन्ने वि सेयंबरसाहुणो अत्थि', ते य पयत्तवाहरिया' त्ति । भणियं रन्ना- 'पडिहार ! तुमं गच्छ, विणएण वाहराहि' । गओ पडिहारो । विणएण समास्या समग्गनयकुसला, वायलद्धिसंपण्णा, अमियतेयरिणो पविरलसहाया गया रायकुलं । अब्भुट्ठिया परिसाए, दिन्नमासणं, वंदिया रायाइहिं । तंबोलं दाउमुजओ राया । 10 भणियं सूरिणा- 'महाराय ! रागंगं तंबोलो न कप्पइ बंभयारीणं । अन्यैरप्युक्तम् - ब्रह्मचारियतीनां च विधवानां च योषिताम् । ताम्बूलभक्षणं विप्रा गोमांसान विशिष्यते ॥ तुट्ठो राया भणइ – 'एवमेयं भंते !' । कुमारेणावि मग्गाणुसारित्तणओ उप्पाडियं निसग्गसम्मइंसणं । भणियं रन्ना'को देवो को धम्मो साहह, अम्हाण दुक्खतवियाणं । संसारसमुत्थाणं दुक्खाणं होज जह अंतो' ॥ भणियं सूरिणा- गयरागदोसमोहो सव्वन्नू सयलजीवलोगस्स । एगंतहियं भासइ सो देवो नरवर जयम्मि ॥ उवयारवयारेसुं न य सो वट्टइ सयावि' लोयाणं । विजो व हियं पत्थं उवइसइ जणाण नरनाह ॥ जो तं करेइ वयणं जायइ भवरोगवजिओ साहू । वेजकिरिया व जायइ विवजए तप्फला चेव ॥ एवंविहो हु देवो तव्वयणं सव्वलोयहिययन्नू । सिद्धंतो तक्किरिया विहिपडिसेहाणुगो धम्मो ॥ कारगभेया सो पुण" धम्मो दुविहो जईण सवाणं । खंताईओ पढमो बीओ उ अणुव्वयाईओ ॥ एमाइ देसणाइ पडिबोहिया गुरुणा । गहियाई सम्मत्तमूलाइं अणुव्वयाइं । परिपालेंति" सावगधम्म । तओ सो सीहकुमारो पराए सद्धाए संवेगसारं पराण वि संवेगं जणयंतो, असाहारणे जिणगुणे गायइ । तत्तो य परेसिं धम्मे उच्छाहं जणेइ । ईसणपहावणा य" होइ । तं जहा संसारसमुद्दगतभविकउद्धरणा, कामकोहमायमोहमिच्छत्तअवहरणा। 30 एसिं करि गायइ रायसीह कुमारा, वीर तुह पायविरहि सयल अंधारा । - एसिं करि गायइ रायसीह कुमारा । __ 1 B जगं। 2 B संति । 3 B अभयतेय। 4 B °उज्जुओ। 5 B सया हि। 6 A विजायइ । 7 B तप्फलं। 8 B वि । 9 B हिययत्थं। 10 B कारणकज्जवयारा धम्मो। 11B परिवालिंति । 12 'य' नास्ति BI Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनगुणगान विषयक सिंह कुमारकथानकम् । देवसुरमणुयसिवसंपयतरुकंदा २, नरयदुहतिरियभवसंततिविच्छेदा । - एसिं करि०, इत्यादि । व्याख्या ] सम्मत्तनाणचरणतव विरियवरजाणा २, संसारगतभविक दिनलेससमुत्तरणा । - एसिं करि०, इत्यादि । असेससंसयतरुकंदकुठारा २, विविहगुणरयण संपुण्णभंडारा । - एसिं करि गायइ०, इत्यादि । उप्पदिकाबंधः ॥ ॥ एवं सावगधम्ममणुपालयंताणं वच्चंति वासरा । इतो य गयउरे संखो राया । बंधुमई से महादेवी । तीसे धूया सव्वकलाकुसला जक्खकन्नगा इव उक्कट्ठरूवा जाया समारद्धजोव्वणारंभा । सा य सव्वालंकारविभूसिया जणणीए पेसिया पिउणो पायवंदिया सुकुमालिया नाम । निवेसिया संखेण 10 उच्छंगे । भणिया य - 'पुत्ति ! वरजोग्गा संपयं तुमं, ता जमिच्छसि तस्स वरेमि' । भणियं सुकुमालियाए - भावियजिणवयणाणं विसयसुहं विससमग्गलं ताय ! । साहीणअणाबाहे मोक्खसुहे ताण पडिबंधो ॥ जं विसयविरत्ताणं सोक्खं सज्झायभावियमईणं । तं मुणइ मुणिवरो चिय अणुहवउ न उण अण्णो वि ॥ 1 अप्परिकम्मिय देहा नवरि न जोग्गा इमाए वत्थाए । तेण विसदिट्टभोयणसमे वि विसर न नियमेमि ॥ तत्थ य मइ अणुरतो दक्खिण्णमहोयही वियड्डो य । नवजोवणो सुरूवो गुणुन्नओ चाइ भोगी य ॥ अणुरचपरियणो मिचवच्छलो रइवियक्खणो सुहओ । जइ नवरि ताय ! भत्ता होज्जा, भुंजामि ता भोए ॥ जं ताय ! गोहमेते पडिबद्धा बहुसवत्तिमज्झम्मि । न य गिहि न य पव्वइया अप्पं कह अप्पणा दुहिमो || भणियं संखेण - धन्नाण पुत्ति काणई पव्वज्जा होइ पुव्वकम्मेहिं । जं विसमा विसयगई विरईरयणं बला हणइ ॥ एयावसरे कुसत्थलपुरागरण पढियं अवसरन्नुणा रामभट्टेण - सयलकलाकलाव सुवियड्डु पियंवय वायसारउ, रुवं कुसुमवाणु रइसुंदरु कामिणिहिययचोरउ । पसरह दसदिसासु अनिवारिउ जस्स गुणोहु निम्मलो, सहकुमार केण उवमिज सो जणदाणवच्छलो ॥ ४३ जद्द होज्ज वयणलक्खं वयणे जीहा सहस्समेक्केक्के । जीवइ वरिससहस्सं सो वण्णइ जइ गुणे तस्स ॥ नयरे कुसत्थलम्मी रायरिसी कुसुमसेहरो नाम । तस्स सुओ नरपुंगव सीहकुमारो जए पयडो ॥ भणियं संखेण - 'इमा सुकुमालिया तस्स उचिया दिज्जइ । किं तु सो सावगो नव चिन आणामो* । भणियं भट्टेण - इंदहासुं वियरइ दंसणणाणाई गुणगणो तस्स । नरवर ! अणण्णसरिसा भत्ती जिणसासणे तस्स ॥ 1 B चउपइकाबन्धः । 2 B पालिताणं । 3A किं वायायडउ तव । 4 B याणामो । 5 भणियं रन्ना - ' अरे को एरिसो सीहकुमारो, किं वायाडंबरो ण तव भणिए होही ?, भणसु' | 26 भणियं भट्टेण - 15 20 20 Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ श्रीजिनेश्वरसूरिकृत-कथाकोशप्रकरणे [६ गाया ___ सम्माणिओ दाणाइणा भट्टो । पेसिया' पहाणामच्चा । तत्थ गओ भट्टो वि सह तेहिं । संपत्ता कालेण कुसत्थलए । अग्गओ गंतूण पढियं भट्टेण-रण्णो सीहकुमारस्स य पुरओ दिटुं देव ! किं पि अच्छेरउँ तिहुयणचोजकारयं, ___ इत्थी रयणु एत्थु दुलहो वसुमुणिगणहिययहारयं । उव्वसि रंभ लच्छि सतिलोत्तिम अच्छर गउरि दोवई', नरवर ! तीइ पाइ पडिबद्धा अग्घू न कावि पावइ ॥ ता तीए कुमारो नरवरिंद ! जोग्गो वरो न अन्नो ति । अणुसरिसो संजोगो सीहकुमारस्स एयाए । तदनंतरमेव आगया संखसंतिया अमच्चा । दावियाई आसणाई । संमाणिया तंबोलाइणा । पुट्ठा कुसलपउत्तिं । एत्थंतरम्मि ताणं मज्झाओ एगेण खुयं, भणियं- नमो अरहंताणं ति । भणियं रन्ना10"किं तुब्भे सावगा' । भणियं विदुरेण- 'एवं' । भिणियं रन्ना- 'संखो वि किं सावगो ? । तेण भणियं- 'बाढं सावगो । भणियं रण्णा- 'केरिसं तस्स धम्माणुट्ठाणं निव्वहइ ? । भणियं विदुरामच्चेण - तत्थ तित्थनाहकल्लाणगदिणागमणे विगाले घोसिजइ" - "कल्ले पहायाए रयणीए मा कोई" एगिदियाईणं ववरोवणं करेउ, कोदाललंगलाइहिं पुढवीए; अरहट्ट-उस्सिंचणाइहिं आउकायस्स; दवदाणइवाहपागारंभाइसु तेउकायस्स; लोहधवणयाइहि वाउकायस्स, वणछिंदणाइहिं वणस्सइकायस्स; सिप्पिसंखम्गहजल्गादाणाइहिं बेइंदियाणं; मंकुणजूयागहणाइहिं तेइंदियाणं; महुगड्डर गहणाइहिं चउरि15 दियाणं; आहेडएण सूयराईणं; वग्गुराकूडाइहिं मयाईणं; अण्णं पि एवमाइसव्वजीवाणं हिंसणं जो काही सो महादंडारिहो ति"- एवममारिं घोसाविय चारगारमोयणं काऊण तओ पञ्चूसे बलवाउयं सहावेह । भणइ-चउरंगिणिं सेणं पउणी करेहि । तओ दिजंति सारवट्ठाई करिवरेसु, विलसति ते य जहारिहं । तओ य जयमंगले समारोहइ राया सह देवीहिं हत्थिखंधे । अंतरासणट्ठाणे निबज्झइ फलयं । सारव ट्ठमझे ठाविज्जइ जहाविहिविरइयण्हाणपूयोवयारं महारिहं जिणबिंबं । राया छत्तं गहाय तस्स पिट्ठउ 20 ठाइ, देवीओ सियचामरे गहाय, उभओ पासेसु ठायति । पुत्ता धूवाइयं डहति । वीणावेणुमुइंगपणवाइयं वाएंति । फलगे हिठिया" निउत्ता नच्चइ विलासिणी । सेससामंता समारुहंति अन्नकरिवरेसु । उभओ पासेसु वारुयाओ, तासु समारुहंति पेच्छणगाइं । वाइजति तुराई, वगंति चट्टा, पढ़ति भट्टा, मंतमुच्चारिति विप्पा, गायति "पाणपंतीओ समुच्छलइ पिट्ठावयरओ अवरोप्परं वारविलासिणि जुवाणएहिं खिप्पंतो । उक्कुट्टियसीहनायं करेमाणा पहरंति परोप्परं पुरओ पिट्ठओ य अस्सारूढा - जुवाणा । कुंकुंममयनाहिसंगयजालसिंगएहिं जयजया बिंति परिणयवया । एवं विहरतो दिसाओ नीहरइ रायमग्गेणं जिणगेहाओ । वियरइ हथिणाउरे तिय-चउक्क-चच्चराइसु । अग्धिज्जई पडिगेहं पडिमाओ । पूइजंति पइ आवणवणिएहिं । एवं सबाहिरब्भंतरं नयरमाहिंडिय आगच्छह जिणाययणे । तओ राया गायंतीहिं विलासिणीहिं, वजंतेहिं पंचहिं महासद्देहिं, लोणं जलं आरत्तियं च 1 B पेसिया मच्चा। 2 B तेसिं। 3 B नास्ति 'देव'। 4 B अच्छेरं। 5 A एत्थी। 6 A एत्थ । 7A देवइ। 8 A अग्घ। 9 B तयणंतर। 10 Bसमागया। +-+ एतदन्तर्गता पंक्तिः पतिता B आदर्श । 11 B घोसाविजइ। 12 B कोवि। 13 A पागाइसु। 14 Bधम्मिणाइ वाउ। 15 B दत्तकुहाडगाइ वणप्फइ । 16 B गंडर। 17 A फलगे ठिया। 18 B नास्ति पदमिदम् । 19 B मग्गंति। 20 A पाणं। 1-1 एतदन्तर्गतः पाठः पतितः A आदर्श । 21 B नास्ति पदमिदम् । 22 B अचिजति । 23 A पूइजइ । 24 B आगच्छति। . Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या ] जिनगुणगान विषयक - सिंहकुमारकथानकम् । ४५ उत्तारेह । तओ चेइयालए पडिमं' का (ठा ) ऊण वंदिय चेइए राया सपरियणो नियगेहमागच्छइ । तओ सीहदारे कीरंति पवेस मंगल्लाई । पविरलसावयपरिवारो राया पोसहसालाए पविसइ । देवीओ निययाए पोसहसालाए पोसहं करिति । ततो लक्खणछंदालंकाराइनिम्माया सुविणिच्छिय जिणवयणचरिया सुसावया जिणचरियपडिबाई पोत्थयाई गहाय' पविसंति । एवं देवीण वि पोसहसालाए सुसावियाओ अजियाओ वा पत्थर वाएंति । राया वि उम्मुक्कमणिभूसणो सिरिवण्णिपट्टोवविट्ठो मुहवत्तिय थइय-: मुहकुहरो, सव्वत्थ तक्कालं निरभिस्संगो निउत्तपुरिसपरिवालियपरिकरो ताव सुणेइ जाव वेयालियं । ता सम्वेहिं पोस हिसावगेहिं सह करेइ आवस्सयं । ताहे सज्झायं काऊण गुरुदेवधम्म कहासु सुइरं अच्छिऊण बंभचेरपोसहरओ सुवइ सिरिवणिपट्टे निरावरणो । पहाए य तूररवेणं पडिबुद्धो, रविदंसओ पोसह पाता, कयसोओ देववंदणाइयं काउं अत्थाणमंडवे निसीयइ । कयाए लोगजत्ताए, 'सूयारो विष्णवे - 'देव ! भोयणकालो' । तओ उट्ठित्ता मज्जइ, चेइयपूयं काउं वंदर चेइयाइं । पहाणमंती य साहुणो वाहरइ । एते दद्दूण साहुणो राया सीहदुवारं जाव अभिमुहमागच्छइ । वंदित्ता पिट्ठओ लग्गह, जाव उचियमंडवे ठायंति । आसणे दावेइ, वंदइ, पडिला भेत्ता पुणो वंदइ । सीहदुवारं जाव अणुयंचइ । वंदिता नियत्तइ । एवं अज्जियाओ वि । ताहे सुस्सावगेहिं परियरिओ दाइय डिंडिमघोसणापुरस्सरं तडियकप्पडियाईण' भुंजइ । भुंजित्ता' जिणसाहुगुणकहाए थेववेलं अच्छिऊण राया सेज्जाए ठाइ । सावगा वि स गच्छंति । एसो तस्स धम्माणुट्ठाणविही' । भणियं कुसुमसेहररण्णा सीहेण य - सोहणमणुट्ठाणं महाभागस्स सुद्धं माणुसजम्मं जी वियफलं च । भणियं रण्णा - 'अहो ! एवंविहसाहम्मिएण सह जइ' पीति" होज्ज' त्ति । भणियं विदुरेण - 'देव ! एयरस चेव अट्ठस्स कारणे वयमागया' । भणियं रन्ना - 'कहं ?' । भणियं विदुरेण - देवपायाणं ताव कुमारो सुपसिद्धगुणो चेव । एवं अम्ह सामिणो संखस्स रण्णो धूया अत्थि सुकुमालिया नाम । बंधुमईए महादेवीए अत्तया " | केरिसा ? - अवि य - 1 B पडिमाओ । 2 B गहाय सुसाहुणो सुसावया वा पविसंति । 5 B पडिला हित्ता । 5 B दाविय° । 6 B कप्पडियाणं । 7 A 'जइ' । 10 B पीई हविज्जत्ति । 11 B अत्तिया । 12 B मित्ताहे । 15 A 16 A कमलो व्व । 17 B विव । 20 B कुमारट्ठाए । 21 Bari 22 B नरिंद । माइ तरलत्तमुवगयाइं अवंगपाएहिं जोन्हधवलाई । पिसुणा इव कन्नंतं निचं पत्ताइं नयणाई || पडिवज्जइ लायण्णं वयणं अलयावलीए परियरियं । कमलं व छप्पयावलिपरियरियं सूरउदयम्मि | 1 ईसीसि उन्नया से पओहरा हाररयणमालाहिं । उट्टंत निरुज्झती सुहडो" व रणंगणे तेहिं ॥ वित्थरइ नियंबं जाहि" तीए परिहाइ " जढरमेत्ताहे । अहिमाणाहीणस्स उ पवित्थरं ताई" दहूणं ॥ परिचहउं पिव जढरं निवासउवासिय व कसिण त्ति । उङ्कं परिसप्पती संजाया रोमराई से | सरलतमुवगयाहिं नहंगुलीहिं महाभिरामाहिं । चलणा वि तीए नरवर वियसियकमल" व्व सोहंति ॥ देव ! मच्छीए विलोललोयणे तिहुयणे न सो जस्स । न हरंति मणं मोचूण जिणवरं साहुणो तह य ॥ सा गीय- नट्टकुसला पत्तच्छेज्जाइकम्मसु वियड्ढा । विज्जागुणेहिं नरवर ! सरस्सई चेव" पच्चक्खा || धम्मकरणे" नरवर ! इयरजणेणं न जाउ से उवमा । जुज्जइ न चेव भणिउं अज्जाओ मोतुं न हु अन्ना ॥ ता देव ! ती कण्णा " आगया सीहकुमरदाणट्ठा" । इय" जइ जुत्तं जाणह कुमरस्स वरिज्जउ तो " सा ॥ 30 3 B मुहपुत्तिया ठइय । 4 B सूवयारो । भुंजावित्ता । 8 A ° फलं ति । 9A नास्ति सुहडु व्व । 13 A जाहे । 14 B जठर18B कजे । 19 B कजे समागया । 10 15 20 25 Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनेश्वरसूरिकृत-कथाकोशप्रकरणे [ ६ गाथा भणियं रन्ना – ‘साहम्मियाणुरागमुव्वहंताणं जुत्तमेयमेवमम्हाणं । लग्गं निरूविय देह' त्ति । निवि लग्गं । तओ' देवयाणुपुरओ घोसियमेतेहिं दव्भहत्थगएहिं जलं हत्थे देतेहिं - "एसा महारायाहिरायसंखधूया बंधुमईए महादेवीए अत्तिया सुकुमालिया नाम सीहकुमारस्स दिण्णा " । कयं वद्धावणयं । भणियं कुसुमसेहरेण - 'जे एते अंतररायाणो ते सव्वे मम दंडं वहंति । न य सीहो ताण पाउगो । तहावि एसो अईवदुलहलंभओ, अओ अम्ह हिययं न तरेह * अन्नत्थ वञ्चतस्स । ता' इहेव समागच्छउ दारिया' । भणियं विदुरेण - 'मा देवो एवं भणउ । सीहकुमारगुणगणस्स उम्माहिओ संखो महाराओ । तत्थ वच्चउ कुमारो । जाव नियगा भूमी ताव निरुवद्दवमेव, परतो अम्हच्चयं दलमागमिस्सह । न किंचि दूसणं संपज्जिस्सइ' । भणियममच्चेहिं - 'देव ! वच्चउ कुमारो, अम्हे वि देवासेण कुमारेण सह मिस्साम । को कुमारस्स जए पडिमल्लो' । पडिस्सुयं रन्ना । निरूवियं विवाहलग्गं । निरूवियं पत्था - 10 णदिणं । गहिया सउणा । महया विच्छड्डेण पयट्टो कुमारो । अवि य - ४६ 15 पक्कलपाइक्कविमुक्कपोक्कसंरुद्धजणसुईविवरो । रहनेमिघणघणारवपडिरव खुब्भंत' करिनियरो ॥ करिपायपायकंपियमहिवीढचलंतसयलसेलोहो । वरतुरयखरखुरुक्खयखोणिरयाऊरिय दियंतो ॥ असिसत्तिकुंतसव्वलसं कंततवंततरणिपडिबिंबो । संभंतमहीयल उच्छलंत पेरंत जलहिजलो || करिघंटारहघणघणपक्कलपाइकपोक्कतूरखो । बहिरेइ जोइसाणं देवाण वि तत्थ' सुइविवरं ॥ पत्तो कमेण गयउरे, वद्धाविओ संखो । नीहरिओ अन्नोगइयाए, कया उचियपडिवत्ती । दाविओ आवासों । समादत्ता अंगमद्दया संवाहणाइकम्मे कुमाराईणं । मज्जिया जहाविहीए । कयकायव्वा निसन्ना पडिमंडवे । एत्थंतरे समागया मुद्दिया पंचउलपरियरिया रसवई । निवेसिओ पडिवक्खओ । भुतुट्ठिए तमि अजावियारे निविट्ठो सीहो सपरियणो । उवट्ठाविओ चकोरो । भुत्तो जहाविहीए । आयंता सुइभूया सन्निसन्ना तदुत्तरमंडवे । उवणीयं विलेवणाइयं पंचसोगंधियं तंबोलं च । समादत्तं पेच्छणयं । 20: अइवियड्डा नट्टिया । दाविया जहावसरं चउसट्टी हत्थया । सट्टाणेसु कया चउरो भूभंगा । एवं अच्छि ताराकवोलना साहरपओहरचलणाइभावा तेसु तेसु ठाणेसु । कुमारो वि उवउत्तो चिंते । चिंतियमणाए - कुमारपरिच्छणत्थं करेमि विवज्जयं । कओ कवोलभंगे विवज्जओ ताराभंगे" य | चिंतियं सीहेण - पुव्वं सत्यभणिया भंगा कया इमाए, संपयं विवज्जओ दीसइ । ता किं खलिया ?, उयाहु" एसो वि विही कत्थइ निबद्धो ? त्ति पुच्छामि । निवारिया आओज्जिया । वच्छिए " ! कुओ तुमाए एस भंगंतरो अहीओ ?, 26. सत्थाभिप्पाएण विवज्जओ । दरहसियं काऊण भणियमणाए - 'देव ! भरहे भणियं' । भणियं सीहेण - 'भो मा एवं भण, जओ सुत्तओ विवरणओय भरहं मम कंठोट्टं । भणियमणाए - 'ता मण्णे चुक्का भविस्सामि' । कुमारेण - ' एवं पि होज्जा, अम्ह परिक्खा " वा होज्जा' । भणियमणाए - 'देवो जाणइ' । एत्थंतरे समागया रन्नो सम्मया वियडसावगा इन्भाईणं पुत्ता । निवेइया दुवारपालेण । वारियं पेच्छणयं । पवेसिया सम्माणिया उचियपडिवत्तीए । भणिया सीहकुमारेण - 'सावगाण केरिसो धम्मो ?' | भणियं 30 ताण मज्झे एक्केण पटुबुद्धिणा रामाभिहाणेण - ' कुमार ! धम्मो पुण्णं, उयाहु" सहावो नेवत्थाइ - रूवो वा ?, किं धम्मं पुच्छसि ?' । दरहसियं काऊण भणियं सीहेण - 'तिविहं पि साहेसु' । भणियं रामेण - 'सायपुंवेयरइहासदेवाउयाइसुहाओ कम्मपगडीओ धम्मो त्ति वा पुन्नं ति वा एगट्ठा । अह 1 Bar 6 B लग्गंति । 10 B भंगो य । 2 B गहिएहिं । 7 A खुब्वंतकर | 11 A उवाहु | 3 B एसो य एक दुल्लह । 4 A भरेइ । 5 B ता दारिया इहागच्छउ । 8A संतत्त । 9B नूण + एतदन्तर्गतः पाठः पतितः A आदर्शे । 12 B वच्छे । 13 B परिक्खणं । 14 A उवाहु | Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या ] जिनगुणगानविषयक-सिंहकुमारकथानकम् । ४७ सहावो, ता उवसम-संवेग-निव्वेय-अणुकंपा-अत्थित्तं (कं) ति । अह नेवत्थाइओ, तदा विकियवयणपरिहारो, विकियवेसपरिहारो, निकारणं परघरपवेसपरिच्चागो, कीडापरिवज्जणं' । भणियं सीहेण- 'वयनियमाइओ धम्मो सावयाण केरिसो?' । भणियं रामेण - 'सम्मत्तमूलाई दुवालसवयाई । तत्थ सम्ममिच्छापोग्गलाणं जीवपएसेसु अन्नोन्नाणुगयाणं जीवेण सह समरसीभावातो तत्तरुईभूयस्स' जीवस्स विवज्जासकारयाणं खओवसमोवसमखयाओ जीवस्स जं नियसहावाविब्भावणं तं सम्मत्तं । एत्थ य संका- 5 इया अईयारा पंच' । भणियं सीहेण___ अविवज्जासो सम्मत्तमो उ संकादओ विवज्जासो । ता कह अइयारो सो भणाइ मूलं न जं तेसु ॥ कह नज्जइ अन्नत्थ उ भणइ इमो उवसमाइलिंगेहिं । बारस अट्ठय उदए भणइ कसाया गिहत्थाणं ॥ __ आइल्लकसायाणं कत्तो नजंति जं इमे पढमा* । ता कह तेसि उवसमो भणइ इमो पढमयक्कसायाणं । इह उवसमो त्ति गम्मो भणति तओ सो कहं नेओ ।। तो भणइ रामसङ्लो पढमकसायाण उवसमो एसो । अण्णावमाणियाण वि तत्तईए न ज कोवो ॥ दहूण पाणिनिवहं भीमे भवसायरम्मि दुक्खत्तं । अविसेसओणुकंप करेइ भरहस्स कहमेयं ।। रामो भणेइ नरवर ! अविसेसपयत्थतो न दोसो त्थ । जं सत्तुमाइ बुद्धीविगप्पिया नाणुकंपित्थ ।। इच्चाइ सक्कहाए अच्छिऊण उट्ठिया सावगा । एयाए विहीए वच्चंति दिणाणि, जाव कमेण आगयं ।। लग्गं । परिणीया महया विच्छड्डण सुकुमालिया सीहकुमारेण । कयं वद्धावणयं । दिन्नं करितुरगाइयं संखण सीहस्स । कया सव्वेसिं उचियपडिवत्ती । ठिओ कइवि दिणाणि । जाया अवरोप्परं पीई सुकुमालियाए सीहस्स य । संखरायाणुण्णाओ समागओ नियनयरे सह सुकुमालियाए, पवेसिओ विहिणा य । ठाविओ पुढो पासाए । एवं विसयसुहमणुहवंताणं वोलीणो कोई कालो । पइदिणं च चेइयपूयं काऊण वंदिता भत्तीए गायइ जिणगुणे । अण्णया समागया चउनाणिणो विजयदेवसूरिणो । वद्धा- 20 विओ राया, कुमारो य । निग्गओ सपरिवरो कुसुमसेहरराया कुमारो य वंदणवडियाए । विहिणा पविट्ठा ओग्गहे । तिपयाहिणी काऊण, वंदिय, निविट्ठा सट्ठाणेसु । पत्थुया धम्मदेसणा । जहावसरं नाऊण भणियं सीहेण - ‘भयवं ! गाढाणुरागविसया एसा सुकुमालिया । ता किमत्थि कोइ एयाए सह भवंतरसिणेहो ?' । भणियं सूरिणा- अस्थि, सुणेसु वइयरं___ इहेव भारहे वासे कोसंबीए नयरीए सालिवाहणो राया । पियंवई से महादेवी । तीए जिट्ठो पुत्तो 25 तोसली नामा । सो उम्मुक्कबालभावो उक्किट्ठरूवो रइवियक्खणो जुवराया होत्था । तत्थेव कोसंबीए धणदत्तो सत्थवाहो । तस्स नंदा भारिया । तीए धूया सुंदरी नाम अईव सुरूवा । तत्थेव सागरदत्तइब्भस्स सुलक्षणाए भारियाए पुत्तेण परिणीया जसवद्धणनामेण । सो य कायरच्छो, मणयमुइंतुरो, नासावंसो वि मणयं निन्नओ, दीहरा सिरोहरा, तिभिंडा सीसकरोडी, पिंगला सीसकेसा, निम्मंसा अंसा, खोरयरस्स" व पिट्ठिवंसो, पुया निभमित्तेणं, खरफरुसाओ बाहाओ, निम्मंसा कवोला, अयापइणो 30 व्व से कुच्चो । अओ सो न भावइ सुंदरीए । तइंसणमेत्तेण वि उवियइ, किमंग पुण संभोगेण । एवं ., 1 B रूवस्स। * B आदर्श एवैतद्गाथार्द्धमुपलभ्यते। 2 B तस्स। 3 B इय। 4 B गम्भो । 5 B भणइ। 6 B कोवि। 7A कहावसरं। 8B पुरीए। 9A तीए पुत्तो तोसली नाम जेट्ट पुत्तो। 10 B तिभिंटा। 11 B खोरटारस्स। 12 A कुंचो। Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ श्रीजिनेश्वरसूरिकृत-कथाकोशप्रकरणे [गाथा सा नारगोवमं दुक्खमणुहवंती वि कुलंकुसनिरुद्धा अदिट्ठपयारा य तत्थच्छइ । अण्णया संपढिओ जसवद्धणो दिसानत्ताए भूरिभंडं गहाय । भणियमणेण - सुंदरी वि मए सद्धिं गच्छिस्सइ । सा य तस्स निबिन्ना नाम पि नेच्छइ सोउं । भणियमणाए- 'मम सरीरं साबाहं पोट्टसूलमरोचगं अपरिणामो निद्दानासो-ता कह तुमए सद्धिं वच्चामि । नवरं मए जइ मयाए कजं ता नेहि' । भणियं सासु-ससुरेहिं5 'अच्छउ पुत्त ! सुण्हा, तुमं कुसलेण गंतुं आगच्छ' । गओ सो, ठिया सुंदरी । पिट्ठओ चिंतियं सागरदत्तेण-दुक्खरक्खणीया एया वच्छा, भत्तुणा' रहिया, ता असोहणं कुणंती जं अचोइजिही तं पि कक्कसं भासिस्सइ । तओ जसवद्धणो वि विप्पयारिस्सई एईए । ता धणदत्तगेहे चिट्ठउ । मंतियं सुलक्खणाए सह सागरदत्तेण । अणुमयं दोण्ह वि । कहिओ धणदत्तस्स वुत्तंतो । ता ओसहं माउसमीवे करिस्सइ-त्ति भणित्ता सघरं नेहि । तेण भणियं-'अम्ह आसंघएण थोवंतरेणेव रूसिस्सइ । अण्णं "तुब्भे अहिगारिणो फरुसं पि भणिउं, न य अम्हाण विप्पडिवत्ती काइ वि एत्थच्छि त्ति । ता अच्छउ तुम्हाण चेव घरि' । ठाविया उवरिमभूमीए । तत्थ ठियाए चेव वत्थ-पुप्फाइयं सिणाण-भोयणाइयं च दासीओ अति । एवं वच्चइ कालो । अण्णया सा ठिया निज्जूहगे अलए समारेइ दप्पणवावडकरा । इओ य तेणोगासेण तोसली सिणिद्धवयंसयपरिवारिओ वच्चइ । मिलिया दोण्ह वि अवरोप्परं दिट्ठी । जाओ दोण्ह वि अणुरागो। वयंसमुहमवलोयंतेण भणियं तोसलिणा अणुरूवगुणं अणुरूवजोव्वणं माणुसं न जस्सत्थि । किं तेण जियंतेणं पि मामि नवरं मओ एसो॥ भो भो ! एवं पढह तुब्ने इमं गाहं, अन्नहा वट्टह ति । मोट्टायंतीए तीए वि उप्पराहुत्तं निरूविय पढियं परिभुंजिउं न याणइ लच्छि पत्तं पि पुण्णपरिहीणो। विक्कमरसा हु पुरिसा मुंजंति परेसु लच्छीओ॥ लद्धाभिप्पाओ गओ सो तत्तो । सावि तोसलिरूवहयहियया ठिया जाव विगालवेलाए समागया मूहविया नाम दासी । सा वेयालियं दाऊण पुप्फतंबोलाइयं समप्पिय गया सट्ठाणं । सावि अवढक्किऊण दुवारं, उग्घाडं मोत्तूण निजूहगं, ठिया सेज्जाए । समईए रयणीए जाममेते समागओ तोसली । विजूक्खित्तकरणेण समारूढो गवक्खेण पासाए । ठइयाणि' निहुयं गंतूण सुंदरीए अच्छीणि । 25 भणियमणाए -मम हिययं हरिऊणं गओसि रे किं न जाणिओं तं सि । सचं अच्छिनिमीलणमिसेण अंधारयं कुणसि ॥ ता बाहुलयापासं दलामि कंठम्मि अन्ज निभंतं । सुमरसु य" इट्ठदेवं पयडसु पुरिसत्तणं अहवा ॥ एमाइ कहाविणोएण अच्छिऊण बहु भुत्ता सा तेण रइवियड्डेण । रंजिया सा रइगुणेण गाढमणु3. रत्ता । पहायंतीए रयणीए गओ सो जहागयं । सुंदरी वि रइकिलंता पसुत्ता सूरुग्गमणं जाव । समागया सूहविया दंतवाणियं गहाय । पेच्छइ निब्भरं पसुतं । चिंतियमणाए - न सुंदरं जं पउत्थवइया एयाए वेलाए सुवइ । ठिया मोणेण जाव, चिरस्स विउद्धा । भणियं दासीए- 'सामिणि! किमयं" एच्चिर 1B भत्तार। 2 B पिप्परियारिस्सइ। 3A थोयतरेणा य। 4 B नास्ति 'चेव'। 5 B मनामि । 6 B सोउ। 7A.ठियाणि। 8B मह। 9 B कट्टम्मि। 10 A सुमरसु व इट्ठदेविं। 11Bइहरा। 12 B किमिच्चिरं। Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाल्या] जिनगुणगानविषयक-सिंहामारफथानकम् । सुप्पइ ? । भणियं सुंदरीए- 'भत्तुणो विओगे रयणीए निद्दा न आगया, संपयं पभायंते सुत्त म्हि । भणियं दासीए - 'सामिणि ! किमेयमहरे ?' । भणियमणाए - 'सीतेण फुट्टो त्ति । भणियं दासीए- 'परिगलियं कीस अच्छिजुयलकजलं?' । भणियमणाए – 'भत्तुणो विओगे रुण्णं, तओ अच्छीणि मलियाणि' । भणियं दासीए – 'सामिणि ! सुयचंचुसण्णिहाई किह नहक्खयाई पासेसु' । भणियमणाए – 'भत्तुणो विओगे गाढमप्पणा आलिंगंतीए कहिंचि जायाई' । भणियं सूहवियाए - 'अहं ते समीवे सोविस्सं जेण अवरोप्प- 5 रमालिंगयामो' । भणियं सुंदरीए-' हाहा पइवईए अजुत्तमेयं । भणियं दासीए - 'सामिणि ! किमज्ज कबरीबंधो विसंठुलो ?' ति । भणियमणाए- 'भइणि ! अइनिउणा केरिसाइं पुच्छसि । हयासे ! तत्तपुलिणं व सयणीयं भत्तुणो विरहे पडिहासइ । तओ' उत्थल्ल-पत्थल्लं करेंतीए केरिसो कबरीबंधो होइ त्ति । नवरं ससुरकुलस्स खयमुप्पेक्खसि एवं पुच्छंती तुमं' । भणियं सूहवियाए - 'सामिणि ! "थुत्थुक्कियमेयं, न विज भे" ससुरकुलस्स खओ भविस्सइ, परमा वुड्डी उण्णई होही एयस्स' ति भणिऊण गया । सूहविया । सुंदरीए वि बीयरयणीए आगयस्स सिहं तोसलिकुमारस्स- 'जइ मए कजं करेसि, ता अण्णत्व वच्चामो । जओ विण्णायवइयरो ससुरो रायाणं पिच्छिस्सइ, राया वि रक्खं कारिस्सइ । जह पुण तुमं नजिहिसि ता किं राया करेइ, न नज्जइ, ता निग्गच्छामो' त्ति । पडिस्सुयं तोसलिकुमारेण । गओ सगिहे । गहियाई महम्घरयणाई, पल्लाणिया जच्चतुरंगा । एगो अप्पणो, एगो तीए । उत्तारिया गवक्खेण । समारूढा आसे । रायपुत्तो ति न केणइ थाणंतरेण निवारिओ । नीहरिओ नयराओ गओ दूर-15 तरेण रजे । ठिओ सो तत्थ एगम्मि नयरे । विक्कीया आसा, संगहिया एगा घडदासी पाणियरंधणाइकज्जे, एगो य गोहो धन्निधणाइविसाहणपहरगाइकज्जेण । अच्छंति दो वि रइपसचाणि । सहावओ दुन्नि वि दाणप्पियाणि निमित्ताभावओ पयणुकसायाणि य । अन्नया समागया से गिहे भिक्खट्ठा साहुजुयलं । पडिलाहिया मावेण । निबद्धं उत्तमभोग मणुयाउयं । तओ कालमासे कालं काऊण तोसली उववन्नो तुमं सीहकुमारो सुंदरी वि सुकुमालिया । एवं अवरोप्परसिणेहकारणं । ___ एयं सुणिऊण भणियं कुसुमसेहररण्णा - 'हा हा, अहो ! दुरंतो रागो । कहं रागाउरा" पाणिणो कागिणिहेउ कोडिं हारेति । एगओ" कागिणितुल्ला वणियधूया, एगओ कोडितुल्ला रायसिरी । घिरत्यु विसयाणं कुलकलंकभूयाणं । अहो अकजं, जं" जाणंता वि जिणवयणं अम्हे वि विसएसु पयट्टामो । भंते ! विरत्तो हं विसयाणुसंगाओ । जं नवरं सीहं रायपए अहिसिंचामि । करेमि सहलं माणुसत्तणं' ति । तओ सीहं रायपए अहिसिंचिय पव्वइओ राया सह देवीए । पव्वजमणुपालिय गओ सुरलोगं । एय 25 निमित्तं चेव कुमारस्स सुकुमालियापरिणयणं वन्नियं रन्नो वेरग्गकरणत्तेण । अन्नहा सीहस्स जिणगुणगायण देवलोगगमणमेव पत्थुयं ति किं सुकुमालियाए वइयरं ति । तओ सो सीहो राया जाओ । तिसंझं भगवओ बिंब पूइऊण वंदिऊण जिणगुणे गायइ परमभत्तीए । निबद्धं तप्पच्चयं देवाउयं । आउक्खए य उववन्नो सोहम्मे कप्पे चंद्दज्झयविमाणाहिवई । तत्थ य गिजंति गुणा तन्निवासि-तहाविहसुरसंगेण । एवं अन्नो वि जो एवं करेइ तस्स एवं चेव भवइ ति । सीहकुमारो त्ति गयं ॥ ३० ॥ सीहकुमारकहाणयं समत्तं ॥८॥ 1B पहायंते। 2 B सीएण। 3A परिमलियं। 4 B पइवइयाए। 5B केरिसयाई। 6Bहयासि । 7 B तह उत्थल्लपत्थलिय। 8 Bखयमुविक्खसि एव। 9 Bथुत्थक्किय। 10 A विजुमे। 11A रागाओ। 12 A कागणि। 18 B एक्काओ। 14 B नास्ति 'जं'। क०७ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनेश्वरसूरिकृत-कथाकोशप्रकरणे [७ गाथा साम्प्रतं चैत्यपूजनादिवत् साधुवैयावृत्त्यादेरपि मोक्षाङ्गतां दर्शयितुमिदमाह - वेयावच्चं धन्ना करेंति साहूण जे उ उवउत्ता । भरहो व्व नरामरसिवसुहाण ते भायणं होंति ॥ ७ ॥ व्याख्या- 'वैयावृत्त्यं – भक्तपानौषधादिसम्पादनम् , 'धन्याः' - पुण्यभाजः, 'कुर्वन्ति साधू5 नाम्' - आचार्यादीनां साधुत्वात् तद्ग्रहणेनैव ग्रहणात् । 'ये' - केचन लघुकर्माणस्ते, किमित्याह - 'भरतचक्रवर्तिवत् , नरामरशिवसुखानां ते भाजनं भवन्तीति प्रकटार्थम् । भावार्थः कथानकादवसेयः । तच्च विस्तरत आवश्यकविवरणादवसेयम् । 'टपतकया () स्थानाशून्यार्थ कथ्यते सुप्रसिद्धत्वादिति । ०९. भरतकथानकम् । __ इहेव जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे पुंडरिगिणी नाम नयरी । मूलनिवेसाइयं पयई सा सासयभाव10 मुवगया, अओ कहं अम्हारिसेहिं वन्निजइ । तीए य तम्मि काले वइरसेणो राया तिहुयणेक्कचूडामणी । तविवागफलदायिकम्मवसेणं निबद्धतित्थयरनामगोत्तो वि रजसिरिमणुहवंतो चिट्ठइ । तस्स य साहुकिरियावससंपत्तपुण्णपब्भारा देवलोगाओ चुया जाया धारिणीए देवीए कमेण* पंच पुत्ता । तं जहावइरनाभो, बाहू, सुबाहू, पीढो, महापीढो य । अन्नया भयवं वइरसेणतित्थयरो दाऊण संवच्छरियं महादाणं, अदरिदं काऊण पयं, लोगंतियदेवेहिं चोइओ वइरनाहं रायपए अभिसिंचिय पवज्जमुवगओ। 15 छउमत्थभावेण विहरिलं किंचि कालं, अन्नया सुहज्झवसायस्स केवलनाणं समुप्पन्नं । पवत्तियं तित्थं । वइरनाहो वि जाओ चक्कवट्टी । भाउयाणं चउण्ह वि दिन्ना विउला भोगा । भगवं पि वइरसेणो तित्थयरो बोहितो भवियलोयं केवलिविहारेणं विहरिओ सुइरं कालं । अण्णया समागओ पुंडरिगिणीपुरीए । विरइयं देवेहिं समवसरणं । सन्निसन्नो भगवं पुरत्थाभिमुहो सीहासणे । संनिविट्ठा देवाइया सहाणेसु । वद्धाविओ चक्कवट्टी उज्जाणपालएणं । दिण्णं से पारितोसियं । चलिओ सभाउओ सव्विड्डीए भगवओ 20 वंदणत्थं । सुया देसणा । पडिबुद्धो वइरनाहो सह भाउएहिं । महाविभूईए अणेगसामंतामच्चपरिवारिओ पव्वइओ तित्थयरसमीवे । कालेण जाओ चोदसपुवी । सेसा चत्तारि एक्कारसंगसुयधारिणो । ठाविओ सहपव्वइयसाहूण नायगो सूरिपए । सम्मं गच्छं परिवालेंतो विहरइ । बाहु-सुबाहूहिं गहिओ अभिग्गहो, साहुवेयावच्चविसओ । तओ बाहू गुरु-गिलाण-बाल-वुड्ड-सेह-पाहुणगाइयाणं भत्तपाणोसहसंपाडणेणं कुणइ उवग्गहं । सुबाहू पुण जो जहा सज्झायाइहिं परिस्समं गच्छइ, तं तहा विस्सामणाए संवाहिय सज्झा25 याइखमं करेइ । अन्नया अगिलाणयाए वेयावच्चं कुणंता पसंसिया गुरुणा- 'धन्ना एए महाणुभावा, सुलद्धं जम्मजीवियफलं । अहो, अइदुक्करकारया खणं पि विस्सामं न लहंति । एयमेसि कडेवरं सहलं जं साहुकज्जे उवजुज्जई' । भणियं सेससाहूहिं - 'एवमेयं भंते ! पच्चक्खमुवलब्भइ । भगवंतो भणंति' । पीढ-महापीढेहिं न तहा गुरुवयणं बहुमन्नियं । पञ्चुलं चित्तेण मच्छरो बूढो । सच्चा रायठिई, अज वि' जो करेइ सो सलहिज्जइ । अम्हे सज्झायज्झाणपरा किं न सलहिज्जामो' । तप्पञ्चयं च निबद्धं दोहिं वि इत्थिवेयवेय0 णिज कम्मं । बाहुणा वि उववजिया चक्कवट्टिभोगा सुहाणुबंधा । सुबाहुणा वि बाहुबलं सुहाणुबंधकम्म। __ 1 B 'टपभकया' सर्वेषु आदर्शेषु इदं पदमुपलभ्यते । अस्पष्टार्थकमिदम् । 2 B पयई। 3 B °गुत्तो। 4 B नास्ति 'कमेण'। 5A पुंडरिगिणीए। 6 B समोसरणं। 7 B अविजेवि। 8 A बद्धं। 9 B इत्थीवेयणिजं । . 10 B°बंधं बद्धं कम्म। Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या ] साधु वैयावृत्त्यविषयक भरतकथानकम् । ५१ कालमासे कालं काऊण उववण्णा पंच वि सव्वविमाणे, तेत्तीस सागरोवमाज्या । कमेण आउक्खणं तत्तो पढमयरं चुओ वइरना हसूरिदेवो । पुव्वभवे वीसहिं ठाणेहिं निबद्धतित्थयरनामगोतो इहेव जंबुद्दीवे भारहे वासे तइयअरगस्स पज्जंते चरमकुलगरस्स नाभिनामस्स मरुदेवाए भारियाए चोद्दस महासुमि - पिसुणिओ उववण्णो गब्भे पुत्तत्ताए ति । सुमिणदंसणपडिबुद्धाए निवेइयं भत्तुणो चोदसमहासुमिणदंसणं । भणियं कुलगरेण - 'पिए ! महाकुलगरो ते पुत्तो भविस्सइ' । बहुमण्णियमणाए । जाव नवण्हं मासाणं अद्धमाणं इंदियाणं वोलीणाणं अड्ढरत्तकालसमयम्मि पसूया मरुदेवी पढमतित्थयरं दारियं च । चलि - यासणाओ समागयाओ छप्पण्णदिसाकुमारीओ । कयं सूइकम्मं । विउवियाइं चत्तारि चउसालाई । तओ गहिया देवीहिं मरुदेवी बाहाहिं, अन्नाए धूया, अन्नाए य सविणयमणुन्नविय गहिओ भगवं । ठाविया मंडव विविसी हासणे मरुदेवी । अन्नत्थ सीहासणे भगवंतं गहाय ठिया एगा देवी । अब्भंगिओ भगवं दारिया जणणी य । लक्खपागोत्तमतेल्लेणं उबट्टियाइं मयणाहिघणसारसणाहसारचुण्णेहिं । गया बीयमं- 10 डवे । तत्थ वि तहेव ण्हाणियाइं फासाणुरूवखीरोदवारिणा, निमज्जियाई सुगंध कासाईए, समालद्धाई गोसी सरसचंदणेणं । वत्थगंधमल्लालंकार विभूसियं जणणि जहारिहं भगवंतं धूयगंधं काऊण गयाओ तइयमंडवे । कयं तत्थ अग्गिहोतं 'जड्डावणयणनिमित्तं ठिइ ति गहिया रक्खा । गयाओ चउत्थमंडवे । विरइयं दुहओ उण्णयं मज्झे गंभीरं मिउफास गंगापुलिणं व वित्थिण्णं सयणीयं । निवज्जावियाई तत्थ । एगाए देवीए दिण्णा सयणीयपेरंतेसु भूइरक्खा । एवमाइ सबं काऊण भगवओ निम्मलगुणे गायंति । " अवि य - * 1 1 एगा उ पंजलिउडा अन्ना उ चामरेहिं गहिएहिं । भिंगारकरा अवरा अण्णा उ वालियंटसया ॥ एग दीव हत्था अवरा उ दप्पणेहिं गहिएहिं । गायंति जिणिंदगुणे छप्पण्णं दिसिकुमारीओ ॥ 25 एयावसरे सोहम्मे कप्पे सभाए सुहम्माए सक्कस्स चलियमासणं । तओ य तेण नायजिणजम्मवइयरेण ताडाविया सुघोसघंटा, उग्घोसावियं च । ततो ताडिया किंकरेणं सुघोरघंटा । अकम्हा टणटणा- 20 इया । तओ जमगसमगं एगूणबत्तीसार विमाणलक्खेसु चलियाओ सुघोसघंटाओ । तओ घंटाटंकाररवं सोच्चा, उवउत्सु सव्वदेवेसु, कया घोसणा; जहा - 'भो भो देवा सोहम्मकप्पवासिणो ! इंदो आणवेइ - भर हे पढमतित्थयरो जाओ । तस्स जम्माभिसेयनिमित्तं सवे देवा सबिड्डीए समागच्छंतु' त्ति । ते वि तव कुव्वंति । एवं सव्वेसु वि इंदट्ठाणेसु । एवं च कप्पवासिणो दस इंदा, दुवे निओगओ जोइसिंदा, वीसं भवणवइइंदा सपरिवारा महया इड्डीसमुदपणं समागया नंदीसरे । सक्को वि नंदीसराओ चउव्विहं : देवनिकायपरियरिओ समागओ जत्थ भगवं तिलोयबंधू चिट्ठइ । जणणीए ओसोयणिं दलइ । जिणपडिरूवयं विउव्वइ, मरुदेवीए समीवे मुयइ । तओ भगवंतं वंदिय अणुण्णविय करसंपुडेणं गेण्हइ । मंदरं वच्च । तत्थ मंदरचूलियाए पंडगवणमंडियाए दाहिणदिसाभायवट्टमाणाए अहपंडुकंबलसिलाए सीहासणे सक्को भगवंतं उच्छंगे निवेसिय निसीयह । ताहे अच्चुइंदाइकमेण अभिसिंचंति खीरोयवारिणा सव्वे इंदा | जाव ईसाणोच्छंगट्टियस्स सक्को भगवओ ण्हवणं करेइ । अपच्छिमं एयं । निव्वत्तियासेस- 30 काव्वो को भगवंतं गहाय समागओ जणणीसमीवे । उवसंहरिया ओसोयणिं । भगवंतं पल्लं निवेसेइ, खोमजुयलं कुंडलजुयलं च ऊसीसदेसे ठवेइ । भगवओ दिट्ठीए पुरओ सव्वरयणामयं सिरिदामं लंबतं ठवेइ । घोसावेइ य देवेहिं सव्वत्थ - 'जो देवो वा दाणवो वा भगवओ तज्जणणीए वा दुटुमणं 1 B धूयं च । 2 C जम्माविणय° । & B मिउफरसं । 4A नास्ति 'अविय' । 5 A जम्हा । Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनेश्वरसूरिकृत कथाकोशप्रकरणे [७ गाथा संपहारेज्जा, तस्स अजगमंजरीव मुद्धाणं सत्तखंडाइं फुट्टिस्सइ' त्ति-थुणित्ता गओ नंदीसरे । कया तत्थ सव्वहंदेहिं महामहिमा जिणबिंबाणं, गया य सट्टाणं । भगवं पि वड्डइ । कयं नामं नाहिकुलगरेण उसभो त्ति । संवच्छरे पुण्णे इंदेण वंसो ठाविओ । जाव भोगसमत्थं नाउं वरकम्मं तस्स कासि देविंदो । दोण्हं वरमहिलाणं वहुकम्मं कासि देवीओ ॥ नंदा-सुमंगलाहिं सह भोगे मुंजंतस्स अइकंता बहुप्पुव्वलक्खा । एत्यंतरे सव्वट्ठाओ चुया समाणा बाहू पीढो य सुमंगलाए कुच्छिसि, भरहो बंभी य मिहुणयं जायं । सुबाहू महापीढो य सुनंदाए कुच्छिसि बाहूबली सुंदरी य जुयलं जायं । अउणापन्नं जुयले पुत्ताण सुमंगला पुणो पसवे । रायाभिसेयसमए इंदेण अभिसित्तो महारायपए भयवं । कयं मउडाइयं 10 आहरणं नरेंदजोगं । आसा हत्थी गावो गहियाइं रजसंगहनिमित्तं । अण्णया सारस्सयमाइएहिं देवेहिं अभिहियं- 'सव्वजगज्जीवहियं भयवं ! तित्थं पवत्तेहि' । तओ वरवरियापुव्वं दिण्णं संवच्छरियं महादाणं । तहा भरहाइपुत्तसयस्स देससयं देइ । समागया बत्तीसं पि इंदा । उवट्ठाविया सुदंसणा सिबिया देवेहिं । आरूढो तत्थ भगवं । समाहयाइं तूराई देवेहिं । समुक्खित्वा सिबिया सुरवरेहिं । संपत्तो सिद्धत्थवणे । पडिवन्नं चरितं भगवया । । चउरो साहस्सीओ लोयं काऊण अप्पणा चेव । जं एस जहा काही तं तह अम्हे वि काहामो ॥ न वि ताव जणो जाणइ का भिक्खा केरिसा च भिक्खयरा । ते भिक्खमलभमाणा वणमझे तावसा जाया ।। भगवं अदीणमणसो संवच्छरमणसिओ विहरमाणो । कन्नाहि निमंतिजइ वत्थाभरणासणेहिं च ॥ अण्णया संपत्तो भगवं हत्थिणाउरे । तत्थ य बाहुबलिणो पुत्तो सोमजसो राया । तस्स य पुत्तो सेयंसो नाम गवक्खासीणो चिठ्ठइ । इओ य भगवं भिक्खट्ठा पविट्ठो । ताव य खोयरसकुडेणं गहिएण' 20 गोहो समागओ । सेज्जंसो भगवंतं दद्दूण जाइं संभरित्ता इक्खुरसं गहाय भणइ - 'भगवं ! कप्पइ ?' । भगवया वि पाणी पसारिओ । निसट्टों कुडओ पाणीसु, पारियं भगवया । आगया देवा । आहयाओ दुंदुहीओ । वुटुं गंधोदयं । निवडिया वसुहारा । घुटुं च 'अहो दाणं अहो दाणं' आयासे । मिलिओ जणो । पुट्ठो जणेण सेयंसो- 'कहं तए नायं जहा भगवंतो भिक्खा कप्पइ ? । भणइ - 'जाईसरणाओ'। एवं विहरइ वाससहस्सं जाव छउमत्थो । 25 अण्णया पुरिमताले संपत्तस्स अहे नग्गोहपायवस्स झाणंतरियाए वट्टमाणस्स भगवओ समुप्पण्णं केवलणाणं । समागया बत्तीसं इंदा सपरिवारा । रइयं समोसरणं । उप्पन्नं धम्मचक्कं । निविट्ठो पुवाभिमुहो जिणो सीहासणे । निविट्ठा देवा नियनियठाणेसु । उज्जाणपालएणं वद्धाविओ राया भरहो, जहाभगवओ केक्लनाणं समुप्पन्न । एत्थंतरे समागओ आउहसालाए पालगो । निवेइओ रन्नो- 'देव ! आठहसालाए चक्करयणं समुप्पण्णं । ता देवो पमाणं' । दावियं दोण्ह वि मणोरहाइरित्तं पारितोसियं । "चिंतियं भरहेण - 'किं तायस्स पढमं पूयं करेमि, उदाहु चक्कस्स ! । हुं नायं इहलोयसुहनिबंधणं चकं, परलोयसुहावहो ताओ । ता तायस्स पढमं पूर्व करेमि' । गओ सबिड्डीए मरुदेविसामिणीपुरओ, समारोविय करिवरारूढो। छत्ताइच्छत्तं सुरपूयाइयं च दट्टण सुहज्झवसाएण समुप्पन्नं केवलनाणं मरुदेवीए । तक्खण 1C नास्ति 'गहिएण'। 2 A निवट्ठो कुडो। 3 A केवलमुप्पन्न । | Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या ] साधुवैयावृत्त्यविषयक-भरतकथानकम् । माउयसमत्तीए य अंतगडा जाय त्ति । पढमं सिद्धो त्ति कया से देहस्स' देवेहिं महिमा । संपत्तो भरहो समोसरणे । उत्तिण्णो करिवराओ । छत्तं खग्गं डोलय-जुंग-जंपाणाइयं च आमुयई । पाणहाओ मउडं चामराणि य मुंचइ । पुप्फ तंबोलाइयं च छड्डेइ । एगसाडएणं दसाओ पट्ठीए पुप्फदंताई पुरओ उत्तरासंगं करेइ । चक्खुप्फासे अंजलिपग्गहेणं तम्मणे तच्चिते तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ । तओ तिक्खुत्तो धरणितलंसि मुद्धाणं निवेसेइ । ईसिं पञ्चुन्नमइ, दसनहं मत्थए अंजलिं कट्ट, दाहिणं 5 जाणुं धरणितलंसि निहित्तु, वामं मणयमाकुंचिय भणइ- 'नमोत्थु णं अरहंताण मित्यादि । तओ वंदह नमसइ सक्कारेइ सम्माणेइ । वंदिय निविट्ठो सट्ठाणे । पत्थुया देसणा । तओ संसारनिव्वेयकारणभूयं मोक्खसुहउच्छाहजणणिं देसणं सोऊणपंच य पुत्तसयाइं भरहस्स य सत्त नतुयसयाई । सयराहं पवइया तम्मि कुमारा समोसरणे ।। भरहो सावओ जाओ । जाव जाओ चउविहसंघो । भरहो वंदिय भगवंतं गओ सट्ठाणं । कया ॥ चक्करयणस्स अट्ठाहिया । ताहे पुव्वाभिमुहं पहावियं चक्करयणं । भरहो वि सव्वबलेणं तमणुगच्छइ । किं बहुणा सट्ठीए वाससहस्सेहिं भरहो भरहं साहिऊण विणीयनयरीमागओ । जायाई चउसट्ठी सहस्साई भारियाणं, चउरासी लक्खाई दंतीणं, तावइया संदणा, तावइया आसवारा, "छन्नउई कोडीओ पाइक्काणं, छन्नउई गामकोडीओ । जाहे चक्करयणं आउहसालाए न पविसइ ताहे उवउत्तो-किं मम न सिद्धं ! । हुं नायं भाउणो । तेसिं दूए पेसेइ - 'सेवं मम करेह, उयाहु रज्जाणि मुयह' । भणि- 15 यमणेहिं - 'आगच्छउ ताओ, पुच्छामि; जं भणिही तं काहामो' । समागओ भगवं अट्ठावए । समागया सव्वे वि, भणंति-'ताय ! तुमे दिन्नाइं रज्जाइं भरहो अवहरइ, ता किं जुज्झामो उयाहु सेवं करेमो ?' । तओ भगवया वेयालियं नाम अज्झयणं अट्ठाणउई वित्तप्पमाणं वागरियं । तओ ते निबिनकामभोगा सव्वे पव्वइया, केवली जाया । कालेण तओ बाहुबलिस्स दूयं पेसेइ – 'सेवं वा करेसु, रजं वा परिचयसु' । सो आसुरुत्तो भणइ - 'जइ नाम ते बाला बलाए तडप्फडाविय पव्वजं गाहिया, ता किं अहं पि 20 तहेव भेसिज्जामि । ता किं तए जियं, जाव नाहं जिओ । नियरजं वा चयसु, अंगुलिं वा दंतेहिं गेहसु, जुज्झसज्जो वा चिट्ठसु' । दूयवयणं सुणेत्ता आसुरुत्तो भरहो समागओ सीमंते । बाहुबली वि निययसेण्णसमेओ समागओ । जायमाओहणं । भणियं बाहुबलिणा-'किं निरवराहेण लोएण मारिएण? मम तव य जुझं ति। तओ- पढमं दिट्ठी जुज्झं वायाजुज्झं तहेव बाहाहिं । मुट्ठिहि य दंडेहि य सव्वस्थ वि जिप्पए भरहो ।। 2 । सो एव जिप्पमाणो विहुरो अह नरवई वि चिंतेइ । किं मण्णे एस चक्की जह दाई दुब्बलो अहयं ॥ एत्थंतरे उवणीयं से देवयाए चक्करयणं । तं गहाय उद्धाइओ भरहो । कुवितो बाहुबलीचुन्नेमि चक्कमेयं-ति उक्खित्तो दंडो । साहुविस्सामणाजणियबाहुबलवसेण चुण्णेइ चेव, न तस्स अविसओ अस्थि त्ति । किं तु लोगट्टिईवसेणं भवियव्वयासाफल्लेण" य नियत्वसंरंभो जाओ बाहुबली । पइण्णाभट्ठो मओ चेव, धिसि घिसि मयमारणं ति चिंतिऊण कओ पंचमुट्ठिओ लोओ। समप्पिओ वेसो 30 देवयाए । चिंतियमणेण-कहं उप्पन्ननाणा लहुभायरे वंदिस्सामि । ता नाणं उप्पाडिय भगवओ अंतियं गच्छिस्सं-ति ठिओ तत्थेव पएसे पडिमाए । अइक्कंतो संवच्छरो झाणे ठियस्स । अमूढलक्खो जिणो न पुत्वं पेसेइ न सम्म पडिवज्जिही । ण च नाणावरणक्खयकालो अज वि अस्थि त्ति 1C नास्ति। 2C आमुचइ। 3 Bछड्डेऊण। 4 Bछन्नवई। 5 B किज्जही। 6B अट्ठाणवाई। 7A उहाइओ। 8 B कुनिओ। 9A माकलेण। 10C नेव । Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ श्रीजिनेश्वरसूरिकृत-कथाकोशप्रकरणे [ ८ गाथा नाऊण अवसर भी - सुंदरीओ पेसियाओ । ताहिं गंतूणं भणियं - 'भाग्य' ! ताओ आणवेइ । न किर हत्थिविलग्गस्स नाणमुपज्जइ' । चिंतियमणेण - ' कुओ मे हत्थी मुक्कसंगस्स । हुं, नायं माणहत्थी भविस्सइ । हा घी, अहो न सुंदरं मए चिंतियं चिट्ठियं च । गुणा वंदणिज्जा न माणुसत्तणं' । ते य तेसु अविता, ता केरिसो मज्झ गुणपक्खवाओ । तेण य विणा केरिस सम्मत्तं । तेण य विणा केरिसी s मे पव्वज्जा । अहो अड्डवियड्डुं कथं' ति संवेगमावन्नो । एवं समारूढो खवगसेढीए । ता गच्छामि वंदामि - त्ति पायउक्खेवेण समं उप्पाडियं केवलनाणं ति । केवलिपरिसं गंतुं, तित्थं नमिऊण आसीणो । भरहेण वि सोमजसो रज्जे अभिसित्तो । तओ एगच्छत्तं मेइणी काऊण भरहो माणुस्सए अप्पाडरूवे भोए भुंजइ । जाव पुव्वलक्खं सावसेसं । 1 अन्नया भरहो सवालंकारभूसिओ आयंसघरमइगओ अंगं निरूवेइ । जाव, पेच्छइ एगमंगुलिं विच्छायं । 10 किं कारणं ? - ति चिंतेइ, पेच्छइ जाव पब्भट्ठअंगुलीयया एस त्ति । तओ अण्णणं मुयंतेण कयं उचीयपउमं पउमस व सवं सरीरं अईवविच्छायं । ताहे वेरग्गमम्गमोइन्नो चिंतिउमाढत्तो - हा हा पेच्छ पेच्छ, मोहविलसियं । जस्स सरीरस्स साहावियं एरिसं रूवं, तस्स कए गए एरिसं महारंभ महापरिग्गहं काऊण नरयपाउगाणि कम्माणि आसंजियाणि । तहा 15 20 जं विसयविरताणं सोक्खं सज्झायभावियमईणं । तं मुणइ मुणिवरो चिय अणुहवउ ण उण अन्नो वि ॥ जइ नाम होइ रज्जं सुहहेऊ ता कहं तमुज्झिता । ताओ तव्वयणाउ य भायरो वयमिहावन्ना ॥ ता अप्प वेरिएणं अहिमाणघणेण मूढहियएण । एयं मए न नायं तातो' किं मुयइ रायसिरिं ॥ एयं पि' मे न नायं अखंडभरहा हिवत्तणमिणं तु । कह संपत्तं, जइ पुण धम्माउ, ता वरं एसो ॥ अहवा वि दुक्खहेऊ पारंपरएण कह भवे धम्मो । न य इद्दह आरंभा सुहगंधो लब्भए इहरा || वयगहणाइ निरत्थं ताओ असमिक्खीयत्थकारि ति । एसा अणत्थफलया चिंता चिंतामणी ताओ ॥ ता अणुमाणा नज्जइ रज्जसिरी सयलदुक्खतरुमूलं । ता मंचामि असेसं करेमि तवसंजमं अहुणा || एवं सुहज्झवसाणेण खवगसेढी केवलणाणं च उप्पण्णं । ताहे समागओ सक्को भणइ - 'दव्वलिंगं पडि - वज्जसु । अण्णा कालेण एयं वि य मिच्छत्तकारणं भविस्सइ' त्ति । जहा रायाणो चउरासमगुरुणोत्त इंदे वंदिया । ता पडिवज्ज दव्वलिंगं, वंदामि । पडिवण्णं दव्वलिंगं । वंदिओ विणणं । कया से केवलिमहिमा । समागया देवा । अत्राह - नणु' भरहेण न वेयावच्चं कथं तब्भवेण' मोक्खगमणाओ 25 य न " सुरसुहमणुभूयं ति, ता कहमेयं ?" ति । अत्रोच्यते - " दव्वपज्जायाणुगयं" तत्तं न पज्जायमेत्तं ति खावणत्थं भरहगहणं । अन्नहा 'बाहु व्व नरामरइच्चाई' भण्णमाणे वि न गाहाभंगो; किं तु जो सो बाहू, सो चेव भरहो; जो भरहो सो चेव बाहू । न हि एगंतुच्छेए इहलोगिओ वि ववहारो बुज्झेइ"; किं पुण पारियाओ ति । अओ न दोसो । तओ भन्नइ - जहा साहूणं वेयावच्चं कथं भरहेण बाहुकाले, तहा य अणंतरं सुरसुहं, चुयस्स तत्तो चक्किभावे नरसुहं, तयणंतरं मोक्खसुहं जायं ति । * जइ पुण वेया30 बच्चं पुव्वभवे न कयं होज्जा, तो ते * महारंभपरिग्गहा तक्काले कम्मबंधकारणं होज्ज" । तं पुण नरयाइट्ठा 1 3 A उचियपचमसरं व । 1 B भाउया । 2 A माणुसमेत्तं । 2 A पब्भद्वं अंगुलीययं । पविच्छायं । 5 B ताओ । 6 B एवं चैव न । 7 A अवहे गुण । 8 A भवे या कयं । 10 B नरसुरसुहाणुभावो । 11 B दव्वपव्वज्जायाणु 12 A पजाया गुणयं । ** एतदन्तर्गतपाठस्थाने B आदर्शे 'अन्ना' इत्येव पदं लभ्यते । AA अइ9 B तब्भावण । 13B जुज्जइ । । 14 B नास्ति 'होज' । Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या ] साधुदानफलविषयक-शालिभद्रकथानकम् । णगएहिं अणुह विजेज । जिया पुण वेयावच्चजणियसुहोदयाणुभावमित्तमेयं तं पि खीणे विसुद्धचारित्तपरिणई पाउन्भवह न हि तीए विणा चारित्तीणं वेयावच्चं काउं सक्किज्जइ । सा य जीववासकारितणउ पुण्ण विवागे खइय वि बंधगाभावाओ' समुल्लसइ ति । तेणं चियमोक्खगमणविरहिए वि काले वेयावच्चं कीरंतं पुण्णफलाणुभावाओं तदुत्तरं सा समुल्लसउ त्ति । जहा भरहेण कयं पुत्वभवे वेयावच्चं, एवमण्णेण वि कायव्वं ति ॥ ॥भरतकथानकं समाप्तम् ॥९॥ साम्प्रतं सामान्येन साधुदानस्य फलमाह - जे दव्व-भाव-गाहगसुद्धं दाणं तु देति साहूणं । ते पावेंति नरामरसोक्खाइं सालिभद्दो व्व ॥ ८॥ व्याख्या- 'ये - केचन 'द्रव्य'शुद्धं- आधाकर्मादि वर्जितम् , 'भाव'शुद्धं- ख्यातिसंस्तवादिविर-10 हेण, 'ग्राहक'शुद्ध-मूलोत्तरगुणशुद्धसाधुग्राहकम् , 'तु'- एवकारार्थे, स च सर्वपदेषु सम्बध्यते । 'ददन्ति' =प्रयच्छन्ति, केभ्यः साधुभ्यः, 'ते प्रामुवन्ति नरामरसौख्यानि शालिभद्रवत्' - इति गाथार्थः । भावार्थः कथानकगम्यः । तच्चेदम् - --१०. शालिभद्रकथानकम् । एगम्मि नयरे एगो रायकुलओलग्गओ । तस्स य धना नाम भारिया, संगमओ नाम से दारओ। 15 एवं वच्चइ कालो । अण्णया य मरणपज्जवसाणयाए जीवलोयस्स, मओ सो ओलग्गओ । तम्मि मए ताण वित्तिवोच्छेओ जाओ। ताहे सा धन्ना परघरेसु कम्मं करेइ, संगमओ वच्छरूवे रक्खइ । अन्नया तेण बाहिंगएण एगो साहू आयावेमाणो दिट्ठो । तओ संगमगस्स तं दट्टण पीई जाया । सो य तं पज्जुवासेइ, तहट्टियस्स पाए मलेइ । चिंतेइ य-'कयत्थो हं, जो एयस्स महरिसिणो निच्चं पाए पेच्छामि' । नायं च तेण जहा- एस न पारेइ भयवं, जइ कह वि मह घरे पारेइ ता किं न पत्तं ति ।। अण्णया जाओ तम्मि नयरे छणो । घरे घरे पायसं रज्झइ । सो संगमओ मायरं भणइ - 'मम वि पायसं रंधेहि' । ताहे सा परुण्णा । मिलियाओ पाडिवेसिणीओ । भणंति-"किं रुयसि । तीए भणियं - 'किं भणामि, दारयो न याणेइ घरसारं कह निव्वाहठिइ ति पायसं रंधावेई' । ताहिं भणियं'मा रुयसु' । ताहिं से दिन्नं दुद्धं, तंदुला, घयं, गुलं च । साहिओ तीए पायसो । उववेसिओ सो भुत्तुं । पजियं पायसं । माया से घरभंतरे पविट्ठा । एत्यंतरे भवियव्वयानिओगेण समागओ मास- 25 पारणे तस्स गेहे सो साहू । तुट्ठो संगमओ । उढिओ परिविट्ठपायसं गहाय पराए भत्तीए । भणइ - 'गिण्ह भंते !' साहुणा वि तस्स भावं नाऊण तदणुग्गहट्ठा धरियं पत्तं । दिण्णं सव्वं । वंदिओ साहू, गओ य । संगमओ वि कयस्थमप्पाणं मण्णमाणो जाव चिट्ठइ, ताव घरभंतराओ निग्गया से जणणी । t-1 एतदन्तर्गतपाठस्थाने A आदर्श एतादृशो भ्रष्टः पाठः प्राप्यते-'ज न ग पुण सव्व भवेतरवेयाकदजग्गिअपुस्स उहवसेव्वमेयरजं तया तस्सि खीणे पुव्यभवब्भत्थातिसुद्धचारित्तपरिणई पाउब्भूया' । 1 A °भावातो तस्स । 2 A °फलाणुहवाओ। 3 A उत्तरकालं। 4 B दिति। 5 B पाविति । 6Bवच्छए। 7AB पजत्तं। 8A का। 9B मन्नंतो। Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ श्रीजिनेश्वरसूरिकृत-कथाकोशकरणे [ ८ गाया खणियं भायणं दट्टण चिंतियं तीए-नूणं भुतं तं ता अन्नं पयच्छामि । दिन्नं पज्जतीए । भुत्तो आकंठं रसलोलुयत्ताए । गओ अडविं वच्छरूवे गहाय । सो य साहू पारिता ठिओ आयावणाए । संगमओ य सस्स साहुस्स पायमूले अच्छइ । सुहज्झवसायाओ बद्धं मणुयाउयं । रयणीए विसूइयाए मओ । उववन्नो मगहाजणवए, रायगिहे नयरे गोभहस्स सेट्ठिस्स भद्दाए भारियाए कुच्छिसि पुतत्ताए । सुजायसा5 लिखेत्तसुविणयसूइओ वड्डइ गब्भो सुहं सुहेण ।। एत्थंतरे गोभद्दसेट्ठी चउम्विहं भंडं गहाय पोयवहणेण संपट्टिओ । कयं गुरुदेवयापूयणं । निरूवियं लग्गं । गहिया सउणा । जाव य कयकोउयमंगलोवयारो समारूढो सेट्ठी जाणवत्ते । उच्छोडिया वरहा । पूरिओ सिढो । नियं तीए समुद्दवेलाए, गंतुं पयत्तं जाणवतं । पत्तं गंभीरजलं समुद्दमज्झं, ताव य विसमत्तणओ "दिव्वविलसियस्स अणेगतियभावाओ निमित्ताईणं, विचित्तत्तणओ विहि विलसियस्स, समु" द्धाइया उप्पाया । अवि य एगत्तो उक्खिप्पड दूरूण्णयगुरुयवीइभित्तीहिं । एगत्तो अवहीरह अकंडचंडेण वारण । उप्पइ खणं विजाहरि व्व अइगुरुतरंगउक्खित्ता । निवडइ अहो अहो खेयरि व्व विज्जाइपन्भंसे ॥ तओ मुक्को सिढो । लंबिया नंगरा । मुच्चइ असारभंडं । सुमरिज्जति इट्ठदेवयाओ। उववाइजंति विणायगदुग्गाई देवयाओ । जाव दुजणो इव विहुरवेलाए विहडिया झत्ति नावा । निबुडं भंडं । गओ 15 पंचत्तं सेट्ठी वि । समुप्पणो भवणवईसु । पवुत्तो ओही, दिहें विणढे जाणवत्तं नियकडेवरं च । निरूवियं नियगेहं । दिट्ठो गब्भत्थो पुत्तो । तओ साहुदाणोवजियपुण्णखित्तमाणसो जाओ साणुकंपो दारगं पइ । निसुया पउत्ती भद्दाए जहा- विणटुं पवहणं, मओ सेट्ठी । कयाइं मयकिच्चाई । पसूया पुण्णसमए, कयं वद्धावणयं । कयं सुविणाणुसारेण नाम दारगस्स सालिभद्दो ति । पसिद्धाई कहाणगाइं । नाणाविहा संपया य जाता । न भाणियन्वमेयं एवं न भवइ । पइदियहं च समागच्छइ जणगसुरो वि । उचियं सव्वं 20 करेइ । जाओ कालेण कलागहणजोग्गो । आणीओ कलासूरी गेहे । गाहिओ कलाओ । जाओ वारे जयजोगो । बत्तीसाए इब्भकण्णगाणं गाहिओ एगलग्गम्मि पाणी । कारिओ नाणाविच्छित्तिसंजुयजलजंतवावीखेड्डापोक्खरिणीसंगओ पासाओ । तत्थ नाणारयणपणासियंधयारे अदिट्टचंदसूरप्पहालोए उपरिमतले भोए मुंजमाणो विहरइ । उवणेइ देवो विलेवणमल्लआभरणवत्थाइयं । न एगदिणभुत्तं पुणो भुंजइ । एवं सुहसागरावगाढस्स वच्चइ कालो । ४ अण्णया रायगिहे दूरदेसाओ समागया रयणकंबलवाणियगा । दंसिया महाजणस्स कंबलगा । किं मोल्लं ति पुट्ठा महाजणेण, ते भणंति- एक्ककं लक्खमोल्लं । अइमहग्घ ति न गहिया केणावि । तओ गया रायकुले । दिट्ठा सेणिएण, महग्घ त्ति न गहिया रन्ना। चेल्लणा भणइ – 'मम एगं गेण्हसु । राया नेच्छइ । निग्गया रायकुलाओ वाणियगा । भमंता गया भद्दागेहे । दंसिया, भद्दाए वि कंबला गहिया सव्वे, मोल्लं च दिण्णं । चेल्लणा कंबलकए रुट्ठा सेणियस्स । नायं रन्ना, पेसिया पुरिसा-वाहरह वाणिॐ यगे। आगया, भणंति-गोभद्दसेट्ठिभजाए भद्दाए सव्वे रयणकंबला गहिय ति । पेसिओ तत्थ सेणिएण पहाणपुरिसो, जहा – 'कएणं मम चेल्लणाए एगं कंबलगं देहि' त्ति । भणियं भद्दाए- 'को देवपाएहिं सह अम्ह ववहारो, मोल्लं विणा वि कंबलो दिज्जइ । किं तु ते सव्वे सुण्हाणं पायपुंछणया कया सेजमारुहंतीण । बहुकालगहिया अस्थि । किं तु तेसु किसारियाए कत्थइ दोरओ पायडो कओ । तेण 1 B C सियवडो। 2 A निपत्तं । 8 B देव। 4 B C सियवडो। 5 C दिलु गन्मे। 6 B वारिजय। Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या ] साधुदानफलविषयक-शालिभद्रकथानकम् । तेहिं न कयाइं पायपुंछणाई। मा दोरएणं सालिभद्दभजाणं पाया छणिज्जिस्संति । तओ तेहिं जइ देवपायाण कज्जमत्थि, ता देवो आणवेउ, जेण समप्पिज्जति' । निवेइयं रन्ना । तुट्ठो सेणिओ । अहो कयत्थो अहं, जस्स मम एरिसगा वाणियगा संति, ति पेच्छामि तं केरिसविच्छड्डो सो । पेसिया पहाणपुरिसा-सालिभदं राया वाहरइ । भणियमणाए-'मा देवो एवं आणवेउ । न कयाइ रविचंददसणं सालिभद्दस्स संजायं । ता देवो गिहागमणेण पसायं करेउ' । मण्णियं रण्णा । भणियं भद्दाए- 5 'देवो वाहरिओ आगच्छेज्जा' । तओ तीए रायसीहदुवाराओ समारब्भ उभओ पासेसु रायमग्गभित्तिसु निवेसियाओ दीहरवलियाओ उद्धमुहीओ उप्पिकयवेहेसु निवेसिया वंसा । निबद्धा वंसदलेहिं । निबद्धाओ सणवट्टियाओ । ताओ वि उच्छाडियाओ खासट्टेण । तओ उभयओ द्राविडाइपहाणवत्थेहिं कओ उल्लोवो, जाव नियगेहदुवारं । तओ हारावलीहिं कयाओ कुंचलीओ। दिण्णाइं जालंतरेसु पलंबंतवेरुलियाई । ओलंबिया तवणिज्जलंबूसगा । पंचवण्णपुप्फेहिं य कयं नाणाविच्छित्तिकलियं पुप्फ- 10 हरयं । अंतरंतरा निबद्धाई तोरणाइं । सित्ता भूमी सुगंधपाणिएण । निवेसियाओ पए पए डज्झंतकालागरुमघमघंतधूपघडियाओ। निरूविया "आउज्जहत्था पुरिसा । मंगलोवयारकारिणीओ विलासिणीओ । गीयवाइयरवेणं समाढत्ताई पेच्छणयाई तत्थ तत्थ देसे । एवं सव्वं पउणी काऊण पेसिया पहाणपुरिसा । विण्णवियं तेहिं - 'समागच्छउ देवो, उचियपरियणेण' । तओ समारूढो सेणिओ वारुयाए सह चेल्लणाए । जाव-पेच्छइ सीहदुवाराओ पच्चक्खं पि देवलोगभूयं चक्खुमणनिव्वुइकरं ।। घाणसुइसुहजणयं मग्गं जाव सालिभद्दगेहदुवारं, चेल्लणाए दंसंतो' विच्छित्तिविसेसे, कमेण पत्तो । कयं उचियमंगलोवयाराइयं । अंतो पविट्ठो पेक्खइ उभओ पासेसु तोरवारवंदुराओ । संखचामरोवसोहियगयकलहसंघायं पेच्छइ । पासायपढमभूमिगाए महग्घभंडसंचयं । बीयभूमिगाए दासीदाससंतइए पायणभोयणाइकिरियं । तइयभूमिगाए सच्छच्छकुसलसूयगाररइज्तरसवई विसेसे, थइयानिउत्तपुरिसेहिं कप्पिज्जंतपूगफले, निबज्झंतनागवल्लीपत्तवीडए, तन्निउत्तमीसिजंतमयनाहिघुसिणघणसार- 20 विलेवणाई । चउत्थभूमिगाए सयणासणभोयणसालाओ, अववरगेसु य नाणाभंडागाराइं । दिण्णं तत्थ आसणं । सुहासणत्थेण भणियं रण्णा – 'सालिभद्दो कहिं ?' । भणियं भद्दाए- 'देव ! आगमिस्सइ "देवपायाणमुवयारे कए । ता देवो पसायं करेउ । अणुगिण्हउ ण्हाण-भोयणाइणा । उवरोहसीलयाए मण्णियं राइणा । ठविया विचित्तमंडवे चेल्लणा। समाणत्ताओ" विलासिणीओ य । समप्पियाइं सुगंधिनिम्मलपडियद्दणाई"। समाढतं अब्भंगुव्वट्टणाइयं । एवं रन्नो वि । तओ समारूढो पंचमभूमिगाए । 25 तत्थ पेच्छइ सव्वोउयपुप्फफलोवचियं पुण्णागनागचंपयाइनाणादुमसयकलियं नंदणवणसंकासं काणणं । उवरिं निरुद्धरविससिपहं भित्तिभाएसु थंभदेसेसु छयणसिलासु य निवेसियदसद्धवण्णरयण पहापणासियंधयारे तस्स मज्झदेसभाए कीलापोक्खरिणी, कीलियापओगसंचारियावणीयपाणिया" चंदमणिघडियपेरंतवेइया, तोरणोवसोहिया" देवाण वि पत्थणिज्जा । तत्थ य कीलानिमित्तमोइण्णो राया सह चेल्लणाए, मजिउमाढत्तो । अवि य देवी गुरुयपओहरपणोल्लिया गरुयजलतरंगेहिं । हीरइ राया कत्थइ देवीनिवपणोल्लियजलेण ॥ अवहरइ उत्तरिजं देवीए निवपणोल्लिओ झत्ति । अंबुभरो रंगतो नियंबबिंबं सुयं च तहा ॥ 1 B पाउंछणाई। 2 B °भारियाणं । 3 B वाहुरिओ। 4 A सणवीहियाओ। 5 B आवज । 6 पि' नास्ति BI 7 B दसयंतो। 8 B तुरवार। 9 B देवपाएस। 10 A समाणत्तातो विलासिणी। 12 BCरयणं। 13 BC पणासियतमंधयारे। 14 A पाणियं। 15A सोहियं। 16A पत्थणिजं । क०८ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनेश्वरसूरिकृत-कथाकोशप्रकरणे [८ गाथा कत्थइ उप्पलपहया मुच्छिज्जइ चेल्लणा खणं एकं । कत्थइ उप्पलपहओ मुच्छिज्जइ सेणिओ राया । अवहरइ घणंसुयमायरेण कथइ नियंबबिंबाओ । संठविय तयं देवी अहरइ निवस्स केलीए ॥ राया कत्थइ देविं गुरुनीरभरण नोल्लियं कुणइ । हीरंती उत्तत्थं' धरेइ उवगूहियं सहसा ॥ एवं मजंतस्स उ रण्णो मुदंगुलीययं नटुं । तारतरलं निरूवइ पुट्ठो भद्दाए तहिं निवो ॥ । भणियं रन्ना- 'मुद्दारयणं पडियं जलमज्झे, कहं नज्जिही ? । निउत्ता दासी भद्दाए - 'हला अव णेहि पाणियं' । तीए वि अवणीओ बीडगो, गयं अण्णत्थ जलं । पेच्छइ रयणपहाविच्छुरियं पोक्खरिणीए तलं निययमुद्दमंगारसयलसरिसं । पसारिओ हत्थो । वारिओ भद्दाए- 'देव ! सुण्हाण निम्मल्लमेयं ; कहं देवो हत्थेहिं छिवेज्जा' । समाणत्ता दासी- 'हला ! पक्खालिऊण मुद्दारयणं रण्णो समप्पेसु । निरूवियं चेल्लणाए मुहं रन्ना । तुमे भणियं वाणिणीणं पायपुंछणगाई कीरति मम पाउरणं पि नस्थि । " एयं कहं करेसि । समुत्तिण्णो पोक्खरिणीए । निमज्जियं सरीरं सुगंधकासाइएहिं । उवणीयं विलेवणं गोसीसाइयं । समप्पियाइं महग्यवत्थाई सपरियणस्स । विण्णत्तो एयावरे सूयारेण - ‘देव ! चेइयपूयावसरो वट्टइ' । उइण्णा चउत्थभूमीए । उग्घाडियं चेइयभवणं । दिट्ठाओ मणिरयणहेममईओ जिणपडिमाओ । चिंतियं रण्णा- 'अहो धन्नो एस, जस्स एरिसी चेइयसामग्गी' । समप्पियं पूजोवगरणं । उव. णीओ नाणाविहो उवयारो । वंदियाइं चेइयाइं । निविट्ठो भोयणमंडवे । उवणीयाई चव्वणीयाई दाडिIs मदक्खादंतसरबोररायणाई । पसाइयाइं रण्णा जहारिहं । तयणंतरमुवणीयं चोसं सुसमारियइक्खुगंडिया खज्जूर-नारंग-अंबगाइभेयं । तओ सुसमारियबहुभेयावलेहाइयं लेहणीयं । तयणंतरं असोगवट्टिसग्गव्वुय सेवा-मोयग-'फेणिया-सुकुमारिया-घयपुण्णाइयं बहुभेयं भक्खं । तओ सुगंधसालि-कूर-पहित्ति-सारयघय-नाणा-सालणगाइं । तओ अणेगदव्वसंजोइयनिव्वत्तिया कड्विया । तओ अवणीयाई भायणाई । पडिग्गहेसु सोहिया हत्था । नाणाविहदहि विहत्तीओ उवणीयाओ, तेण भुत्तं तदुचियं । पुणो वि 20 अवणीयाइं भायणाई । सोहिया तत्थ हत्था । आणीयमद्धावट्ट पारिहट्टि दुद्धं, महुसकराघणसारसारं । तयणंतरमुवणीय आयमणं । तओ उवणीयाओ दंतसलागाओ । नाणागंधसुयं, समप्पियं हत्थाणमुव्वट्टणं । आणीयं मणयमुण्डं पाणीयं । निल्लेविया तेण हत्था । अवगओ अण्णाइगंधो । उवणीया. गंधकासाइया करनिम्मज्जणत्थं । उवविट्ठो अन्नत्थ मंडवे । उवणीयं विलेवणपुप्फगंधमल्लतंबोलाइयं । आढत्तं" पेच्छणयं वियड्वगायण-वायणसामग्गीसंगयं । भणियं रन्ना- 'सालिभदं पेच्छामो' । भणियं 25 भद्दाए- 'आगच्छई' । गया सा छट्ठभूमिगाए । दिट्ठा आगच्छंती सालिभद्देणं, अब्भुट्टिया य । भणियमणेण - 'अंब ! किमागमणकारणं । भणियं भद्दाए – 'पुत्त ! चउत्थभूमिगाए आगच्छसु, सेणियं पेच्छ' । भणियं सालिभद्देण - 'अंब ! तुमं चेव" जाणसि समग्यं महग्यं वा, गेहसु' ति । भणियं भद्दाए - 'जाय ! न तं भंडं, किं तु राया; तुह सामिओ सेणिओ । सो तुह दंसणकोऊहलेणं आगओ' । चिंतियं सालिभद्देण-मज्झ वि अन्नो सामी! । अस्सुयपुत्वमेयं, अहवा अकयधम्माणं जुतमेयं-ति ७ ओइण्णो "जणणीअणुरोहेणं । तं दट्टण देवकुमारसरिसरूवं पसारियाओ भूयाओ रण्णा । निवेसिओ उच्छंगे । खणंतराओ भणइ भद्दा- 'देव ! विसज्जेह' । भणियं सेणिएण- 'किं कारणं ?' । भणियं भद्दाए- 'देव ! न माणुस्सयाणं गंधमल्लाइयाणं गंधं सोढुं सक्केइ; जम्हा पइदियहं देवो दिव्वविलेवण 1 BC उत्तत्थो। 2 A अवगूहियं। 3 A मुइंगुलीओ य। 4 A उवणीओ। 5 B C उआहारो। 6B असोगपट्टि; C असोगषष्टी। 7A °समाव्य केवा गोयग। 8 B मद्धोवर्ट: C मट्ठावटुं। 9A पारिहिदि। 10 A समाढत्तं। 11'चेव' नास्ति AT 12 B जणणिउवरोहेण । Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या ] साधुदानफलविषयक-शालिभद्रकथानकम् । पुप्फगंधाइयं देवकुरुफलाणि य भोयणट्ठाए, पाणियं पि तत्तो चेव आगच्छइ । न य वत्थालंकाराइयं तं चिय बीयदिणे भुंजइ । अतो विसज्जेउ देवो' । भणियं रन्ना- 'चेल्लणा न याणइ, जा एवं भणइ - वणियभज्जाणं पायपुंच्छणाई कीरंति, मम रायग्गमहिसीए पाउरणं पि नस्थि त्ति । अहो सुचिण्णाणं कम्माणं एरिसो विवागो । धन्नो सि तुमं । उद्धेहि पुत्तय !' । गओ सालिभद्दो सट्ठाणे । उढिओ राया । समारूढो वारुयाए । ताहे उवठ्ठाविया भदाए जच्चतुरया पहाणगयकलहा य । भणियं रन्ना- 'अच्छउ । ता एयाण गहणं, अण्णं पि जं भे उवजुज्जइ तं मम कहेज्जाह' । भणियं भद्दाए- 'देव ! एवमेयं । देवपाया सव्वस्स वि चिंतगा; किं तु न अन्नहा मह चित्तनिव्वुई होइ । ता गिण्हउ देवो' । भणियं अमचेहिं'- 'देव ! एवं कीरइ' । उवरोहसीलयाए गहियं रण्णा । गओ सट्ठाणे । उच्छोडावियं मग्गोवगरणं संगुत्तं' भद्दाए । सालिभद्दो वि परं संवेगमागओ चिंतेइ - अवि य धम्मविहूणाण जए हवंति एयारिसा अवस्थाओ। अम्हारिसा वि भिच्चत्तमुवगया पेच्छ अन्नेसि ॥ 10 कित्तियमेत्तं एयं परमाहम्मियवसं समावन्नो । नरए उबियणिज्जे परमासुइपडलपडहत्थे ॥ तत्तो उव्वट्टो वि हु नाणातिरिएसु दुक्खतविएसु । भमिओ अणंतखुत्तो जिणवयणविवजिओ जीवो।। मणुयत्तणे वि पत्ते लोद्धय-चंडालतुच्छजाईसु । उववन्नो पावरओ पत्तो नरए तुम बहुसो । आरियदेसे लद्धे कुलजाइविवजिओ तुमं बहुसो । होऊणं पावरओ पत्तो अइदारुणे नरए ॥ जाइकुलेहिं समेओ उच्चागोयम्मि पाविए जीव । कुट्ठ-भगंदर-अरिसा-खस-पामाभिद्दुओ जाओ। 15 जइ वि हु लद्धारोगो दारिदमहागहेण कइयावि । गहिओ अवमाणपयं जाओ नियगाण धी तंसि ॥ अह संपयावि कत्थइ लद्धा रे जीव! सावि दुहहेऊ । जाया नरवइ-जल-चोर-अग्गि-दायाइ भयजणया॥ निरुवद्दवं पि लद्धं तीए च्चिय जीव! विनडिओ संतो। वंदणिय-निंदणाहिं अणंतखुत्तो गओ नरए ॥ माणुस्स-खेत्त-जाई-कुल-रुवारोग्ग-संपयाईणि । लणं जिणवयणं मा रजसु जीव ! विसएसु ।। देवा वि अतित्चमणा विसएसु चवंति देवलोगाओं। चक्की वि अतित्तमणो निजइ कम्मेहिं सयराहं ।। 20 तेलोकपूयणिज्जा धन्ना लोगम्मि साहुणो एगे । दिन्नो जलंजली जेहिं हंदि ! संसारदुक्खस्स ॥ निरवज्जं पव्वजं पडिवण्णा जे जयम्मि ते धन्ना । न कयाइ भिच्चभावं उर्वति जे तिहुयणस्सावि ॥ बलदेव-वासुदेवा वारस तह चक्किणो सुरिंदा वि । पणमंति जाण पाए ते धन्ना साहुणो लोए ॥ ते धन्ना जाण घरंगणेसु साहूण पायरयपाओ । दारिद्द-वाहि-आयंकनासणो सयलसुहहेऊ ॥ धन्ना परिग्गहं उज्झिऊण परिचत्तविसयसंबंधा । परजणसयणसमाणा विहरंति अनिस्सिया पुहई ॥ 23 किं नाम होज्ज तं मज्झ वासरं सुकयपुण्णजोएण । जम्मि अहं अणवजं पव्वज्जं संपवज्जिस्सं ॥ तओ एवं वेरम्गमग्गमोइण्णो सरीरं परिकम्मिउमाढत्तो । अन्नया तेलोक्कचिंतामणी, तिहुयणमंदिरपईवो, कोहदावानलविज्झावणासारो, माणगिरिदलणकुलिसो, मायावणविहावसू, लोहसागरसोसचंडमायंडो, भवजलहिजाणवतं, मिच्छत्ततिमिरविद्धंसणसुमाली, मयणकरिकरडदारणेकपंचाणणो, कुप्पावयणियगयकलहगंधवरहत्थी, अंतरारिजयलद्ध महावीर नामो चरिमतित्थयरो तत्थ समागतो । समोसढो गुणसिलए चेहए । वद्धाविओ राया उज्जाणपालएणं । दिन्नं से पारितोसियं । निग्गओ वंदणवडियाए सेणिओ नायरलोगो य । 1B सव्वेहि। 2A संजुत्तं। 3C विवज्जउ । 4A नियगाणमवितंसि। 5Bतीयइय; Cतीइच्छय । 6A निंदणेहिं। 7A परिवज। 8BC°वणपरस। Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 10 20 25 श्रीजिनेश्वरसूरिकृत-कथाकोशप्रकरणे [ ८ गाथा इओ सालिम भगिणीपई धन्नओ नाम इब्भदारओ भज्जं भणइ - 'मज्जामि जेण भगवओ वंदणत्थं वच्चामि । सिग्धं व्हाणोवगरणं उवद्वावेहि' । तहेव कयं तीए । अब्भंगिउमाढत्तो । सा य जेट्ठतरी सालिभद्दस्स भइणी । तीसे पट्ठि अब्भंगंतीए धन्नयपट्ठीए अंसुजलबिंदुया पडिया । निरूवियं तेण तीए मुहं । दिट्ठा रुयमाणी । भणियं धन्नएण - 'हा, पिए किमेयं ? भणियं सुंदरी - 'सामि ! न मम परियणेण अवरद्धं, नेय सासु-नणंदाहिं' । भणियं धन्नएण - 'ता किं रुयसि ?' । तीए भणियं - 'तुमं न जाणसि ?, मम एगो भाया, सो य निविन्नकाममोगो पव्वइउं इच्छंतो एगेगिं तूलिं अवणेइ सयणिज्जाओ, विसएसु य परिमाणं करेइ । ता मम इमिणा सोगेण अंसूणि निवडियाणि । भगवंते आगए सो पव्वइस्सइ ति । कित्तिया य मम भायरो जेसिं सोहलयं माणिस्सं' । भणियं धन्नएण - ' मा रुयसु । काउरिसो सो कहं पव्वज्जं काही, जो एक्केक्कियं तूलियं 15 मुयइ' । भणियमणाए - 'देव ! अउग्गओ अच्छ, सप्पुरिसो तुमं चेव नूणं जो झत्ति पत्रइस्ससि' । भणियं धन्नण - ' मा तूरसु, जाव ण्हामि, ताव करेमि पव्वज्जं' ति । भीया सा । भणियमणाए - ' सामि ! मा एवं भण । 30 ६० सो नत्थि पिए मह परियणम्मि जो तुज्झ भंजए आणं । अवणेमि घराउ ' फुडं भण केण वि किंचि ते भणियं ॥ अंबाए जइ फरुसं भणियं मह भगिणि- भागिणिज्जीहिं । तत्थ य न रूसियव्वं जगस्सहावो पिए एसो ॥ एगत्थेव न एयं घरे घरे एस वइयरो सुयणु ! । आजम्ममिणं सुंदरि अप्पडियारारिहं जाण ॥ अम्हारिसेहिं वल्लहिं किं जुज्जइ किंचि गुरुयणे भणियं । ता एयमेगमवराहजायमम्हाण मरिसेहि ॥ परिहासका दुट्ठा वल्लह ! किं भत्तुणा समं लोए । भणियाण सामि ! अंतं गंतवं कित्तियाणं तु ॥ नाह ! ताव एस तुह निच्छओ जं करेसि सामण्णं । ताऽवस्समहं कूवे निवडामि न एत्थ संदेहो ॥ भणियं धन्नएण संसारम्मि अणते भत्तारा कित्तिया ण परिचत्ता । तो मरसु तहा सुंदरि ! जह उ मया सुम्मया होसि ॥ विसएहिं चक्कवट्टी सुहुमो बंभो य अपरिचतेहिं । पचाओ दुरुत्तारे नरए ता किं थ विसएहिं ॥ भुंजित्तु भरहवास भुंजिय भोए अणन्नसारिच्छे । परिचतविसयसंगा चक्कहरा निव्वुया अट्ठ | सलं कामा विसं कामा कामा आसीविसोवमा । कामे पत्थैमाणा अकामा जंति दोग्गई ॥ ता सुणु विसयसंगं तिविहं तिविहेण चयसु भावेण । संसारियदुक्खाइं सुविणे णवि पेच्छसे जेण ॥ अहिमुहजीहाजुयचंचलेहिं जललवत रंगतरलेहिं । धणसयणरूवजोव्वणगुणेहिं को गव्वमुव्हर || अइ दुलहं मणुयत्तं जिणवयणं वीरियं च धम्मम्मि । एयं लडूण पिए संसारजलंजलि देसु ॥ पामार्कंड्यणसन्निहेसु को सुयणु तुज्झ पडिबंधो । विसएसु दारुणेसुं विसरुक्खफलोवमाणेसु ॥ को रस पिए भाया को य पिया को य पिययमो पुत्तो । मायामोहो एसो अणाइभवकम्मसंजणिओ ॥ एवं भावेज पिए न कोइ मज्झं न कस्सई अहयं । सवं वि परिचइउं सबे वि गया इहं निहणं ॥ ता मंच मुंच सुंदरि ! विसयासं सयणजोव्वणासं च । जं जीविए वि आसा कुसग्गजलसन्निहे कह णु ॥ जरमरणरोगसोगाउलम्मि मणुयत्तणम्मि जिणधम्मो । सरणं सुंदरि ! एक्को ता सो च्चिय होइ भयणिज्जो ॥ । 1 B तं भराउ भण । 2 B भयनिभायणि जीहिं । - Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१ व्याख्या साधुदानफलविषयक-शालिभद्रकथानकम् । भणियमणाए- 'अजउत्त! भत्चारदेवयाओ नारीओ होंति ता किमण्णेण । काहिह तुब्भे जं किर अम्हे वि हु तं करिस्सामो ॥ भणियं धन्नएणमा मा एवं जंपसु भत्तारा देवयाओ नारीणं । मज्झ य तुज्झ य देवो भगवं वीरो तिलोयगुरू ॥ जत्थ न जरा न मञ्चू न वाहिणो नेय सोगसंतावा । सो जिणधम्मा मोक्खो लब्भइ ता किन्न पज्जत्तं । । भणियमणाए - 'मजसु, करेसु हियइच्छियं' । तओ मजिओ जहाविहीए । कयकोउयमंगलो सवालंकारविभूसिओ आरूढो रहवरे । भणाविओ सालिभद्दो- 'धन्नो भगवओ महावीरस्स वंदणत्थं निग्गच्छइ, सिग्धमागच्छसु' । तं सोचा सालिभद्दो महाविभूईए निग्गओ वंदणत्थं । दो वि पत्ता कमेण गुणसिलए । तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं काउं वंदित्ता नमंसित्ता भगवंतं, निविट्ठा सट्ठाणे । भगवयावि संसारविरागकारिणी मोक्खसुहउक्कंठावद्धणी कया धम्मदेसणा । संबुद्धा बहवे पाणिणो । पडिगया परि-10 सा । भणियं दोहि वि- 'अवितहमेयं भंते ! करेमो सहलं माणुसत्तणं तुम्ह समीवे वयपडिवत्तीए' । भणिऊण गया नियगेहेसु । भणिया भद्दा सालिभद्देण-'मुंचसु ममं जेण पव्वयामि' । भणियं जणणीए - 'पुत्त ! जइ ते निब्बंधो तहावि ताव नियमज्जाओ अणुणेहि' । भणियं सालिभद्देण- 'अंब ! एवं करेमि' । वाहरियाओ सव्वाओ सुहासणत्थाओ, भणियाओ- 'भो भो कमलावई-पउमावईपभिईओ कुलबालियाओ! निसामेह खणमेगं अवहियाओ होऊण' । भणियं सविणयमेयाहिं- 'भणउ अजउत्तो' ।। भणियं सालिभद्देणविसयासत्ता जीवा आरंभपरिग्गहेसु वटुंति । धणवज्जियाण विसया सरिसा ते सारमेयाणं ॥ आरंभपरिग्गहओ होइ धणं तस्थ कम्मबंधो य । तत्तो भवो अणंतो तत्थ वि य अणंतदुक्खाई ॥ सुहुमेयरपज्जत्तेयरेसु साहारणेयरेसु तहा । उप्पजंति चयंति य पुणो वि तत्थेव तत्थेव ॥ बेइंदिय-तेइंदिय-चउरिंदियबहुविहेसु भेएसु । उप्पजति चयंति य कालं संखेज्जयं जीवा ॥ पंचेंदियतिरिएसुं जल-थलयर-खयरमेयभिन्नेसु । पंचेंदियवहकयपाणवित्तिणो जंति नरएसु ॥ तत्थ वि य खेत्तजणियं परमाहम्मियकयं महाभीमं । अवरोप्परसंजणियं दुक्खं अइदारुणं सययं ॥ पुढवीभेया सत्त उ नरया एयासु आउयं जाण । अयरेग तिनि सत्त य दस सत्तर दुवीस तेचीसा ॥ विक्खंभायामेहिं जोयणमेगाहियाई वालाणं । वाससए वाससए एकेके अवहिए पलियं ॥ दसकोडाकोडीहिं सागरएको जिणेहिं अक्खाओ । तेत्तीस सत्तमाए अंतमुहुत्तं च मच्छेसु ॥ पुणरवि तेत्तीसं चिय अंतमुहुत्तेण तत्थ अंतरिया । छावही अयराणं वसिओ नरए इमो जीवो ॥ तत्तो विय तिरिएसुं पुणो वि नरयम्मि पुणरवी तिरिओ । तत्थ वि य वेयणाओ सुदूसहा नरयसारिच्छा। अण्णोण्णभक्खणाओ लोद्धय-धीवर-सवागजणियाओ। छुहु-तण्हा-सीउण्हं दहणंकणवाहणाईयं ॥ मणुएसु भोगभूमय अंतरदीवा य धम्मपरिहीणा । कम्मयभूमय दुविहा अणारिया आरिया तह य ।। मज्झिमखंडा बाहिं पंच वि खंडा अणारिया जाण । पणुवीसा अद्धं चिय आरियया मज्झिमे खंडे ॥ ३० तत्थ विय भिल्ल-बोक्कस-खट्टिक-मछबंध-वाह-वग्गुरिया । नाणाविहा अहम्मा मज्जायविवज्जिया अण्णे ॥ आरियदेसे जाया बहिरा अंधा य पंगुला संढा । कोढाइवाहिगहिया धम्मस्स न जोग्गय पत्ता॥ नीरोगा वि हु केई कुलजाइविवज्जिया न जोग्ग ति । कुलजाइजुया अन्ने पासंडियविनडिया बहवे ।। 1 B मुयसु। 2 B पंचिंविएहिं कय। 3 A अवगए। 4 B सम्मत्तस्स । 20 Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ श्रीजिनेश्वरसूरिकृत-कथाकोशप्रकरणे [८ गाथा निदंति वंदणिज्जे वंदंति परिग्गहम्मि पडिबद्धे । महुमज्जमंसभोई सभारिया काण वी गुरुणो ॥ ता पुन्वगुणेहिं जुया जीवा पुण्णेहिं जिणमयं सुद्धं । लघृण उज्जमंती दुक्खक्खयकारणे विरला ॥ भणियमेयाहिं – 'अजउत्त ! जं भणियव्वं तं भणसु' । भणियं सालिभद्देण - जाओ निस्सलाओ ताओ कुव्वंतु संजमं सुद्धं । इयरीओ अंबपासे गिहत्थधम्मं पकुव्वंतु ॥ आ सत्तमवंसाओ भोत्तुं दाउं च विलसिउं अत्थि । धणसंचओ महंतो करेह जं उचियकायव्वं ॥ तओ जाओ बालवच्छाओ गब्भवइओ य ताओ ठियाओ । तओ समाढताओ अट्ठाहियाओ जिणाययणेसु । कओ रहनिक्खमणाइमहूसवो । निउत्तं चेइएसु नीवीए धणं । वाहरिया सुसावया, भणिया य'भो भो ! तुम्हे मम परमबंधवा । ता पव्वजं पडिवजंतो पूरेमि, जेण भे अट्ठो, तं साहेह । म एत्थ लज्जा माणो वा कायव्वो । तओ पूरिया तेसिं मणोरहा । निउत्तं साहारणे विउलमत्थजायं । तहा डिंडिम। घोसणापुव्वं समीहंताणं तडियकप्पडियाण य दिण्णं भत्तवत्थमेत्तं सासणुन्नइनिमित्तं । मिच्छविट्ठीण असं जयाण दिन्नो वि अत्थसारो पञ्चुलं अणत्थकारणमेव जीवघाएण मिच्छत्तवद्धणेण य । ते मिच्छत्तभावियमई मिच्छत्तं चेव ववति त्ति, न समहियदाणविसओ । समाहूया ससिस्सपरिवारा गणहरा- 'आगच्छह मंते । गिहचेइए वंदह' । समागयाण घय-खंड-वत्थ-कंबलाई दिण्णं पजंतीए । एवं अजचंदणाए वि । आगमेऽप्युक्तम् - णंतगघयगुलगोरसफासुयपडिलाहणं समणसंधे। असइ गणिवायगाणं तदसइ गच्छस्स सव्वस्स ॥१॥ धन्नएण वि एवं चेव जहासत्तीए कयं । तओ सोहणतिहिकरणमुहुत्ते व्हाया सियचंदणवत्थमल्लालंकारभूसणा समारूढा सहस्सवाहिणीसु सिबियासु दो वि जणा । तत्थ सीहासणे पुरत्थाभिमुहो निसन्नो सालिभद्दो, दाहिणेण पासे भद्दा, पव्वइउं कामाओ य सुण्हाओ । वामे अंबधाई उवगरण-पडलगाई गहाय ठिया । पिट्ठओ एगा वरतरुणी सियायवत्तं गहाय ठिया । उभओ पासेसु वरतरुणीओ सियचामरहत्थाओ । एगा य मत्तगयमुहागिइभिंगारं सलिलपुण्णं गहाय पुरओ ठिया । तहा वीणावेणुहत्था, तहा कलगायणीओ य पडहमुइंगहत्था ठिया पुरओ वाम-दाहिणेसु समाढत्तं पेच्छणयं । एवं धन्नगस्स वि । नवरं सुंदरी भज्जा । तओ पढंति मागहा, गायंति पाणपंतीओ, सत्थि' करेंति माहणा, समुक्खित्ता सिबिया । पहयाइं तूराइं । पूरिया संखा । पिया य अंतरिक्खपडिवण्णो मुंचइ सुगंधि-पंचवण्ण-कुसुमाइं । ताडेंति दुंदुहीओ तस्स किंकरा, भणिति य- अहो साहसं अहो साहसं ति । वरिसह से पिया उवरि दीणारवरिसेणं । अदरिद्दी भूया पया तदस्थिणी । तओ अंगुलिसहस्सेहिं दाविजमाणो, नयणसहस्सेहिं पेच्छिज्जमाणो, पए पए अग्धं लहंतो, नागरएहिं अणुगम्ममाणो, सेणियरायसहिएहिं भवियाण धम्मे उच्छाहं जणयंतो, सव्वन्नुसासणं एरिसं ति पहावणं करेंतो, पत्तो गुणसिलए । छत्ताइछत्तं पासइ । सीयं ठवेइ । सीयाहिंतो उत्तरइ । तिक्खुत्तो, आयाहिण-पयाहिणं करेइ । भगवंतं वंदइ नमसइ । तओ सालिभदं पुरओ काउं भद्दा भणइ- 'एस णं भंते! मम पुत्ते संसारवासभीए तुम्ह पायंतिए सभारिओ पव्वइउमिच्छइ । पडिच्छंतु भगवंतो सिस्स-सिस्सिणीभिक्खं' । एवं धण्णगो वि । भणियं भगवया-'जुत्तमेयं विवेगकलियाणं' । तओ पव्वाविया सव्वे वि भगवया । सुंदरी-पउमावईपमुहाओ दिण्णाओ अजचंदणाए सिस्सिणीओ । सालिभद्द-धन्नया वि भगवओं तहारूवाणं थेराणं अंतिए एक्कारस अंगाई अहिजंति, घोरं तवच्चरणं करेंति । अवि य 1 B संति करिति। 2 A भगवंतो । Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या ] साधुदानफलविषयक-शालिभद्रकथानकम् । कणगावलिरयणावलि-गुणरयण-संवच्छरं च भदं च । तह सव्वभद्दपडिमा-बारस-हरिकीलियं दुविहं ।। छट्ठम-दसम-दुवालसेहिं मासद्ध-मासखमणेहिं । नाणातवेहिं दोणि वि जाया जरखाणुसारिच्छा ॥ जरसमिवक्कलतुल्ला पायतला पायअंगुलीओ य । खीरयकलसंगलिया उण्हे दिन्ना' जहा सुक्का ॥ बहुनाडिपरिग्गहिया निम्मंसा जिण्णचम्मसंवरिया । पाया उवरिमभाए दीसंतायारमेतेण ।। संधी य गुप्फजाणु य गया उ अइ उब्भडा य दीसंति । कालीपव्वसमाणा जंघाओ ताण दोण्हं पि ॥ 5 वणकंदलीउ छिन्ना उण्हे दिण्णाउ जारिसी' होइ । ऊरूणि ताण एवं पहीणरुहिरा निमंसाणि ॥ नाम पि नत्थि तेसिं पुयाण दुलुया उ कट्ठपुरिसे व। जिण्णकवेल्लुसमाणा कडीओं दोण्हं पि एयाण ।। खोरजरटारसरिसो पट्टीवंसो तहा य उदरं पि । चामुंडाएँ समाणं उरत्थलं वंसगडगं 'व ॥ अइ दीहरत्तपत्ता सिरोहरा ताण धीरपुरिसाण । मेसविसाणसरिच्छा अंसा तवसुसियदेहाण ॥ छगणाछप्पा सरिसा निम्मंसा करतला विरायति । हत्थंगुलिया कोमलकलसंगलिया जहा सुक्का ॥ . अहरुतरउ?"दुगं परिसुसियं नावरेइ दंता उ । नाम पि कवोलाणं नटुं कोट्ठा उ कुट्ठसमा ॥ जंगलकूवसरिच्छं लोयणजुयलं सुदूसरंपत्तं । नासावंसो सुको आगिइमेत्तेण नजइओ ॥ तेसि विरायइ सीसं कोमलतुंब व ताव परिसुसियं । गिम्हे सिहंडिणो इव लिहिलिहए ताण गलओ वि॥ कडकडइ सव्वदेहं उट्ठाण-निवेसमायरंताणं । संपत्ता रायगिहे सद्धिं ते वीरनाहेण ॥ छट्ठस्स पारणम्मी वंदिय भगवं करेइ उवओगं । भो सालिभद्द ! अजं जणणीहत्थेण पारिहिसि ॥ 1 भणियं जिणवीरेणं, ते वि गया तेसु तेसु गेहेसु । विहरंता नो नाया "हल्लप्फलएण जणणीए ॥ जहा- अज भगवं समागओ, सालिभद्द-धन्नया वि समागया। ता तरह तरह वंदगा, वच्चामो। एवं ताहिं घरं संपत्ता वि न नाया" तवसोसियसरीर ति, न य पडिलाभिया वाउलत्तणेण । खणमेतं ठिच्चा अलद्धभिक्खा निग्गया गेहाओ। ___इओ य पुषभवमाया सालिभद्दस्स सा धन्ना कुओ वि गावीओ संपाविय ताणं दहितकं विक्केउं पाण- 20 वित्तिं करेइ । सा य तम्मि दिणे दधियं गहाय रायगिह "मागया । तीए गोयरपविट्ठो दिट्ठो सालिभद्दो । तं च पुत्तमिव दह्ण उद्धसियरोमकूवाए पण्हुयथणाए" बाहविप्पुयच्छीए भणियमणाए- 'भयवं ! गेण्हेसु दहिं ?' ति इच्चाई । सुओवओगं दाऊण गहियं सालिभद्देणं । 'अहापज्जत्तं' ति कट्टु पडिनियत्ता दो वि। गया भगवतो समीवे । इरियं पडिक्कमित्ता आलोइचा भणंति- 'भंते ! तुम्हेहिं वागरियं अज माऊए . हत्थेण पारणयं भविस्सइ । तत्थ गया अम्हे न केणइ पच्चभिन्नाया । अलद्धभिक्खामेत्ता निग्गया। ता 23 कहमेयं भंते ?' । भणियं भगवया- 'सालिभद्द ! जाए तुह दहियं दिन्नं सा तव माया' । कहिओ भगवया पुव्वभवो, पायसदाणफलं ते साणुबंधभोगलाभे जाओ' ति । एवं भगवया संभारियभवस्स जायं जाई. सरणं सालिभद्दस्स । सविसेसं जायसंवेगा दोन्नि वि तं दहिं पारेता, भगवयाणुण्णाया आलोइयपडिकंता वेभारगिरि-विउलसिलायले गुंतुं, फासुयपएसे पाओवगमणं पडिवन्ना । एयावसरे समागया भद्दा तब्भारियाओ य । वंदिय भगवं पुट्ठो- 'कहिं नं भंते ! सालिभद्द-धन्नया' । भणियं भगवया- 'उत्तिमढें। पडिवण्ण' ति । गयाओ ताओ तम्मि पएसे रुयमाणीओ । सेणिओ वि ताण पिट्ठओ। वारियाओ रुय. 1 A दिण्हा। 2 A जारिसा। 3 C कुणि। 4 A अमंसा य। 5 B C पुरिसो। 6 B C जिनु कविलु। 7 A °कडग व्व। 8 C छगलच्छिप्पा। 9 B करयला। 10 C हत्थंगुलीओ। 11 B अहरोत्तरद। 12 A करेंति। 13 B हल्लप्फल्लएण। 14 A संनाया। 15 B दहियं । 16 B रायगिहे आगया । 17Cधणीए। 18 C दवाइसु उवओगं। Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ श्रीजिनेश्वरसूरिकृत-कथाकोशप्रकरणे [९ गाथा माणीओ सेणिएण-मा धम्मविग्धं करेह । अइविगालो वट्टइ, ता आगच्छह, नगरे वच्चामो । गयाओ सट्ठाणम्मि । ते वि समाहीए कालं गया, उववन्ना अणुत्तरसुरत्ताए । तओ चुया सिज्झिस्सति । अओ साहुदाणस्स एवंविहं फलवित्तिविसेसं नाऊण भव्वसत्तेहिं एत्थ जत्तो कायव्वो त्ति ॥ ॥ शालिभद्रकथानकं समाप्तम् ॥१०॥ दाणंतरायदोसा भोगेसु वि' अंतराइयं जाण । पायसविभागदाणा निदसणं एत्थं कयउन्नो ॥ ९॥ व्याख्या- 'दानान्तरायदोषाद्' – दानविघातकारिकर्मणः सकाशाद्दोषाद् दाने अप्रवृत्तिः, तस्मात् 'भोगेष्वप्यन्तरायं' - भोगान्तरायं 'जानीहि' । 'निदर्शनं' – दृष्टान्तो 'अत्रार्थे कृतपुण्यः । कथमित्याह - 'पायसविभागदानात्' - पयसा निर्वृत्तं पायसं क्षीरान्नम् । तस्य तृभागो दत्तः क्षपकाय, पुन"श्चिन्तयति स्तोकमिति, पुनरपि तृभागो दत्तः, तृतीयवारायां सर्व दत्तम् । दानान्तरायवशतो न सर्व सकृदेव दत्तम् । तत एव भोगेष्वपि अन्तरायं विच्छेदो जातः । एकदा गणिकागृहे, पुनर्मूतभर्तृगृहे, ततः खभार्यया श्रेणिकपुत्र्या गणिकादिभिश्च समायोगो जात इति । भावार्थः कथानकगम्यः । तच्चेदम् - ११. कृतपुण्यकथानकम् । मगहाजणवए रायगिहं नाम नगरं । तत्थ सेणिओ राया । धणदत्तो नाम इन्भसत्यवाहो । 15 वसुमई नाम भारिया । सा य पुत्तकए पियइ मूलीओ, पूएइ देवयाओ, भयइ जाणए, करेइ उवाइयाई देवयाणं । अन्नया तहाविहभवियव्वयानिओएण आहूओ से गब्भो । पडिपुण्णदियहेसु पसूया दारयं । समागओ वद्धावणयजणो । भणइ-कयउण्णो एस जीवो, जो एरिसे कुले उववन्नो । बारसाहे अइक्कंते तमेव पइट्ठियं से नामं कयउण्णउ त्ति । जाओ अट्ठवारिसिओ कमेण । उवणीओ कलासूरिणो । गहियाओ कलाओ। भोगसमत्थो य गाहिओ पाणिं सागरदत्तसेट्ठिधूयाए जयसिरीए । अच्छइ तीए 20 सह । तत्थ य देवदत्ता नाम गणिया उदग्गरूवजोव्वणजुत्ता परिवसइ । तीए य गिहे गओ कय उण्णओ । अब्भुट्टिओ तीए, कया य आसणाइपडिवत्ती । आवजियं से हिययं । जओ कुलबालियाओ उदग्गजोव्वणरूवजुत्ताओ वि सलज्जाओ अदिद्वपुरिसंतरपयाराओ भवंति । वेसित्थियाओ पुण निल्लजाओ दिवपुरिसंतररइविसेसाओ रइकाले चितं हरति । तेण वेसित्थीसु रजति दुवियड्डा, विरजंति नियमारियाणं । वेसित्थी पुण आलत्तयं व निप्पीलिऊण मुंचे। रइगुणवियड्वयं पि हु धणहीणनरं सुरत्तं पि ॥१॥ जइ जाहिसि अन्नघरे मरामि निस्संसयं न मे कजं । जीएण एस दिण्णो गलए पास ति य भणाइ ॥२॥ 25 - 1BCय। 2 B इत्थ। 3.BC पुनरपरस्तृभागो। 4 B 'नाम' नास्ति। 5B नास्ति पदमिदम् । 6C वेसित्थियाओ। 7C मुंचंति। 8 B C मए। 9 B C इह पासओ सामि। Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या साधुदानफलविषयक कृतपुण्यकथानकम् । अण्णं चिंतइ हियए अन्न वायाए भासए अहवा । ववहरइ अण्णमेसा धणलुद्धा पुरिसनिरवेक्खा ॥३॥ निप्पीलिए धणे पुण बाई ठणठणइ उच्चसद्देण । इयरी मंदसिणेहं रई य दंसेइ अप्पाणं ॥ ४ ॥ जह जह खिज्जइ दव्वं तह तह बाई सुनिहरं भणइ। आ माइ पेच्छ एसो न मरइ न मंचयं देइ ॥५॥ भणई य पेच्छ पेच्छसु निल्लज न याणइ जहा होति । वेसित्थिया न कस्सइ दविणं ने देहि जइ कजं ॥६॥ निच्छुन्भइ गड्डाए अन्नो किर आवइ इहं पुरिसो। एवं न सा न गेहं दव्वविहूणस्स पुरिसस्स ॥ ७॥ . अणुवत्तई पुण कुलजा अविणीयपई कुलस्स लजंती। पुणरवि जइ लहइ धणं देइ अणजो स वेसाणं ॥ ८॥ एवं च सो वि कयउन्नओ नियभारियं अणुरत्तं परिच्चज्ज आसत्तो देवदत्ताए गणियाए दव्वक्खयं कुणेइ । तत्थ ठियस्स से पिया दविणं पेसेइ । कालेण निहणं गया जणणि-जणया। तओ भज्जा पेसेह दविणं । दविणं जं जस्स हत्थे तं तेण अंतरियं । वेसावि निच्चं जायइ । एवं सवं दवं निट्ठवियं ।।। जाव अण्णदिणे जयसिरीए निययाहरणं पूणिआउ य चत्ता य छज्जियाए काऊण पेसियं । बाइयाए नायं खीणविहवो एस संपयं, अण्णेहिंतो वि धणागमं भंजइ अच्छंतो, ता निच्छुभिही पत्थावे । सहस्ससहियं पूणियाहरणाइयं पेसियं वालिऊण- वराई सावि जीवउ ति । निसाए मुक्को चउप्पहे । उडिओ पहाए चिंतिउमाढतो जह जह धणं पयच्छइ तह तह तं वल्लहो सि जंपंति । मुद्धजणं धुत्तीओ मुसंति कह भो पयारेउं ॥ ॥ नजह न संति पियरो धणक्खओ कह णु अण्णहा मज्झ । न य विहवे विजंते एवं एयाओ उज्झंति ॥ ता भो घिरत्थु ! मज्झं पियराणं अद्धिई निमित्तेण । नियकुलकलंकभूओ कस्स मुहं दंसहस्सामि ॥ कीस कयं मे नामं लोए कयउण्णउ ति जणणीए । पीपज्जागयरित्थं विणासियं जेण पावेण ॥ नियभुयविढत्तमत्थं एगे उ वयंति धम्मठाणेसु । लोगदुगे वि हु धन्ना लहति मणवंछियं अत्थं ॥ अन्ने दुजम्मजाया मज्झ सरिच्छा अधम्मसारा उ । नियसिरिकंदकुदाला लोगदुगे हीलणिज्जा उ ॥ हुं वञ्चामि ताव गेहं, भज्जा कहं चिट्ठइ त्ति पेच्छामि । गओ घरे । अब्भुट्टिओ तीए । समप्पियं पडुक्कणयं । आणीयं तेल्लं । अब्भंगिउमाढत्तो । कयउण्णउ चिंतेइ पेच्छह कुलप्पसूयं अणुरतं विणयसीलसंजुत्तं । सहसा तणं व मोत्तुं धुत्तीए समप्पिओ अप्पा ॥ पज्जवसाणं एवं वेसाणं कुलवहूण पुण एयं । तह वि हु अपुण्णवंतो धुत्तीए पयारिओ कह णु ॥ तत्तो उव्वट्टिओ हाणिओ य । निम्मजिओ कासाइयाएहिं । उवणीयं विलेवणं, अक्खयखोमजुयलं . च । कयं भोयणजायं जहाविहवं, भुत्तो, रयणीए तीए सह पसुत्तो य । तीए य उदुण्हायाए पइणो ___ 1 B रडइ; C चडइ। 2 B C आमाइ। 3 B C वेसित्थियाओ कस्सई। 4 A गे। 5 B मइए। 6 A एवं च न सा गेहं। 7 B C अणुवत्तेइ वराई। 8 B गमणं । 9A. निमित्तस्स । क. Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ श्रीजिनेश्वरसूरिकृत-कथाकोशप्रकरणे [ ९ गाथा संवासेणं आहूओ गन्भो । भणियं कयउण्णएण - 'अस्थि किंचि जेण वणिज्जं करेमि ' । भणियं जयसिरीए - 'सहरसमेगं सुवण्णस्स पेसियं कुट्टिणीए तमत्थि, ममच्चयमाभरणं च ' त्ति । भणियं कयउण्णएण - 'तं चिय गहाय वच्चामि देसंतरं । को एत्थ नीयतरवणिज्जं काही' । ' एवं करेसु' चि अणुण्णायं तीए । दिट्ठो वसंतपुरसंपत्थिओ' सत्थो । सोहणदिणे सत्यासन्न देउलियाए जयसिरिसमाणीयखट्टाए • सुत्तो कउण्णओ । जयसिरीए भणियं - पभाए अहमागंतूण सेज्जं संगोविस्सामि । कहं अज्ज पढमदिणे चेव भूमी सुविस्ससि' त्ति । गया जयसिरी । ओ 1 तत्थेव नरे, एगाए गाहावइणीए पुत्तो मोत्तूण अहिणवपरिणीयाओ चत्तारि भारियाओ, गओ बोहित्थेण वणिज्जवडियाए । समुद्दमज्झे आगच्छंतस्स विवण्णं बोहित्थं । मओ य सो वाणियगो । तो यह वि उत्तिष्णो कम्मयरपुरिसो । तेण आगंतूण सिद्धं गाहावइणीए एगंते । तीए वि दिणारसयं 10 दाऊण भणिओ कम्मयरो - 'न कस्सइ एस वइयरो साहेयव्वो' । चिंतियं च तीए - 'मा ममच्चयं दविणं रायकुलसोत्थयं होउ । चिंतेमि उवायं । हुं मम चत्तारि सुण्हाओ वसवत्तिणीओ, तो किंचि डंभं काऊण आणेमि किं पि पुरिसं, जेण एयाणं दारगा जायंति' । निग्गया सुण्हासहिया देवच्चणमिसेण । दिट्ठो सत्थासन्नदेवकुलियाए पत्तो कयउण्णओ । नीओ पसुतो सह खट्टाए नियघरे । भणियं थेरीए - 'देवयाए सुविणे चिरपणट्टओ एस मे पुत्तो दंसिओ । ता तुम्ह भत्ता जाणविवत्तीए मओ । एस पुण तुम्ह देउरो 15] मए दिन्नो भत्ता संपयं' ति । ताओ य कय उण्णयरूव अक्खित्ताओ तीए वयणं बहु मण्णंति । सो ताहिं सह माणुस्सर भोगे भुंजइ । बारसहिं वरिसेहिं जाया सव्वासिं दो दो तिन्नि तिन्नि दारगा । चिंतियं एत्थंतरे थेरीए - किं एस विडो निप्पओयणं पोसिज्जइ । भणियाओ सुण्हाओ - 'विसज्जि - जउ एसो' । न बहुमयं तासिं, किंतु थेरीए भएण न किंचि भणति । ताहिं पुट्ठा सासू - 'जइ एवं, ता किंचि संबल करेमो एयस्स' । अणुण्णायं तीए । तओ पहाणरयणगब्भा बद्धा मोयगा । पूरिया कोत्थ20 लिया । पसुतो ताहिं समुक्खित्तो मुक्को तीए चेव देवकुलियाए । भवियवयावसेण तम्मि दिणे सो वि सत्थो तत्थेव आवासिओ । सुयं जयसिरीए सत्थो आगओ, अज्जउत्तो वि आगओ भविस्सइ । गया पच्चूसे चेव । दिट्ठो तीए चेव खट्टाए पसुतो तत्थ देवकुलियाए । चिंतियमणाए - एसा वि 'खट्टा सह पयट्टत्थियाणं समप्पिय तत्थेव नीया अहेसि । बोहिओ तीए, जाव पुच्छर सच्चिय एसा देवकुलिया सो चेव एस सत्थो । इंदियालसुविणमेयं ति मण्णमाणो समुट्ठिओ । गहिया खट्टा कोत्थलिया य । भज्जाए कयं ण्हाणाइयं । तीसे य जयसिरीए पढमसंवासेण गब्भो आहूओ अहेसि । तत्थ दारगो जाओ । सो य एक्कारसवारिसिओ लेहसालाए पढइ । सो आगओ जेमणं मम्गइ । तीए एगो लड्डुगो कोत्थलियाहिंतो दिन्नो । सो तं गहाय निग्गओ । खद्धो मोयगो । पेच्छइ मज्झे मणिं । न जाणइ सो तस्स विसेसं । पूइयस्स उवणीओ, घारियाओ देहि । दिण्णाओ काओ वि । तेण वि मा नासउ त्ति काऊण हत्थकरण - पाणियकुंडियाए पक्खित्तो, जाव पाणियं दुहा जायं । नायमणेण जलकंतमणी एस । 25 I 30 1 इओ य सेयणओ गंधहत्थी सेणियसंतगो पाणिए पविट्ठो, तंतुएण बद्धो । राइणा घोसावियं - 'जो जलकं तमणिमाणेइ तस्स राया धूयं देइ, गामसहस्सं च' । गओ पूयगो तं गहाय । विहाडियं जलं । नट्ठो तंतुगो थलं ति मण्णमाणो । राया पुच्छइ - 'को एस ?' । लोएण भणियं - 'कंदुइओ' । सेणिओ चिंतs - 'कहं * अहं कंदुइयस्स धूयं दाहामो ?' । इओ य कयउण्णभज्जाए मोयगमज्झे मणी दिट्ठो । सव्वे 1 B संपट्टिओ । 2 B C डिंभं । 3 B खट्टा सत्थियाणं । 4 C किह । Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७ व्याख्या] साधुदानफलविषयक-कृतपुण्यकथानकम्। मोयगा भग्गा । गहियाणि रयणाणि । दंसियाणि भत्तुणो । 'किं चोराइभएण एयाणि इत्थं आणीयाणि ?, किं दीणारा ममच्चयं च आहरणं न वइयं?' । कयउण्णएण भणियं- 'अन्नहा वि विढत्ते किं आभरणेहिं फेडिएहिं । पुणो वि अवस्सं कायव्वाणि भविस्संति त्ति । एयाणि पुण रयणाणि चोराइभएण इत्थमाणियाणि' । भणियं जयसिरीए-'मए एगो मोयगो दारगस्स दिण्णो । तत्थ वि य रयणं भविस्सइ ?' । कयउण्णएण भणियं- 'दुडु कयं । ता दारयं पुच्छउ' । पुट्ठो दारओ। कंदुइयं दाएइ । भणिओ कय- 5 उण्णएण- 'कीस तुमे दारयं वियारिय रयणं गहियं ? । ता दारगगहियं मोल्लं गहाय' रयणं समप्पेसु'। सो न अप्पेइ । जाओ विवादो । ढुक्का रायकुले । राइणा चिंतियं - 'अहो सोहणं जायं, जं कयउण्णस्स संतियं रयणं जायं ति । एयस्स दारिया दाउमुचिया, न उण सव्वाहमस्स पूइयस्स' । अंबाडिओ कुल्लूरिओ । उद्दालियं रयणं । दिण्णा धूया कयउण्णस्स सह गामसहस्सेण, परिणीया य । सुया वत्ता देवदत्ताए- कयउण्णओ लच्छि पत्तो त्ति । तओ निबद्धा वेणी । छोल्लिया दंता । नियंसियं धवलवत्थं । । बाहासु अवणीयाणि कंकणाई । निबद्धा दोरया । उम्मुकं गेवेज्जहाराइयं । गले विरइया रत्तदोरयगंठिमालिया । पेसिया एगा भणिइकुसला ढोल्लडिया । गया सा कयउण्णसमीवे । मायाए मुंचइ अंसूणि । भणइ – 'सामि ! जद्दिवसं बाइयाए तुम्हे निच्छूढा तप्पभिई देवदत्ताए मुक्कमाभरणं, निबद्धा वेणी, परिचत्तं सिणाणमल्लगंधतंबोलाइयं, परिचत्तपाणभोयणा रुयमाणी ठिया । तओ आदण्णा बाइया, भणइ'पुत्ति ! मा एवं करेहि । आणेमि तं' । पेसिया तुह गवेसणत्थं दासीओ । आगयाहिं सिटुं- 'न कत्थइ 15 दिट्ठो' । भुंजाविजइ देवदत्ता, न भुंजइ । ताव य समागओ एगो नेमित्तिओ। दिन्नं आसणं । सो भणइ - 'अहं देवदत्ताए गहणयं देमि' । सा भणइ – 'मम कयउण्णयं मोत्तूण, अण्णस्स जावज्जीए निवित्ती' । सो भणइ - 'कत्थ सो ? । तओ सा तुम्ह ललिय-रमियावगूहिय-जंपियाई सरंती रोविलं पयत्ता । बाइयाए भणियं- 'भह ! तुमं जाणसि निमित्तं ?' । तेण भणियं- 'बाढं जाणामि' । 'ता कहेहि, कइया वच्छाए दइएण सह संजोगो भविस्सइ ?' । निरूवियं तेण तिहि-वार-वेलाबलं नाडी• 20 संचारो य । तेण भणियं- 'बारसहिं संवच्छरेहिं । भणियं देवदत्ताए– 'किं पक्खितपाणभोयणा अहं बारससंवच्छराणि जीविस्सं?, कुओ हिययदइएण सह मेलओ' । भणियं बाइयाए- 'पुत्ति ! जीवंतीए मेलउ संभवइ । जइ पुण आहारं मुंचसि ता कुओ मेलण ति । तओ देवदत्ताए भणियं – 'जइ ममं पुरिसंतरकए न किं पि भणसि ता भुंजामि' । मण्णियं बाइयाए । तओ कढ़तरतवनिरयाए तीए वोलीणाणि एत्तियदिणाणि । अज सुया तुम्ह पउत्ती । तओ सामिणीए अहं पेसिया । ता दे सामिणीए । पाणभिक्खं देह ति । आगच्छह तन्नियं पएसं' । तओ भणियं कयउण्णएणदिढं सुयमणुभूयं कजं पम्हुसइ वयणकुसलाउ । थीचरिएण वियड्डा मुक्खजणं पत्तियाति ॥ लोहम्गलाउ अइवंकुडाउ परदुक्खकरणवित्तीउ । अंकुससमाउ वेसा गयं व पुरिसं च मन्नेति ।। पत्तियइ को णु तासिं अइसिक्खियवायवित्थरवईणं । किं तु जइ अस्थि कजं एस च्चिय एउ मह गेहे ।। भणियमणाए- 'सामि ! विवित्तं घरं समाइससु, जत्थ सपरियणा ठायइ' । दंसियं नियपाड- 30 गभंतरे घरं । समागया सा सपरियणा । दावियं वत्थाभरणविलेवणकुसुमागरुधूवाइयं । चिंतियं कयउण्णएण - 1 BC घेत्तूण। 2 B C तप्पभि। 3 B C ललियावगूहिय। 4 A नियपदुवारं अञ्छितरे; C नियथारगम्भंतर। Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनेश्वरसूरिकृत-कथाकोशप्रकरणे [१० गाथा अणुरता कुलजाया समदुक्खसुहाइया य पुत्तवई । अम्मापिईहिं दिन्न त्ति सामिणी होउ गेहस्स ॥ बीया मणोरमा पुण एसा वि नरिंददारिया मज्झ । सम्माणपूयठाणं पहाणमणुजं ति ववहारा ॥ वयणपडिवत्तिमेत्ता' एसा गणिया सरीरसुहहेऊ । दड्ढा उ वेसियाओ रईगुणेणं तु सुवियड्ढा ॥ अणुरत्ताओ ताओ चत्तारि वि थेरियाए सुहाओ । कह मोयगेसु रयणे छुहंति जइ हुंति उ विरत्ता ॥ ___ ताणं गहणे लच्छी अइमहई होइ मज्झ नियमेण | कुलकेउणो य पुत्ते कह णु मुहाए पमुंचामि ।। साहिओ अभयकुमारस्स वइयरो- तहा करेसु जहा ताओ नजंति । तओ कयउण्णयसमरूवलेप्पमयजक्खपडिमाहिट्ठिय दुवारदुगसंगयं कारियं देवाययणं । घोसावियं नयरे जहा- 'जो नयरे पुरिसो वा इत्थिया वा कुमारगो वा कुमारिगा वा बालगो वा बालिया वा एत्थ देवकुले आगम्म जक्खस्स अच्चणं पणमणं वा न काही सो सत्तरत्तमज्झे मरिही- एवं नेमित्तिएण वागरियं । न . अण्णहा कायवं सबेण वि एत्थ आगंतवं ति । अभय-कयउण्णा गवक्खे निसन्ना पासंति। आगच्छइ लोगो । एगेण दारेण पविसइ, अन्नेण नीहरइ । जाव आगयाओ थेरिसहियाओ नियपुत्तपरियरियाओ ताओ चत्तारि वि । जक्खरूवं दट्टण अंसुगाणि मुयंति । डिंभगा वि 'बप्पो, बप्पो' त्ति भणंता उच्छंगे आरुहंति । मायरो भणंति- 'आगच्छह पुत्ता ! घरं जामो' । ते भणंति- 'बप्पगस्स पासे अच्छिस्सामो, बच्चह तुब्भे' । अभएण गोहा मुक्का । विण्णायं घरं । मज्झण्हे अभयसहिओ गयो कयउण्णओ ताण 1: घरे । तओ ताओ अमयसित्ताओ इव पत्ताओ अणक्खेयं रसंतरं । नीयाओ कयउण्णएण सगिहं, ठावियाओ पुढो भूमिभागेसु । थेरीए जीवणमेत्तं दाऊण आणीयं सर्व घरसारं । एवं सत्तहिं भारियाहिं सह विसयसुहमणुहवंतस्स गओ को वि कालो । ___ अण्णया समागओ भगवं महावीरो । गओ कयउण्णओ वंदगो । पत्थावे पुट्ठो भयवं- 'किं मए कयं जेण भोगा लद्धा, अंतरा अंतराइयं जायं, एयाओ सत्त भज्जाओ कि जम्मंतरसंबंधेण केण वि आगयाओ, 20 उयाहु एवमेवं ?' ति । भणियं भगवया- 'निसुणेसु, एगम्मि नगरे सुराइचो नाम पुरिसो । रना से भज्जा । ताण पुत्तो पसनाइच्चो । मओ अन्नया सुराइच्चो । अनिवहंती रन्ना परघरेसु कम्मं करेइ । पसनाइच्चो वच्छरूवे रक्खइ । जाए पायसूसवे मायरं भणइ - ‘अम्मो! मम वि पायसं साहेहि' । सा पुवरिद्धिं पहं च संभरंती रोइउं पयत्ता । मिलियाओ पाडिवेसिणीओ जासिं घरेसु कम्मं करेह । भणियं'हला कीस रुयसि ?' सिट्ठो सब्भावो। दुद्धघयगुलाइयमाणीयं ताहि; साहिओ पायसो। ताओ वि छ-जणीओ तत्थेव विमालेति-जं न पुजइ तं आणामो' ति । उववेसिओ माऊए । परिवेसियं पायर्स । भरियं भायणं । एयावसरे मासखवणपारणगट्ठा समागओ साहू । हरिसिओ दारओ । उढिओ परिविढे गहाय । साहुणा वि तस्साणुग्गहत्थं दव्वाइसु उवओगं दाऊण धरियं पत्तं । दिन्नो तिभागो । अइथोवं ति पुणो दिन्नो बीय-तिभागो खीराए । एवं अवरेण कदन्नण विणस्सिही, न य एत्तिएण एयस्स पजंतं होइ-ता सव्वं देमि त्ति तइयवाराए सव्वं दिन्नं । जणणीए वि भणियं- 'देहि पुत्त ! अण्णं ते पयच्छिस्सं' । इयराहिं छहिं पाडिवेसिणीहिं अणुमण्णियं, भणियं च- 'जं न पुज्जइ तं अम्हे आणइस्सामो । देहि महामुणिणो नीसंको। धन्नो तुम, जस्स गेहे खमगरिसी समागओ' त्ति । निबद्धं सव्वेहिं मणुयाउयं भोगा य । तकाले रत्नाए एवं चिंतियं- 'केरिसो मलमइलो एसो' ति । सा नियआउक्खए उववण्णा देवदत्ता, दुगंछापच्चएण 1A पडिवनमत्ता। 2A जक्खपडिमं अच्चणं पणामं वा। 3 B अंसूणि। 4 BC वच्छाए। 5A जातं। 6A भुज; B जंय पुजइ। 7 B आणेमु। 8 B आणिस्सामि । Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या ] साधुदानफल विषयक आर्यचन्दनाकथानकम् । ६९ य गणिया' । सो य दारगो तुमं । तिभागसरिसं सब्बाहिं अणुमोदियं, तओ सव्वाणं पज्जवसाणं सोहणं जायं' ति । भणियं कयउण्णएण- 'भयवं! जइ एसा देवदत्ता अन्नभवे जणणी आसि, ता कीस सव्वस्सं गहाय निच्छूढो । भणियं भगवया- 'निसुणेसु, इओ तच्चे भवग्गहणे तुब्मे दो वणियदारया चंदभद्दाभिहाणा अहेसि । अवरोप्यरं सिणिद्धमित्ता । अण्णया कम्हि वि पओयणे सव्वसारं भारियानिमित्तं चंदेण जाइओ भद्दो आभरणं । भद्देण वि सहरिसेण समप्पियं । विते पओयणे भद्देण मग्गियं । चंदो । लुद्धो तम्मि आभरणे । तओ मायाए भणियं चंदेण- 'तं रयणीए गहाय पिट्टारए छूढं । तं पुण पिट्टारयं केण 'वि नीयं' । भद्देण भणियं- 'किमहं भणामि ?, तुमं लोभं गओ' । चंदेण भणियं - 'पत्तियावेमि दिवेणं घडेणं कोसेणं' । भणियं भद्देण- 'न किंचि वागाडंबरेण । किं तु एयनिमित्तं न मेत्ती मोत्तव्वा' । तओ भद्दो चिंतेइ- 'नाणाविहे उवाए मायाए वंचित्ता गिहिस्सामि दवं एयस्स' । एयपरिणामओ भवियव्वया नियोगेण मओ, उववन्नो रन्नाभावेण । एयस्स हरामि ति धणवजिया जाया । 10 चंदो वि मओ, मणयं पच्छायावाणुगओ जाओ रन्नाए दारगो। दोण्ह वि जायं दालिदं । तओ वि जाओ तुमं कयउण्णओ । रन्ना गणिया । जं चंदेण भद्दसंतियं आभरणं हरियं तस्स कम्मस्स उदयाओ तुह सन्वस्सं उद्दालियं देवदत्ताए' । तओ तं सोचा जायं जाईसरणं कयउण्ण अस्स । तओ संजायपच्चओ भणिउमाढत्तो- 'अवितहमेयं भंते !, ता करेह अणुग्गहं पव्वज्जदाणेण । सव्वासिं पुत्ता कुटुंबसारे ठविया । गणिया वि अइसय नाणिणो पव्वाविया । सव्वाणि वि सामन्नं काऊण गयाणि सुरलोगं । 15 सिज्झिस्संति य कमेण । इह च नानासंप्रदायवशादन्यथाभूतोऽप्यर्थों भगवन्मुखेन भाणितः । तत्र च किल भगवतोऽनृताभिधायिता संशिता भवति । आशातना चैषा अनन्तभवफलेति न चिन्तनीयम् । संभवितमर्थमभिसंधाय वदतो न दोषं मन्ये । तत्त्वार्थान्यथाभिधाने हि तद्वचनान्यथात्वं संभावयन्ति जनाः । इह च न किञ्चिदागमविरुद्धमभिहितम् । यदि च न युक्तं मर्षणीयं साधुभिः; मिथ्यादुःकृतम् । एवमन्यत्रापि निघिसार-20 कथाभवेष्विति ॥ ॥ कृतपुण्यकथानकं समाप्तम् ॥११॥ धन्नाणं दाणाओ चरणं चरणाउ तब्भवे मोक्खो। भावविसुद्धीए दढं निदसणं चंदणा एत्थ ॥ १०॥ व्याख्या- 'धन्याना' - पुण्यभाजां 'दानात्' - द्रव्यभावग्राहकशुद्धात् 'चरणं' भवति । यतो गुण- 23 रागाद् दानप्रवृत्तिः । गुणाश्च सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रलक्षणास्तेषु चानुरागात् खयमपि तज्जन्यात् कर्मक्षयोपशमाचरणं जायते । तत्रैव तस्यानुबन्धात् । तस्मात् 'चरणात् तद्भवे' एव भवान्तरायुर्बन्धविरहाद् 'मोक्षो' - निर्वाणम् । कुत एतदित्याह - 'भावविशुद्धीए' - भावो जीवखभावो जीवपरिणामः । तस्य विशुद्धिःकुग्रहत्यागस्तद्भावस्तया, किंभूतया - 'दृढं' अतिशयवत्या, एषा च दाने चरणे च संबध्यते । 'निदर्शन' - दृष्टान्तः, 'अत्र चन्दना' आर्यचन्दनेति गाथाक्षरार्थः । भावार्थः कथानकादवगम्यः । तच्चेदम् - 20 1 BC गणियत्ताए। 2 B केणइ। 3A अतिशयेन । Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनेश्वरसूरिकृत-कथाकोशप्रकरणे १२. आर्यचन्दनाकथानकम् | - चंपा दहिवाहणो राया । सो य अईव विसयपसत्तो । न मुंबइ वारे' पडिराईणं गिहेसु । न पेच्छइ पाइके । न मग्गइ लिहणियं । न सम्माणेइ महासामंते' । न निजुंजइ हत्थीसु हत्थिवेज्जे । न चोएइ पउमतारं । न पेच्छइ आसे । न जुंजइ आसमद्दए । न चोएह महासवाराइणो' । न निजुंजइ ' जाणसालिए । किं बहुणा रतिंदिया अंतेउरगओ चिट्ठइ । तओ पाइका इओ तओ गंतूण वित्तिकाले आगच्छंति । सामंता वि नियनियठाणेसु रज्जसिरिमणुहवंता चिट्ठति । मंतिणो वि जाया उवेहापरा । कडप्पयापुण्णेहिं किंचि निव्वes | ७० इओ य, कोसंबी सयाणीओ राया । तेण नायं जहा पमत्तो सो । अओ तग्गहणं समओ वट्टह । तओ नावाकडणं गओ एगराईए । नट्टो दहिवाहणो पाणे गहाय । विलुत्ता नयरी सयाणीएण । जग्गहो 10 घुट्टो । तओ एगेण गोहेण दहिवाहणरन्नो भज्जा धारिणी, तीसे धूया वसुमई दो वि गहियाओ । सो गोहो अन्नेसिं कइ - 'एसा मे भज्जा भविस्सइ । एयं च दारियं विक्किणिस्सामि' । तओ धारिणी सीलभंग भया, धूयाए य का गई भविस्सह त्ति संखोभेणं मया । तओ तं वसुमई सम्ममणुचरीउमादत्तो गोहो । संपत्तो को बिं; उड्डविया हट्टे । धणावह 'सेट्टिणा गहिया, जहाइच्छिएणं दाणेणं । नीया घरं । समप्पिया मूलाए नियभारियाए - 'एसा ते धूया, सम्ममणुचरियव्त्रा । जइ ता एईए पुबिलगा मोइस्संति is तेहिं सह पीई होउ ' त्ति पेसइस्सामि; नो चेव अम्ह धूया चेव एस' त्ति । पडिवन्नं मूलाए । तओ सा जहा नियपियराणं तहा विणयं करेइ । एवं वच्चर कालो । परियणस्स वि अणुकूला । तओ तीए बीयं पि नामं जायं " चंदण ति । सव्वेसिं सीयल त्ति काऊण । 20 अन्नया मूला उपि ओलोयणगया चिट्ठर । सेट्ठी य हट्टाहिंतो गेहमागओ । चंदणाए झत्ति आसणं दिनं । पायसोयं काउमाढत्ता । तीसे य महंतो के सपब्भारो, सो पायसोहणायासेण विलुलिओ भूमिं पत्तो | तेणोगासेण य पायसोयजलं पलोट्टं । ततो सेट्ठिणा लीलाजट्टीए समुक्खित्ता केसा । दिट्ठो एस वइयरो मूला | चिंतियमणाए - 'अहों, विणट्टं कज्जं । जइ सेट्ठी एयं भज्जं करेति तओ अहं तहा घत्तिया चेव भविस्सामि' । ईसाए कुविया चंदणाए उवरिं । जाव कोमलो वाही ताव तिगिच्छामि । 1 [ ११ गाथा ओ सेट्ठी । मूला वि चंदणाए मुंडावियं सीसं । ईसावसेण दिन्नाई पाएसु नियलाई । छूढा उव्वरए । दिण्णं तालयं । भणिओ परियणो - 'जो सेट्टिणो साहइ तस्साहं पाणहरं" दंडं निव्वत्तेमि' । विगाले 25 आगओ सेट्ठी । पुच्छइ - 'कहिं चंदणा ?' । मूला भणइ - 'न याणामि, मन्ने रमइ कहिं वि' । बीयदिणे भोयणवेलाए पुच्छइ - 'चंदणा न दीसइ ?' । को विन साहइ । तइयदिणे सेट्ठी निब्बंघेण पुच्छइ । एगाए थेरीए भणियं - 'सेट्टि ! मम चिरं जीवंतीए, ता वरं मया, मा सा सुमाणुसा मरउ' ति सिट्ठो सव्ववतो । अमुगत्थ उव्वरए अच्छइ " । तइयदिणं भुक्खिय-तिसियाए" । सेट्ठी न लहइ कुंचियं । भगं तालयं । पेच्छइ रुयमाणी । भणियं सेट्टिणा - 'पुत्ति ! मा रुयह' । महाणसे गओ तीए भोयण30 कए । न किंचि तत्थ दिहं । दिट्ठा पज्ज (ज्जु) सिया कुम्मासा । ते य सुपको पक्खिविय समप्पिया तीसे । सयं पुण गओ लोहारघरे नियलभंजावणनिमित्तं । चंदणा विकरिणि व विंझं पिउहरं सुमरिउं रोयइ". इसी मम अवस्था दहिवाहणधूयाए वि होऊण । I 1 C भारे । 2 B C महावत्ते । 3 A निजुंजइ । 4 A महासवइणो । 6A चउप्पया । 7 B C धणवाह° । 8 B C पुव्विलका । 9BC हो । पाणहरणं । 12 B चिट्ठा । 13 A तिसाइयाए । 14 BC रुयइ | 5 B वेहायरा; C उवहायरा । 10 BC कयं । 11BC Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या] साधुदानफलविषयक-आर्यचन्दनाकथानकम् । तम्मि य काले भगवं वीरनाहो छउमत्थविहारेणं विहरइ । तस्स य अभिग्गहपडिवण्णस्स पइदियह भिक्खायरियाए अडंतस्स जाणंतस्स वि लाहकालं परीसहा अहियासिया होंतु त्ति छट्ठो मासो वट्टइ । न य अभिग्गहो पुज्जइ । अभिग्गहो पुण दव्वओ' खेतओ' कालओ' भावओ य चउबिहो । तत्थ दव्वओ'-रायधूया, मुंडियसिरा नियलबद्धा सुप्पकोणेणं कुम्मासा । खेत्तओ-देहलं विक्खंभइत्ता । कालओ'-नियत्तेसु भिक्खायरेसु । भावओं- रुयमाणी अट्ठमभत्तपारणए जइ देइ, ता कप्पइ पडिगाहेत्तए, नन्नह त्ति । पविट्ठो य भगवं तत्थ । तीए चिंतियं - 'अहो मे निब्भग्गाए वि पुण्णगोयरो जं असाहारणगुणरयणालंकिओ भगवं संपत्तो त्ति । ता सहलं करेमि जीवियं भगवंतं पाराविय । कुओ पुण मम एत्तियाई पुण्णाइं जं भगवओ पायमूले पव्वजं करिस्सामि । उत्तमगुणबहुमाणातो जं पुण होइ तं होउ-त्ति चिंतयंतीए भणियं- 'भयवं! कप्पइ ?' । भगवया पाणी पसारिओ । दिन्ना तीए । पारियं भगवया । एत्थंतरे वुटुं गंधोदयं, निवडिया पंचवण्णकुसुमवुट्ठी, पडिया वसुहारा अद्धतेरससुवण्णकोडि-1॥ परिमाणा, 'अहो दाणं ! अहो दाणं !' आगासे सुरेहिं घोसियं, पहयाओ दुंदुहीओ तियसेहिं । कओ। चेलुक्खेवो । समागओ सयं सक्को । तप्पभावेण चंदणाए सयं तुट्टाई नियलाई । जाओ सविसेसो सिणिद्धं कुंचियकसिणदीहरकेसकलावो । 'आभरियविभूसिया कया देवेहिं दिव्वसत्तीए । सुया पउत्ती सेट्ठिणा- मम गिहे देवागमो जाओ त्ति । समागओ तुरिय-तुरियं लोहारं गहाय, जाव पेच्छइ, चंदणं सिंहासणोवविढं आभरियविभूसियं, सकं देवे य सुवण्णं च निवडियं । भगवओ पारणयं सोउं समा- 15 गओ, सयाणीओ राया, मिगावई य देवी । अंबाडिया दुट्ठसिट्ठिणी । भणियं रण्णा- 'एयं सुवणं । कस्स भविस्सइ । भणियं सक्केण - 'जस्स चंदणा देइ' । भणियमणाए – 'एयं तायस्स होउ' । मण्णियं रन्ना । सक्केण भणिया मिगावई - 'तुह भगिणीपई दहिवाहणो । एसा य तस्स दुहिया । ता तुज्झ भागिणेई । ता एयं तुमं संरक्खाहि, मा दुट्टसेट्ठिणी विणासेइ । जओ एसा भगवओ पढमसिस्सिणी भविस्सह उप्पण्णणाणस्स । बहुमण्णियं मिगावईए रण्णा य सक्कवयणं । तत्थ सुहंसुहेणं अच्छइ । । उप्पण्णे य भगवओ सिस्सगणे समप्पिया पहाणरायकण्णगाहिं सह य पवाविया भगवया । छत्तीसाए अज्जियासाहस्सीणं जाया पवित्तिणी । अविग्धं विहरिऊणं उप्पाडियकेवलनाणं गया मोक्खं ति । ॥ आर्यचन्दनाकथानकं समाप्तम् ॥ १२॥ पात्रेऽपि निदानान्न मोक्षफलं भवतीति दर्शयितुमाह - जं दव्वभावगाहगसुद्धं इह मोक्खसाहगं दाणं । इहलोगनिदाणाओ तं हणइ मूलदेवो व्व ॥ ११ ॥ व्याख्या- 'यद्' दानं 'द्रव्य' शुद्धम् - आधाकर्मादिदोषरहितम् , 'भाव'शुद्धं मन्त्रसंस्तवादिरहितम् , निरतिचारमूलोत्तरगुणसमन्वित ग्राहक यतिशुद्धम् । 'शुद्ध' शब्दस्य सर्वपदेष्वपि सम्बन्धात् । 'इह' - जिनशासने 'मोक्षसाधकं' - निर्वाणप्रापकम् , इहैव नापरत्रेत्यर्थः । किं तद् 'दान' - वितरणम् , तत् किं । 'इहलोकनिदानाद्' - ऐहिकफलविषयत्वेन नियोजनात् , 'तद्'-दानं मोक्षफलसाधकत्वेन, 'हन्ति' -10 विनाशयति । किंवत् ? 'मूलदेववत्' इत्यक्षरार्थः । भावार्थः कथानकादवसेयः । तच्चेदम् - 1 BC सुरेहिं । 2 BC आहरिय° । 3 A सुड। 4 A भागिणाई। 5 A सारक्खाहि । 6 A विणासस्सइ । Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनेश्वरसूरिकृत-कथाकोशप्रकरणे १३. मूलदेवकथानकम् । _ratnar at नाम नयरी । तत्थ य' अयलो नाम इब्भदारगो परिवसइ । मूलदेवो य धुत्तो । सो य' इवियक्खणो सुरूवो कामिणी हिययदइओ । किं तु तस्स वराडिया वि गंठिम्मि न पाविज्जइ । तत्थ य उज्जेणीए देवदत्ता नाम गणिया सयलगणियापहाणा, लद्धजयपडागा परिवसइ । सा अ य मूलदेवस्स रत्ता । अचलो देवदत्ताए गेहे एइ । सो य महद्धणी । देवदत्ता तं न आढाइ । तओ बाइया देवदत्तं भणइ - पुत्ति ! वेसाओ केरिसीओ होंति : 10 15 20 ७२ 25 जो देइ धणं तं उवचरंति न उ रूवजोव्वणगुणड्डुं । पुत्ति ! घणाओ विलासा सव्वे विहु संपयट्टंति ॥ किं काही ही कुलो किं वा थेरो विरूवलायन्नो । किं वा रइयवियड्डो खणमेतं पुत्ति सेवेत्ता ॥ आलत्तयं व निप्पीलिऊण गहिऊण अत्थसारं से । मुच्चर खणंतरेणं अण्णो रइसुंदरी एही ॥ गोयि जाण पई सुरूवनवजोव्वणो वियड्डो वा । चिंता जुंजइ तासिं इमा उ न उ वेसियजणम्मि ॥ विरूओं वि भयइ जइ अत्थकारणे पुति ! किंचि कालं तु । अयलो पुण सुरसुंदरतुल्लो घणउ व्व विहवेण ॥ टोट्टरडिओ' अणज्जो जूयारो रइगुणेसु अवियड्डो । काणकवड्डियर हिओ न पुति ! सो होइ भइयव्वो । देवदत्ताए भणियं - मा मा जंप अम्मो अइकडुयं मूलदेवसारिच्छो । अन्नो वि को वि लोए किं लब्भइ पुण्णहीणेहिं ॥ भणियं बाइयाए - हा हा हयासि मुद्धे ! वेसा तुह सणिहा कहिं दिट्ठा | अवियड्डो वि धणड्डो पूरे मणोरहे भग्गे ॥ अविडो धणवंतो सुहं पयारित घेप्पइ धणं से । पच्छा घणेण सुंदरि ! कीरंति जहच्छियविलासा || पिहुलनियंबा खामोयरीओ गुरुसिहिणभरनयंगीओ । धणरहिया वेसाओ दम्मङ्कं लिंति भाडीए ॥ ताण तुमं लट्ठ ण सि जं लहसि कंचणसहस्सं । आडंबराणि भग्गे लहंति वेसा ण भाडीओ ॥ उन्नयगरुयपओहरपिहुलनियंबाओ तणुयमज्झाओ । अयलस्स भारियाओ ताओ मोत्तूण तं भयइ || जासं पाय निबद्धा नऽग्धसि भागं पि चरणरेणूणं । निल्लज्जिमा हु नूणं अविसिस्सइ वेसियजणम्मि ॥ कुलमहिलाओ सलज्जा पइणो वि निगूहयंति अंगाई । विवरीयरयाइ कुओ न तं विणा चिचहरणीओ ॥ तापुति ! अवहिया इह होउं अवहरसु माणसं तस्स । पच्छा अवहियसारं मुंचसु आलत्तयं व तयं ॥ विड्या पुण दोह वि समा । भणियं देवदत्ताए - आ माइ किं भणामो तोलिज्जइ मूलदेवो जं तीए । जीए तुलाए अयलो दडविहो किं थ भणियव्वं ॥ भणियं बाइयाए सेहि णे विसेसं वच्छे ! एयाण दोन्ह पुरिसाण । दंसेमि भणइ इयरी वीसत्था भवसु ता अम्मो ॥ पेसिया दासी अयलस्स समीवे - देवदत्ता इक्खुं भक्खिउमिच्छइ । तेण वि भणियं - आगच्छइ । तओ सगडं भरेता समूलडालस्स पेसियं अयलेण । हसंती देवदत्ता भगइ - पेच्छ पेच्छ अम्मो, विय30 ड्डिमा अयलस्स । किमहं हत्थिणी जेग एवं पेसिज्जइ । भणियं बाइया ए- मा मा एवं भण । एयाणि अग्गाणि गावीए चारी भविस्सइ, गंडयाणि पुण दियहं पि परियणो खायइ । किं ते असुंदरं जायं ?' | देवदत्ताए भणियं - 'पेच्छ अम्मो विसेसं' । पेसिया मूलदेवस्स समीवे दासी । जूयप्फरोव विट्ठो 1 A तत्येव । 2 A सो विरइयवि । 3B गठिं । 4A गुणं वा । 5 A तोट्टरडिओ । 6 B भजसि । [ 99 गाथा - - Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाख्या ] साधुदानफलविषयक-मूलदेवकथानकम् । ७३ भणिओ-देवदत्ता इक्खं जायइ । गहिया कवड्डया सहियाहिंतो, गहियाओ दुवे इक्खुलट्ठीओ। अवणीया छल्ली, कयाओ चउरंगुलाओ गंडियाओ। दिन्नाओ पेरंतेसु सूलाओ । सरावसंपुडे काउं धूवियाओ । दिन्नं उवरिं चाउज्जाययं । समप्पियं दासीए सरावसंपुढं । गया दासी । समप्पियं सरावसंपुडं । तुट्ठा देवदत्ता भणइ – 'पेच्छ अम्मो! मूलदेवस्स वियड्डिमा । मा हत्थकुंकुमेण कडुईओ होहिं ति सूलाओ दिन्ना । को एरिसो वियड्डो?' । भणियं बाइयाए - 'ता किं पुत्ति ! तुमं एयाओ खाएज्जा, किं: वा अहं, किं वा ते परियणो ?' । भणियमियरीए – 'अंब ! किं न पुज्जइ मम इक्खु, जं एवं जंपियं, तस्स वियड्डिमा निदंसिया' । रुट्ठा बाइया भणइ - होहिसि जुयारभज्जा भग्गे सहियस्स ताहिं अड्डत्वा । नियलनिबद्धरुयंती हिंडसि भिक्खं परघरेसु ॥ भणियं देवदत्ताएनियरोच्चणेण सद्धिं भुजंतीए अणिट्ठियं दव्वं । जइ अत्थि तुज्झ गेहे ता किं भिक्खं भमिस्सामि ॥ ॥ भणियं बाइयाएभग्गमणोरहियाए पेच्छह उल्लावयाइं रम्माइं । जइ मह दव्वस्स कए खाइसि छारं कयारं वा ॥ एयावसरे समागओ मूलदेवो । ठिया सेज्जाए तेण सह । सा य अयलस्स अक्खएण अच्छइ । बाइयाए पेसिया दासी अयलस्स - सिग्घमागच्छसु, एस मूलदेवो पइट्ठो अच्छइ । समागओ अयलो । भणियं देवदत्ताए - 'आगओ अयलो । तस्स य अक्खएण अहं, ता सेज्जाए हेढउ ठाहि' । इयरीए 15 कयं सागयं अयलस्स । पविट्ठो उव्वरयमज्झे, ठिओ सेज्जाए, भणइ - 'अहं हाइस्सामि' । देवदत्ताए भणियं- 'बाहिं ठायह' । सो भणइ - 'सेजाए ठिओ व्हाइस्सं' । सा भणइ - 'सेज्जा विणस्सिही' । अयलो भणइ -- "किं तुज्झ, मज्झ हाणी' । तओ व्हाओ । मूलदेवो वि सेज्जातलं ठिओ खरडिओ ण्हाणोदएणं । दूमिज्जइ देवदत्ता चित्तेण । मज्जणावसाणे भणिया पुरिसा-रे रे खट्टाए हेतु पुरिसो चिट्ठइ । तं केसेसु घेतूण बाहिं नीणेह' । कड्डिओ भणिओ य - 'अरे पारदारिय ! जइ निविसओ 20 गच्छसि, ता मुंचामि, उयाहु मारावेमि । नत्थि अन्नहा गई' । मूलदेवेण भणियं - 'मा मारेहि निविसओ गच्छामि' । नीहरिओ ण्हाणोदयखरडिओ विवणिमग्गं मज्झं मझेणं, अच्चंत अवमाणिओ। नत्थि य से संबलं । भिक्खमडंतो पयट्टो बेण्णायडाभिमुहो। अंतरा अडवी खंडिया । अणसिएण तिहिं दिणेहिं पत्तो बिण्णायडे । पलासपत्तपुडयं काऊण अट्ठमभत्तिओ पविट्ठो भिक्खाए । भरिया पुडिया भमंतस्स कुम्मासाणं । पट्टिओ तलागं पइ । अंतरा य भिक्खट्ठा नयरं पविसमाणो मासपारणए दिट्ठो 25 साहू । मूलदेवेण भणियं परमसद्धाए- 'भयवं! कप्पइ ?' । साहूणावि दवाइसु कओवओगेण तस्साणुग्गहपरेण पसारियं पतं । पल्हत्थिया तत्थ पुडिया । हरिसाइरेगाओ भणियं मूलदेवेण धण्णाणं खु नराणं कुम्मासा होंति साहुपारणगे । तओ सण्णिहियदेवयाए भणियं - 'उत्तरद्धेण फलं जायसु' । भणियं मूलदेवेण - गणिया य देवदत्ता हत्थिसहस्सं च रजं च ॥ भणियं देवयाए – 'भविस्सइ सत्तरत्तमज्झे' । तत्थ य अउत्तो मओ राया । अहिसियाई दिवाइं । जाव . अहिसित्तो तेहिं मूलदेवो । जाओ राया । जायं दंतिसहस्सं । आणाविया देवदत्ता । जाया तस्स 1C गंडलीओ। 2 B पुडिया । 30 क०१० Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 अत एव दाने एतावन्ति ज्ञातानि - बाहुसाहुणो सम्मद्दिट्टिणो विरयस्स जावज्जीवियं अणेगसाहुगोयरं दाणं तहाविहफलेण फलवंतं जायं । संगमस्स सालिभद्दजीवस्स मिच्छद्दिट्टिणो अविरयस्स एगसाहुगोरं एगदिणं दाणं जायं । तओ न तस्स भरहस्स व विवागो । अओ भेएणं उवण्णासो । कय उन्नयजीवस्स न जहा संगमरण सयराहं दाणं दिन्नं तहा, किं तु तुच्छासयत्ताए तिहिं वाराहिं । ओ भोगे वि अंतरायं जायं । तेण पुबिलाणं भेएण भणियं चंदणार असाहारणगुणेसु असाहारणपक्खवाएणं । तओ तेच्चिय गुणा तब्भवेणेव जाया । ताण गुणाण अणंतरफलं मोक्खो सो वि तीसे जाओ । मूलदेवस तहाविहपत्तदाणसंभवे वि इह लोगकारणे विक्कीयं, अओ तं चिय रज्जाइयं फलं जायं । अओ एवं पुविल्लाणं भेण भणियं । अन्नहा दाणफलवन्नणे समाणे एगेणेव नाएण सो अत्थो लद्धो, किं भूरिनायकहणेणं ति । एवं पूयाफलवण्णणे वि भूरिनायनिदंसणं सप्पओयणं न जहा तहेव त्ति, न अन्नहा संभावणं काउं उवहासपरेहिं होयव्वं ति ॥ 10 ॥ मूलदेवकथानकं समाप्तम् ॥ १३ ॥ 15 20 श्री जिनेश्वरसूरिकृत - कथाकोशप्रकरणे [ १२ गाथा अगमहिसी । अओ भन्नइ - मोक्ख साहगमवि तेण तं दाणमिहलोगफलेण विकीयं । तओ तत्तियमेत्तं जायं ति । ७४ 30 दानाधिकार एव विशेषमाह - ॐ भावं विणाव दिंतो जईण इहलोइयं फलं लहइ । वेसालि - पुण्णसेट्ठी सुंदरि साएयनयरम्मि ॥ १२ ॥ व्याख्या - 'भावं' – सम्यक्त्वरूपं बहुमानरूपं वा, 'विनापि ददन्' प्रयच्छत्, 'यतिभ्य इह लौकिकं फलं' - द्रव्यभावकीर्त्यादिकं 'लभते' - प्राप्नोति । 'वैशाल्यां पूर्ण श्रेष्ठी' - पूर्णः श्रीमान्, अथवा पूर्णाभिधानः, 'सुन्दरी' वणिक्पुत्री 'साकेतनगरे' इति ज्ञाते । शेषभावार्थः कथानकाभ्यामवसेयः । तत्राद्यं तावत् - १४. पूर्णश्रेष्ठिकथानकम् । वेसालिए नयरीए जिणदत्तो नाम सेट्ठी अहिगयजीवाजीवो, उवलद्वपुण्णपावो, निग्गंथे पावयणे कुसलो, अट्ठिमिंजपे माणुरागरतो, अयमेव निग्गंथे पावयणे अट्ठे सेसे अणट्टे त्ति मण्णमाणो विहरइ । सो य तत्थ नयरीए बहुजणस्स चक्खुभूओ मेढिभूओ रायामच्च-नयरीनिवासि - इब्भ - सत्थाह - देसिसम्मओ 25 साहु-साहम्मियपूयणरओ निवसइ । अवि य - चितेइ सो महप्पा साहीणा कस्स संपया निच्चं । जाव त्थि ताव दिज्जउ जिणभवणे साहु सड्डाणं ॥ सच्चिय लच्छी जा जिणहरम्मि उवजुज्जइ कयत्थाण । जिणभवण - बिंब - पूया - सिणाण - आभरणमाईसु ॥ सच्चिय रिद्धी जयवच्छलाण साहूण जाइ उवओगं । आहार-वसहि-ओसह - कंबल - वत्थाइकज्जेसु' ॥ तं चि धणं मुणिज्जइ सावगवग्गम्मि जाइ उवओगं । जं पइदिणं धणीणं सेसमणत्थाण आवासो ॥ ता देमि जहिच्छाए ठाणेसु इमेसु सुद्धभावेण । पुण्णजुयस्स न नासइ धणं सुपत्ते दिज्जंतं ॥ एवं परिणामाओ' देइ सुपत्ते असणवत्थाई । अट्ठाहियमहिमाओ करेइ जिणजम्मणाईसु ॥ 1 B C वत्थाइ निउत्ता । 2 A परिणामरओ । Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या ] साधुदानफलविषयक पूर्णश्रेष्ठिकथानकम् । ___ एवमणुसरंतस्स अण्णया पच्छिमे वए वट्टमाणस्स पुव्वकम्मदोसेणं परिहीणा लच्छी । तओ न बहु मण्णंति नायरा, नाणुवाति नियगा, न सुणेइ से वयणं राया, न पोसिंति तब्भणियं सामंतामच्चादओ। तओ ठाविओ सव्वेहिं वि अन्नो पुण्णो नाम सेट्ठी । विहवक्खए जणावन्नाए चिंतियं जिणदत्तसेट्ठिणा- 'एत्तो चिय असारो संसारो। सा लच्छी सा महिमा सो य तहा रायनयरिसम्माणो । सयराहं वोच्छिन्नो घिरत्थु संसारवासस्स ॥ । उवयारसहस्साइं राया पम्हुसइ पेच्छ कह इण्हि । अहवा खीरखएणं वच्छो परिहरइ नियजणणिं ॥ उवयारसहस्साइं नयरस्स कयाइं जाइं किं ताई। वीसरियाइ विरत्तं सहस चिय जं पुरं एयं ॥ हा पेच्छ पेच्छ लच्छि विणा उ नियगा वि जं विरत्त म्ह । उवयारसहस्साइं जायाइं अणत्थसाराइं॥ लच्छीऍ जणो धावइ न उणो पुरिसस्स जं ममं इण्हि । न भयंति तविणासे लच्छिसमेयं जणा एयं ॥ पुण्णाभिहाणमहुणा मिच्छद्दिष्टिं भयंति सयणा वि । मज्झ गुणे' पम्हुसिउं घिरत्थु लोयस्स चरियाणं 10 अहवा धिरत्थु मज्झं विजंती संपयं परिञ्चज्ज । जेण न गहिया दिक्खा एचियमेत्तस्स जोग्गो हं ॥ खीरोदहिणो धूया ससिणो भगिणी जणद्दणकलत्तं । होऊण लच्छिजुत्तं नीए जं भयसि पावितु ॥ पयईऍ नीयगामी जलं च इत्थीजणो ति सच्चवियं । अहवा वि चत्तलज्जो नेव उवालंभविसओं ति ।। अच्छंतस्स इहं चिय दुजणदरहसियवंकदिट्ठीहिं । विहुरियहिययस्स विमाणियस्स मह जीवियं विहलं ॥ ता अन्नदेसगामे जुज्जइ गंतुं किमेत्थ मे कजं । अह य भइस्सति गिहं पि दुजणमन्नत्थ गमणेण ॥ 15 ता दे इहेव चिट्ठामि । तओन मिलइ महायणे सो नियहढे ववहरेज जं कालं । तं चिय तत्थ निसीयइ सेसं कालं महप्पा सो ॥ गंतुं पोसहसालं काउं सामाइयं तओ पढइ । अहवा गुणेइ किंचि वि अहवा झाणं झियाएज्जा ॥ अहवा वि साहुमूले गंतूणं सुणइ समयसारं सो । संवेगवुडिजणगं संसारनिधरिसणं" धीरो ॥ सो पुण पुण्णो धणगारविओ जोव्वणुम्मायमत्तो रायामच्चनागरेहिं बहुमन्निज्जतो अदिट्ठकल्लाणो न किंचि अप्पसमं पेच्छइ । बहिरो इव न सुणेई लोयाण पओयणे अणेगविहे । अंधो व लोयणाई उम्मिसइ न जाउ कइया वि॥ डिंभस्स व खलइ गिरा उपहसइ परेसि लद्धबुद्धीओ । तट्टपडिउ व मच्छो तल्लुव्वेल्लिं बहुं कुणइ ॥ अन्नया निग्गओ सो जुण्णसेट्ठी सरीरचिंताए । इओ य भयवं तिहुयणनाहो महावीरो छउमत्थकालियाए विहरंतो तत्थागओ बलदेवस्स आययणे पडिमाए ठिओ । तस्स य भगवओ तक्खणगयस्स 5 मसिणवालयानिविट्ठा चकंकुसागाररेहालंकिया दिट्ठा जुण्णसेट्ठिणा पयावली । सरीरचिंतं काऊण सोयनिमित्तमागएण नईए पुलिणे चिंतियमणेण – 'अहो एयाइं पाएसु लक्खणाई न होंति जिण-चक्कीणं अन्नस्स । चक्किणो दुवालस वि अइकंता, तित्थयरा पुण तेवीसं । एगो अज्ज वि होज्जा । सो वि निसुम्मइ जणवायाओ, जहा कुंडग्गामे तित्थयरनिक्खमणं जायं ति । ता कहिंचि सो भगवं' आगओ भविस्सइ' । गओ पयाणुसारेणं । जाव पेच्छइ-बलदेवाययणे भगवंतं पडिमापडिवण्णं ति । तिपया- 30 हिणी काऊण वंदिओ विणएण महावीरो पज्जुवासिओ य । चिंतियं सेट्ठिणा- 'मन्ने उववासिओ भगवं । तओ पत्ते विकाले नणीइ । एवं पइदियहं सो भगवंतं पज्जुवासेइ, चिंतेइ य– 'जइ मम गेहे भगवओ ___ 1 A गुणा। 2 A अहवा वि। 3 A भइस्संति। 4 B दुजणं तत्थ। 5 B ताहे। 6 BC निवारणं । 7A नास्ति 'भगवं। 8BCननीइ । Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ श्रीजिनेश्वरसूरिकृत-कथाकोशप्रकरणे [१२ गाथा पारणयं होइ ता तारिओ होमि' । तत्थ वासारत्ते कयं चाउम्मासियं खमणं भगवया । जाव कत्तियपुण्णिमाए वंदिय नियत्तो जुण्णसेट्ठी- मम गेहे भगवओ पारणयं भविस्सइ, ता गच्छामि चउधिहमाहारं पउणामि । तं काउं पुणो पुणो मग्गं निरूवेइ - एस भगवं एइ, एयं एयं च दाहामि । एवं सुहज्झवसायपरिणओ, पवड्डमाणउत्तमगुणाणुरागो, लेसाहिं विसुज्झमाणीहिं चिट्ठइ । सो य पुण्णसेट्ठी जोव्व5 णुम्मायगहिओ, लच्छिपिसाइयानडिजमाणो, 'नगरनायगोत्ति तणओ वि लहुययरं जयं मण्णमाणो आसंदाए उवविट्ठो, उल्लालुयाए पल्हत्थियाए कयाए तहाविहजणाणुगम्ममाणो सगिहे चिट्ठइ । भगवं पि चाउम्मासियखमणपारणए तस्सेव पुण्णसेट्ठिस्स गेहे पविट्ठो । न य सो तहाविहफलभायणं । न हि अजाए' मुहे कुंभिंडों मायइ । न हि मायंगगेहे एरावणो बज्झइ । न हि मरुत्थलीए कप्पपायवो उढेइ । एवं तस्स वि निभग्गसेहरस्स गिहे भगवं भिक्खायरियाए समागओ । कुओ तस्स एत्तियाई 10 पुण्णाई, जं भगवंतमन्मुट्ठिज्जा, वंदिजा, सयं पराए भत्तीए पडिलाभेजा । किं तु तेण मयावलित्तेण आणत्ता दासी - भिक्खुगस्स भिक्खं देहि । तीए वि उरिदाणं डोओ उक्खित्तो । भगवया पाणी पसारिओ । दिन्ना तीए । पारियं भगवया । निवडियं गंधोदयं, पडिया दसद्धवण्णकुसुमवुट्ठी, वुट्ठा वसुहारा, कओ देवेहिं चेलुक्खेवो, 'अहो दाणं! अहो दाणं!' धुढे आगासे सुरेहि, पवज्जियाओ नहे दुंदुभीओ । विलिओ अहिणवसेट्ठी- 'अहो महप्पा कोइ एस' – उच्छलिओ साहुवादो लोए । आगओ 15 राया से गेहे । सेट्ठी अड्डवियड्ढे भणिउमाढत्तो* - एवं एवं एस महप्पा मए पडिलाभिओ' ति । सुर्य तुब्भेहिं वि 'अहोदाणं' सुरेहिं घोसिज्जंतं?' । सो पुण जिणदत्तसेट्ठी पवड्डमाणसुहपरिणामो, जइ खणंतरं दुंदुहिसदं न सुणेतो ता खवगसेढिमासाइऊण केवलमुप्पाडेज्जा । सुए दुंदुहिसद्दे चिंतियं- 'हा! भगवया अन्नत्थ पारियं' ति । तओ ठिओ से तत्तिओ चेव परिणामो । निबद्धमञ्चुए आउयं ति । अन्नत्थ भगवं गओ । बीयदिणे समागओ पासनाहस्स सिस्सो केवली । जाओ जणे पवाओ । गओ राया तव्वं20 दणत्थं । अवसरं नाऊण पुट्ठो केवली रण्णा – 'भगवं! को एत्थ नगरीए धन्नो' । केवलिणा भणियं'जुण्णसेट्ठी' । “किं भंते ! तस्स गिहे पुण्णसेट्ठिस्स व तित्थयरेण पारियं ?' । तओ केवलिणा सिट्ठो तस्स वइयरो । एवं पुण्णसेहिस्स अविहिदाणाउ मोक्खफलं पि इहलोगफलं जायं ति ॥ ॥ अहिणवसेटिअक्खाणयं सम्मत्तं ॥ १४ ॥ १५. सुन्दरीकथानकम् ।____ साम्प्रतं 'सुंदरिसाएयनयरम्मित्ति भण्यते - इहेव भारहे वासे सायं नाम नयरं । तत्थ वसू नाम सत्थवाहो । सो य” सावगो भावियजिणवयणो । तस्स सुंदरी नाम भारिया । सा य कम्मगरुययाए न बहुमन्नइ जिणधम्मं । भणइ य– 'किं एत्तिया सव्वे अधम्मा जेण तुमं जिणधम्ममेव पडिवन्नो ? । एवं करेंताणं राग-दोसा होति । न हि दोसं विणा निदोसस्स वि परिहारो जुज्जइ । न य रागं विणा एगपक्खनिक्खेवो घडइ । ता न जुत्तमेयं धम्मि30 याणं' । भणियं वसुणा-'न एत्थ को वि रागदोसो सुहत्थिणा धम्मे कायव्वो । तत्थ जो संसाराओ नित्थारेइ, मोक्खं सासयसुहं च देइ, सो चेव कायव्वो । न य जिणधम्म मुत्तूण अन्नो संसारुच्छेयकारगो धम्मो अत्थि' । भणियं सुंदरीए- 'सव्वन्नू एस लोओ । जं बहुजणो करेइ धम्म 1 A अयाए। 2 A कुंभडो। 3 A दासी भिसी। 4 A भणिउमारदो। 5 B तन्यते। 6 A वि । - Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या ] साधुदानफलविषयक-सुन्दरीकथानकम् । सो कायव्वो । न य जिणधम्मं सव्वलोगो करेइ; किं तु परिमियजणो' । भणियं वसुणा- 'मुद्धे ! किं हीणजणो मच्छबंधवाह-वागुरियाई जं धम्मं करेइ सो कायव्वो, उयाहु मज्झिमजणो सेट्ठि-सस्थाह-पुरनायराई', उयाहु उत्तमजणो देव-दाणवरायाई जं करेइ सो धम्मो कायन्वो ? । जई पढमपक्खो, ता न किंचि अवरज्झई । तुम पि तारिसी, करेसु तारिसं अहमजणसमाइण्णं धम्मं । मज्झिमजणा उत्तिमजणा य पच्चक्खमेव जिणधम्मपरायणा दीसंति । मुद्धे ! किं न । पेच्छिसि भगवओ महावीरस्स समोसढस्स वाउकुमारा आजोयणं खेत्तं सोहंति, मेहकुमारा सुगंधिउदएणं पविरलफुसियं पणट्ठरयं करेंति, उउदेवयाओ आजाणुपमाणं दसद्धवण्णं कुसुमनियरं मुंचंति, वेमाणिया रयणमयं पायारं, जोइसिया सुवण्णमयं पायारं, भवणवइणो रुप्पमयं पायारं करेंति । वाणमंतरा कवि. सीसय-गोउर-तोरण-झयपडायाइयं । एवं किंकरा इव सव्वे देवा जस्स समोसरणविहिं करेंति । तहा; किं न दिट्ठो किंकिल्लिपायवो सव्वरयणामओ मज्झिमपायारभितरे मणिमयपीढो, तत्थ चउद्दिसिं दिव्वसींहासणाई सपायवीढाइं, उवरिं च छत्तत्तयं, उभओ पासिं सुरवरा सयमेव चमरधरा । किं न दिट्ठाओ चचारि परिसाओ!, किं नावलोइया रायामच्चादओ तत्थ परमभत्तीए वयमाणा ?, पुरनायगा इब्भसत्थाहदओ य भगवओ चरमतित्थयरमहावीरस्स वंदणवत्तियाए नीहरंता । ता जं ते लोया बहवे धम्म करेंति, अम्हे तं करेमो' । भणियं सुंदरीए- 'देव ! केत्तियं पलवसि, केत्तियाइं इंदजालाई 'दंसेसि । भणियं वसुणा- 'आ पावे ! किं पच्चक्खं एए राया सामंताइए य नीहरंते वंदणत्थं दट्टण तहा वि किं । इंदजालं ति भणसि ?, किं वा ते तव सम्मया एवं इंदजालं न करेंति ?' । 'न मायाए धम्मो त्ति न करेंति । 'जीववहं किमाइसंति ?। कहं वावि-पोक्खरणि-जागाइयं उवइसति ? । किं सो न गणिज्जइ जीववहो । किं तस्स मत्थए सिंगाई होति । किं न दिट्ठा पावे ! अईय-अणागय-वट्टमाणसंसयवोच्छेयणी एगावि अणेगेसिं भगवओ वाणी जोयणनीहारिणी' । सुंदरीए भणियं- 'को एयं न करेइ अटुंगनिमित्तबलेणं' । भणियं वसुणा- 'ते तव सम्मया किं न एवं साहेति ? । 'न कजं ति न साहेति' । 'कीस ॥ न कजं पराणुग्गहेण ?' । भणियं सुंदरीए - 'अप्पा तारेयव्वो, किं परेणं । भणियं वसुणा- 'ता। कीस धम्मं साहेति । भणियं सुंदरीए- 'आ माए केरिसो झागडुओ एस, न याणामो अम्हे'। भणियं वसुणा- 'संपयं अयाणिया जाया । कीस पढमं वाएण उवट्ठियासि' । ता को तुज्झ दोसो,.. विहिणो एस दोसो, जेण तुमं मज्झ घरिणी कय' ति । भणियमणाए- 'किं विहिणा अवरद्धं ? । किमहं काणा खोडा तिंदू जेण तव विहिणा अवरद्धं ?' ति । भणियं वसुणा- 'भज्जा रइनिमित्तं कीरइ । रई ४ वि परोप्परं गाढपीईए। पीई पुण होइ एगचित्तयाए । अण्णहा सारमेयविलसियसमाणमेव विसयसुहं'। ति । भणियं सुंदरीए- 'ता किं मम अन्नारिसं चित्तं ?, हाणुवट्टण-विलेवण-भोयण-सयणाईसु न सम्म मुवचरामि ? जेण एवं भन्नई' । भणियं वसुणा- 'तुह अन्नो धम्मो मज्झ अन्नो । ता का पिई अवरोप्परं चित्तमीलिओ ति । ता किं करेमि, जइ तुमं पुत्त-ध्यासहियं निखाडेमि, ता लोए अववाओ जायइ; अह एगागिणी नीसारेमि ता का धिई पुत्त-धूयाणं । अओ भणामि किं कीरउ' ति । भणियं सुंदरीए - 20 'मा मा अजउत्त! एवं भण । सेयं कालं । जं तुम भणसि तं मज्झ पमाणं । एयं पुण परिहासेण मए भणियं । न एत्थ कोवो कायन्वो' । सेट्ठी जाणइ सच्चं । सा पुण भएणं-मा निद्धाडिजिस्सामि ति मायाए भणह । एवं वच्चइ कालो। 1A °नायगाई। 2A अवरुज्झइ। 3C संदंसेसि। 4 B C सामंतादओ य। 5A पेच्छसि । 6 BC सिरे। 7 BC उठ्ठियासि । Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिनेश्वरसूरिकृत-कथाकोशप्रकरणे [ १३ गाथा अण्णा उत्तिडिओ ति संकंतो से वाणमंतरो । सो य पयडं वियारं न दंसेइ, किं तु अंतरत्थो' पीडेइ । भणइ सुंदरी - 'डज्झइ मे 'सरीरं, न जाणामि कयमकथं वा, न सरामि जं जत्थ गहियं मुक्कं वा । ता वेज्जं पुच्छसु' । पुट्ठो वेज्जो । सो वि अड्डवियड्डुं भणित्ता गओ । सावि तह चिय' चिट्ठा । 1 ७८ 1 अन्नया आगओ तत्थ तेलोक्कदिवायरो वीरतित्थयरों । समोसरिओ नंदणुज्जाणे । कयं देवेहिं समो• सरणं । निग्गया परिसा । वसुणा भणिया सुंदरी - 'पिए ! भगवओ वंदगा वच्चामो' । सा भणइ – 'न सक्कुणोमि गंतुं' । सो भणइ - 'रहवरारूढा गच्छामो' । सुंदरी भणइ - 'गच्छ तुमं, अहं न सक्कुणोमि ' त्ति । गओ वसू । सुया धम्मदेसणा । भाविओ चित्ते । समागओ गेहे । जाव संपत्ते भिक्खाकाले भगवं गोयमो छट्टखमणपारणए, भगवया अणुण्णाओ, उच्चनीयगिहेसु समुदार्णितो पत्तो वसुणो गेहे । दिट्ठो य पवितो । गओ सत्तट्टपयाई अभिमुो वसू । तिपयाहिणी काऊण, पाए पमज्जिय, वंदित्ता भणइ 1. 'भगवं ! एत्थ विचित्तमंडवे ठाह" । ठिओ गोयमो । तत्थ भणिया सुंदरी वसुणा - 'पिए ! एहि भगवंतं गोयमं वंदसु' । सा भणइ - 'न सक्कुणोमि' । गहिया गंतुं बाहाए । आणीया तत्थ । वंदिओ भगवं दव्वओ न भावओ । भणिया वसुणा - 'इहेव चिट्ठसु' । गओ अब्भंतरे । भरियं थालं खंडखज्जयाणं । समप्पियं सुंदरीए - पडिलाहेहि भगवं । सा वि तदणुरोहेणं दाउमुज्जया । एयावसरे सो वाणमंतरो आरार्ड मोत्तूण नट्टो, भगवओ दाणपुण्णपराजिओ । भगवयावि दिव्वाइसु उवओगं दाऊण जं 'उवजुज्जइ 18 संगहियं । वंदिओ दोहि वि । वसुणो भावदाणं तस्स मोक्खफलं; इयरीए दव्वदाणं, अओ इहलोइयमेव फलं सरीरारोग्यामेत्तं जायं ति । ॥ सुन्दरीकथानकं समाप्तम् ॥ १५ ॥ 25 दाणं विणावि देतो भावेणं देवलोगमाज्जिणइ । वेसालि - जुण्णसेट्ठी चंपाए मणोरहो नायं ॥ १३ ॥ 20 व्याख्या०- - 'दानं विना ' - बाह्यमोदनादिरूपं वितरणम् ऋतेऽपि 'भावेन' बहुमानरूपेण 'ददत्' प्रयच्छत् 'सुरसंपदं समार्जयति' । क इवेत्याह- 'वैशाल्यां जीर्ण श्रेष्ठी, चम्पायां मनोरथो' वणिक् 'ज्ञातं ' - दृष्टान्त इति । इह च जीर्णश्रेष्ठिकथानकं पूर्णश्रेष्ठिकथानके कथितम् । द्वयोरपि संवलितस्वात् । यत्तु एकगाथायां न द्वयोरुपादानम्, तत् सुन्दरीकथानकेन व्यवधानात् । द्वयोरपि भावविकतया ऐहिकफलमात्रतया साम्यादिति । अतो मनोरथकथानकं कथ्यते - १६. मनोरथकथानकम् । चंपाe नयरीए मणोरहो नाम समणोवासगो चिइय- साहुपूयारओ साहम्मियवच्छलो परिवसह । अन्नया बहूणं समणोवासगाणं पोसहसालाए सम्मिलियाणं मिहो कहालावे संजाए, तत्थ वीरेण भणियं - 'गिहत्थाणं दाणमेव परो धम्मो' । सिद्धेण भणियं - ' एवं, किं तु दव्व-भावगाहगसुद्धं दाणं मोक्खंगं' । भणियं निन्त्रेण - 'केरिसं दव्वसुद्धं भन्नइ ?' | सिद्धेण भणियं – 'उम्गमाइदोसरहियं जं दाणं दिज्जइ तं " दव्वसुद्धं' । भणियं वीरेण - देस - कालावेक्खाए उग्गमाइदुठ्ठे किं सुद्धं न होइ ? । जओ भणियमागमे - 3 B C तय । 4 B C वसुगे । 5 B ठाहि । 1 B C अंतरहिओ । 2 A मोट्टं सरीरं । - Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ व्याख्या ] साधुदानफलविषयक-मनोरथकथानकम् । फासुयएसणिएहिं फासुयओहासिएहिं कीएहिं । पूईयमीसएण य आहाकम्मेण जयणाए ॥ 'तम्हा गाहगसुद्धं; किं दव्वसुद्धीए ? । भणियं पुण्णेण – 'केरिसं गाहगसुद्धं कहिज्जइ ?' । वीरेण भणियं- 'गाहगो साहू, मूलगुण-उत्तरगुणविसुद्धो । तस्स जं दिजइ, तं गाहगसुद्धं भण्णइ । जो आगमे भगवईए भण्णइ - __ 'तहाविहं समणं वा माहणं वा पडिहयपच्चक्खायपावकम्मं अफासुएणं अणेसणिज्जेणं पडिलामेमाणे भगवं किं कजइ ?-गोयमा ! अप्पे पावे कम्मे काइ, बहुययरिया से निजरा' । ___ ता असुद्धे वि दाणे गाहगसुद्धीए विउला निज्जरा । ता गाहगसुद्धं सुद्धं ति' । भणियं दुग्गेण - 'मा मा एवं भणसु, दायगसुद्धं सुद्धं' ति । भणियं चच्चेण - 'केरिसं दायगसुद्धं ?' । भणियं दुग्गेण_ 'जं दायगो परमसद्धाए देइ । किं गाहगसुद्धीए किं वा दव्वसुद्धीए कजं ? । पेच्छ रयणीए सीह-॥ केसरे जायंतो कहं विसुद्धो गाहगो, तहावि दायगसुद्धीए गाहगेण केवलमुप्पाडियं । दायावि विउलनिज्जराभागी जाओ । तम्हा दायगसुद्धीए मोक्खंगं दाणं' ति । भणियं मुद्रेण – 'दायगसुद्धिं विणावि, गाहगसुद्धिं विरहेणावि, दव्वसुद्धीए वि विणा मोक्खंगं तुब्भेहिं चिय वण्णियं । ता न किंचि वियारेण । जहा तहा मोक्खंगं चेवं दाणं' । भणियं रामेण - ‘मा मा, एवं पलवसु । एवं हि तडियकप्पडियाईणं हट्ठसमत्थाण वि दिजंतं मोक्खं साहेज्जा' । भणियं मुद्धेण -- 'ता किं विरुद्धं जिणवय-15 णाओ ?, दिजंतं मोक्खंगं चेव । कहमण्णहा अणुकंपादाणं पुण जिणेहिं न कयाइ पडिसिद्धमिति वयणं ? । भणियं रामेण – 'हा हा महाणुभावं मा घोडयपुच्छं कल्होडए विलाएसु । सुणे हि ता लोइयमक्खाणयं [रामकथितं लौकिकाख्यानकम् ।] अस्थि कत्थ वि विसए एगम्मि नयरे एगो चाउव्वेदो माहणो । छत्तेहिं भन्नइ – 'वेयंत अम्ह वक्खा- 20 णेहि' । सो य परिक्खानिमित्तं भणइ - 'तत्थ विहाणमस्थि' । छत्ता भणंति-'केरिसं?' । सो भणइ'कालचउद्दसीए सेतो छालगो मारेयव्वो, जत्थ न कोइ पासइ । ताहे तस्स मंसं तेहिं संस्कृतं भुंजियव्वं । तओ वेयंतसुणणजोगो होइ' । तओ तं सोऊण एगो छत्तो गहिऊण सेयच्छालगं कालचउद्दसीरत्तीए गओ सुण्णरत्थाए । मारिओ छगलगो। तं गहाय आगओ । नायमुवज्झाएण- अजोगो न किंचि वि परिणयमेयस्स । न वक्खाणियं तस्स वेयरहस्सं । बीओ वि तहेव गओ सुण्णरत्थाए चिंतेइ- एत्थ तारगा 25 पेच्छंति । तओ गओ देवकुले, चिंतेइ - एत्थ देवो पेच्छइ । गओ सुण्णागारे, तत्थ वि चिंतेइताव अहं, एसो' छगलगो, अइसयनाणी य पेच्छंति । 'जत्थ न कोइ पासइ तत्थ मारेयव्वो' ति इति उवज्झायवयणं । ता एस भावत्थो एसो न मारेयव्वो ति । एवं एत्य वि दुक्खिएसु अणुकंपादाणं ति अणुकंपाकरणं । ते य दुक्खिया सव्वे वि संसारिणो जीवा । ता पुढवाइयाणमसंखेजाणं विणासेण आहारपागं काऊण तहाविहाणं दाणं दाऊण जइ अणुकंपा कीरइ, ता किं थावरा तसा य जे मारिजंति ते वेरिया ?, अणुकंपारिहा न भवंति । कहमण्णहा ___1 BC बहुययरा। 2 A पुण्णेण। 3 A भव्वेण। 4 BC परमभत्तीए। 5 B सेओ छालओ । 6A एत्थ। 7A बीओय। 8BCनास्ति पदमिदम्। 9BC हंति । Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनेश्वरसूरिकृत-कथाकोशप्रकरणे [१३ गाथा भगवया वावी-कूव-तलागाइकारावणं' न देसियं, परहिएक्कनिरएण वि । तम्हा अणुकंपादाणं परमत्थओं' सव्वसावज्जजोगविरई । सा पुण साहूणमेव । सावगाण पुण देसओ । तहा सभूमिगोचियं दीणाईणं गासाइदाणं पि उचियं ति । भणियं च जं जह सुत्ते भणियं तहेव जइ तं वियालणा नत्थि । किं कालियाणुओगो दिट्ठो दिटिप्पहाणेहिं ॥ .: भणियं सिरं धुणंतेण जल्लेण- 'नाओ मए एत्थ भावत्थो । न कस्सइ केण वि किंचि दायव्वं ति । छत्तछागनायाओ' । भणियं सालेण- अहो देवाणुप्पिए ! ण सुट्ठ बुज्झियं, सुङ । भणसु किह न केणइ कस्सइ किंचि दायव्वं । कहमेयं तुमए नायं? ति । भणियं जल्लेण- 'दव्वसुद्धं न किंचि वि अस्थि । न हि अचिंतियं कस्स वि संभवइ । जओ सव्वेण वि चिंतियध्वं साहूणं दायव्वं ति । तं पुण तुब्भेहिं "निसिद्धं । दायगसुद्धी वि नत्थि, जओ नायागयाणं अण्णपाणाइदव्वाणं दाणे दव्वसुद्धी । को पुण अम्हाणं कूडववहारीणं नाओ । ता कहं दव्वसुद्धी । । *जइ पुण तं दव्वसुद्धीए एव गयं,* तहावि निरासंसो जो देइ तं दायगसुद्धं भण्णइ । एयं पुण नत्थि । जम्हा सव्वो वि दक्खिन्नेणं आसंसाए देइ । परिसामज्झे अहं गुरूहिं संलविओ त्ति; परलोगे य मे सुहं भविस्सइ । ता कहं दायगसुद्धी ? । न य गाहगसुद्धी, जम्हा एक्केण वि सीलंगेण विणासिएण सव्वे विणस्सति । आगमे भणियं-न य मणIs माइयाणं करणाइभेयओ आहाराइकारणे सायाइ पडुच्च पुढवाइएसु खंताइयाण य विवजओ न होइ ति सदहिउं तीरइ । ता कहं गाहगसुद्धी ?' तओ केक-पुण्ण-धम्माइएहिं भणियं-'मा मा एवं भणसु । मिच्छत्तं पडिवन्नो भवं । जओ विवज्जासो मिच्छत्तं । न य सिरे सिंगाइं होंति विवज्जासस्स । ता तुमं एयस्स ठाणस्स आलोएहिं निंदाहि पडिक्कमाहि पायच्छित्तं पडिवजाहि' । भणियं दत्तेण- 'मम ताव एगं अक्खाणयं सुणह' । भणियं सव्वेहिं वि भणसु' । दत्तो भणिउमाढतो [दत्तकथितमाख्यानकम् ।] '' एगम्मि गच्छे पंच सयाणि साहूणं आयरियरस परिवारो । सहस्सं अज्जियाणं । साहूण मज्झे नस्थि कोइ निच्चवासारिहो । तओ सव्वे वि गुरूहिं सह विहरति । अज्जियाणं मज्झे काओ वि वुड्डवासारिहाओ एगम्मि नयरे चिट्ठति । तार्सि मज्झे एगा रजा नाम अज्जिया गलंतकोढा' पुढोवस्सए चिट्ठइ । सा निविजइ एगागिणी । तओ तासिं वसहीए आगया जहारिह वंदिया निविट्ठा । भणियमियराहिं - 2 'महाणुभावे रज्जे ! केरिसं ते सरीरं ?' । तीए भणियं – 'मम फासुउदएणं एरिसं सरीरं जायं' । तं "वयणं सोच्चा सव्वाओ अज्जियाओ पकंपियाओ-अम्हे वि एवं भविस्सामो, ता किं बाहिरपाणयं गेण्हेमो त्ति चिंतंति । एगाए पुण चिंतियं- 'न जुत्तमेयं; जओ उवलद्धसव्वभावसहावा परहियनिरया गयरागदोसमोहा तित्थयरा ते कहं इहलोगे सपच्चवायं परलोगे वा किरियं उवइस्संति । ता न संगयमिमाए भणियं' । एवं संवेगाइसयातो उप्पाडियं तीए केवलनाणं । तओ जहट्ठियसव्वभावोवलंभे जाए भणिय30 मेईए- 'हला अजाओ मा विचिंतियाओ होह । अहं सवं केवलेण उवलब्भ तुम्हाणं भणामि । जं तुम्हाहिं चिंतियं-जं न बाहिरपाणयं सेवामो तं आलोएह निंदह पायच्छितं पडिवजह । रज्जे ! तुम : पाणगस्स दोसं देती सव्वन्नू आसाएहि । तत्तो य अणंतो भवो तुमाए निव्वत्तिओ अस्थि । धणावह- 1 A °कारणं। 2 B C नास्ति पदमिदम् । 3 A नास्ति । 4 A आदर्श 'न सिद्धं तहा नायागयाणं' इत्येव । * एतद् वाक्यं नास्ति A आदर्शे। 5A तहा आसंसाइरहिओ जं देइ। 6 BC नास्ति पदमिदम्। 7 BC कुट्ठा। 8 BC °सयाओ। 9 A 'अजाए मा' इत्येव । 10 B C तुम्हेहिं । Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म्याख्या ] साधुदानफलविषयक-मनोरथकथानकम् । वाणियगस्स दारगो रिटाए मुहे खरडिओ, रेंट अवणेत्ता तुमाए आउकाएणं मुहघोओ' कओ । तओ ते पवयणदेवया' कुविया-आ पावे! सासणस्स लाघवकारिए ! दंसेमि फलं दुण्णयस्स-ति- चिंतंतीए । तओ भुजंतीए जोगो कोढजणगो भोयणे पक्खित्तो । तेण तुमं एरिसा जाया । न पाणगदोसेणं' । सव्वज्जियाहिं आलोइयं, केवलिपुरओ दुविचिंतियं । रजा भणइ- 'अहं भंते ! सुज्झामि । केवलिणा भणियं-'किं न सुज्झसि, जइ कोइ देइ पायच्छित्तं । भणियं रज्जाए- 'तुब्मे केवलिणो, . देह । को अन्नो दाउं समत्थो ? । भणियं केवलिणा- 'अहं पि देमि, जइ ते सुद्धिनिमित्तं पायच्छिचं पेच्छामि । किं तु एवंविहवयणेण तित्थयरासायणाए बद्धं जं कम्मं तं न सुज्झइ पायच्छित्तेण । अवस्सवेयणिज्जमेयं ति।। ता भो महाणुभावा ! जइ एयं जाणह सच्चं, ता कीस भणह पायच्छित्तं पडिवजाहि ति । नत्थि एत्थ । पायच्छित्तं कहाणगाणुसारेणं ति । भणियं जल्लेण- 'का तित्थयरासायणा' । भणियं दत्तेण- 'सुणसु, 10 तुमए भणियं नत्थि साहुणो । भणियं पुण भगवया वद्धमाणसामिणा-दुप्पसहंतं चरणं भारहे वासे भविस्सइ, तं मुसावायं । तओ जे धम्म-केक्काई पव्वज्जाए अभिमुहा तेसिं भगवंते विपज्जओ । तहा, जइ सीलंगाणमेगेण वि गएण सव्वे जंति, ता किं मुहा पव्वज्जागहणेण । एवं च सासणस्स वोच्छित्ती कया । जे य ते पव्वजाए परम्मुहा जाया तेसिं मिच्छाभावणाए विरइविरहेण य अणंतो संसारो। अन्नेसिं च तक्कओ वहो अणंतो चेव । तत्थ तुम निबंधणं । न को वि सावगो अस्थि त्ति भणंतेणं कया 15 अहिमुहाणं मणे बुद्धी, जहा-विडंबणासारो एसो धम्मो-ति । एवं च न संति साहुणो, न संति सावगा, ता वोच्छिन्नं जिणसासणं । एवं भणंतस्स रजजियानाएणं किं पायच्छित्तं होज ?' ति । ____ भणियं पाससावएणं- 'भो भो महाणुभावा । किं सज्झायं न करेह, किं तुम्ह विचारेण पओयणं ।। जओ अगीयत्थेण न कायव्वा देसणा वत्थुविचारो वा । सो हि न जाणइ जुत्ताजुलं, जाणतेण वि अभिमुहाणं विग्घजणगं न भाणियन्वं । न य जाणतो होइ सुत्तमेचेण, न य सयमुप्पेक्खियअत्थागमेणं ति । " जं भणियं-एगसीलंगविणासे सव्वे वि न होंति ति । तं न याणह जहट्ठियं जइपालणं पइ एयं हवेज, ता पायच्छित्तविहाणं, आलोयणाइ जाव छेयंतं न पाउणइ । एगं चिय मूलदाणं होजा । जं च 'बकुसकुसीलेहिं जा तित्थं ति वयणं, तं वा कहं होज्जा । जम्हा पंचविहा साहुणो भवंति । तं जहासिणाया', निग्गंथा', पुलाया', बउसा', कुसीला य । तत्थ सिणाया केवलिणो । निग्गंथा खीणोवसंतकसाया । पुलागा पुण तवसा जेसिं लद्धिविसेसा उप्पज्जइ । न ते ववहारी, नेव निग्गंथा । किं तु । सिणायगा बकुस-कुसीला वा ववहारिणो । तत्थ बकुसा उवगरणदेहचोक्खा, रिद्धीरसगारवा सिया निचं । बहुछेयसबलजुत्ता निग्गंथा बाउसा भणिया ॥ कुसीला वि-एगे कसायकुसीला संजलणोदयाओ फरसाइयं भयंता, अण्णे सत्तामेत्तेणं; ते पुण सुहुमसंपरायं जाव लब्भंति । ते पुण अप्पमचा, छउमत्था, तिस्थयरा, गणहरा, विसिट्टसाहुणो यस भवंति । जे पुण आसेवाकुसीला, ते दुविहा मूलगुणपडिसेविणो पंचण्हं आसवदाराणं अण्णयरमा 1B 'धोयओ। 2A नास्ति 'सासणस्स। 3A देवयाए कुवियाए। 4BC नास्ति 'त्ति चिंतंती। 5A B विपायो। Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनेश्वरसूरिकृत-कथाकोशप्रकरणे [१३ गाथा सेवेति । कत्थइ अइक्कमे वइक्कमे अइयारे, कत्थइ अणायारे वि । उत्तरगुणपडिसेविणो पुण उग्गमाइअविसुद्ध भत्तपाणोवगरणवसहिमाइ पडिसेवेंति । एतेहिं बकुस-कुसीलेहिं तित्थं वहिस्सइ । किंतु गुणगाहिणा सारेतरविभागचिंताए गुणेसु पक्खवाओ कायन्वो । जहासत्तीए य तेसिं भत्ती कायव्वा । जओ संपयं पि दीसंति दव्वाइसु पडिबंधवज्जिया। उवलब्भंति य जहासत्तीए दियहं पि सज्झायंता, • विगहाविप्पमुक्का । अवलोइज्जंति केइ वि पायसो समिइसु अप्पमायं कुव्वंता' विभाविजंति य जिणसमयसारं जहाफुडं परूविजंता । लक्खिज्जति एसणाए य जहाविहि जयंता जइणो अज वि दीसंति । ता कहं न संति साहुणो ? त्ति । ता भो भद्दा ! न अन्नहाभावो काययो ति । सावगा वि सुद्धदायगा दीसंति । चिन्तवियं सवं (चं ?) होइ ति । मिच्छाभिनिवेसो पाविट्ठाणं साहुपडिणीयाणं । न हि विगाले साहुणो विहरंति । तहावि मुग्गाईयं उव्वरियं किं न दिज्जइ घेणूणं । तुम्ह गिहेसु उवरियं करं " कुसणिता धरिजंतं किं न पेच्छह पञ्चूसभोइडिंभरूवाइनिमित्तं । किं वा वियाले पक्कमंडगाइ पवाए ठविजंतं न पेच्छह नियगेहेसु; न सुज्झइ साहूणं ति जं भणह । एवं हि भणंतेहिं आहाकम्माइगाहीण सीयलविहारीणं थिरीकरणं कयं होइ । उज्जयविहारिसाहूणं अवन्ना कया होइ । ता अभवो दूरभवो वा- एवंविहवयणेहिं साहसु अभिमुहाणं सद्धाभंग करेइ । जइ कोइ विहारुगो परिवडियपरिणामो सो वि लजइ आहाकम्माइगहणेण । जाहे पुण तुब्भे अकए वि कयं ति वाहरह, ताहे सो 15 पञ्चूल्लं लजं उज्झित्ता आहाकम्माइगहणं करेज्जा । ता सव्वहा उग्घाडमुहेहिं अगीयाण पुरओ एवंविहो विवाओ कम्मबंधणकारणं ति न कायबो । सुणेह एत्थ एकं अक्खाणयं साहुसयासे जं मए सुयं । भणियं सवेहिं वि-कहेसु ति । [पार्श्वश्रावककथितं पुण्डरीक कण्डरीककथानकम् ।] पासो भणिउमाढत्तो-पुंडरिगिणीए नयरीए पुंडरीयो राया । कंडरीओ कणिटो से भाया, सो 20 जुवराया । थेरा समागया। दो वि गया वंदणवडियाए । सुया देसणा । गया सगिहे । कंडरीओ रन्ना मणिओ- 'रजं करेहि, अहं पव्वयामि' । सो भणइ- 'अहं चिय पव्वयामि, तुमं रज पालेहि । अन्नी नत्थि रज्जधुराजोगो' ति ठिओ राया । महाविभूईए कंडरीओ पव्वइओ । छटुंछटेणं अनिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावेमाणस्स अन्नया कडू से जाया । अईव अणहिया सा । दाहजरपरिगओ विहरह । समागया थेरा पुंडरिगिणीए । ठिया बाहिरुज्जाणे । परिसा राया य निग्गया वंदणत्थं । सुया देसणा । दिट्ठो कंडरीओ रन्ना रोगाभिभूओ । विन्नत्ता सूरिणो-'तुब्भे जाणसालासु ठायह, जेण अहापउत्तेहिं वेजोसहपत्थाइएहिं कंडरीयस्स किरियं कारेमि' । पडिस्सुयं गुरूहि । ठिया जाणसालासु । समारद्धा किरिया, रुक्खिमाए जाए वाहिम्मि सिणेहरूवा । तत्थ अभंगो लक्खपागाइएहिं । आहारो उपहसिणिद्धो नाणावंजणाउलो । सयणीयं मिउफासं । कमेण पउणीभूओ सो । गुरू विहरिउमिच्छन्ति । कंडरीओ पुण संतपरिच्चाई वि होऊणं आहाराइसु मुच्छिओ न उच्छहह विहरि । तओ पुंडरीएण नायतदभिप्पाएण भणिओ कंडरिओ-'धन्नो सि तुमं जो छिन्नसिणेहो, अम्हे तुह विरहकायरा । तुमं पुण गुरूहिं सह विहरिउमुजओ सि । एवं चिय जुज्जइ तुज्झ, संतपरिच्चाइणो होऊण पुणो वि अम्हे संभरेज्जासि' । कंडरीओ चिंतइ- 'जइ एयस्स एसा संभावणा, तमहं कहं अन्नारिसं 1 BC °कुव्वंता दीसंति साडू । दीसंवि य जिणसमयसारं। 2 BC नास्ति पदमिदम् । Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधुदानफलविषयक मनोरथकथानकम् । करेमि, ताहे विहरामि' ति चिंतिऊण भणियं कंडरीएण - 'गुरूहिं विहरतेहिं किं मम जुजह अच्छिउं ?' । भणियं पुंडरीएण- 'जुत्तमेयं तुम्हारिसाणं' ति । एवं सो विहराविओ रन्ना उधारण । .. एवं अन्नो वि अणुकूलेहिं विस्सासमुप्पाडिय विहारे उज्जमं कारिजइ । जो पुण मुहरयाए पडणीयभावं वाहयंतो' कण्णकडयमसंबद्धं साहइ सहसा सुसाहुविसए, जहट्ठियमागममबुझंतो वा विचारं करेइ, सो निजियकसायाण वि साहूणं कसाए उदीरेति । किं तु साहुगोयरं एवंविहं वियारं सोऊण । अभिमुहाणं धम्मविग्यो होइ, साहूण य असमाही । साहुअब्भक्खाणेण य अप्पणो दीहसंसारितणं पावइ जीवो । ईसरो व दुक्खपउरं ति । __ भणियं सोहि वि- 'को सो ईसरो जेण साहूण अब्भक्खाणेण दीहो संसारो निव्वतिओ' त्ति । भणियं पासेण [पार्श्वश्रावककथितमीश्वरकथानकम् । ] इओ अईयकाले एगम्मि संनिवेसे पच्चासन्नगामाओ एगो आमीरपुत्तो पओयणेणं आगओ। तम्मि य सन्निवेसे रयणीए तित्थयरो मोक्खं गओ । तओ देवुजोए जाए, विमाणमालाहिं नहंगणे समुच्छाइए, सो आहीरदारगो चिंतेइ - अहो एरिसं मए कहिंचि दिह्र अहेसि । ईहापोहं करेंतस्स जायं जाईसरणं । सामन्नं पालिऊण देवलोगे गओ ति संभरिओ पुत्वभवो । कमेण य सुमरियं पुबाहीयं सुतं । जायसंवेगेण कओ पंचमुट्टिओ लोचो । देवयाए उवणीयं लिंगोवगरणं । उवविट्ठो विचितठाणे । मिलिओ जण- 15 समूहो । तत्थ देसणं कुणइ । एयावसरे एयस्स गोसालयस्स जीवो अईयएगूणवीसइमे भवे ईसराभिहाणो कुलपुत्तगो । तं जणसमूहं दहण तत्थागओ, उवविठ्ठो सो । पुट्ठो तेण पतेयबुद्धो- 'तुमं कत्थ जाओ, कस्स पुत्तो' । सो य भगवं वीयरागो न वितहं भासइ । तओ भणियं तेण- 'अमुगत्थ गामे अमुगस्स आहीरपुत्तो' । भणियमीसरेण - 'कस्स सयासे वयं गहियं, कस्स वा समीवे पढियं । ति । साहू भणेइ - 'न कस्सइ, पत्तेयबुद्धो अहं' ति । भणियमीसरेण-भो । पेच्छह आभीरपुत्तो होउं, कुओ 20 वि अणहिन्जिय अम्हे पयारेइ, ता किं अम्हे तुज्झ वि हीणा जेण तुह समीवे सुणिस्सामो? । अरे रे । उद्वेह किं एस जाणइ । गणहरस्स समीवे वच्चामो' ति । तं वयणं साहअहिक्खेवकारयं सोऊण दूमिया परिसा । किं तु किंकरों ति न केणइ किं पि भणिओ । ठिया मोणेण परिसा । गओ सो गणहरसमीवे । जाव, तत्थ वक्खाणिज्जइ-जो पुढविं संघट्टेइ तस्स तज्जणियकम्मं छहिं मासेहिं वेयणाए निजरइ, परितावजणियं बारसहिं वरिसेहिं, उद्दवणाए वरिसलक्खेणं ति । तं सोऊण भणियमीसरेण - 25 'मा मा अडवियडं वाहरसु । तहा करेसि, जहा भिक्खं पि न कोइ देइ । तुब्भे पुढवीए उवरिं हिंडह, ता कहं न संघट्टो परितावो वा ! । मुत्त-पुरीसाईहिं उद्दवणं पि करेह । ता अन्नहा वाई, अन्नहाकारी तुमं ति । अरे रे ! उट्टेह, एयस्स सगासाओ । अन्नो पत्तेयबुद्धो धर्म कहें तो चिट्ठइ, तस्स समीवे वञ्चामो । गओ सो तत्थ । जाव तत्थ वि तं चेव वक्खाणिज्जइ । तत्थ वि भणियमीसरेण - 'मा मा अडवियर्ल्ड वाहरसु । तुमं आहीरपुत्तो होऊण किं जाणसि! किं पुढवीए उवरि भमंतो संघट्टण-परिता- 3 वणोद्दवणाई न करेसि! । ता तुह निरत्था पन्वज्जा । निचं पुढविकायसंघट्टाइजणियं कम्मं परलोए गएप __ 1 B C वाभयंतो। 2 B C कुलउत्तओ। 3 B C कंकरो। Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनेश्वरसूरिकृत-कथाकोशप्रकरणे [५ गाथा मुंजियव्वं । ता न तुम जाणसि धम्म परिकहेउं । भो लोगा! उठेह, आगच्छह, अहं मे सोहणं धम्म कहेमि, जो सुहेण कीरइ । उहित्ता गओ सो पएसंतरं । लोगं आगच्छंतं विमालेह । एवं तेण भणंतेणं, अभिमुहाणं विवजयं जणंतेणं, अहिणवधम्माणं संदेहं कुणंतेणं, दृढधम्माणं सविसेसए कालुस्समुदीरतेण, साहूणमब्भक्खाणं देतेण, निबद्धमाउयं सत्तमपुढवीए । एत्थंतरे भवियव्वयावसेण पडिया 5 से उवरिं वज्जासणी । मओ गओ सत्तमपुढवीए अपइट्ठाणे । ता भो महाणुभावा ! सरियं विचारेणं, साहुजणनिंदाए धुवा दुग्गई। तओ आगयसंवेगेहि भणियं सव्वेहि वि- 'एवमेयं जं तुमए भणियं । एत्थंतरेण भणियं मणोरहेण-मंदभग्गाणं असव्वियप्पा एवंविहा जायंति । जं तं अचिंतियं कहं साइणं होज्जा । जाणह चिय तुब्भे ममावणेसु घडगसयाणि धयस्स घेप्पंति, विकिजंति य । खंड-गुलाणं च भारसयाणि, तहा वत्थाणं 'चोल्लियासयाई, कंबलाण वि कोडियासयाई घेप्पंति विकिजंति य । ता ॥ किं तत्थ साहूणमणेसणिजं । ता भो! तुब्भं पच्चक्खं मए एस अभिग्गहो गहिओ-जत्तिया चंपाए साहुणो विहारेण आगमिस्संति तेसिं मए घय-गुल-वत्थ-कंबलाइयं पज्जत्तीए गेहंताणं दायव्वं । नन्नत्थ तेसिमणिच्छाए । एयारूवं अभिम्गहं गेण्हंतेण विसुद्धपरिणामयाए वेमाणियदेवेसु निबद्धमाउयं । साहुणो पयत्तेण आगच्छंते निरूतस्स वि न साहुसंपत्ती जाया । तप्परिणामपरिणओ मओ कालेण । उववन्नो ईसाणे विमाणाहिवई देवो । तओ चुओ महाविदेहे सिज्झिहि त्ति । u अत्र च पुढविकायसंघट्टे कम्मबंधनिजराकालवण्णणं कालियसुयसमुल्लवियं नन्नहा चिंतणीयं, न य । कालियसुयं गंयंतरेण समत्थणीयं । तहा वि भन्नइ - इह जिणवरेहि भणियं दप्पियपुरिसेण आहओ थेरो । जा तस्स होज वियणा पुढवि जियाणं तहक्कंतो॥ - सावगाणं सया पुढवाइसंघट्टणाइसु पयहताणं कहं देवलोएसु उववाओ ति, न सुत्तविरोहो चिंत५० णीओ । जइ चेइयपूया सकारवंदणाइणा, तहा साहूण अभिगमण-वंदण-पज्जुवासण-भत्त-पाण-वत्थ-पत्त ओसह-भेसज्ज-सेज्जापडिलाहणेण पोसहावस्सयसज्झायतवोकम्मेहिं य जो विढप्पइ पुन्नपब्भारो तेणोवहम्मइ पावं गिहवासजणियं । न य भणियवं ता किं पव्वज्जाए, पावपडिघायस्स गिहिधम्मेण चेव जायमाणत्ताओ । जओ मोक्खत्थं पव्वज्जा । मोक्खो य न सव्वसंवरमंतरेण । सो य न सव्वसावजजोगविरइं विणा । अओ न देवलोगनिमित्तं पव्वज्जा, किं तु कम्मक्खयत्थं । खीणे य कम्मे मोक्खो करडिओ चेव । जं पुण - साहूण कहं पव्वजा, पुढविउवरिं भमंताण मुत्त-पुरीसाइ वोसिरिताणं!, तत्य सुव्वउ-मम्गा जणकंता, ते य विगयपुढविजीवा । मुत्त-पुरीसाइयं फासुयपएसेसु कुणंति । तओ न संजमवहो । तम्हा न 'अन्नहाभावो कायबो त्ति । ॥ मणोरहकहाणयं सम्मत्तं ॥१६॥ न केवलं खयं दानस्य मनोरथस्य वा देवलोकगमनलक्षणं फलम् , किन्तु येऽपि परेण दीयमानमनु20 मोदयन्ते तेषामपि देवलोकगमनमेव फलमिति दर्शयितुमाह - 1 BC चुल्लिया । 2 BC कोडीसयाई। 3 BC वसंताण। 4 BC सउन्ना । Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या साधुदानफलविषयक-हरिणकथानकम् । अणुमन्नति जईणं दिजंतं जे य अन्नलोएणं । सुरलोयभायणं ते वि होति हरिणो व्व कयउण्णा ॥ १४ ॥ व्याख्या - 'अनुमन्यन्ते' - अनुमोदयन्ति, 'यतिभ्यो दीयमानं ये चान्यलोकेन' साधुभ्य इति प्रक्रमाद् गम्यते । 'सुरलोकभाजनं तेऽपि भवन्ति, हरिण इव' - मृग इव, 'कृतपुण्या: --पुण्यभाज इति गाथार्थः । भावार्थः कथानकादवसेयः । तच्चेदम् - -०१७. हरिणकथानकम् ।बारवईए नयरीए कण्हो वासुदेवो । सो य अच्छेरयभूयं बारवई दद्दूण अरिहनेमि पुच्छइ - भयवं! एवंविहाए बारवईए नयरीए' कुओ विणासो । भणियं भगवया- 'दीवायणाओ' । 'सो किं निमित्तमेवं करिस्सइ ?' । भणियं भगवया- 'मज्जदोसेणं जायवकुमारे तं खलियारिस्सति । सो य कयनियाणो अग्गिकुमारेसु उववन्नो बारवइं विणासेही । 'मम भंते ! कुओ विणासो ? । भणियं भगवया- 'कण्हा!" उत्तमपुरिसा निरुवकमाउया होति । किं तु निमित्तमेतेणं जराकुमाराओ' । तं सोचा परिसागएहिँ जायवेहिं पलोइयं सासूयं जराकुमरस्स मुहं । तओ तस्स महादुक्खं जायं-पेच्छ अहं कण्हं मारेमो ति। सासूयं जायवेहिं पलोइओ । ता घिरत्थु मे जीविएणं । किमहं नियभाउगं वहिस्सामि । ता तत्थ वचामि जत्थ कण्हं न कण्णेहिं सुणेमि ति । निग्गओ सो गेहाओ। परिब्ममंतो गओ कोसंबवणे । तत्थ मिगे मारेचा पाणवित्तिं करेइ । वासुदेवेण वि मजं नयरीए बाहिं उज्झावियं गिरिकंदरे । तत्तो य तं पलो.॥ तं' पडियं वणनिकुंजमज्झट्ठियनिमिणपएसे । जायं मज्जसरोवरं । तडट्ठियवच्छसाहाहिंतो खरपवणंदोलणफुट्टमहुयालपगलियमहहिं बहूएहिं य अभयाइसकसायफलसंजोएण पुणण्णवीभूयं दस वि दिसाओ नियगंधेण' गंधुद्धराओ करेंतं चिट्ठइ । इओ य संवसंतितो गोहो मयवहाए तं पएसमागओ। पेच्छइ मयघुम्मिरं मयजूहं निन्मयं परिसकंतं । दिटुं च आमोयपूरियदिसामंडलं मजसरोवरं । पीयं च कोउगेण तज्जलं । जाव सव्वेंदियपल्हायणिजं दप्पणिजं मजं ति, गहियं तं तेण जलनिमित्ताणीयदीवडयंमि" । गंतूण समप्पियं संबस्स, तेण वि सेसकुमारगाणं । ते तं गोहं भणंति- 'दंसेहि तं पएसमम्हाणं' । तेण वि दंसियं । पीयं सव्वेहिं वि जायवकुमारेहिं जहिच्छाए । तओ मत्ता इओ तओ वणंतरेसु कुहरंतरेसु" परिसक्किउमारद्धा। दिट्ठो य तेहिं एगमि वणनिगुंजे आयावंतो" दीवायणो । तेहिं सो जट्ठि-मुट्ठिप्पहारेहिं खलीकओ'अरे ! तुम अम्ह नयरी विणासेहित्ति भणंतेहिं । तेण भणियं- 'अहं न एयस्स कजस्स कारगोश आसि । किं तु दुरप्पाणो तुन्भेहिं उच्छाहिओम्हि; ता अवस्सं चिडियं पि न मुंचिस्सामि' । तं सोउं" भएण विगयमया जाया कुमारा । गया बारवईए । निवेइयं जहट्ठियं कण्हस्स । भणियमणेण - 'हा! दुट्ठ कयं । अहवा भवियव्वमणेण न अन्नहा जिणभासियं' । भणियं रामेण- 'गच्छामो, खामेमो, मा कयाइ नियतेइ' । भणियं कण्हेण - 'गच्छामो । किं तु जो भगवया तत्तो बारवईए विणासो वज्जरिओ __1 A नास्ति 'नयरीए'। 2 BC °कुमारा। 3A णासेई। 4 A परिसावगेहि; B एरिसो य गएहिं। 5B पलुतं । 6Bहयं। 7 B'निय नास्ति। 8BC संतिओ'। 9A निन्भरं। दीवयंमि। 11 B नास्ति पदमिदम् । 12 B आवाविंतो। 13 B विणासिहिसि ति। 14 B सोऊण । A निन्भरं। 10 Bc Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ श्रीजिनेश्वरसूरिकृत - कथाकोशप्रकरणे [ १४ गाथा 1 सो किं अन्ना काउं सकेणावि सक्किज्जइ ?' | 'किं तु पुरिसायारे' कीरंते न दोसो' । गया तस्स समीवे दो वि भायरो । उवयारवयणेहिं भणिउमादत्तो । सो न आढाइ, बहुप्पयारं भण्णमाणेण । भणियं दीवा - - 'कया मे महई पइण्णा, न अन्नहा करेमि । तुभे दुवे मोत्तूण नत्थि निप्फेडो अन्नेसिं' । नियत्ता दो वि । गया बारवईए । घोसावियं नयरीए जहा - 'बालतवस्सी दीवायणो कयनियाणो • बारवरं विणासि उमुज्जुओ । ता भो जस्स जम्मजरमरणभीयस्स उच्छाहो अस्थि, सो पव्वयउ । तं कण्हो अणुजाणइ । जो न इच्छइ पव्वइउं, सो चेइय- साहुपूयारओ सामाइयाइगुणजुतो अप्पमत्तो' चिट्ठउ' । तं घोसणं सोच्चा बहवे दसारा देवीओ सामंता इब्भादओ पव्वइया सेसा पुण गुरु- देवयपूयणरया पोसह सामाइयाइपरायणा सज्झायवावडा चिट्ठति । सो य दीवायणो मओ । उववन्नो अग्गिकुमारेसु । ओहिं पउंजइ । वेरं सरइ । आसुरत्तो समागओ नयरीए पासेसु परियंचइ । न य किंचि काउं सकेइ 10 अप्पमत्तयार जणस्स । एवं गयाणि बारससंवच्चराणि । तओ जणो भणइ – 'नत्थि को वि दीवायणो जो नयरिं विणासेज्जा' । तओ पमत्ती भूओ लोगो । तओ उद्धइओ संवट्टगवाओ । जो नयरीए बाहि निगच्छइ तं अब्भंतरे खिवइ । लग्गो अग्गी चउसु वि दिसासु । जाओ अकंदसद्दो- 'हा हा सामि ! ive ! परितासु परित्तायसु' ति । तओ जुत्तो रहो । तत्थ वसुदेवो रोहिणी देवई य आरोवियाणि । निश्गंतुमुज्जया, जाव जालामालाहिं रुद्धा मग्गा, आसा न सक्केंति गंतुं । गहिओ रहो बलदेव - वासुदेवेहिं 15 जाव पउलीकवाडा संपूडीभूया, न उग्घडंति । हया कण्हेण पहिप्पहारेहिं । पडिया खडहड त्ति दोन वि । जाव, विसमजालाकलावेण रुद्धं दुवारं । एत्यंतरे भणियं देवेण - 'भो' महाणुभागा' ! मए तुम्हे दुवे जणा अणुष्णाया । ता कीस मुहा किलिस्सह । निग्गह तुभे दोणि जणा । अन्नस्स नत्थि निप्फेडो' । भणियं अम्मा- पियरेहिं - 'जाया ! निगच्छह तुब्भे, पुणो वि रायसिरिं पाउणह । मा अम्ह कारणे विणसह ति । अम्हे कयपंचनमोक्काराणि देवलोए उववज्जिस्सामो । किं अम्हाण सोयणिज्जमत्थि' । तओ निग्गया राम केसवा । बाहिं ठिच्चा नयरिं इज्झतिं निरूवेंति । अवि य 1 .! 20 25 30 गोमहिसिकरह खरवारणोहलल्लुक्क मुक्कसुंकारं । डज्झततुरयनरनारिविसर' आरसियमइविरसं ॥ सोऊ तह दहुं नयरिं जलणोरुजालसुपलितं । गुरुसोओ चुण्णमणो अह कण्ही भणिउमादत्तो ॥ तं दिणमेकं आसी अम्हं जंमी सयंवरे कंसो । चाणूरमुट्ठियावसह आसकरिणो य निट्ठविया ॥ भरहड्डवासिणो निज्जिणि भुत्तं जहिच्छ भरहद्धं । गंतूण आणिया दोवई वि तह अवरकंकाए | मोत्तू जणणि जण पुरिसाहमचरियमायरिता णं । नियभुयपरियणमेत्ता वि निग्गया अज्ज रंको ब ॥ किं जीविएण कज्जं दाइस्सं कस्स इण्हि मुहकुहरं । सबै वि हु रायाणो संपइ पडिकूलमेस्संति ॥ धन्नो भगवं नेमी समुहविजयाइया वि खलु धन्ना । धन्ना य ते कुमारा अणागयं जे उ पव्वइया ॥ बलदेव ! नियत्तामो पविसामो जलियनयरिमज्झमि । वेरिदर हसियपहरणविहुरियहियया कहिं जामो ॥ भणियं बलदेवेण - yesवीरो अजवि नरनाह ! तं चिय तहेव । मा पडिवज्ज विसायं अज्ज वि पुहईए तं राया ॥ नियमुयपरकमेणं पुत्रं पि हु कण्ह ! साहिया पुहई । ते चेव भुया अम्हं स च्चिय वसुहा त एव नरा ॥ भणियं केसवेणं - 'वरभाउय ! पुत्रिं नियपरियणपरियरिया अम्हे अहेसि; संपयं पुण कस्सइ रनो संपय मुद्दालियरायाणो भविस्सामो । किं तु कस्स भोयण-संयण - तंबोलाईसु विस्सासं गमिस्सामो । जम्हा 3 B हूओ । 4 A सव्वासु दिसासु । 5 A पहियापहारेहिं । 9 A °विरस° । 10 BC विसरं । 1 A पुरिसयार । 2 B नास्ति पदमिदम् । 6 A हा । 7 B महाभागा । 8 B तुमे । Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या] साधुदानफलविषयक हरिणकथानकम् । सत्तूणो परिवारो सत्तुभूओ चेव । ता विसकम्मणविसया अम्हे । का जीविए आसा' । बलदेवेण भणियं- 'वच्चामो पंडुमहुरं । ते च्चिय सव्वट्ठाणेसु अम्ह रक्खगा' । भणियं कण्हेणं-'ते मया निन्विसया कया, तो काए मुहच्छायाए' तेसिं समीवे वच्चामो । किं चदरहसियकडक्खालोयणेण पहरेज तत्थ हिययंमि। ताव च्चिय सुहि-सयणो पल्लट्टइ जाव नो दिव्वो॥ भणियं बलदेवेणसंसारसहावो चिय अंते विरसत्तणं तु कज्जाणं । एत्तियगईए कजं जाही किर चिंतियं केण ॥ निच्चं चिय निसुणंता संसाराणिच्चयं जिणिंदाओ। तह वि हुन मणे जाओ मणयं पि हु चरणउच्छाहो।। भणियं केसवेणनिसुएण किंच कीरउ' नियाणदड्डाण को गुणो तेण । किं एत्तियं न नायं कयाइ पच्चक्खओ चेव ।। नाणीयं किर किंचि वि आयंतेणं विमाणवासाओ । न य एत्तो नेयव्वं जं तेण भवंतरे किं पि ॥ ॥ सुकयं वा दुकयं वा जीवेण समं भवंतरे जाइ । तं सुकयं न कयाइ वि एत्थ भवे संचियं किंचि ॥ आसा हत्थी भिच्चा एत्तिय भज्जाओ परियणो एस । रजसिरी मम एसा इय अहिमाणा न विण्णायं ॥ पंचदिवसाण कजे अड्डवियर्थं मए भमंतेण । बद्धं नरयंमि अहो आउमहन्नेण किं भणिमो ।। रामेण भणियंमा मा वच्च विसायं तुमे विढत्तं अणुत्तरं कण्ह ! । तियसेसवंदणिज्जो होहिसि तित्थंकरो अममो॥ 15 ता पंडुमहुराए गम्मउ । जइ ते उवहासपरा अम्हाण भविस्संति, किं दूरे ठियाणं न होहिं ति । तेसि चिय उवरि विस्सासो काउं तीरइ, न अन्नेसिं । ता नियभुयपरकमेण अजिऊण रजं लोयाण हासपयं निरंभिस्सामो । पयट्टा दो वि । पत्ता कमेण" हत्थिकप्पे नयरे । कण्हेण भणियं- 'छुहाइओ अहं' । भणियं रामेण-'तुमं एत्थ उववणे चिट्ठसु । अहं पूइयावणे वच्चामि । तत्थ जइ मे विहुरं होज्जा, तओ सीहनायं करिस्सं । जइ पुण ते, ता तुमं सीहनायं मुंचिज्जासि' - भणिचा गओ नयरे । 20 तत्थ वि गओ पूइयावणे । कडयं दाऊण गहिया खंडमंडया घारिया "इड्डरिय-पूरणाइं । तओ गओ मज्जावणे । अंगुलीययं दाऊण गहियं मजमुंभुलयं । तं गहाय नीहरिउमारद्धो । इओ य निवेइयं अच्छदंतस्स रन्नो जहा- 'अहमहल्लप्पमाणो एयं एवं गहाय निय" नयरातो (?)" ति । तेण वि सुया पउत्ती-जहा दड्डा बारवइ त्ति । ता ते राम-केसवा भविस्संति । ते जियंता कंचि सहायं काउं अम्हे पुणो वि सेवं कारिस्सति, ता वरं नहच्छेज्जो वाही अवणिज्जो"। इय चिंतिऊण पिहावियाई नयरदाराई । 25 सयं राया हत्थिं गुडेचा" संपढिओ तस्स वहाए । बलदेवेण तं दद्दूण सिंहनाओ कओ। तो आलाणखंभमेगं गहाय" उद्धाइओ अच्छदंतस्स-मओसि दास ति भणंतो। कण्हो वि सीहनायं सोऊण समागओ नयरे । पेच्छइ पिहियाई दाराई । हयाइं कवाडाइं पण्हिप्पहारेण । सयहा भिन्नाइं पडियाई भूमीए । अच्छदंतो भीओ हत्थीओ उयरित्ता पायवडिओ भणइ- 'चुक्को, भुल्लो हं, अणुगेण्ह रायसिरीए'। भणियमणेहिं - 'अरे दास ! किं तुमए दिन्नं रजं मुंजिस्सामो । अन्ज वि ते चेव अम्हे । अज वि 30 तहट्ठियं तं बलं भुयदंडगोयरं हरिणो गयतुरएहिं गएहिं वि।ता भे कत्तो परित्ताणं :, किं पम्हुढं तं दिणं? ___ 1A मुहलच्छीए। 2 BC तेवि। 3 B °सहाओ। 4A कजेण। 5 A तेण । 6 A विसुणेता। 7 B कीरइ। 8 A एक°। 9 A अहिं। 10 A नियपर। 11 BC कमेण पत्ता हस्थिसीसे। 12 B C इंडरिय। 13 Aभुंभुलयं; B भुभलयं। 14 Bची; Cबीइ। 15 BCनयराओ। 16 B अवणीओ। 17 B गुडिऊण। 18 B गहिऊण । Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनेश्वरसूरिकृत-कथाकोशप्रकरणे [१४ गाथा सोलस रायसहस्सा सव्वबलेणं तु संकलनिबद्धं । अंछति' वासुदेवं अगडतडंमि ठियं संतं ॥ घेत्तूण संकलमयं लीलाए ईसि अंछिओं तुम्हे । सप्परिवारा सव्वे सुहेण लोट्टावई तइया ॥ इय भणिऊण दो वि निग्गया नयराओ । ठिया दूरतरं उज्जाणे । पीयं मजं, भुत्तं मंडगाइयं सारणिसडट्टिएहिं, अवणीओ परिस्समो सुराए । वियलिओ सोगो । समुद्धाइओ उच्छाहो । पयट्टा पंडुमहुरं • पइ । पत्ता कोसंबवणं । भणियं कण्हेण - 'राम ! निरहं पिवासिओ म्हि' । भणियं रामेण - 'तुम एत्य नग्गोहच्छायाए वीसमसु । अहं पाणियं गवेसामि । अतो वित्थरियं काउं निवन्नों कण्हो । वामं पायं भूमीए, दाहिणं पायं वामजाणुगोवरि काऊण पीयवत्थंचलेण सपाय' सरीरमोच्छाडिऊण सीयलपवणाणुभवं करेंतो चिट्ठह । रामो वि गओ जलाणयणढाए। एत्थंतरे सो जराकुमारो मयवहाए वणनिउंजेसु संचरंतो पत्तो कण्हासन्नवणनिजं । वणंतरिएण "दिट्ठो णेणं पीयवत्थोहाडिओ कण्हपाओ। चिंतियमणेण-कणयपट्ठो मिओ एस । आकण्णंतं आकटिऊण मुक्को बाणो । विद्धो पायतले कण्हो पउमट्ठाणे । भणियमणेण - 'अरे रे ! केण एवं निरवराहस्स पहरियं मम, साहेउ सो नाम-गोयमप्पणो कारणं च पहरियव्वस्स' । भणियं जराकुमारेण- 'भो महाणुभाग ! न मए तुह वहाए बाणो मुक्को, किं तु कणयमयपट्टबुद्धीए । ता न किंचि वेरकारणं । जं पुण को सि तुमं? - तमहं जायवकुलतिलयस्स वसुदेवस्स पुत्तो जराकुमारो नाम । नियभाउणो एकल्लपुहइवीरस्स ॥ वासुदेवस्स नेमिनाहसमाइट्टममहत्थमञ्चस्स रक्खानिमित्तं पडिवण्णसबरवेसो ति । तुमं पि साहेहि नियनामधेयं । भणियं कण्हेण- 'एहि एहि भाउय ! सोहं वासुदेवो जस्स कारणे वणवासं पडिवनोसि' । तओ सो तं सोऊण - 'हा हा! हओहं हओहं, पाविट्ठोहं पाविट्ठोहं । हा हा ! अकजं अकजं कयं' ति अकंदसहं कुणेंतो समागओ कण्हमूले । भणियं कण्हेण- 'जाव न एइ बलदेवो ताव खिप्पं नस्साहि । गच्छ पंडुरमहुरं, भणेज्जासि पंडवाणं-बारवई दड्डा दीवायणेण; पुज्वपडिवण्णसा* मण्णे मोतूण पलयं गया सधे वि जायवा । राम-केसवा बाहुबीया निग्गया । पंडुमहुराभिमुहमागच्छंताणं केसवस्स एस वइयरो जाओ। एयं च कोत्थुभरयणं तप्पच्चयनिमित्तं गेण्हेसु, जेण तुमं रायसिरीसंविभाएणं संविभायति । सिग्धं गच्छ जाव न रामो आगच्छइ । मा ते आबाहं करिस्सइ' । गओ जराकुमारो । वासुदेवो वि तीए वेयणाए अणिच्चयं भावेतो संसारस्स परमसंवेगमावन्नो गओ पंचत्तं । गओ सेलाए । तत्थ सत्त सागराणि से आउं । बलदेवो वि आगओ पाणियं गहाय । भणइ- 'उद्वेसु भाउय ! 23 पाणियं पियसु' । जाहे न देइ पडिवयणं ताहे निरूविओ, दिट्ठो गयजीवो । तं दट्टण गओ मोहं रामो । खणंतराउ लद्धचेयणो भणिउमाढत्तो हा कण्ह ! कीस कुविओ चिरं भमंतेण पावियं तोयं । पियसु जहिच्छं एयं वचामो जेण महुराए। विसमं रन्नं भाउय ! न जुत्तमेत्थं तु अच्छिउं अम्ह । दिव्वंमि विहडियंमी विग्यसहस्साई जायंति ॥ ता उद्वेसु न कज्ज विहुरसहायं ममं परिच्चइडं। अवहेरीए नराहिव वच्चामो पंडुमहुराए ॥ " पेच्छंतो विन पेच्छइ देवी भूया इमस्स जं दिट्ठी । न नियइ सीयलिभूयं अंगं तह विहसियं वयणं । बहुविहं परितोसेंतस्स वि जाहे पडिवयणं न देइ, ताहे चिंतह-'किं मओ एसो' । ताहे पलविउं पउत्तो- 'अहो केण एवं ववसियं ! जायवकुलनहयलमियंको पुहइवीरचूडामणी भरहड्डसामी रायाहिराओ निरवराहो केण वि निकारणवेरिएण जेण पंचत्तं नीओ दंसेउ सो अप्पाणं । पयडेउ नियभडावलेवं । __1 B अच्छिति। 2 B अच्छिओ। 3 B तुन्मे। 4 B लुहावई। 5 A समुच्छाहो। 6 A निविण्णो। 7 B सपाउयं। 8 B सलिलं। 90 देवोभूया। 10 C दिहो। Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या साधुदानफलविषयक-हरिणकथानकम् । पसुत्तं कण्हं जो वावाएइ न सो सप्पुरिसो' । एवमाइ रसिऊण पुणो वि मोहपिसाइयानडिजंतो भणइ'कण्ह ! न विप्पियस्स कालो । उढेहि, पीयसु पाणि यं, जेण वच्चामो' । जाहे पडिवयणं न देइ, ताहे कयं कण्हकडेवरं खंधे, पयट्टो तं गहाय । जराकुमारो वि कमेण पत्तो पंडुमहुराए । सिट्ठो सव्ववुत्तंतो। तेहिं वि संसारासारायं भावेंतेहिं दिन्नं जराकुमारस्स रज पंच वि भाउणो सह दोवईए सुट्टियमूरिसमीवे पव्वइया । अहिज्जियाई अंगाई । । अण्णया सुयं तेहिं-भगवं अरिट्ठनेमी सुरठाए विहरइ । गुरूहि अणुण्णाया चलिया पंच वि अरिट्ठनेमिणो वंदणवडियाए । कमेण पत्ता हत्थिसीसए । ठिया उज्जाणे । पत्ते भिक्खाकाले पविट्ठा दोहिं संघाडएहिं । ठिओ उजाणे जुहिहिरो । गोयरपविटेहिं सुया पउत्ती जहा- नेमिनाहो उज्जयंते पत्तो निव्वाणं ति । तं सोऊण नियत्ता गोयराओ सिटुं जुहिद्विरसाहुणो । तेण वि भणियं - 'भत्तं परिठ्ठवेह । जइ तुम्ह भासइ ता सत्तुंजए गंतूण करेमो पाओवगमणं' । बहुमयं सम्वेसिं । विहीए भत्तं परिठ्ठविता गया । सत्तुंजए । ठिया पाओवगमणेणं । पंच वि जाया अंतगड त्ति ।। इओ य पुट्विं सारही बलदेवसंतिओ पव्वज्जापडिवत्तिनिमित्तं अप्पाणं मोयावेइ । बलदेवेण भणियं'जइ आवईए ममं पडिबोहे सि ता विसज्जेमि' । पडिवण्णं सारहिणा । कयं सामण्णं । मरिऊण उववन्नो देवलोए । सो ओहिणा पेच्छइ - गहिय कण्हकडेवरं बलदेवं इओ तओ वणनिगुंजेसु परिब्भमंतं । आगओ देवो बलदेवबोहणत्थं । सिलाए पोमिणीओ रोवेइ । भणियं रामेण - 'किं करेसि ? । सो 15 भणइ – 'पोमिणीओ रोवेमि' । भणियं रामेण – 'अरे मुरुक्ख ! सिलाए पोमिणीओ जायंति ? । भणियं देवेण -- 'जइ मओ तुह भाया जीविस्सइ ता सिलाए पोमिणीओ वि होहिंति । 'आ पाव ! दुट्ठभासग त्ति भणित्ता गओ बलदेवो । पुणो वि पेच्छइ - पव्वयाउ रहो उत्तारिओ समे भूमिपएसे आगओ सयखंडो व गओ, ताणि खंडाणि देवो मेलेइ । तत्थ वि रामेण पुट्ठो तहेव भणइ - 'तव भाया अणेयसमरलद्धविजओ न मओ, पायतलकंडप्पहारमओ जइ जीविस्सइ ता मम रहो वि मिलिस्सई' । एवमाइव- 20 यणसंचोइओ मणयमागयचेयणो भणइ- 'अरे को सि तुम, पुणो पुणो ममं चोएसि ? | पयडीभूओ' देवो नियरूवं दंसेइ । सिट्ठो कण्हमरणवइयरो । भणियं बलदेवेण – 'संपयं किं करेमि ?' । देवेण भणियं- 'एत्थ नईसंगमे एयं कडेवरं संकारेमो' । देवेण वि महाविभूईए संकारियं कण्हकडेवरं । तत्थ य तित्थयरवयणसमागयचारणसमणेण पव्वाविओ बलदेवो । कुणइ उग्गं तवं । अन्नया कयाइ रामो एगमि सन्निवेसे भिक्खाए पविसइ । जाव सुक्कनईकूवियाए घडएणं जल- 25 कडणनिमित्तमागया एगा सपुत्तिया इत्थिया, बलदेवं इंतं पासइ । सा तस्स रूवेण अक्खित्ता । पम्हुट्ठो अप्पा । ताहे जंघाविलग्गपुत्तस्स घडगबुद्धीए पासयं दाउमुज्जया दिट्ठा बलदेवेण । हा हा अणत्थो-ति सिग्धं समागओ तत्थ बलदेवो । भणइ – 'धम्मसीले ! किं करेसि ?' । तओ अमयं व तव्वयणं मन्नती अणिमिसनयणेहिं तमेव पलोययंती भणइ - 'पाणियं कड्डिस्सामि' । 'केण पाणियं कड्डेसि ? । सा भणइ'घडएण' । 'धम्मसीले ! सम्मं पेच्छसु' । सा जाव निरूवेइ ताव पेच्छइ दारयगलए निसियं पासयं । 30 तओ लज्जिया सा । रामो वि ततो च्चिय नियत्तो । न गामे पविसामि, जओ एरिसी गइ ति । तओ रन्नं समासिओ । तत्थ जइ कोइ तणकट्ठहारगो देइ तं आहारेइ अन्नहा तवमहियासेइ । सो य देवो 1B जुहिट्रिलो। 2 A होति। 3A नास्ति 'भणित्ता'। 4 A °वयणचोइयो। 5B हवो। 6B नास्ति पदमिदम्। 7 B कम्मं । 8A पेच्छसि । क. १२ ति Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनेश्वरसूरिकृत-कथाकोशप्रकरणे [१४ गाथा सीहरूवेण पाडिहरं करेइ । भगवओ सोमयाए आगच्छंति बहवो रोझहरिणादओ । भगवं तेसिं देसणं करेइ । तत्थ एगो हरिणो संभरियपुव्वजम्मो अप्पणो दुप्पउत्तवइजोगस्स निंदं करेंतो जिणवयणे संजायपच्चओ चिट्ठइ । किर सो अन्नजम्मे धणदेवो समणोवासगो कम्मिवि गामे आसि । पयईए केलिप्पिओ। तत्थ य 5 मुद्धसहावो सरणो नाम धम्मसद्धिओ वणी परिवसइ धणदेवस्स वयंसो । तेण पुट्ठो अण्णया धणदेवो'वयंस ! केरिसो देवो, केरिसो वा गुरू कहिजइ ?' भणियं धणदेवेण- 'अरिहं देवो, साहु गुरू' । सरणेण भणियं-'केरिसो अरिहंतो कहिजइ । धणदेवेण भणियं - 'अरी सत्तू कहिजइ । तं जो हणह सो अरिहंतो' । सरणो मुद्धसहावो भणइ- 'नायं मए राया अरिहंतो होजा' । परिहासेण भणइ धणदेवो- 'सुट्ठ नायं पियवयंसएण' । सो सब्भावं मन्नइ । सरणो भणइ - 'साहू जो वणिज्जारगाणं 10 रासिं समप्पेइ' । तत्थ वि भणइ धणदेवो- 'सुटु बुज्झियं पियवयंसेण' । तओ सरणो तं चेव बहु मन्नइ । एवं उम्मग्गदेसणाए पच्चयं विवजयं काऊण, मिच्छत्तभावणाए तिरियाउं बंधेत्ता धणदेवो हरिणो जाओ । रामं दडं जाईसरणे जाए चिंतेइ सच्चं जिणवयणं उम्मग्गदेसओ मग्गनासओ गूढहिययमाइल्लो। सढसीलो य ससल्लो तिरियाउं बंधई जीवो ति ॥ । ता किं करेमि संपयं ? । इमाउ मम जाईसरणं जायं, ता एयं चेव पज्जुवासेमि-एवं सो हरिणो फासुयतणेहिं कयपाणवित्ती, पाउसे पुण परित्ततणकयाहारो कालं गमेह । तत्थ य तणकट्ठहारगाईणं भोयणकालं नाऊण भगवओ रामस्स पुरओ ठिच्चा तत्तो हुत्तो गच्छइ । तओ रामो तत्थ गच्छइ, कत्थह लहइ, कत्थइ न लहइ, जं लहइ तमाहारेइ । अण्णया रायादेसेण' रहकारो एगो बहुजणसमेओ पउरभत्तपाणे गहाय तत्थ वणे वणछिंदणत्थमागओ। कुहाडघायसदं सोऊण गओ तत्थ हरिणो । भोयणावसरं नाउं " आगओ पुणो रामस्स पुरओ ठिच्चा सन्नं करेइ । रामो वि पत्तं गहाब चलिओ तं पएस' । सो य वड्डई जणं भणइ – 'एस महालओ दुमो, ता अद्धच्छिन्नस्सेव ताव छायाए भुंजामो, पच्छा छिदिस्सामो' । उवविले भोयणटा । परिवेसियं थाले लड्डगखज्जगाइयं । एयावसरे पत्तो बलदेवरिसी । तं दट्टण तुट्ठो रहगारो चिंतेह - 'अहो! मरुत्थलीए वि कप्पपायवो, तिमिसगुहाए वि रयणप्पईवो, मायंगगेहे वि एरावणो, दरिदगेहे वि रयणवुट्ठी; जओ कत्थ एस पएसो कंताराडवी पणट्ठमग्गा ण सत्थवाहो !, कत्थ एस मगवं ॐ मम पुण्णप्पब्मारचोइओ समागओ त्ति । ता धन्नो हं । करेमि सहलं मणुयत्तणं । एयं महाभागं पडिलाहेमि' त्ति परमसद्धाए तं चेव थालं गहाय उडिओ दाउं । भगवयावि कप्पइ ति पत्तं पसारियं । हरिणो वि उद्धसियरोमकूवो चिंतेइ - अहो ! धन्नो एस महाणुभावो जो एयं महातवस्सिमेवं पडिलामेइ ति । एयावसरे बाहूलएणं आवलिओ दुमो । निवडिओ तिण्हं पि मज्झेण । तिन्नि वि गया पंचत्तं । बंभलोए कप्पे उववन्नो बलदेवरिसी विमाणाहिवई दससागरोवमाऊ । रहकारो दाणाणुभावेण, हरिणो वि दाणा" णुमोयणेणं, तत्थेव विमाणे उववण्णा दो वि तस्सेव देवस्स अणुचर ति । ता दाणाणुमोयणस्स वि बह एवंविहं फलं, ता अन्नेण वि एत्थ जत्तो कायबो त्ति ॥ ॥ हरिणकहाणयं समत्तं ॥१७॥ 1B रायाएसेण। 2B दिसं। 3 B माणुसत्तणं । Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या साधुदानफलविषयक-घृतदानकथानकम् । यत्तु दत्त्वापि दानं प्रतिपतति स तथाविधफलभाजनं न भवतीत्येतदाह - दाऊणं पि जईणं दाणं परिवडइ मंदबुद्धीओ। घय-वसहि-वत्थदाया नायाइं एत्थ वत्थुमि ॥ १५ ॥ __ व्याख्या- 'दत्त्वापि यतिभ्यो दानं प्रतिपतति मन्दबुद्धिक' । किं वदित्याह – 'घृत-वसति-वस्त्रदाता' घृतदाता वसतिदाता वस्त्रदाता इति । दातृशब्दस्य प्रत्येकं सम्बन्धात् । 'ज्ञातानि अत्र दानव- 5 स्तुनि' । भावार्थः कथानकेभ्योऽवसेयः । तानि चामूनि । घृतदातृकथानकमादौ कथ्यते ०१८. घृतदानकथानकम् । इहेव भारहे वासे वसंतपुरं नयरं । तत्थ जक्खो समणोवासगो, साहुणो भत्तपाणेहिं फासुयएसणिएहिं पडिलामेमाणो विहरइ । अन्नया लोयविरलुत्तिमंगं तवोकिसं जल्लखउरियसरीरं । जुगमेत्तनिमियदिट्ठी अतुरियचवलं सगिहमितं ॥ ॥ दतॄण य अणगारं सद्धासंवेगपुलइयसरीरो । घयभायणमुक्खिविउं सहसा अन्मुट्ठिओ जक्खो ॥ सो वि य सुदत्तसाहू अइसयणाणेण चिंतए एवं । एवं विहपरिणामो बंधइ आउं कहिं एसो ॥ जक्खो वि परमभत्तीए घयं देइ । देंतस्स भरियं भायणं । सुदत्तमुणी वि तदाउए उवउत्तो न भणइ इच्छामो ति; जक्खो वि देंतो न थक्कइ; जाव भरियभायणाउ निवडिउमाढत्तं घयं । जक्खो चिंतेइ-हा पेच्छ, केरिसो पमत्तो साहू एसो, इच्छं ति न भणइ, किं एयस्स दिनेण । ताहे' जहा जहा से अज्झ-15 वसाओ परिवडइ तहा तहा सो पुबिल्लआउयबंधजोगयाए पडइ । तं पडतं दद्रूण भणियं सुदत्तेण - 'मा मा पडसु' । जक्खो भणइ - 'वारेहि पडतं धयं । अहो उम्मत्तो एस साहू' । साहुणावि धयं ति सोऊण कओ उवओगो। पेच्छइ भूमीए घयं लुढंतं । तओ भणियं सुदत्तेण – 'मिच्छामि दुक्कडं, परिसाडी जाय' त्ति । जक्खेण भणियं – 'एत्तियं कालं कहिं गओ आसि, जेण संपयं मिच्छामि दुक्कडं देसि । वारियं च तुमे घयं पडतं किं तु न ठिय; नत्थि आणाजोग्गो धयस्स जं वारिजंतं पि न ठाइ' । भणियं सुद- 20 तेण - 'कीस उल्लुंठ वयणेहिं अत्ताणं मुससि, गंडोवरि ते फोडिया एसा' । जक्खो चिंतइ जहा'किमेयं एस साहू असंबद्धमुल्लवई' । भणियं जक्खेण – 'भयवं ! सरोसं वयणं' । भणियं सुदत्तेण 'पुविं च इण्हि च अणागयं च मणप्पउसो न मे अस्थि कोई । जहटियं भासइ साहुवग्गो ता सच्चमेयं न विगप्पणीयं ॥ भणियं जक्खेण - 'भयवं! साहेह को एस वइयरो' । भणियं सुदत्तेण- 'जाहे अहं तव गेहे पविट्ठो 25 तुमं च दाउमुट्ठिओ तओ तुमं पवढमाणपरिणामं दट्टण तव आउबंधे उवउत्तो हं । घए उवओगो तुट्टो। तुमं सोहम्माइकमेण उवरिं उवरिं गच्छंतं पेच्छामि, पवड्डमाणसुहज्झवसाणेण पतो अञ्चुयं, जाव आउयबंधजोम्गयं पडुच्च । ततो जया मम अणुवउत्तस्स घयं भरियभायणाओ निवडिउमारद्धं, तया तुमं पि अज्झवसायवसाओ अच्चुयाओ पडतो दिट्ठो। तेण मए भणियं - ‘मा पडसु' ति । जया तुमे उल्लंठवयणं 'समुल्लवियं तया तुमं भट्टदंसणो तिरियाउयबंधजोग्गय पत्तो । तेण मए भणियं - 'गंडोवरि ॥ 1 A तहा। 2 B उल्लंड। 3 A वयणमुल्ल । Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनेश्वरसूरिकृत-कथाकोशप्रकरणे [१५ गाथा ते फोडिया एसा । एगं ताव तए देवाउयं नासियं अण्णं च जं तुमं तिरियाउयबंधजोग्गय पत्तो। एसा ते गंडोवरि फोडिया जाय त्ति । न मे कोई मणप्पउसो अत्थि' । आगयसंवेगेण भणियं जक्खेण'भयवं ! पुणो वि घयभायणं धरेसु जेण पुणो सग्गे आउयं बंधामि' । भणियं सुदत्तेण – 'भद्द ! न घएण देवाउयं लब्भइ किं तु तहाविहपरिणामेण । सो पुण निरीहाण संभवइ । अन्नहा कयविक्कयमेवेयं । होज्जा' । भणियं जक्खेण – 'कहिं भंते ! अच्छह' तुब्भे?' । साहुणा भणियं - 'अमुगत्थ उजाणे' । भणियं जक्खेण - 'अहं आगमिस्सामि, जइ अणुवरोहो भगवंताणं' । भणियं साहुणा-'न खलु सुहजोगाराहणेण कम्मक्खयं करेंते भवे साहुणो निवारेति । नेव य एवं भणंति आगच्छेजासि, इरियावहिय अणुमईपसंगाओ। तम्हा किमेत्थ भणामो ?, ताव अम्हाण नत्थि उवरोहो' -त्ति भणिऊण गओ साहू । जक्खो वि गओ उचियसमए, वंदिय उवविट्ठो भणिउमाढत्तो- 'किं नं भंते ! तहाविहघयपलोडणाइयं 10 किरियं दट्टण- अहो पमत्तो एस साहु-त्ति दुडु चिंतियं । सुदत्तेण भणियं- 'हंता समणोवासगा! अन्नहा तहा कहं अच्चयाओ परिवडतो दिट्ठोसि । जं पुण तुमे उल्लुंठं भासणं कयं, तं दुडु कयं; जम्हा तं पडिनिविट्ठस्स चेट्टियं । पडिनिवेसो य पओसरूवो । सो य वेसधारिणो वि उवरिं न जुज्जइ काउं । जम्हा तब्भावणाभावियाणं जम्मंतरे वि तब्भावणावसाउ तस्स रूवस्स उवरिं पओसो अणुवत्तेजासि । जहा नामए खरताडपत्ते सियासेआवलित्ता कण्णे आविद्धे तब्भावणाभाविए, जइ तत्तो अवणेत्ता पसा15 रिय मुच्चइ, तहावि झत्ति वंकत्तणमुवेइ ! एवमेव जीवो वि साहुवेसपओसभावओ जम्मंतरे वि तं भावमणुवत्तेज्जा । कहमण्णहा वेराणुभावा अणुवत्तंति' । 'कीस णं भंते ! पञ्चक्खे वि दोसदिढे विप्परिणामो न उप्पज्जइ ?' । साहू भणइ – 'कस्सइ उप्पज्जइ, कस्सइ न उप्पज्जइ' । 'को भंते ! एयाणं लट्ठयरो। 'जक्खा! जो न विप्परिणमइ । लिंगमेत्तावसेसे वि वत्थुसहावो भावणीओ, न विप्परिणामो कायव्वो । नापउट्ठस्स विप्परिणामो' ति । 'ता किं भंते! आलोयणारिहमेयं ?' । साहू भणइ- 'बाढं' । 20 'ता देह भंते ! पायच्छित्तं' । दिन्नं च साहुणा । जक्खसमणोवासगो वि पायच्छित्तं पडिवज्जिय गओ सगिहं । अओ एवं न कायवं ति उवएसो ॥ ॥ इति घृतदानकथानकम् ॥ १८॥ अत्राह कश्चित् - 'श्रावकाणां प्रायश्चित्तं क भणितम् ?' 'यत्यनुसारतो निसीथ इति ब्रूमः । कथमन्यथा गौतमस्वामिनोक्तम् – 'अत्थि आगारमावसंताण उप्पज्जइ ओहिनाणं, न उणं एय महालए, ता णं तुम 25 एयस्स ठाणस्स आलोएहि निंदाहि गरिहाहि पडिक्कमाहि । अहारिहं तवोकम्मं पायच्छित्तं पडिवजाहि' त्ति अवश्यं प्रायश्चित्तमस्ति श्रावकाणां ततो गौतमेनैवमुक्तमिति ॥ घ यत्तिगतं ॥ वसहिदाय त्ति भन्नइ - १९. वसतिदानकथानकम् ।उजेणीए बलमित्तो नाम राया । भाणुमित्तो से लहुभाया जुवराया। भाणुसिरी तेसिं भगिणी; 30 भाणुदत्तो तीसे पुत्तो । अन्नया वासारत्तनिमित्तं कालगायरिएहिं वसही जाइया । दिन्ना सगिहे रण्णा । पढमसावणो वट्टइ । रण्णो जुवरण्णो य एस परिणामो जाओ-भाणुदत्तं रज्जे अहिसिंचिय पन्वइस्सामो । 1A अच्छसु; B अच्छइ । Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या ] साधुदानफलविषयक वस्त्रदानकथानकम् । सुयं तं भाणुदत्तेण । चिंतियमणेण - महारंभपरिग्गहे काउं नरए गंतवं भविस्सइ-त्ति, आयरिए भणइ'ममं पव्वावेह' । आयरिएहिं - अव्वुच्छित्तिकारओ भविस्सइ-त्ति अणापुच्छिय रायाणं जणणि-जणगे य पव्वाविओ भाणुदत्तो। तओ चिंतियं रन्ना - वसहिदाणजणिओ एस अणत्यो त्ति । निस्सारिया कालगायरिया । गया पइहाणे नयरे । बहुमन्निया सालवाहणेणं । सो च्चिय तहाविहनिज्जराए भागी जाओ न इयरो। ___ अह का पुण वसहिदाणाओ निजरा ? । भण्णइ -जं तत्थ ठियाणं साहूण कोइ भत्तं देजा, कोइ पाणयं, कोइ वत्थ-पत्त-कंबलाइ देजा । कोइ ओसह-भेसज्जाइएहिं गिलाणभावे उवयारं कुजा । तत्थ वसहिदाया निमित्तं । तहा कोइ साहुसयासे देसणं सोचा सम्मत्तं लभेजा । तओ सो चेइयाणं पूर्व करेजा, रहनिक्खमणाइणा वा सासणुण्णइं कुज्जा । तत्तो भव्वसत्ता बोहिबीयं लभेजा । ते य कालेण संसाराओ नीहरेजा । तओ तकओ वहो आसंसारं जीवाणं रक्खिओ होज्जा । तत्थ वि वसहिदाया 0 निबंधणं । केइ पुण संपयं चेव देसविरइं सव्वविरई वा लभेजा । ते य देसओ सव्वओ य जीवे रक्खेज्जा । एवं च तेलोक्के वि अभयं घोसावियं जेण साहूणं वसही दत्ता' । अओ एवंविहनिजराविसयभावं लद्धण वि न एवंविहनिज्जराए आभागी राया जाओ । अओ एवं न कायव्वं ति उवएसो ॥ व स हि त्ति गयं ॥ ॥ वसतिदानकथानकम् ॥ १९ ॥ वत्थदाय त्ति संपयं भन्नइ -०२०. वस्त्रदानकथानकम् । एगमि नगरे एगो तच्चण्णियसमणोवासओ धणड्डो साहूणं नाढाइ धणदेवो नाम । तत्थ य अण्णया विहरंतो समागओ धम्मसीलो नाम सूरी । तस्स तरुणसमणा एगस्थ मिलिया अवरोप्परं भणंति-'किं तुम्ह जा(ना)णविजाविण्णाणेहिं सरइ तं धणदेवं धणवंतं साहूणं भत्त-वत्थ-कंबलाइं न दवाविज्जइ' । 20 तत्थ एगेण साहुणा भणियं- 'अत्थि मम सत्ती दवावेमि । किं तु विज्जापिंडो सो, अकप्पणिज्जो सो साहूणं ति । जइ जाणह तह वि संजमो उस्सप्पउ ताव दवावेमि' । भणियं साहूहिं- 'दवावेहि' । तओ पेसिया तस्स घरे दुवे साहुणो तेण । सयं पि एगंते ठिओ विजं आवाहेइ । विजाए अहिडिओ धणदेवो साहूणो दट्टण उढिओ भणइ - 'संदिसह भंते ! किं करोमि' । जाइओ वत्थाई साहूहि, परमभत्तीए दाउमाढत्तो । दिण्णाणि पवरवत्थाइणि । पडिसिद्धो वि न ठाइ । भणइ - 'अन्नं पि गेण्हेह, ममाणुग्ग- 25 हेण' । पज्जत्तीए घेत्तूण वत्थ-कंबल-घय-गुलाइं आगया साहुणो। उवसंहरिया विज्जा तेण साहुणा । जाओ सत्थो धणदेवो । हा दुट्ठो! हा दुट्ठो! त्ति भणिउमाढतो । मिलिओ लोगो । पुच्छइ - 'किं कहं ?' ति । सो भणइ – 'न याणामि मए सव्वं 'सेयवडाणं दिणं घरसारं' । लोगो भणइ – 'जइ तुमे दिन्नं, साइहिं गहियं, नस्थि मणयं पि साहूण दोसो । एवं भणंतो तुमं केवलाओ दाणफलाओ चुकिसि' ति । दाऊण वि परिवडियस्स न निजरा, न कित्ती जायइ । एवं न कायव्वं ति ॥ वत्थ त्ति गयं ॥ 30 ॥ इति वस्त्रदानकथानकम् ॥ २० ॥ समासं गाथोक्तं कथानकत्रयम् । 1 B सालिवाहणेणं । 2 C दिन्ना। 3 A सेवडयाण । Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनेश्वरसूरिकृत-कथाकोशप्रकरणे [१६ गाथा अणुगिण्हंति कुचित्ता भावं नाऊण साहुणो विहिणा । जह सीहकेसराणं दाया रयणीए वरसड्डो॥ १६ ॥ व्याख्या - 'अनुगृह्णन्ति' - दानादिनोपकुर्वन्ति, 'कुचित्ता' न समाहितमनसो, 'भावं ज्ञात्वा साधून विधिना' - आगमोक्तेन' चित्तवास्थ्यकरणलक्षणेन । किंवदित्याह – 'यथा सिंहकेसराणां' : मोदकविशेषाणाम् , 'दाता रात्रौ वरश्राद्धः' प्रधानश्रावक इति । भावार्थः कथानकादवसेयः । तच्चेदम् - २१. सिंहकेसरमोदककथानकम् । चंपा नाम नयरी । तत्थ सुव्वया नाम सूरिणो साहुकप्पेणं विहरंता आगया, ठिया उज्जाणे साहु-. जणपाउग्गे । निग्गया परिसा । धम्मो कहिओ । अन्नया तीए नयरीए उच्छवो जाओ । तस्थ एगो खमरिसी चिंतेइ - अज्ज मम पारणयं, लोगे य उच्छवो । महल्लिया नयरी चंपा, लोगो य महद्धणो । 10 साहुजणो य अब्भच्चणीओ सव्वेसिं । ता अज्ज मए सेसपरिच्चाएणं भिक्खापविद्वेण सीहकेसरा मोयगा घेत्तथा । एवं चिंतिय पत्ते भिक्खाकाले पविट्ठो गोयरे । तत्थ कत्थइ मंडगे, कत्थइ सोमालियाओ, कत्थइ गयपूरे, कत्थइ इयरमोयगे लब्भंते । पडिसेहेइ । लोगो जाणइ- अभिग्गहविसेसे कंमि वि' वट्टइ, ता तंमि अपुजंते न गेण्हइ । जाव से पत्तयं अणाउत्तं पि न जायं । सो अद्धिईए विनट्ठचित्तो जाओ। अतिवाहियं दिणमडंतेण । न याणइ दिणं वा राइं वा । आयरिएहिं अइपभूययाए साहूणं न नायं जहा 15 नागओ खमरिसी, अन्नहा परिचरिय आणिओ होजा। जाव अड्डरत्तकालसमयंमि पविट्ठो सागरसेहिस्स गेहे । धम्मलाभट्ठाणे भणियं साहुणा- 'सीहकेसर' ति । चिंतियं सागरसावएण- अहो! अकाले कहं एस साहू गोयरे पविट्ठो? । ता दे एयस्स कुओ वि चित्तचालो अस्थि । एएण य वज्जरियं 'सीहकेसर' त्ति । ता मा ताणं कए चित्तचालो जाओ। ता दंसेमि ते चेव । मा चित्तं सट्ठाणे एज' त्ति । सीहकेसरमोयगाणं थालं भरिऊण आगओ भणइ – 'अणुगेण्हेह भंते !' सीहकेसरे दट्टण पडिसीयलिहूया से दिट्ठी । पूरियं 20 भायणं । भणइ - 'आणेमि अन्ने वि गेण्हेसु' त्ति । साहुणा भणियं- 'पज्जत्तमेत्तिएहिं । सावगेण चिंतियं - साहावियं वयणं, ता किं मन्ने कारणिगो एत्तियवेलाए पविट्ठो, उयाहु संपयं चित्तं सट्ठाणमागयमेयस्स-चिंतिऊण भणइ - 'इच्छाकारेण न मे पञ्चक्खायमासि, ता पञ्चक्खावेह पुरिमड्ढे' ति, भणिए संजायचेयणो साहू उवउत्तो कालं पेच्छइ । रयणीए तारयगणसंपरिवुडं पुण्णिमाचंदं अडरतं च वट्टइ । __आगयसंवेगेण भणियं खमगेण- 'इच्छामो अणुसहि सम्मं अणुसासिओ ति । ते मोयगे अकप्पिए 25 राइभत्तं ति । तस्सेव पुरोहडे परिट्ठवेंतस्स सुहज्झवसायस्स समुप्पण्णं केवलनाणं । कया अहासण्णिहिय देवेहिं केवलिमहिमा । उववूहिओ सागरसावगो देवेहिं - 'धन्नो सि! तुम, जेण एस महप्पा विसमअवत्यंतरं पत्तो तुमे उद्धरिओ। एत्तो च्चिय तं धन्नो एत्तो च्चिय तुज्झ मोयगा सहला । एत्तो चिय जिणधम्मो सुविसुद्धा परिणई तुज्झ॥ एत्तो चिय तुह चरियं चित्तचमुकं करेइ देवाणं । एत्तो चिय सलहिज्जसि अम्हेहिं तुमं महासत्त ! ॥ ____30 एतो चिय जइरूवं दुमपुवं भएज भत्तीए । तह किंचि नायदोसं पि भएज्जाणुग्गहट्ठाए ॥ जह ता अणुकूलेणं आरद्धो भयइ कं पि गुणलेसं । ता तं अप्पाणं चिय दुन्नि वि उत्तारए सलो ॥ 1A नास्ति पदमिदम् । 2B नास्ति 'वि'। 3 Bअणागहेह। 4Aकिंपि। Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या ] साधुदानफलविषयक-सुभद्राकथानकम् । जइ वि हु अजोगयाए संपत्तो नेय तस्स गुणलेसो । तह वि परिणामसुद्धी तस्स गुणं देइ अविगप्पं ॥ जं खलु अविहिपवत्तो जिणसासणमइलणंमि उज्जुत्तो । तं ठावेंतेण गुणो सासणवण्णो कओ होइ ।। गुणहीणो अणुकूलेणाढत्तो' जइ गुणं न संभयइ । तो मुच्चइ इहरा सो थिरीकओ होज पावंमि ॥ एवं भणिऊण गया देवा । साहू वि उप्पण्णणाणो गओ नियसूरिसगासे । चोइओ कहेइ सव्वं वुत्तंतं । 'अहो भवियव्वयाए विलसियं' ति भणिऊण सव्वे वंदंति नमसंति ति ॥ एवं अण्णेण वि । अणुकूलेण साहुजणगुणाहाणकरणे जइयव्वं ति ॥ व रस हो त्ति गयं ॥ ॥ इति वरश्राद्धकथानकम् ॥ २१॥ न केवलं दानद्वारेण जिनशासनग्लानिरक्षा कार्या, किं तु यथा तथा जिनशासनापराधगृहनेन तदुनतिकरणे यत्नः कार्य इत्युपदिशन्निदमाह जिणसासणावराहं गृहेउं सासणुण्णई कुज्जा । नायाइं इह सुभद्दा मणोरमा सेणिओ दत्तो ॥ १७ ॥ व्याख्या- 'जिनशासनापराधं गृहयित्वा' प्रच्छाद्य, 'शासनोन्नतिं कुर्यात' । 'ज्ञातानि'उदाहरणानि, 'अत्र सुभद्रा मनोरमा श्रेणिको दत्तः । भावार्थः कथानकेभ्यो ज्ञेयः । तत्र सुभद्राकथानकं कथ्यते ०२२. सुभद्राकथानकम् ।चंपाए नयरीए धणो सत्थवाहो, सुलसा से मारिया । ताणि य सावयाणि भावियजिणवयणसाराणि । ताण य चउण्ह पुत्ताणमुवरि जाया दारिया । पुतजम्मेव कयं वद्धावणयं । अइक्कंते बारसाहे कयं तीसे नामं सुभद्द त्ति । कमेण जाया अट्ठवारिसिया । आणिया सगिहे उवज्झाइया । समप्पिया तीसे सुभदा । गहियाओ इत्थीजणजोग्गाओ कलाओ । नीया पवित्तिणिसमीवे । सुओ जिणदेसिओ धम्मो । जाया तत्थ अईव पत्तहा । पडिवन्नं सम्मत्तं । गहियाणि अणुव्वयाणि । कमेण पत्ता जोवणं । ॥ अवि य-गयं हाणिं जढरं, पाविया उन्नई सिहिणा, पडिवन्नं तरलत्तं लोयणेहिं, पवित्थरियं नियंबं, खलइ भारती, पडिवन्नं लायन्नं कवोलेहिं । तओ पिया चिंतेइ - एसा वरजोग्गा । एयाणुरूवो य वरो न उवलद्धो ता किमेत्य कीरउ । इओ य तत्थेव नयरीए सुदंसणो इब्भो तच्चण्णियसमणोवासगो, धणसिरी से भारिया । ताणं पुत्तो सागरदत्तो नामं । अन्नया तेण सुभद्दा चेडियाचक्कवालपरियरिया कंचुइज्जपरिखित्ता चेइयभवणाइसु 25 परिसकंता दिट्ठा । अज्झोववन्नो तीए रूवदंसणेण । पुच्छियाणेण दासचेडी- 'का एसा ? । भनियमगाए- 'तुमं कत्थ वससि ?' । भणियमणेण- 'इहेव चंपाए' । 'ता तिहुयणविक्खायं कहमेयं पुच्छसि । तओ तेण दिनो तीसे तंबोलो, गहिया बाहाए भणिया य-'कस्स धूया एसा ? । भणियं चेडियाए- 'एसा धणदत्तसस्थवाहधूया, सुलसाए अत्तिया, सुभदा नाम कण्णगा' । गओ सो नियगेहे । ठिओ 'छिक्कडमंचए । तत्थ पुलिणपडिओ इव मच्छओ तिल्लोवेल्लिं कुणंतो पुट्ठो जणगेण-पुत्त ! " __ + B C आदर्श 'जं सो यविहिपउत्तो हविज जिणसासणंमि उजुत्तो।' एतादृशोऽयं गाथार्द्धः। 1 B C'हीणो वि हु अणुकूलं आढत्तो'। 2 A छिडमंचए। 3 B तल्लु विल्लियं । Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ श्रीजिनेश्वरसूरिकृत-कथाकोशप्रकरणे [१७ गाथा किमयं ?' । सो भणइ- 'न जाणामि । अरई सव्वसरीरे वट्टइ' । समाहूओ वेज्जो दंसिओ तस्स । भणियं वेज्जेण- 'नत्थि कोइ आयंको । परं जइ माणसिओ हवेज्जा' । भणियं पिउणा-- 'पुत्त ! साहसु निययाभिप्पायं' । तओ वामयाए मयणस्स भणइ - 'न किंचि जाणामि' । समाहूओ से बालवयंसो वसुणंदणो नाम; पुट्ठो- 'जाणसि सागरदत्तस्स चित्तखेयकारणं ?' । भणियमणेण - 'जाणामि किंचि' । । भणियं सेट्ठिणा- 'ता साहसु' । भणियं वसुनंदणेण - सवियारं पेक्खंतो धणधूयं अणमिसाए दिट्ठीए । अवराहि त्ति खलेणं विद्धो मयरद्धएणेस । ता सेट्टि ! तीऍ करफंसओसहं जइ परं गुणं करइ । अण्णं च मूलजालं निरस्थयं एत्थ मन्नामि ॥ हसिऊण भणियं से पिउणा- 'सुलभमम्हाणमेयमोसहं । ता उद्धेहि पुत्त ! भोयणं कुणसु । अकाल• • 10 हीणं संपाडेमि । न अद्धिई कायव्वा' । तओ एवं पिउणा आसासिओ उढिओ सागरदत्तो । कयं भोय णाइयं । सुदंसणेणावि पेसिया वरगा सुभदाए धणसत्थवाहपासे । गया ते तत्थ । दिट्ठो सत्थवाहो । तेण वि दाइयाइं आसणाई । भणियं धणेण - 'कुओ तुब्भे ?, किं वा पओयणमागमणस्स ?' । भणियमेतेहिं- 'अम्हे एत्थेव नयरीए वत्थव्वा । सुदंसणसेट्ठिणा तुम्ह समीवे पेसिया' । भणियं सत्थवाहेण'भणह पओयणं' । भणियमेतेहिं - 10 सेट्ठी नियपरिसाए निचं गुणकित्तणं तुह करेइ । धणसत्थाहो' धन्नो चाई भोई कयन्नू य ॥ दक्खो कलावियड्ढो पियंवदो देसकालभावन्नू । धीरो दढव्वओ धम्मिओ य तह परहिए निरओ ॥ गोत्ते गग्गरए वा सुसुरकुले वा न होइ सो अम्ह । तो कह तस्स घरम्मी गम्मइ सह भुजइ वावि ।। किं जीविएण अम्हं तेण समं जं न सुह-दुहवियारो । ता केण उवाएणं तेण समं सोहियं होज्जा ॥ ___ तओ सत्थवाह ! अम्हेहिं भणियं - ५० मा सेट्टि ! कुण विसायं सागरदत्तो तुहत्थि जो पुत्तो । रूवेण कामदेवो बुद्धीऍ बिहप्फई तुल्लो ।। चाएण बली सच्चेणं पंडवो धणुकलाए दोणो व्व । जीवदयाए सुगओ खीरोयनिहि व्व गंभीरो ।। सयलकलापत्तठ्ठो रमणीमणमोहणो रईसुहओ। नियकुलअकलंकससी पुत्तो ते तिहुयणपवित्तो । तस्स य धूयारयणं अधरियरइविब्भमं जयच्छेरं । ताण विवाहनिमित्तो होही तुह तेण सह पीई ॥ ततो सत्थाह ! अम्ह सेट्टिणा भणियं- 'सुट्ठ भे! बुद्धी सुट्ठ । ता जाह, पत्थेह तं दारियं, जेण 25 सत्थाहेण समं अम्हाण सोहियं भवइ । ता सस्थाह तुब्भे जाणह च्चिय कन्ना ताव न सगिहे उवजुज्जइ । किं तु अगोत्तस्स कस्सइ दायव्वा । न य ईसरधूयाओ दारिदियगेहेसु वरिजंति, किं तु ईसरगिहेसु । ईसरपुत्ताण वि न काण-खुज्जाइयाणं, न य जूयमज्जदासिपसंगीणं; किं तु नय-विनयसंजुत्ताणं कलाकुलहराणं दक्खिन्नाइधणाणं परोवयारनिरयाणं । एवंविहो य सो सेट्ठिपुत्तो । ता जइ जाणह जुत्तमेयं सेट्ठिणावि सह सोहियं कंखंतेण तमणुपालियं होज्जा । ता दिजउ सुभद्दा सागरदत्तस्स' । भणियं धणेणं- 'सच्चमेयं ३० जं तुब्मेहिं भासियं, किं तु जहा इहलोए निव्वाहट्ठाणं पिया चिंतेइ, तहा परलोए वि निव्वाहट्ठाणं चिंतणीयं । न य परलोए निव्वाहो धम्मं विणा । न य जिणमयं मोत्तुमण्णत्थ अहिंसाइलक्खणो निरुवमचरिओ धम्मो लब्भइ । सो य तुम्ह सेट्ठी सुगयमयभाविओ महामिच्छद्दिट्ठी । ता किं तेण सह सोहि_1 A सत्थवाहो। 2 B C निहस्सइ। 3 BC 'संपत्तं गुणरयणनिवहस्स' एतादृशः पाठः। 4 A जमत्थि रइ। Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 व्याख्या] साधुदामफलविषयक-सुभद्राकथामकम् । एण कजं विभिन्नधम्मेण । लच्छी वि से जरियमजियापाणतुल्ला' महाणत्थफला । कि तीए । ता सावगस्स जिणमयभावियस्स मए नियधूया दायव्वा । किं न सुयं मे ! जं सावगेहिं पढिज्जइ - सावयघरंमि वर होज चेडओ नाण-दंसणसमग्गो। मिच्छत्तमोहियमई मा राया चकवट्टी वि ॥ ता गच्छह साहेह जहा- 'सावगस्सेव सो नियधूयं देइ, न अन्नस्स' । गया ते, सिट्ठो सव्ववुत्तंतो।। तओ रुट्ठो सुदंसणसेट्ठी धणस्स । सागरदत्तो पुण कवडेणं साहुमूले वच्चइ । जाओ कवडसावगो । साहूणं देइ वत्थ-पत्ताई । धणो वि पेच्छइ तं आगच्छंतं जिणहरे साहुवसहीए य । एवं वच्चंति वासरा । अन्नया भवियव्वयावसेणं विगलिओ मोहगंठी उप्पाडियं सम्मत्तं । तेणं चिय भणियं पुव्वसूरीहिं संसग्गीए दोसो गुणो य जीवाण जायइ अवस्सं । वज्जित्तु कुसंसग्गि भएज सइ साहुसंसग्गि। तओ भणिओ सब्भावो सागरदत्तेण, जहा- 'भयवं! अहं पुविं कवडेण सावगो आसि सुभद्दादारियाकए । संपयं पुण पणट्ठो मे मोहपिसाओ, पाउब्भूयं सिवतरुबीयभूयं सम्मत्तं; ता देह मे संपयं सम्मतमूलं दुवालसविहं सावगधम्म' । दिन्नो साइहिं से सावगधम्मो । जाओ सावगो । पुच्छिया साहुणो धणेण - 'किमेस सावगो, उयाहु कावडिओ ?' । सिट्ठो साहूहिं से वुत्तंतो। निच्छयओ पुण न नजइ छउमत्थेहिं कस्स को भावो । अण्णया सागरदत्तो भणिओ धणेण - ‘भद्द ! किमेयं । भणियं सागरदत्तेण-15 'किं तं पुच्छइ सत्थवाहो' । भणियमणेण- 'तुब्भे तचण्णियसमणोवासगा, ता किह सावगत्तणं पत्ता' । भणियं सागरदत्तेण - 'सत्थाह ! किन्न सुयं पल्लयगिरिसिरिउवला पिवीलिया पुरिसपहजरग्गहिया । कोद्दवजलवत्थाणि य सामाइयलाभदिदंता ॥ सच्चं सत्थाह ! आसि अम्ह एसो अहिनिवेसो, जं सुगयमग्गं मोतूण न अन्नो मोक्खसाहणोवाओ' । 20 तुट्ठो धणो, गओ सगिहे । उवविट्ठो आसणे । निसन्ना से समीवे सुभद्दा । वाहरिओ सागरदत्तो सगिहे। आगओ सो । दावियमासणं । निसन्नो तत्थ । कया उचियपडिवत्ती धणेण । सुभद्दा वि सागरदत्तं दलूण आबद्धसेया रोमंचकंचुइयतणू जाया । पिउणो दिहिं रक्खंती अद्धच्छिपेच्छिएहिं सवंगं निरूविउमाढत्ता । नायं सत्थाहेण । अस्थि सुभद्दाए इममि अणुरागो । भणियं सत्थाहेण - 'पुत्त सागरदत्त ! तुह पिउणा सुभद्दानिमित्तं तुह कए वरगा पेसिया आसि । जाइया तेहिं, मिच्छदिहि ति मए न दिन्ना । 23 संपयं तुमं साहम्मिओ ति जोग्गो, किं तु तुह पियरो धम्मविग्धकारया भविस्सति । ता तुमं मम गेहे अच्छसु त्ति; परिणेसु सुभदं । भणियं सागरदत्तेण- 'सत्थाह ! न जुत्तमेयं कुलप्पसूयाणं जं ससुरकुलनिवासो ति । किं तु परिणीया पुढो पासाए ठावइस्सामि । सस्थाह ! एसा मम परमोवगारिणी; जओ एईए कए मए कवडसावगत्तणमन्भुवगयं, अब्भासकिरियाए खओवसममुवगयं मिच्छत्तमोहणीयं, जायं सम्मचं, परित्तीको संसारो । ता भजतणं विणा वि मम सम्माणट्ठाणमेसा । कहं पुण घरिणीसद्दमुन्व- ३॥ हंती अवमाणट्ठाणं भविस्सइ' । भणियं धणेण- 'ता वच्चसु, पिउणो संतिया वरगा पेसेसु' । गओ सो सगिहे । भणिओ पिया - 'सुभदाए वरए पेसेहि' । भणियं पिउणा- 'पेसिया, किं पुण न मन्नइ सो' । भणियं सागरदत्तेण- 'पुणो पेसिज्जंतु, को दोसो' । पेसिया दिन्ना तेण । कमेण परिणीया सुभद्दा महा__ 1 A जरियमामच्छियणपाण। 2 B वरि । क. १३ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनेश्वरसूरिकृत-कथाकोशप्रकरणे [१७ गाथा विभूईए । ठिया कइ वि दिणाणि सासुमज्झे । तओ ठाविया पुढो पासाए । पओसमावण्णाओ सासु-नणंदाओ। अण्णया भिक्खूहिं भणिओ सुदंसणो- 'सागरदत्तं कीस न आणेसि अम्ह सगासे ?' । भणियं सुदंससणेण - 'अजोग्गो सो तुम्ह पायाणं । सो भज्जाए कम्मणकारियाए विनडिओ; जहा अम्हेहिं न किंचि •वि सिद्धं तहा भयवं! तुन्भेहिं वि किंचि न सिज्झइ !, कीस न पण्णवेह ?' । भिक्खू भणंति-'किह तत्य ठियं पण्णवेमो ?, जइ एत्तियं भूमिमाणेह ता पेच्छह जं करेमो' । भणिओ सागरदत्तो पियरेहि'पुत्त ! भदंतरविगुत्तपाया भणंति - परिणीयएण वि न वंदिया अम्हे । ता गच्छ, वंदसु ताव एकवारा' । गुरुनिम्गहेणं ति मुक्को आगारो, ता न सम्मत्ताइयारो भविस्सइ; एए वि मण्णिया होति त्ति चिंतिऊण गओ सागरदत्तो सह पियरेहिं । वंदिया भिक्खुणो । तेहिं वि अभिमंतियं दिन्नं से बीजपूरयं । 10 पडिच्छियं तेण । तक्खणा चेव विपरिणओ सो जिणधम्माओ । आमंतिया भिक्खुणो तेणं- 'अज मम गेहे भोत्तवं । मण्णियं भिक्खूहिं । गओ सो सगिहं । सुभदं भणइ - 'सिग्धं भिक्खूण भत्तं सजेहि । चिंतियमणाए- 'हा! किमेयं ?' तहा वि न पडिकूलियं तस्स वयणं । समाढत्ताओ कम्मकरीओ । सजिजइ भत्तं । सुभद्दा गया सूरिसमीवे । वंदिओ पउमप्पहसूरी । साहिओ वुत्तंतो- 'ता किं पि भयवं करेह पडिजोगं । अण्णहा संसारे पडिही मिच्छत्तमोहिओ भट्ठसम्मदंसणो' । भणियं सूरीहिं- 'धम्म15 सीले ! समप्पेहि पूगफलाणि' । समप्पियाणि तीए । तओ सूरिणा अभिमंतिऊग समप्पियाणि तीए । भणियं च- 'तंबोलेण समं पयच्छेज्जासि । नासिस्सइ खुद्दविजापहावो । भविस्सइ सब्भाविओ । न अद्धिई कायव्वा' । गया सुभद्दा सगिहं । समप्पियाणि तंबोलेण सह पूगफलाणि । मुहे पक्खितमेत्तेहिं जाओ सब्भाविओ । भणइ - 'अज्ज किमेस एदहो समारंभो ?' । भणइ सुभद्दा- 'भिक्खूणं तुमे भत्तं सज्जावियं । तेण एदहारंभो' । भणियं सागरदत्तेण - 'किमहं मिच्छदिट्ठीण भोयणं पयच्छिस्सं ? । कीस 2. तुमे न चोइओऽहं ?' । सा भणइ - 'किह तुम्ह वयणं पडिकूलेमि' । 'सोहणं कयं, साहुणो वाहरामि । तेसिं अकयं अकारियं फासुयमेसणीयं उवजुजिही' । गओ साहुसमीवे - 'अज मम गिहे धम्मलाहो दायव्वो । तओ अण्णगेहेसु गंतव्वं भिक्खानिमित्तं' । समागया साहू । फासुयमेसणीयं ति दिन्नं सव्वं । तह च्चिय ठिया भिक्खुणो । तओ गाढतरं पओसमावण्णाओ से भइणि-जणणीओ सुभद्दाए सागरदत्तस्स पुरओ दूसणसयाई घोसेंति । एसा कम्मणकारिया समणपडिलेहिय त्ति । सा य परमसाविया । तस्स गेहे 25 साहुणो ओसह मेसज्जाइकज्जेण समागच्छंति । सा वि परमभत्तीए संविभाएइ पवरभत्त-पाणोसह-भेस जाईहिं । सागरदत्तो पुण सासु-नणंदाणं सहावमवगच्छंतो न विपरिणमइ सुभद्दाए उवरिं । ताओ वि साहुजणं निच्चं तग्गिहे समागच्छंतं दट्टण सुट्ठयरं छोभगवयाई घोसेंति । सुभद्दा पुण तासिं उत्तरं न देइ । एवं वच्चइ कालो। __ अण्णया सो जणणि-जणय-भइणिसमीवे अच्छइ । इओ य अप्पडिकम्मसरीरो मलमलिणो लोयविर" लुत्तिमंगों पंतोवही वायाहयरेणुणा पडिएण वहंतच्छी पविट्ठो ताण गेहे साहू भिक्खट्ठा । भणिओ धणसिरीए –'नियसावियागेहे एत्थ गच्छसु' । गओ सुभद्दागिहे । वंदिय भत्तीए पडिलाभितो तीए । अच्छि गलंतं दट्टण भणियमणाए - 'भयवं ! उम्मिसियं अच्छि खणं धरेह, जेण अवणेमि कणुगं' । साहू नेच्छइ परिकम्म, विसेसओ इत्थियाए कीरंतं । सुभदाए भणियं - 'भंते ! इरियं सोहेउं अच्छिम्मि __-1 एतद्विदण्डान्तर्गतपाठस्थाने B आदर्श 'ठिया पुढो पासाए' इत्येव पाठो लभ्यते। 1 A छोभगयाइं; C छोभगसयाई। 2 B लोयविरुलोत्तिमंगो। 3 BC कणगं । Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या ] साधुदामफलविषयक सुभद्राकथानकम् । जत्तो कायन्वो । अन्नत्य निप्पडिकम्मा होह' । साहू भणइ - 'साविए ! न तहा वि इस्थिसंघट्टो जुत्तो' । तीए भतिचोइयाए अलियं भणियं- 'भंते ! तहा काहं जहा मे वयबाहान होइ' । धरियमुम्मिसियं नयणं साहुणा । तीए वि कयकरणाए झत्ति जीहाए अवणीओ कणुगो अच्छीओ । लग्गं निडाले निडालं । भणियं साहुणा - 'मिच्छामि दुक्कडं, इत्थिसंघट्टो जाओ' । एयं पुण न नायं जहा मे निडालतिलगो संकेतो त्ति । नीहरिओ सो तत्तो । भणियं सागरदत्तस्स जणणीए - 'पुत्त ! न पत्तिजंतो। तुमं नियभगिणीणं । संपयं पेच्छ, साहुणो निडाले तिलयं संकंतं । कहमेयस्स अण्णहा संभवो, जह एसो न एएहिं सह अच्छई' । तओ अचिंतियगुणदोसं, अवियारिऊण अणासंकणीयत्तं निप्पडिकम्म. सरीरसाणं, अन्नया वि न उक्कडइस्थिवेया सुभद्द त्ति अविभाविऊण, एसो झत्ति निग्गओ न इतिओ रयावसाणकालो त्ति अकाऊण हियए, सुभद्दा निंदइ विसयपसंगं, पसंसइ बंभयारिणो अण्णया वि कहमेवंविहं मए निच्चमुवभुजंती करेइ ति अकलिऊण, भवियव्वयावसेण विपरिणओ सागरदत्तो जाओ। मंदाणुरागो । कोवारुणदिट्ठीए निरिक्खइ । सासुयमुल्लवइ । न मुंजइ तीए हत्थेणं । तओ सुभदा ठिया रयणीए देवयाए काउस्सग्गेण । जइ काइ पवयणदेवया करेइ परियारं ता पारेमि, अन्नहा नो त्ति । खणंतराओ पयडीहूया देवया । भणइ - 'साविए ! पारेहि काउस्सग्गं । भणसु जं करेमि' । काउस्सम्गं पारिऊण भणियं सुभद्दाए- 'भयवइ ! जम्मंतरोवज्जियअसुहकम्मवसगाणं अयसागमे नस्थि चोज, सम्ममहियासियव्वं अवस्सकयं कम्मं वेयणिज्ज ति वियाणंतेहिं । किं तु मम । पञ्चयं पषयणमालिण्णं समागयं । ता पक्खालेसु एयं अयसकलंक' ति । भणियं देवयाए - 'पभाए नयरिदुवाराई पिहिस्सामि । आगासे घोसइस्सामि समाउलीभूए लोए-जहा जा अखंडियसीला पइवई सा चालणियाकएण मीरेण कवाडाइं आच्छोडे उं, जेण उग्घडंति । तओ तुमं उग्घाडेज्जासु सव्वनयरिमहिलाणं पच्छा, अण्णासिं न उग्घडंति, तुह उग्घडिस्संति ममाणुभावाओ' । बहु मण्णियं सुभद्दाए । जाब जाए पभाए न उग्घडंति नयरिदाराई । जाओ नयरिखोभो । उल्लवियं देवयाए आगासट्ठियाए जहा-" जा महासई सा चालणिछूढउदएण अब्भुक्खेउ', जेण उग्घडंति दुवाराइं । तओ खत्तिय-बंभणवाणियग-इब्भसत्थाहधूयाओ सुहाओ य नियसीलगवियाओ परिहियसियवसणाओ सियचंदणचच्चियाओ सियकुसुमसोहियाओ मंगलसएहिं करतेहिं चलियाओ दारउग्घाडणनिमित्तं । अवि य सियवण्णयलित्ताओ सियसुद्धनियंसणाओ बहुगाओ । सोत्तिय-बंभणधूयाओ पत्थिया गव्यजुत्ताओ॥ जाव च्छूटं न ठाइ उदगं चालणिमझमि ताहिं तो । भणियं पुरिदार सण्णिहाणे उदगं पत्तिस्सं ॥ 25 तत्थ वि न ठाइ उदगं कतो अच्छोडणं कवाडाणं । उभयकुललुत्तछाया सविलक्खा आगया गेहं ॥ तओसीलंमि गवियाओ खत्तियधूयाओ सुइसमायारा । संपट्ठिया अणेगा पुरदारुग्घाडणनिमित्तं ॥ जणणि-जणएहिं भणिया कीस न तुण्हिक्किया घरे ठाह । जो नवि जाणइ तस्स वि दुटुं सीलं ति किं वयह ॥ भणियमणेहिं मा मा भायह पियरो अवस्स काहामो । तुम्ह वयणारविंदं सुनिम्मलं किं वियप्पेहिं ।। 30 व्हाया चंदणलित्ता सियनिम्मलवसणपुप्फजुत्ताओ । चालणिउदरे उदगं खिवंति तं नीइ सहस त्ति ॥ तओ वारिज्जंतीओ गुरुजणेणं तत्थेव गयाओ जलं पक्खिविय झत्ति कवाडाइं अच्छोडेस्सामो ति 1 A भे आबाहा। 2 A अच्छोडेउ। 3 B पुरदारस्स। 4 B संठिया। 5 B वियप्पेह । Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनेश्वरसूरिकृत-कथाकोशप्रकरणे [ १७ गाथा जाव, ताओ विलक्खाओ नियत्ताओ । एवं सस्थाह-इब्भ-पुरनायगधूयाओ सुहाओ य विगुत्ताओ। न उग्घडंति दाराइं । नत्थि का वि सइ ति राया वि अदन्नो। ___ एत्यंतरे सुभदाए भणियाओ सासु-नणंदाइयाओ-'तुम्हेहिं अणुण्णाया' अहं वच्चामि दारुग्घाडणनिमित्तं' । भणियं सव्वाहि वि- 'अण्णाहिं महासई हिं न उग्घाडियाई दाराई, तुम अप्पणं न याणसि । समणपडिलेहिए खुड्डखडहडिए? तुहिक्का अच्छसु' । भणियं सुभद्दाए - 'एयस्स वि तुम्ह वयणस्स एसेव परिक्खा । कीस मुहा फरुसं वयह' । हाया कयविभूसा पउणी भूया चालणि गहाय । वाहरिया तूरिया । मिलिओ से सयणवग्गो । पच्चक्खं सयलससुरवग्गस्स पुरलोयस्स य भणियं सुभद्दाए - 'जइ मए नियभत्तारं सागरदत्तं मोत्तूण अन्नो पुरिसो मणसा वि कामिओ, ता जहा अण्णासिं तहा ममावि चालणीए मा उदगं चिट्ठउ; अह पईवया एगपत्ती अहं, ता चालणीए उदयं ठाउ' त्ति नमोकारं भणिऊण खित्तं उदगं चालणीए, जाव बिंदू वि न गलइ । समुक्खित्ता चालणी । समाहयं तूरं । विम्हिओ सयललोगो । समागओ राया । सुवीसत्था संपट्ठिया नगरदुवाराभिमुही । तओ पुव्वदुवारदेसं पाविऊण भणियं सुभद्दाए- 'मणेणं वायाए कारण य जइ मम सीलं कलंकियं ता मा उग्घडंतु; जइ पुण अकलंका ता उग्घडंतु झत्ति' - नमो अरहंताणं ति भणेचा अच्छोडियाई चालणियाजलेणं कवाडाई, विहडियाई कुंचारवं करेमाणाई । उच्छलिओ साहुवादो । 'जयइ जिणसासणं' ति जाओ जणप्पवाओ । एसा ॥ एका सीलवइ ति पसंसिया राइणो । तओ अंगुलिसहस्सेहिं दाइज्जमाणा, नयणसहस्सेहिं पेच्छिज्जमाणा, वयणसहस्सेहिं थुव्वमाणा, पुरत्थिमं दुवारं उग्घाडिय पत्ता दाहिणदुवारे । तं पि तहेव उग्घाडियं । एवं पच्छिमदुवारं पि । ताहे पत्ता उत्तरिल्लं दुवारं । जलं घेत्तूण भणइ- 'जा मम सरिसा सीलेण तीए हत्थेण उग्धडेजा, मा अन्नाए । अञ्ज वि ढक्कियं तं सुव्वइ । तओ वढती हिययाणंदं सयणवग्गस्स, निम्मलं कुणंती मुहच्छायं जणणि-जणयाणं, मलिणयंती सासु-नणंदाणं वयणाई, पसंसिजंती गुणगा. - हिणा जणेण । 'साविगा एरिस'त्ति पभाविती जिणसासणं नायरनरनारीसहस्सेहिं अणुगम्ममाणा पत्ता नियनिकेयणं । हरिसिओ सागरदत्तो मिलिओ य । सहागयलोयाणं आसणतंबोलाइदाणपडिवर्ति करेइ । समाढतं वद्धावणयं । एइ नयरिलोगो पहाणकोसल्लिएण वद्धावगो । आगयाण कीरंति पडिवत्तीओ । तओ महाविभूईए गया चेइयालएसु । समाढताओ अट्ठाहियामहिमाओं । गया साहुसमीवे । वंदिया साहुणो । पसंसिया तेहिं । अवसरे भणिओ भत्ता- 'पेच्छ, तुमए वि अहं कलंकेण निजोजिया। केत्तियं एरिसं कहिजिही । धिरत्थु भोगाणं जाण कए असंभावणीयपए जोजियाहं । अवि य सम्भावनेहकलिया कण्णविसालिद्धमाणसा जीवा । अहिणवदढवेरा इव ववसंति न संगयं किं पि ॥ जाण कए गिहवासो दुहपासो वासओं व नरयस्स । भववासविरत्तेहिं वि सेविजइ ते वि कहं रिउणो॥ ता मुंच मुंच सामिय ! पव्वजं जा करेमि निरवजं । जम्हा न कोइ कस्सइ परमत्थेणं सुही अस्थि ॥ तओ लज्जाविणमंत वयणेण भणियं सागरदत्तेण - "ज भणसि पिए ! सवं तं सच्चं नस्थि एत्थ संदेहो । किं तु पियराणुरत्ता पहाणवंसुब्भवा होंति ॥ . आजम्मं पिअकारणखरतरवेरं तु दिव्वजोएण । सुहाए समं सुंदरि ! सासु-नणंदाणमवियप्पं ॥ लद्धो जिणिंदधम्मो दुलहो तुह कारणेण ससिवयणे! । सो वि अण्णेण मए विणासिओ साहुनिंदाए । 4 B अन्नयाए। 5 B विलिओ। 6 नास्ति A1 7A 1-2 नास्ति पदद्वयम् B1 3 B अप्पयं। कजिहि। 8 Boविणयमंत। Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०१ व्याख्या] साधुदानफलविषयक-मनोरमाकथानकम् । जणणि-भयणीण वयणं अभिक्खणं विसरिसं सुंणंतस्स । तुह विसए वि किसोयरि ! सहसा मह दूसियं चित्तं ।। ता ताण परिच्चाए मयच्छि ! पुरिसत्तणं कुओ लोए । ताहिं समं च निवासे कलुसिज्जइ माणसं किन्नो ।। एगतो किल वग्यो अण्णत्तो दुत्तडीओ घणसिहिणि ! । नाए वि हु जिणवयणे तुह कज्जे ठामि गिहवासे ।। जइ जीविएण कजं मज्झं इंदीवरच्छि ! निसुणेहि । नाऊण जगसरूवं सासुय-सुण्हाणमाजम्मं ॥ दुक्खेण वि गिहवासो वासिज्जउ मज्झ कारणे सुयणु!। पव्वज्जाए न अज्ज वि उच्छाहु दुजम्मजायस्स ॥ पढमं तुज्झ अवण्णं काऊण मयच्छि ! किं भणामित्थ । मह पाणदयं काउं निवसिज्जउ ताव' गिहवासे॥ सुह सीलमचिंतमिदं पञ्चक्खं जाणिऊण किं भणिही । रुट्ठो जणो अहं वा भइणी वा मज्झ जणणी वा ॥ ___ता सव्वहा विमालेसु केत्तियं पि कालं । तुह अच्छेरयभूयं सइत्तणं दट्ठण न को वि किं पि भणिही । अच्छसु ताव मुणिगणस्स दाणं देंती' । पडिवणं तं सुभदाए त्ति । अओ भण्णहजिणसासणावराहं गृहेउं पवयणुण्णयं कुज्जा, जहा सुभद्दाए कय ति । ॥सुभद्दाकहाणयं समत्तं ॥ २२॥ संपइ रमणोरम ति भन्नइ २३. मनोरमाकथानकम् ।बहुदिवसवण्णणिज्जा अस्थि सावत्थी नाम नयरी । तत्थ संखो राया, पउमसिरी से महादेवी । तत्य य निजियधणदो विहवेण विजियाणंगो रूपेणं वसू नाम सत्थाहो । तस्स य पुव्वसुकयतरुफल- 15 भूया मणोरमा नाम भारिया अईव रूववई । सावगाणि दोन्नि वि । चिइवंदण-आवस्सय-सज्झायपोसह-तवोवहाणेहि अप्पाणं भावमाणाणि सावगधम्म पालेति । भणइ जणो तीसे अच्छेरयभूयं रूवं पासिऊण – 'धन्नो वसू जस्स एरिसी भज्जा' । अवि य नर्से विहिणो बिंबं अन्ना भुवणे वि एरिसी जन्नों । एईए व लजंतो जाओ मयणो अणंगो त्ति ॥ सुया पउत्ती संखराइणा । चिंतियमणेण-कहं तमहं पेच्छेज्जा । अन्नया मयणतेरसीए समाणचा । मयणजत्ता । घोसावियं नयरीए जो मयणमहूसवे मयणहरे नागच्छेज्जा इत्थी वा पुरिसो वा तस्स सारीरो दंडो । ठिओ मयणदेउलदुवारदेसे राया । समागच्छइ जणो । पुच्छइ इत्थीयणं पविसंतं राया- 'का एसा !, का एस?' ति । जाव समागया मणोरमा । पुच्छियं रन्ना- 'का एस !' ति । भणियं पासवत्तिणा विदुरेण - 'वसुसत्थाहभारिया मणोरमा नाम' । तओ चिंतियं रत्ना'सचं जंपइ लोगो नत्थि अण्णा एरिस त्ति, ता कह मह होज भज्जा एस ति । जइ निरवरा-॥ हस्स वसुणो बला घेतूणमेयमंतेउरे खिवामि ता पयइविरागो होज्जा, विरत्तपरियणों न रजमायणं । सहसा छूढा वि अंतेउरे एसा जइ न मण्णेज्जा ता किं निरत्थयलोगविरागेणं, न य परोप्पराणुरायं विणा रई सुहावेह । ता उवयारेणारब्भइ । तओ एगा चरिया भणिया उवयारपुव्वमेगंते जहा- 'मणोरमं पउणी करेहि, जेण ते सुवण्णसयं देमि' । भणियमणाए- 'जं देवो आणवेइ' । तओ सुसंगयवयणणेवत्था गच्छइ मणोरमाए गेहं । मणोरमा वि नियगेवावारे परियणं निजुंजिय सयं सामाइयसज्झाया- " वस्सयचिइवंदणाइकरणवावडा सया होइ । न पुण तीए वयणावसरो अस्थि । तहा वि सा तदन्भासे उवविसइ । मणोरमा वि तीसे धम्मं कहेइ । अवि य 1 A ताण। 2 A जत्ता। 3 A. परियणो वि रायाणो। Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनेश्वरसूरिकृत-कथाकोशप्रकरणे [१७ गाथा अस्थि अणंता जीवा जेहिं न पत्तो तसत्तपरिणामो । उप्पजंति चयंति य पुणो वि तत्थैव तत्थेव ॥ तत्तो य केइ जीवा पत्तेयसरीरिणो य एगिंदी । होउं ठंति असंखं कालं तत्थेव जायंता ॥ तत्तो चिय' उबट्टा बिय-तिय-चउरिदिएसु जायंति । पुणरुत्तं तत्थेव य कालं संखेजयं वरया ॥ संपुणिदियजोगे असण्णिणो केइ तत्थ जायंति । सन्नी वि कह वि होउं पावरया जंति नरएसु ॥ । अस्सन्नी खलु पढमं दोच्चं च सिरीसिवा तइय पक्खी । सीहा जंति चउस्थिं उरगा पुण पंचमि पुढवि । छटिं च इत्थियाओ मच्छा मणुया य सत्तमि पुढविं । अइपावपसत्तमणा वयंति एयासु पुढवीसु ॥ लहुतरपावा अन्ने रयणाइसु जंति के वि हलुयतरा । तिरियमणुयाइएसु य वयंति नियकिरियसारिच्छं । कह कह वि माणुसत्तं सुकुलुप्पत्ती निरामयसरीरं । लण वि पावरया पडंति अइदारुणे नरए । तत्तो तिरिक्खजोणी सुर-नर-तिरिएसु हिंडिउं बहुसो । एगिदिएसु जंती कालमणंतं तहिं वसिउं ॥ ॥ विगलिंदिय-पंचेंदिय-असण्णि-सण्णीसु हिंडिउं बहुसो । देस-कुल-जाइसुद्धं मणुयत्तं कह वि पावेंति ॥ लद्भूण वि तं जीवा विसयामिसमोहिया भणंतीह । नस्थि किर कोइ जीवो न पुण्णपावं न परलोगो ॥ अन्ने उ मुद्धलोयस्स वेरिया पण्णवेंति दुवियड्डा । भूमि-हिरण्णपयाणं दियाण सगं समप्पेइ ॥ उक्तं च तैः- दक्षिणाया द्विजस्थानं राजा तद्दायको यतः। शूद्राधमे तु यदानं दातारं नरकं नयेत् ॥ परबाह-न मांसभक्षणे दोषो न मयेन च मैथुने । प्रवृत्तिरेषा भूतानां निवृत्तिस्तु महाफला ॥ अपरस्त्वाह - न स्त्री दुष्यति जारेण नाग्निर्दहनकर्मणा । ___ नापो मूत्र-पुरीषाभ्यां न विप्रो वेदकर्मणा ॥ इय सपरवेरियाणं दुवियड्डाणं वसं गया जीवा । संसारसायरमणोरपारमुवयंति कम्महया ॥ ७ दुलहं ता जिणवयणं संसारसमुद्दतरणबोहित्थं । तत्थ सया जइयवं संसारदुहाण भीएण ॥ एवं पइदियहमागच्छइ पव्वाइया । करेइ धम्मदेसणं मणोरमा तओ जाया कवडोवासिया । अल्लियह निच्चं तदंतिए । अण्णया कहंतरमेगंतं च नाऊण भणियं पवाइयाए चाई भोई सूरो रइबंधवियक्खणो य मियवेगो । पणइयणपूरियासो सव्वासु कलासु पत्तहो ।। न रमइ जा संखनिवं नवजोव्वणरूवगव्विया महिला । किं तीए जीविएणं रूवेण व जोव्वणेणं वा ।। 9 भणियं मणोरमाए – 'हा हा मुद्धे ! मुहा पलवसि, न जुत्तमेयं । कुच्छियचिलीणमलसंकडेसु अंगेसु रइसुहमणज । सासयमणिमित्तमणोवमं च मुद्धे सुहं भणियं ॥ तं पुण जिणिंदवयणा पवन्ननिरवजसुद्धचारित्ता । तत्थ सया जइयवं जइ अत्थसि अक्खयसोक्खे ॥ जिणवयणभावियाणं न होंति धम्मस्स विग्यकारीणी । एवंविहवयणाई तहा वि नो भासियव्वाइं॥ कीस न याणसि मुद्धे! तुमाए नियसीलदूसणं भणियं । रइगुणवियड्डिमा हंदि तस्स तुमए कहं नाया ।। जइ परदाररओ सो तुम पि एयारिसी सया णूणं । ता साविग त्ति केण उ सासणखिंसावहा मुद्धे ! ॥ ता अलमिमिणा वइवित्थरेण मा एज्ज अम्ह गेहंमि । सा वि सरोसं गंतुं भणइ निवं सा अजोग ति ॥ 4 A. अन्नो। 5A मिउवेगो। 6 B'जइ इच्छसि 1 B'चिय"नास्ति। ----2 B1 3 B को वि। सासयं सुक्खं। Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या साधुदानफलविषयक-मनोरमाकथानकम् । तओ विसनो राया उवायं चिंतह तप्पावणे । अण्णया समाहूओ राइणा वसू , सम्माणिओ आसणपडिवसीए । पूइओ वत्थाभरणतंबोलाइहिं । भणिओ य–'तुमे निच्चं रायकुले समागंतव्वं'। पडिस्सुयं वसुणा। गओ सगिह, तुट्ठो मणोरमाए पुरओ रायासंमाणवत्तं कहेइ । तओ भणियं मणोरमाए- 'न सुंदरमेयं; जओ एवंविहा जुवइ कवडोवासिया होउं एवं एवं च रायगुणा वन्नेइ । तओ मए सा सगिहे निसिद्धा। तो अकारणे पसाओ एस किं पि कवडं काऊण मम सीलभंग काही । अओ न किंचि रायसम्माणेण' ।। भणियं वसुणा- 'किं रन्नो नत्थि सुंदरतराओ महिलाओ, जेण एवं काही ? ता पिए ! मा भाहि' । भणियं मणोरमाए - 'अजउत्त ! न मए नियसोहग्गक्खावणथमेयमुल्लवियं । किं तु मा कवडोवासिया दुई रन्ना निउत्ता मन्ने । कहमन्नहा एवं वेहा उल्लावा तीसे? । एयं पि अकारणे पसायकरणं एवं फलमेव संभावेमि । ता न कजं रायकुलगमणेणं' । भणियं वसुणा - 'जइ रन्नो एस निच्छओ, ता किं अगयाणं पि छोट्टिक्कओ अस्थि । नवरं भवियव्वया पमाणं । किं तु दढव्वया होजासि' । तओ वाह- ।। रिजइ पइदियहं रायकुले वसू । पडिसेहेइ मणोरमा । नियगा पुण भणति- 'वच्चसु, रायसम्माणो पुन्नेहिं लगभइ । जाव ठाविओ वसू सव्वाहिगारेसु । सव्वत्थ अपडिहयगई । अंतेउराइसु न निसिज्झइ'। अन्नया पिंडवासिस्थिया वल्लहिया नाम रन्ना अंतेउरे छूढा । सा भणिया संखेण - 'वसुं खलियारिजासि' । पडिस्पुयमणाए । अण्णया भणिओ राइणा वसू- 'अंतेउरे एयं एयं च पओयणं सीलेहि । पडिस्सुयमणेण । तत्थगयस्स वियणे लग्गा सा तस्स । निच्छिया वसुणा । तओ पोक्करिउं वल्लहि- 15 याए । समागया कंचुइणो । गहिओ तेहिं । उवणीओ संखस्स । कवडकोवारुणच्छेण भणियं रन्ना- 'अरे! जह तुम मए सव्वट्ठाणेसु निउत्तो ता किं अंतेउरे चुक्कसि ?' । समाणतो वज्झो । निउत्ता गोहा हट्टय. रसारसंगोवणत्थं । गहिया मणोरमा । छूढा अंतेउरे। वज्झो नीणिओं वसू । काऊण सागारपञ्चक्खाणं ठिया काउस्सग्गेणं सासणदेवयाए मणोरमा । खणंतराओ पयडीहूओ देवो भणई' - 'भणसु साविए! किं करेमि ?' । भणियं मणोरमाए - 'मम सीलरक्खं वसुणो य पाणरक्खं करेहिं । एवं कए जिगसासणस्स पहावणा कया होई' । पडिस्सुयं देवेण । वसू नीओ वज्झभूमीए । उत्तारिओ रासहाओ । भणियं आरक्खिएण- 'सुदिटं कुणसु जीवलोयं । सुमराहि इट्ठदेवयं' । वसू पि पंच नमोक्कारं सुमरंतो समारोविओ तिक्खसूलाए । जाया सूला चामीयरमयसीहासणं । भीओ आरक्खिओ। निवेइयं रन्नो । सो वि. भीओ उल्लपडसाडगो समारूढो वारूयाए । गओ तत्थ तुरियतुरियं । दिट्ठो सीहासणोवविट्ठो । पायवडिओ भणइ – 'खमसु अवराहं । अहं लोयाण पत्तिण्णो, तत्तं न वीमंसियं ति । ता एह वचामो नय-28 रीए । पवेसिओ महाविभूईए । नीओ रायकुले । कयाई मंगरलाइं । भणियं रत्ना- 'को एस वइयरो ? कि मंतसत्ती धम्मसत्ती वा, जं सूला सीहासणं जायं?' ति । भणियं वसुणा- 'देव अहं पि सम्मं न याणामि' । तओ पञ्चक्खीहओ देवो भणइ- 'एयस्स भजाए कयकाउस्सग्गसामथसमागएण मए एयं कयं । ता महाराय ! जइ इत्थीमेत्तस्स वि एरिसो सीलरक्खाए ववसाओ, ता तुमं महापुरिसो होऊण कहं अत्तणो परस्स य सीलभंगे पयसि ? ति । महाभाग ! कहकह वि तुमे माणुसत्तणं पत्रं । तंमि वि पहाणकुल-जाइनिरुवहयपंचेंदियत्तणं पहाणभोगा य । तो परलोए वि जहा सुकयभायणं होहि तहा कायचं ति । न य जिणधम्माओ अन्नो उवाओ सुकयसाहणस्स । पेच्छ जिणधम्मपभावेणं इत्थीमेत्तेण वि आकंपिओ अहमागओ । जइ एवं तुमं वसुणो विणयपडिवत्तिं न करेंतो, तो न तुमं, न रज्जं, न रद्धं हवेज्जा । सवं निट्ठवियं होज्जा । ता कुण अप्पणो हियं जिणधम्मपडिवत्तीए' त्ति । एयावसरे संखस्स 1A नास्ति पदमिदम्। 2B नीओ। 3 'भणइ' नास्ति A1 4 B आरोविओ। 5 B कुणसु । Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 १०४ श्रीजिनेश्वरसूरिकृत-कथाकोशप्रकरणे [ १७ गाथा नो जिणसासणमाहप्पं पेच्छमाणस्स वियलिओ मोहगंठी, उप्पाडियं सम्मत्तं, जाओ सावगो संखराया । जाया सासणपभावणा । पडिवण्णा मणोरमा भगिणी । सक्कारिऊण पेसिया सगिहे । अओ भन्नइ - जहा 1 मणोरमाए वसुणो सावगस्स समारोवियाव राहगृहणेण कया सासणुण्णई, एवमन्त्रेण वि काय ति । ॥ समत्तं मणोरमा कहाणयं ॥ २३ ॥ २४. श्रेणिककथानकम् । मगहा जणवए रायगिहे नयरे सेणिओ राया जिणसासणाणुरतो अहेसि । इओ य सोहम्मे कप्पे हम्मा सभा सक्को अणेगदेवपरिवुडो चिट्ठर । सो य गुणाणुरागी सेणियस्स गुणगहणं करेइ, जहा - 'धन्नो सेणिओ राया, नो सक्का केणइ देवेण वा दाणवेण वा निम्गंथाओ पावयणाओ चालित्तए, 1. भणियमेगेण देवेण - 'एतो चिय पहुत्तणं सोहणं होइ । जं चिय पडिहासइ जुत्तमजुत्तं वा तं चिय उल्लविज्जइ । पासट्ठिएहिं सबेहिं' तं मन्नियवं । जो न मन्नइ सो गलए घेतूण निच्छुब्भइ । अन्नहा किमेत्थ सच्चं जं मणुयमेत्तं देवेहिं न खोभिज्जइ' । भणियं सक्केण - 'तुमं चिय सिग्घं खोभेहि' । देवो भइ - 'जेण संगमगं व ममं पि निच्छुभह' । भणइ सक्को - 'पसायारिहो भवं, जइ तं खोभेउं आगच्छसि । संगमयनायमनायं । जइ खोभेउं न सक्केइ ता किं पडिनिवेसेणं ता किं वहाय समुट्ठेइ । तुज्झवि 15 एसेव कमो । अचयंतस्स से खोमेउं पडिनिवेसेणं वहाय समुद्वेतस्स' । तओ समागओ देवो । सेणिओ वि रायवाडीए निम्गओ । देवो समणरूवेण दहमोयरित्ता जालेण मच्छए गेण्हइ । दिट्ठो से णिएण, भणिओ य - 'भद्दमुह ! किमेयं करेसि ?' । सो भणइ - 'पच्चक्खं पेक्खसि । किमेत्थ पुच्छियवं । जालेण मच्छए गेहामि' । सेणिएण भणियं - 'किमेयं कडीए बद्धं ?' । सो भणइ - 'रजोहरणं' । रन्ना भणियं - 'किमेतेण कज्जइ ?' । सो भणइ - 1 20 संपयं सेणिओ ति भण्णइ - 25 1 रत्ना भणियं - 'ता कीस मच्छए गेण्हसि ?" । सो भणइ - 'नाहं सयं भक्खणनिमित्तं गेण्हामि । किं तु हट्टे विक्कणिस्सामि' । भणियं रन्ना - ' किमत्थं ' । सो भणइ - 'मम कंबलो नत्थि' । भणियं रन्ना - 'किं तेण कज्जिही' । सो भणइ - 'वासे वासंते कारणेण आल्याउ निग्गमणे कंबलो पाउणिज्जइ । अन्नहा आउकायविराहणा । आउकायविराहणाए संजमविराहणा । एवं तेउक्काय-दुद्दिणवाउक्कायाइजीवरक्खा कीरइ । न य कंबलं विणा जीवदया काउं तीरइ' । ततो राया चिंतइ - धम्मसद्धिओ एस । किं तु मूढो वराको । भणियं रन्ना - 'मुंच मच्छए, गेव्ह कंबलयं । भद्दमुह ! धम्मसद्धियाणं गुरुकुलवासो जुत्तो । जम्हा अगीयत्थो धम्मबुद्धीए वि जं कुणइ तेणं चिय पचलं पावमज्जिणइ । जओ एर्गिदियविराहणार तसका विराहणा गुरुयरी । तुमं पुण एगिंदियरक्खणट्टा पंचेंदिए विराहेसि । जलफुसियारक्खगो कीस ॐ जलमवगाहसि ? । अओ अण्णाणविलसियमेयं । ता गच्छ तुमं गुरुसमीवे । न गुरुकुलवासं विणा संजमो होइ' । सो भणइ - 'सबालवुड्डाउले ' गच्छे एसणा ण निबहइ' । भणियं रन्ना - ' पणगाइ परि 1 B नास्ति । 2 A बुड्ढाउलं गच्छं । आयाणे निक्खेवे ठाणनिसीयणतुयट्टसंकोचे । पुर्विव पमजणट्ठा लिंगट्ठा चैव रयहरणं ॥ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या ] शासनोन्नतिकरणविषयक श्रेणिककथानकम् । १०५ हारेणं जयंताण गीयाण एसणिजमेव । 'एसणिजं अगीयस्स अणेसणिज । किं च, पिंडविसोही उत्तरगुणा, तुमं पुण मूलगुणाणं पि विणासे पयट्टो, ता गच्छ तुम गुरुसमी गुरुकुलवासे, न किंचि वियारेण' । चिंतियं देवेण - न संपयं खोहिओ; नियत्ततं खोभिस्सामि ।। ___ तओ नियत्तंतस्स सेणियस्स नगरे पविसंतस्स विउविया संजई गुरुहारा हट्टेसु कवड्डियाओ" मग्गंती। दट्टण चिंतियं सेणिएण- अहो भवियव्वयाविलसियनिउत्ता किं करेउ वराई, एद्दहकोडीगया वि 5 पेच्छ विलसियमिमीए । अहवा किं अप्पणो पन्जियम्मि को वि छारं पक्खिवेज्जा । चारित्तावारगकम्मविनडिया किं करेइ वराई । किह अम्हे जाणंता वि जिणवयणं आरंभपरिग्गहेसु वट्टामो । ता किं इमीए संभावियाए । एयं दट्ठण सबो वि सन्निहियजणो उड्डाहं करेजा । ता एवं संगोविय रक्खामि सासणमालिन्नं । पत्तो गेहे । वेसपरावत्तं काऊण गओ तीसे समीवे । भणइ - 'कीस चंदकरसन्निहं जिणसासणं नियदुच्चेट्ठियपंसुणा गुंडेसि ?' । सा भणइ- 'सुत्थिओ तुमं किं न पेच्छसि ? मम एयमवत्थं संपइ, 10 जाइयकवड्डियाहि मम पच्छाइणा निव्वाहो भविस्सई' । राया भणइ – 'किं मए निव्वाहगे अनिव्वूढते किंचि वि भविस्सइ । ता आगच्छ मम गेहे । सव्वमहं करिस्सामि' । नीया नियगेहे । ठाविया अजणसंचारपएसट्ठियपच्छन्नउव्वरए । दाविया परियच्छा पासेसु । निसिद्धो जणो तेणोगासेण संचरंतो । पच्छन्नं भत्तपाणाइणा उवचरइ सयमेव राया । मा देवीओ परियणो वा सासणदुगुंछ काऊण कम्मबंधभायणं भविस्सइ । अण्णदियहे भणियमणाए – 'मम सूलं कड्डई । ता आणेहि कं पि इत्थियं जा सूइकम्मे 15 पडुई। भणियं रन्ना- 'अहं चिय सूइकम्मे पडुओ, न य मम पुत्तट्ठाणीयस्स लज्जियवं । अन्ना जा काइ आगमिस्सइ सा उड्डाहं काही । तओ लोया सासणावन्नं काउं कम्मबंधभायणं भविस्संति । विसिट्ठाण य सासणे 'अप्पवित्ती कया भव्वा संसारे पडता उवेहिया होज्जा । तो अहं चिय निस्सल्ली करणं करेस्सामि' । पडिस्सुयमणाए । कयं सूइकम्मं रन्ना । मलं दुग्गंधं देवमायाए मुंचई। जाव जाओ दारओ, रोवइ । राया चिंतेइ - हा धी, करिस्सइ एस उड्डाहं । जइ कोइ एयं जाणिस्सइ । एयावसरे तुट्ठो देवो । 20 उवसंहरिया देवमाया । पयडीभूओ देवो । जाओ दिव्वुज्जोओ । मिलिओ लोगो । महाजणपच्चक्खं देवो भणिउमाढत्तो- 'धन्नो सि तुम सेणिय ! कयलक्खणो सि तुम, सुलद्धं ते जम्मजीवियफलं; तुह सक्केण पसंसा कया। तमसदहतेण मए सोहम्मकप्पवासिणा देवेण तुह खोहणत्थं सव्वमेयं मायाए कयं, न य तुमं मणयं पि खोहिओ। ता सक्को सच्चपइण्णो, अहं भग्गपइण्णो । भो भो लोका! एरिसा सम्मद्दिट्ठिणो भवंति । जे पुण मंदभग्गा दीहसंसरिणो ते अवरोप्परमच्छरेण साहु-सावगगयं धम्मावराहं थोवं पि वायावित्थरेण 25 लोए बहुं पयासेति । ते अदिट्ठधम्मा अविण्णायजिणवयणा स-परेसिं संसारवड्डगा न ते जिणाणं आणं आराहेति । अओ धन्नो एस सेणिओ राया, जो सक्कस्स थुइगोयरं पत्तो त्ति । ता भणसु किं ते पियं करेमि ?' । भणियं रन्ना- 'इहलोयकामभोगा पज्जतीए संति, ता किं जाएमि; पारत्तियं दाउं जइ अस्थि ते सत्ती ता जाएमि' । भणियं देवेण – 'न पुण्णपावा परकडा वेइज्जंति, किं तु पारत्तियं तुमे सयमेव विढत्तं, जं आगमिस्साए ओसप्पिणीए पढमतित्थयरो भविस्ससि । दिन्नो तुमए सव्वदुक्खाण जलंजली। 30 का सा संपया जा तित्थयरमावे न संपजिहि त्ति । तओ पडिबुद्धा बहवे लोगा । जाया सासणुण्णई । गओ देवो सट्टाणं । ॥ सेणियकहाणयं समत्तं ॥ २४ ॥ 1-2 नास्ति वाक्यमिदं B1 3-4 नास्ति पदद्वयं B] 5 B वट्टियाओ। 6 B निव्वूहगे। 7 B भलिस्सामि । 8B कज्जद। 9 B प्पवित्ती। क०१४ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनेश्वरसूरिकृत-कथाकोशप्रकरणे [१८ गाथा ___ संपयं दत्तो भन्नइ -> २५. दत्तकथानकम् ।भगवंते वीरनाहै' मोक्खं गए कालेण समुप्पण्णेसु बोडियनिण्हएसु पंचसयसिस्सपरिवारा संगमथेरा सूरिणो उज्जयविहारेण विहरंति । तेसिं दत्तो नाम आहिंडगो साहू । सो य कम्हि' पयोयणे सूरीहिं 5 गामंतरमेगागी पेसिओ । सो य वियालवेलाए पत्तो एगत्थ सन्निवेसे वसहिं मग्गइ । न लद्धा वसही । तो बोडियचेइयालए बोडियावसहो एसणिज्जो त्ति तत्थ पविट्ठो रयणिमइवाहेउं । दिट्ठो बोडियसावगेहिं । निकारणवेरिएहिं पच्छन्ना भाडि दाऊण पेसिया तत्थ गणिया तेहिं, एयाणं उड्डाहो होउ त्ति । दुवारं पिहित्ता तालयं दिन्नं । रयणीए जाममेत्ते गए गणिया उवसग्गं करेइ । दत्तो य निप्पकंपो महाभागो । आवजिया सा निप्पकंपयाए । उवसंता संती भणइ- 'अहं तुह खोहणत्थं दियंवरोवासएहिं 10 पेसिया भाडि दाऊण । सो भणइ अच्छसु, एगंते सुवाहि, तुह भाडीए कजं । दत्तेण य दई सव्वमुवगरणं रयहरणाइयं तीए चेव पुरओ विदित्तदीवयजलणेण । गहिया ताण संतिया जुन्ना मोरपिंछिया । सावगा दियंवरा य लोग मेलेता भणंति- 'एत्थ सेयवडओ सह गणियाए अच्छइ; पेच्छह भो लोगा! उग्घाडियं दारं सुरुग्गमे । दत्तो वि तीसे खंधे बाहुं निवेसिय निग्गंतुमारद्धो । दिट्ठो लोगेण – 'खवणगो एस, वेसाए सह एत्थ वसिओ निल्लज्जो । संपयं पि गलए विलग्गो नीई'। दत्तो भणइ- 'किं ममं 15 हसह एगं, अन्ने वि रत्तीए वेसाहिं सह वसंति खवणया' । तओ हसिया बोडियसावगा लोगेण- 'एरिसा तुम्ह गुरुणो! अहवा पयडभंडाणं एस च्चिय गई होइ । एत्तो च्चिय सेयंबरेहिं वत्थगहणं कयं । सो चिय पक्खो सव्वन्नुप्पणीओ न तुम्ह संतिओ' ति । इह च सुभद्रया आत्मदोषक्षालनेन साधुदोषापहारं कृत्वा शासनोन्नतिः कृता । मनोरमया स्वकीयभर्तृश्रावकदोषापहारद्वारेण, श्रेणिकेन तु केवलं साधु-संयतीदोषप्रच्छादनेन, दत्तेन तु आत्मनि समा20 रोपितदोषमध्यारोपकेष्वेव समारोप्य शासनोन्नतिः कृता । तेन भेदेन चत्वार्युदाहरणानि दर्शितानीति ॥ ॥ दत्तकथानकं समाप्तम् ॥ २५॥ व्याख्याता प्रस्तुतगाथा । विपर्यये दोषमाह - केइ पुण मंदभग्गा नियमइउप्पेक्खिए बहू दोसे । उब्भावेंति जईणं जय-देवड-दुद्ददिटुंता ॥ १८ ॥ * व्याख्या – 'केचन मन्दभाग्या' - प्रणष्टपुण्याः, 'निजमत्युत्प्रेक्षितान्' - स्वकीयबुद्धिविकल्पितान् , 'बहून्' - प्रचुरान् , 'दोषान्' भ्रष्टब्रह्मचर्यादीन् , 'उद्भावयन्ति' - प्रकाशयन्ति, 'यतीनां' - साधूनाम् । अत्रार्थे 'जय-देवड-दुद्दका' वक्ष्यमाणा 'दृष्टान्ता' इति । भावार्थः कथानकेभ्योऽवसेयः । तत्रादौ जयकथानकमुच्यते २६. जयदेवकथानकम् ।30 इहेव भारहे वासे साकेयं नाम नयरं । तत्थ जउ नाम राया । सो य तचण्णियभत्तो, तेसिं समए विणिच्छि यो भिक्खुमयमेव अट्ठो सेसो अणट्ठो ति भावियमई न साहुणो बहु मन्नइ, पञ्चुलं उवह 1 B वद्धमाणे। 2 A किम्हइ । Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या ] शासनोन्नतिकरणविषयक-जयदेवकथानकम् । १०७ सइ - 'सियवायमुव्वहंति साहुणो । तम्मि य लोगववहारो वि न सिज्झइ । माया वि अमाया, पिया वि अपिया, धम्मो वि अधम्मो, मोक्खो वि अमोक्खो, जीवो वि अजीवो । ता कहमेयं घडइ । एतो चिय कहमरिहंतो सव्वष्णू, एवं पण्णवेइ' - अत्थाणिआगओ एवं बहुहा उवहसइ । तत्थ य जयस्स रन्नो मंती समाणोवासगो सुबंधू नाम । तेण नियपक्खउवहसणम सहतेण दूमिजमाणमाणसेण तत्थागयसुचंदसूरीण सिट्टो वइयरो - 'एवं एवं च राया उल्लवइ' । भणियं सूरिणा - 'वच्छ ! वाडियाए जे तडुंति ते घरे घरे संति । जायखंधसुवितिक्खसिंगवसहपुरओ दुक्खं तड्डिज्जइ । ता न किंचि वि एएण' । पच्छन्नचरेण निवेइयं रन्नो । तेण वि भणियं जयगुत्तो भिक्खू सेयंवराणं पत्तं देहि । तेण वि दिन्नं, सीहदुवारे ओलइयं । सुचंदसूरिणा गहियं भिन्नं च । गओ रायकुले वाहराविओ जयगुत्तो सुचंदसूरिणा । चक्खाणियं पत्तं । एसो एत्थ पत्तत्थो पइण्णा य। किंतु 1 जमलजणणीसरिच्छा पासणिया सव्वनयसमग्गा य । सच्चपइण्णा निउणा तारिंति नरीसरं नियमा ॥ जाइ - कुलपक्खवाया लोभेण व अन्नहा वइत्ता णं । पच्चंति कुंभिपागे वाससहस्साइं नरए || दंडधरी अण्णाणा लोभेण व पक्खवायदोसेण । वितहं परूवयंतो नरए कुंभीसु पचेज्जा ॥ इय नाऊणं सधे पेच्छह सम्मं जहट्ठियं वायं । तारेह जं कुलाई सत्तमहादुक्खनरयाओ ॥ अण्णं च का जय-पराजयववस्था ? - वग्गक्खराइचागा णाणाछंदेहिं पुव्वपक्खो णे । अहवा गेण्हह तुब्भे अणुवायं तो करिस्सामो || न हि न हि पमेयमेत्ते अक्खरसव्वाणुवायरूत्रेणं । वायं छंद निबद्धं वग्गक्खरचागरूवेण ॥ काऊ य अणुवायं उत्तरपक्खं तहा करेस्सामो । एगत्थ वि अवराहे सव्वत्थ जिया न संदेहो || 1 राया एवं उवहसइ । ओ खणिगवायं अहिगिच्च भणिउमाढत्तो जयगुत्तो । अणुवइऊण दूसियं सूरिणा । निरुत्तरी कओ भिक्खू । तहा विजयवत्तं न देइ राया - अज्ज वि वायं करेह त्ति भणइ । उट्ठेह ताव । समुट्ठिया ततो सबै भिक्खुणो भणति लोयपुरओ - 'अम्हेहिं जियं' । विजिया मह गुरुणो ति राया पओसमावण्णो साहूणं छिद्दाणि मग्गइ । नायं सूरिणा । तच्चण्णिया रायाणं भणंति - ' निबिसए करेसु सेयंबरे' । राया भणइ ' अवसरे करिस्सामि । बहू लोगो एएसिं भत्तो । ता मा पयइविरागो होउ' । सूरीहिं खवरिसी भणिओ - 'देवयं सुमराहि' । ठिओ सो काउस्सग्गेण । समागया देवया भणइ - 'संदि सह किं करेमि ?' । खमरिसिणा भणियं - 'राया पउट्टो, तं अणुसासेहि' । भणियं देवयाए - 'जया अवरज्झिही तया अणुसासिस्सामि । अच्छह निरुविग्गा संपइ' । इओ य जएण एगा चरिया भणिया - 'सुचंदाण छोभगं देहि' । पडियं तीए । समागच्छइ साहुवसहीए अवेलाए । पडिसिद्धा सूरिणा - 'एगागिणी इत्थिया न एइ साहुपडि • स्सए' । सा भणइ - 'अहं धम्मं सोउमागच्छामि' । सूरी भगइ - 'संजइप डिस्सए गच्छ' । सा भगइ - 'किं मए आगच्छंती तुम्ह अवरज्झइ; तुम्हेहिं चित्तसुद्धीर जइयत्रं । किं रायमग्गे चेइयालये गोयरे य गच्छंता अच्छी पट्टबंधं काऊण विहरह । ता न किंचि चक्खि दिय निरोहेण । अंतरकरणं निरुंभह । तस्सि निरुद्धे पञ्चल्लं थिरया' बंभचेरे निविडइ । मए आगच्छंतीए ता निरहं लोयपूयणिज्जा होह । मुहा 30 ममं पडिसेहेह' । भणियं सूरीहिं - 'एयं लोयसमक्खं वियारेज्जासि | संपयं न जुज्जइ तुमए एगागिए सह वयणक्कमो काउं' । सा रुट्टा उट्टिया । तओ लोयाण पुरओ भणइ - 'साहुणो बंभचेरभग्गा, वयं मुयंता मए पडिचरिय पुणो संठाविय' ति । तओ ते लोगा सावगे दहुं सहत्थतालं हसंता भणति - 'सुणेह, 1 2 C विरया । 3 C निव्विह । 10 - 15 20 25 Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ श्रीजिनेश्वरसूरिकृत-कथाकोशप्रकरणे [१८ गाथा नियगुरूणं पउत्ति' । तओ सा हक्किया सावगेहिं - 'पावे ! महामुणीण उवरि एरिसं भणंती नरयं वचसि । पडियत्थणि चुडियगल्ले भूसणपरिवज्जिए सह तुमाए । को सेवइ विसयसुहं इयरो वि हु दड्ढनिल्लज्जे ! ॥ उम्मूलियमयणाणं निच्चं सज्झायभावियमईणं । देवीओ वि न चित्तं हरति किमु अन्ननारीओ ॥ रायामच्चपुरोहियखत्तियसत्थाहसेट्ठिधूयाओ। भूसियअलंकियाओ पाए वंदंति एयाण ॥ न य तेसि तासु मणयं दिट्ठिनिवाओ हवा भणेज्जासि । लोयाणं लज्जाए यासि एयं निसामेहि ॥ अण्णावएसओ विहु कलुसियहिययाण नजए दिट्ठी । मयणाउरस्स दिट्ठी लक्खिज्जइ लक्खममंमि ॥ सा भणइ - 'अरे ! किं तुब्भे जाणह ?, अहं जाणामि, जीए अट्ठ वि अंगाई तेहिं भुत्ताई। भणियं सावगेहिं - 'जाणिहिसि, एवमुल्लवंती जाहे रायकुले ढोइजसि' । गया दिसोदिसिं सवे वि । सुबंधुमंतिणा सह मेलावं काऊण समागया सुचंदगुरुसमीवे । सिट्टा पउत्ती गुरूणं । भणियं सूरीहिं - 'सा इहागया 10 एवं एवं भणंती अम्हेहिं सव्वहा निद्धाडिया । एवं उल्लवंतीए नज्जइ रायसेगो वि को वि अस्थि । तहावि पुणो भणंती बाहाए घेत्तूण रायकुले नेयव्वा । न विलंबो कायव्वो । पज्जवसाणं सोहणं भविस्सइ' । पुणो वि सा दिट्ठा जणमज्झे उल्लवंती गहिया बाहाए । समप्पिया बंधुस्स । तेण वि भणिया'पावे ! वच्चसु रायकुलं । सा झत्ति पयट्टा । नायं सावगेहिं - रायसेगो धुवं अत्थि एईए । किंतु सासणदेवया' भलिस्सइ । भणियं सुबंधुणा-राया पउट्ठो तेणेसा एवं कारिय त्ति । तहावि गम्मउ राय15 कुले । पत्ता जयराइणो समीवे सव्वे वि । भणियं जक्खसेटिणा- 'देव ! रायरक्खियाई तवोवणाई सुव्वंति । उक्तं च धर्मात् षड्भागमादत्ते न्यायेन परिपालयन् । सर्वदानाधिकं तस्मात् प्रजानां परिपालनम् ॥ एसा य पडियपूयत्थणी चुडियकवोला दिट्ठा वि य उव्वेयणिज्जा जम्मंतरोवज्जियअसुहतरुफलमुव20 भुंजमाणा वि कुओ वि साहूण पडिनिविट्ठा असमंजसाइं जंपइ । ता देवो पमाणं' । भणियं रन्ना'हयासि! जइ ते अप्पा समप्पिओ धम्मनिमित्तं ता को विवाओ । अह भाडी एसा जइ लद्धा ता को विवाओ। अह न लद्धा ते भाडी, ता धम्मो ते भविस्सइ, न किंचि विवाएणं । अह भाडि मग्गसि, सावगा दाहिंति; तहा वि को विवादो । अह सावगा न देति मम धम्मो हवउ, अहं दाहामि । गच्छह न किंचि विवाएणं' । भणियं जक्खेण- 'देव ! किं ते बंभचेरभट्ठा, जं देवो एवं भणइ ?' । भणइ 25 रन्ना- 'मए दाणं पि दाउं नियदंडं परिच्चज तुम्ह विवादो छिन्नो । जइ न रोयइ ता साहुणो सुद्धिं कुणंतु' । भणियं जक्खेण - 'देव ! जो जो जस्स पउट्ठो होज, सो सो निविण्णजीविएण “पंगुलंधलकोढियाइणा जइ छोभगं दवावेजा, तत्थ तत्थ जइ सुद्धी कज्जिही, ता हगियमुत्तियए सुद्धीए पओयणं । निरहिट्ठाणाणि य दिव्वठाणाणि किं न होति । तओ जे चिय रक्खगा ते चिय विलुपग त्ति कत्थ गम्मउ ? । भणियं रन्ना- 'अहो पेच्छह वाणियगाणं वयणाणि ? तुन्भे चिय भणह -का अन्ना 30 गई ? । तुम्ह भज्जा सुण्हा धूयाओ विडाणं कह छुट्टिस्संति; जइ सुद्धी न कीरइ ?'। __ भणियं सोमेण-देव ! समाणधणेणं छोभगे दिन्ने दिव्वाइणा सुद्धी कीरइ । हीणो छोभगदाया निग्गहिजउ' । भणियं रन्ना- 'अखंडबंभयारी भिक्खुणो चेव, सेयंवरा पुण न तहा । तो ते जइ दिव्वेणं न सुज्झेज, तहा वि नाहं तेसिं जीवियहरणं करेमि तुम्हाणं दक्खिन्नेणं । नासाइच्छेए वि कते तुम्ह उवग्घाओ भविस्सइ । ता वरं अच्छउ एसा भणंती । नाहं नासाछेएण वि ते निग्गहिस्सामि । वच्चह घरेसु' । 1A देवयाए धुवं । 2 B भवतु। 3A बंभचेरठ्ठीणं । 4 A पंगुलंधकोठि। 5 B नास्ति 'जई'। Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या ] शासनोन्नतिकरणविषयक देवडकथानकम् । १०९ भणियं जक्खेण - 'को एईए एदहमेत्तो अवटुंभो जा एवमुल्लवइ । नासो सिरए कजउ जो एवं भणेइ'। भणियं रन्ना- 'सो कहिं नजइ । नासओ वि सो तुम्ह गोयरो भविस्सइ न वा न नजइ' । भणियं दत्तेण'देवस्स गोयरो अम्ह गोयरो' ति। भणियं रन्ना - नासो अम्हाण न दंडगोयरो त्ति ता किं कायब' । भणियं जक्खेण -- 'देव ! नणु तुब्भे च्चिय अणुमण्णह एयं । तओ एसा न निग्गहिज्जइ । किं तु न सोहणमेयं वंसस्स व विणाससमए फलं । एवं विहा तुम्ह मई संजाया। किं अम्हे भणामो' । तओ रुट्ठो राया भणइ -: 'अरे रे! ते दुरायारे साहुणो खिवह गोतीए । एए पुण किराडगे अवहडसव्वस्से काउं निखाडेह' । उठ्ठिया सावगा । साहुणो वि रायपुरिसेहिं अक्खित्ता पक्खित्ता गोत्तीए । ठिओ काउस्सग्गेण खमरिसी । आगया देवया भणइ – 'अच्छह निरुबिग्गा, सोहणं करिस्सामि' । तओ उत्तट्ठा देवयाहिट्ठिया' करिणो । तेहिं उम्मिठेहिं विच्छोलिआओ जच्चतुरयवंदुराओ । मारेंति रायंगणे संचरंतं जणं, भंजंति रायभवणभित्तीओ। जाओ कोलाहलो । विदलियाई कोट्ठागाराइं । दुक्का कोट्टिकारा, ते वि चुण्णिज्जंति हत्थीहिं । गया ॥ करिणो भिक्खुगालए; मारिजंता नट्ठा भिक्खुणो । भंजंति विहाराई । संमुहीभूयं पि न मारेंति सावगसमूहं । करीहिं भग्गा आवणा । जाओ जणसम्मदो । महाकोलाहलीभूयं नयरं । एवं दट्टण अद्दन्नो जयराया । तओ उल्लपडसाडगो धूयकडच्छयहत्थो सह पहाणसामंतेहिं भणिउमाढत्तो- 'दिहो कोवो, खमउ जस्स मए अवरद्धं । पसायं करेउ, उवसंपन्नो अहं ति । एत्थंतरे अंतरिक्खपडिवन्नाए देवयाए भणियं- 'मओ सि दास ! कहिं जासि' । राया भणइ – 'भणउ सामिणी, जं मए अयाणमाणेण अवरद्धं । तेण खामेमि' ।। देवयाए भणियं - 'पाविट्ठ ! साहूण कलंकदाणकाले बुद्धिमंतो आसि । संपयं अयाणगो जाओ। कीस तुमे देविंदवंदिया साहुणो अवमणिया ?, कीस सावगा नायमुल्लवंता निरसिया ?, कहिं ते भिक्खुणो जे साहू निधिसए कारेंति ? । ता सुमराहि इट्ठदेवयं । नत्थि ते जीवियं' । भीओ राया भणइ-'मा सामिणि ! एवं कुण । देहि पाणभिक्खं । कयस्स पायच्छित्तेण पओयणं' । देवयाए भणियं- 'तुमं अभव्वो इव लक्खीयसि । ता संपयं मुक्को, पुणो वि जइ साहूणमुवरि पओसं काहिसि सावगाण वा, ता तहा करिस्सामि 24 जहा भग्गो' न लागसि' । राइणा भणियं-'जं सामिणी भणइ तं सव्वहा करिस्सामि'। 'जइ एवं ता गच्छ, साहुणो सक्कारेहि; सम्माणेहि सावगजणं' ति । तओ तह त्ति संपाडियं जयराइणा । सट्ठाणं गया हत्थिणो । नियत्तं विड्डरं । किं तु साहुपदोसजणियकम्मुणा अणंतसंसारं भमिही, दुक्खपरंपरमणुहवंतो ति । जउत्तिगयं ॥ २६॥ ॥समाप्तं जयदेवकथानकम् ॥ २६ ॥ साम्प्रतं देवडकथानकं कथ्यते ०२७. देवडकथानकम् । - रोहीडयं नाम नयरं । तत्थ देवडो नाम कुलपुत्तगो परिवसइ । सो य पयईए अत्तगविओ दुब्वियड्डों" य । अण्णया तत्थ साहुकप्पेणं विहरमाणा बहुसिस्ससंपरिवुडा समागया सुहंकरा नाम सूरिणो। समोसढा साहुजणोचिए चंदणदुमे उज्जाणे । परिसा निग्गया वंदणत्थं । देवडो वि, खलीकरेमि ते अईव पंडिया 30 सुव्वंति, जेण तज्जएण मम साहुवादो होइ त्ति बुद्धीए निग्गओ। समाढत्ता देसणा गुरुणा, जहा- 'देसओ वि विरई कायव्वा । जइ पुण सव्वओ काउं तीरइ ता किं न पज्जत्तं' । एत्यंतरे भणियं देवडेग - 'केसु 1 B नास्ति पदमिदम्। 2 A जेण। 3 A एयं। 4 B रुग्गो। 5 B करेमि। 6 A. दुच्चियट्ठो। Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० श्रीजिनेश्वरसूरिकृत-कथाकोशप्रकरणे [ १८ गाथा ठाणेसु विरई कायव्वा ?' | सूरिणा भणियं - 'पाणाइवायमुसावायादत्तादाण मेहुणपरिहेसु जईण सव्वविरई । मणेणं, वायाए, काएणं, न करेइ, न कारवेइ, करेंतं नाणुजाणइ, एस कमो । अह देसविरई तो दुविहं तिविहेण वा, दुविहं दुविहेण वा, दुविहं एगविहेण वा, एगविहं तिविहेण वा एगविहं दुविहेण वा एगविहं एगविहेण वा घेप्पइ' । भणियं देवडेण - 'तुब्भेहिं कहं गहिया ?' । सूरिणा • भणियं - 'तिविहं तिविहेणं' ति । देवडेण भणियं - 'न जुत्तमेयं, जओ आहारे सिज्झमाणे जे जीवा मया तव्वणं तुभे छप्पह' | गुरू भणइ - 'नत्थि एयं, जम्हा वयं न पयामो, न अन्नेण पयावेमो, पयंते न समणुजाणामो । ता कहं तव्वहेण छिप्पामो ?' । देवडो भणइ - 'अणुमई सव्वहा अस्थि । जइ गिहत्था रंघति ता भिक्खं हिंडामो । जइ गिहत्थाणं धन्नसंचओ होइ ता सुहं रंधिऊण पयच्छंति । सो य कणसंचओ न करिसणं विणा; ता पसंगेण करिसणं पि बहुमन्नियं होज्जा । करिसणं न गोणाइविरहेण । 10 ते वि न भत्तपाणं विणा । ता कहं तिविहं-तिविहेणं मे वयगहणं ?' ति । भणियं सूरिणा - 'न बाहगमिणमम्हाणं; जस्स आसंसा पयट्टइ' तस्स एस दोसो । साहुणो पुणो सहावपवित्तेसु गेहेसु' नियपरियणनिमित्तं निव्वत्तिए पागे संसट्टे हत्थे संसट्ठे मत्ते सावसेसे दबे पडिरूवएण एसिया भुंजंति । तेणं चिय कणकरिसणाइगोयरो आसंसाविभागो दूरं निवारिओ चेव । भद्दमुह ! सिक्खिऊण वाए उट्टिज्जइ' । तओ देवडेण चिंतियं - ' अहं उवहसिओ एएहिं' ति; पओसमावण्णो तेसिं छिद्दाणि मग्गइ । भणइ लोयपु15. रओ - 'एए पच्छन्नचरा कस्सइ राइणो वा पल्लीवइणो वा' । एवं तेण उल्लवंतेण अन्नो जणो भणिउमाढत्तो । एवं कण्णपरंपराए गयं रन्नो कन्नं तं वयणं । रन्ना वाहराविया सुहंकरसूरिणो । एगंते भणिया पुरिसदत्तराणा - ' तु सव्वस्स वि विस्संभणीया; अओ अहं भे! सुवण्णसहस्सं दाहामि; तो संपइ मम पडि - राई तूण तेसिं छिद्दाणि मग्गह, ममं निवेएह " । सूरिणा भणियं - 'महाराय ! समतिण-मणि- लेहु-कंचणा समसत्तु-मिता साहुणो भवंति । भिक्खामेत्तसंबलाणं परिचत्तपरिग्गहाणं किं सुवण्णेण कज्जं । समसतु-मि20 ताणं को अत्थि जस्स छिद्दाणि मग्गिज्जंति ? । ता महाराय ! सुपरिक्खियवाइणो महापुरिसा हवंति । ता किमेयं भवया वागरियं ?' । भणियं रन्ना - ' किं मए थोवं सुवण्णयं पडिन्नायं अन्नराईहिंतो, जेण ताण संतिया होउं तुभे इहागया पच्छन्न चरा; न मम संतिया अण्णत्थ गच्छह ?" । सूरिणा भणियं - 'महाराय ! सुणिच्छियं कथं भवया एयं, जं अम्हे अन्ननिवचरा इहागय ? त्ति । न य खुद्दजणवयणावराहेण एवं वतुमरिहर महाराओ । 25 पाणचए वि पावं पिवीलियाए वि जे न इच्छंति । ते कह जई अपावा पावाई करेंति अण्णस्स ॥ राया चउण्ड वि आसमाणं गुरू । ता गुरुतप्पका कहं होमो जेण तुज्झ छिड्डाणि निरूविय अन्नेसिं कहिस्साम । तुह तणएणं (?) सव्वास्स अणभिभवणीया । ता कहं धम्मसहायस्स खलियमिच्छामो । ता महाराओ सम्मं निरूवेउ' । 30 एत्यंतरे भणियं सुबुद्धिमंतिणा - 'देव ! एवमेयं महातवस्सिणो । एए न खलियारणीया । किं न सुयं • देवेण रायगिहे नयरे मेयञ्जरिसी नाम सेयंबरसाहू भिक्खमडतो सुवण्णगारगिहमणुपविट्ठो । तम्मि य समए सुवणारं मोतुं नत्थि अन्नं माणुसं तस्स गेहे । सो य सेणियरन्नो देवच्चणनिमित्तं अट्ठसयं सोवforयजवाणं अहिरणीए ठवेत्ता भिक्खानिमित्तं अभितरे पविट्ठो । एयावसरे घरकुंचएण जवबुद्धीए सव्वे ते तेड्डियं चंचुं काउं मुहे कया । भिक्खं गहाय निग्गओ सुवण्णगारो, जाव जवे न पेच्छइ । भिक्खं दाऊण साहुं भणइ - 'कहिं जवा ?" । कुंचाणुकंपाए भणियं साहुणा - 'का मम जवेसु तत्ती ? ताव 1 A पयडइ । 2 A नास्ति 'गेहेसु' । 3 A कन्नो तव्त्रयणं । 4 B नास्ति पदमिदम् । 5 C परिन्नायं । 6 C ताणयणं । Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या ] शासनोन्नतिकरणविषयक देवडकथानकम् । १११ न मए गहिया' । सुष्णारो' भणइ – 'अन्नो एत्थ न कोइ आगओ; ता सव्वहा देसु जवे, अण्णहा सेणिओ मारिस्सइ ममं ' । साहू भणइ – 'पेच्छ जइ मम पासे संति' । सुण्णारो' भणइ - ' न किंचि एएणं, अप्पेहि; उयाहु नत्थि ते जीवियं' । साहुणा भणियं - 'जं जाणसि तं करेसु' । तओ रुट्ठो सुन्नारो बद्धं अल्लवद्वेण से सीसं । पहयाओ फञ्चराओ संखाणदेसेसु । निष्फिडिया दो वि अच्छिगोलया । तहा वि कुंचाणुकंपाए न कुंचं साहेइ, न सुण्णयारस्स पउस्सई । ता देव ! साहुणो एवंविहा होंति । तान एए एवंविहकारिणो' । भणियं रन्ना - 'महाभाग ! न सबे वि एगसहावा भवंति । विचित्तसहावा पाणिणो' । भणियं सुबुद्धिणा - 'अस्थि देव ! एवं, किंतु बज्झचेट्ठाहिं अंतरंगो भावो लक्खिज्जइ । पेच्छ निक्कसाया थिमिया दिट्ठी, पसंतं वयणं, अपरिकम्मं तवसा किसं सरीरं महाणुभावाणं । ता न होंति एवंविहा चारपुरिसा" । राइणा भणियं - 'महाभाग ! किं गूढमायावतो न होंति केइ वि । किं न सुयं एएसिं चि समए वणिज्जंतं अंगारमद्दगचरियं । स हि किल गूढमाइत्तणओ' अविण्णायसरूवो गच्छ - सामीकओ' त्ति । भणियं मंतिणा - 'देव ! तुब्भेहिं कुओ एस वइयरो निच्छिओ जमेते चरा पडिराईणं ?' | भणियं रन्ना - 'कन्नपरंपराएणं' । भणियं मंतिणा - 'जस्स सगासाओ तुमेहिं आयन्नियं, तं वाहरावेह' । वाहरिओ पुट्ठो य - 'तुमए' कहं नायं चरा एए साहुणो ?' त्ति । तेण भणियं - 'मम अमुगेण कहियं । एवं परंपराए वाहरिओ देवडो पुट्ठो" य- 'तुमं कहं जाणसि चरा एए मुणिणो ?' । तेण भणियं - 'लोगाहिंतो' । मंतिणा भणियं - 'तं आणेहि, जेण ते साहियं' । देवडो भणइ - 'नो 13 जाणामि बहू लोगो जंप, केत्तियं दंसेमि' । भणियं मंतिणा - ' अहवा तुमं पि" निच्छयं करेहि, अहवा परं दंसेहि" । उयाहु नत्थि मे जीवियं । एए महामुणिणो अकारणे कोविया सबलवाहणं सरङ्कं रायाणं निड्डहेज्जा । ता एद्दह आवईए तुमे जोइओ राया । किं तुमए" विणासिएण, सिग्घं निव्विसओ गच्छसु" । रहा नत्थि ते जीवियं । सकुटुंबयं तेल्लकडाहीए "तलाविस्सामि' त्ति । तओ निंदिज्जंतो नियगेहिं, सोइज्जतो परियणेहिं, हसिज्जंतो" तरुणएहिं, अक्कोसिज्जंतो जायाए, उद्दालियसव्वस्सो निद्धाडिओ रोहीडगाओ । दुखिओ परियडतो पत्तो तामलित्तीए । परपेसणकरणोवज्जियदविणलेसेण किच्छेण निव्वहइ | तत्थ वि साहूणं पओ बहइ । लोगाण पुरओ भणइ - 'सेयंबर साहुणो भिक्खाछलेण घराई हेरंति, रयणीए चोराण साहेंति; ते य भागं पयच्छंति । पडिराईण य सुवन्नं गिण्हंति । तओ नगरस्स अत्थसारं रन्नो य पमत्तयं साहिंति अन्नराईणं । ता न तेसिं गेहे नगरे वा पवेसो दायव्वो' । तओ केह तबयणं सद्दहंति, पडिसेहं च करेंति साहूणं नियगेहेसु भिक्खट्टमहंताणं । अन्ने न सद्दहंति । एवं वच्चइ कालो | 25 1 20 अन्नया विहरंता समागया सुहंकरसूरिणो तत्थ । ठिया धणवहसेट्ठि" जाणसालासु । समागच्छइ लोगो धमकाए । आउट्टिओ भर्त्ति करेइ । उच्छलिओ साहुवादो । दिट्ठा देवडेण पञ्चभिन्नाया य । पउट्ठेण चिंतियं - करेमि कयपडिक्कियं । तओ मिलिओ आरक्खियस्स भणइ - 'घणवह सेट्ठिगेहे जे अच्छंति पव्वइया, ते अगठाणेसु चारिग चि बद्धा निद्धाडिया य । ता तुम्मे जाणह' । तेण वि रन्नो सिहं । रन्ना विवाहविओ घणवहो भणिओ य - 'जे तुह जाणसालासु चिट्ठति तेसिं पारं तुमं जाणसि ?' | 30 सेट्ठिणा भणियं - ' को एयाण पारं जाणइ ? । एते हि सव्वत्थापडिबद्धा गामागरनगरमंडियं वसुहं 1 B सुन्नयरो । 2 B सुवन्नयारो 3 B पव्वराउ | 4 B पओसमावहइ । 6 B चारग° । 7 A ° माय तणविण्णाय° । 8 B वाहराविधो । 9 A तुमे । 11 A नास्ति 'पि' । 12 A समप्पेहि । 18B14 A गच्छउ । 15 B तलावेसामि । इसिज्ज माणो । 17 B नास्ति 'घणवहस्रेडि; C धणावह° । 5 B नास्ति 'तवसा किसं' 10 B नास्ति 'पुट्ठो य' । 16 A Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ श्रीजिनेश्वरसूरिकृत-कथाकोशप्रकरणे [१८ गाथा नियकप्पेणं विहरति । न तेसिं दव्वओ धणे वा सयणे वा; खेत्तओ देसे वा विसए वा नगरे वा गामे वा; कालओ सुभिक्खे वा दुब्भिक्खे वा; भावओ सुहे वा दुहे वा जीविए वा मरणे वा, पडिबंधो अस्थि । तो देव ! तुम धन्नो जस्स रज्जे' रटे नगरे वा एयारिसा साहुणो निवसंति' । तओ रन्ना वाहराविओ आरक्खिओ, भणिओ य - 'कहेसु सेट्ठिस्स जा तुमे सुया पउत्ती' । भणियमारक्खिएण- 'सेट्टि ! तुम जाणसि • विसेसं । किं तु देवडाभिहाणेण गोहेण मम सिहँ जहा - एते रोहीडगे नगरे चारिग त्ति गहिया, बद्धा, निद्धाडिया य । एत्थ वि चारिग त्ति आगया' । भणियं सेट्ठिणा- 'वाहरावेह तं गोहं मम पञ्चक्खं' । वाहराविओ आगओ, भणिओ सेहिणा- 'तुमं रोहीडगाओ नगराओ कहमागओ?, जहा फुड भणेज्जासि' । देवडेण भणियं - 'अम्हे वि भमंतभमंता आगया । भणियं सेट्टिणा - 'कीस रन्नो पुरओ उल्लंठमुल्लवसि । अम्हेहि वि सुया कावि पउत्ती, तेण पुच्छामो' । तओ-नाओ मम वइयरो इमेणं ति "संखुद्धो देवडो । न किंचि साहेइ । राया जाणइ - नाओ सेट्टिणा, एस एव चरो, तेणां संखुद्धो । भणियं रन्ना- 'कीस न साहेसि ? । एत्थंतरे रन्नो चमरधारीए अवयरिया पवयणदेवया सुहंकरसूरिणो गुणावजिया । तीए कहिया सव्वा पुव्वुत्ता तस्स पउत्ती । रुवाए देवयाए कओ उम्मत्तो । गहिओ रोगेहिं सुदूसहेहिं । बहुकालं किलेसमणुह विऊणं मओ गओ नरगे । तओ अकए वि दोसे अणेयअब्भक्खाणदूमिजंतो भमिही अणंतसंसारं साहुजणपदोसजणियं असुहकम्मपरवसो ति । देव डोत्तिगयं ॥ ॥ देवडकथानकं समाप्तम् ॥ २७॥ ०२८. दुद्दकथानकम् ।इयाणि दुद्दो भन्नइ-कोसलाए दुद्दो नाम माहेसरो ससरक्खभत्तो । अन्नया सो गओ उज्जाणे । तत्थ बहुजणमज्झगयं सीहगिरिं नाम सूरिं धम्मं कहेंतं दट्टण कोउगेण तत्थ गओ उवविट्ठो । तत्थ 20 तामलिबालतवस्सिचरियं वन्निजइ-जहा तामली' सेट्ठी वाससहस्साई कटुं तवचरणं काऊण अणसणे ठिओ । इओ य पलिचंचारायहाणीवत्थव्वा देवा तस्स निदानकरणाय आगया । इड्ढेि दंसेंति - 'अम्हे अणिंदा चुयइंदा ता नियाणं करेसु, जेण अम्ह इंदो होहिसि' । तामली वि तेसिं वयणं अणाढायमाणो चिट्ठइ । तेण य पएसेण गच्छंता साहुणो सुत्ताउत्ता' जुगमेत्तनिमियदिट्ठी पयं पयं चक्खुणा सोहेमाणा दिट्ठा । ते दट्टणं चिंतियं तामलिणा- 'अहो सोहणो एस धम्मो, जत्थ पराणुवरोहेण गम्मइ । 25 सच्चं सवन्नू सो देवो, जो एवं परूवेइ' – एवंविहसुहज्झवसाएण उप्पाडियं सम्मत्तं । तओ मओ उववन्नो ईसाणे कप्पे ईसाणो नाम इंदो, सूलपाणी वसहवाहणो, जाव अहिणवुप्पण्णदेवकिच्चं करेइ, जाव चेइयालए गओ, तत्थ सिद्धपडिमाणं सिणाणाइ करेइ । एयं सवित्थरं वन्निज्जमाणं सोऊण पओसमावन्नो दुद्दो भणइ - 'मामा एवं भणह । एस भगवं महादेवो, सो य सया सासओ, तेण चेव सव्वे देव-दाणव-गंधव्व-अरहंत-बुद्ध-विहु-बंभ-सूर-चंदादओ कया । ता सो उप्पन्नो त्ति न जुत्तं । न य सो देवाणं ० सिणाणाई करेइ । सो च्चिय महादेवो अन्नेहिं हाविजई । ता मुसं तुन्भे वयह । विप्पा वि 1 A. नास्ति 'रजे। 2 B नास्ति 'मगरे'। 3 A नास्ति 'नगराओ'। 4 B भमंत समागया। 1-1 एतदन्तर्गतपाठस्थाने B आदर्श 'अम्हेहि वि किंपि निसुयं मा अन्नहा भणसु' इत्येव वाक्यम।। B रुटा देवया। 6B कोसलाउरे। 7 B तामलिं सेटिं। 8Cसुनाओ। 9 B ण्हवणाइ। 10A हाणिज्जइ। Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या ] साधुगणदोषोद्भावनफलसूचक- कौशिक कथानकम् । ११३ भणंति - 'सेयंबरसाहुणो त्रयीबज्झा, न मोक्खसाहग' त्ति । भणियं सूरिणा - 'भद्दमुह ! मा निक्कारणं कुप्पाहि । अम्हे न किंचि तुहच्चय देवस्स कहेमो । एसो पुण देवलोयाहिवई इंदो, तस्स संतिया वत्तबा अम्हेहिं कहिया, न तुहच्चय देवसंतिया, ता मा तुमं खेयं करे हि' । दुद्दो कुविओ भणइ - 'करेह वायं जइ तुम्ह दंसणं अस्थि' । सीह गिरिगुरुणा भणियं - ' का तुह सत्ती जो तुमं अम्हेहिं समं करेसि वायं । पढाहि ताव माझ्यं । न किंचि ते कुविकप्पेहिं' ति । उडिओ सो, गओ ससरक्खसमी । भणइ - 'सेयं - s बरेहिं समं वायं करेह' । ते भांति - 'राया साहुभत्तओ, ता अट्टमट्टाई न तीरंति काउं; ते य वाए पडुया । अओ न कज्जं अम्ह वाएण' । तओ सो सयमेव उट्ठिओ वाए । निरुत्तरी कओ खुल्लएण । तओ गाढयरं पओसमावण्णो छिद्दाणि मग्गइ, कूडलेहवाहए करेइ । किर आयरिया लिहंति विजयधमस्स - 'एस कोसलावई पमत्तो, ता अवसरो गहणस्स वट्टइ, ता सिग्घमागच्छसु' । एवं तत्थ लिहियं । तओ कवडे गाहिया य रायपुरिसेहिं, नीया रायकुले । पुच्छिया भणंति - 'सीह गिरिसंतिया अम्हे' । " दुद्देण भणियं - 'देव ! किमेतेहिं मारिएहिं मुच्चंतु एए । साहू निम्गहट्टाणं देवस्स, जे एवं करेंति' । रुट्ठो राया भणइ - 'खिवह गुत्तीए' ते सव्वे' - जाव एवं समाइसइ राया, ताव राइणो जणणी अहिट्टिया खेत्तदेवयाए साहुजणभत्तिजुत्ताए विकियरूवेण, ठिया धुणेइ सीसं न किंचि जंपइ । परियणेण रन्नो सिद्धं । समागओ राया । धूयं उग्गाहेइ । जणणीए गहिओ कुच्चे, पहओ चवेडाए - 'हा पाविट्ठ ! साहुणो निरवराहे कयत्थावेसि ! सबलवाहणं तुमं समुद्दे पक्खिवामि । नत्थि ते जीवियं ति । पाविट्टेण दुद्देण कूडलेह - 15 वाहया कया साहूणं पउट्ठेण । नत्थि साहूण दोसो | तो साहुणो वाहराहि नियगेहे, पूएहि वत्थकंब - लाईहिं' । तहा कयं राइणा । दुद्दो वि अवहडसव्वस्सो निद्धाडिओ देसाओ । अट्टवसट्टो हिंडतो अणेय - रोगायकपीडिओ मओ उववन्नो नरए । तत्तो उव्वट्टो भमिही अनंतं संसारं । दुद्दो त्ति गयं ॥ २८ ॥ व्याख्याता गाथा ॥ ॥ दुद्दकथानकं समाप्तम् ॥ २८ ॥ दोसे समणगणाणं अण्णेणुब्भाविए वि निसुर्णेति ॥ ते विहु दुग्गइगमणा कोसिय- कमला' इदं नायं ॥ १९ ॥ व्याख्या - 'दोषान् श्रमणगणानां' साधुसंघानां, 'अन्येन' – अपरेण, 'उद्भावितान्' - प्रकाशितान्, ‘निशृण्वन्ति’–आकर्णयन्ति । 'तेऽपि दुर्गतिगमनाः' - कुगतियायिनो भवन्ति । 'कौशिक - कमलो' वणिजौ 'अत्र दृष्टान्ता' विति । भावार्थः कथानकाभ्यामवसेयः । ते चेमे २९. कौशिकवणिक्कथानकम् । 20 पाडलिपुत्ते नयरे कोसिओ नाम वाणियगो परिवसइ जम्मदालिद्दिओ । तत्थ य नयरे वासवो नाम इort समणोवासओ । तस्स बालवयंसो कोसिओ धिज्जाइयाण भत्तो । तत्थ य सोमडो बंभणो जाइमउम्मतो कोसिस पाडिवेसिओ । ते दो वि एत्थ उवविसंति । अण्णया एगत्थ उवविट्ठो कोसियस्स पुरओ । डोडो साहूणमवण्णवायं गेण्हइ । कोसिओ तं न वारेइ, तुसिणीओ संचिट्ठइ । एत्यंतरे वासवो 30 तेोगासेण समागतो । सोमडेण वि कओ आगारसंवरो । भणियं वासवेण - 'कोसिया ! किं कुणंता अच्छह ? किं पि परिओसकारणं जायं ते ?' । भणियं कोसिएण - 'न किंचि वि तहारूवं' । भणियं 1A सह । 2 A गोसीए । 3 B कमलो । 4 B नास्ति 'वि' । क० १५ 25 Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनेश्वरसूरिकृत-कथाकोशप्रकरणे [१९ गाथा वासवेण – 'किं न तहारूवं ? नहि साहुनिंदाए वि अन्नं पहाणतरं परितोसकारणं विसिट्ठाणं' । कोसिएण भणियं - 'किं मए अवरद्धं ?' । वासवो भणइ - 'जइ डोढुं वारे न तरसि, किं उद्वेत्ता अन्नत्थ न गच्छसि ? । यत उक्तम् निवार्यतामालि किमप्ययं बटुः पुनर्विवक्षुः स्फुरितोत्तराधरः। न केवलं यो महतां विभाषते शृणोति तस्मादपि यः स पापभाक् ॥ ता तुमं एयाओ डोड्डाओ पाविद्वतरो । अरे डोड्ड ! केरिसो भवं जेण साहुणो निंदसि ?' । 'सोयवजिय' त्ति । भणसु – 'केरिसं सोयं, जेण वजिया साहुणो ?' । सोमडेण भणियं एका लिंगे गुदे तिस्रस्तथैकत्र करे दश । उभयोः सप्त विज्ञेया मृदः शुद्धौ मनीषिभिः॥ एतच्छौचं गृहस्थानां द्विगुणं ब्रह्मचारिणाम् । त्रिगुणं वानप्रस्थानां यतीनां च चतुगुणम् ॥ इति ॥ वासवेण भणियं- 'हंत ! हतोऽसि यतो भवतां दर्शने सर्वगतो मधुसूदनः । तथा चोक्तम् अहं च पृथिवी पार्थ ! वाय्वग्निजलमप्यहम् । वनस्पतिगतश्चाहं सर्वभूतगतोऽप्यहम् ॥ यो मां सर्वगतं ज्ञात्वा न हनिष्यति कदाचन । तस्याहं न प्रणस्यामि स च न मे प्रणस्यति ॥ ततो भवतां पृथ्वी वासुदेवः, जलं वासुदेवः । शौचं च ताभ्यामेव क्रियते । ततो देवेनापानधावन. मसंगतमामातीति, वद किंचित् । जं भणसि सुद्दा साहुणो, तत्थ तिलमात्रप्रमाणां तु भूमि कर्षति यो द्विजः । इह जन्मनि शूद्रत्वं मृतो हि नरकं व्रजेत् ॥ __ता जुत्तहलं दावेंता सयं पडिच्छंता के तुब्भे ? ता अरे डोड्ड ! किं मुद्दा जीहाए डब्भं लणसि । ऊसर दिटिमग्गाओ । एस पुण कोसिओ अम्ह बालवयंसो अम्ह गुरुणो निदिजंते सोचा दुगुणतरोऽयं हरिसिजइ । ता महाभाग ! अम्ह मंतक्खेण वि न एस तुमए पडिसिद्धो, ता किं भणामो' । कोसिओ भणइ – 'किमहं लोयाणमुहं बंधेउं सक्केमि । को ममावराहो ?' । गया डोड्ड-कोसिया अन्नत्थ । 25 अन्नया पुणो हमज्झे सो डोड्डो साहूण दोसे समुल्लवइ । कोसिओ अद्धहसियाइं करेइ । इओ य तेणोगासेण आयासपडिवण्णं विजाहरमिहुणयं बच्चइ । भणियं विज्जाहरीए - 'अन्ज उत्त ! पेच्छ पेच्छ डोड्डो साहूण खिंसं करेइ । ता सिक्खावेहि एयं' । तो विज्जाहरेण विजापहावाओ उप्पाइया तस्स सरीरे सोलस रोगायंका । कोसियस्स पुण दुवे - जरो सासो य । तेहिं रोगायंकेहिं पीडिया दुवे वि चिरं कालं अवसह मरिऊण गया नरयपुढवीए । उववन्ना दो वि मज्झिमाउया । सोमडो भमिही अणंतसंसारं, 30 इयरो वि कइ वि भवग्गहणाइं नस्यतिरिएसु आहिंडिय धम्मबोहिं किच्छेण लभिही । ता जे साहूण निंदं अन्नेण वि कीरमाणिं निसुणेति, ते कोसिओ व्व दुहभायणं भवंति ति । को सिको त्ति गयं ॥ २९ ॥ ॥ इति कौशिककथानकम् ॥ २९॥ 1 A शूद्रस्तु। 2 B आयासेण । Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या ] साधुगणदोषोद्भावनफलसूचक-कमलकथानकम् । साम्प्रतं कमलो भन्नइ - ३०. कमलकथानकम् । - - कोसंबीए नयरीए कमलो नाम वाणियगो । सो य तिदंडीणं भत्तो । तम्मयगहियसारो साहुणो न बहु मन्नइ । अन्नया जणसमूहमज्झगओ एसो तिदंडी साहूणमवन्नवायं करेइ – 'एरिसा तारिसा सेयवड' त्ति । कमलो बहु मन्नइ, न तं बारेइ । इओ य जिणदत्तइन्भपुत्तो अरिहदत्तो नाम सावगो 5 तेणोगासेण वीईवयइ । सुयं तं तेण । साहुनिंदमसहमाणो अरिहदत्तो गंतूण तत्थ उवविट्ठो । भणइ - 'कमल ! तुमं साहुणो खिंसावेसि । जुत्तमेयं तुम्हारिसाणं ? । एए पुण सया मच्छरदड्डा साहूण तेयमसहंता विरसमारसंति । तुमं पुण मज्झत्थो, तो न वारिसि; मज्झेठिओ साहुणो खिंसावेसि । मा तुज्झ वि रोयइ एयं' ति । कमलो भणइ – 'वत्थुसहावं सुणेताणं को दोसो ? । इक्खू महुरो, लिंबो कडुओ त्ति सुणंताणं किं विरुज्झइ किंचि, जेण रूसियव्वं जुतं । कीस महुरो लिंबो न होइ, 10 जेणं न उवालब्भइ । ता भो इन्भपुत्त ! साहुणो सिक्खवेह । भणियमरिहदत्तेण - 'किं विरूयमायरंति साहुणो?' । कमलो भणइ - 'ते हि लोकाचाररहिताः । न च लोकाचारबाधया धर्मः सिध्यति । उक्तं च - तस्माल्लौकिकाचारान् मनसाऽपि न लंघयेत् ।। भणियमरिहदत्तेण - 'को एस लोगो?; किं वा पासंडिलोगो, उयाहु गिहत्थलोगो? । जइ पासंडिलोगो ता सव्वे पासंडिणो अवरोप्परमायारं दूसेंति । अह गिहत्थलोगो, तत्थ गिहत्था उत्तमुत्तमा 15 चक्किदसाराइणो; उत्तमा रायादओ; मज्झिमा इन्भसत्थाहादओ; विमज्झिमा सेसकुटुंबिणो; अहमा सेणिगया; अहमाहमा चंडालादओ। तत्थ जइ चक्किसमायारो, न हुँति साहुणो। किं एते तुज्झच्चया चउसट्ठिसहस्सजुवइभत्तारा; किं वा नवनिहिवइणो, किं वा चुलसीईसयसहस्सप्पमाणहयगयरहाहिवइणो, छन्नउइपाइक्ककोडिसामिणो, जेण तुमं एवं 'समुल्लवसि । अह उत्तमजणो लोगो सम्मओ । ता किं एते तिदंडिणो परदेसभंगदाहधणावहाराइ कुव्वंति, मिगयाए वच्चंति, मंसाइयं 20 भक्खंति ? । जइ एवं, कहं तुमं एएसिं भत्तो न रायाईणं? । अह मज्झिमो लोगो सम्मओ तुज्झ । तहावि आवणपसारणं, पोयपेसणं, करिसणकारणं, वड्डीए दव्वधन्नपउंजणं, दारग-दारिगाविवाहकरणं, गो-महिसि-करह-तुरयाइसंगहो एमाइसमायारो। विमज्झिमजणस्स पत्तदाणं च । जइ एए वि तहच्चिय पयति, को विसेसो तुम्हाणमेयाण य? । अहो सुलद्धं गुरुद्वाणं तुम्भेहिं । अह सेसकुटुंबिकलोगो लोगसद्देण सम्मओ, ता किं एते कूडतुलाइववहारिणो, किं वा करिसण-इक्खुवाड-उन्ना- 25 भ-केयाराइकारिणो ? तहा वि सुट्ठ भे गुरुणो! । अह अहमलोगो लोगसदेण सम्मओ ताव कड-रयग-सोहगसमायारा एते तुह गुरुणो । अह अहमाहमा सोयरियाइलोगसमायारा एते, जुत्तमेयं एवंविहाणं तुह गुरूणं, एवंविहो समायारो'त्ति । तओ रुट्ठो कमलो । भणियमणेण – 'अरे तुमं कत्थ एरिसाई सिक्खिओ। लोकसमाचार एषोऽभिधीयते- 'नित्यस्नायी नरकं न पश्यति । तथा शौचकरणं 'एका लिंगे गुदे तिस्र' इत्येवमादिकम् । एष लोकसमाचारो सेयंवराणं नत्थि' । भणियमरिहदत्तेण - 'कमल ! ॥ अवावगो' एस समायारो । न हि सुइवाई एवंविहं सोयं करेंति, किं तु छारेण सव्वं सोयं किज्जइ ; तो कह ते लोयबज्झायारा न होति । किं च- लोगे वि अणिचो एसो समायारो । जओ अइसाराइसु न ___1B साहुणो। 2 A सिक्खवेहि। 3 B मारसंति। 4 B उल्लवसि। 5 B कुटुंबिग । 6 A भड । 7 A अबाधगो। 8.A करिबइ। . .. . Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ श्रीजिनेश्वरसूरिकृत-कथाकोशप्रकरणे [१९ गाथा एयं कीरइ । अण्णं च-कह' एते तुह गुरुणो सुइसमायारा वियारेहिं । भोयणाइसु धाराए एगो अंतो तदाधारभायणो, एगो आलुयानालयदक्खाइयाण तक्कनीराइयाणं । ताण किं तत्थ सोयं । तहा, तुम्ह गिहेसु सव्वे बाला वोड्डा लिंता परिसक्केंति छित्ताछित्तिं करेंति । सव्वे वि जोवणधणगम्विया अण्णायपुधियाणं वेसाणं मुहेसु लग्गति, अहरपाणं कुणंति । तओ न नजंति, किं । धोविया रयगाइयाओ डोंबिणीओ वा । ताण मुहे लालाघोट्टणं करेंताणं का सुद्धी । ते य सगिहमागया भंडएसु लग्गति । तेसिं गेहेसु भुंजमाणा कहं सुइसमायारा तिदंडिणो। रायमग्गेण य संचरंति जलवाहियाओ, तत्थ य वण्णसंकरेण स्पृष्टास्पृष्टिरिति । ता किं भो' सोयवाइत्तणं ? । जं पुण, निच्चसिणायंता नरयं न पस्संति त्ति । तत्थ मयरमच्छएहिं जियं किं तिदंडीहिं । तम्हा कमल ! सुनिरूवियं वत्तवं विसेसओ तुम्हारिसेहिं । भणियं कमलेण - 'लोगं वारेसु, न अम्हाणं काइ दुतत्ती' । भणिय10 मरिहदत्तेण - 'किं तुब्भे अनीइवारगा न होह । ता तुब्भेहिं लोगो वारणीओ। किं च सिणायभगवयाईणं किं न विरुद्धमुल्लवइ लोगो' । भणियं कमलेण - 'अरे ! किं विरुद्धमायरंति तिदंडिणो सेयंबरा इव ? । भणियं अरिहदत्तेण - 'नाहं भणामि, लोगं पुच्छसु' । एवं सो कमलो सुट्ठयरं तिदंडिणो साहुखिंसं कुणंते उववूहइ, न वारेइ । तओ बंधित्तु नीयागोयं असायं च तहाविहमंतराइयं च मोहणीयमुक्कोसठिइयं आवरणदुगं च, कालमासे कालं काऊण, एगिदियाइसु भमिओ असंखं कालं 18 दुक्खसंदोहमणुहवंतो। अण्णया तहाविहभवियव्वया निओगेण महाविदेहे सुकुले इब्भपुत्तो जाओ। तस्स पंचवारिसियस्स मारीए उच्छन्नं सव्वं कुलं । सो वि घराघरेसु भिक्खं हिंडइ । अन्नया समागओ केवली । गओ लोगेण सह वंदणवत्तियाए । अवसरं नाऊण पुट्ठो केवली- 'भगवं! किं मए अण्णजम्मे असुहं कयं, जेण इब्भकुले जाओ वि दुक्खिओऽहं । बालभावे पियरो पंचत्तं गया। दव्वं जं जस्स हत्थे तं 20 तस्सेव । जंपि धरणीतलगयं तं धरणीए चेव ठियं । अहं पुण तारिसतायस्स पुत्तो भिक्खं हिंडामि । तं पिन लहामि', घरे घरे अक्कोससयाणि लभामि । ता कस्स कम्मस्स फलमेयं । भणियं केवलिणा- 'भद्दमुह ! जिन्न सेसकम्मस्स फलमेयं । कहिओ पुत्ववइयरो सबो केवलिणा । 'ता साहुजणनिंदाणुमइपच्चयकम्मजणिओ ते एस वइयरो' । भणियं दारएण- 'संपयं किमेत्थ पच्छित्तं सुद्धिनिमित्तं ? । भणियं केवलिणा- 'साहुजणसम्माण-बहुमाण-सक्कारपडिवत्तिरूवं' । तओ जाओ सावगो । 25 गहिओ अभिग्गहो जहा-जे केइ साहुणो 'साहुविहारेण इह पुरे आगमिस्संति ते अभिगमण-वंदण-नमंसणेण नियभूमिगाणुरूवं असणाइणा वत्थाइणा य पडिलाहेयव्वा । जइ पमायाइणा एयं न करेमि, ता तंमि दिणे'न भुंजामि त्ति- एवंविहं अभिग्गहं गेण्हिऊण" गओ घरं । तओ भावविसुद्धीए जाओ तदावरणिज्जाणं कम्माणं खओक्समो । तओ कमेण पाउन्भूया से संपया । करेइ पराए भत्तीए साहूणं अभिगमण-वंदणाई । पडिलाभेइ असणाइणा । सम्माणेइ वत्थपडिग्गहकंबलाईहिं । एवं पभूय30 कालं सावगधम्मं पालिऊण, पच्छिमवए समणत्तणं आराहिऊण, सम्मं कालमासे कालं काऊण, गओ सोहम्मे । तओ कालेण गओ सिवं ति। ॥ कमलकहाणयं समत्तं ॥ ३०॥ ___ 1 E एवं। 2 B C अह। 3 C वेसामुहेसु। 4 B C धन्न। 5A मे। 6 B C ठियं । 7 नास्ति 'तं पिन लहामि' BCI 8A जीव। 9A नास्ति 'साह। 10Cगिण्डित्ता। Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या] साधुजनापमान निवारणविषयक-धनदेवकथानकम् । ११७ साम्प्रतं ये साधूनामवज्ञां क्रियमाणामन्यैरपि न सहन्ते तद्गुणमाह -- साहूणं अवमाणं कीरंतं पाविएहिं न सहति । आराहगा उ ते सासणस्स धणदेवसेट्ठि व्व ॥ २० ॥ व्याख्या- 'साधूनां'- मुनीनाम् , 'अपमाननं-तिरस्कारम् , 'क्रियमाणं' – विधीयमानं, 'पापकै'पापिष्ठैः, 'न सहन्ते' सामर्थ्याद् य इति गम्यते । 'आराधकास्तु ते शासनस्य धनदेवश्रेष्ठिवत्' । भावार्थः कथानकादवसेयः । तच्चेदम् - ०३१. धनदेवकथानकम् । अवंतीजणवए उजेणी नाम नयरी । तत्थ य दरियारिमद्दणो' विमलवाहणो नाम राया । तस्स य अधरियगोरीसोहग्गा असोगसिरी अग्गमहिसी । ताणं विसयसुहमणुहवंताणं वच्चइ कालो । न य पुत्तो अत्थि असोगसिरीए । तन्निमित्तं परितप्पइ सा । उववाएइ देवयाणं । पुच्छइ जाणए । न य इट्ठसिद्धी ।। जायइ । इओ य सोहम्मकप्पवासी देवो सम्मदिट्ठी नियआउयं थोवं नाउं तित्थयरवंदणत्थं महाविदेहमागओ । तओ वंदिऊण भगवंतं पुच्छइ- 'भयवं! इओ चुयस्स कत्थ मे उप्पत्ती' । भणियं जिणेण – 'भारहे वासे उज्जेणीए विमलवाहणस्स रन्नो अग्गमहिसीए असोगसिरीए सुयजम्मकंखिरीए पुत्तत्ताए उववजिहिसि' । भणियं देवेण - 'भंते ! किं सो सम्मद्दिट्ठी?' । भणियं भगवया - 'तुमए पण्णविओ होही' । वंदिय भगवंतं देवो आगओ उजेणीए । सिद्धपुत्तरूवेण ठिओ पडिहारभूमीए । 15 निवेइयं दुवारपालेण रन्नो जहा-णेमित्तिओ दुवारे चिट्ठइ । पवेसिओ रायाणुण्णाए । दावियमासणं, निसन्नो तत्थ सुहासणत्थो, पूइओ वत्थतंबोलाइणा । भणियं रत्ना- 'कत्थ भे परिन्नाणं?' । तेण भणियं- 'पुच्छह इटुं, सयमेव नज्जिही' । पुट्ठो रन्ना निव्वूढो य । तओ भणियं रन्ना - 'असोगसिरीए पुत्तजम्मं साहेहि' । भणियं सिद्धपुत्तेण - 'झयवसहगए लाभ, तुमं पुण वसहठ्ठाणे ठिओ पुच्छसि, तहा भरिए भरियं वियाणाहि । भरियाए दिसाए तुमं चिट्ठसि, ता अस्थि पुत्तलाभो । किं तु उवाएण 20 सिज्झइ । एत्यंतरे भणियं भंडेण- 'राया तम्मि उवाए निच्चं चिय लग्गो चिट्ठई' । भणियं सिद्धपुत्तेण - 'अरे पाव ! मा पलवसु' । वारिओ रन्ना । भणियं सिद्धपुत्तेण - 'महाराय ! सोलस महाविज्जादेवीओ जिणसासणे कहियाओ', ताणं मज्झाउ जं भणसि तं कुमारियाए अवतारेमि' । भणियं रन्ना- 'पन्नत्ति अवतारेसु' । 'एवं करेमि'ति भणियं सिद्धपुत्रेण । कया सयलसामग्गी । उवविट्ठो पउमासणेणं । निवेसिया कुमारिया मंडलए । समारद्धो मायामंतजावो । जाव मोहाइउमारद्धा दारिया । 23 धूवं उक्खिविय भणियं सिद्धपुत्तेण – 'भणसु भयवइ ! कहं असोगसिरीर पुत्तो होइ ?” । भणियं देवयाए – 'उवहयजोणीए कहं पुत्तो होइ ?' । सिद्धो भणइ – 'एत्तो चिय तुमं मग्गिजसि ?' । देवया भणइ - 'किं तुम अहिगरणस्स न बीहेसि ?' । सिद्धो भणइ - 'किमहिगरणं?' । देवया भणइ - 'मिच्छट्ठिी अविरया उप्पण्णा पावं काहिंति, तस्स तुम निमित्तं भविस्ससि' । सिद्धो भणइ- 'महाराय ! सुयं देवयावयणं? एसा सावगाण पुत्ते देइ । जं भे रोयइ तं काय' । राया भणइ - 'महामञ्च ! किं 30 कायचं?' । भणियं सुबुद्धिणा- 'देवो जाणइ' । रन्ना भणियं- 'न एस अम्ह कुलक्कमागओ धम्मो । ता देविं वाहरह । जइ पुत्तत्थिणी ता साविया होउ' । वाहरिया, समागया देवी । दावियासणे उवविट्ठा । 1A विदरिमहणो। 2 B °आउं। 3C कहिति। 4C समाढत्तो। 5A रोचय । Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनेश्वरसूरिकृत-कथाकोशप्रकरणे [२० गाथा भणिया रन्ना- 'देवि ! जइ साविया होसि तो भयवई देइ तुह पुत्त' । भणियं देवीए – 'केरिसा साविया कहिजइ ?' । देवया भणइ - 'जिणधम्मं जा पडिवज्जइ सा साविया कहिज्जइ' । देवी भणइ - 'को जिणधम्मो?' । भणियं देवयाए- 'पावपडिवक्खो धम्मो । हिंसालियचोरिक्कमेहुणपरिग्गहा पावकार णाणि । अन्नहा जइ जीववहेण वि धम्मो होज्जा, ता अहिंसा पावट्ठाणं पाउणइ । तत्थ य सव्वहा 5 साहुणो वट्टति, देसओ उवासगा' । ते य इयरलोगाहिंतो थोवा । ता ते दुक्खिएसु जायनाणतणउ थोवा हवेज दुक्खिया, थोवा पुण सुत्थिया दीसंति रायादओ। दरिद्दवाहियहीणजाइपंगुलंधलपरपेसणरया बहवे दीसंति । ता नज्जइ जीवघायविरया धम्मिग त्ति । जत्थ पुण जीवघाओ धम्मत्थमुवइसिज्जइ पसुमेह-अस्समेह-गोमेह-रायसूयाइसु । तथा - द्वौ मासौ मत्स्यमांसेन त्रीन् मासान् हारिणेन तु । औरभ्रेणाह चतुरः शाकुनेनेह पञ्च वै ॥ 10 इत्यादिना मांसदानेन पितृकर्मजेसु उवइसिज्जइ, ताई कुमयाइं, न सुमयाइं । तम्मयविवजणं तम्मयभणियकिरियापरिहारो य धम्मो । तेसु पवित्ती पावं' ति । सुबुद्धिणा भणियं- 'को एत्थ विरोहो, पुत्तं विणा वि एस धम्मो कायव्वो बुद्धिमंतेहिं, विसेसओ पुत्तट्टा' । पुणो भणियं देवयाए - 'जत्थ समए अलियभासणेण धम्मो वन्निजइ । यथा - ब्राह्मणार्थेऽनृतं ब्रूयात कूटसाक्षि तथा वदेत् । अन्यथा ब्रह्महत्यैव संगिरन्ते मनीषिणः ॥ तथा चतुर्थव्रतेऽनृताभिधानम् - गते मृते प्रव्रजिते क्लीबे च पतिते पतौ । पञ्चस्वापत्सु नारीणां पतिरन्यो विधीयते ॥ तथा - अष्टौ वर्षाण्युदीक्षेत ब्राह्मणी प्रोषितं पतिम् । अप्रसूता तु चत्वारि परतोऽन्यं समाचरेत् ॥ इत्यादि यत्राभिधीयते तानि कुमतानि । जत्थ पुण भण्णइ - सव्यजीवा वि इच्छंति जीविडं न मरिजिउं । तम्हा पाणवहं घोरं निग्गंथा वज्जयंति णं ॥ मुसावादो य लोगंमि सव्वसाहूहि गरहिओ । अविस्सासो य भूयाणं तम्हा मोसं विवजए । चित्तमंतमचित्तं वा अप्पं वा जइ वा बहुं । दंतसोहणमेत्तं पि उग्गहंसि अजाइया ॥ तं अप्पणा ण गेण्हंति नेव गेण्हावए परं । अण्णं वा गेण्हमाणं तु णाणुजाणंति संजया ॥ अबंभचरियं घोरं पमायं दुरहिट्ठियं । नायरंति मुणीलोए मेयायणविवन्जिणो॥ मूलमेयमहम्मस्स महादोससमुस्सयं । तम्हा मेहुणसंसग्गि निग्गंथा वजयंति णं ॥ 1C सावगा। 2 C तेसि। 3 A दुरुहट्ठियं । Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या ] साधुजनापमाननिवारणविषयक धनदेवकथानकम् । ११९ , इच्चाइ जत्थ वणिज्जइ सो धम्मो न अन्नो त्ति । ता देवी राया य जइ जिणधम्म पडिवज्जति ता देमि पुत्तं, न अण्णह' त्ति । पडिस्सुयं दोहिं वि । जायाइं दो वि सावयाणि । देवयाए भणियं- 'भविस्सइ पुत्तो । सूरसुमिणे गब्मसंभूई भविस्सइ । तंमि सूरियं उच्छंगगयं सुमिणे पासित्ता पडिबुज्झिस्सई' । एत्तियं भणित्ता उवरया देवया । पूइओ सिद्धपुत्तो'। गओ सट्टाणं देवो, मम वि एत्थागयस्स जिणधम्मसंपत्ती भविस्सइ त्ति पहट्ठमणो। अन्नया चुओ सो देवो । उववन्नो देवीए कुच्छिसि । दिद्यो । समाइट्ठसुविणो, निवेइयं पइणो । भणियमणेण – 'देवि ! सच्चं देवयावयणं भविस्सइ' । देवी वि सुहंसुहेण गम्भं वहइ । तिण्हं मासाणं जाओ दोहलो देवीए-जइ जिणहरेसु महूसवा कीरंति, जइ साहुवग्गो फासुयएसणिज्जेहिं आहारवत्थाई एहिं पडिलाभिस्सइ, जइ सावगवग्गो विमुक्ककरदंडो कीरइ । पूरिओ रन्ना, वड्डइ गब्भो । अण्णया सुहगहनिरिक्खिए लग्गे, उच्चट्ठाणठिएसु गहेसु, जाओ दस वि दिसाओ उज्जोएंतो दारगो । निवेइओ रन्ना । कयं वद्धावणयं । वइक्कंते सूइकम्मे निमंतिओ 10 सयणवग्गो । कयं से णामं, जहा-सुमिणे सूरो दिट्ठो, सूरो इव उज्जोएइ देहदित्तीए, ता होउ सूरदेवो एयस्स नामं ति । पंचधाईपरिग्गहिओ वद्भिउमाढत्तो । कमेण जाओ अट्टवारिसिओ। समप्पिओ लेहायरियस्स । गाहिओ कलाओ। निस्सेसियकलो समाणीओ गेहे । गाहिओ बत्तीसहं रायवरकण्णगाणं पाणिं । सह ताहिं विसयसुहमणुहवंतस्स वच्चइ कालो । वियंभइ से जसो । पसरइ णिम्मला कित्ती । परिसक्कइ रायसहासु कलाकोसल्लं । निम्महइ सुहडाण भडवायं । से कहाए वड्डेइ आणंदं ।। सजणाणं, दूमेइ हिययं दुजणाणं । अविय - संचरइ जेण जेणं तेणं तेणं पहाणजुवईओ । चित्तगया इव ठाणा ण चलंती तंमि वोलीणे ॥ सुत्ताओ इव उम्मत्ताओ इव हियहिययाओ इव ण मुणंति अप्पयं, ण विदंति सीउण्हं, णाणुभवंति छुहं, न जाणंति पिवासं, ण बुज्झंति कज्जाकजं, न बहु मण्णंति गुरुयणं', न संठाविंति उत्तरिज्जयं, 20 पुणरुत्तं बंधति नीविं, मोट्टायति निब्भरं, समुल्लवंति खलियक्खरं, करेंति मंनुयाइं । तओ एवं असमंजसीभूयं तरुणनारीजण दट्टण' णायरेहिं चिंतियं- अहो ! विणटुं कजं । मिलिओ महाजणो चिंतिउमाढत्तो- किमेत्थ कीरउ, एग ताव बहुमणोरहजाओ रन्नो पुत्तो, णिरवराहो य; बीयं पुण एरिसो जुवइजणो संवुत्तो, ता किमेत्थ कीरउ । भणियं "अंबडेण - 'ताव मम नत्थि एत्थ वासो । मम तरुणीओ धूया-सुण्हाओ ताओ सव्वहा परव्वसीभूयाओ। ता सच्चं लोगो भणइ -जीवंतो नरो-22 भद्राणि पश्यतीति । अतो गंतव्वमवस्सं अण्णत्थ' । भणियं संपुण्णेण – 'सच्चं भणइ । का अण्णा गई.' । भणियं वसुदेवसेट्टिणा- 'सव्वेसिं समा आवया । ता किं सम्वेहिं गंतवं । सव्वेसिं गमणे राया भणिही-भणह, किं मए अवरद्धं । तओ किं भणिस्सह' । भणियं सच्चडेण - 'न किंचि वि देव ! तुम्भेहिं अवरद्धं ति भणिस्सामो' । भणियं सीलाइच्चेण - 'तो भणिही राया कीस गच्छह' । भणियं सव्वदेवेण- 'किं मुहा पलवह, जहट्टियं चेव रन्नो साहिजउ' । भणियं संतडेण- 'राया रूसिस्सइ, 30 भणिस्सइ ता किं करेमि, पुत्तं निद्धाडेमि ? ! अरे केरिसा किराडगा मम घरे उदयं नेच्छंति । जइ काइ कस्सइ धूया वा सुण्हा वा बाहाए गहिया ता भणह; इओगया किं निविसया भविस्सह; किं अण्णदेसेसु कुमारा सुरूवा न भविस्संति-एवं रण्णा भणिए, किं भणियव्वं ति निरूवेह' । भणियं 1Cणेमित्तिओ। 2 C गुरूणं । 3 A नारियाणं । 4 नास्ति 'दट्टण' A। 5 A अम्मडेण । Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० श्रीजिनेश्वरसूरिकृत-कथाकोशप्रकरणे [ २० गाथा I देवाइच्चेण - 'न किंचि उच्चर - पच्चराहिं कज्जं । अन्नया अन्नया विरल - विरलं अतक्किज्जमाणं गम्मउ' । भणियं दत्तसेहिणा - 'धीरा भवह । मा विसायं गच्छह । ताव अहं एगागी रायाणं पेच्छामि । पच्छा नज्जिही, जं जोगं' ति । मण्णियं सव्वेहिं वि । चिंतियं दत्तेण - राया पुरस्थाभिमुहो निसीयह, पडिवया पुव्वदिसाए जोगिणी होइ । तत्थ मम आसणं भविस्सइ । तहा आइन्च्चवारो य तया ' भविस्सह । तत्थ पढममपहरं राहू भविस्सर, तहा वसह - ज्झओ मित्तट्टाणं, तहा पडिवयनवमी ए तिहिबलं च । तथा, 'प्रथमे ध्वजधूमस्ये 'ति वेलाबलं च । ता एयावसरे पेच्छिस्सामि रायाणं । गओ पत्थावे दत्तसेट्ठी पहाणकोसल्लिएणं । पडिहारनिवेइओ पविट्ठो । उवणीयं कोसल्लियं । दावियमासणं । पूइओ तंबोलाइणा । भणिओ रन्ना - ' भणसु सेट्टि ! किमागमणपओयणं ?' । भणियं दत्तेण - 'देवपायाणमुक्कंठिया आगच्छामो, ण अण्णं किं पि तारिसं पओयणं । एयावसरे समागओ सूरदेवकुमारो । पडिओ रन्नो पाए । निवेसिओ उच्छंगे । अग्घाइओ उत्तिमंगे । तं दट्ठूण विगयचेट्ठाओ जायाओ चमरधारिणीओ । सविसेसं पच्छाइयं णियंसणमुत्तरिज्जेण । नायं रन्ना, कथं दरहसियं । भणियं दत्तेण - 'देव ! न नज्जइ जम्मंतरे किं पि दिण्णं वा हुयं वा देवाराहणं वा महातवस्सिप डिलाहणं वा कयं कुमारेण । पेच्छह देव ! तिहुयणे परिसक्कइ कुमारजसो, आसमुदं सत्तुगिहेसु वि अनिवारिया पसरइ कुमारकित्ती । णवरं मयणो वि अणंगो जाओ कुमारलज्जाए । देवेण वि नायं 15 कुमारदंसणाओ विलासिणीविलसियं । देव ! कुमारो जया बाहिं नीहरइ, तया अम्ह धूया सुहा भागिणिज्जाओ एयमवत्थंतरं पावेंति । वोलीणे य चक्खुपहा उमत्ताओ इव, सुत्ताओ इव, मुच्छियाओ इव, निहयदारुमयपडिमा इव, निचिट्ठाओ जायंति । न निययवावारं किं पि सुमरंति । ता किं पि सुचिणं तवच्चरणं कुमारेण, जस्सेरिसी रूवसंपया । तुट्ठो राया सम्माणिओ सेट्ठी । गओ सहिं । उओ कुमारो | भणियं सुबुद्धिणा- 'देव ! वियाणियं तुब्भेहिं जं सेट्ठिणा समुल्लवियं ?" । रण्णा 20 भणियं – 'न सम्मं' । भणियं सुबुद्धिणा - 'देव ! असमंजसं वट्टर पट्टणे जुवइजणस्स त्ति समुल्लवियं सेट्टा । ता अई बाहा णायराणं दंसिया' । भणियं रन्ना - ' ता किं कीरउ' । भणियं सुबुद्धिणा'सुचिन्नं तवमणेण, दिन्नं सुपत्ते दाणमेएण, चक्खुसुहयं रूवमेयम्स, कण्णसुहयं वयणं विसेसओ तरुणीयणस्स । अन्नभवनिव्वत्तिय सुहकम्मफलविसेसं पच्चणुब्भवइ कुमारो । ता धण्णो तुमं जस्स एरिस पुत्तो, सयललोएण सलहिज्जइ, सयलमहिलाहिं पत्थिज्जइ' । भणियं रण्णा - 'संपयं कहं 25 जणरक्खा भविस्सइ ?' । भणियं सुबुद्धिणा - ' मासेण एगदिणं कुमारो रायवाडीए नीणेउ । तत्थ य लोगो भाणिज्जइ - पुणिमाए जोसियाहिं ण बाहिं णिग्गंतव्वं । अउणतीसं दिणाणि मोक्कलाणि । कुमारो वि भण्णइ जहा - पुत ! न तुमे निच्चं बाहिं गंतवं । जम्हा मिगया अहम्मो कायकिलेसहेऊ, सत्तुआह गाइगोयरत्तणं वाइयपित्ताइणिबंधणं भोगंतरायं, ता गीयकव्वनट्ट विणोएणं धम्मियजणसंगमेणं अंते उरपरिवारणेणं चिट्ठसु । मासमेत्तेण दिणमेगं कोऊहलेण रायवाडीए गंतवं न सेसदिणेसु' इति । 30 पडिस्सुयं रन्ना । भणियं लोयाणं सवं । कुमारो वि भणिओ जहारिहं, पडिस्सुयं च तेण वि सुत्थीभूयं सवं । 10 अन्नया समागओ तत्थ चित्तंगदो नाम केवली बहुसिस्सगणसंपरिवुडो । णिग्गओ लोगो वंदणवडाए । राया व सह कुमारेण सपरियणो गओ । वंदिय णिविट्ठा सव्वे वि सट्टाणे । पत्थया भगवया देसणा । कहंतरे पुच्छियं राइणा - 'किं जम्मंतरे कयं सुकथं सूरदेवकुमारेण, जेण उरालसद्दा 1 B C तहा । 2 C गीयण कथावि° । Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२१ व्याख्या साधुजनापमाननिवारणविषयक-धनदेवकथानकम् । जसकित्तिगब्भिणा दिसि दिसि पसरंति । कामिणीणं हिययदइओ पियंवओ पियदंसणो पूण्णिमाचंदो व्व सयलकलापडिपुण्णो' । भणियं केवलिणा- 'णरनाह ! णिसुणेसु कुसत्थलं नाम नयरं । तत्थ हरिचंदो नाम राया । तत्थ य नयरे धणदेवो नाम सेट्ठी अहेसि । अहिगयजीवाजीवो उवलद्धपुण्णपावो, गहियसम्मत्तमूलाणुव्वओ, चेइयजइपूयारओ, साहम्मियवच्छलो, इब्भ-सत्थाह-निगमजणस्स चक्खुभूओ, मेढिभूओ, बहुसु कजेसु पुच्छणिज्जो, सम्मओ, बहुमओ, सावगधम्म परिवालेइ । अण्णया विदत्तबंभणेणं अकारणकुविएणं देसंतरागओ सुव्वयसूरिसाहुसंघाडओ भिक्खमडतो दिट्ठो। उण्हेण परिताविज्जइ त्ति छत्तेहिं रुंधाविओ। दिट्टो सेट्टिणा वंदिओ य । भणिओ- 'कीस भंते ! उण्हे चिट्ठह ?' । भणियं गुणचंदजेट्ठसाहुणा- 'विट्ठदत्तमाहणेणं रंधाविया छत्तेहिं, न देइ हिंडिउं' । सो य पासायउवरिठिओ भणिओ सेट्टिणा – 'भद्द ! कीस साहुणो उबद्दवेसि?' । सो भणइ – 'मम एएहिं कम्मणं कयं तेण एवं करेमि' । भणियं सेट्ठिणा - 'गच्छह भंते ! वसहीए' । 10 गलए' गाहिया छत्ता मणूसेहिं । ते पुक्करिउमाढत्ता । विठ्ठदत्तो उप्पि ठितो भणइ- 'अरे किराड ! कीस मुहा मछु पत्थेसि' । न किंचि भणियं सेट्ठिणा । गया साहूणो सट्ठाणे, सेट्ठी वि । तम्हा सइसामत्थे आणाभट्टमि णो खलु उवेहा । अणुकूलगोयरोहिं अणुसट्ठी होइ कायव्वा ।। इति वयणं सरंतो गओ रायकुले । भणिओ राया- 'देव ! अनार्यैर्निर्दयैः पापैरभिभूतांस्तपोधनान् । ज्ञात्वा स्वतोऽन्यतो राजा पितृवत् त्रायते ततः ॥ ज्ञानध्यानतपोयुक्तान् मोक्षाराधनतत्परान् । पडंशं लभते धर्मात् साधून रक्षन् नराधिपः ॥ अपरः प्राह - पुण्यात् षड्भागमादत्ते न्यायेन परिपालयन् । सर्वदानाधिकं यस्मात् प्रजानां परिपालनम् ॥ अन्यस्त्वाह – पादो धर्मस्य कर्तारं पादो याति सभासदम् । पादः स्थानादिदातारं पादो राजानमृच्छति ॥ अन्यः पुनरिदमाह - न्यस्तदण्डान् जिताक्षांश्च भिक्षाहारानकिश्चनान् । तत्पुण्यं लभते धर्म राजा रक्षस्तपोधनान् ॥ एवंविधानि पूर्वर्षिवाक्यानि' । भणियं रन्ना- 'सेट्ठि ! किमेयं ?' । सेट्टिणा भणियं - 'देव विठ्ठदत्तमाहणेण साहुणो छत्तेहिं निरुद्धा उण्हे । ता अरज्जगे एवं जुज्जइ, न देवे धरते एसा नीई एत्तियं कालमहेसि । संपयं देवो पमाणं' । भणिओ रन्ना तलारो- 'सिग्यं तं डोड्ड आणेहि' । एत्यंतरे सो वि भूरिडोड्डे समाहूय समागओ रायकुलदुवारे चिट्ठइ । पडिहारनिवेइया पविट्ठा 'स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवा' इत्यादि भणित्ता अक्खए समप्पेंति, न गहिया नरवइणा । उवविट्ठा 30 धरणीए । भणियं रण्णा- 'किं तुब्भे रायाणो किं वा अहं ? । भणियं माहणेहिं - 'किमेयं पसिणिज्जइ ?' । भणियं रन्ना - 'राइणो इव जेण तुब्भे ववहरह' । भणियं माहणेहिं - 'केहिं कहिं वा । 1C नास्ति । 2 B C अपरस्वाह। 3 B C पसणिज्जइ । Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ श्रीजिनेश्वरसूरिकृत-कथाकोशप्रकरणे [२० गाथा भणियं रण्णा- 'कीस साहुणो किलेसिया ?' । सो डोड्डो भणइ – 'मम तेहिं कम्मणं कयं, ता ते निगृहेमि । पक्खित्तो णासओ धणदेवसेट्ठिणा लक्खेणं दीणाराणं' । राया भणइ – 'तेहिं भो कम्मणं कयं, मम साहेयवं । अहं दंडं निबत्तिस्सामि, के तुब्भे?' । सेट्ठी भणइ - 'उक्खिवह नासयं' । डोड्डा भणंति न अम्ह दीणारलक्खमस्थि । राया भणइ – 'जइ तेहिं जंताइयं कयं ता ताणं हत्थच्छेयं 5 कारेमि, अह तेहिं न कयं तुन्भेहिं असंतमुल्लवियं ता तुम्ह जीहाछेदो कीरइ । करेह सुद्धि, सिरे बंधह' । भणियं माहणेहिं - 'महाराय ! किं बंभणाणं अभिमुहं एवं जुज्जइ समुल्लविउं ? न जातु ब्राह्मणं हन्यात सर्वपापेष्वपि स्थितम् । राष्ट्रात् त्वेनं बहिः कुयोत् समग्रधनमक्षतम् ॥ रना भणियं - किं न सुयं तुब्भेहिं - ये क्षान्तिदान्ताः श्रुतिपूर्णकर्णा जितेन्द्रियाः प्राणिवधानिवृत्ताः । प्रतिग्रहात् संकुचिताग्रहस्तास्ते ब्राह्मणास्तारयितुं समर्थाः ॥ न जातिमात्रेण अकार्यप्रवृत्तोऽपि ब्राह्मणो भवति । ता सुद्धिं करेह, उयाहु निविसया होह । अण्णा भे नत्थि गई' त्ति । एत्थंतरे भणियमेगेण डोड्डेणं - 'महाराय ! अन्नाओ मे गलए ओलएमि लग्गो, एवं भणंतस्स तुह' । तओ रन्ना सन्निया भूविक्खेवेण पुरिसा । गहिया तेहिं जमग-समगं सव्वे 15 माहणा । भणियं च- 'कीस सयं मरह, अहं चिय मारावेमि' । भणियं माहणेहिं- 'महाराय ! किं सुद्दाहमाणं कए एवं माहणाणं णिद्दयं काउमुचियं । भणियं रन्ना- 'किं डोरएण तुब्भे माहणा, उयाहु किरियाए ?; जइ सुत्तमित्तेण, ता ण कोइ अबभणो होज्जा । अह किरियाए, ता साहुवहनिरयाणं उम्मग्गपयट्टाणं, का तुम्ह किरिया ?, न साहुवहकिरियाए माहणेहिं भविजइ । एवं डंब-चंडालादओ माहणा पसज्जंति । अह होमकिरियाए, तहावि न साहुजणकिलेसकारिणो माहणा' । भणियं 20 माहणेहिं - 'अरे किराड ! तुह बंभहच्चा', कहिं गओ मुच्चसि ?' । भणियं रन्ना- 'मए तुब्भे अण्णा यकारि त्ति रुद्धा गहिया; किं किराडं परिसवह । जइ काइ भे सत्ती ममं भणह, नीईए वा वट्टह । न किंचि वायाडंबरेणं । नवरं न ममाहिंतो अत्थिं मोक्खो, जइ ते साहुणो गंतूण खामेह सेटिं च । तओ मण्णियं माहणेहिं । खामिया साहुणो सेट्ठी य । जाओ वण्णवाओ लोए । अहो सेट्टिणा साहुणो पहाविय ति । तओ सावगधम्मं पालिऊण गओ देवलोए । तओ चुओ एसो तुम्ह गेहे समुप्पण्णो ति । 25 ता साहुसम्माणकारणेण एवंविहो सूरदेवकुमारो जाओ सुरूवो त्ति । एत्थंतरे केवलिवयणं सुणंतस्स ईहापोहं करेंतस्स समुप्पण्णं जाईसरणं सूरदेवकुमारस्स । तओ मुच्छावसाणे आगयसंवेगो पायपडिओ भणिउमाढत्तो- 'अवितहमेयं भंते ! ममावि पच्चक्खीभूयं सव्वमेयं जाईसरणाओ । ता संपयं विरत्तं मे चित्तं संसारनिबंधणधण-परियण-कामभोगेहिंतो; भीओ णरयपडिरूवाओ गब्भवासाओ। णिविण्णो जम्मण-मरणेहिं । उविग्गं चित्तं गिहवासपासाओ। ता तुम्ह पायसरणं 10 संपयं ति । संसारावडपडियस्स तुब्भे हत्थालंब दाउं समत्था, मिच्छत्ताविरइकसायसप्पदुट्ठविसघारियस्स तुब्मे परमगारुडिया, रोगाइतक्करमोयणे तुम्भे परमसूरा; ता नित्थारेह मं इमाओ महावईओ'। भणियं भगवया- 'महाभाग ! अम्मापियराणुण्णाओ कुणसु जहिच्छियं' । उट्ठिया सव्वपरिसा। गओ राया कुमारो य सगिहं । जणणि-जणयाण पुरओ भणिउमाढत्तो 1 A बंभवज्झा । 2 A होइ । Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या ] साधुजनापमाननिवारणविषयक-धनदेवकथानकम् । १२३ सरणविहूणो अणाहो परमाहम्मियवसंगओ ताय । अनियत्तगिहारंभो दुक्खाण निकेयणं होजा'॥ ता तह कुणह पसायं पियरो जह तेसि गोयरो कह वि । न हु होमि होमि सिवसोक्खभायणं तह दयं कुणसु ॥ भणियं पियरेहिं तओ पुत्तय ! एयं तु किं तए न सुयं । एक्कं पि सुपरिसुद्धं सीलंगं सेससब्भावे ।। एक्कंमि वि भग्गंमी सव्वे णासंति ता कहं चरणं । उवउत्तो वि न पुढवीकणेरुयं किं विराहेज्जा ॥ । कायकिरियाए पुत्तय! लद्धा छच्चेव ताणओ सहस्सा । एक्कविणासे सव्वे विणासिया कत्थ पव्वज्जा ॥ ___ कुमारेण भणियं - पायच्छित्तविहाणं सव्वमणत्थं पसज्जए एवं । परिणामे किरिया यव पायच्छित्तं तु उल्लविङ ।। जइ सव्वस्स न ताया सीलंगसहस्स जति णिव्वाहं । ता कह केवलणाणं तेण विणा सावगा कहणु ॥ ता दंसणवोच्छेओ केवलिजोगे वि पावई एवं । एसा य परा ताया भगवंतासायणा भणिया ॥ केत्तियमित्तं अन्नं भगवंतासायणाओ दुत्तरिया । पाडेइ जम्ममरणाउलंमि संसारनइनाहे ॥ भणियं रन्नाआगमियं ववहारं ववहरमाणाण पुत्तय! न जुत्ता। आसायणा जिणाण उ इहरमुणीणं पि सा होजा ॥ भणियं च सुए पुत्तय ! एक्कंमि वि नासियंमि जं सव्वे । नासंति इहरसंखागहणं पुत्ता मुहा होज्जा ।। भावो जइ से ऊणो कह णु पवज्जेज्ज सव्वविरईओ। अह पच्छा से ऊणो तहावि कह सव्वविरईओ ।। 15 ता' पुत्त दव्वओ वि हु एयाण विणासणं विणिद्दिटुं । सेससीलंगणासणणिबंधणं किं पयासेण ॥ इहरा ण चारणाए अट्ठारससहस्सआणणं जुतं । लेसेण विपरिणामे णडे णट्ट ति वत्तव्वा ॥ भणियं सूरदेवेणएत्तो च्चिय विन्नवियं तायस्स मएण होइ एयं जं । पडिवालणेण एसो पडिवत्तीए कमो एसो ॥ इहरा पायच्छित्तं छेयंत कह णु पाउणिज्जति । तं पुण भणियं सुत्ते पुढवीसंघट्टणाईसु ॥ __ अण्णं च - अपमत्तगुणवाणं एग चिय ताय होज ण पमत्तो । समिईसु किं पमत्तो सीलंगविणासणो न भवे ॥ ता कह सुत्ते भणियं नालिं पक्खिवइ सोहए कुंभं । जे संजए पमत्ते बहुणिज्जरबंधए थोवं ॥ भणियं रण्णा, तहा वि दुरणुचरो पुण एसो मग्गो वर कुमर ! किं न याणासि । सेज्जायरपिंडाइसु अवंदणिज्जा जई भणिया । ता पुत्त कयाइ इमं हवेज कायव्वयं तु तुज्झ वि य । ता कह अवंदणिज्जो होहिसि पुत्ता ! तुम तेसिं ॥ __ भणियं कुमारेण - निकारणमि ताया एसस्थो कारणा ण एवं तु । तं पुण नियगमईए ण कप्पियं सुत्तविरहेण ॥ 30 किं चसबजिणाणं ताया ! बकुस-कुसीलेहिं वट्टए तित्थं । णवर कसायकुसीलो अपमत्तजई वि संतेणं ॥ 1C होहं। 2 A पचा। 3 A तह। 4 B C दव्वजोग्ग एयाण। 5 B कारणे । Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ श्रीजिनेश्वरसूरिकृत-कथाकोशप्रकरणे [२० गाथा ता तरतमजोएण सया वि नरनाह ! साहुणो नेया। बउसा वि बहुवियप्पा जाण कुसीला वि बहुभेया ॥ __ अन्नं च-किरियाओ कहिंचि णाणमेव पहाणतरी। अन्नाणसंजमेणं देसस्साराहगो सुए भणिओ । अस्संजमणाणाणं देसस्स विराहगो भणिओ ॥ कालाइदोसरहियं अंगाणगं सुयं विणिदिदं । सम्मं सुत्तत्थपए परूवयंतो स विन्नेओ ॥ 5 कीस मुहा परितम्मसि ताया मह पुतओ कहं होही । जं उस्सग्गववायाण' जाणगा साहगा तस्स ।। जे उ असग्गहजुत्ता सम्मं गुरुलाघवं अयाणंता । मन्ने अभिन्नगंठी पाएण न ते पमाणं तु ॥ नियमइवियप्पिएणं जिणवयणं भणइ जो अयाणतो । कुग्गहवसपडिवन्नो स बोहिबीयं हणइ नियमा* ॥ जो जुत्तिणयपमाणेहिं बाहियं अप्पणा समुल्लविउं । जिणवयणं ति परूवह तेण पमाणं सुयं ण भवे ॥ तत्तो विसिट्ठजणअप्पविचिओ हंदि तित्थवोच्छेओ । न विसिट्ठजणेण विणा तित्थस्स पभावणा ताय! ॥ "ता नरसामिय ! णाणा तित्थस्स पभावणा ण किरियाओ । तबिरहियाओ ण खमं परूवणं ता अगीयस्स ॥ परहियनिरओ अरिहा बकुस-कुसीला य दिक्खए कीस । जइ ते संजमवियला पवयणहाणी तहा तत्तो॥ तहापासत्थाइण अन्नो पमत्तगुणठाणयाओ विण्णेओ । अण्णह गुणठाणाइं पन्नरस हवेज ण य होंति ॥ पासस्थाईयाणं अब्भुट्टित्ताण जेसि पच्छित्तं । मूलाईयं वुत्तं ते निच्चरणा ण उण अन्ने ॥ किं चअन्नाणियमच्छरदूसिएहिं परजीविएहिं पावेहिं । गिहिसंजयवेसविडंबगेहिं मुद्धोवजीवीहिं ॥ जा जस्स ठिई जा जस्स संतई पुत्वपुरिसकयमेरा । सो तं अइक्कमंतो अणंतसंसारिओ होइ ॥ एमाइ पदंसेउं मुद्धजणं पाडिऊण नियगवसे । उवजीवंति वराया एगभवं बहुगुणं काउं । पव्वज्जाए पसत्ता मुद्धजणं ताय ! अह पयारेत्ता । जे वि य उवजीवंती तवस्सिणो भासियं एयी। 20 जइ पव्वज्जा होज्जा ता किं अम्हे ण पव्वएज्जामो । जं तीरइ तं कीरइ थेवं पि विराहियं न वरं ॥ -एवं पि जुत्तिजुत्तं सव्वअहिक्खेवणं न जुत्तं ति।। तेसि ण जुत्तं चरणं न य सम्मत्तं न देसविरइ त्ति । ता अलमिमिणा कीरउ अणुग्गहो मह महाराय !॥ __ रन्ना भणियंजइ पुत्त ! तुज्झ रज्जे नत्थि रुई ता किमेत्थ वत्तव्वं । जं तुह सिणेहमूढेहिं जंपियं तं खमेजाहि ।। [25 तओ निरूवियं लग्गं । समाढत्ताओ जिणाययणेसु अट्ठाहियामहिमाओ । कयं चारगसोहणं, घोसाविया अमारी, पडिलाहिओ साहुवग्गो वत्थाईहिं । तओ सामंतामञ्चकुमारपरिवारिओ महाविभूईए सहस्सवाहिणीसिबियारूढो सत्थिक्कारिजंतो माहणेहिं, थुन्वमाणो मागहेहिं, गिजंतो गायणेहिं, साहिलासं पलोइजंतो पुरबालियाहिं, दाविजमाणो अंगुलिसहस्सेहिं, पलोइज्जमाणो ‘णयणसहस्सेहि, जयजयावि जंतो अत्थथिएहिं, देंतो वरवरियादाणं, अम्मापिईहिं सह परियणेहिं अणुगम्ममाणो पत्तो उज्जाणे । 30 विहिणा वंदिओ चित्तंगयकेवली। पव्वाविओ पंचसयपुरिसपरिवारिओ केवलिणा सूरदेवकुमारो । भणंति पासट्ठिया जणणि-जणया- 'पालियत्वं जाया, परक्कमियवं जाया, जइयव्वं जाया, खणमवि अस्सि t-1 इयं पंक्ति!पलभ्यते BC आदर्शद्वये। 1Cवायाणं वियाणगा। * B'स हणइ बोहिं सकिरिओ वि।' 2 A उवजीविजइ जेहिं। 1 BC आदर्शद्वये 'उवजीवंति वराया एगभवं बहुगुणं काउं ।' एतादृशो गाथोत्तरार्द्धः । TA आदर्श न विद्यते इयं पंक्तिः। 3 B C परिगओ। 4 BC लोयण। 5BC नास्ति 'सह परियणेहिं'। 6A घडियव्वं । Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या ] विपरीतज्ञानफलविषयक- धवलकथानकम् । १२५ अट्ठे नो पमाइयां' ति । वंदिता गया सव्वे वि नियगेहेसु । सूरदेवरिसी वि अहिज्जिउमाढत्तो । अहिज्जियाई चोहसपुव्वाई | ठाविमो केवलिणा सूरिपए । बहुकालं विहीए गच्छं पालिऊण, णिययपए अण्णं सूरिं ठाविऊण, कयअणसणो अंतगडो केवली जाओ ति । अओ भण्णइ - जिणसासणे साहूण अवमाणं कीरतं पाविएहिं न सहंति ते धणदेवसेट्ठि व आराहगा भवंति मोक्खस्से चि । ॥ धणदेवसेट्ठिकहाणयं समत्तं ॥ ३१ ॥ उपदेशान्तरमाह - * अदिट्ठसमयसारा जिणवयणं अण्णहा वियारेत्ता । धवलो व्व कुइभायणमसइं जायंति इह जीवा ॥ २१ ॥ व्याख्या – 'अदृष्टसमयसारा' - अविज्ञातसिद्धान्तपरमार्थाः, 'जिनवचनं' - सर्वज्ञभाषितम्, अगीतार्थत्वात्, ‘अन्यथा विचार्य' - विपरीतमवधार्य, 'धवलवणिक् पुत्र इव', 'कुगतिः' – नरकतिर्यग्ररूपा, 10 तद् 'भाजनं' - तदाधारा, 'जायन्ते' - संपद्यन्ते, 'असकृद्' - अनेकशः, 'इह' - जिनमतेऽपि वर्तमाना 'जीवाः' - प्राणिन इति । भावार्थः कथानकादवसेयः । तच्चेदम् - ३२. धवलकथानकम् । sa भार वासे अस्थि जयउरं नाम नयरं । तत्थ य नियविक्कम कंतरिउविक्कमो विकमसेणो णाम राया । तस्य सयलंतेउरपहाणा विजियसुरसुंदरीललिया ललिया नाम महादेवी । तस्स 15 राइणो तीए सह विसयसुहमणुहवंतस्स जाओ पुत्तो । कयं से नामं विक्कमसारो ति । वडिओ' देहो -' वचएण कलाकलावेण य । तस्स य रण्णो मइविहवो नाम पहाणमंती । रई से भारिया । तीए पुत्तो सुबुद्धी नाम विक्कमसारस्स बालवयंसो समाणवओ कुमारामच्चो । पत्ता दो वि कमेण जोव्वणं जुबई - जणमणहरं । सूरो साहस्सिओ चाई विक्कमसारो । 5 — अण्णा आसवाहणियाए निग्गओ सह सुबुद्धिणा कुमारो । आवाहिआ कमेण आसा । एत्थंतरे 20 दूरदेसाओ पाहुडेण पेसिया विवरीयसिक्खा उवणीया दुवे आसा कुमारस्स | ताण वाहणनिमित्तमारूढो कुमारो एगत्थ, बीए सुबुद्धी । तेहिं वेगपहाविएहिं अवहरिया दो वि कुमारा । पाडिया अडवीए । परिस्संता दूरदेसगमंणखिण्णा निवडिया तुरया । तिसाए अभिभूषा दो वि कुमारा । जाव पाएहिं वच्चंति तावदिहं तं महंतं जलभरियं सरोवरं, अणेयतरुतंड मंडियं, गयणयल मणुलिहंत देवउलभूसियपालिपरिखितं । उइण्णा दो वि सरोवरे । व्हाया, पीयं पाणियं । समासत्था पविट्ठा देवउले । दिट्ठा तस्स 25 मज्झट्ठिया जक्खिणीपडिमा । पणविऊण नीहरिया । तदंगणे महंतो दिट्ठो णग्गोहपायवो । आरूढा तत्थ, न एत्थ सावयाइभयं भवइ ति बुद्धीए । एत्थंतरे अत्थंगओ सूरिओ । आगया रयणी । पसरिओ तिमिरसमूहो । वासंति घूया । फेक्कारंति सिवाओ । गुंजारिति वग्घा । अभीयमाणसा दो वि कंचि कालं कहाए अच्छिऊण पसुता वियडसाहा - कोत्थरुच्छंगे । जाव अङ्कुरत्तकालसमयंसि निसुओ भीसणडमरुयसहो । किमेयं ति समुट्ठिया दो वि । 30 हट्टिया पलोइउं पता । जाव समागया दुवे कावालिया जक्खिणीए पुरओ देवंगणे । एगेण आलिहियं मंडलं, पउणीकथं होमकुंडं, पज्जालिओ तत्थ अग्गी । मंडलपासेसु पज्जालिया पुरिसवसाए दीवया । 1 A उद्विभो । Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ श्रीजिनेश्वरसूरिकृत-कथाकोशप्रकरणे [२१ गाथा आलिहिओ णियरुहिरेण माणुसकरोडीए मंतो । पउणीकयाइं रत्तकणवीरकुसुमाइं । कयं पउमासणं । समारद्धो विज्जासाहणविही । जविऊण मंतं कणवीरकुसुमेहिं अच्छोडेइ मंतक्खराइं; बीओ खग्गवग्गकरो ठिओ उत्तरसाहगो देवउलबलाणगपएसे । एवं एगग्गमाणसस्स जावं देंतस्स कावालियस्स पुरओ मंडले सहस त्ति निवडियाओ आगासाओ अईवरूवकलियाओ पढमजोव्वणे वट्टमाणीओ दुवे कण्णगाओ। 5 गहियाओ कावालिएण । मंडियाओ वज्झमंडणेण । सविसेसं पज्जालिओ कुंडे अग्गी। भयकंपंतगत्ताओ भणियाओ कावालिएण उग्गीरियनिसियकत्तियाहत्थेण - 'सुमरह इट्ठदेवयं, एत्तिओ तुम्हाण जीवलोगो' । एगाए कण्णगाए भणियं- 'हा! हा! न जुत्तं तुज्झ, पव्वइओ इव दीससि, निग्घिणकम्म इत्थिवहं कीस कुणसि' । कावालिएण भणियं- 'जक्खिणीपूयं कण्णाइत्थीजुवलहोमेण करिस । सा सिद्धा मे सव्वकामियं णिहाणं पयच्छिस्सइ । ता सुमरह इट्टदेवयं' । तओ मरणभयभीयाए पुक्कारियं ॥ कण्णगाए- 'अहो अपुरिसा पुहई, अहो अपुरिसा पुहई ! जेण अम्हे एएण एवं मारेजामो' ति । तं सोचा विक्कमसारो समुट्ठिओ खग्गं गहाय । ओइण्णो णग्गोहाओ । हक्किओ कावालिओ । इयरो उढिओ कतियं गहाय । कयं जुद्धं । मारिओ कुमारेण । आसासियाओ कण्णगाओ । भणियाओ- 'काओ तुब्मे, कहिं वसह ?' । एगाए भणियं – 'पाणदायग ! निसुणेसु - सीहउरे नयरे कित्तिधम्मो राया । तस्स कुमुइणीए देवीए धूयाहं पउमसिरी नाम । एसा वि 15 मज्झ वयंसिया उसहसेट्टिधूया भाणुमई नाम । सह जायाओ, सह वड्डियाओ, पीईए एगस्थ अभिरमामो । पत्ताओ जोव्वणं । अन्नया तत्थागओ णेमित्तिओ। पुट्ठो ताएण – 'को एयाणं कण्णगाणं भत्तारो होही' । भणियं णेमित्तिएण - 'इओ मासमित्तेण एयाओ विजासामत्थेण रयणीए कावालिओ अवहरिस्सइ । अरन्ने देवयापुरओ बलिहोमणिमित्तं तत्थ मारिजंतीओ तेण कावालिएण, जो एयाओ रक्खिही, सो पउमसिरीए भत्ता । भाणुमईए वि तस्सेव मित्तो भत्तारो भविस्सइ' त्ति भणिऊण गओ 20 णेमित्तिओ कयसम्माणो रन्ना । अम्हे वि अज रयणीए सह पसुत्ताओ कह वि इहाणीयाओ इमेण पावेणं ति । आसासियाओ कुमारेण । जाव पहाया रयणी । आणंदिया कुमारखवदंसणेण पउमसिरी; सुबुद्धीदसणेण भाणुमई वि । जाव परोप्परं वड्डताणुरायाणि तत्थ अच्छंति, ताव तुरयअणुमग्गेण आगयं कुमारसेण्णं । नीयाओ दो वि जयउरे । पेसिया सीहउरे गोहा । तेसिं साहिया पउत्ती कित्तिधम्मस्स सेट्ठिणो य । दिण्णाओ जणणि-जणगेहिं, परिणीयाओ महाविभूईए पउमसिरी विक्कमसारेण, भाणुमई 25 सुबुद्धिणा । जायाओ पाणपियाओ । अण्णोण्णं सिणेहसाराणं विसयसुहमणुहवंताणं वचंति वासराई। अण्णया विक्कमसेणो राया मओ। जाओ राया विकमसारो; सुबुद्धी तस्स मंती । भाणुमई वि जाया घस्सामिणी । सुबुद्धी सावगो तीसे धम्मं कहेइ । सा पुच्छइ पउमसिरी, तीए पुण पुव्वकम्मवसाओ न पडिहाइ जिणधम्मो । तओ तीए मंतक्खेवेण भाणुमई वि ण सम्मं जिणधम्म पडिवज्जइ । अण्णया समामया चउणपणोववेया समंतभद्दाभिहाणा सूरिणो बहुसिस्ससंपरिवुडा जयपुरे । ठिया सहसं"बवणे उज्जाणे । णिग्गया परिसा । वद्धाविओ राया उज्जाणपालएणं, जहा- 'देव ! सहसंबवणे उज्जाणे सेयंबरायरिओ महइमहालियाए परिसाए मज्झगओ धम्ममाइक्खमाणो चिट्ठइ । एत्थ देवो पमाणं' । निस्ववियं स्ना पउमसिरीए वयणं । भणियमणाए- 'देव ! ण मे सेयंबराणं संतिओ धम्मो रोयइ । तम्हा ते लोय-बेयविरुद्धं धम्ममाइक्खंति । जं लोए वि विरुज्झइ तं कहं परमपयसाहगं होज्जा'। मणियं रन्ना- 'गम्मउ ताव, एवं पि तत्थ गया पसिणिस्सामो । सद्दाविओ सुबुद्धी सह भाणुमईए । Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या ] विपरीतज्ञानफलविषयक-धवलकथानकम् । १२७ सज्जिया रहा । आरूढाणि तेसु सव्वाणि । पत्ताणि कमेण उज्जाणे । विहिणा ओंम्गहे पविट्ठामि, तिपयाहिणीकाऊण वंदिय उवविट्ठाणि सट्टाणे । पत्थाविया देसणा सूरिणा । एत्यंतरे जणप्पवायं निसामिय पंतचीवरधरो भिणिभिणं तमच्छियानियराणुगम्ममाणमग्गो जल्ल मलकिलिन्नगत्तो, उबियणिज्जो तरुणीणं, किरिडावासो कुमारगाणं, उवहासपयं जोव्वणाभिमाणीणं, करुणाणिकेयणं विवेगजुत्ताणं, दिट्ठतो पावफलाणं, एगो अंधपुरिसो तदागरिसगसिसुनीयमाणो समागओ तत्थ । भगवंतं वंदिय निविट्ठो एगंते । दिट्ठो रन्ना । पुट्ठो सूरी - 'भयवं ! किमेतेण जम्मंतरे कयं पावं, जस्स विवागाओ एरिसो दुखिओ एस जाओ ?' त्ति । भणियं सूरिणा - 'महाराय ! निसुणेसु - इव भार वासे अउज्झाए णयरीए चंदकेऊ राया । तत्थ नयरीए तिण्णि वाणिया धवल- भीमभाणामाण अवरोप्परं बद्धाणुराया समायव्वया सह संववहारिणो परिवसंति । सावयधम्मं परिपार्लेति । अण्णा साहुविहारेण विहरंता समागया अजियसेणणामसूरिणो । समोसढा नंदणुज्जाणे । जाओ 10 णयरीए पवाओ - एयारिसा सूरिणो समागया । निग्गओ राया सह नायर लोगेण वंदणवडियाए । धवल - भीम - भाणुणो वि णिग्गया । वंदिय निविट्ठा सट्टा स वि । पत्थुया देसणा । तं जहा - भो भो ! भद्दा ! विसया सुहहेऊ, किल ते य आवायसुंदरा, परिणामदारुणा किंपागफलोवमा । मिच्छतं सव्वाणत्थनिबंधणं । तं पुण पंचविहं - 1 अभिग्गहियं ( ) अणभिग्गहियं ( 2 ) तह अभिनिवेसियं ( 2 ) चेव । संसइय (४) मणाभोगं (५) मिच्छत्तं पंचहा होइ || तत्थ – ( १ ) आभिग्गहियं कुदिट्ठिदिक्खियाणं गाढतरमेयं जीवाण दीहतरसंसारियाण पायसो होइ । ( २ ) अणभिग्गहियं पुण असंपत्तसम्मत्ताणं कुदिट्ठिअदिक्खियाणं मणुयतिरियाणं । (३) आभिणिवेसियं तु संपत्तजिणवयणाणं एगेण सब्भावपरूवणकए मच्छराइणा तमण्णहा वागरेमाणाणं; पडिनिवेसेण वा - मया एस अत्थो समत्थणीओ त्ति; अणाभोगेण परूइए वा । पच्छा नाए 20 वि वत्थुतत्ते सभणियपडिप्पवेसेण वा अजाणंतो वा भावत्थं परूवेइ । वारिओ विण चिट्ठइ । एएसिं जीवाणं आभिनिवेसियं मिच्छतं । 1 (४) संसइयं पुण सुते अत्थे वा उभयंमि वा संकिओ परूवेइ । सो य अन्नं न पुच्छइ । कहमहमेद्दहपरिवारो वि अण्णं पुच्छामि । पुच्छिज्जमाणो वा जाणेज्जा एस एयं ण जाणइ त्ति । अहवा जे मह भत्ता ते जाणेज्जा - एयाहिंतो वि एस वरतरओ, तओ पुच्छिज्जइ । तओ ममं मोचूण एते एयं भइ - 25 संति । तओ अण्णं न पुच्छइ । तस्स संसइयं मिच्छत्तं । (५) अणाभोगं एर्गिदियाणं | जम्हा आभोगो ताव उवओगो' भण्णइ । एयं केरिस, एयं एवं ति । एसो पण तेसिं णत्थि तेण तेसिमणाभोगं मिच्छत्तं । अहवा सुद्धं परूवइस्सामि, अणुवओगाओ असुद्धं परूवियं, तं पि अणाभोगं, परेसिं मिच्छत्तकारणत्तेण । 15 एयं पुण पंचविहं पि मिच्छत्तं थूलभावेण परमत्थओ विवज्जासो । सो पुण एवं - न मए, मम पुल्ब - 30 पुरिसेहिं वा कारियं एयं जिणाययणं; किं मम एत्थ पूयासक्काराइआयरेण । अहवा मया एयं जिण 1 B C नास्ति पदमिदम् । 2 A णाणमुवओगो । Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ श्रीजिनेश्वरसूरिकृत-कथाकोशप्रकरणे [२१ गाथा बिंब कारियं, मम पुत्वपुरिसेहिं वा; ता एत्थ पूयाइयं निव्वत्तेमि; किं मम परकीएसु अधायरेणं । एवं च तस्स न सव्वण्णुपच्चया पवित्ती । अण्णहा सबेसु बिंबेसु अरिहं चेव ववइसिज्जइ । सो अरिहा जइ परकीओ, ता पत्थरलेप्पपित्तलाइयं अप्पणिजयं । न पुण पत्थराइसु वंदिजमाणेसु कम्मक्खओ, किं तु तित्थयरगुणपक्खवाएणं । अण्णहा संकराइबिंबेसु पाहणाइसब्भावाओ तेसु वि वंदिज्जमाणेसु कम्म5 क्खओ होज्जा । मच्छरेण वा परकारियचेइयालए विग्घमायरंतस्स महामिच्छतं । न तस्स गंठिभेदो वि संभाविज्जइ । जे य पासत्थाइकुदेसणाए विमोहिया सुविहियाणं बाहाकारा भवंति, ते वि तहेव । जे वा जाइ-णाइपक्खवाएण साहूणं दाणाइसु पयट्टति, न गुणागुणचिंताए, ते वि विवज्जासभायणं । जम्हा गुणा पूयणिज्जा, ते चेव दाणाइसु पयट्टति, तेण णिमित्तं कज्जंतु, किं जाइ-णाइपभिईहिं । जओ सजाईए निद्धम्मा वि अत्थि, नाईसु य । ता तेसु दाणं 'महाफलं होज्जा । अह तेसि गुणा अस्थि, 10 तहावि ते चिय पविसिनिमित्तं दाणाइसु कीरंति, न किंचि जाइसयणाइणा । एयम्मि य विवज्जासरूवे मिच्छत्ते सइ सुबहुं पि पढंतो अन्नाणी चेव । न हि विवरीयमइणो णाणं कज्जसाहगं । तओ अण्णाणं तं । एएसु य होतेसु अइदुक्करा वि तवचरणकिरिया ण मोक्खसाहिगा । जम्हा सो जीवरक्खा मुसावायाइवजणं करेंतो वि अविरओ कहिज्जइ । पंचमगुणट्ठाणे देसविरई, छट्टगुणट्ठाणे सव्वविरई, न पढमगुणट्ठाणे । तस्स य अणंताणुबंधिपमुहा सोलस वि कसाया बझंति उइजंति य । तन्निमित्ताओ 15 असुहाओ दीहट्टिईओ तिव्वाणुभागाओ पयडीओ बझंति । तासिं च उदए णर-णरय-तिरिय-कुमाणुसत्त कुदेवगइरूवो संसारो, तन्निबंधणाणि च भूरि दुक्खाणि पिट्ठओ अणुसजंति । एयं णाऊण भो भो महाणुभावा ! सम्मत्तणाणचरणेसु जइयत्वं । तेसु बहुमाणो कायबो' । ___ एत्थंतरे भणियं धवलेण-'मा मा एवं भणसु । जं नं मया मम पियरेहिं वा एयं जिणभवणाइ कारियं पयस॒तस्स विवज्जओ त्ति । एवं न सद्दहामो । जइ जिणभवणबिंबमहूसवपूयाइकरणा विवज्जासो, 20 ता सम्मत्तकारणं न किंचि वि अत्थि' । भणियं सूरिणा- 'भद्दमुह ! ण परमत्थओ सा जिणालंबणा पवित्ती । यदाह - समयपवित्ती सव्वा आणाबज्झ त्ति भवफला चेव । तित्थयरुद्देसेण वि न तत्तओ सा तदुद्देसा ॥ मूढा अणाइमोहा तहा तहा एत्थ संपयस॒ता । तं चेव उ मन्नंता अवमणंता न याणंति ॥ जेडेमि विजमाणे उचिए अणुजेट्टपूयणमजुत्तं । लोगाहरणं च तहा पयडे भयवंतवयणमि ॥ ता न एवं भणियव्वं-वड्डवड्डजणा एवं एवं चिय पयट्टति, ता किं ते सव्वे अयाणग त्ति । जम्हा लोगो गुरुतरगो खलु एवं सइ भगवओ वि इट्टो त्ति । मिच्छत्तमोयए य (?) भगवंतासायणनियोगा ॥ ___ भणियं भीमेण - 'धम्माधम्मा लोगववहारनिबंधणा । न हि अणि दियमग्गो केणइ धम्मत्थिणा पच्चक्खाइणा नाऊण समाइण्णो । किं तु लोगो धम्मत्थी दाणाइसु पयट्टइ' । भणियं सूरिणा- 'भद्द ! को एस लोगो ? । जइ पासंडिलोगो, सो अवरोप्परविरुद्धो ण सव्वसम्मओ काउं तीरइ । अह ___1C अह तहावि। 2 B C वडव । Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या ] विपरीतज्ञानफलविषयक-धवलकथानकम् । १२९ गिहत्थ लोगो, सो वि अवरोप्परविरुद्धसमायारो, णाणादेसेसु णाणासमायारा लोया; ता कहं एगतीभावो तम्मस्स । ता न किंचि एएण' । भणियं भाणुणा - 'जिण सासणपडिवण्णो लोगो अम्हेहिं पमाणी कज्जइ, न सेसो । दीसह बहुगाणं ताव एस ववहारो, जो तुम्हेहिं पडिसिद्धो । ता किं ते सव्वे अयाणगा ? । ते वि धम्मत्थिया कत्थइ सुयं वा दिट्टं वा तओ कुणंति । ता किं तेसिं पवित्ती समायरिज्जउ; किं वा तुम्ह एगागीणमेवंविहं s aणं' ति । भणियं सूरिणा - 'भद्द ! मम वा अण्णस्स वा सतंतस्स छउमत्थस्स वयणं न किंचि पमाणं, किं तु अम्हे जिणवयणाणुवायं करेमो । ण पुण नियगं किं पिपरूवेमो' । भणियं धवलेण - ' किं सेसजणा नियमइविगप्पियं पण्णवेंति ? । ते वि धम्मत्थिया आगमं परूवेंति' । भणियं सूरिणा – 'किं एगम्मि जिणसासणे अप्पणपणा सव्वन्नुणो, अप्पणप्पणा आगमा य, जेण 10 एवं भण्णइ ? | भवंतु वा भिण्णभिण्णा सव्वन्नुणो, तहा वि न मयभेदो तेसिं जुतो । जम्हा सो मूढाणं संभवइ । न य सव्वन्नुणो मूढा' । भणियं धवले - 'जइ वि न मयभेदो सव्वन्नुणं, तहा वि मयभेएणं देसणाओ दीसंति । ता किं अम्हारिसेहिं नज्जइ छउमत्थेहिं - एसो जिणमयं परूवेइ, एस पुण अन्नह त्ति । ता केवलणाणं उप्पाडिय सावगेहिं होय इति तुम्ह मरण पाउणइ । न य सव्वन्नुणो सावगधम्मेण सयंकरणरूवेण पओयणं । 15 ता सव्वा केवलनाणओ आरओ न कत्थइ पयट्टियवं । न य सुहपवित्तिविरहेण नाणं समुप्पज्जइ । 'ता विसममेयं' | भणियं सूरिणा - 'किह सव्वन्नुपणीय छउमत्थपणीयवयणाणं न नज्जइ विसेसो ? । पुव्वावरविरोहो न होइ सव्ववणे, इयरवयणे पुण होइ'ति । भणियं धवलेण - ' जइ एवं ता तुम्ह वयणे अम्ह विरोहो भासइ । बहुलोगप वित्तिविरुद्धं विरुद्धमेव' 1 20 भणियं सूरिणा - 'सव्वन्नुवयणे दीवगत्थाणीए कहिज्जमाणे वि जं लोगाचरियमुल्लवसि तं नज्जइ मिच्छत्तमोहणिज्जस्स कम्मरस विलसियं' । भणियं भीमेण - ' किं जीयमप्पमाणं ?' । भणियं सूरिणा - 'पमाणं, किं तु तल्लक्खणं न जाणसि' । भणियं भाणुणा - 'तुब्भे भणह' । भणियं अजियसेणसूरिणा - असढेण' समाइणं जं कत्थइ कारणे असावजं । न निवारियमनेहिं बहुमणुमयमेयमायरियं ॥ भणियं धवलेण - 'सयंकारिय-नियगकारियजिणभवणबिंबपूयाइकरणं किं सदेहिं आइण्णं ?" । भणियं सूरिणा - 'सुणेहि अक्खाणयं एगं - [ मोहकृतजिनचैत्यपूजाफलोपरि कुन्तला- आख्यानकम् ] खिड्पइट्ठिए नयरे जियसत्तू राया सावो । तस्स य सयलंतेउरपहाणा कुंतला नाम महादेवी | 30 अण्णया राया चिंतेइ - पव्वज्जं काउमहमसमत्थो, तहाविहदेसविरहं पि ता दंसणविसुद्धिकारणं कारेमि चेइयभवणं । एवं चिंतिऊण कारियं भवणासन्नचेइयभवणं । तत्थ महारिहा पडिमा पइट्ठाविया । 1 B तहा विसम । 2B असदेहिं । 3 B केणइ । क० १७ 25 Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ श्रीजिनेश्वरसूरिकृत-कथाकोशप्रकरणे [२२ गाथा पइदियह पूयं करेइ । 'जहा राया तहा पय' त्ति तस्स रन्नो देवीओ वि सावगत्तणं पवन्नाओ। तत्थेव रायकारियजिणालए नियविहवाणुरूवं सव्वाहि कारियाओ देवकुलियाओ जगईए । कुंतलाए वि कारियं महंतं तत्थ देवउलं । तस्थ य निचं पूया-सिणाणाइ आढवंति । तया सा कुंतला मालागारे घारेइ - 'अण्णत्थ न देयाणि पुप्फाणि, मम आणेऊणं देजाह' । एवं गायण-वायण-नट्टियाइ सव्वं वारेइ । । जइ सुणेज वा पिच्छेज वा- महूसवो जाओ अण्णदेवीणं चेइएसु, तओ दूमिज्जइ गाढं । अह सुणेज्ज पिच्छेज वा- न किंचि सुंदरं जायं, तो अईव तूसइ । तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिकंता मया जाया तत्थेव नयरे कसिणसुणहिया । सा य पुव्वब्भासेण तम्मि नियचेइए 'जाइ निच्चपडिया अच्छइ । अण्णया केवली समागओ तत्थ । गओ राया सह देवीहिं । अवसरे पुट्ठो केवली रण्णा- 'भयवं! कुंतलादेवी कथ देवलोगे गया ? । भणियं केवलिणा- 'अत्थि कालसुणिगा, तम्मि चेव तीए चेइए 10 जा निच्चपडिया अच्छइ सा कुंतल' त्ति । भणियं रण्णा - 'कहं तारिसचेइयभत्तीए, एयारिसं फलं जायं ' । भणियं केवलिणा-'न तीए चेइयभत्ती आसि, किं तु अत्तबहुमाणाओ तहा पवित्ती, मए कारियं एयं । जया अण्णदेवीजिणभवणेसु महूसवो होज्जा, तया तभंसणोवायं सव्वायरेण करेथा, तहा वि जइ होज्जा महूसवो अप्पाणं मयमिव मन्नित्था । ता कहं तीए जिणभत्ती । पओसजणिओ एस फलविसेसो' ति । 15 ता भो महाणुभावा! किं अन्नआलंबणेणं, जिणगुणबहुमाणेण पूयाइ कायव्वं; न अण्णालंबणेण । तओ भणियं धवलेण – 'अहो! एत्तियं कालं सव्वे वि अप्पण-अप्पणिज्जा चेइयालएसु पूयासक्काराइयं काउं धम्मं करेंता आसि, संपयं तुब्भेहिं एयं मिच्छत्तं परूवियं ति । अन्नो पुण जो सूरी आगमिस्सइ, सो तुब्भेहिं जं वन्नियं तं पि मिच्छत्तं पण्णवेही । ता कहिं वच्चामो? अओ न किंचि धम्मसवणेणं' । एवं भणित्ता उढिओ धवलो । गुरुणो उवरिं गाढं पउट्ठो, गओ सगिहे । 20 तत्तो मिच्छत्तभावणाए अप्पाणं परं च वुग्गाहेंतो अणालोइयपडिकंतो तहाविहं चेहयाइपूयं काऊण, मिच्छाभावणाणुगओ, किं पि तवचरणं पि काऊण, कालमासे कालं काऊण, मओ उववण्णो किब्बिसियदेवेसु । तओ वि नर-तिरिय-नरयगईसु भमिऊण चिरं कालं, एसो अंधपुरिसो समुप्पण्णो । भीमदेवजीवो पुण एसा राइणो पउमसिरी जाया । भाणुजीवो पुण सेट्टिणी भाणुमई जाय' ति । एवं समंतभद्दसूरिवयणं सोचा तिण्हं पि जायं जाईसरणं । पञ्चक्खीभूयं सव्वं नियदुच्चरियविलसियं । तओ जायसंवेगेहिं भणियं सव्वेहिं - 'एवमेयं भंते ! जं तुब्भे वयह ; ता नित्थारेह एयाओ संसारसमुद्दाओ' । भणियं गुरुणा- 'भो भो महाभागा! वयणमित्तेणं वयं मोयगा । न परकीयं कम्मं तित्थयरेणावि खविजइ । जहा जम्मंतरे गुरुणो वयणं तुब्भेहिं न कयं तहा संपयं पि जइ न करेजा, ता कुओ ममाहितो नित्थारो । सुवेजनाएणं किरियं चिय उवइसंति गुरुणो । तं पुण भवियव्वयानिओगेणं कस्सइ तह ति परिणमइ, कस्सइ न तह' त्ति । भणियं रन्ना- 'किं भंते! असेससंसय330 निवरिहणं जिणवयणं तुब्भेहिं कहिज्जमाणं पि कस्सइ न परिणमइ ?' । भणियं गुरुणा- 'महाराय ! मिच्छत्तमोहियाणं दीहसंसारियाणं कुग्गहगहियाणं जिणवयणं कहिज्जमाणं न जहत्थं परिणमइ, खीरं व जरियस्स । निसुणेहि, एत्थ अक्खाणयं कालियसुयनिबद्धं 1 A नास्ति 'जाइ'। 2 BC नास्ति 'तत्थ'। 3 A तम्मि चेइए। 4 BC चेइयाण पूयं । 5 A मिच्छत्तभावं णाणु। 6A नास्ति 'जं तुम्मे वयह'। Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या ] विपरीतशानफलविषयक-धवलकथानकम् । [ सावजायरिय-अक्खाणयं] इओ अतीतासु अणंतउसप्पिणीसु अण्णाए हुंडाअवसप्पिणीए एत्थेव भारहे वासे, वोलीणेसु चउवीसेसु तित्थयरेसु चरिमतित्थयरतित्थे असंजयाण पूय ति अच्छेरयं आसि । तत्थ साहुणो बहवे विहाराओ भग्गा'। तओ पुन्ने वि मासकप्पे न विहरंति, जाव वरिसंतेण वि नन्नत्य गंतुमुच्छहंति । तओ परिभग्गा सेज्जायरा । जइ कहं वि नीहरिया भवंति ते साहुणो, ता पुणो वसहिं न देंति । 'ताहे । वसहिमलहंतेहिं तेहिं चिंतियं-किह अम्हाणं सासया वसही होही । लद्धो उवाओ । जइ एए गिहिणो चेइयालएसु निजोजिजंति, ता तद्दारेण आहाकम्मिया वि वसही सासया होइ । तओ उवासगाणं देसणं कुणंति- 'जो अंगुट्ठमेत्तं पि बिंबं कारेइ सो सुहपरंपराए बोहिलाभाइकमेणं सिज्झइ । जो पुण जिणभवणं कारेइ तस्स पुण बहुतरं फलं ति । ता तुब्भे महाणुभावा ! आढवेह चेइयाइं । जं भेन पहुप्पइ, तत्थ अम्हे जइस्सामो' । एवं तेहिं परितंतजोगीहिं उम्मग्गपयट्टेहिं लिंगोवजीवीहिं इह-10 लोगपडिबद्धेहिं परलोगपरम्मुहेहिं कारियाइं तत्थ सन्निवेसे बहूयाई चेइयभवणाई। एत्थंतरे भणियं विक्कमसाररण्णा-'किं भंते ! अजहत्थमेयं जं जिणभवण-बिंबकारणं एवं? । भणियं समंतभद्दसूरिणा- 'महाराय ! कायव्वमिणं गिहत्थाणं आगमुत्तविहाणेण, न साहूणं । किं तु साहूहिं दव्वत्थओ परूवेयव्वो उचियाणं देसणाकाले, न पुण किरियाकाले । एत्थ गड्ढाओ रयं खणेह, पाहाणनिमित्तं गड्डीओ पउणी करेह, मलए गंतूणं फुल्लाइं चुंटेह-एवमाइरूवो । जम्हा तिविहं 15 तिविहेण पुढवाईसु वहो पच्चक्खाओ । एवं भणंतस्स वह निवित्ती विरुज्झइ । किं तु वणियदारगविमोयणदिटुंतेणं धम्मदेसणा गिहत्थाणं कायव्व' ति । भणियं विक्कमसारेण - 'साहेह केरिसो वणियदारगदिढतो'त्ति । भणियं गुरुणा [वणियदारगदिलुतो] एगंमि नयरे रण्णा पुरे घोसावियं कोमुईमहसवे; जहा- "अज्ज राईए जो कच्छं बंधइ तेण सव्वेण वि 20 उज्जाणे गंतव्वं । अज देवीण नयरे पयारो होही । ता जो पुरिसो बाहिं न नीई तस्स सारीरो दंडो। राया वि नयरबाहिं एस निग्गच्छइ । ता निग्गच्छह भो नायरा ! सम्वे" त्ति । एवं घोसणं सोचा सव्वो लोगो निम्गओ । नवरं एगस्स सेट्ठिणो छपुत्ता ववहारासत्ता ताव ठिया, जाव दाराणि पिहियाणि । न निग्गया ते, खंडिहरे एगमि पसुत्ता । पहाए राया नगरमागओ । ते वि उद्धूलियजंघा होऊण रण्णा सह अलक्खा होऊण पविट्ठा । रण्णा पुट्ठो परियणो- 'को पिट्ठओ ठिओ? केण मम आणा लंघिया ?' 25 अस्थि पुण परलोयतत्तिनिरओ दुज्जणो । तओ कहियं केण वि, जहा - 'अमुगवाणियगस्स पुत्ता न आगया। ते भणंति रन्नो समक्खं - एते अम्हे तुम्हेहिं सह महाराय ! नयरं पविट्ठा; मुसावाई एस' । तेण य दुजणेण भणियं-'न तुब्भे बाहिं आसि, किं तु पविसंतस्स रन्नो मिलिया । अन्नहा करेह पणं' । ठिया तुहिक्का ते । तओ राया रुट्ठो वज्झे आणवेइ । मिलिओ लोगो', महाजणो य । मोएइ न मुंचइ राया। ताहे जणगो भणइ- 'मा देव! एवं करेसु, मुयाहि, सव्वं घरसारं गेण्ह' । न मन्नइ राया । 20 तहा वि पंच मुंच, एगंमि देवकोवो वीसमउ । एवं चत्तारि, तिन्नि, दो; जाव रुयंतो पाएसु लग्गो भणइ- 'मा देव ! कुलनासं करेहि, जइ एगं तहा वि मुंचसु' । तओ एगो जेट्टपुत्तो मुक्को। . 1 A परा भग्गा। 2 B C नास्ति 'ताहे'। 3 B निजोइजति। 4 A चेइयालयं। 5A बहूई। 6 A नियइ । 7 BC नास्ति 'लोगो'। 8 BC नास्ति 'देव'। Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ श्रीजिनेश्वरसूरिकृत-कथाकोशप्रकरणे [२२ गाथा एत्थ रायत्थाणीया सावगा, दारया काया, पियातुल्लो साहू । जहा जणयस्स न सेससुयवहाणुमई, एवं साहुणो वि । जइणो पढमं साहुधम्मं परूवेज्जा, तत्थासत्तस्स पोसहसामाइयाइअणुट्ठाणं, तत्थ वि असत्तस्स जीवघाओ वि वरं सुहज्झवसायनिमित्त होउ त्ति दव्वत्थओ जिणभवणकारावणाइ उवइसिज्जइ । तत्तो वि विसुद्धसम्मत्ताइगुणलाभो, तत्तो कमेण मोक्खो त्ति । जिणभवण-बिंबपूयासिणाणाइयं दद्दूण अण्णेसिं । पि भव्वसत्ताणं सम्मत्ताइगुणलाभो होइ । ते वि तत्तो पडिबुद्धा विरइसब्भावाओ जीवे रक्खेज । मोक्खं गया आसंसारं जीवाणं अभयदायगा, तक्कओ वहो न होइ तेसिं ति । अओ जीवघाओ वि सुहज्झवसायनिबंधणतेण स-परेसिं मोक्खहेउ ति । जं पुण पढमं चिय जिणभवणाइ उवइसिज्जइ, तत्थ कायवहाणुमई । तत्तो बंधो असुहो त्ति । ता महाराय ! तत्कालीयसाइहिं न विहीए जिणभवणाइयमुवइहूँ । किं च-संजमपरतंत'जोगीहिं सनिव्वाहवसहिनिमित्तमारद्धं । न परोवयारनिरएहिं गुण-दोसनिरूवणेणं ति॥ भणियं रन्ना- 'कयसामाइयस्स पुप्फाइएहिं पूया काउं जुज्जइ नव?' ति । भणियं सूरिणा-'न जुज्जई' । भणियं रन्ना- 'कहं न जुज्जइ ? । जओ कडसामाइएण सावजजोगा पञ्चक्खाया । न य पूया सावज्जा । कहमण्णहा साहुवंदणासुत्ते भणंति "वंदणवत्तियाए, पूयणवत्तियाए, सक्कारवत्तियाए०" त्ति । भणियं सूरिणा- 'महाभाग ! तत्थ एवं भावत्थो । साहूणं वायामेत्तेणं चिय दव्वत्थए अहिगारो, न काएणं । वाया वि देसणाकाले; न पुण-तुमं वाडियाए गंतूणं पुप्फाणि उचिणसु, पूर्व वा कुरु, धूयं वा उक्खिवसु, आरत्तियमुत्तारेहि [ एवमाइ किरियाकाले निजुंजणाहिगारो] । किं तु देसणाकाले दव्वत्थयं सवित्थर परूवेंति मुणिणो' । भणियं रन्ना- 'को एस विसेसो ? किरियाकाले न निझुंजइ, देसणा पुण कीरइ सवित्थरा दव्वत्थयविसय ति । जओ सा वि निझुंजणरूवा चेव' । भणियं गुरुणा-'नरनाह ! भणियमम्हेहिं जीवघायनिरयस्स थूलदिट्ठिणो देसणा कीरइ । जीवघाओ "वि सुहभावहेऊ हवउ त्ति । एत्तो च्चिय साहुणो न दव्वत्थए पयस॒ति । दवत्थओ हि भावत्थयहेऊ । सो य सिद्धो जइणो । न य जइणो तत्तो अन्नं फलं इटुं । जमाहु गुरवो-'ता भावत्थयहेऊ, जो सो दव्वत्थओ इहं इट्टो' त्ति । जं पुण पूयासकारवत्तियाए उस्सग्गकरणं जईणं न नज्जइ, न सक्खा कायकिरियाए दव्वत्थयपवित्ती । किं तु उस्सग्गोचिए काले निसिद्धे वइजोगो अस्थि । सो वि मणपुव्वो वइजोगो, न सक्खा निझुंजणा, किं तु देसणाकाले देसणाए, जीवघायाओ 25 अनियत्तो सड्डो घाओ वि सय-परेसु सुहभावहेऊ होउ ति पूयाए निजोजिजइ । जं भणसि उस्सग्गो किं कीरइ ?, तत्थ भन्नइ -उचियाणं दव्वत्थए पवित्ती साहूणं समयं ति खावणत्थं । तेण दव्वत्थयाहिगारत्ते जीवधाओ सभाओ पयट्टो स-पराणुग्गहो उववूहागोयरो साहूणं । अहो सोहणं न्हवणाइ कयं ति। जा पुण पसज्झदेसणा सा एवं कीरइ- "संसारासारयं नाऊण कुणह पव्वज सव्वसावजजोगपरिवजणरूवं । जम्हा न अन्नो संसारनित्थरणोवाओ" । तत्थासमत्थस्स सावगपडिमा. गुट्ठाणं कहिज्जइ, जम्हा-“छज्जीववहाओ कम्मबंधो । तत्तो संसारो । तत्थ य दुक्खाणि । ता दुक्खभीरुणा संसारसमुच्छेए जइयव्वं । तस्स य समुच्छेओ आसवदारसंवराओ । सो य सव्वओ देसओ वा सत्ताणुरूवं कायव्यो" । जो भणइ - 'अहं एयं काउंन सतो'; तत्थ इमं चिंतियव्वं साहुणा- एस महाणुभावो पयईए थूलदिट्ठी जीवधायाणुगओ, तो वरं पूयाइसु निजोजिजउ। स-परेसिं सुहभावपवित्तिनिमित्तभावाओ। तओ तस्स भन्नइ - 1 A °परितंत। 2 C ता वरं पूयाए । Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . व्याख्या] विपरीतशानफलविषयक-धवलकथानकम् । १३३ जिनभवनं जिनबिम्बं जिनपूजां जिनमतं च यः कुर्यात् । तस्य नरामरशिवसुखफलानि करपल्लवस्थानि ॥ सक्किरियाकाले निजोजिज्जंते गिहत्थे न एस कमो लब्भइ । ता न कप्पइ किरियाकाले दव्वत्थओवएसणं साहूणं । जं पुण सामाइयठियस्स सावगस्स न पुप्फाइएहिं पूया काउं जुजइ त्ति, एत्थ एयं कारणं - सामाइय-पोसहाणि भावत्थयसरूवाणि । दवत्थओ य भावत्थयहेऊ । 'ता भावत्थयहेऊ' जो सो दव्वत्थओ इह इट्ठो' ति वचनात् । तो कजसिद्धीए कारणाहाणं निरस्थयं । न य अण्णं फलं दव्वत्थयस्स । ता सिद्धे भावत्थए किं तेण । किं च- कडसामाइयस्स तक्खणे सव्वजीवाभयदाणपरिणामो । अओ संघट्टणमेत्तं पि तस्स मणं दूमेइ - हा विरूवमायरियं । न य विरूवाणुट्ठाणाओ कम्मक्खओ । इयरकाले तस्स अण्णस्स य जीवधायपवित्तजोगत्तणेणं, न पूयाइपवित्तिकाले जीवधाओ' मणमि पडिबंधइ । पूयाकरणेणं "पुण 10 स-परेसिमणुग्गहो वियरइ चित्ते । अओ तस्स सुहासयसंभवाओ तयणुरूवं फलं जुत्तं ति। तेणं चिय न साहवो पूयाइसु पयद॒ति । जम्हा ते सया जीवघायविरया । तेसिं पूयाकाले न तहा स-पराणुग्गहों चित्ते लग्गइ । तस्स पयारंतरेणावि सया अंगंगिभावेण परिणयत्तणओ । अणासेवियं पुण पुढवाइसंघट्टणाइयं । अओ तं चिय पवित्तिकाले चित्ते चडइ 'मिच्छामि दुक्कड' संघट्टो कओ त्ति । तओ मिच्छामि दुक्कडगोयराणुट्टाणाओ कहं सुहफलं, सुहो वा अज्झवसाओ ?, चिंतेउ नरिंदो सयमेव' । । भणियं रन्ना- 'एवमेयं भंते ! पत्थुयं संपयं भणह' । भणियं सूरिणा- 'तओ जस्स जत्तिया सावगा समागया, तेण तत्तिया आगारेऊण चेइयालएसु निजोजिया । न य ताणि ससत्तिअणुरूवमाढत्ताणि, जेण झत्ति निप्पजंति । किं तु उवयारगहियाणुरोहेण । तओ बिंबमेत्ताहाराणि भवणाणि कारिय, तदासन्ने कारिया सुसिलिट्ठा मढा । तेसु चिट्ठत्ति सुहेण । इओ य जिणभणियागमकिरियारओ स-परेसिं सुहज्झवसायनिबंधणो साहुकप्पेणं विहरतो 20 पंचसयसाहुपरियरिओ पत्तो तत्थ सन्निवेसे कुवलयप्पभो नाम सूरी । नाओ इयरेहिं । बहु मन्नंति सावगा । तओ चिंतियं तेहिं वत्थव्वगसाहूहिं - एस किरियटिओ त्ति लोयमाणणिजो । अओ एयस्स वयणे लोगो वट्टिस्सइ । ता एयमणुकूलं संगहिय करेमो ति, तं वंदणाईहिं उवचरिउमाढत्ता । अण्णयां सो कुवलयप्पभो सूरी मासकप्पसमत्तीए तत्तो विहरिउमुजुओ भणिओ तेहिं- 'भंते ! इहेव वासारतं. करेह' । सूरिणा भणियं – 'न कप्पइ, किं मे पओयणमस्थि ?' । भणियं तेहिं - 'मा मा एवं भणह । 23 तुम्हाणुरत्तो लोगो । तओ तुम्ह वयणेण इमाइं अद्धसिद्धचेइयाई झत्ति निप्पजंति, अण्णाणि य अपुव्वाणि भवंति । ता कीस कप्पाइक्कमे निमित्तं नत्थि' । भणियं सूरिणा-'न सावजा वई कप्पइ साहूणं भासिउं' । भणियं इयरेहिं- 'कोऽवसरो सावजाए वईए? । भणियं सूरिणा- 'जमाहच्च चेइयकारणं । किं तु दव्वत्थयावसरे दव्वत्थयपरूवणमणवजं' । भणियमियरेहिं - 'अहो! चेइयभवणाइं सावज्जाई वागरेइ ता सावजायरिओ एस' । गयं तं चेव नाम से पसिद्धि । विहरितो सो तत्तो। ता किं नरिंद ! 30 तुमं भणसि, किं जिणवयणं पि कोइ न बहु मन्नइ ?' ति । भणियं रन्ना-'ता किं सो सूरी पुणो वि तत्थ नो आगओ' । भणियं सूरिणा- 'अण्णया तेसिं सिढिलीभूयाणं अवरोप्परं विवादो जाओ । एगे भणंति- 'गिहिणो पुव्वं चिय बला निउत्ता पूयाइसु । ते य पमत्तयाए मंदधम्मयाए य न चेइय1C जीवघाओ आलंबइ। 2 'पुण' नास्ति । 3 B C सावजाइ । Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ श्रीजिनेश्वरसूरिकृत-कथाकोशप्रकरणे [ २२ गाथी 1 जे पूयासु पयति । ता जइ सयं न कीरइ ता मग्गनासो । नय संते बले संते वीरिए चेइएस उहा काउं जुता । ता कालोचियं साहूहिं सयमेव कायव्वं' । अन्ने भणंति - ' सयं न कीरइ' । एवं तेसिं पक्खापक्खीए जाओ महंतो विवादो । न य कह वि छिज्जइ । तओ सव्वेहिं भणियं - 'सावज्जायरिओ बहुस्सुओ, सो आणिज्जउ । तस्स आगमो अत्थि । आगमं विणा एवंविहा विवाया न • छिज्जंति' । सव्वेसिं संमयं - सो आणिज्जउ । पेसिया दुवे साहुणो तस्स समीवे । पत्ता कालेन । भणियं तेहिं - 'अम्हे संघेण तुम्ह पासे पेसिया' । सो भणइ - 'किं निमित्तं ?' | साहू हिं भणियं - ' एवं - विहो विवादो अवरोप्परं जाओ । सो य तुम्भेहिं आगएहिं छिज्जिही' । भणियं सूरिणा - ' एगसिं सावज्जायरिओ ताव कओ । संपयं गयस्स तं किं पि काहिह, जं न वीसरह । ता किह तुब्भ वयणेण गम्मउ । गएसु वि तत्थ अम्हेसु नोवगारो । पिवयणभत्तिवज्जिया जओ ते । न हि जिणवयणे 10 बहुमाणजुयाण तारिसा उल्लावा होंति । जइ नाम तत्ते संसओ होज्ज कहिज्जमाणे कहगवसेणं, तहा वि कारणं पुच्छियव्वं । तेण वि जिणवयणं दंसियव्वं । तं पुण तह त्ति मण्णियव्वं होइ । जेसिं पुण सा' नीई नत्थि तेसिं मज्झे अहं गओ किं करिस्सा मि' । भणियं आगयसाहूहिं - ' मा मा एवं भणह भंते! तुम्हागमणे बहुयाण अणुग्गहो होही । ता आगच्छह' । भणियं सूरिणा - 'कम्माण खओवसमो अणु कारणं, सूरी परं तस्स निमित्तं कस्सइ भविय्व्वयावसेण जायइ । किं तु संदिद्धे वि उवयारे 18 छउमत्थेण देखणा कायव्वा । मा कोइ बुज्झेज्जा । तो वट्टमाणं जोगेणं विहारक्कमेण आगमिस्सामो, नन्नत्थ सरीराइकारणं' । गया आवाहगसाहुणो । सो वि सावज्जायरिओ विहरंतो संपतो काले । नायं च वत्थव्वगसाहूहिं । तओ महाविच्छड्डेण निग्गओ चउव्विहो संघो अन्नोगइयाए कुवलयप्पभसूरिणो । तत्थ य एगा मुद्धसंजई चिंतेइ - महप्पा कोइ एस तित्थयरतुल्लो, जस्स एरिसो संघो अन्नोsure निग्गओ । तओ परमभचिचोइयाए आसन्ने ठिच्चा वंदिओ सूरी तीए । लग्गा पायंतेसु से 20 सीस केसा । नायं सूरिणा सेसेहिं विदिट्ठमेयं; नवरं न याणंति ते किं सोहणमसोहणं वति । पविसिओ महाविभूईए । दिन्ना वसही । वीसंताणं भणियमेतेर्हि - 'अम्हाणं एवंविहो वादो अत्थि; सो तुम्हे तत्थ पमाणं' । भणियं सूरिणा - 'अम्हे आगमं वक्खाणेमो, तुब्भे जुत्ताजुत्तं सयं वियारेज्जाह । अन्ना एगस्स पक्खस्स ममोवरि अद्धिई होज्जा' । बहु मन्नियं तं वयणं सव्वेहिं वि । सोहणदिणे समादत्त अणुओगो । उवविसंति सव्वे वि । सो वि कंठगयं सुयं वाएइ वक्खाणेइ य । न अज्ज वि 25 पुत्थगाणि होंति त्ति । वक्खाणंतस्स उवट्टिया गाहा । जहा - । जत्थित्थीकरफरि उप्पने कारणे वि णंतरियं । अरिहा वि करेञ्ज सयं सो गच्छो मूलगुणभट्ठो || एईए अत्थो - जत्थ गच्छे इत्थीए सह करेण फरिसी संघट्टणं अरिहा वि केवली विकरेज्ज, उप्पण्णेवि कारणे अनंतरिओ, कारणे वत्थंतरिओ कीरइ, गिलाण उव्वत्तणाइसु । जत्थ अणं30 तरिओ कीरइ तत्थ रागबुद्धी, तओ सेवाबुद्धी, तत्तो पडिसेवा वि जाएजा । तत्तो मूलगुणभट्ठो गच्छो होइ चि । 'निक्कारण पडिसेवा सव्वत्थ विणासए चरणं' । इमाए गाहाए आगयाए, सो सूरी पुत्रिं तेहिं तासिओ त्ति भीओ चिंतेइ - एयं गाहं न पढामि; + इदं वाक्यं नास्ति BC 1. B C 'जिणवयणपक्खवाओ नत्थि तत्थाहं गओ । Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या ] विपरीतज्ञानफलविषयक-धवलकथानकम् । १३५ जओ इमीए सुयाए, एए दुरंत पंतलक्खणा मम उड्डाहं करिस्संति; संजईसिर केससंघट्टं सुमरंता । ता किं न पढामि ? अहवा, नहि नहि; आगमपच्छायणं हि अणंतसंसारभवभमणनिबंधणं, ता जं होइ तं होउ, पढामि ताव; एयं चिंतिय पढिया तेण गाहा, वक्खाणिया य । तओ जमगसमगं ते भणिउ - माढत्ता - 'तुमं तंमि दिणे वंदंतीए संजईए पाएसु संघट्टिओ; ता तुमं मूलगुणभट्टो । ता एत्थ किंचि समाहाणं वा देसु, आसणं वा मुंचसु । इहरहा पाएसु घेतुं कड्डिस्सामो' । तओ भीयस्स खसफसीभूयस्स आगयपस्सेस्स सूरिणो नागयमुत्तरं; जहा- कोऽवगासो एयस्स तुम्ह वयणस्स ? जओ 'करेज्ज सयं' ति वयणं आउट्टि सूचेइ । न य अम्ह तत्थ का वि आउट्टी संपण्णा । आउट्टिसंघट्टे एयं सुतं निवडइ, न अणाभोगसंघट्टे । गोयरगयस्स साहुणो सावियाकरे लगे वि न मूलगुणनासो । जइ पुण साइज्जइ ता हवेज्ज दोसो, न पुण अम्ह तत्थ को वि भावदोसो जाओ । तत्थ वि अणाभोगसंघट्टजणियदोसस्स पायच्छितं कथं अम्हेहिं तवाइयं, ता न किं पि एरिसवयणेहिं ति । किं तु तेसिं भीएण भणियं " सूरिणा - 'भो भो ! न याणह तुब्भे उस्सग्गाववारहिं आगमो ठिओ । तओ तं वय पाउसगज्जियं व सिहिकुलाणं सव्वेसिं तेसिं हिययनिव्वुइकरं जायं । सब्बे वि नियनियपक्खेसु थिरतरा जाया । सावज्जायरिएण वि उस्सुतथिरीकरणाओ अणंतो संसारो निवत्तिओ चि । 15 ता महाराय ! अभवाणं दीहसंसारियाणं वा न जहत्थ जिणवयणं परिणमइ । आगहियाणं हि निययाभिप्पायपोसणनिमित्तमुवजुज्जइ, न सेस' ति । भणियं विक्कमसाररण्णा - 'एवमेयं भंते!'. भणियं अंधेण - 'जइ जाणह आराहिस्सं, ता देह मे अणसणं' । दिन्नोवओगेण सूरिणा दिन्नं से अणसणं । आराहिऊण सम्मं गओ सुरलोगं ति । अओ भण्णइ - उपदेशान्तरमाह - न वि किंचि अणुणायं पडिसिद्धं वावि जिणवरिंदेहिं । एसा तेसिं आणा कजे सच्चेण होयव्वं ति ॥ अदिट्ठसमयसारा जिणवयणं अण्णहा परूवेंता । धवलो व्व कुगइभायण तह चैव हवंति ते जीवा' ॥ ॥ धवलकहाणयं समत्तं ॥ ३२ ॥ उच्छाहिंति कयत्था गिहिणो वि हु जिनवरिंदभणियंमि । धम्मंमि साहु- सावगजणं तु पज्जुण्णराया व ॥ २३ ॥ व्याख्या – 'उत्साहयन्ति' – उद्यमं कारयन्ति, 'कृतार्थाः' - कृतो विहितोऽर्थः सम्यक्त्वादिगुणो यैस्ते । तथा ‘गृहिणोऽपि' - गृहस्था अपि, न केवलं साधवः । 'हु:' - अवधारणे । 'जिनवरेन्द्रभणित एव धर्मे', कं ? - 'साधु श्रावकजनं तु प्रद्युम्नराज इवे' ति । भावार्थः कथानकादवसेयः । तच्चेदम्३३. प्रद्युम्नराजकथा । 20 कोसला विसये कोसलाउरं नाम नयरं । तत्थ सुपइट्ठियजसो गाढमुच्छाह जुत्तो उदिण्णबलवाहणो 30 अनिट्ठियकोसकोट्ठागारो' अणुरत्तभत्तिमंत सामंतो "अधरीकयसुरगुरु पहाणामच्चो अवहत्थिया से सपच्चहो 1 B C ° भायणमसई जायंति इह जीवा । 2 C कोठारो । 3 C अधरियसुर° । 25 Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनेश्वरसूरिकृत-कथाकोशप्रकरणे । [ २३ गाथा पक्कलपाइक्कचक्कनिराकियासेससीमालरायसमूहो, कुसलो कलाकलावे, पज्जुन्नो इच कामिणीजणमणदइओ, पजुन्नो नाम राया । सो य पयईए धम्मसद्धिगो। किं तु न याणइ धम्माधम्मविसेसं । तओ चिंतइएएसिं चेव पासंडीण मज्झे केइ धम्मिगा भविस्संति । तो अविसेसेणं सव्वे वि. पूएमि । जो चेव सञ्चं धम्मिगो सो चेव नित्थारेहि त्ति -चिंतंतो सव्वेसिं पासंडीणं अविसेसेणं करेइ पूयं । तस्स य सुबुद्धी 5 नाम पहाणामच्चो । सो य सावगो । किं तु राया न याणइ, जहा सावगो एसो ति । अन्नया रहसि पुच्छिओ रन्ना सुबुद्धी, जहा-जमहमविसेसेण सवे पासंडिणो पूएमि तं किं तुह जुत्तमजुतं वा भासइ ?' भणियं सुबुद्धिणा - 'किमेत्थ वियारियवमस्थि । जं देवो करेइ तं कहमजुत्तं होइ ?' । भणियं रन्ना - 'न एवमुवयारवयणटाणं, परमत्थवियारं चिंतेसु' । भणियं सुबुद्धिणा- 'देवपायाणमणुदियहं पञ्चूहवारणनिउत्तमइविहवाणं को अम्ह मइविसेसो समुल्लसइ, जो एवंविहवियारे वट्टइ' । भणियं रन्ना- 'जहा 10 इहलोइयावायनिवारणमई भवं, तहा भवंतरावायनिवारणे वि नियमइअणुसारेण पवट्टियवं भवया । तहा जं उभयवग्गेण वि निरूविय कीरइ तं संगयं होइ' । भणियं सुबुद्धिणा- 'देव ! इह लोइयाई कज्जाइं पच्चक्खाणुमाणाई हिं नजंति, पारलोइयकजाइं पुण अच्चंतपरोक्खाइं, न तेसिं साहणाई निच्छएण नाउं पारिजंति । ता किं भणामो' । भणियं रन्ना- 'ता किह एत्तिया लोया मोक्खत्थिया किलिस्संति ? । अवस्स किं पि एएहिं नायं हवेज्जा' । भणियं मंतिणा – 'जइ एएहिं किं पि नायं ता किह 15 अवरोप्परविरुद्धकिरियासेवणं । न य अणेगे मोक्खा जेण नियनियमोक्खेसु नियनियकिरियाए गम्मइ' । भणियं रन्ना- 'सत्थभणिओ मग्गो धम्ममग्गो, इयरो अधम्ममग्गो' त्ति । भणियं सुबुद्धिणा - 'सव्वेसिं पासंडीणं नियनियगा पुढो आगमा, ता को घेप्पउ, को वा मुच्चउ । न य अवरोप्परविरुद्धकिरियाओ तब्भणियाओ काउं सक्किजंति' । भणियं रन्ना - 'वियारिजंतु सत्थाणि अरत्तदुढेहिं' । भणियं सुबुद्धिणा- 'जुत्तमेयं, एवं कीरउ' । 20 तओ समाहूया माहणा । भणिया रन्ना- 'काणि भे परलोगसाहगकिरियासत्थाणि ?' । भणियं दिएहिं - 'वेदो परलोगसाहगकिरियानिच्छयहेऊ । भणियं रन्ना - 'किं वेदे परलोगसाहणत्थं कहिजइ ?' । भणिओ दिएहिं रन्नो- 'वेयज्झयणं, 'दियाण दाणं', यजणं । जम्हा न रायाणो दक्खिणं गेहंति । न य सुद्दाहमाणं दक्खिणा फलवई । अत एवोक्तम् – 'दक्षिणाया द्विजस्थानम्' इति । तहा जागविही पसुमेहस्समेहाइओ बहुप्पयारो । तहा निचं पि अग्गिहोत्तकिरिया। एस धम्मो अम्हाण दंसणे'। 23 भणियं सुबुद्धिणा- 'देव ! जीवघाएण केरिसो धम्मो ?' । भणियं दिएहिं - 'वेदविहिया हिंसा अहिंसे' ति । किं च - 'मुखं ते सुनामी'त्यादि मन्त्रैः असौ वर्ग नीयते । किं च - 'यागार्थ पशवः सृष्टा पूर्वमेव स्वयंभुवा' इत्यादिवचनप्रामाण्यान्नासौ हिंसा दोषाय' । भणियं मंतिणा- 'भणंति धीवरा वि एवं- अम्हं वित्ती परिकप्पिया पयावइणा, नत्थि अम्हाण दोसो' त्ति । भणियं रन्ना – 'जइ पाणवहाओ वि धम्मो होज्जा, ता अम्हे निच्चं चिय तत्थेव पयट्टा । ता अम्हाण सो सिद्धो चिय, किं अन्नेण । ता 30 उट्टेह तुम्भे'। समाहूया नइयाइया । भणिया नरनाहेण - 'भणह काणि तुम्ह परलोगसाहगधम्मसत्थाणि ।। भणियमेतेहिं - 'अम्ह सिवो देवो, तप्पणीयाणि धम्मसत्थाणि उमामहेसराईणि' । भणियं रन्ना- 'उमामहेसर त्ति को सद्दत्थो ?' । भणियं तेहिं - 'उमा भगवई गोरी; महेसरो भगवं महादेवो । भगवई पुच्छइ ____1 A पारयति। 2 A नायं एएहिं। 3A तत्तो । 4 B जयणं दियाण। 5 B नास्ति 'दाणं' । 6 A जणणं,Cनास्ति । Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या ] धर्मोत्साहप्रदानफलविषयक प्रद्युम्नराजकथानकम् । १३७ भगवं कहेह' । भणियं रन्ना - 'का एसा गोरी ? किं तस्सेव सिस्सिणी' । भणियमेएहिं - 'सा हि भगवई भगवओ भज्जा' । भणियं रन्ना- 'सो भगवं जइ दारसंगही ता कहं बीयरागो । अवीयरागस्स वयणं कहं कीरउ पमाणं । ता गच्छह सट्ठाणं'। तओ समाहूया घइसेसिया । ते वि तहेव पुट्टा, तहेव वागरियं, तहेव विसज्जिया । तओ समाहूया भिक्खुणो । ते वि पुट्ठा- 'को तुम्ह मोक्खसाहणोवाओ ?' । भणियं भिक्खूहिं - 'रागदोसनिग्गहो मोक्खसाहणोवाओ । ते य रागादओ अवटिए जीधे संभवंति । अम्हाण खणक्खई जीवो' । भणियं रन्ना- 'किं निमित्तं सिरतुंडमुंडणाइयं अणुट्ठाणं; जया खणक्खई जीवो तया किरियाफलेण को जुज्जइ । अकयागम-कयनासादयो दोसा कहं परिहरियव्वा । ता उटेह, सट्ठाणं गच्छह' । वाहरिया भगवा । ते वि पुट्टा- 'को मे मोक्खसाहणोवाओ?' । भणियं भगवेहिं - दिट्ठमणुमाणमागमरूवं तिविहं पमाणमम्हाण । पणुवीसा तत्ताणं विनाणी होइ मोक्खो वि॥ तथा चोक्तम् - पञ्चविंशतितत्त्वज्ञो यत्र तत्राश्रमे रतः। जटी मुण्डी शिखी वापि मुच्यते नात्र संशयः॥ भणियं रन्ना- 'जइ एवं, विहला मे नियदंसणपरिग्गहेण दिक्खा, ता कीस मुद्धा परितम्मह, तत्त. विन्नाणे सइ किं न विसयसुहमणुहवह । ता न किंचि एएण । उठेह, बच्चेह सट्ठाणं'। __ भणियं रन्ना- 'किं एत्तिया चेव पासंडिणो?' । भणियममच्चेण - 'देव ! संति अन्ने वि सेयंबरसाहुणो। किं तु इह ते न संति' । भणियं रन्ना- 'किं कारणं जेण इह ते न संति ?' । भणियं सुबुद्धिणा- 'ते अनिययचारिणो दव्व-खेत-काल-भावपडिबंधवजिआ। तत्थ दवओ आहार-लेण-पीठ-फलगाइसु पडिबंधो न तेसिं । जम्हा आहारं फासुयं एसणिजं । अन्नत्थकडमन्नत्थनिट्ठियं । मुहालद्धं मुहादिन्नं । वणलेवअक्खोवंगकमेणं अरत्तदुट्ठा संजमभरनिव्वहणट्ठा गेण्हंति । आरामुज्जाणसुन्नहरजाइयपरघरेसु वसंति । 20 पीठ-फलगाईणि वि पाडिहारियाणि गेण्हंति, कप्पसमत्तीए मुंचंति । ता न एएसु तेसिं पडिबंधो । एवं खेचे वि सुंदरासुंदरनगराईसु आरामुज्जाणलयणाईसु पडिबंधो न तेसिं । काले वसंताइसु न तेसिं पडिबंधो । भावे वि कोहाइसु नत्थि पडिबंधो । जियरागदोसा हि ते भगवंतो समतिण-लेटु-कंचणा, समसत्तु-मित्ता, निच्चं चिय परोवयारनिरया नाणज्झयणसंगया । लाभालामे सुहे दुक्खे जीविए मरणे तहा। आसंसाविप्पमुक्का हि तीरही ते महायसा ॥ ताणं गुणगणो देव ! को वण्णेज्जा । मियाउ एगजीहा संताणं गुणाणंतो न लब्भइ । भणियं रन्ना – 'महामञ्च ! तुह एस निओगो जया आगच्छंति ते महामुणिणो, तदा मम साहेयत्वं' । भणियं सुबुद्धिणा- 'एवं करिस्सं' । निउत्ता साहुगवसणट्टाए नियपुरिसा । अन्नया-इंदा इव विबुहपरियरिया, सागरा इव अमुक्कमज्जाया, मायंडा इव निहयतेयस्सितेया, स- 30 यलसत्थत्थ वित्थरविहन्नुणो चउनाणोवगया अणेगसीससंपरिवुडा समागया साहुकप्पेणं विहरंता उग्गसेणाभिहाणा सूरिणो । समोसढा सहसंबवणे । निवेइयं निउत्तपुरिसेहिं मंतिणा सुबुद्धिस्स । तेणावि गंतूण साहियं पजुन्नराइणो । राया वि महया भडचडयरेण निग्गओ सूरिवंदणथं । पत्तो सहसंबवणे उज्जाणे । दिट्ठो सूरी । तुट्ठो राया तिपयाहिणी काऊण वंदिय उवविठ्ठो सपरिवारो जहारिहं सुद्धधरणीतले । क. १८ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ श्रीजिनेश्वरसूरिकृत-कथाकोशप्रकरणे [२३ गाथा सूरिदसणाओ चेव संजायसम्मत्तपरिणामेण भणियं रन्ना- 'भयवं ! तुब्भे निसग्गओ चेव संसाराडवि. पडियजंतुसमुद्धरणेक्कमाणसा, न जइ अणुवरोहो ता साहेह संसारनित्थरणोवायं' । भणियं सूरिणा'देवगुरुपरिन्नाणाओ तदुत्तकिरियाकरणाओ य संसारवोच्छेओ मोक्खसंपत्ती य होइ । तत्थ देवो सव्यनू घीयरागो वीयदोसो य अंगीकायबो । जइ वि संपयं परोक्खो देवो, तहा वि तब्भणियागमवसकीरं5 ततलिंबबदसणाओ नजइ पुव्वुत्तगुणनियरो । जम्हा न सव्वन्नुणो अक्खसुत्तगणणा पयट्टइ । न गयरागस्स इत्थीपरिग्गहो । विगयदोसस्स न पहरणाडोवो । ता अक्खसुत्त-महिला-पहरणरहियबिंबदसणाओ नजइ जहोइयगुणो देवो । इयरो अन्नह ति । तस्स य भगवओ वयणं नट्ठमुट्ठिचिंता-निलुक्कणचंदोवरागाइगोयरं पच्चक्खाइणो अवितहं जाणिऊण परोक्खविसए वि एयमविसंवयइ ति निच्छयं काऊण' किरियासु पयति वियक्खणा । तत्थ किरिया पंचासवसंवरणं, कसायनिग्गहो, मिच्छत्तपडिक्कमणं, 10 खंताइदसविहधम्मासेवणं, पंचसमिइसेवणं, अकुसलमणाई जोगनिरोहो, सज्झायज्झाणतवोकम्मासेवणं संसारनिव्वेयसूयगमप्पडिकम्मसरीरतणं, सव्वत्थाऽपडिबंधो, समसत्तु-मित्तया । एस जइधम्मो अक्खेवेण मोक्खसाहगो' त्ति । भणियं रन्ना- 'भयवं! एवमेयं, विलीणो मे मोह पिसाओ । सहहामि तुम्ह वयणं । किं तु एयं न सक्कुणोमि काउं । अन्नं गिहत्थपाउग्गं धम्म साहेह' । भणियं सूरिणा- 'एत्थासत्तो समणोवासगपडिमाओ करेइ । ताओ दंसणपडिमाइयाओ एक्कारस हवंति । तं जहा दसण) वय(२) सामाइय(३) पोसह() पडिमा(५) अबंभ(६) सञ्चित्ते(७) । आरंभ०) पेस(५) उद्दिट्ट(१०) वजए समणभूए(१) य ॥ तत्थ (१)दसणपडिमा-जायाए जिणवयणरुईए जायाए कुतित्थियमएसु अरुईए गुणदोसविभागन्नुणो जिणभणियमग्गो अव्वाहओ सम्मं मोक्खकारणं कुतित्थियमयाइं पुवावरवाहगाणि मोक्खसाहगकिरियाए मिच्छारूवाणि ति । निच्छए जाए, पसत्थे तिहिकरणमुहुत्ते आगमविहिणा समोसरणे गुरुसहिओ 20 कयचिइवंदणो भणइ- 'अहं भंते पुव्वमेव मिच्छत्ताओ पडिक्कमामि, सम्मत्तं उवसंपज्जामि' इत्यादि । एवंकमेण जा पडिवजिज्जइ सावयजणेण सा दसणपडिमा; जावज्जीविया य एसा । एईए पुण कायव्वं निस्संकिय निकंखिय निव्वितिगिच्छा अमूढदिट्ठी अ। उववूह थिरीकरणे वच्छल्ल पभावणे अट्ट। एसट्टविहो दंसणपडिमायारो । (२) तदणंतरं बीया वयपडिमा- सम्मत्तपडिमं विणा एसा न होइ ति। ॐ दुवालस वि वयाणि पडिवजइ पुव्वकमेण । (३) तइया सामाइयपडिमा- उभओ कालं सामाइयं करेइ । जहावसरं सामाइयं फासेइ । एसा तिमासिया होइ । (४) चउत्था पोसहपडिमा- पुत्वोइयगुणजुत्तस्स अट्ठमि-चाउद्दसीसु चउव्विहं पोसहं सव्वओ करेंतस्स होइ चत्तारि मासा । (५) पंचमा पडिमाभिहाणा पडिमा-सा पोसहदियहेसु राईए वग्धारियपाणिस्स काउस्सग्गेण ठियस्स पंचमासा होइ। (६) छट्ठा बंभपडिमा - तत्थ सिंगारविकहाविरओ इत्थीए समं विवित्ते नो ठाइ अखंडबंभयारी पुत्वोइयगुणजुत्तो ३0 होइ, छम्मासा एसा; जावजीवं पि कोइ पालेइ, न पडिसेहो । (७) सचित्तपरिहारपडिमाए- सचित्तमाहारं चउविहं वि वज्जइ । एसा सत्तमासा कालमाणेण । (८) आरंभाभिहाणाए - पुण वज्जइ सयमारंभ सावजं । उप्पन्ने कारणे पुत्तेहिं वा नाइएहिं वा पेसेहिं वा कारवेइ । एसा पुण अट्ठमासिया । (९) तथा नवमाए पेसवजाभिहाणाए पुत्ताइसु निक्खित्तभरो पेसेहिं वि सावज्जमारंभं न कारावेइ पुबोइयगुणजुत्तो। 1 A नाऊण। 2 B C °मण आइ । 3 A नाईहिं । Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या 1 धर्मोत्साहप्रदानफलविषयक प्रद्युम्नराजकथानकम् । १३१ नवमासा एसा पडिमा भवइ । तहा उद्दिट्ठकडं भत्तं वि वजेज्जा', किं पुण सेससमारंभं । (१०) दसमाए पडिमाए - सो सीसं खुरेण मुंडावेई, कोइ सिहिं वा धारेइ । एसा पुण दसमासा । (११) तहा खुरमंडो लोएण वा रयहरणमुहपोत्तियसंथाराइसव्वसाहूवगरणधारी, जइ इव भिक्खं हिंडइ सबासु पुबोइयगुणजुत्तो । एकारसमासा एसा । तओ पवजं वा पडिवज्जइ, तत्थेव वा चिट्ठइ, पुणो गिहं वा पडिवज्जइ । एयाओ एक्कारसपडिमाओ करेइ जो पव्वजं काउं न सकेइ' । भणियं रन्ना- 'भयवं! जो एयं पि काउं न सकइ, सो किं करेउ?' । भणियं सूरिणा-'उत्तिमगुणबहुमाणो तेण कायव्वो, तत्तो विसिट्ठकम्मनिज्जरा दिट्ठ ति । सव्वुत्तमगुणा भगवंतो तिलोगनाथा जिणवरिंदा । तेसु बहुमाणगमगाई इमाइं लिंगाइं - गयणयलमणुलिहंतं दसदिसिपसरंतनिम्मलमऊहं । धवलुव्वेल्लिरधयवडमालाकलियं जिणाययणं ॥ काराविय सुयविहिणा निम्मलवेरुलियनीलवजेहिं । वरपोमरायससिरविमणिमणहरहेमरुप्पेहिं ॥ ॥ कारेचा जिणबिंबं तत्थ महासुत्तहारनिम्मवियं । सुयविहिणा पुण तस्स उ दुयं पइ8 करावेइ ॥ तत्तो पइदिणपूयं विसिट्ठपुप्फाइएहिं सो कुणइ । कंचणमोत्तियरयणाइदामएहिं च विविहेहिं ॥ सुरहिविलेवणवरकुसुमदामवरगंधधूवमाईहिं । कप्पूरमलयजेहिं मयनाहिरसोत्तममएण ॥ एतेहिं कुणइ पूयं जो विहिणा तस्स तत्थ बहुमाणो । नजइ एस पवाओ बहुमाणो कजगम्मो ति॥ तब्बहुमाणा नियमा तव्वयणे आयरो फुडं तस्स । तब्बहुमाणाओ पुण तदुत्तकिरियाए सद्दहणं ॥ । किरिया वि* ससत्तीए करेमि वंछा सया वि परिसुद्धा । एत्तो च्चिय तक्किरियारएसु साहूसु बहुमाणो । तओ साहुबहुमाणाओ अभिगमण-वंदण-नमंसणाइसु पयति । तहा फासुयएसणिज्जेहिं भत्त-पाणवस्थ-कंबल-पत्त-ओसह-भेसज्जेहिं पराए भत्तीए साहुजणपडिलाहणे पवित्ती होइ । तहा मुणिजणपभावणाए तप्पडिणीयनिवारणे य जहासत्तीए उज्जमइ । तहा पडिवण्णाणुव्वएसु सावगेसु गुणाहिगबुद्धी; इयरेसु समाणधम्मियमई। तत्तो तेसिं सव्वत्थ वच्छल्लं अवायनिवारणं कुणइ । तहा जिणहरेसु " रहजत्तागयजणस्स भत्त-पाण-वत्थ-तंबोलाईहिं पूयणं दंडकरमोयणं एवं विहा किरिया सव्वा वि जिणबहुमाणाओ पयट्टइ । एवं च महाराय ! गिहवासमइवसंता वि आरंभपरिग्गहेसु पयटुंता वि पाणिणो सुहकम्मपडिबंधगा होऊण, सुदेव-सुमाणुसत्त-सुकुलुप्पत्तिकमेण जिणधम्मे बोहिं पाविऊण, चरणसंपत्तिकमेण मोक्खं गच्छंति' ति । तओ भणियं पजुन्नराइणा- 'भयवं! अणुग्गहेह सम्मत्तसावगधम्मदाणेण । जओ विलीणो मोहगंठी, जाओ जिणिंदवयणे पचओ दढयरं, तित्थयरेसु आगमभासगेसु । बहुमाणो जाओ । एत्तो चिय गणहरेसु सुत्तकारगेसु सेससूरीसु वि आगमअबोच्छित्तिकारगेसु तप्परूवगेसु तक्किरियाकारगेसु साहूसु य दढयरं जाया भत्ती । ता जं तुब्भेहिं वागरियं तं सवं सविसेस करिस्सामि ति । ता दिज्जउ मे दंसणसावगत्तं' ति । तओ सोहणतिहि-करणमुहुते लग्गे दिनो सावगधम्मो उम्गसेणसूरीहिं । जाओ सम्मत्तसावगो राया । गच्छइ पइदिणं सूरिसमीवे । अन्नया- सूरिवंदणत्थं गएण राइणा जायकोऊह लेण पुट्ठो सूरी- 'भयवं ! पढमजोवणे वट्टमाणेहिं 30 केण निव्वेएण भोगा परिचत्ता तुब्भेहिं ? साहेह अम्हाणं, अवणेह इमं कोऊहलं' । तओ सूरिणा भणियं - 'महाराय ! जइ कोउयं, ता सुणसु संसारविलसियं ति । ___1 वजेइ। 2 A मुंडावेइ सिहं वा। 6A अणुगेण्हह । 3 B C कारावित्ता। 4 A किरियं पि। 5 BC उप्पजइ । Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० श्रीजिनेश्वरसूरिकृत-कथाकोशप्रकरणे [२३ गाथा __ अत्थि सोरियपुरे दढधम्मो राया । तस्स वम्मादेवी । तीए पुत्तो उग्गसेणो नाम अहं जाओ। गहियकलाकलावो नरवइणो पुरजणस्स य अच्चंतमणाभिप्पेओ जाओ । अम्नया वसंतउरसामिणो ईसाणचंदस्स धूयाए कणगवईए सयंवरो त्ति सोऊण महाभडचडयरेणं गओ अहं तत्थ । पत्तो आवासिओ बाहिरियाए । पइट्ठो सयंवरामंडवे । अन्ने य बहवे रायपुत्ता । तत्थ य अहं रायधूयाए सिणिद्धाए 5 दिट्ठीए पलोइओ । विन्नायं च तं मए जहा इच्छइ ममं ति । तओ पञ्चूसे सयंवरो भविस्सइ त्ति गओ निययमावासं । अन्ने वि रायपुत्ता गया सट्ठाणेसु । जाव रयणीए पढमजामंमि समागया एगा परिणयवया दासचेडियाजुया महिला । तीए समप्पिया चित्तवट्टियाए लिहिया विज्जाहरदारिया । तीए य हेट्टओ अभिप्पायपिसुणा गाहा तुह पढमदंसणुप्पन्नपेमवसनिवडियाए मुद्धाए । कह कह वि संठविजइ हिययं हियसव्वसाराए ॥ तयणंतरं च समप्पियं तंबोलं समालहणं कुसुमाणि य । मए वि सवं' गहियं सबहुमाणं । दिन्नं तीए पारितोसियं निययकंठाहरणं । भणियं तीए- 'कुमार ! किंचि वत्तव्वमत्थि । ता विवितमाइसउ कुमारो' । तओ भूविक्खेवेणं सन्निओ ओसरिओ परियणो । भणियं तीए- 'कुमार ! भट्टिदारिया विन्नवेइ जहा इच्छिओ मए तुमं । किंतु जाव मह कोइ समओ न पुण्णो ताव तए अहं न किंचि 15 भणियव्वा । किंतु मए तुह परिग्गहे अच्छियवं' । मए भणियं- ‘एवं भवउ, को दोसो' त्ति । तओ पञ्चूसे सयलनरवइसमक्खं, लच्छीए इव महुमहणस्स महं तीए उप्पिया वरमाला । विलक्खी भूया सव्वरायाणो । गया नियनियठाणेसु । वित्तो वित्थरेण विवाहो । नीया सनयरं कणगवई । कओ तीए पुढो आवासो । ठिया सा तत्थ । पञ्चूसे गच्छामि अहं से गेहे । करेइ उचियपडिवत्तिं । उवविसइ आसन्ने । नाणाकहाविणोएणं अच्छित्ता किंचि कालं, पुणो गच्छामि सगिहमहं । एवं पइदियहं 20 वच्चामि । तत्थ वड्डए ममाणुरागो । न य तीइए' अभिप्पाओ नजइ - केण कारणेणं अणुरत्ता वि नेच्छइ संवासं ति । तओ मए चिंतियं-केण उवाएण इमीए अभिप्पाओ नजिही ? । एवं चिंतावरो सुहासणत्थो मंडवोवगओ जाव अच्छामि, ताव पडिहारेण जाणावियं - 'कुमार ! एगो जडहारी दुवारे चिट्टइ; भणइअहं भइरवायरिएण पेसिओ रायपुत्तदंसणत्थं' ति । एयमायण्णिऊण मए भणियं- 'लहुं पवेसेहि' । पडिहाराणुण्णाओ आगओ सो; कयमुचियकरणिजं । पणमिओ मए । दाऊण आसीसं उवविट्ठो नियकट्ठा25 सणे । भणियं तेण - 'कुमार ! भइरवायरिएण पेसिओ तुम्ह समीवे' । मए भणियं - 'कत्थ चिट्ठति भगवंतो?' । तेण भणियं- 'नगरबाहिरियाए अमुगमढे' । मए भणियं- 'अम्हं ते गुरवो, ता सोहणं कयं भगवंतेहिं जमिहागय ति । वच्चह तुब्भे अहमागच्छामि' ति भणिऊण विसजिओ सो। __ बीयदिवसे पभाए गओऽहं उजाणे तस्स दसणत्थं । दिट्ठो बग्घकत्तीए उवविट्ठो भइरवायरिओ। पडिओऽहं तस्स चलणेसु । आसीसं दाऊण दावियमासणं । उवविट्ठोऽहं तत्थ । मए भणियं- 'अणु30 गहीओऽहं भयवंतेहिं, जमिहागया' । भणियं तेण- 'कुमार ! तुमं उद्दिसिऊण अम्ह एत्थ आगमणं' । मए भणियं- 'आइसंतु भगवंतो जं मए कायवं' । तेण भणियं - 'अस्थि मे बहूणि दिवसाणि कयसुपुव्वसेवस्स मंतस्स तस्स सिद्धी तुहायता । जइ एगदिवसं कुमारो समत्थविग्धपडिघायहेउत्तणं पडिवज्जइ, तओ मह सफलो अट्ठवरिसमंतजावपरिस्समो होइ' त्ति । तओ मए भणियं-- 'भयवं ! अणुग्गहीओम्हि 1 BC नास्ति 'सव्वं'। 2 A. न इयरीए। Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या ] धर्मोत्साहप्रदानफलविषयक प्रद्युम्नराज कथानकम् । १४१ इमिणा आएसेणं ति, तो किं मए कर्हि वा दिवसे कायव्वं ति आइसंतु भगवंतो' । भणियं जहारिणा - ' कुमार ! इमीए कालचउदसीए तए मंडलग्गवावडकरेण नयरुत्तरबाहिरियाए एगागिणा मसा देसे जामिणीए समइक्कते जामे समागंतव्वं । तत्थाहं तिहिं जणेहिं समेओ चिट्ठिस्सामि' । तओ मए भणियं - ' एवं करेमि ' । तओ अइक्कंतेसु कइ 'वि दिवसेसु समागयाए चउदसीए अत्थंगयंमि भुयणेक्कलोयणे' दिणयरे 3 उच्छलिए तिमिरपसरे मए विसज्जियासेसपरियणेण, सिरो महं दुक्खइ ति पेसिया वयंसा # । अओ गागी पविट्ठो सोवणयं', परिहिओ पट्टजुगस्स पट्टो, गहियं मंडलगं । निग्गओ नयराओं परियणं चिऊण गागी । दिट्ठो य मए भइरवायरिओ मसाणभूमीए । अहं पि तेण भणिओ - 'महाभाग ! एत्थ भविस्संति बिभीसियाओ, ता तए इमे तिन्नि वि रक्खियव्वा, अहं च । तुज्झ पुण जम्मप्पभिई अविन्नायभयसरूवस्स किं वुश्चइति । ता तुहाणुभावेणं करेमि अहं मंतसाहणं' । तओ मए भणियं -18 'भयवं ! वी सत्थ कुणसु; को तुज्झ तुह सीसाण य वालं पि वालेउं समत्थो' । तओ गहियं मंडयं । लिओ तस्स व अग्गी । पत्थुयं मंतजावपुव्वं होमं । तओ आरडंति सिवाओ । किलिकिलंति वेयालगणा । हिंडंति महाडाइणीओ । उट्ठेति महाबिभी सियाओ । सरइ मंतजावो । न खुब्भंति ते तिन्नि विणा । जाव य अहं उत्तर दिसाए गहियमंडलग्गो चिट्ठामि ताव य बहिरंतो तिहुयणं पलयब्भरसियाणुकारी भरतो महिहरकुहराई समुच्छलिओ भूमिनिहाओ सहसा समासन्नमेव विह डियं ॥ धरणिमंडलं समुट्ठिओ सीहनायमुयंतो कालमेहोत्र कालो कुडिलकसिणकेसो पुरिसो । तस्स य सीहनापडिया तिन्न वि जणा दिसापाला । भणियं च तेण - ' रे रे ! दिव्वंगणा कामकामुया पुरिसाहमा, न विण्णाओ अहं तए मेहनायाभिहाणो खेत्तपालो इहं परिवसंतो ? मह पूयमकाऊण मंतसिद्धिमभिलससि ? एसो संपयं चेव न होसि । एसो वि तुमए वेयारिओ रायपुत्तो अणुहवउ सकयस्स अविणयस्स फलं' । ततो मए तं दहूण भणियं - 'रे रे पुरिसाहम । किमेयं पलवसि ? । जइ अस्थि ते 20 पोरिसं ता किमेणं पलविएण | अभिमुहो समागच्छ, जेण दंसेमि ते एवंगज्जियस्स फलं ति । पुरिसस भुएस वीरियं न सद्ददद्दरेणं' ति । तओ सो अमरिसिओ वलिओ मज्झ संमुहं । अणाउहं च दहूण मए मुक्कं मंडलग्गं । संजमीकयं परिहणयं सह केसपासेण । पयट्टं दोण्ड वि बाहुजुद्धं विविहकरणेहिं । सत्तपहाणत्तणेण वसीकओ सो मए वाणमंतरो । भणियं च तेण - 'भो महासत्त ! सिद्धो अहं तु इमीए महासत्तयाए; ता भणसु तुह किं करेमि ?' । मए भणियं - 'मह एत्तियं' पयोयणं 1 I यस सिद्धि ति । तहा विसा मम भज्जा कह वि वसत्तणं मम निज्जउ' त्ति । तेण उवओगं दाऊण भणियं - 'भविस्स सा तुह कामरूविचणपसाएणं । तुमं पुण मज्झाणुभावेण कामरूवी भविस्ससि' । दाऊण वरं गओ वेयालो । इयरेण य सिद्धमंतेण भणियं - 'महाभाग ! तुहाणुभावेणं सिद्धो मंतो, संपन्नं समीहियं' ति भणिऊण गओ भइरवायरिओ सह तेहिं तिहिं सीसेहिं । अहं पि पक्खालिऊण सरीरं गओ निगेहे । पभायसमए ठिओ अत्थाइयाए खणमेगं । गओ कणगवईए सिमीवे । ठिओ किंचि कालं विविहालावकहाए । उट्ठओ तत्तो । रयणीए जायाए माणुसचक्खूय अगोयरीभूतं काऊण रूवं गओ कणगवई' 1 B नास्ति 'कइसु वि' । 2 B C नास्ति पदमिदम् । 3A वयंसिया । 4 A वासहरं । 5 B C नामेउं । 6 A मंडलयं । 7 B C बहिरंतो । 8 C पोरुषं । 9 A एविएणं । BC आदर्शद्वये । एतदन्तर्गता पंक्तिर्नास्ति 25 30 Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ श्रीजिनेश्वरसूरिकृत-कथाकोशप्रकरणे [२३ गाथा भवणं, अणुरत्ता वि ममं अणुरतं किमेसा नेच्छइ त्ति तीए अभिप्पायगवेसणत्थं, गहियमंडलग्गोऽहं । जाव य धवलहरोवरिभूमिठियाए' कणगवईए पासे दुवे दासचेडीओ चिट्ठति, बाहिं पि जामइल्लगा। अहं पि ठिओ तदेगदेसे अदिस्सरूवी ताव । जाव य भणिया तीए एगा जणी- 'हले ! कित्तिया रयणी ' । तीए भणियं - 'दुवे पहरा किंचूण त्ति । तओ तीए मग्गिओ ण्हाणसाडओ । पक्खालियं । अंगं लूहियं पढ़ेसुएण । कओ अंगराओ । गहियं सविसेसमाभरणं । परिहियं पटुंसुयं । विउवियं विमाणं । आरूढाओ तिन्नि वि जणीओ । अहं पि एककोणमि सणियं समारूढो । गयं उत्तरदिसाहुत्तं विमाणं, मणपवणवेगेण दूरदेसं । उइण्णं सरतीरे नंदणवणस्स मज्झयारे देसे । तत्थ य असोगवीहियाए हेट्ठओ दिट्ठो मए विज्जाहरो । कणगवई य नीसरिऊण विमाणाओ गया तस्स समीवं । पणमिओ य तेण भणिया- 'उवविससु' । थेववेलाए य अवराओ वि तिन्नि वि जणीओ तहेव समागयाओ, 10 ताओ वि पणमिऊण तदणुमईए उवविद्याओ । थेववेलाए समागया अन्ने वि विजाहरा । तेहिं च समागंतूण, पुव्वुत्तरदिसाभाए भगवओ उसभसामिणो चेईहरं, तत्थ गंतूण पुव्वं कयं उवलेवणसंमज्जणाइयं । गओ सो वि विज्जाहरो तत्थ । ताओ वि चत्तारि वि जणीओ गयाओं। तओ कीए वि वीणा गहिया', अन्नाए' वेणू, अवराए आढत्तं कागलीपहाणं गेयं । एवं च विहीए कयं भुयणगुरुणो मज्जणयं, विलित्तो गोसीसचंदणेणं, आरोवियाणि कुसुमाणि, वुग्गाहिओ 15 धूवो । पयर्टी नर्से विज्जाहरेण । भणियं- 'अज्ज कीए वारओ ?' । तओ उठ्ठिया कणगवई । समारद्धा नच्चिउं । नच्चंतीए इमीए एगा किंकिणी तुट्टिऊण पडिया । गहिया सा मए संगोविया य । गवेसिया य तेहिं आयरेणं न य उवलद्धा । तओ संहरियं नहूँ । विसज्जियाओ तेणं गयाओं निएसु ठाणेसु ताओ । कणगवई वि समारूढा विमाणं सह दासचेडीहिं । अहं पि तहेव समारूढो । समागयं कणगवईए मवणे विमाणं । निग्गंतूण अहं गओ निययभवणं, पसुत्तो य । समुट्ठिओ उम्गए सूरिए । कयउचियकरणिज्जो समागओ मंतिपुत्तो मइसागराभिहाणो । तस्स मए समप्पिया किंकिणी । भणिओ य सो मए जहा-कणगवईए समीवं° गयस्स मह समप्पेज्जासु । भणेजासु 'पडिया एसा मए लद्ध' त्ति । तेण भणियं - ‘एवं करेस्सं' ति । गओ हं कणगवईए गेहं । उवविठ्ठो दिन्नासणे । उवविट्ठा य सा मह समीवे पट्टमसूरियाए । पत्थुयं सारियाजूयं । जिओ अहं । मग्गिओ कणगवईए गहणयं । समप्पिया किंकिणी मइसागरेण । पञ्चभिन्नाया य इमीए । भणियं च तीए - 'कहिं एसा लद्ध' त्ति। मए भणियं'किं कजं ?' । तीए भणियं – 'एमेव' । मए भणियं - 'जइ कजं ता गिण्हसु, अम्हेहिं एस पडिया लद्धा'। तीए भणियं- 'कहिं पएसे लद्धा ?". मए भणियं- 'कहिं तुह पडिया' । तीए भणियं- 'न याणामि' । मए मणियं- 'एस मइसागरो निमित्तिओ सव्वं भूयं भव्वं च जाणइ त्ति; इमं पुच्छसु जत्थ पडिय' त्ति । पुट्ठो कणंगवईए मइसागरो। तेण वि ममाभिप्पायं नाऊण भणियं- 'पञ्चूसे निवेयइस्सामि' । तीए भणियं'एवं' ति । खणंतरे खेल्लिऊण गओऽहं नियठाणं । तहेव रयणीए पुणो वि आगओ अद्दिस्सो होऊण । तहेव कणगवई वि चेडीहिं जुया विमाणमारूढा । अहं पि तहेव । पत्ताणि तमुद्देसं । पुव्वक्कमेणं एवणाणंतरं समारद्धा नट्टविही । वीणं वायंतीए कणगवईए पडियं चलणाओ नेउरं । गहियं तं मए । गच्छंतीए पलोइयं, न य उवलद्धं । तेणे व कमेण समागया नियगेहे । गंतूण पसुत्तोऽहं, उढिओ पभाए । समा 1 BCजाव ठिया धवलहरोवरि भूमियाए। 2 B C जणीओ गंतूण तत्थ कीए'। 3 B C नास्ति 'गहिया'। ABC अन्नाए वि। 5A अन्नाए वि। 6A गविट्ठा। 7 BC नास्ति। 8 B C गया नियहाणेसु । 9A कणगवहसमीवे। 10A तेण य । Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याल्या] धर्मोत्साहप्रदानफलविषयक प्रधुन्नराजकथानकम् । १४३ गओ महसागरो । समप्पियं तस्स नेउरं सिक्खविऊण । लहुं चेव गओऽहं सह मइसागरेण कणगवईए भवणं । अब्भुष्टिओ तीए दिन्नमासणं । उवविठ्ठो अहं, सा य मह समीवे । पत्थुया गोट्ठी । ताव म कणगवईए किंकिणीलाभसंकियाए पुट्ठो महसागरो जहा- 'पलोइयं जोइसं भवया ? | तेण भणियं-'पलोइयं, अण्णं पि किं पि नटुं । 'किं तयं. तेण भणियं - किं तुमं न याणसि'. तीए भणियं- 'जाणामि अहं जहा नटुं, किंतु उद्देसं न जाणामि जत्थ नटुं । तुमं पुण साहेसु किं तयं, कहिंचि नर्से ति । तेण । भणियं- 'मज्झ अन्नेण साहियं, जहा दूरभूमीए नेऊरं चलणाओ कणगवईए पडियं । तं च जेण गहियं सो मए जाणिओ । न केवलं जाणिओ, तस्स हत्थाओ मए गहिवं' । तओ कणगवई किंकिणीवुतंतेणापि खुद्धा आसि; संपयमणेण वुत्तंतेण सुदु समाउलीभूया, जहा - अहं जाणिया अन्नत्थ वच्चती, ता किं कायव्वं ! को वा एस वुत्तंतो? किमयं सच्चं नेमित्तिओ? । अहवा जइ नेमितिओ ता केवलं जं नहें तमेव जाणइ; कहं पुण मज्झ तत्थ नटुं अयं इहडिओ जाणइ पावेइ य । ता भवियव्वमेत्थ केणावि ।। कारणेण । अयं च इमेसु दिवसेसु लहुं चेव मम गेहमागच्छइ ति निद्दासेसकसायलोयणो य । ता केणइ पओगेण 'एस एव मह भत्ता तत्थ गच्छइ त्ति मह आसंकइ' त्ति । एवं चिंतिऊण भणियं कणगवईए- 'कहिं पुण तं नेउरं जं तुम्हेहिं जोइसबलेण संपत्तं ' । तओ मह मुहं पलोइऊण मइसागरेण कड्डिऊण समप्पियं । गहियं कणगवईए । भणियं च- 'कहिं एवं पावियं?' । मए भणियं- 'कहिं पुण तुह इमं नटुं?' । तीए भणियं - 'जहा इमं नहें तहा सयं चेव अजउत्तेण दिटुं । मए भणियं-॥ 'मज्झ अनेण साहियं । अहं पुण अमुणियपरमत्थो न याणामि जं जहावित्' ति । तीए भणियं'किमणेणं नवयणेणं; किं बहुणा, सोहणमेयं जइ सयं चेव अजउत्तेण दिहें । अह अन्नेण केणावि साहियं ता न सुंदरं ति । जओ जलणप्पवेसेणावि मह नत्थि सोहि' त्ति । मए भणियं-'किमेत्थ जलणपवेसेणं?' ति । तीए भणियं- 'सयमेव नाहिही अजउत्तो । जहा एत्तियं नायं तहा सेसं पि जाणिस्सइ'त्ति, भणिऊण सखेया चिंताउरा जाया । वामकरयलंमि कवोलं निवेसिऊण ठिया अहोमुही । । सओ अहं थेववेलमच्छिऊण काऊण सामन्नकहाओ, मइसागरेण सद्धिं हसाविऊण अन्नकहालावेण कणगमई गओ सट्ठाणं । पुणो पुव्वकमेणेव जाममेचाए रयणीए गहियमंडलग्गो अद्दिस्सो होऊण गओ अहं कणगमईए गेहं । दिट्ठा कणगमई सह दासचेडीहिं विमणा – किं-किं पि अफुडक्खरं मंतयंती । उपविट्ठोऽहं “अणुवलक्खिओ तासिं समीवे । तओ थेववेलाए भणियं एगाए दासचेडीए जहा- 'सामिणि । कीरउ गमणारंभो, अइक्कमह वेला । रूसिही सो विजाहराहिवई'। तओ दीहं नीससिऊण भणियं ४ कणगमईए जहा- 'हला! किं करेमिः मंदभाइणी अहं । तेण विज्जाहरनरिंदेण कुमारभावंमि नेऊण समयं गाहिया, जहा जाव तुमं मए नाणुण्णाया ताव तए पुरिसो नाहिलसणीओ। पडिवन्नं च तं मए । जणयाणुरोहेण विवाहो वि अणुमन्निओ । अणुमया य पिययमस्स । अहं पि गुणरूवाखित्तहियया तप्परायणा जाया । जाणिओ य विजाहरवइयरो मह भत्तुणा । ता न याणामि किं पजवसाणमेयं भविस्सइ । सासंकं मह हिययं; किं वा एस मह दइओ तंमि विज्जाहरकोवजलणंमि पयंगत्तणं पडिवज्जिस्सइ, उयाहु सो ममं वावाइस्सइ; किं वा अन्नं किं पि भविस्सइ' त्ति । ता सव्वहा समाउलीभूया इमेण . संदेहेण । न याणामि किं करेमि । दुट्ठो विज्जाहरो नियबलगविओ य । दढमणुरत्तो य भत्तारो न छड्डेइ पडिबंधं । गरुओ जोव्वणारंभो बहुपच्चवाओ य । गरुयाइं जणय-ससुरकुलाइं । विसमो लोगो। अइगुविला कज्जगई । ता इमाए चिंताए दढमाउली भूय म्हि' । तमायण्णिऊण भणियं दासचेडीए1 B C अयमेव । 2 B C चिंताउरा य वामकर । 3 BC °कमेण जाम। 4 BC तासिं समीवे अणुव । Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ श्रीजिनेश्वरसूरिकृत-कथाकोशप्रकरणे [२३ गाथा 'जइ एवं ता अहं चेव तत्थ गच्छामि, साहिस्सामि य से, जहा सिरं दुक्खइ तेण नागया । तओ जाणिस्सामो किं सो काही । तओ कणगमईए सुचिरं चिंतिऊण भणियं- 'एवं होउ' त्ति । विउव्वियं विमाणं । मए चिंतियं - सोहणं कयमिमीए जं न गय त्ति । अहमेव तत्थ गंतूण अवणेमि विज्जाहर नरिंदत्तणं से, फेडेमि पिक्खणयसद्धं, दूरीकरेमि जियलोयं ति चिंतयंतो सह तीए दासचेडीए , आरूढो विमाणेक्कदेसे । गयं तहेव तं विमाणं तं पएसं । जाव पत्थुयं उसहसामिणो ण्हवणं, काऊण य समाढत्तं नर्से, ताव य दासचेडी संपत्ता तमुद्देसं । नीसरिऊणं विमाणाओ उवविठ्ठा तदेकदेसे । पुच्छिया अवरविज्जाहरेण- 'किमुस्सूरे तुमं समागया न कणगमई ?' । तीए भणियं - 'न सोहणं सरीरं कणगमईए, तओ अहं पेसिय'त्ति । तं सोऊण भणियं विज्जाहरनरिंदेण- 'तुब्भे करेह पेक्खणयं । अहं तीए सोहणं सरीरं करेस्सामिति । तं सोउं संखुद्धा दासचेडी । सजिओ मया परियरो, सन्नाहीकयं ० खग्गरयणं । ताव य उवसंहरिओ नट्टविही । नीसरिओ देवहरयाओ विजाहरो । गहिया चेडी केसपासम्मि । भणियं च तेणं- 'पांवे दुट्ठचेडि ! पढमं तुह चेव रुहिरप्पवाहेणं मह कोवग्गिणो' होउ निव्वाणं । पच्छा जहोचियं करिस्सामि तुह सामिसालीए' । तं चायण्णिऊण भणियं चेडीए - 'तुम्हारिसेहिं सह संगमो एवंविहवइयरावसाणो ति, ता कुणसु जं तुज्झ अणुसरिसं । एयं अम्हेहिं पुव्वमेव संकप्पियं ति । न एत्थ अच्छरियं । तयणंतरं दढयरं कुविएण भणियं विज्जाहरेण-'किमेवं पलवसि + उम्मत्ता इव । संभरसु इट्टदेवयं । गच्छसु वा कस्सइ सरणं' ति । भणियं चेडीए - एसो चिय सुरविज्जाहरिंदनरतिरियवच्छलो भयवं । उसहो तेलोकगुरू सरणागयवच्छलो सरिओ ॥ सरणं अडवीए महं को होज्ज अमाणुसाए घोराए । तह वि अकारिमधीरो त्ति उग्गसेणो महं सरणं ॥ भणियं विज्जाहरेण - 'को एसो उग्गसेणो ?' त्ति । भणियं दासचेडीए - जेण समक्खं चिय नरवईण गुणरूवविक्कमबलेण । सोहग्गजयपडाय व्व सुयणु मह सामिणी गहिया ॥ जेण जियगुरुयगुणेण सयलसत्थत्थभावियरसेण । दूरे वि ठिओ माओ तुमं ति केणइ पओगेणं ॥ जेण तुमं दिट्ठो च्चिय न होसि भुयणमि साहसधणेण । तेण महमत्तणो कीरमाणमिच्छामि किल रक्खं ।। ___एयमायण्णिऊण दट्ठोडभिउडिभासुरेण भणियं विज्जाहरेण- 'तस्स नराहमस्स सरणेणमवस्सं नत्थि ते जीवियंति भणमाणेण कड्डियं विजुच्छडाडोवभासुरं मंडलग्गं । निलक्को तब्भएणं तरुयंतरेसु सव्वो वि परियणो। 25 एत्थंतरे मए पयडी होऊण भणियं-रे रे विज्जाहराहम कावुरिस ! इत्थीजणमझेकवीर ! जुवई णं उवरि खग्गं कèतो न लज्जसि अत्तणो पंचभूयाणं । अहं पुण' एवंविहपुरिसेसु खग्गं वावारेंतो लज्जामि ति, तहा वि एवंविहे वइयरे किमण्णं कायव्वं ति निस्संसयं संपयं न होसि ति; अभिमुहो वलसु' ति भणंतेण कड्डियं परियराउ मंडलग्गं । सो वि गहियाउहो वलिओ मज्झ संमुहो । पयट्टा भमिउं परोप्परं छिद्दन्नेसणपरायणा । जाव महयाविमदेण वंचिऊण तस्स पहारे, हओ सो खंधराभाए 10 पाडियं सीसं विज्जाहरस्स । तव्वावायणाणंतरमेव ताओ तिणि वि कण्णगाओ मह समीवमल्लीणाओ। भणियं ताहिं - 'महाभाग ! मोयावियाओ अम्हे तुमे इमाओ विजाहरपिसायाओ' । मए भणियं - 'कस्स संतियाओ तुब्भे ?' । ताहिं भणियं- 'रायधूयाओ' । तओ विसज्जियाओ मए गयाओ सविमाणेहिं सट्टाणं । अहमवि समारूढो सह चेडीए तंमि विमाणे । समागयं कणगमईए भवणं तं विमाणं । . 1 A °कोवग्गिणी। 2 A. निव्ववणं; निव्वयणं । 3 B C समरसु। 4 B C अह। 5A अहं पि। Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 व्याख्या] धर्मोत्साहप्रदानफलविषयक प्रद्युम्नराजकथानकम् । उइण्णाणि य अम्हे । संहरियं विमाणं । दिट्ठोऽहं कणगमईए । दसणाणंतरमेव भणियं तीए-'किं वावा. इओ दुट्ठविजाहरो' । चेडीए भणियं - 'सुट्ट जाणियं सामिणीए' । कणगमईए भणियं- 'अजउत्त 'नेयं सोहणं ववहरियं भवया; जओ विसमो सो विज्जाहरो' । मए भणियं - 'अहं पुण किं समो तुज्झ पडिहामि ! | दासचेडीए भणियं – 'सामिणि ! किं भणामि, इत्थीजणपसंसणं पि एयस्स निंद त्ति । धीरो ति चेट्टाए चेव विनायस्स, पुणरुत्तयाए महाबलपरक्कमो ति पयडियं विजाहरमरणेणं । तुहाणुरायनिब्भरो ति। सामिणीए सयमेव विन्नायं । उदारचरिओ ति चइऊण रजं गच्छंतेणेव य पयडियं । उवरि किं भणामि । एयस्स जं उचियं तं सयं चेव सामिणी जाणइस्स'त्ति ठिया दासचेडी । तओ एयमायण्णिऊण भणियं कणगमईए- 'हला ! किमेत्थ जाणियव्वं ? । पुवमेव वरमालाए सद्धिं समप्पियं हिययं । संपयं अहमणेण नियजीवियमुल्लेणेवं वसीकया, संपयं देहस्स जीवियस्स य एस एव मे पहवइ त्ति । का अहमवरस्स करियव्वस्स य । सव्वहा अणुकूलो, सुरूवो, उवयारी, पिओ य; निद्देसवत्तिणी . अहमिमस्स' ति भणिऊण कणगमई सलज्जा अहोमुही ठिया । तओ मए भणियं- 'सुंदरि! किमणेणं जंपिएणं । न मए अउव्वं किं पि तुह निमित्तं कयं; जओ किं थोवो परिहवो जं नियमज्जा परवस ति। तओ नियपरिहवविसोहणत्थं सव्वं मए चिट्ठियं । ता सुंदरि! थेवमिणं, तुज्झ कए किं न कीरइ जयंमि । अहवा सुपसिद्धमिणं 'दुक्खेण विणा न सोक्खाई। एवं सह कणगमईए नेहगब्भिणं जंपिऊण, पसुत्तो सह तीए तत्थेव । ताव य तस्स विज्जाहरस्स चुल्लभाउणा सह कणगमईए अवहरिओ आगासेणाहं । पक्खित्तो दूरं नेऊण समुहमज्झे । अन्नत्थ कणगमई पक्खित्ता । तओ दिव्वजोएण पडणाणंतरमेव समासाइयपुवभिन्नबोहित्थफलगो सत्तरतेण लंघिऊण जलनिहिं संपत्तो तीरे । तत्थ य किंचि कालं समासत्थो होऊण कहं-कह वि महया किलेसेण कयलीफलाइएहिं काऊण पाण वित्तिं गिरिनईतीरदेसे अच्छिउं पयत्तो । न य तंमि पएसे माणुससंचारो ति । तओ चिंतियं-किमेयं तीरं, उयाहु दीवं; किं वा को वि पव्वयवरो ति । एवं संकप्पविकप्पसमाउलो गओऽहं थेवं भूमिभागं; जाव नाइदूरदेसंमि दिट्ठो तावसकुमारो । गओऽहं तस्स समीवं । वंदिओ य सो मए । पुच्छिओ- 'भयवं ! को उण एसो पएसो?,' तेण भणियं- 'जलनिहितीरं' । मए भणियं- 'कहिं तुम्ह आसमपयं' । तेण भणियं- 'इओ य नाइदूरंमि; ता तुमं पि आगच्छ' । तओऽहं नीओ तेण आसमं । दिट्ठा मए तत्थ कणगमई । तओ गरुयपमोयाऊरियसरीरेण भणियं मए - 'सुंदरि ! 25 कहं तुम तस्स मुक्का ?' तीए भणियं- 'पक्खित्ताऽहं तेण पव्वए । तओ महया किलेसेण इह संपत्ता' । तओ तं समासासिऊण गओ अहं कुलवइसमीवे । वंदिओ य सो दिन्नासीसो उवविट्ठो तस्स समीवे । भणिओ कुलवइणा- 'पुत्त ! किमेसा तुह घरिणी ?' । मए भणियं- 'आम' । कुलवइणा भणियं- 'इमं मए अइक्कंततइयदियहमि निग्गएण बाहिं एगागिणी दिट्ठा । नोवलक्खिओ अहं इमीए । तओ पासाई अवलोइऊण भणियमिमीए जहा – 'भयवईओ वणदेवयाओ ! परिणीया केवलमहं भचारेण, न य मए । तस्स किंचि उवयरियं । तेण पुण मज्झ कए' किं किं न कयं । पलोइओ य मए तिन्नि दिणाणि समुद्दतीरे, नोवलद्धो दइओ । ता तेण विरहियाए मह जीविएण न पओयणं । तस्स सरीरे भलेजह ___ 1 A मेवं भवया ववहरियं । 2 B C करियव्वयस्स। 3 B C नास्ति विकप्प। 4 BC इहं पत्ता। 5BC निमित्तं। 6A लमेजह । क. १९ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनेश्वरसूरिकृत-कथाकोशप्रकरणे [२२ गाथा ति भणिऊण विरइओ पासओ । समारूढा रुक्खे जाव अप्पाणं किल मुयइ' ताव अहं हाहारवसहगन्भिणं 'मा साहसं मा साहसं'ति भणमाणो धाविओ तयाभिमुहं । संखुद्धा य एसा जाव' पलोइओ अहं, विलिया फेडिऊण पासओ उवविट्ठा तरुवरस्स हेट्टओ । मए समीववत्तिणा होऊण आसासिया'पुत्ति ! किं निमित्तं तुमं अप्पाणं वावाएसि ? । किं तुह भत्ता समुइंमि केणइ पक्खित्तो जेण तस्स तीरं पलोइएसि ? । तओ तीए न किंचि जंपियं । केवलं मुत्ताहलसच्छहेहिं थूलेहिं अंसुबिंदूहिँ रोविउं पउत्ता । एयं च रुयंती पेच्छिऊण मह अईव करुणा संवुत्ता । तओ पलोइयं मए दिव्वनाणेणं, जाव जाणिओ समुद्दपक्खिवणावसाणो नीसेसो वि वइयरो । तओ भणिया मए एसा जहा- 'पुत्ति ! एहि आगच्छ आसमपयं । भविस्सइ तुह तेण सद्धिं समागमो तइयदिणंमि । ता वीसत्था होहि' । तओ आसासिऊण आणीया आसमपयं । काराविया कह-कह वि किलेसेण मया कि पि पाणवित्तिं । भक्खियाणि ॥ वाहजलपक्खालियाणि कइ वि फलाणि । तओ विउत्त-संजोयणपोराणकहाहिं कह-कह वि नीया कप्पसमाणा दो वासरा । अज्ज पुण एसा मरणेक्कववसाया परिहरियसयलवावारा वडुएहिं रक्खिज्जमाणा धरिया जाव तुमं समागओ' ति । मए भणियं- 'भगवं! अणुगिहीओम्हि । दिनमिमीए जीवियं मज्झं च' । तओ कुलवइसमीवातो उढिओ गओ तीए समीवं । भणियं च मए - 'सुंदरि ! एयाइं ताई सच्छंद18 चारिणो विहिणो विलसियाणि । एसा कम्माण परिणई । एवंविहवइयरभएणं चत्तनियघरकलत्ता मुणिणो सुन्नारन्नाइं सेवंति । एवं विहवइयराणं गोयरीभवंति विसयाहिलासिणो । ताव वीसत्था होहि' ति भणिऊण घेत्तूण कणगवइं गओ गिरिसरियं । मजिओ विहिणा । कया तत्थेव कयलाईहिं पाणवित्ती। वाहराविओ कुलवइणा भोयणनिमित्तं । 'कया पाणवित्ती' कहावियं कुलवइणो। एगत्थ कयलीहरे पसुत्तो सह कणगवईए । पुणो तेण विजाहरभाउणा अंगारगेण अवहरिओ सह कणगवईए । पक्खित्तो समुद्दे, 20 कणगवई अन्नपासम्मि । समुत्तिण्णाणि दो वि विहिनिओगेणं । पुणो वि तत्थेव मिलियाणि । भणियं कणगवईए- 'अजउत्त ! किमेवं ?' । मए भणियं- 'सुयणु! विहिविलसियं' । तीए भणियं- 'अजउत्त ! मा एवं भणसु । जओ देवस्स मत्थए पाडिऊण सव्वं सहति कापुरिसा । देवो ताणं संकइ जाणं ते उप्परि प्फुरइ ॥ 23 ता मा मुयसु महायस उच्छाहं भुयणनिग्गयपयावं । इय मज्झत्थो तं जाव ताव सत्तू परिप्फुरइ । मए भणियं- 'सुंदरि ! किं करेमि अदिट्ठो दिव्वो व्व वियरइ सत्तू ; ता संपयं तहा करिस्सं जहा पुणो एवं न करेइ' । तओ रयणीए कणगवईए समीवे नियगपडउच्छाइयं तणपूलयं काऊण खग्गवग्गकरो अदिस्सो होऊण निझुणे ठिओ अहं । पसुत्ता कणगवई । ताव य समागओ विजाहराहमो । उडिओ अहं - रे रे विज्जाहराहम ! गेण्हेसु आउहं । संपयं न होसि' त्ति भणिऊण कड्डियं मंडलग्गं ७ मए, तेणावि । संखुद्धो य सो। वाहियं मह खग्गं, वंचियं मए । तओ पहओ सो मए खग्गेण । पेसिओ सो वि भाउणो मग्गेण जममंदिरं । पभाए समागओऽहं कुलवइसमीवं । तेणावि आसासिओ अहं । ठिओ कइवयदिवसाणि तत्थ । ___1C मुंचइ; B मुवइ । 2 नास्ति 'जाव' BCI 3 BC पयत्ता। 4 B C तं च। 6 BC देवो। 5 BC तत्तो। Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या ] धर्मोत्साहप्रदानफलविषयक प्रद्युम्नराजकथानकम् । १४७ अन्नया तावसकुमारएहिं नीओ अहं वसिमासन्ने सह कणगमईए । आगच्छामि सनगराभिमुहं । अन्नया पत्तोऽहं कंचीए नयरीए । तत्थ बाहिं दिट्ठो महामुणी समुद्दसूरी धम्ममाइक्खंतो जणाणं । वंदिओ सो सह कणगवईए । कया धम्मकहा । तओ मए भणिया कणगवई जहा- 'सुंदरि ! असारो संसारो। विसमा कज्जगई । बहुपच्चवाओ घरवासो । चलाणि इंदियाणि । अइकुडिला पिम्मगई । को जाणइ केरिसमवसाणं । ता वरं सइं चेव छड्डिऊण सवं मोहविलसियं पव्वजं गेहामो एयस्स महामुणिणो । समीवे' । तीए भणियं - 'अजउत्त ! सोहणमेयं । किं तु अहिणवं जोव्वणं, विसमो विसमसरो, न य जहिच्छं माणियं विसयसुहं । ता गच्छामो ताव सट्ठाणं । तत्थ पत्ताणि माणियविसयसुहाणि जहोचियं करिस्सामो' ति । तदणुरोहेण मए भणियं- 'एवं होउ' । तओ वंदिऊण सूरिं पविट्ठोऽहं नयरीए । बाहिं ठिया कणगवई । असोगतरुणो हेढे उज्जाणसमासन्ने कारावियाओ' मए दुवे मंडयकुक्कुडियाओ। गओऽहं जत्थुद्देसे मुक्का कणगमई । दिट्ठा सा मए, अब्भुटिओऽहं तीए । कया पाणवित्ती । ठियाणि ॥ गंतूण समासन्नकयलीहरए । लक्खिओ मए भावो कणगमईए जहा सुन्नहियय त्ति । तओ मए चिंतियं-सुमरियं माणुसाणं भविस्सइ । तयणंतरं च गओऽहं सरीरचिंताए । समागओ य पेच्छामि पायवंतरिओ जाव आलिहइ चित्तकम्मं कंठे घोलेइ पंचमुग्गारं । वाहजलभरियनयणा दिसाओ हरिणि व्व जोएइ ॥ वामकरोवरिसंठियमुहपंकयमुक्कदीहनीसासा । अभणंत च्चिय साहइ मयणवियाराउरं चित्तं ॥ तओ मए चिंतियं- 'हा! किमेयं ? अहवा न पारेइ मह विओगंमि एगागिणी चिट्ठिउंति । ता जइ मह दंसणे समाउला भविस्सइ ता मज्झोवरि नेहो । अह संवरिस्सइ आगारं ता न सोहणं' ति चिंतिऊण मए दंसिओ अप्पा दूरत्थो । संवरिओ तीए मयणवियारो । समागओऽहं तीए समीवं । । भणिया सा मए- 'सुंदरि! सुमरसि नियमाणुसाणं, जेणुबिग्गा विव लक्खिजसि । तीए भणियं'अजउत्त! तुमंमि साहीणे किं माणुसेहिं । रनं पि होइ विसमं जत्थ जणो हिययवल्लहो वसइ । पियविरहियाण वसिमं पि होइ अडवीए सारिच्छं ॥ तं सोचा मए चिंतियं-उवयारप्पायं जंपियमिमीए । ता न सोहणमेयं । उवयारेहिं परो चिय घेप्पइ अग्छति ते तहिं चेव । इयरंमि पवतंतो पेम्माभावं पयासेंति ॥ ता सपहा भवियश्वमेत्थ केणइ कारणेणं ति-मुणिऊण उट्ठिओ तीए समीवाओ । गओ य आराममज्झयारे चेव थेवं भूमिभागं, जाव समागओ एगो पुरिसो । पुच्छिओ य अहं तेण जहा- 'किमेत्थ संपयं पि चिट्ठइ कुमारो ?' मए भणियं- 'को एस कुमारो ?' तेण भणियं - 'नयरीसामिणो वालचंद- 30 राइणो पुत्तो गुणचंदाभिहाणो मज्झण्हे इह समागओ आसि । तओ अहं तेणेव कजेण पेसिओ, समागओ य । अओ पुच्छामि' । मए भणियं - 'गओ कुमारो समासाइयइठ्ठलाभो' ति । तेण भणियं - 'किं सा देसंतरागयसुरूवतरुणजुवई घडिया कुमारस्स?' । मए भणियं- 'न केवलं घडिया, नीया य 1 BC काराविया। 2 A दोण्णि। 3A तत्थुद्देसे । Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૪૮ श्रीजिनेश्वरसूरिकृत-कथाकोशप्रकरणे [२२ गाथा समवणं । तेण भणियं - 'सोहणं जायं । कुमारे दिट्टमेत्ते चेव तीए महंतो अणुबंधो आसि'त्ति भणिऊण गओ सो । तओ मए चिंतियं-धिरत्थु संसारविलसियाणं; धिरत्थु महिलासहावाणं । अवि य न गुणेहिं नेय रूवेण नोवयारेण नेय सीलेण । घेप्पइ महिलाण मणो चवलो पवणुद्धयधय व्य ॥ ता जावेसा महिला वियारं न दंसेइ ताव इओ अइक्कमामि' त्ति चिंतिऊण गओ तीए समीवं । भणिया य सा मए जहा- 'एहि गच्छामो' । तीए भणियं- 'पञ्चूसे गमिस्सामो' । मए भणियं- 'सत्थो लद्धो, संपयं चेव गच्छामो' । तओ सा परम्मुही हियएण मह भएण संचलिया' । गयाणि अम्हे वसंतउरे । दिट्ठो राया कणगवईए पिया ईसाणचंदो । तेण बहुं विसूरिऊण पुणो जायं पिवं मण्णमाणेण अब्भंगण-हाण-भोयणाईहिं कयमुचियकरणिजं । साहिओ मए विज्जाहरहरणाइसव्वो वइयरो । ॥ राइणा भणियं- "किं न संभाविज्जइ संसारे ?' ति । तओ अहं तीए चेव रयणीए निग्गओ पच्छिमे जामे । गओ तस्स पुव्वसंदिट्ठस्स समुद्दसूरिस्स समीवे, पव्वइओ य तस्संतिए । अधीतं सुत्तं । ठाविओ निययपए सूरीहिं । सो य अहं विहरतो इहमागओ । ता एयं मे वेरग्गकारणं । एवं सोऊण संविग्गेण भणियं पजुन्नराइणा- 'सोहणं भंते ! वेरग्गकारणं । एवंविहो चेव एस संसारो' । उढिओ वंदिऊण सूरिं, गओ सट्ठाणं । तत्थ य पत्थावे भणिओ सुबुद्धी रन्ना- 'महामच्च ! 1 नित्यारिओ भवाडवीओऽहं तुमए; ता किं होज जेण तुमं पडिउवयरिओ होसि । जं किंचि इट्ठतरं कहेसु जेण संपाडेमि' । भणियं सुबुद्धिणा- 'देव ! जइ एवं ता मुंच, जेण पव्वयामि' । भणियं रन्ना- 'जुत्तमेयं विवेगकलियाणं । किं तु जइ ममं नित्थारेउं इच्छसि, ता सन्निहिओ ठिओ जहावसरं जहाजोगं किरियासु पयट्टावेहि । अन्नहा अप्पंभरित्तमेव पयडियं होज्जा । तं च तुम्हारिसाणं न जुत्तं । ता विमालिजउ ताव । । तओ कारावियं नयरनाहीए नरनाहेण उत्तुंगं जिणहरं । तत्थ य वरसुत्तहारेण कारावियं जिणिंदबिंब । पइट्टावियं आगमविहिणा । पूइया साहुणो वत्थकंबलभत्ताईहिं । सम्माणिया साहम्मिया । काराविओ पवररहवरो । कया रहजत्ता । पइदिणं करेइ चेइयाणं पूयं विसिट्ठदव्वेहिं भावसारं । पूएइ साहुणो भत्तपाणवत्थपत्ताइएहिं । कया अकरभरा सावगा । पावियं सासणमुन्नइं । एवं वच्चइ कालो। अन्नया विहरतो समागओ पुणो वि उग्गसेणायरिओ। निग्गओ राया वंदणत्थं । सुया देसणा ।। ४ भणियं रन्ना- 'भयवं! अज वि पव्वज्जाए न उच्छहइ मणं, तो गिहिधम्म सविसेसतरं काहामि । भणंतु भगवंते जं मए कायवं दंसणपक्खमहिगिच्च' । भणियं गुरुणा- 'एयाओ कल्लाणगतिहीओ भरहेरखएसु अवट्ठियाओ । जे अईया, जे भविस्संति तित्थयरा, तेसिं सव्वेसिं एयासु तिहीसु चवण-जम्मणवय-केवल-निव्वाणं जायं । ता कल्लाणगतिहीसु विसेसपूयातवाइसु जत्तं कुणसु । अट्ठमी-चाउद्दसीसु य अन्नदिणपूयाइएहिं विसेसो कायव्वो' । तओ भणियं रन्ना- 'जमाणवेंति भगवंतो' । तओ कल्लाण• गतिहीणं पुन्वदिवसवियाले घोसणं कारेइ – 'पञ्चूसे कल्लाणगं भविस्सइ; ता 'हल-कुलिस-कोद्दालाई हिं पुढवीए; चीवरधोवणाई हिं जलस्स; इट्टगापागाइसु जलणस्स समारंभं; दत्त-कुंटि-कुहाडाईहिं तणरुक्खछे. यणं; तसपाणमच्छपसुमहिसाइउद्दवणं जो कारेइ तस्स सारीरो दंडो । तहा करदंडमुग्गाहणं रिणियस्स ___1 A उच्चलिया। 2 B C जायं ति मन्न। कुद्दालाइहिं। 3 A तं। 4 B C पूयाइसु विसेसो। 5 B C हल. Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या ] धर्मोत्साहप्रदानफलविषयक प्रद्युम्नराजकथानकम् । १४९ धरणयं न केणइ कायां । सबो वि जणो पमुइयपक्कीलिओ होउ' ति । तिहा पहाणसावगा वाहरिय भइ राया - 'पच्चूसे सेसवावारं परिच्चज्ज महूसवपरेहिं होयव्वं । जस्स जं नत्थि सो मम भंडागाराओ गेव्हिय निश्चितो होउ' त्ति । तओ अइप्पभाए मिलिया सावगा । समादत्ता जिणभवणे विविहभंगेहिं पूया, कीरs वरपट्टणुग्गयविचित्तवत्थेहिं नाणाबंधविच्छित्तीए उल्लोच्चा, दिज्जंति ताराहारा कुंचल्याहिं मज्झदेसेसु । निसिज्जंति दिप्पंत मरगय वेरुलियमणिसमूहा । विरइज्जइ पंचवन्नसुगंधपुप्फमा लाहिं फुल्लहरयं । सुगंधिगंधोदएणं सिचंति चेइयपंगणाई । कालागरुकप्पूरबहुलो जिणबिंबाणं दिन धूवो । निव्वत्ताए पूयाए समाहयं तूरं । समादत्तं गीयवाइयनट्टविहिणा लवणावतारणमुदगावतारणमारतियावतारणं च । पयट्टाई नाणाधम्मियनाडगाई । एयावसरे समाहूओ राया । गओ अंतेरो । समाहूया सूरिणो पवित्तिणी य । समागया पोसहसालाहिंतो तदुचिया सावगा सावियाओ य । इत्थंतरे समादत्तं चेइयवंदणं । गुरुनिउत्तो | उदारमहुरसदो देइ काउस्सग्गपज्जंतेसु थुईओ | " एवं काऊण चेहयवंदणं उवविट्ठा सूरिणो नियसेज्जाए । वंदिया समुदाएणं सव्वेहिं विदुवालसावत्तवंदणएणं । कयपचक्खाणाओ उवविट्ठा सव्वे | भणियं रत्ना - 'भयवं ! को एत्थ विही ?' । भणियं सूरिणा - 'महाभाग ! भगवंतो कय किच्चा मोक्खं पत्ता । न य विज्जंताणं चारित्तीणं सिणाणाइ पयट्टमिच्छियं वा । किं तु तब्बिबाणं गिहीहिं एस वही काव्वो । 5 पूयास कारेहिं य सिणाणपेच्छणयगीयसारेहिं । तह तह कायव्वं जह तित्थस्स पभावणा होइ ॥ रायामचपुरोहियसामंता सवदंड अहिवइणो । पुरनायगसत्थाहा सेट्टिइभाइसुपसिद्धा ॥ गंधसुरहिगंधा नेवत्थाहरणभूसियसरीरा । इंदागिइं धरेत्ता हवंति बत्तीस ण्हवणकरा ॥ एगे उ छत्तचामरधरा उ वरधूवदायगा अवरे । वरपुप्फपडलहत्था एगे गायंति जिणपुरओ || गयासु इयरजणो नरनाह निजुंजई जहाउचियं । आगमदेसविहिन्नू नट्टे य विलासिणीसत्थो । एस विही नरसामिय ! पुव्वयरमुणीहिं वन्निओ समए । कुसलेहिं समाइन्ना आयरणा का वि हु पमाणं ॥ भणियं रन्ना - 'जमाणवेंति भगवंतो' । तओ समादत्तं जहुत्त विहिणा मज्जणं । निउंजइ सावयजणं धम्मियचोयणाए चोएंतो उच्छाहंतो' सक्किरियासु । गुणलवं पि पुणरुतं पसंसइ । एवंविहं विहिं करेंतेण पज्जुन्नराणा बद्धं देवाउयं उत्तमभोगा य । परित्तीकओ संसारो, कल्लाणयतिहीसु जिणमज्जणाइ 25 करेंतेण । किं बहुणा, जं जया उचियं तं तया समायरइ । पूएइ साहुणो पराए भत्तीए, चउविहाहारेणं बत्थ- पत्त-कंबल - ओसह-भेसज्जाइणा | सावगा वि ठाविया रायकज्जेसु । पयासेइ ताण गुणे । न उवहस मंदबुद्धित्तणं । अणुसासइ गुरुचं । एवं पावियं उन्नई सासणं । जाया बहवो जणा जिणसासणभतिपरायणा । 1 ++ एतदन्तर्गता पंक्तिः पतिता B C आदर्शद्वये । ++ एतद्दण्डद्वयान्तर्गताः पंक्तयः पतिताः A आदर्शे । 1 नास्ति पदमिदं B C आदर्शद्वये । 15 अण्णया जायं से सरीरकारणं । समाहूया वेज्जा | साहिया पउत्ती । भणियं वेज्जेहिं - 'देवो सया 20 विधम् अव तहा वि विसेसओ संपयं धम्मोसहं कुणउ । न एस पायसो पडिनियत्तइ वाही' । तओ राइणा वाहरिया अमचा सामंता य । अहिसित्तो घणवाहणो जेट्ठपुत्तो निययपए, अणुसा 20 Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० श्रीजिनेश्वरसूरिकृत-कथाकोशप्रकरणे [ २३ गाथा सिओ जहोचियं, सामंतामच्चाय, तहा - 'पुत ! सावगधम्मरएण होयव्वं । चेइयाणं पूयासक्काराइ महाविभूईए कायव्वं । जओ एवमेव अणुगामियं हियं पत्थं । एयाणुभावेण समाणे मणुयत्ते रज्जसिरी आणाईसरियत्तं च जायइ इहलोए, परलोए य सग्ग- मोक्खाइं ति । तहा साहुणो नियदेसे विहारं कारेयव्वा । विसेसओ कोसलाउरे । निःश्चं अभिगमण-वंदण-नमंसण-संविभागाइणा साहुजणस्स बहुमाणो • कायव्वो; तप्पचणीयनिग्गहेण य । तहा एए सावया तव सह जाया सह वड्डिया य मम पणयदुल्ललिया सोयरा इव दट्ठव्वा । परमत्थओ एते तुह हियकरा साहम्मियवच्छला, सव्वहाणेसु चिंतगा एए महासुहिणो करेज्जासि । एयाणमणभिप्पेयं न कायव्वं । एयाण दोसच्छायणेक्कबुद्धिणा गुणदंसिणा व्वं । तहा पुत्त ! जा जाण ठिई तित्थियाण सासणाइया तीए वि लोवो न कायव्वो । जे य माहणकुतित्थियादओ नियसमय किरियमाणुसरंता परिभविज्जंति केणइ, तत्थ रक्खाए पयट्टियव्वं । जओ राईण ठिई एस ति । 10 15 20 एवं घणवाहणरायमणुसासिऊण समाहूयाओ देवीओ, भणियाओ य - 'ममं कालगयं मा अणुगच्छेज्जाह । तहा मरियव्वं जहा सुमया होह । जइ सक्केह, पव्वज्जं करेज्जाह । उयाहु पोसह - सामाइ - यरयाओ गिहवासमणुवसेज्जाह । कालपत्तं अणसणविहिणा मरियव्वं । जलणप्पवेसे वाणमंतरेसु उववाओ भणिओ आगमे' चि । मन्नियं सव्वाहिं । 30 ओ समाहूया सूरिणो । दिण्णा आलोयणा । पुणो पडिवण्णं सम्मत्तं, अणुव्वयाणि य । पडिलाहिओ संघो वत्थ- कंबलाईहिं । कयं साहारणसंबलयं । समाहूय भणिया पहाणसावगा, जहा - 'ममं धम्मियाहिं चोयणाहिं चोएमाणा कालकालोचिए ठाणेसु सम्मं पडियरह ' । तह ति पडिस्सुयमेतेहिं । निज्जामिओ विहिणा । नमोक्कारपरायणो कालमासे कालं किच्चा उववन्नो सणकुमारे कप्पे सत्तसायरोवमट्ठिइओ देवो त्ति । तओ चुओ सिवं पाविहि चि । अओ अन्त्रेण वि धम्मत्थिणा एवं कायव्वं ति उवएसो | ॥ पज्जुन्नरायकहाणयं समत्तं ॥ ३३ ॥ विपर्यये दोषमाह - व्याख्या - 'ईषदभिमुखमपि ' 'हुः' अवधारणे । तस्य च व्यवहितः सम्बन्धः । स्तोकं स्तोकमभि25 मुखं धर्मोद्युक्तमपि 'केचिद्' - अविदितपरमार्थाः, 'पातयन्ति' विपरीतबोधकरणात् । 'दीर्घ' एवावधारणस्येह सम्बन्धात् विस्तीर्णे जन्ममरणदु.खाले, 'संसारे' - भवे आत्मानं सुतरां तु पातयन्तीति 'अपि' शब्दार्थः । किंवदित्याह - 'मुनिचन्द्र इव' साधुः । ' अपरिणतजनस्य' तथाविध' देशना ' s - नुचितलोकस्य, 'अविधि' देशना ' करणात्' । अनुपायेन विषयविभागापर्यालोचनेन धर्मकथा विधानादिति । भावार्थः कथानकादवसेयः । तच्चेदम् - ईसीसि ममुहं पिकेई पार्डेति दीहसंसारे । मुणिचंदो व्व अपरिणयजणदेसणअविहिकरणाउ ॥ २३ ॥ -- ३४. मुनिचन्द्रसाधुकथानकम् | अथ इव भार वासे सग्गपडिच्छंदयं व पयावइणा रइयं, तिलओ इव धरारमणीए साएयं नाम नयरं । जम्मि य नीरोगा वि सगया' महद्धणा जणा, दायारो वि अविदिण' दुव्वयणा, सव्वसंगहिणो वि 1 A विसयगया । 2 B C अविन्न । Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या ] विपरीतधर्मकथाकरणफलसूचक-मुनिचन्द्रसाधुकथानकम्। अलद्धदोगच्चा लोया । तत्थ य मेइणिपई वि पूयणिज्जो, उदग्गदंडो वि दुल्लालियजणवओ, कमलागरो वि जलसंगवजिओ, समरकेऊ नाम राया। तस्स य सयलंतेउरपहाणा सुरसुंदरी नाम महादेवी । तीए सह विसयसुहमणुहवंतस्स वच्चइ कालो। ___ अण्णया सागरं चंदं च मुहे पविसंतं दट्ठण रयणीए पडिबुद्धा महादेवी । सुमिणोग्गहं करेता रण्णो सिडें । रण्णा वि नियमइअणुसारेण सिटुं- 'देवि ! पसाहियासेसभूमंडलो महाराया ते पुत्तो भविस्सई' ।। 'एवं होउ' ति बहुमण्णियं देवीए । पभाए उवविट्ठो अस्थाणमंडवे नरेंदो । समागया सामंतादयो । वाहरिया सुमिणपाढगा, समागया य । दावियाइं आसणाई । निसन्ना ते वि मंतदाणपुवं । जवणंतरिया ठाविया देवी । भणियं रन्ना - 'भो भो सुमिणसत्थपाढगा! अज्जपच्चूसकालसमयंसि देवीए ओहीरमाणीए दुवे सुमिणा दिट्ठा, सागरो ससी य मुहेण पविसंता । तो कहेह किमेयाणं सुमिणाणं फलं?' । तेहि वि सत्थत्थं विणिच्छिऊण भणियं- 'देवीए पुत्तो महाभागो भविस्सइ । सो य जोव्वणत्थो।। महाराया भावियप्पा वा महातवस्सी भविस्सइ' त्ति । तुट्ठो राया । दावियं पारितोसियं । गया सट्ठाणेसु सुविणपाढगा । राया जवणंतरिओ देवि भणइ - 'देवि! निसुयं सुविणपाढगवयणं । भणियं सुरसुंदरीए – 'देव ! तुह पायपसाएणं सिझंतु मम मणोरहा' । तओ गब्माणुकूलभोयण-सयण-चंकमणाइ अणुसरंतीए देवीए वड्डइ गब्भो । पुण्णदियहेसु सुहगहनिरिक्खिए लग्गे, उच्चट्ठाणट्ठिएसु गहेसु, जाओ देवकुमारोवमो दारओ । निवेइयं रन्नो । कयं वद्धावणयं । वित्तेसु य जम्ममइसवे ठिइवडियं ।। करेंताणं अइक्कंते बारसाहे पइट्टावियं दारगस्स सुमिणदंसणाणुरूवं सागरचंदो ति नामं । पंचधाईपरिग्गहिओ वड्डिउमाढतो । जाओ कालेण 'अट्ठवारिसिओ। तओ समप्पिओ लेहायरियस्स । गहियाओ निस्सेसाओ कलाओ सुचिरेण कालेण । कमेण जाओ भोगसमत्थो । गाहिओ एगदिवसेण बत्तीसाए महारायकण्णगाणं पाणिं । ठाविओ जुवरज्जे । ताहिं सह विसयसुहमणुहवंतस्स वचइ कालो । अण्णया समागओ वणगजो इव निद्दलियकंदलो, सीहो इव नासियासेसमयप्पयारो, समुद्दो इव - गुरुसत्तनिलओ, मेरु व्व विबुहसंगओ, सूरो इव पयट्टियसमग्गपयावो, नरनाहो इव गयपरिग्गहो, अहवा कप्पडिओ इव बहुसत्तकयाहारो, दरिदो इव कुलदूसणो, जुयारो इव परिचत्तवसणो, समागओ धम्मघोसाभिहाणो सूरी । समोसढो सहसंबवणे उजाणे । निवेइओ उज्जाणपालएणं । दिण्णं से पारितोसियं रन्ना । निग्गओ वंदणवडियाए राया कुमारो य अंतेउरेण सह । पंचविहअभिगमेणं पविट्ठो उग्गहे । ति-पयाहिणी काऊण वंदिय उवविट्ठो सट्टाणे । पत्थुया भगवया धम्मदेसणा । तं जहा माया पिया पुत्तकलत्तभाउया, भिच्चा सुमित्ता दुपया चउप्पया । धण्णं धणं रुप्पसुवण्णसंपया, ताणं न लोएत्थ परत्थ वा पुणो॥ जहेह सीहो उ मयं गहाय, मचू नरं नेइ हु अंतकाले । न तस्स माया व पिया व भाया, भजा व पुत्ता न हु हुंति सरणं ॥ न तस्स दुक्खं विभयंति नायओ, न बंधुवग्गा न सुया न भारिया । एगो सयं पञ्चणुहोइ कम्म, कत्तारमेवं अणुजाइ कम्मं ॥ तं एक्कगं तुच्छसरीरगं से, चिईगयं डज्झइ पावएणं । भजा य पुत्ता वि य नायउ य, दायारमन्नं अणुसंकमंति ॥ 1 A जाओ वुट्टवयपजंपाणयचंकमणाइमहूसवेहि (?), अट्ठवारिसिओ। 2 B C मइट्ठिय। 3 A. कुरूसणो। Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 १५२ श्रीजिनेश्वरसूरिकृत-कथाकोशप्रकरणे [ २३ गाथा एमाइ नाऊण जिणिंदधम्मे, पव्वजमासेवह भावसारं । काऊण निस्सेसदुहाण छेयं, मोक्खं उवेजाह महाणुभावा ॥ इच्चाइदेसणं सोऊण वियलिओ मोहगंठी कुमारस्स । भाविओ चित्तैणं । जाओ से चरित्तपरिणामो । समुट्ठिया परिसा । गया सट्ठाणं । कुमारो वि वंदिऊण सूरि भणइ - 'भयवं! अम्मापियरो अणुजाणाविय । करेमि पव्वजापडिवत्तीए सहलं माणुसत्तणं' । माणियं गुरुणा- 'अविग्यं मा पडिबंधं करेसु' ति । तओ समागओ नियगेहे । गओ जणणि-जणयसमीवे विणयपुव्वं भणइ - ताया ! सुओ मए धम्मो तेण वज्जिय जंतुणो। ओसप्पिणी असंखेज्जा ठीई उक्कोसा' अणंतसो ॥ पज्जत्तेयरभेएसु पुढविआउतेउवाउसु । ताओ वणे अणंताओ वट्टमाणस्स वोलिया ॥ विगलिंदियजीवाणं पुढो संखेजसन्निओ । मज्झम्मि वट्टमाणस्स कालोतीतो अणंतसो ॥ असण्णि-सण्णिमज्झम्मि वट्टमाणस्स जंतुणो । सत्तट्ठभवा ताय वोलीणा उ अणंतसो ॥ असण्णिणो महाराय पावं काऊण कायजं । महादुक्खोहसंतत्ता पत्ता घम्म अणंतसो ॥ गोहागिरोलियाईया वंसं पत्ता अणंतसो । तं तं कम्मं समासज्ज पत्ता तं तं भवं पुणो ॥ ढंका कंका वगा कुंचा सेलं पत्ता अणंतसो । पंचेंदियवहं काउं रोद्दज्झाणवसंगया ॥ सीहा वग्घा विगा चित्ता अंजणं पुढविं गया । पुणरावित्तिमासज्ज पत्ता दुक्खं अणंतसो ॥ आसीविसा महाउग्गा तहा दिट्टिविसा वि य । महोरगा महाभीमा घोरा अयगरा तहा ।। अणेयभेयभिन्ना उ सप्पा पाणविणासगा। रिट्ठ पत्ता अणंताओ वेलाओ महदुक्खिया ॥ दुस्सीलाओ अणज्जाओ इत्थियाओ नराहिव । पत्ता दुहसयावत्तं मघं नाम अणंतसो॥ मच्छा मणुयजाईया पावं काऊण निक्किवा । माघवइमहाघोरं पत्ता जीवा अणंतसो ॥ तत्थ दुक्खं तु जीवाणं परमाहम्मियसंभवं । अवरोप्परसंभूयं खेत्तपच्चयजं तिहा ॥ को तीरइ ताय ! वण्णेज्जा जीहाकोडीहिं एगया। जीवंतो पुवकोडी वि वावारंतरवजिओ ॥ अण्णोण्णं च परेहिं च हम्ममाणा भयहुया । तिरिया जाइं वेइंति दुक्खाणि ताणि को वए । छुहा "तिहातिसीउण्हं वासे वाएसु दारुणे । जं दुक्खं वागरे तं तु केवलं जइ केवली ॥ कास सास छुहा तण्हा पामा कोढा रुआरिसा । दाहो हिक्का अतीसारो कंठरोगा जलोदरं ॥ दारिदं इट्ठनासो य अणिटेहि य संगमो । अणेयभेयभिण्णा उ चारागारा विडंबणा ॥ पत्ताओ माणुसे जम्मे अम्हेहिं पि अणंतसो । पुव्वुत्ताइं असेसाइं दुक्खाइं भवसायरे ॥ देवत्तणे वि संपत्ते आभिओगसुराहमो । जाओ य वाहणो दासो किब्बिसो य अणंतसो ॥ ईसा-विसायसोगेहिं दुक्खं जायं सुदारुणं । चवणे य महाघोरे जायं दुक्खमणंतसो ॥ सव्वेसु दुक्खठाणेसु पुणरुत्तं सुदुक्खिओ। हिंडिओ ताय संसारे जिणधम्मविवजिओ ॥ एवं दुहसयावत्ते संसारे नरसामिय । जिणधम्मविमुक्काणं दुक्खमोक्खो न देहिणं ॥ __ता ताय ! अणुजाणेहि जिणधम्मं करेमहं । वल्लहो होइ जो जस्स सो तं दुक्खाओ मोयई ॥ खंड-खज्जाइं कप्पूरवासियाइं अणेगसो । विसदिद्धाइं जाणंतो पियाणं देइ नो जहा ।। सल्लं कामा विसं कामा कामा आसीविसोवमा । जाणतो पुत्तभंडाणं कोऽणुदेज तहा पिया ॥ मिच्छादसणमोहेणं अण्णाणेण य मोहिओ । पत्थापत्थमयाणंतो पत्तो दुक्खमणंतयं ॥ 2 B विया। 3 C पञ्चइयं । 1 BC उक्कास उन्हउ (?)। + B C पुढवीआउतेउवाउसु पज्जत्तेयरमेएसु। 4 BC छुहातन्हाइ। 5C एवं च दुहावत्ते। Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या ] विपरीतधर्मकथाकरणफलसूचक-मुनि चन्द्रसाधुकथानकम् । son तुम्ह पसाएणं पत्तो धम्मो जिणाहिओ । ताया ! तहा पसीएह दुक्खमोक्खं करे जहा || 1 भणियं रन्ना - 'पुत्त ! तुमं अम्ह एगे पुत्ते इट्ठे कंते, ता किं भणामि । सावगधम्मं पालयंतो अच्छा हि ताव जाव अम्हे जीवामो । अम्हेहिं कालगएहिं वड्डियकुलतंतुसंताणो परिणयवओ पवज्जासि' । भणियं कुमारेण - 'ताय ! तुब्भे वि विवेगकलिया एवं भणेह ? सोवक्कमम्मि आउए सूल-अहि-विसविसूइयासज्झे का आसा । किं अत्थि एस निच्छओ देवपायाणं जं नं एत्तियं कालं अविग्वेणं मया : जीविव्वमेव, जं एवं बुच्चइ - पडिच्छाहि ताव जाव अम्हे जीवामो । ताया ! संसारे केतिया पुत्ता मुक्का, को वा पुत्तेहिं साहारो । ' वडियसंताणो पव्वयाहिसि' त्ति ताया किह तुब्भेहिं भणियं ? किं नाम मम पुत्तेहिं विणा संसारो सुन्नओ होज्जा, जेण एवं समुल्लवंति तायपाया । अह वंसो सुन्नो होज चि जइ बाहा, ता जइ अहं चिय नत्थि ता किमन्त्रेण । किं वा कुतित्थीण व तायपायाणं भासइ को पिंडपाणं काही । ता तायस्स सम्मत्तं केरिसं । किं च अच्चंत वल्लहा वि मरणे अवहीरिज्जति । ता " पव्वज्जाए किं न अणुन्नवंति' । भणियं रन्ना - 'पुत्त ! मायरं पुच्छसु' । भणियं कुमारेण - 'किं अंबाए न सुयमेयं जेण पुढो पुच्छा' । भणियं जणणीए - 'पुत्त ! जइ मए जीवंतीए कज्जं ता अच्छाहि ताव जाव अहं जीवामि । अन्नहा तुह विरहमसहंती पुत्तसोगदुहट्टिया उम्मायपरव्वसा विगुत्ता मरीहामि । ता वरं संपयं तुमं चिय सयं ममं ववरोविय पव्वज्जं करेसु' । भणियं कुमारेण - ' हा अंब ! किमेरिस - मुल्लवियं । अन्नाणीणं मिच्छद्दिट्ठियाणं एवंविहं भणिउमुचियं न अंबाए । जओ तरलतरंगभंगुरं अंगीण 15 जीवियं, गिरिसरियारय सिग्घतरं जोव्वणं, करिकण्णकंपसंकासं कंडूविणोयकप्पं कामसोक्खं, तडिच्छडाडोवचं चलतराइं पियसंगमसुहाई, बहुविवाहिविहुरिज्जमाणाइं माणवतणुसंताणाई, सव्वोउयतरुफलं पिव सया भाविणीओ आवयाओ । ता किह अंबा चरणं पडिवज्जंतं ममं पडिक्खलेइ । तहा', अंब ! केत्तिया अणाइकाले वोलीणा पुत्ता जाण आउ घण-पभिइरूवसंठियाणं पाणवित्तीकारणे तुम वहमि पट्टसि । ता किह नाणुसरइ अंबा । संसारनाडयन डिज्जंता य जंतुणो जणणि जणयाइसंबंधमणुभूय तेर्सि चिय वेरभावमणुसरंति । ता न कोइ परमत्थओ पुत्तो वा भाया वा, ता कुणंतु दयं अंबाए पाया, भवचारागाराओ नीहरंतस्स मे मा विग्धं करेंतु 'ति । तओ भणियं रन्ना - ' देवि ! मुंचसु कुमारं । पूरेउ मणोरहे । पुत्त ! अम्हे वि अणुगिहिज्जा पव्वज्जादाणेणं कयाइवि' । भणियं देवीए - 'पुत ! कांताओ अणुरताओ पहाणकुलबालियायो ताओ मण्णाविय पव्वयाहि' । भणियं कुमारेण - 'अंब जणणि-जया एव अणुन्नवेयवा । किं तु ताओ वि पडिबोहिय पव्वइस्सं' । गओ निययावासे । अब्भु- 25 ओ भारियाहि । निसन्नो सीहासणे । समाहूयाओ सव्वाओ देवीओ । भणियं कुमारेण - 'भो भो सुंदरीओ ! सुणेह सव्वाओ अवहियहिययाओ' । भणियमणाहिं सविणयं - 'आइसउ अज्जउत्तो' । भणियं कुमारेण - 'तुब्भे जाणह च्चिय कसायनिबंधणं विसया, वीयरागाणं तदसंभवाओ; कसायपच्चयाओ बज्झति असुहकम्माणि । तत्तो ताणुदए दुक्खसागरमणुविसइ जीवो । तेणं चिय भणियं - 'किंपागफलोवमा विसया विवागदारुण' त्ति । नगरनिद्धमणं पिव मलप्पवहं दुद्दंसणिज्जं ति जु ( गु)त्तपच्छा- 20 यणिज्जं । रइपज्जंते सयं पि उब्बियणिज्जं । तं चिय विलुतमइ विहवा अदीहदंसिणो परमतत्तमिव मन्नमाणा अप्पवेरिया वरंगमुल्लवंति । सज्जंति य तत्थ जुवइ अंगे | पंचदिणकारणे सुदुल्लहं मणुयतं 1 4 BC पयट्टई । 1 B C नास्ति 'तहा' । 5 A ते य किह नाणुसरइ । क० २० 2 BC आउवण माइयाणं पाण। 3 'तुमं' नास्ति B C 6A करेउत्ति । 7 नास्ति पदमिदं B C आदर्शे । १५३ 20 Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ श्रीनिनेश्वरसूरिकृत-कथाकोशप्रकरणे [ २३ गाथा विहलेति । न पडिवज्जति चरणं । जे पुण तहाभवियव्वयापेरिया पयईए संसारभीरुणो ते संसारकारणाइं जत्तेण परिहरति । तओ खवेंति चिरसंचियाई कम्माई'ति । भणियं असोगसिरीए- 'अजउत्त ! अवसरपत्तं वयणमिमं भणामि । निसामेउ अजउत्तो । एत्तियं कालं मलप्पवहं पि पवितमहेसि । एयमग्गं सुरवइ-नरवइपमुहाण । जओ विबुहवइणो वि पेच्छसु माणं विणयं ति माणिणिजणाणं । पायवडणेहिं चाडुयसयाण करणेहिं किं न सुयं ।। तं नत्थि जत्थ इत्थी न वन्निया अजउत्त सस्थम्मि । लोइय-लोउत्तरियं तं चिय मम इह पमाणं तु ॥ कुम्मुन्नयचलणाओ पिहुलनियंबाओ हीणमज्झाओ। पीणुग्गयसिहिणाओ कंबुग्गीवा मयच्छीओ ॥ एवंविहजुवईणं चउसटिसहस्स चक्किणो होति । सयराहं ता भुंजइ किमेरिसं वणियं सत्थे ॥ न हु ताओ खग्गहत्था पहरंति रिवूण तेण ता भणिया । ताओ विय मलपवहा ता कज्जं किं पि एयाहिं ॥ गाढाणुरत्तमिहुणयरइकालसुहं तमस्थिऽणक्खेयं । जं तिहुयणं पि सयलं न पावई तस्स मोल्लं तु ॥ नायाधम्मकहाइसु इथिओ वणिया दढं कीस । नाडय-कव्वालंकार-छंदमाईसु य तहेव ।। दोवइ सीया तारा रुपिणि लीलावई य दमदंती । लोउत्तरे वि बहुसो महिला लोए य भणियाओ। ___ भणियं बउलसिरीए- 'विमालेसु हला ताव - जयकत्ता वि हु रुद्दो मुंजइ इसिभारियाओ परदारं । गोरीगलयविलग्गो घडिज्जए पेच्छ पाहाणे ॥ ता अस्थि अणक्खेयं सामि ! रसंतरमउव्वमेयाण । हरि-हर-बंभाईया तेणेव य इस्थिसु पसत्ता ॥ भणियं तिलयमंजरीएदसविहभवणवईणं अट्ठविहाणं पि वणयरसुराणं । अणपण्णिय-पणपण्णिय-कोहंडियमाइयाणं च ॥ 28 इत्थी-पुरिससमागमसुहसंपत्तीओ जाओ एएसिं । तीए अप्पसमाणं न ते उ अन्नं पमन्नंति ॥ पंचविहजोइसाणं कप्पसुराणं नरिंदविंदाणं । अण्णं पि सुहट्ठाणं न जाओ चिने परिव्वसइ । भणियं कुंदलयाएसामिय किं पि अउव्वं विसयविरागंमि कारणं दिटुं । जइधम्मट्ठा सुव्वउ सो कीरउ किं निमित्तं तु ॥ धम्मेण होंति भोगा रायसिरी भारिया य अणुरत्ता । तं साहीणमियाणिं परिभुजउ तप्फलं ताव ॥ काले काले उचियं जं जह होही तमेव तह काही । मुंजह विसयसुहाइं कुविगप्पविवजिया सामि ॥ भणियं चूयमंजरी-चंपयलया रायहंसियापमुहाहिं- 'हला कीस अंतरा पलवह; अजउत्त ! भणसु जहिच्छियं, परिसमाणेसु वक्कं, जं तुह हियइच्छियं तं चिय अम्हाहिं कायव्वं । भणमु निवियप्पं मणोगयं' ति । भणियं कुमारेण - 'साहु साहु जंपियं पिययमाहिं । पामाविवज्जियाणं मणयं पि सुहं न देइ कंडुयणं । तह विसयविरत्ताणं सुरयसुहं दुक्खमाभाइ ॥ जह नाम होज तण्हा सिसिरजलं ता मणं सुहावेइ । तण्हापरिमुक्काणं सुंदरि उदयं दुहावेइ ।। जइ होज छुहा सुंदरि आहारो को वि जो वि सुहहेऊ । नाणावंजणजुत्तो वि दुक्खहेऊ अणत्थीणं । चंदकरचंदणाई हारो सिसिरंबुसित्तवियणाई । होति सुहकारणाइं परिदाहे नेव हेमंते ॥ 1A तमत्थणिक्खेवं। 2 B C जस्स। 3C ते नियविहवसमाणं न जाओ अन । Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विपरीत ग्याख्या ] विपरीतधर्मकथाकरणफलसूचक मुनिचन्द्रसाधुकथानकम् । परमत्थओ सुहं पुण जीवसरूवं तु वाहिपरिमुक्कं । एगतियमच्चंतियमणोवमं मुत्तिसब्भावे ॥ ता दुग्गंधवरंगं कम्महयाणं न' तत्तरत्ताणं । दिव्वयाणं सुरसो अहररसो पोट्टनीहरिओ ॥ परिचुंबेह कवोले उम्मत्तो नयण-वयणकुहराई । सुंदरि विवेयकलिया उवहासमिणं विचिंतेति ॥ विसदिद्धभोयगाणं किंपागफलाण जारिसो होइ । पजंतकडुविवागो विसयाण वि जाण एमेव ॥ हरि-हर-बंभाईया जं पुण देवा वि मयणतल्लिच्छा । तेणं चिय परिहरिया सुंदरि जत्तेण धीरेहिं । । जं विसयविरचाणं सोक्खं सज्झायभावियमणाणं ।। तं मुणइ मुणिवरो च्चिय अणुहवउ न उण अन्नो वि ॥ राग-दोसाहितो बज्झइ कम्मं असोहणं जइ ता । इट्ठाणिढे रागो दोसो विसयंमि नियमेण ॥ तत्तो य कम्मबंधो ततो दुक्खाइं नरय-तिरिएसु । कुनर-कुदेवभवेसु वि ताण अहं सुङ निविन्नो ॥ तं सुरविमाणविहवं चिंतिय चवणं च देवलोगाओ। अइवलियं चिय जं नवि' फुट्टइ सयसिक्करं हिययं ॥ जे खलु विसयविरचा चक्कहरा अट्ठ ते गया मोक्खं । अन्ने य देवलोए इयरे पुण सत्तमि पुढवि ॥ परिचतविसयसंगा बलदेवा अट्ठ पाविया मोक्खं । एगो उ बंभलोए हरिणो पुण पाविया नरयं ॥ विसयाण कए नासं दहवयणो पेच्छ पाविओ सुयणु । नव वि पडिवासुदेवा अचत्तकामा गया निहणं ॥ ता विरमह विसएसुं किंपागफलोवमेसु नियमेण । सव्वदुहमूलपरसू पव्वज्जा कीरउ विसुद्धा ॥ जीए पुण नस्थि इच्छा सा गिहिजोगं करेउ जिणधम्मं । संथारगपव्वज्जं पज्जंते संपवज्जेजा ॥ तओ आगयसंवेगाहिं भणियं सव्वाहि वि- 'तुम्ह विरहेण किं गिहवासेण; कीरउ निरवजा पध्वजा'। अणुन्नविय परियणं, सह जायाहिं महाविभूईए पवइओ सागरचंदकुमारो धम्मघोससूरिसमीवे । जाओ कालेण जुगप्पहाणागमो । तेसिं च सूरीणं भाइणिज्जो मुणिचंदो नाम साहू अत्तगविओ सुयमेत्तगाही अभावियत्थो । अण्णया थेरा जाया सूरिणो । अणसणं काउमिच्छति । मुणिचंदो चिंतेइ - अहं भाइणेज्जो, सुयहरो बहुसयणो य; ता ममं सूरिपए ठाविस्संति सूरिणो । ते य महाणुभावा मज्झत्था गुणबहुमाणिणो ति सागरचंदो ठाविओ निययपए । गीयत्थसमणगणस्स बहुमओ, सयलगुणोववेओ । सूरी अणसणं काउं गओ देवलोगं । मुणिचंदो सयणजणं वुग्गाहेचा पुढो विहरइ पउट्ठो सूरीणं धम्मघोसाणं । तओ सो अविसयविभाग अहा सुयमेत्तग्गाही अपवेरियचाए समुट्टिओ परेसिं पि दुग्गइपवत्ताण सस्थवाहो । विहरंतो समागतो साएयनयरे । तत्थ य धम्मघोससूरीहिं पुत्वं जे केइ सासणपडिणीयभावमुवगया वि तहाविहदेसणाए मणयं उवसामिया आसि । तं जहा-पेच्छह जई जरठक्कुरो वि ओलग्गिजइ फलस्थीहिं, वा देवो इहलोग-परलोगत्थीहिं किं नासेविजइ । न य देवगुणा परोक्खे देवे वियाणिउं तीरंति । न हि घडे परोक्खे घडगयं सवं नाउं पारिजइ । अत्थि पुण परलोगो पुण्णं पावं च । अस्थि तप्परूवगो को वि" देवो वि । सो य आरादंसीहिं न नज्जइ । तम्हा अविसेसेण देवं दट्टण पणामो कायन्वो । तदाययणस्स सडियपडियस्स पडियरणं पूयाइसु पयट्टियव्वं । जो चेव एयाण मज्झे देवाहिदेवो भविस्सइ, तत्वो चेव नित्थारो वि । जो पुण पासंडियवयणाओ एगपक्खनिक्खेवेण सेसाणमवण्णा सा तत्तदंसणारओ (1) न 1 A च तत्य रसाणं । 20 मि। 3 नास्ति 'जई' CI Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ श्रीजिनेश्वरसूरिकृत-कथाकोशप्रकरणे [२३ गाथा जुज्जइ । अओ सव्वत्थ सम्मद्दिट्ठीहिं होयव्वं ति । तेसिं च विस्संतं तं हियए । मज्झत्थवयणा एए सच्चं भणंति । तओ ते पच्चगीयभावमवहाय भद्दया जाया। तहा जे लद्धमिच्छत्तविवरा जायजिणवयणपच्चया ते पुण – 'नो मे कप्पइ अण्णउत्थिए वा, अन्नउत्थियदेवयाणि वा, अन्नउत्थियपरिग्गहियाई अरहंतचेइयाई वंदित्तए वा नमंसित्तए वा' इच्चाइसुत्तमुच्चारिय दंसणपडिमारोवणेणं दंसणसावया 5 कया। तहा जे देसविरइजोगा ते एगविहाइभेएणं विरई गाहिया । ते य सव्वे वि मुणिचंदपउत्ति सोऊण गुरुभाइणेज्जया' एस त्ति वंदगा आगच्छंति । तत्थ जे अहाभद्दगा आगया ताणं पुरओ भणिउमाढत्तो- 'किं तुम्ह धम्माणुट्ठाणं निव्वहइ । तेहिं वि सिटुं- 'सव्वदेवपणामाइ तुम्ह गुरुणा उवइ8 तं निव्वहइ' । तओ भणियं मुणिचंदेण- 'तुम्हे मम गुरुणा विप्पलद्धा । तुब्भे अप्पा य संसारे पाडिओ। तत्थ तुब्भे मिच्छत्ते थिरीकाऊण संसारे पाडिया । अप्पा पुण उम्मग्गदेसणाए सुट्ट्यरं भवे पाडिओ । "ता न किंचि एरिसेण धम्माणुट्ठाणेण सिज्झइ' । तओ ते अहाभद्दया सुट्ठयरं पडिनिविट्ठा । चेइय-साहूणं पुणो वाहगा जाया, सुट्ठयरं पडिनिवेसाओ संसारभायणं च । जे वि पडिवण्णसम्मत्ता ते वि तेण विमुहीकया । एवं भणंतेण – 'का तुम्हाण सम्मत्तपडिवत्तिजोगया दिट्ठा गुरूहिं । जेण अित्थी, समत्थओ, न सुत्ते पडिकुट्ठो; सो दसणपडिमाए जोगो चीवंदणाइणुट्ठाणस्स य । तत्थ अत्थी' पंचहिं गुणेहिं नजइ । तं जहा -तक्कहाए पीई, निंदाए अस्सवणं ति, तेसिं अणुकंपा, चित्तस्स नासो, परमा जिन्नासा । 15 तहा समत्थओ वि पंचहिं गुणेहिं नजइ । तं जहा - गुरुविणओ, सेकालावेक्खाए, उचियासणजुतस्स, रया, सज्झायाइसु उवओगो । तहा सुत्तापडिकुट्ठो' वि नजइ पंचहिं गुणेहिं । तं जहा - लोगप्पियतं, अगरहिया किरिया, वसणे धीरिमा, सत्तीए चाओ, लद्धलक्खत्तं चेति । एएसिं पनरसण्हं गुणाणं के तुब्मे अप्पए मन्नह, गुरूहिं वा के गुणा दिट्ठा ?; ता अधिगारिणा खु धम्मो कायव्वो । अणहिगारिणो दोसो आणाभंगाओ चिय, धम्मो आणाए पडिबद्धो । किं च - औदार्य दाक्षिण्यं पापजुगुप्सा च निर्मलो बोधः। लिङ्गानि धर्मसिद्धेः प्रायेण जनप्रियत्वं च ॥ ___ एएसिं गुणाणं के तुम्हाण अस्थि । किं उदारतं करिसतललूहगाणं वणियजाईणं; [किं दक्खिण्णं ] वराडियाकज्जे पिइ-माइ-भाइ-पुत्ताइएहिं सह कलहकारगाणं; निचं परमुसणेक्कचित्ताणं का दुगुंछा पावे; एयद्दोसजुत्ताणं कहं निम्मलो बोहो; सयणवग्गे वि कलहणसीलाणं कहं जणवल्लहत्तं । ता आलूणविसिन्नमेयं 25 ति, कं मे धम्मपउत्तिं पुच्छामि । तओ ते एवमेयं ति परिवडियसम्मत्ता जाया । जे य वयगाहिणो अहेसि, ते वि तेण भणिया – 'का भे वयगहणपज्जाओ ?, जओ देसविरईए बीया कसाया आवारगा । जइ ताणं खओवसमो पढमं वयं जायं । ता किं बीयवयाईणमावारगं जेण पणगं चउक्कं च तिगं दुगं च एगं च गेण्हेइ वयाई । अहवा वि उत्तरगुणे एयं कहं उववन्नं हवेज्जा । जं पि 'दुविहं तिविहेण पढमतो' इच्चाइ छब्भंगा सूरीहिं भणिया ते वि कहं संभवंति । एवं पि न नायं तुब्भेहिं, जओ जं चिय आवरण 8 दुविहं तिविहेण वयगहणे, तं चिय एगविहं एगविहेण गहणे वि । ता न भंगभेएण वयगहणं पसजति । ता भो भद्दमुहा तुम्भे सूरीहिं पयारिय' ति । तओ ते वि संजायसंसया परिवडियपरिणामा जाया । जे वि पव्वजाभिमुहा कया आसि गुरूहिं ते वि तेण भणिया- 'का भे पव्वज्जाजोगया ? । जा तित्थयर 1C गुरुभाया। A आदर्श अत्र 'जेण एयबह्माणी विहिपरो उचियवित्ती दसणपडिमाए ।' एतादृशः पाठः । 2 A एयबहमाणी। 3A ते य एते। 4 A विहिपरो। 5A ते य इमे। 6A रत्ता। 7 A उचियवित्ती वि । 8A ते य इमे। Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या ] विपरीतधर्मकथाकरणफलसूचक मुनिचन्द्रसाधुकथानकम् । १५७ चक्कि-हलहर-महामंडलिय-पमुहेहिं आराहिया सा कहं तुच्छवणिज्जाइएहिं आराहिजउ । न य घेतूण विराहिया संसाराओ अन्नं फलं देइ । यदाह – 'अविधिकृताद् वरमकृतम्' । किं च कुरुड-उक्कुरुडा काऊण वि दुक्करं तवचरणं । विराहियसामण्णा गया सत्तमाए नरयपुढवीए ॥ ता एकारसपडिमाकमेण तुलणं काऊग पव्वज्जा घेतव्वा, न अन्नहा । ता एत्थ महारहा भग्गा किं पुण वणियमेचा । तओ ते वि गिहवासाभिमुहा जाया । एवं तेण मुणिचंदेण अविहीए कहतेण बहू जणो धम्मवासणारहिओ कओ, साहुजणपओसी य । तत्थ तहाविहजणेण पूइजइ- एस भगवं सुद्धं परूवेइ ति मण्णमाणेण मूढधम्मसद्धिगेण । एयं पवत्तिं सोऊण सागरचंदसूरी विप्पडिवण्णजणसंठावणस्थं समागओ साएए नयरे बहुसिस्ससंपरिवुडो विहारकप्पेणं विहरंतो। ठिओ उजाणे जइजणपाओगे । निग्गया परिसा, मुणिचंदविप्परिणामियजणं मोत्तूण । ते वि उवेच्चावि वाहराविया ॥ न एंति । तओ पउत्ता पुरखोहिणी विज्जा । तप्पभावाओ समागया सव्वे । ते अन्ने य सामंतामच्चादओ पगइपज्जतो य जणो । मुणिचंदो वि तत्थ गओ। तओ सागरचंदसूरी ताण पुरओ भणिउमाढत्तो । सावजणवजाणं वयणाणं जो न जाणइ विसेसं । वोत्तुं पि तस्स न खमं किमंग पुण देसणं काउं॥ गीयाणमुजयाणं आयपराणुग्गहे पवत्ताणं ।। तह तह गिरा पयट्टइ सपरेसि अणुग्गहो जेम ॥ असियसयभेयभिन्ना किरियावाई जिणेहिं पन्नत्ता । साहारणमिणमेसिं लक्खणमाहंसु समयविऊ ॥ किरियाहिंतो मोक्खं जो इच्छइ भन्नइ सो किरियवाई । चंडहरी चंडसिवो चंडाइचो जसाइच्चो ॥ माहव-केसव-विट्ठ महुसूयण-तिविकमा इमे सव्वे । किरियावायपवन्ना मोक्खत्थं संपयद॒ति ॥ जिणसासणावराहं काऊण हणेज मा हु नियसत्तिं । किरियावाई जेणं तिरिएसु न बंधए आउं॥ जिणसासणावराहो अणंतभवदारुणो दुहविवागो । नरयतिरिएसु दुक्खं किरियावायं हणे तत्तो॥ बंधेज नरयआउं जिणसासणवाहगो न संदेहो । तेण इमे कारविया जिणसासणबाहपरिहारं ॥ एवं च करेंतेणं कुगइपहनिरंभणं कयमिमाणं । ता सूरीहिं अजुत्तं मुणिचंद न किंचि आयरियं । एयाणं पि तहाविहसूरीण पयाण वंदणं जुत्तं । संसारदुक्खजलणं निमित्तमिह बोहिलाभस्स ॥ ता भो महाणुभावा ! धन्ना तुब्भे तहाविहगुरूणं । पयवंदणउजुत्ता जिणपडिमाणचणे तह य ॥ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ श्रीजिनेश्वरसूरिकृत-कथाकोशप्रकरणे [२३ गाथा जे वि पडिवन्नसम्मत्ता ते वि भणिया- 'भो भो जिणदत्त-जिणवल्लह-जिणरक्खिय-जिणपालियअरिहदत्तादओ ! धन्ना तुब्भे जाण मोक्खफलदायगो सम्मत्ततरू परूढो हिययंगणे । भो मुणिचंद ! किमेयाण गुरूहिं अणुचियमायरियं जेण तुमे गुरू एए य उवालद्धा ? । जं पुण पण्णरसगुणोववेया अहिगारिणो त्ति तं न अंगोवंगेसु पच्छित्तगंथेसु वा दिढें । तहावि जइ मन्नियवं ता तं विसेसविसयं, न । सव्वजणविसयं । जे बाला सावयकुलजाया न तत्थ इमा परिक्खा कायव्वा, किं तु अण्णस्थविसए' ससंकिए ति । किं च एत्तो एगाइगुणविहीणा वि दिक्खिजंति चेव । जओ भणियं कालपरिहाणिदोसा एत्तो एकाइगुणविहीणा वि । जे बहुतरगुणजुत्ता ते जोग्गा एस परमत्थो त्ति ॥ जं पुण 'करिसतललूहगाण'मिच्चाइ, तत्थ य परजायणपराण माहणाण किमुदारतं । खत्तियाणं पि " परदेसलूसगाणं अणवराहाणं वि धणीणं धणावहाररयाणं किमुदारत्तं । वेइसा पुण वाणियगा चेव । सुद्दाहमाणं हलसगडखेडणपराणं निचं करभरदंडकंताणं किं तयं पयईजणस्स सव्वावमाणट्ठाणस्स व त्ति । ता न केइ धम्मारिहा संति ति । दक्खिण्णं बाहुबलिणा सह जुझंतस्स भरहस्स केरिसं । केरिसा वा पावदुगुंछा राईणं मज्जमंसासीणं ति । सव्वजणवल्लहत्तं तित्थयरस्स वि न जायं ति, किं पुण अन्नेसिं । ता न जहा सुयगाहिणा होयवं; किं तु विसयविभागचिंता कायव्वा । जं पुण देसविरई 15 पडुच्च जसभद्द-पुण्णभद्द-माणिभद्द-जसधवलपामोक्खाणं तुमे भणियं 'देसविरईए बीयकसाया आवारग्गा' इच्चाइ तं पि न जुत्तं । जओ असंखेजभेदो कसाओवसमो । सबोवघाइफड्डग-देसोवघाइफड्गमेएण सुए भणिओ । तओ को वि भेदो कस्स वि वयस्स तब्भंगस्स य वा आवारगो, न सव्वस्स सव्वे भेया । तम्हा अविनायसमयसारा अत्तरिया गुरूणमहिक्खेवं दाऊण नियमा दुग्गइगमणमणोसि । जं च भणियं 'का वणियजाइयाणं पव्वज्जाए सत्ती' इच्चाइ; ता किह सालिभद्द-धन्नय-सुदंसण-जंबूनाम"वइरसामि-धणगिरिप्पमुहाणं पव्वजा होज्जा ?; कहं वा तक्खणपव्वा वियाण दमगाइयाण ? । जं पुण 'पडिमाहिं तुलिऊण अप्पाणं दिक्खा पव्वजियव्व'ति, तं पि अणेगंतियं विसेसविसयं ति । जओ न सालिभद्द-दमगाईहिं पडिमापुवं दिक्खा पडिवन्ना । ता एवं भणंतेण तुमए भगवं तित्थयरो आसाइओ। जओ दुप्पसहंतं चरणं भगवया भणियं । तं च एवं चरित्ताभावे वणियाणं मिच्छा जायं । तो भगवं मिच्छावाई । तो तुमं तित्थयरासायणं काउं भमिहिसि दारुणं दीहसंसारं' ति । तं सोऊण चित्ते रुट्ठो 25 मुणिचंदो सूरिस्स । किं तु एसो इमस्स समरकेउणो राइणो पुत्तो ति भएण पडिउत्तरं अदाऊण उढिओ रोसफुरफुरायमाणाहरो । तओ थिरीभूया निय-नियभूमिगासु सव्वे वि । अवब्भाजिओ मुणिचंदो वि गओ पओसं । बहुजणं असब्भावुब्भावणाहिं उम्मग्गे पयट्टाविऊण मतो उववन्नो परमाहम्मियसुरेसु । इओ य इमं जंबुद्दीवं परिक्खि विऊण ठितो जो एस लवणजलही तत्थ जम्मि ठाणंमि महानई सिंधू पविसइ तत्थ इमाउ दाहिणिल्ले दिसाभाए पणपन्नाए जोयणेसु वेइयाए अब्भंतरे अस्थि पडिसं• तावदायगं नाम अद्धतेरसजोयणप्पमाणं हत्थिकुंभायारं थलं ति । तस्स अद्भुट्ठजोयणाणि उस्सेहो लवणजलस्सावरेणं । तत्थ य अच्चंतपरमघोरतिमिसंधतिमिसातो घडियालयसंठाणाओ बहूओ गुहाओ अस्थि । तासु च जुगंजुगेणं निरंतरं जलयारिणो मणुया परिवसंति । ते य वज्जरिसहनारायसंघयणा महाबलपरक्कमा अद्धतेरसहत्थुस्सेहा संखेजवासाऊ महुमज्जमंसप्पिया इत्थीलोला परमदुव्वन्ना मायंगगई कइमुहा सीहघोरदिट्टी भवंति । तेसिं च मणुयाणं जाओ अंतरंडगोलियाओ ताओ गहाय विधित्ता 1C संकिए विसए त्ति। 2 Aबंधित्ता । Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या ] विपरीतधर्मकथाकरणफलसूचक-मुनिचन्द्रसाधुकथानकम् । १५९ चामरपुंछवालेसु गुंथिऊण, जो कोइ उभयकन्नेसु निबंधित्ता सुमहग्घरयणत्थी सागरं पविसेज्जा, सो महामयर-सुंसुमार-गोहियाइदुट्ठसावएहिं अभेसिओ सर्व पि सागरजलं आहिंडिऊणं मीणो व्व सुकंतामुल्लपवरमणिरयणाणं पभूयाणं संगहं काउं अणहयसरीरो सट्ठाणमागच्छेज्जा । ताओ य अंतरंडगोलियाओ तेसिं जीवमाणाणं न सक्केति घेत्तुं, जया पुण ते घेप्पंति बहुविहाहिं नियंतणाहिं महया साहसेणं दुवालसहिं संवच्छरेहिं सन्नद्धबद्धमहाउहकरेहिं बहुपुरिससएहिं महाकिलेसेणं जीवियसंसएणं : घेप्पंति । तओ सो मुणिचंदजीवो परमाहम्मियसुराउयक्खए उव्वट्टो समाणो तेसिं पडिसंतावथलवस्थव्वाणं मणुयाणं मज्झे मणुस्सो होही । इओ य तओ थलाओ दूरदेसे अस्थि रयणदीवं नाम अंतरदीवं । तत्थ य घरदृसंठाणाइं महापमाणाई अणेगाइं वहरसिलासंपुडाइं अस्थि । ताई च वियाडिऊणं ते रयणदीवनिवासिणो मणुया पुव्वपुरिससिद्धखेत्तपहावसिद्धेणं चेव जोगेणं मच्छियामणि पक्कमंसखंडाणि मज्जभरियभंडगाणि य तेसिं वइर-10 सिलासंपुडाणं मज्झे ठवेंति । तओ केइ पुरिसा सुसाउपोराणमज्जमहुपक्कमंसपडिपुण्णे पभूयअलाउए गहाय वहणेसु आरुहिता, तं थलमागच्छंति । ते य थलवासिणो मणुया दूराउ चेव ते आगच्छंते दट्ठण तेसिं वहाए पहावेंति । ते वि तेसिं चक्खुप्पहे एगं तुंबगं जलोवरि मोत्तूण अब्भत्थकला जइणा वेगेणं तं जाणवत्तं वाहेत्ता रयणदीवाभिमुहमागच्छंति । ते वि तं महुमांसासाइयरसलोलयाए सुट्टयरं तेसिं पट्टीए धावंति । जाव समासन्नागयाणं पुणो पुणो तुंबगपक्खेवेणं, ताव समाणयंति महुमज्जमंस- 15 लोलुए ते मणुए, जाव वइरसिलासंपुडाई ति । तओ जमेवासन्नं वइरसिलासंपुढं जंभायमाणपुरिसमुहागारं वियाडियं चिट्ठइ, तत्थ समुव्वरियअलाउयाई तेसिं पेच्छमाणाणं अंतो मोत्तूण तत्तो पलाएना नियनगरमागच्छंति । ते पुण महुमजमंसलोलयाए आगंतूण तत्थ पविसंति । तत्थ पुत्वमुक्कमहुमजमंसाइयं पभूयं पासित्ता, अईव तुट्ठा हरिसपत्ता हस्थिगज्जियं करेमाणा तं महुमज्जमंसं भुंजंति । तत्थेव मज्जमत्ता सुहपसुत्ता अच्छंति । एत्थंतरे ते पसुते नाऊण ते रयणदीववासिणो मणुया गहियाउहा तहा . सन्नद्धबद्धकवया तुसिणीया सणियं सणियं गंतूण, जत्थ तं वइरसिलं वेति सत्तट्ठपंतीहिं, अन्ने य तं घरदृसिलासंपुडं झड ति आयालेत्ता मेलेंति । तंमि य मेलिज्जमाणे जइ कह वि तुडिवसेणं एक्कस्स दोह वा निप्फेडो होजा । तओ तेसिं रयणदीवनिवासिमणुयाणं सरुवघराणं सदुपय-चउप्पयाणं तेसिं मणुस्साणं हत्थाउ संहारो होज्जा । तेण ते तं संपुढं तक्खणं चेव बहुवसह-महिसजुतं काऊण घरट्टपओगेण भमाडेति । अणवरयं संवच्छरं जाव तेसिं तारिसं घोरदारुणं महादुक्खमणुभवमाणाणं है। संवच्छरेण पाणाइक्कमो होज्जा । तहा वि ते तेसिं अट्ठिसंघायातो फुटुंति, नो दुदला भवंति । नवरं जाइं काई वि संधिसंधाणबंधणाई ताई सव्वाइं वि छुट्टति । तओ तस्स घरट्टस्स भूमीए किंचि अट्ठियं निवडियं वा निवडमाणं वा पासित्ता ते रयणदीवमणुया परितोसं गच्छंति । पमोयपत्ता ताई संपुडाई उबियाडिऊणं ताओ अंतरंडगोलियाओ गेहंति । तओ जे केइ तुच्छधणा ते अणेगकोडीहिं दविणस्स विकिणति ति । एवं सो वि मुणिचंदजीवो अंतरंडगोलियाकज्जेण तेण विहिणा मारिजिही, संवच्छरं । जाव परमघोरदारुणं दुक्खं विसहमाणो उम्मग्गदेसणागुरु अहिक्खेवकयदारुणकम्मप्पभावाओ पुणो पुणो जाव सत्तवाराओ तत्थ उववजिहिइ । अंतरांतरा नरयं गच्छिहिइ । पुणो तेण विहिणा रयणदीवमणुएहिं संवच्छरेण जंतपासहणविहाणेण ववरोविजिहिइ ति । एवं महादुक्खमणुभवेत्ताणं नरय-नर-तिरिय 1 BC नास्ति पदमिदम् । 2 B C ववरोविज्जमाणो महा । Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० श्रीजिनेश्वरसूरिकृत-कथाकोशप्रकरणे । २४ गाथा कुदेवगइसंकुलमणंतसंसारं भमिहिइ ति । अओ अविहिदेसणाए न अभिमुहजणो विप्परिणामेयचो, एवंविहविवागं नाऊणं ति उवएसो । ॥मुणिचंदकहाणयं समत्तं ॥ ३४॥ एतद्विपर्ययेण गुणमाह जयसेणसूरिणो इव अण्णे पावेंति उण्णइं परमं । जिणसासणमविगप्पं दुवियड्डजणाण वि कहेत्ता ॥ २४ ॥ __ व्याख्या- 'जयसेनसूरय इव केचित् प्रापयन्त्युनर्ति' प्रभावनां 'परमां' - उत्कर्षवतीम् । किं तदित्याह- 'जिनशासनं अविकल्पं' अविगानेन 'दुर्विदग्धजनानामपि पण्डितंमन्यलोकानामपि 'कथयित्वा' देशनां कृत्वेति गाथार्थः । भावार्थः कथानकादवसेयः । तच्चेदम् - - ३५. जयसेनसूरिकथानकम् ।अस्थि अस्थिजणवजिओ वि धणड्डजणसंकुलो मगहा नाम जणवओ। तत्थ उसमपुरं' नाम नयरं । तत्थ य विक्कमसेणो राया रजं पालेइ । तत्थ य चउवेयवियाणगो रायजणसम्मओ सयलमाहणसत्थत्थकुसलो अत्तबहुमाणी माहवो नाम बंभणो परिवसइ । तस्स उसभपुरस्स उत्तरपुरच्छिमे दिसाभाए तरुनियरावरुद्धरविकरनियरं रत्तासोयं नाम उजाणं । तत्थ साहुकप्पेणं विहरमाणा वणसंडा इव विचार15 परा, कुलसेला इव उत्तमवंसाणुगया, रायाणो इव पहाणखमासंगया बहुसिस्सपरिवारा जयसेणसूरिणो समागया । समोसढा रचासोयउज्जाणे । निग्गया परिसा । राया वि निग्गओ । माहवभट्टो वि नियपंडिच्चगविओ महाजणसमक्खं तं समणं निरुत्तरं करेमि त्ति संकप्पिऊण गओ तत्थ । वंदिय भगवंत उवविट्ठा सके वि उचियठाणेसु । समाढत्ता भगवया देसणा, संसारनिव्वेयकारणं । पत्थावे सूरिणो साइसयं रूवं दहूण उदग्गजोव्वणं च भणियं विक्कमसेणरन्ना - " 'नवजोव्वणगुणसोहग्गसंगओ कीस दुक्करतवंमि । विणिउत्तो अकंडे भंते अप्पा अपावो वि ।। केण वेरग्गेण पवइओसि ? त्ति । भणियं सूरिणा- 'महाराय ! संसारे वि निवेयकारणं पुच्छसि !, जओ विवेगजुताणं सुलभाई एत्थ वेरग्गकारणाइं सारीरमाणसाणेयदुक्खसारे संसारे'त्ति । भणियं रन्ना- 'एवमेयं, तहा वि विसेसकारणं पुच्छामि । जइ अणुवरोहो, ता साहेतु भगवंतो' । भणियं सूरिणा- 'जइ एवं ता निसुणेसु - 2 अत्थि कासीजणवए वाणारसी नाम नयरी । तत्थ य गुरुभूधरसिहरनिहितपायगुरुपव्वालंकियवंसो पुहइसारो राया। तस्स य सयलंतेउरपहाणा कमला नाम देवी । तीए सह विसयसुहमणुहवंतस्स वचइ कालो । अन्नया रयणीए रन्ना सह पसुत्ता सीहं सुमिणे दह्रण पडिबुद्धा कमला । सिट्ठो सुमिणो रण्णो । तेण भणियं - 'सुमिणपाढगे पुच्छिय कहिस्सामि फलमिमस्स, ताव सुंदरो सुमिणो' त्ति । पभाए अत्थाणगएण समागया सुमिणपाढगे पूइऊण भणियं रन्ना-- 'भो भो ! अज्ज रयणीए कमलादेवी दाढाविडंबियमुहं महुपिंगलच्छं सीहं सुपंडुरसडाभरभूसियंसं । उच्छंगमागय मुहं अवलोययंतं दट्टण निद्दविगमं समुवागया उ । 1 A वसभपुरं। 2 B C भूसियंगा। Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या शासनोन्नतिकारक-जयसेनसूरिकथानकम् । ता णं कहेह फलमस्स किमागमिस्सं देवीऍ मज्झ य जमेत्थ सुहाणुभागं ॥ विप्पा भणंति बहुसत्थवियक्खणाओ भोगा नरिंद ! सिरिपुत्तधणागमो य । आरोगया आउदढत्तणं च कोट्ठारभंडारसमागमो य । सत्तूण नासो पियसंपओगो एयं भविस्सं भवयाण देव ! ।। तुट्ठो राया । दावियं पारितोसियं । गया सट्ठाणेसु सुविणपाढगा । रण्णा सिट्ठो सुमिणपाढगवइयरो। देवीए । जाओ कालेण दारगो, सुहगहनिरिक्खिए लग्गे । कयं वद्धावणयं । सुइकम्मे वइकते कयं दारगस्स पियामहसंतियं जयसेणो त्ति नामं । पंचधाईपरिग्गहिओ वहिउमारद्धो । जणणि-जणयाणं सेसपरियणस्स य आणंदं कुणंतो जाओ कालेण अट्ठवारिसिओ । उवणीओ कलासूरिणो । अहिजिओ मधिरेणेव कालेण कलानियरं । समाणीओ गेहे । कयं वद्धावणयं । पूइओ कलासूरी । कुमारो वि समाणवयवयंसयसहिओ नाणाविहकीडाहिं अभिरमंतो चिट्ठइ ।। ___ अण्णया अस्थाणासीणस्स' रन्नो देसंतरागएण भणियं दूएण- 'देव ! अहं तुम्ह दंडवइणो महाबलस्स वयणाओ इहागओ । अत्थि देवपायाणं सुपसिद्धो विसमगिरिदुग्गपल्लीसमासिओ चंडकेसरी नाम पल्लिवई । तेण य समासन्नदेसो उव्वासिओ, निद्धणीकओ। न सो अम्ह उत्तरं देइ, विसमगिरिदुग्गबलेणं । ता एत्थ देवो पमाणं' । तओ रन्ना अमरिसवसफुरुफुरायमाणाहरेण निरूवियं कुमारवयणं । भणियं कुमारेण- 'ताय ! विवित्ते चिट्ठह । निरूवियाओ दिसाओ, उढिओ लोगो । निसिद्धा मंतिणो । उट्ठियंता । भणियं कुमारेण - 'केत्तिओ विक्खेवो महाबलस्स ? । भणियं रन्ना- 'पक्कलपाइक्काणं वीससहस्साइं, आसवाराणां पंच सहस्साई, पंचासा करीणं । तहा देसठक्कुरखेडाए लोगाणं तीस सहस्साई मिलंति' । भणियं कुमारेण - 'चंडकेसरी किं महालओ ? । भणियं रन्ना- 'जत्तिओ महाबलस्स तत्तिओ संभाविजई' । भणियं कुमारेण- 'नामाणुरूवो न ववसाओ दंडवइणो । ता किं कोई वणिय-बंभणाइरूवो सो' । भणियं रन्ना - 'सो विक्कमरन्नो पुत्तो छत्त-चामराडोवकलिओ' । भणियं । कुमारेण- 'ता सो पडिवक्खाओ लंचं गेण्हइ । कहमन्नहा पुक्करेजा' । तओ भणियं सुबुद्धिणा'संभाविज्जइ कुमारवयणं । विमलबुद्धिणा भणियं- 'एस देवाणुचरो विमलवाहणो चंडकेसरिणो गोतिओ । ता एयस्स विक्खेवो दिज्जइ' । भणियं मइविहवेण - 'युक्तमेतत् । यतः उपकारगृहीतेन शत्रुणा शत्रुमुद्धरेत् । पादलग्नं करस्थेन कण्टकेनैव कण्टकम् ॥ किं तु एयस्सेव केवलस्स विक्खेवो न दिज्जइ । माऽकयकिच्चो विलोट्टेज्जा । ता महाबलो वि निजुज्जइ एयस्स सहाओ' । भणियं कुमारेण - 'किं बहुणा अहं चिय वच्चामि । यतः - विपक्षमखलीकृत्य प्रतिष्ठा खलु दुर्लभा । अनीत्वा पङ्कतां धूलीमुदकं नावतिष्ठति ॥ समूलघातमनन्तः परान्नोद्यन्ति मानिनः । प्रध्वंसितान्धतमसः तत्रोदाहरणं रविः॥ तओ भणियं सुबुद्धिणा-'न जुत्तो सयमारंभो कुमारस्स । जओ सो नीयतरो। अओ उत्तमं प्रणिपातेन शूरं भेदेन योजयेत् । नीचमर्थप्रदानेन तुल्यमेव पराक्रमैः॥ 1BC सहासीणस्स। क. २१ Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ श्रीजिनेश्वरसूरिकृत-कथाकोशप्रकरणे [२४ गाथा भणियं कुमारेण - 'महामच्च ! किं न सुयं यथा यथाऽनुगम्येत नीचो मूर्धानमाक्रमेत् ।। गर्दभो नात्मवित् कापि कर्णामोटं विना यतः॥ भणियं विमलमइणा – 'सो अम्ह इहट्ठियाणं सज्झो । जओ जो तस्स कणिट्ठो एगवइओ चंडपो 5 भाया सो भणाविजउ; जओ-तुमं चंडकेसरिं वावाएसि, ता तुज्झ विक्खेवं दाऊण रज्जेऽभिसिंचामो । जे तुह सामंता न आणं गिहिस्संति ते अम्हे आणं गाहिस्सामो त्ति । तओ तेण तंमि विणासिए नियविक्खेवं पेसिय तं पि करग्गाहं गिहिस्सामो' । भणियं कुमारेण - ‘अस्थि एयं, किं तु पावचरियं, न विक्कमचरियं । ता सयं चेव गंतूण चंडकेसरिणं सयं गाहं गेण्हामि'त्ति । भणियं जसधवलेण कुमारा मच्चेण - 'देव ! पाडण्येन स्वयमुद्योगक्रिया मुख्याऽस्ति । ता किं एवं वयंति कुमारपाया ?' । 10 भणियं कुमारेण पौरुषी वृत्तिमालोक्य वदन्ति क्षत्रियोत्तमाः। पाडण्यं तु मत्रिभ्यो राजानः समुपासते ॥ भणियं रण्णा- 'सो अम्ह हक्काए सज्झो, किं तस्सुवरि विक्खेवेण, ता दंडो पेसिज्जउ अण्णो' । भणियं सुबुद्धिणा- 'किंचि पाहुडं गहाय ताव को वि संधिविग्गहिओ वच्चउ; भाणिजइ य-किं काल15 चोइयो अम्ह विसयं उवद्दवेसि ?; निययसत्तिं न याणसि ? । तो जइ जीवियत्थी ता तुहिक्को अच्छसु। अम्हेहिं सह पीईए वट्टेजा, उयाहु नत्थि ते जीवियं ति । जइ एयं भन्नइ ता पाहुडं समप्पणीयं नन्नह त्ति । पच्छा जं उचियं तं कज्जिही' । बहुमयं सबेसि । तओ वाहराविओ चामुंडराओ संधिविग्गहिओ। समागओ, भणिओ सुबुद्धिणा- 'तुमं अन्नया वि चंडकेसरिसमीवे वच्चसि, सो वि सया तव उवयारं करेइ । ता तुमं वच्चसु । कालकालाणुरूवं काय'ति । 'एवं ति मण्णियं तेण । दिन्नो तदुचिय20 परिवारो। दिन्नं पयाणयं । पत्तो कालेण कालगुहाए चंडकेसरिपल्लीए । आवासिओ उचियपएसे । पत्थावे दिट्ठो चंडकेसरी पडिहाराणुण्णाए, किया उचियपडिवत्ती। चामुंडराएण वि समपियाई वत्थाहरणाइं रायपेसियाई, गहियाइं तेण अवण्णाए । तओ भणियं चंडकेसरिणा – 'किमागमणपओयणं । भणियं चामुंडराएणं-'तुम्ह उक्कंठिया समागया, पओयणं पि किंचि अत्थि' । भणियमणेण - 'साहेसु किं तयं'ति । भणियं चामुंडराएण- 'चारपुरिसेहिं सिटुं पुहइसाररन्नो जहा सवो सीमंतदेसो - चंडकेसरिणा उवद्दविओ । तं सोऊण रण्णा अमरिसवसफुरुफुरायमाणाहरेण भणियं- 'अरे रे बलवाउयं सद्दावेह । सन्नाहेह चाउरंगिणीसेणं । सो दुरायारो मए सहत्थेण गंतूण हतबो' त्ति । एत्यंतरे मए विन्नत्तो राया; जहा- 'देव ! जइ कह वि तस्स केण वि अवरद्धं' सामियं अपुच्छित्ता । ता तस्स नत्थि दोसो होति पमाया पयइवग्गे ॥ 30 ता पसिय पसिय नरवर ! मुंचसु कोवं अकारणे तस्स । मंतीहि वि संलत्तं एवमिदं नत्थि संदेहो ॥ - पुणो वि मए भणियं - 'सो चंडकेसरी मम भाया । अहं जइ अवरज्झामि ता सो देवपायाणं अवरज्झइ । केवलं पसायारिहो सो देवपायाणं ति । तओ तदणुण्णाए एस अहमागओ म्हि' । तओ भणियं से मंतीहिं - 'सुट्ठ कयं, जं भाया करेइ तं कयं भवया' । तओ दावियमावासट्ठाणं घास-जवसाइयं । कयं ___ 1 B C अवरुद्धं । Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६३ व्याख्या ] शासनोन्नतिकारक-जयसेनसूरिकथानकम् । सवं तदुचियं । ठिओ मंतणए चंडकेसरी मंतिणो य । भणियं मंतीहिं - 'देव ! किमेत्थ देवो काउमिच्छह ! तुम्हेहिं अणुन्नारहिं चेव तस्स अवरद्धं । संपयं जमेथोचियं तं भणउ देवो' । सो भणइ - 'किमेत्थ भाणियव्वमत्थि । एयं मुसावाइणं नयरनिद्धमणेणं नीणावेमि । तुम्हारिसवरमंतीण मंतपासावपासिओं वरओ। किं काही दुट्ठाही वि सुयणगरुलस्स ममेसो । एसा ताव कालगुहापल्ली विसमच्छिन्नटंकगिरिकंदरसमल्लीणा, वंसीकुडंगपायारपरिक्खित्ता, अभितर- 5 पाणीया, पेरंतेसु पंचजोयणियाए अडवीए निवाणियाए परिक्खित्ता, गिरिकडयविसमप्पवेसा । ता मम दुग्गबलं पि अस्थि । मंतिमंतबलं पुरिसबलं पि अस्थि । ता सो राया बहुविक्खेवो वि किं मम काही । नस्थि मम तस्स संतियं मणयं पि भयं ति । तओ भणियं से सव्वपहाणमंतिणा सरभेण - 'देव ! जहट्ठियदंसीहिं तुह हिययनिउत्तमइविहवेहिं नाणुरोहाउ कण्णसुहयं विवागकडुयं वत्तव्बं; किंतु तुह वंसहियं चिंतयंतेहिं कण्णकडुयं पि सच्चं हियं परिणामसुंदरं भासियव्वं । ता जइ देवपायाणुन्ना भवइ, " ता भणामो किंचि वि' । भणियं चंडकेसरिणा- 'किं न भणसि' । भणियं सरभेण ता सामनए संते संते पुरिसाण भेयविण्णाणे । दाणे य संपडते को दंडे आयरं कुणइ ॥ महु-वलि-केढभ-रामणपमुहा नट्ठा महापयावा वि । असमाण विग्गहेणं ता देवो इह पमाणं ति ॥ जइ अम्हे पुच्छइ देवो, ता चामुंडराओ सम्माणिजउ, अकंडविड्डुरं परिहरिऊण पीईदाणपुरस्सरं 15 पेसिज्ज। यतः- प्रस्तावसदृशं वाक्यं सद्भावसदृशं प्रियम् । ___ आत्मशक्तिसमं कोपं यो जानाति स पण्डितः ॥ उच्छाइजइ तुह सामि मंडलं तस्स दंडमित्तेण । समरे पुण तेण समं सत्तुयमुट्टि ब जलहिम्मि ॥ एसो महाबलो वि हु तुह बलअहिओ पहाणनिवपुत्तो। तुह दाणपिईगहिओ ओसक्कइ तुम्ह दंडाणं ॥2॥ जं संधि-विग्गहेसुं कुसलो एसो तुमावि उवचरिओ । ता तह सम्माणिजउ जह संधि तेण कारेइ ॥ संधिअकरणे पुण दुग्गबलट्ठियाणं पि अम्हाणं नत्थि साहारो । जओ आगंतूण नरिंदो सीमाए जस्स ठाएज्जा । सामंतस्स सभूमि रक्खंतो तस्स पाइको ॥ कमसो निरुद्धदंडो भूमिं तुह गसइ किं वियारेण । देसंतरेसु भमिहिसि नरवर ! सामंतपरिहीणो॥ नरनाह ! जस्स भूमी सव्वे तस्सेव सेवगा होजा । नियदेहो वि न जीयं अणुगच्छइ विहडिए दवे ॥ 25 ता पेसलवयणेहिं सुवण्णदाणाइणा इमो दूओ । सम्माणिजउ भणिउं भायासि तुमं न संदेहो ॥ इय वइ-किरिया जोगा दूयं तस्सामिणं च नरनाह । पडिपाहुडं च पेसिय मुंजसु रजं जहिच्छाए । __ भणियं चंडिक्केएण चंडकेसरिणाअम्हि थोवा रिउ बहुय एह अमणूसह गणण पयट्टई । एक्कह सूरह उग्गमणि तारानियरु असेसु वि फिट्टई ॥ जो तुम्ह सरिच्छो कायरो त्ति तस्सेस' दारुणो चंडो । अच्छिपडिओ वि अच्छि दुमेइ खणं पि नो मज्झं ॥ __1 B C य सो। 2 A तस्सामिगो य। 3 C बहुइ। 4 B गणणा। 5 C अमणसह गएण पयडइ । 6C फडइ। 7 B तस्सेव । Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ श्रीजिनेश्वरसूरिकृत-कथाकोशप्रकरणे [२४ गाथा पंचजणा पंडुसुया अद्वारसखोहणीओ कुरुवग्गे । पंडुसुएहिं वि जीयं थोवेहिं वि किं नु मे न सुयं ॥ न य तुम्ह मंतसत्तीए सुयणु परिवालियं मए रजं । नियभुयपरक्कमेणं विक्कंता सयलरायाणो॥ तओ वाहराविओ चामुंडराओ। भणियं चंडकेसरिणाचक्कहरा परचक्कं चंकमंता न होंति वयणिज्जा । ता तुह सीमापेरंतविक्कमे किमिह वयणिजं ॥ । भणियं चामुंडराएणभायासि तुमं तेणं कडुयं पि हु ओसहं न दुढे ति । जं रोगहरं सुंदर अकालमचुं किमिच्छेसि ॥ मा मह गइंदविदारयस्स एयाओ' होज अवराहो । एत्तो चिय दूरतरं पत्तो सक्को उ मह पहुणो' । जइ मज्झ रहवरस्स बला वि गेण्हेज ता कुओ ताणं । सूरो नहे न चिट्ठइ एगस्थ भएण मह पइणो ॥ मह सामियउज्जोगे पडिराइविलुप्पमाणसव्वस्सो । दिसि दिसि पलायमाणो भाउय तं केरिसो होसि ॥ ॥ता सप्पतुंडियाए कीस अवाणं मुहाए कंडुयसि । कुट्टकुरु हाडएणं गच्छसु महसामिपामूलं ॥ तओ भणियं चंडकेसरिणामह पक्कलबहुपाइक्कचक्कनारायवरिसपडिभिन्नं । से सेण्णं नियरुहिरे अवसणं दच्छसि जियंतो ।। तओ भणियं चामुंडराएणंमह सामियनासाउडअमरिसनिजंतमारुयप्पहओ। जलनिहिमपाविऊणं जइ चिट्ठसि ता तुमं पुरिसो ॥ 1 इति भणित्ता उढिओ संधिविग्गहिओ। पढिओ सनगराभिमुहो । पत्तो कमेण वाणारसीए । निवेह ओ पुहइसारस्स नियरन्नो वुत्तंतो । तं सोचा आसुरत्तो पुहइसारो रोसवसफुरफुरायमाणाहरो तिवलीतरंगभासुरो आबद्धसेयभालवट्टो अमरिसवसविमुक्कहुंकारो भणिउमाढत्तो- 'अरे रे! सिग्छ बलवाउयं सदावेह' । समागओ सो। भणिओ- 'सिग्धं चाउरंगिणिं सेण्णं सन्नाहेहि' । तेण तह ति संपाडियं । विलद्धाओ सामंताइयाणं करि-तुरय-संदणालीओ। सुइविवरमाऊरंतो समुट्ठिओ हलबोलो । पयर्ट्स सिबिरं " गंतुं । अवि य तोणीरभूसियंसा करगयकोदंडपक्कपाइक्का । हलबोलमारभंता चलिया पुरओ असंखेजा ॥ वरतुरयखरखुरुक्खयखोणिरयाऊरियंमि नहमग्गे । पडिभट्ठपहो परिसरइ रविरहो तंमि कुडिलं व ॥ करिविसरपायपाया खुप्पइ खोणी अहो अहो जाओ। सेसो वि सावसेसो मण्णे अह तम्मि उज्जोए । मतकरिकरडपगलियदाणंबुनिसित्तमेइणीवीढे । अइवेगपयट्टाओ खुप्पंति तहिं रहालीओ ॥ करहविसरारवुत्तट्ठगोणपरिमुक्कभरपलायंता । तोलिंति दिसोदिसि बाल-वुड्ड-इत्थीयणं जाव ॥ एत्यंतरे पुहइसारो राया विन्नत्तो जयसेणकुमारेण - 'देव! करिकुंभविमेयणपहुयस्स केसरिणो सव्वाहमसिगालं पइ कमबंधो केरिसं सोहमावहइ । मयघुम्मिरगंधकरिणो तरुणतरुपल्लवामोडणे केरिसं सत्तिपयडणं । ता किं तस्स उवरि सयं देवो गमणं करेइ हीणस्स । अणुजाणउ ममं, जेणाहं तं गहिऊण आगच्छामिति । भणियं रन्ना - 'पुत्त ! तुमं अदिट्ठसमरप्पयारो ता कहमणुजाणामि' । भणियं मंतिसाम॥ तेहिं- 'मा वियप्पउ देवो । गच्छउ कुमारो । अम्हेहिं समं न कोइ दोसो' ति । मन्नियं रन्ना । निरूवियं लग्गं । दिन्नं पयाणं । जोयणमेत्तपयाणएहिं गच्छंतो कुमारो कमेण पत्तो संखनाहं नाम पट्टणं सदेससीमाए ठियं । तत्थ बहिया आवासिओ उचियठाणे । दिन्नो गुड्डरो । बद्धो पुरओ पडिमंडवो । दिना 1 B पसाओ। 2 B C सको ससंकु व्व। 3 A कोट्टकुर। 4 A. नोणिति। 5A गूडरो। Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या ] . शासनोन्नतिकारक जयसेनसूरिकथानकम् । परियच्छा । बद्धो जयकुंजरो गुड्डुरासण्णे, वारुयाओ य । दिन्नाओ वंदुराओ तोखाराणं वाम-दाहिणेसु । उभियं' तोरणं सीहदुवारे । निवेसिया' चउद्दिसिं गुड्डुरस्स अंगरक्खा । निउत्ता तोरणदुवारे मंडवदुवारे य पडिहारा । निबद्धा तोरणस्स वाम-दाहिणेणं मालागारपंतीओ। तयणंतरं सोगंधियाणं सयपाग-सहस्सपाग-सोहम्गसुंदर-चंपग-केयइ तेल्लाइयं । सिंदुवारसुरतरुवासण्हाणाइया कप्पूरकत्थुरियाइयं सुगंधवत्थुजायं गहाय । तयणंतरं हारद्धहारमणिमालियाओ गहाय मणियारा उभयपासेसु । तओ दोसिय- पडवा । तयणंतरं घय-तेल्लाइयं गहाय वाणियगा। तयणंतरं कणवाणियगा । तओ साग-फल-दहिमहिगाइयं गहाय तहाविहजणो ठिओ। निबद्धा दूरदूरं मत्तकरिणो । ठिया जहाणुरूवं सामंता अमचा य । एवमाइविहिणा दिन्ने आवासे, गएसु कइवयदिणेसु, अन्नदिणे जयसेणकुमारो निग्गओ रायवाडीए । तत्थ तरुगणगहणाए अडवीए वियरमाणेण दिट्ठो एगस्थ रुक्खे लोहमयकीलेहिं कीलिओ बद्धो एगो विज्जाहरो । तं दढे जायकरुणेण कुमारेण मोयाविओ । सो सावसेसजीविओ आणीओ निययावासे ।" उवयरिओ ओसह-भेसज्जाइणा । जाओ पड्डुसरीरो । पुट्ठो कुमारेण - ‘भद्द ! को तुम, केण किं निमित्र बद्धोसि! । तेण भणियं- निसुणसु - अस्थि वेयवे वेजयंतपरे कुबेरो विजाहरो । कुमुइणी से भारिया । ताणं पुत्तोहं वाउगई नाम । परिणीया मए तन्नयरवासिणो सुमंगलखयरस्स धूया बंधुदत्ता नाम अईवरूववई । तीए सह विसयसुहमणुहवंतो चिट्ठामि । सा य अन्नया कयाइ दिट्ठा अंगारखयरेण गयणवल्लहवासिणा । तीए रूवे 15 अज्झोववनो सो पत्थेइ वियणं, न य सा इच्छइ । तीए वि मह सिटुं । अण्णया तीए सह समागओहं एत्थ पएसे । अवयरिओ रमणीयवणनिगुंजे । तीए सह सुरयसुहं सेविऊण पल्लवसयणीए तं पसुत्तं मोत्तूण गओ अहं सरीरचिंताए । छिद्दन्नेसणपरायणेण पच्छन्नठिएण दिट्ठो अंगारगेण । पमत्तो य गहिओ अहं तेण, बद्धो विजापभावेण कीलिओ लोहकीलेहिं । नीया मम भारिया हाहारवं कुणंती मड्डाए तेण कत्थइ । अहं पि सावसेसजीविओ तुमए दिट्ठो ति । ता तुमं परमोवयारी जीवियदायगो. तो आइसलु जं मए कायव्वं' । भणियं कुमारेण- 'भद्द ! जं मए भाउणा सिज्झइ तं करेमि अहमेव तुज्झ; मम पुण न किं पि कायव्वमस्थि' । तओ सुइरं विचिंतिय एयकालस्स एवंचेवोचियं ति मुणिऊण खयरेण समप्पियं कुमारस्स हिमवंतपव्वयसमुन्भूयं बहुविहसत्तिसंजुत्तं महोसहीवलयं । वहा पढियसिद्धो विसनिम्महणो पहाणमंतो य । उवरोहसीलयाए गहिओ कुमारेण । गओ विज्जाहरो । कुमारो वि पइदियहं गच्छइ रायवाडीए । ___ अन्नया कुमारो कालगुहासमासन्नाए अडवीए गओ कोउगेण वेगवंततुरएहिं । इओ य चंडकेसरिणो जेट्टपुत्तो चंडसीहो नाम मिगयाए निग्गओ । मिगवहपरायणो अडवीए इओ तओ अडंतो दिट्ठो सीहेण । आगंतूण कुपियकयंतेणेव पहओ मुद्धाणे । दुहा कयं मुद्धाणं । सीहो वि तस्साणुचरेहिं वावाइओ। सो वि परमवेयणापरद्धो कइवयपुरिसपरिगओ ठिओ एगस्स वडपायवस्स तले । तं पएसमागओ जयसेणकुमारो । भीया ते तं दट्टण, आसासिया कुमारेण । दिट्ठो तदवत्थो 30 चंडसीहो । जायकरुणेण भणियं कुमारेण - भद्दा ! किमेयं । तेण वि सिट्ठो सीहवइयरो । तओ कुमारेण आणावियं पाणियं कयकर-चरणसोएण ओसहिवलयं मोह लियं सलिलेण, 'तेण य सितो चंडसीहो । अचिंतयाए ओसहिवलयस्स सत्तीए तक्खणादेव विगयवेयणो परूढवणो पुणण्णवसरीरो ___ 1 B ऊसियं। 2 B C निवेसियाओ। 3 नास्ति AC मंडवदुवारे। 4 B C निविट्ठाओ। 5 B नास्ति 'केयई। 6BCण्हाणिया। 7A तेण अहिसित्तो। Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनेश्वरसूरिकृत-कथाकोशप्रकरणे . [२४ गाथा जाओ । चंडसीहो तुट्ठो पायपडिओ भणइ- 'देव! कोसि तुमं? किं वा ते नामं मम पाणदायगस्त ?' पासवत्तिकुमारपुरिसेहिं सिट्ठा पउत्ती नामं च । तओ कयपणामो गओ सो सट्ठाणं । जयसेणो वि आगओ सट्टाणं । इओ य चंडसीहो गओ कालगुहाए नियपल्लीए । सिट्ठो नियवुत्तंतो जणयस्स, कुमार चरियं च । तओ कुमारगुणावजिओ तुट्ठो चंडकेसरी भणइ- 'अहो सोजन्नया, अहो महापुरिसत्तं, अहो 5 गंमीरया, अहो परोवयारिया जयसेणकुमारस्स । तेण नियचेट्टिएणेव वसीकओ अहं' ति गहिऊण पभूयकरि-तुरय-रयणदविणाईयं समागओ कोट्ट कुहाडियाए जयसेणकुमारसमीवं सह चंडसीहेण । बहुमनिओ कुमारेण । तओ चंडकेसरि-चंडसीहेहिं भणियं- 'देव ! निक्कारणवच्छलाणं तुम्ह पायाणं आयत्ता इमे पाणा । किं पुण सेसधण सयण-परियणाइ । जाया संधी सुहेणेव । सुत्थीकओ सव्वो देसो । समागया वसं अन्ने वि सामंता कुमारस्स । एवं कयसयलकायव्वो जणवयस्स आणंदं कुणंतो, पूइज्जतो " सामंतेहिं नियनियपुरि समागओ । तेसिं पि कुणंतो सम्माणं चलिओ कुमारो सदेसाभिमुहं । अण्णया संपत्तो सिरिपुरे । आवासिओ उचियपएसे । जाव तन्नयरवासिणो सुमित्तस्स रन्नो कमलसेणाए महादेवीए धूया बालचंदा नाम कण्णगा अहिणा डक्का । न य केणइ निविसा काउं' तीरइ । तओ मय त्ति कलिऊण विसमसमाहयतूररवेण निज्जए मसाणं । आवाससमासण्णा समागया दिट्ठा जय सेणेण । पुढे 'किमयं ? ति । सिट्टो से वइयरो कंचुइणा । भणियं कुमारेण – 'सजीवं मडयं तूरसराओ 15 नजइ, ता विमालावेसु खणंतरं' ति । गओ कंचुई धाराविया तत्थेव पएसे । कयसोओ आगओ कुमारो। विजाहरदिन्नमंतसामत्थओ जीवाविया बालचंदा । पसुत्त व्व समुट्ठिया विसविगमाओ । दिट्ठा कुमारेण अउव्वरूवा कण्णगा । तीए वि सिणिद्धाए दिट्ठीए अवलोइओ कुमारो । तं दद्रूण हरिसिओ सुमित्तो देवी य । तओ दिण्णा सा जयसेणस्स । सोहणलग्गे परिणीया य महाविच्छड्डेण । तीए सह परमपीईए विसयसुहमणुहवंतो ठिओ तत्थेव मासमेकं कुमारो । जाया बालचंदा पाणाण वि वल्लहा । तीए ७ सह समागओ वाणारसीए । एवं गच्छंति वासरा । ठाविओ जुवरायपए पिउणा । तीए नयरीए धणदेवसेट्टिपुत्तो वासवो नाम कुमारस्स बालवयंसो अईववल्लहो कुमारसमीवं निच्चमागच्छइ । अन्नया वरमणिरयणहीरयालंकियअंगयविभूसियबाहुजुयलो समागओ कुमारसमीवे वासवो। दिढे नवघडियमंगयजुयलं कुमारेण, कुमारसमीववत्तिणीए बालचंदाए वि । तीए एगते भणिओ कुमारो- 'मम कए अंगयजुयलं एवं मोल्लेण मग्गसु' । भणियं कुमारेण -'मोल्लं न गेण्हइ । एसो मम्गिओ 25 एमेव देइ । तं च न जुत्तमम्हाणं लाघवहेउ' त्ति । बालचंदा पुणो पुणो भणति; न मन्नइ कुमारो । अन्नया सिरिपुराओ सुमित्तसंतिया समागया पहाणगोहा पाहुडं गहाय कुमारस्स । पढम चिय तेहिं दिट्ठा बालचंदा । दंसियमसेसं समाणीयपाहुडं । भणियमणाए- 'अहमेव पत्थावे समप्पिस्सामि कुमारस्स' । 'एवं होउ' त्ति उट्ठिया ते । तीए य तं मज्झाओ गहियमंगयजुयलं परिहियं चिरदि8 जणयसिणेहाओ। तओ नियसहीए पुरओ वियणे वासहरट्ठिया भणिउमाढता- 'एएहिं अंगएहिं दिटेहिं 30 सो दिट्ठो, परिहिएहिं सो अवगूढो' एमाइ अईवसिणेहजुयं उल्लावेमाणी पुव्वागयवासहरदारपरिट्ठिएण दिट्ठा कुमारेण । तओ अवियारिऊण भावत्थं चिंति कुमारेण- 'अहो विणटुं कजं; नूणं वासवसंतियाइं एयाई अंगयाइं । तदणुरत्ता य एसा एवं वाहरइ । ता किं एयाए दुट्ठसीलाए' । तओ ईसावससमुब्भिण्णकोवेण अगणिऊण पुवनेहाणुबंधं, अंगीकाऊण निद्दयत्तं, परिचइऊण दक्खिण्णं, पच्छण्णा समप्पिया चंडालीणं रत्तीए- 'दूर नेऊण दुट्ठसीलाए सगयं बाहुजुयलयं छिं देयव्वं' ति । ताहिं वि ___1 B C कया। 2 A सजियं । Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या ] शासनोन्नतिकारक जयसेनसूरिकथानकम् । १६७ तहेव कयं । महादुक्खाभिभूया इओ तओ विलुलिऊण मया बालचंदा । कुमारेणावि वाहराविओ वासवो । ताणि अंगयाणि दंसेसु जेण तप्पडिच्छंदएण अण्णाणि घडावेमो । तेण वि दंसियाणि । एत्थंतरे समागया सुमित्तसंतिया पुरिसा । सिट्ठो तेहिं वुत्तंतो । तओ 'अहो! अकजं अकजं कयं' ति पच्छायावेण महादुक्खेण दूमिओ कुमारो बालचंदासिणेहेण य । 'अहो अणवराहिणी दइया मारिय त्ति, अहो कट्ठमण्णाणं, कयमकिच्चं मए दुजम्मजायजीविएण अंतयलक्खणेणं' । तओ विरतो सो विसय-: तत्तीए । पडिनियत्तो देहसोक्खाईणं । ठिओ य संवेगे, पडिटिओ' य वेरग्गे । चिंतिउं च पयत्तो; जहा-किं छिंदेमि तिलंतिलेण नियदेह, किं वा हुणामि जालावलीभीमहुयासणे, किंवा तुंगगिरिमारुहिऊण पक्खिवामि भूमीए, किं वा चुन्नावेमि घणेणं, किं वा फलावेमि करकएणं, किं वा सहत्थेण छिंदामि उत्तिमंगं निययं, उयाहु पविसामि समुदं, किं वा निबद्धाहोमुहं दहावेमि हुयवहेण अप्पाणं । किं बहुणा, समारुहेमि दारुगेसु' । एवं विचिंतिऊण नीणावियाई कट्ठाई मसाणे रयाविया चिया ।। माया-पिई-मंति-सामंतेहिं निसिज्झमाणो वि न ठाइ । तओ ससोयजणणि-जणयाणुगम्ममाणमग्गो निग्गओ जयसेणकुमारो मरणकयनिच्छओ। पत्तो मसाणे । तदासन्ने य सहसंबवणे उज्जाणे बहुसिस्सपरिवारिओ चउणाणी संसारजलहिजाणवत्तो संसाराडवीए महासत्थवाहो जम्मजरामरणवाहिनडिजंतजंतुसंताणमहावेजो दिट्ठो समरमियंकाभिहाणो सूरी, बहुजणमज्झगओ धम्म वागरंतो । तं दट्टण भणियं पुहइसाररण्णा - 'पुत्त ! एसो अइसयनाणी भगवंतो, एयं वंदिऊण इमस्स पावस्स पायच्छित्तं पुच्छसु । तओ 15 जहारुइयं करेज्जासि' त्ति । एवं ति बहुमयं कुमारस्स । गया सव्वे वि, तिपयाहिणी काऊण वंदिय उवविट्ठा सव्वे वि जहारिहं सुद्धभूतले । सूरिणा वि सम्माणिऊण सासयसुहबीयभूयधम्मलामेण; समारद्धा देसणाविरुद्धहेउयं सोक्खं अण्णाणंधाओ पाणिणो । इच्छंता दूरओ नेति पावेंति य विवज्जयं ।। आरंभो जीवघायाए तम्मि पावस्स आगमो । तत्तो दुक्खाण संताणो अन्वोच्छिन्नोऽणुवत्तइ ।। ओसप्पिणी असंखेज्जा जीवो दुक्खदिओ ठिओ । पुढवी-आउकाएसु तेउकाए य मारुए ॥ वर्णमि ता अणंताओ ठिओ जीवो भयदुओ । संखेज्जयं पुणो कालं ठिओ बेइंदियाइसु ।। असन्नि-सन्निभेएसु पणिंदिसु पुणो पुणो । सतहभवाइं तु दुक्खं संताणसंतओ ॥ पोग्गलाणं परियट्टा हिंडंतेण अणेगसो । पत्तं माणुस्सयं दिव्वं तं पि जायं अणारियं । तत्थ निम्मेरयं पत्तो असीलो जीवहिंसगो । मुसावाई अदत्तस्स हारगो साभिवंचगो॥ परदाररईसत्तो नाणारूवपरिग्गहो । राईभोई महुं मंसं पेच्चा भोच्चा य णेगसो ॥ पत्तो जीवो महाघोरे नरए नारओ इमो। वेयणा तिविहा तत्थ सामण्णेण वियाहिया ॥ खेत्तपच्चइया एगा दीहं कालं सुदारुणा । अवरोप्परजा बीया तइया अंबाइजा भवे ॥ निमेसमेत्तकालं तु नत्थि दुक्खस्स अंतरं । कालं असंखयं तत्थ ठिओ जीओ भयहुओ ॥ अवि यखावेंति तस्स मंसाइं अंगमुक्कत्तिउं तहा । पायति य कढंतीओ वसाओ अवसंतयं ॥ तत्ते भट्टे पतोलेंति आरसंतं सुभेरवं । पीसंति कुंभिपाएणं पयंती चंडदारुणा ॥ वजियं अवराहेण मा मारेहि दयावणं । खामेमि पायलग्गोहं न सरामि य जं कयं ॥ 1C पडिओ। 2 BC उन्हफासा सुदारुणा। 3 BC पोलेंति । Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 10 16 20 25 30 35 श्री जिनेश्वरसूरिकृत-कथाकोशप्रकरणे [ २४ गाथा सीमि पायं दाऊण ते भणंति सुदारुणं । रे रे अयाणओ पेच्छ संपयं एस केरिसो ॥ पुव्वं वियक्खणो आसि जं भणतो इमे जणा । पासंडिनडिया पावा मज्जमंसेहिं वज्जिया ॥ एत्तिओ जीवलोगो उ पच्चक्खस्स उ गोयरो । न जीवो न परलोगो पुण्णपावा कुओ तओ || करकरहिं य फार्लेति कप्पंती कप्पणीहियं । रोवेंति सिंबलीरुक्खे वज्जकंटयसंकुले ॥ आयसंमि जलतंमि रहे जोएंति दारुणे । घाएंति तत्तघाएहिं निद्दयं पावकारिणो ॥ तारेंति पूइदुगंधं घोरं वेयरणि नई । असिपत्ततलासीणं छिंदती पत्तरासिणा ॥ सागराई अगाईं आउयं परिवालिया । उव्वता तओ होंति रुद्दा तेरिच्छजोणिया || पुणो पावं पुणो तत्थ उप्पज्जंति सकम्मुणा । पुव्वुत्ताइं पुणो ताइं दुक्खाइं बहुभेयओ ॥ नरसु तिरिक्खेसु हिंडित्ताऽणेगसो इमो । एगिंदिएसु गच्छेजा पुणो कालमणंतयं ॥ माणुस पिलणं दुल्लहो आरिओ जणो । अणारिए पुणो पावं पुणो दुक्ख परंपरा ॥ आरियं पि जणं लद्धुं कुलं जाई सुदुल्लहा | आरोगया दढं आउं धम्मे बुद्धी विसेसओ ॥ अन्ना वसा जीवा पाणे हिंसंति णेगहा । धम्मबुद्धीए पाविट्ठा जीवाजीवे अजाणिउं ॥ आस - गो- सुहाई कायव्वं धम्मचारिणा । वावी - कूव - तडागाईं माहणाईणं भोयणं ॥ जइ ताव जीवघाएणं धम्मो होज्जा तु ता न किं । धम्मिया वाह-मच्छंधा खट्टिका गोत्तिपालया ॥ जिर्णिदमग्गपच्चूहकारया साहुनिंदगा । अतत्ते तत्तबुद्धीया अदेवे देवबुद्धिया || अप्पाणं च परं चैव मज्जावेंति भवण्णवे । एवं च भो महाराय ! जिणधम्मो सुदुल्लाहो ॥ नाममेण लडूण जिनिंदमयमुत्तमं । वुग्गाहेत्ता जणं पावा पावेंति दुहतई ॥ १६८ साहुवे विडंबित्ता वेसमेत्तेण संगया । छज्जीवकायघायम्मि वट्टमाणा अकारणा ॥ अप्पाणं च परं चेव वुग्गाहेत्ता पर पए । गच्छंतणोरपारम्मि संसारंमि अणारिया || दबं च खेत्त-कालं च भावं च अवियाणिया । निक्कारणे निसेवेत्ता आहाकम्माइदूसियं ॥ अन्ने उ अम्हे धम्मिट्ठा मण्णमाणा अणागमा । पाणभूयक्खयं किच्चा गच्छंति अणहिजियं ॥ अन्ने पुण महाबभत्ता भावित्वा जिणभासियं । सारीरमाणसाणं तु दुक्खाणंतगवेसगा ॥ जम्म- मार-उबिगा विप्पियाणमणेगसो । दालिद वाहि- संतस्था भावयंति पुणो पुणो ॥ मिच्छत्तं दारुणो वाही अन्नाणं खु महाभयं । जेण जुत्ता इमे जीवा मारावेंति पियं जणं ॥ ता दुक्खं जावमिच्छतंचं ता दुक्खं जा असंजमो । ता दुक्खं जा कसायाओ ता दुक्खं न समो जया ॥ ता दुक्खं जाव संसारो सो मिच्छत्तनिबंधणो । जिणागमे अविन्नाए मिच्छत्तं जाण जंतुणो ॥ ताणं माया नपुत्ता वा न बप्पो ने य बंधवा । न दारा नेव मित्ताणि मोत्तूणं जिणभासियं ॥ ता सोक्खं जाव सम्मत्तं ता सोक्खं जाव संजमो । ता सोक्खं जा कसायाणं निग्गहो नाणसंगहो || ता करेमि पव्वज्जं संसारदुहछेयणिं । अब्भुज्जयविहाराणं गुरूणं पायअंतिए ॥ परोवयार निरया जं ते निच्चं महायसा । जावज्जीवं मए तेसिं कायव्वं वयणं तओ ॥ एवं चित्तेऽवहारेता कुव्वंति हियमप्पणो । अणवज्जं च पव्वज्जं सामायारिं जहागमं ॥ देसइत्ता जिणिदाणं आणं माणविवज्जिया । बोहइत्ता बहुं लोगं नाणं संपप्प केवलं ॥ सव्वदुक्खक्खयं किच्चा गच्छंति परमव्वयं । जम्म - मारभउम्मुक्का सासयं सुहमासिया ॥ ता भो तुमे महाराय ! करेह हियमप्पणो । मा संसारे दुरुत्तारे हिंडेज्जा ताण वज्जिया ॥ एत्थंतरे पियाविओगेण दुक्खतविएण संजायगरुयसंवेगेण समुप्पण्णपच्छायावेण पावविबुद्धि Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या ] शासनोन्नतिकारक- जयसेनसूरिकथानकम् । १६९ मिच्छमाणेण भणियं जयसेणकुमारेण - 'भयवं ! तुब्भे दिव्वणाणेण सव्वभावस भाववियाणगा ता हि मह सुद्धी भविस्सइ !; देह पायच्छित्तं जेण कयतव नियमविहाणो पाणञ्चायं करेमि । भणियं समर मियंक सूरिणा - 'सव्वसावज्जजोगवज्जणरूवा पव्वज्जा अणेयभवसंचिय गुरुमहापाव निट्ठमण हेऊ । किमंग पुण इहभवनिव्वत्तियस्स पावस्स त्ति विहिणा मरणं काउमुचियं । एवं पुण मयाणं न को विगुणो होइति । केवलं दुग्गइगमणं होइ' । तओ भणियं कुमारेण - 'ता देह पव्वज्जं ।" 1 सव्वपावक्खयकारिणि' ति । एत्यंतरे भणियं कमलाए - 'पुत्त ! अपवत्तियकुलतंतुसंताणो जइ पव्वयसि, ता सयलवेरीणं मणोरहे पूरेसि । नियबंधुवग्गस्स य मणोरहे विहली करेसि । ता किह ते कुलप्पसूयस्स एरिसं चरियं' । भणियं कुमारेण - ' मा मा अंब ! एवं भण । जम्हा अपव्ययंतो रिऊणं मणोरहे पूरेमि, न पव्वयंतो । जम्हा रिउणो परमत्थेण संसारनिबंधणा मिच्छत्ता विरइकसायादओ । तेसिं च एए मणोरहा - एसो जइ 10 गिहवासे आरंभपरिग्गहासत्तो भवइ, ता नूणं नरए एयं पाडेमो, नन्नह त्ति । ता अंब | न किंपि एतेण गुणो' । भणियं कमलाए - 'पुत्त ! तुमं अधरिय सुरकुमाररूवसोहग्गो सुरंगणा विसर पत्थणिज्जो । कामलक्खणो य पुरिसत्थो पहाणो वन्निज्जइ । पेच्छ संतिनाहेण वि रायसिरिसमद्धा सिएण सुरंगणासरिसरमणीसमूहेण समं विसयसुहमणुभूय पव्वज्जा समासिय' त्ति । भणियं कुमारेण - 'अंब ! न भोगा भगवओ निव्वाणकारणं वणिज्जंति । मोक्खो पहाणपुरिसत्थो । तस्स य साहिगा पव्वज्जा । 15 ता जइ चारितावरणीयकम्मुणो वसेण गिहवासमइगया संतिजिणिंदादओ, ता किं तं पमाणं । कहमन्ना मल्लि अरिट्टनेमीपमुहा अदिट्ठविसयसंगा पव्वइया । ता सव्वहा मुंचह ममं जेण इत्थी वह - जणियमहापावविसुद्धिं करेमि ' । तओ भणियं पुहइसाररण्णा - 'पुत्त ! करेसु हियमप्पणो । एगे मंदभागा अम्हे जाणंता वि न करेमो । ता किह तुमं वारेमो' ति । निरूवियं लग्गं । करावियं अट्ठाहियामहामहिमं । पडिला हिऊण समणसंघं वत्थाईहिं महाविभूईए पव्वइओ जयसेणो, सामंतामच्चपुरनायग- 20 सत्थाहाइकुमारपंचसयपरियरिओ । अहिज्जिओ कालेण दुवालसअंगाई । समुप्पाडियं ओहिनाणं मणपज्जवनाणं च । सो य समरमियंकसूरीहिं ठाविओ निययसूरिपए । सो य अहं विहरंतो इह समागओ । एयं मे वरम्गकारणं' ति । 1 25 तओ भणियं विक्कमसेणरन्ना - 'सोहणं भंते ! वेरग्गकारणं । सुछु भगवया छिन्ना संसारवल्ली । एत्यंतरे लद्धपत्थावेण भणियं माहव भट्टेण - 'महाराय ! मा एवं भण सोहणमणुचिट्ठियमणेण । जओ'अपुत्रस्य गतिर्नास्ति स्वर्गो नैव च नैव च' इति वचनात् । कहमणेण सोहणं कथं पुत्तमुहमदण पव्वयंतेण' । तओ भणियं जयसेणसूरिणा - 'भट्ट ! एवमेयं न तुह वयणं पडिकूलेमो । जओ अपुतो भयारी सम्मओ इह, न उवहयबीओ । कथमन्यथा - इति विष्णुरुवाच । तम्हा अपुत्तस्स गई नत्थि, परिप्फंदो इओ तओ चलणं नत्थि, सा पुण सिद्धस्स चेव । अओ बंभयारी सिद्धो होइ ति । तओ' भणियं - सव्वकम्म- विमुक्कस्स सिद्धस्स कुओ सग्गो'ति । 1 1 B C तुमे भणियं । क० २२ एक रात्रोषितस्यापि या गतिर्ब्रह्मचारिणः । न सा क्रतुसहस्रेण शक्या प्रातुं युधिष्ठिरः ॥ 30 Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 15 इत्यादि शौचं ब्रूमः । भणियं गुरूहिं - 'भद्द ! तुमे नियगंथत्थवज्जिया, ता नियदेवं न जाणह वेयं च । जओ वेदे भणियं “पृथ्वी वै देवता आपो वै देवता" इत्यादि । तथा वासुदेवेनोक्तम् - "अहं च पृथिवी पार्थ! वाय्वग्निजलमप्यहं" इत्यादि । ततः शैौचवादिनो देवमपानेन योजयतः किमत्र ब्रूमः' । 10 भणियं माहवेण - 'तुम्ह देवो कं झाएत्ता देवत्तं पत्तो ?' । भणियं सूरिणा - 'तुम्ह देवो किं झायइ ?' । भणियं माहवेण - 'अम्ह देवो अन्नेहिं झायज्जइ, न सो अन्नं झाएइ' । भणियं गुरूहिं - ' मा मुसं वयं वयाहि । यतः - किल गउरीए संभू संज्ञावंदणं करेंतो भणिओ - किं तुज्झ वि को वि उवासणिज्जो अस्थि ? | भणियं सयंभुणा - अस्थि । 20 १७० श्रीजिनेश्वरसूरिकृत-कथाकोशप्रकरणे [ २४ गाथा भणियं माहवेण - 'तुम्हे सोयवज्जिया, ता कुओ तुम्ह सिद्धी ?' । भणियं सूरिणा - 'किं सोयं कहिज्जइ ?' | भणियं माहवेण - 25 एका लिङ्गे गुदे तिस्रस्तत्रैकत्र करे दश । उभयोः सप्त विज्ञेया मृदः शुद्धौ मनीषिभिः ॥ एतच्छौचं गृहस्थानां द्विगुणं ब्रह्मचारिणाम् । त्रिगुणं वानप्रस्थानां यतीनां च चतुर्गुणम् ॥ पञ्चाशैकोन कोष्ठे अकारादिप्रविस्तरे । तत्र मध्यस्थितं देवि ! शिवं परमकारणम् ॥ अष्टवर्गान्तगं बीजं कवर्गस्य च पूर्वकम् । वह्निनोपरिसंयुक्तं गगनेन विभूषितम् ॥ एतद्देवि ! परं तत्त्वं योऽभिजानाति तत्त्वतः । संसारबन्धनं छित्वा स गच्छेत् परमां गतिम् ॥ अष्टवर्गा अ क च ट त प य शाः । तेषामन्तं गच्छति हकारः । कवर्गस्य च पूर्वकः 'अ' जिह्वामूलीयं भूत्वा विसर्गः हकारे रूढः । अकारो चिट्ठइ । सो य हकारस्स आईए दिज्जइ । अम्मी रेफो तेण उवरिंहकारी संजुज्जइ । गयणं बिंदू, तेण भूसियं 'अहं' इत्यर्थः । अओ न जाणासि निययसत्थत्थं ते तुमं भणसि न किं पिझाएइ । तथा वेदं किं न सुमरसि । यतस्तत्र यागविधौ उक्तम् - 'ओं ऋषभं पवित्रं पुरुहूतमध्वरं यज्ञेषु ननं परमं महेशं श्रुत्वाध्वरं यज्ञपतिं कर्तुर्यजन्तं पशुमिन्द्रमाहुरिति स्वाहा' । तथा - 'ओं त्रातारमिन्द्रं ऋषभं वदन्ति । अमितारमिन्द्रं तमरिष्टनेमिं नेमिं, हवे भवे सुगतं सुपार्श्वमिन्द्रं भवेत् । शक्रमजितं जिनेन्द्रं तद्वर्द्धमानं पुरुहूतमिन्द्रमाहुरिति स्वाहा' । तथा - 'ओं नग्नं सुवीरं दिग्वाससं ब्रह्मगर्भ सनातनं उपैमि वीरपुरुषमर्हतमादित्यवर्णं तमसः पुरस्तात् स्वाहा' । 30 'स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्वेदेवाः, स्वस्ति नः तार्क्ष्योऽरिष्टनेमिः, स्वस्ति नो बृहस्पतिर्ददात् । दीर्घत्वायुर्बलायुर्ववह्येसु प्रजाताय । ओं रक्ष रक्ष रिष्टनेमिनः स्वाहा' । वामदेवशान्त्यर्थमनु विधीयते । सोऽस्माकं रिष्टनेमिः स्वाहा । तथा - 'ओं त्रिलोकप्रतिष्ठितान् चतुर्विंशतितीर्थकरान् ऋषभाद्यान् वर्द्धमानान्तान् सिद्धान् शरणं प्रपद्यामहे । Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७१ व्याख्या जिनधर्मोत्साहप्रदानविषयक-सुन्दरीदत्तकथानकम् । 'ओं पवित्रमग्निमुपस्पृशामहे । येषां नग्नं सुनग्नं, येषां जातं सुजातं, येषां वीरं सुवीरं, ब्रह्मसु ब्रह्मचारिणां, उदितेन मनसा, अनुदितेन मनसा, देवस्य महर्षिभिर्महर्षयो जुहोति । याजकस्य यजन्तस्य च एषा रक्षा भवतु, शान्तिर्भवतु, शक्तिर्भवतु, श्रद्धा भवतु, तुष्टिर्भवतु, वृद्धिर्भवतु स्वाहा'। ___ तम्हा भद्द ! वेए वि अरिहंतो झायबो भणिओ; तं चेव अम्हे झाएमो । अरिहंतो पुण कयकिच्चो न । किं पि झाए । भणियं माहवेण- 'तुम्ह कुलत्था भोज्जा न वा' । भणियं सूरिणा- 'भद्द ! दुविहा कुलत्था पन्नता-पंचेंदियकुलत्था, एगिदियकुलत्था य । तत्थ जे पंचेंदियकुले जाया चिटुंति ते अभोजा । एगिदियकुलत्था धन्नविसेसा ते दुविहा पन्नता- फासुया, अफासुया य । अफासुया ते अभोज्जा । जे फासुया ते एसणिज्जा, अणेसणिज्जा य । जे अणेसणिज्जा, ते अभोज्जा । जे एसणिज्जा ते दुविहा पन्नता - सामिणा दत्ता, अदत्ता य । जे दिन्ना ते भोजा, इयरे अभोज्जा । एवं सरिसवा य-10 पंचिंदिया समवया, एगिंदिया धन्नविसेसा । एवं मासा वि तिविहा- कालमासा सावणाइया अभोज्जा । परिमाणमासा सुवण्णाईणं ते वि अभोज्जा । धण्णमासा जहा पुदि । तओ संबुद्धो माहवो । अन्ने य परिसोयगा पञ्चणीया वि संबुद्धा । पव्वया य सूरिसमीवे । जाया सासणपहावणा । बुद्धो' विक्कमसेणो राया- 'सुट्ट वागरियं भगवया । जयइ जिणसासणमईव निउणं' ति । अओ अन्नेण वि एवं कायव्वं ति जहासत्तीए । ॥ जयसेणकहाणयं समत्तं ॥ ३५ ॥ एनमेवार्थं विशेषतो दर्शयितुमाह - ईसीसिमुज्जमंतं दढयरमुच्छाहिऊण जिणधम्मे । साहेति निययमटुं सुंदरिदत्तो व्व जइवसहो ॥ २५ ॥ व्याख्या - 'ईषदीषदुद्यच्छन्त' - स्तोकं स्तोकमुद्यमं कुर्वाणं, 'दृढतरमुत्साह्य जिनधर्म साधयन्ति । निजकमर्थ' सुन्दर्या देवतया दत्तः 'सुन्दरीदत्तः स इव । किं भूतोऽसावित्याह- 'यतिवृषभ:' मुनिजनवरिष्ठ इति । भावार्थः कथानकादवसेयः । तच्चेदम् - -> ३६. सुन्दरीदत्तकथानकम् । वच्छाजणवए कोसंबी नाम नयरी । तीए सागरदत्तो नाम सत्थवाहो, संमओ सामंतामचारक्खियाईणं, बहुमओ रन्नो, पुच्छणिज्जो नयरनायगाणं, मेढीभूओ सयणवग्गस्स, बंधवो इव दीणाणाहाणं, 23 कप्पदुमो इव पणइवग्गस्स, चिंतामणिरिव पासंडिलोयस्स, कामधेणुरिव 'तक्कुयजणाणं । तस्स य समाणजाइजाया जाया अगोत्तजा अगोतखलणारिहा मणोरमा नामा । तीए सह विसयसुहमणुहवंतस्स वच्चइ कालो । न य से पुत्तभंडं किं पि जायइ । तओ परितप्पइ तक्कए । सागरदतो भणिजइ नियगेहिं अन्नं परिणेहि । अपुत्तस्स कुलच्छेओ भविस्सइ । सो परिणेउं नेच्छइ मणोरमाए मंतक्खेणं । सा वि भन्नइ लोएण- 'कीस भत्तारं न परिणावेसि । किं कुलच्छेयं काहिसि' । सा तं सोऊण विमणा ॥ रुयमाणी गेहं चिट्ठह । इओ य समागओ गेहे सस्थाहो । दिट्ठा तेण रुयमाणी । तओ भणियाणेण 1 B C तुहो। 2 तकिय । Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ श्रीजिनेश्वरसूरिकृत-कथाकोशप्रकरणे [२५ गाथा 'पिए ! रहवरेण उज्जाणकीलाए वच्चामो' । सा न देइ पडिवयणं । सस्थाहेणावि समाणत्ता निउत्तपुरिसा-- 'रहं सिग्घमुवट्ठवेह' । ते वि तह त्ति संपाडियं । तओ गहिया बाहाए सत्थाहेण मणोरमा । समारूढा जाणवरे । पक्कलपाइक्कचक्कपरिगओ पत्तो उजाणे । तत्थ मणोरमं विणोयंतो जाव इओ तओ परिसक्कइ, ता एगत्थ आयावणापडिवन्नगं साहुं दह्ण गओ तस्स समीवे । तिपयाहिणी काऊण । दो वि जाणुवडिया तं साहुं थोउमाढत्ताणि । अवि य संसारजलहिमजंतजंतुसंतरणअणहवरजाण । भवभयचारयबंधणविच्छेयनिमित्त सत्ताण ॥ दारिद्ददुमदवानलदुहतरुउम्मूलणेक्कखरपवण । नाणावाहिवणालीपरूढतरुकंदकोदाल । पुणसग्गमग्गभग्गो' वि सग्गमग्गे निमित्त सत्ताणं । अत्ताणताण भवभयहेऊण अणूणखयहेऊ ॥ तुह पायपंकउच्छंगसंगम जे अपत्त अप्पत्ता । कत्तो ताणं ताणं कामासत्ताण सत्ताणं ॥ अइदुग्गमग्गलग्गो अपसत्त पसंतकरण कयकरण । कोहग्गिविज्झवणआसार सारभुवणत्तयस्स विय॥ सुपयासुपयादाणेण नाह पसीयंतु निवियप्पम्ह । तुह भत्तिमेत्तसत्ताण नाह हियइच्छियं होउ ॥ एयावसरे भगवओ साहुस्स दारुणकट्टाणुट्ठाणावजिया सुंदरी नाम देवया पायवंदिया आगया अहेसि । तीए चिंतियं-एवंविहभत्तिमंताण मा पत्थणा निष्फला होउ ति, पयडीहोऊण भणियं 20 देवयाए – 'सस्थवाह ! अहं ते पुत्तं दाहामि । भगवओ पायपत्थणा मा विहला होउ । किंतु सावगधम्म करेजाह । मासमेक्कं बंभचेररओ होउ सत्थाहो; एगाओ सिणाणाओ बीयं सिणाणं जाव । तओ राहुं पिटुओ काउं मेहुणं सेविजा, सिणाणाओ तइय-चउत्थे वा दिणे । तओ होही पुत्तो पहाणं सुविणसूइओ' त्ति । भणियं मिहुणएण- 'भयवईए किं नामधेजं?' । भणियं देवयाए- 'सुंदरि ति । तुट्ठाणि दोवि गयाणि सगिहं । जहुत्तविहाणेण समाहूओ गब्भो, जाओ कालक्कमेण, कयं वद्धावणयं । 2 बारसाहे अइक्कंते कयं से नामं सुंदरिदत्तो त्ति । पंचधाईपरिक्खित्तो वडिउमाढत्तो । जाओ कालेण अट्ठवारिसिओ। उवणीओ कलासूरिणो । कालेण य अहीयाओ कलाओ। आणीओ सगिहे । पूइओ कलासूरी । पुट्ठो सुंदरिदत्तो जणएण- 'पुत्त! गंधव्व-नट्ट-वीणा-पत्तच्छेज्जाइ-तरुतिगिच्छा य । आस-करिसिक्ख-सामुद्दजं च तह लेप्पचित्ताई ॥ एयं विणोयमेतं धणु-च्छुरिया-खग्ग-कुंतमाई वि । जाओ परउवजीवणमेत्ताओ कलाओ किं ताहि ॥ चाओ भोगो धम्मो सिज्झइ अत्थेण सो जहा होइ । तं किं पि कलं साहसु न अम्ह अन्नाहिं कजं तु॥ भणियं सुंदरिदत्तेण-'ताय ! एयं पि किं पि सिक्खियं, तो खणमेगं निसामेउ ताओ। जिणभासियपुत्वगए जोणीपाहुडसुए समुदिह । एयं पि संघकज्जे कायवं धीरपुरिसेहिं ।। धाउव्वाओ एगो बीओ पुण होइ ताय ! रसवाओ। निययफलो किर पढमो रसवाओ केण उवमिजा ॥ 1A °लग्गो; C भग्गावंसग्गमगे। Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 व्याख्या जिनधर्मोत्साहप्रदानविषयक-सुन्दरीदत्तकथानकम् । १७३ सयवेही होइ रसो सहस्सवेही य लक्खवेही य । कोडियकोडाकोडीवेही तह धूमवेही य॥ चउहा रसस्स बंधो भूईबंधो य कक्कबंधो य । खोट्टो' दावणबंधो दावणबंधं भणीहामि ॥ तत्थ महोसहीओ सोमा-थलपोमिणी-क्खिप्पा-गोसिंगी-खीरसारिणी-रुदंती-उव्वट्टा-दड्वरुहा एवमाइया । एयाहिं पारयस्स बहुविहो बंधो समुद्दिट्ठो। अहवा पुडेण पक्कं मुत्तक्खारेण लोणसहिएण । ओसहिजुगेण सहियं खणेण घासं घणं होइ । एक्कं उवरसलोणं खारमुत्तेण संजुयं काउं। देजसु हेटुप्परओ वत्थं बंधेज डोलसेएण ॥ जीरइ जामेक्केणं पुणो वि सत्तं घणं पयच्छेज्जा । सोलस अट्ठ चउत्थं भायं घासं जरेसिज्जा ॥ एएणं जोएणं समभायं जिन्नजिन्नतो नायं । हेमेण समं सूयं सएण तंबं वरं कुणइ ॥ दुगुणेण सहस्सगुणो चउग्गुणेण य लक्खवेहिओ होइ । छग्गुणिओ सूयवरो कोडीवेहुक्खमो होइ ॥ एमाइविहिं केत्तियं भणिस्सामि ताय !'। भणियं पिउणा- 'सुङ सिक्खियं सुलु' त्ति । पत्तजोवणो परिणाविओ सुसेणसिहिधूयं भाणुमई नाम । तीए सह विसयसुहमणुहवंतस्स वच्चइ कालो । अण्णया समागया चउनाणोवगया कुबेरदत्ताभिहाणा सेयंबरायरिया, बहुसीसगणसंपरिवुडा । निग्गया परिसा । सस्थाहो वि सभारिओ सपुत्तो विनिग्गओ । पत्थुया देसणा । पडिबुद्धा बहवे 20 पाणिणो । पत्थावं नाऊण भणियं सुंदरिदत्तेण – 'भगवं! केण निव्वेएण तुम्भे अधरियसुररूवसंपयाकलिया पढमे वए पव्वइया । जइ अणुवरोहो ता सोउमिच्छामि' । भणियं सूरिणा- 'भद्द ! संसारे निधेयकारणं पुच्छसि ?, मुद्धो विव लक्खीयसि । भणियं सुंदरिदत्चेण - 'अत्थि एवं भयवं!, किंतु विसेसनिमित्तं पुच्छामि' । भणियं सूरिणा- 'जइ एवं ता सुव्वउ - अत्थि इहेव भारहे वासे खिइपइट्ठियं नयरं । तत्थ अरिंजओ नाम राया अणइक्कमणिजसासणो । अवि य तस्सुज्जोए भूमी कंपइ हय-गय-रहाइभारेण । होति दढबद्धगिरिणो निवडियगुरुसाणुसंघाया ॥ जायंति नीरनिहिणो रसंतगुरुसत्तनीरपूरेण । पेरंतलुत्तवसिमा पक्खालियजोइसविमाणा ॥ किंतु तस्सुज्जेयावसरो चेव न जाओ । जओकह कह वि तस्स नामं पोत्थयलिहियं रिऊण रमणीओ। निसुणंति अइभयाओ मुयंति* कालेण तो गब्मे ॥ पडिसीमियरायाणो बंदिजणुग्घोसियं पि से नामं । सोऊण दिसोदिसि नट्ठसाहणा ति दुग्गेसु ।। एवं तस्स राइणो रज्जसिरिमणुहवंतस्स वच्चइ कालो । तस्स य रई नाम अग्गमहिसी तीसे पुत्तो कुबेरदत्तो नाम । सो य जुवराया। 1 BC खोहा। 2 B बत्थि; C वत्थे। 3 BC चउग्गुणो। 4 B C मुयत्त । Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 श्रीजिनेश्वरसूरिकृत कथाकोशप्रकरणे [ २५ गाथा अनया अमियतेयो नाम केवली समग्गसुयनाणी ओहिनाणी मणपज्जवनाणी चउबिहबुद्धिसंपुण्णबहुसिस्सगणपरियरिओ समोसरिओ नंदणुज्जाणे । साहुजणपाउमां उग्गहं ओगिन्हित्ताणं संजमेणं अप्पा भावेमाणt विहरs । एत्यंतरे वद्धाविओ राया उज्जाणपालएणं । दिन्नं से पारितोसियं । घोसावियं नयरे - 'भो भो लोया ! उज्जाणे अमियतेजो नाम केवली समागओ । एस राया तस्स वंदगो निगच्छइ । ता तुब्भे वि आगच्छह । करेह तप्पायनंदणजलेण पावमलपक्खाणं' ति । निम्गओ राया सपरिवारो, नागरजणो य । विहिणा पविट्ठा उग्गहं, तिपयाहिणी काऊण वंदिय निविट्टा सट्ठाणेसु । १७४ इओ य भगवओ लद्धपउत्ती भत्तिभरवीइपणोल्लिज्जमाणो एगो रोरपुरिसो सयहादलियदंडिखंडपांउयंगो भिणिभिणितमच्छियाजालाणुगम्ममाणमग्गो सास-कास- कोढ - पामापरिगयंगो पत्तो भगवओ अंतियं । वंदित्ता केवलिं सो वि निविट्ठो तदेगदेसे । तं दद्दूण भणियं कुबेरदत्तेण - 'भयवं ! एस वराओ 10 पेच्छ; करुणापयं पसन्तचित्ताणं, उवहासठाणं माणीणं, जिंदापर्यं दुवियङ्खाणं, दिठ्ठेतो पावकम्माणं, निलओ सव्वरोगाणं, कस्स कम्मुणो' उदए जाओ ?' । भणियं केवलिणा - 'कुमार ! निसुणेसु - sa भार वासे चंपावासं नाम गामो । तत्थ एसो दामोदरो नाम माहणो असि । सो य मिच्छद्दिट्ठी जिणाणं जिणबिंबाणं जिणचेइयाण य पूया - सक्कारविग्घजणगो जहासत्तीए लोयाण पुरओ एवं पण्णवेइ, जहा - 'न कोइ सव्वन्न नज्जइ । असव्वन्नुणो तण्णाणनेयपरिण्णाणाभावे कहं सो नज्जइ । 15 तहा न कोइ वीयरागो नाउं पारीयइ, परचित्तधम्माणं अच्चंतपरोक्खत्तणओ । ता मुहा जिणवाओ । तहा पत्थरो जइ देवो, ता पव्वए किं न वंदह । सोवाणपंतिसु वि कीस आरुहह । अह पट्टिओ देवो, एयं पिन । जओ जो माणुसेण पइट्टीयइ सो केरिसो देवो भविस्सइ । ता किं बिंबाण अच्चणाइणा पओयणं । मूढो लोगो नियदव्वक्खएण पत्थराणमुक्कुरूडे करेइ । तहा सुद्दाहमाण धम्मो एरिसो सेयंबरधम्मो, तओ न मोक्खसाहगो ति । तहा सुद्दाणं दियदाणाइ नित्थारगं । जं पुण सुद्दो सुद्दस्स दाणं देइ 20 तं रुहिरकयं वत्थं रुहिरेण धोवइ । ता सव्वहा माहणाणं भूमि सुवण्णदाणाइ दायव्वं, न सुद्दाहमाणं' । इच्चाइवयणवित्थरेण मुद्धजणं पयारेइ सो दामोदरो । तओ समग्गविग्धकारी बंधित्ता अट्ठ वि असुहाओ कम्मप्पयडीओ तकम्मविवागेण मरिऊण गओ नरए । पुणो तिरिएसु; पुणो नरएसु । बहुयं कालं आहिंडिऊण, पुणो पुणो दारुणं दुक्खमणुहवंतो तासु तासु जोणीसु, संपयं पि तक्कम्मसेसयाए एवंविहो जाओ ति । एवं केवलवयणं सोच्चा संबुद्धो रोरपुरिसो । 25 एत्थंतरे भणियं कुबेरदत्तकुमारेण - 'भयवं ! किं अम्हेहि वि एवंविहविडंबणाजीवियं पत्तपुव्वं ?' । भणियं केवलिणा - ' कुमार ! केत्तियमेतं एयं ? निसामेहि, जहा तुमे असुहकम्मं बद्धं अणुभूयं च' । भणियं कुमारेण - 'पसायं करेह' । भणियं केवलिणा हे भार वासे कंपिल्ले नयरे सोमदत्तो नाम माहणो तुमं आसि । अग्गिहोत्ताइ किरियारओ अप्पाणं पंडियं मन्नतो साहूणमुवहासपरो चिट्ठसि । अन्नया गओ तुमं साहुसमीवे । दिट्ठा तत्थ महइ30 महालियाए परिसाए मज्झगया धम्मसेणसूरिणो लोयाणं धम्ममाइक्खंता । पुरओ ट्टिचा सोमदत्तो एवं वयासी - 'अहो सुद्दो सुद्दाणं धम्मं कहेइ, सुद्दाणं वयबंधं करेइ । 'शूद्रो दानेन शुद्धयति । नाय व्रतमस्ति' । यतः ब्रह्मचारी गृहस्थ वानप्रस्थो यतिस्तथा । एषक्रमो न शूद्रस्येति' । तं सोच्चा भणियं +-+ एतद्दण्डान्तर्गता पंक्तिर्नोपलभ्यते B C आदर्शद्वये । 1 C हासपयं । सूरी हिं- 'भद्दमुह ! जाणसि के रिसो सुद्दो माहणो वा 2 B कम्मस्स । Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७५ व्याख्या जिनधर्मोत्साहप्रदानविषयक-सुन्दरीदत्तकथानकम् । भवइ ?, किं वा उम्मत्तो ति पलवसि । जइ जाणसि ता भण - किं माहणो जाईए होइ, उयाहु जन्नोवईएणं, अह छक्कम्मकरणेणं । तत्थ, जइ जाईए, का एसा जाई !; बंभणभूयं मायापिईहिं जो जम्मइ एसा सा चेव' । सुबउ, तत्थ को निच्छओ? । न तुह पञ्चक्खं; संभोगकाले तुज्झ चेव अभावाओ कुओ पञ्चक्खस्स पवित्ती । तप्पुवयं कहमणुमाणं ? सामन्नओ दिळं पि अणुमाणं न पच्चक्खं पवित्तीए । अह तधयणाओ चेव नज्जइ; एयं पि न संगयं, पोरिसेयवयणस्स अप्पमाणत्तेण अब्भुवमागओ । तप्प-। माणते वा किमपोरिसेयकप्पणेण । तहा य 'अग्गिहोत्तं कुणंतो नरगं वच्चई' एयं पि पमाणं पसज्जेजा । अह मणुवयणं पिव तवयणं पमाणं । तं न, मन्वादिवचनस्यापि तत्कृतैव हि माननेति विरोधप्राप्तेरिति । एवं बंभणित्तं माउए, पिउणो वि पसिद्धस्स माहणत्तं संदिद्धं ति । अह जन्नोवईय-मुंजाबंधाइणा माहणतं; ता न निययजाईणमेव तं । अह अन्नस्स जन्नोवईयाइ न कज्जइ, किंतु माहणस्सेव; एयं पि न जुतं । जइ तं विणा वि माहणत्तं सिद्धं किं जन्नोवईएण । अह पियराण माहणत्तेण माहणत्तं सिद्धं ॥ तं न, अणंतरुत्तदोसाओ । किं च जन्नोवईयाउ माहणते अइप्पसंगो होजा । अह माहणाणं चेव जण्णोवईयं दिज्जइ, कुओ अइप्पसंगो ? । माहणो कहं सिद्धो जण्णोवईएणं । सोयं अण्णोण्णासयदोसप्पसंगो । अह छक्कम्मकारितणओ माहणत्तं । एवं पि न निययजाईण माहणत्तं । अह बंभणो चेव छक्कम्मकारगो न अन्नो; एवं च स एव अण्णोण्णासयदोसो । ता मुद्ध ! न याणसि केरिसो माहणो सुद्दो वा; उम्मत्तो इव पलवसि' ति । एवमाइवयणेहिं निरुत्तरीकओ सोमदत्तो पओसमावण्णो साहणं मग्गइ ।।। छिद्दाणि । बंधइ पावं । अण्णया पलीविया साहुवसही रयणीए तेण । उच्छलिओ कलयलो- हा! साहुणो डझंति । धाविओ लोगो विज्झावणत्थं । साहुगुणावज्जियाए देवयाए तह च्चिय थंभियं पलीवणयं । न य तत्तो विज्झाइ, न डज्झइ । चोजिओ लोगो । देवया पत्ते ठिया तं माहणं कहेइ, जहा-सोमदत्तमाहणेण साहुवसही पलीविया पाविटेण । तओ धिद्धिक्कारिओ लोएणं; गाढतरं पओसमावण्णो सो । बद्धं ३० नरयाउयं । इहलोए चेव उन्भूयाओ सत्त महावेयणाओ सिर-कण्ण-नास-दंत-नह-अच्छि-पिट्टीसूलं अईव दूसहाओ । ताहिं पीडियदेहो दीहं दुहजीवियं अणुपालिऊण आउयक्खए उववन्नो रयणाए सागरोवमाऊ नारओ । तत्थ य घोरदुक्खाइं अणुहविऊण तत्तो आउक्खए उव्वट्टो इहेव भारहे गोल्लविसए चंडालघरे कोढियचंडालस्स माइंगणस्स भारियाए गलंतकोढाए पडिक्कनासाए उदरे पुत्तत्ताए उववन्नो । कोढियबीयनिसेगेण गब्भत्थो चेव गहिओ कोढेण । जाओ पुण्णेसु दियहेसु । उचियकाले कयं से नाम 25 विसाहगो त्ति । कालेण जाओ अट्ठवारिसिओ । तओ पविट्ठा नासा, टुटीभूयाओ हत्थपायंगुलीओ, जाया अंगे वहंतपूया खयविसेसा । भिणिभिणितमच्छियानियरपरिगओ घराघरि भिक्खं परिब्भमइ । वहइ पच्छायावं-हा ! किं मए कयं पावं अण्णजम्मे । एगं हीणजाईओ, अण्णं च दारिदं, अवरं पुण एरिसं सरीरं ति । तओ निंदइ नियपुवकयं । जाओ से दयापरिणामो । वंदइ परमभत्तीए दट्टण साहूणो; भणइ य- 'धण्णा तुब्भे जेण धम्मं करेह । अहं पुण मंदभग्गो किं करेमि?' । एवं साहुपसंसाए निट्ठवियं पुन्वबद्धमसुहं कम्मं । बद्धं भोगहलियं नियचरियझूरणाओ मणुयाउयं चेति । कालमासे कालं काऊण एस तुमं अरिंजयरन्नो पुत्तो जाओ सि कुबेरदत्तो नामेणं ति' । - एयं भगवओ अम(मि)यतेयकेवलिणो वयणं सोऊण ईहापोहं कारेमाणस्स जायं जाईसरणं कुबेरदत्तस्स । जाओ पञ्चओ केवलिवयणे । तओ भणिउमाढत्तो- 'भयवं । एवमेय; दारुणा विसया अईवकडुविवागो 1 B एसा येव । 2 B C पञ्चक्खा । 3 B C वहति । Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ श्रीजिनेश्वरसूरिकृत-कथाकोशप्रकरणे [ २५ गाथा दुक्खफलो संसारो । सो वि मिच्छत्ताविरइकसायपचओ । विसयासत्ताणं सत्ताणं सुलहा कसाया । तव्वसगाणं अविरई वि सुलभा । विसयंधाणं कुओ हेओवादेयपदरिसगं सम्मण्णाणं । तं विणा कुतो अभिगमणसम्मत्तं । तं विणा संसारो केण निसिज्झइ । तम्मि य दुक्खसंतई केण वारिजइ नरगाईसु । ता निविण्णोहं जम्मण-मरणाणं । उविग्गं मे मणो संसारचारगाओ । नवरं जाव अम्मा-पियरो आपुच्छामि, 5 ताव तुम्ह पायमूले करेमि सव्वदुक्खनिट्ठवणिं पव्वज' ति । भणियं केवलिणा - 'अविग्धं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधो पत्थुयत्थे भवउ' त्ति । वंदित्ता केवलिं उट्ठिया सव्वे । समागओ सगिहे कुमारो । जणणि. जणयसमीवमागम्म भणिउमाढत्तो- 'अंब! ताय! तुब्भेहिं समं गएण भगवओ समीवे धम्मो समायण्णिओ । तं सोचा मह मणो उबिग्ग संसाराओ । विसदिद्धमोयगभोयणसच्छह मन्नामि रायसिरिं । नरगवासं पिव जाणामि गब्भवसहिं । किंपागफलोवमा विसया विवागदारुण त्ति । ता ० अणुजाणह ममं जेण पव्वयामि' । भणियं रन्ना- 'जाया एवमेयं, न जुज्जइ विवेगकलियाणं गिहवासे वसित्तए; किंतु अम्हाण जुत्तमियं । तुमं पुण अणुहवसु ताव रायसिरिं, सेवसु विसयसुहं । ततो वड्डियकुलतंतुसंताणो परिणयवओ पव्वएज्जासि' । भणियं कुमारेण- 'ताय ! किं न सुयं अजं चिय तुब्भेहिं केवलिवयणं, जहा दुवालसमासपरियाए समणे अणुत्तर देवतेओलेसं वीईवयई । ता पुत्तमोह मोहिया कह रायसिरिं नरयहेउं पसंसह । जइ न पसंसह किह ममं तत्थ निझुंजह' । भणियं रन्ना15 'पुत्त ! जणणिं पुच्छसु' । भणियं कुमारेण - 'समगं चिय पुट्ठा समगं चिय निसुयं मह वयणं, ता किं पुच्छियव्वमत्थि । अंब ! मुंचसु जेण पव्वयामि' । भणियं जणणीए – 'जाय ! न किंचि वि अणुचियं समुल्लवियं तुमए; किंतु न पव्वज्जा गहियमुक्का फलं देइ; न य अविहिपालिय त्ति । ता किं एत्थ भणिज्जउ अरत्तदुट्ठाण वयणमेयं ति । वंझा न जाउ जाणइ पुत्तय ! जं पसवणे दुक्खं ॥ ता पुत्त ! समणभावे उवसम्गपरीसहेहिं जं दुक्खं । तं रायसिरिं पत्तो न याणसी तत्थ जाणिहसी ॥ 20 मुंजसु ता विसयसुहं संसारासारयं च भावेसु । परिकम्मिजउ अप्पा वड्डियकुलतंतुसंताणो ॥ ठाविय पुत्तं रजे भोगपिवासाए वजिओ धणियं । पव्वजं निरवजं जाया विहिणा पवज्जेज्जा । भणियं कुमारेण - ‘अंब ! पुत्तसिणेहचेट्टियमिणं, जाणंती वि संसाररूवं जमेवं संजमविग्घजणगं वयणं भणसि । किं अंब ! रजं सुकरं काउरिसेहिं ! जओ पडतअणुबद्धनारायवरिसे असिसंघट्टसमुट्ठियानलसोयामणीभीसणे कण्णंतायड्डियकोदंडविणिजंतअद्धचंदविलुप्पंतछत्त-दंडपडंतछत्तवलायासंकुले 25 मत्तमयगलरवगज्जिए कुंतग्गभिन्नकरितुरयरुहिरपलोट्टवाहिणीदुग्गमे रुहिरकद्दमखुप्पंतभडबुक्कारवसिहि केक्कासमाउले अब्भलिहदोघोघडासमुल्लसंतघणसंघाए समरपाउसे पविठ्ठाणं इओ तओ पलायमाणाणं रजं पि दुहावहं एव । तहा नियकलत्तस्स वि न वीससियव्वं । निययपुत्ताण अमच्च-सामंताण परिक्खणं कायवं। करि-तुरय-वेज-पउमतार-महासवइ-दूय-संधिविग्गहिय-पाणिहरिय-महाणसिय-थइयावाहय-सेजवाल-अंगरक्खाइयाणं चड्डणा कायव्वा । पडिराईण य पहाणमंतियण-सामंतभेयणं विहेयं । 30 एयं पि किं काउरिसेहिं काउं पारीयइ । अवि य-पडिरायगोहववएसेणं कूडलेहकरणेणं सुवण्णपेसणभूमिविलंभेण य नियमंतिसामंता परिक्खियव्वा । पुत्ता वि मंतीहिं सामंतेहिं य गुत्तमंतेहिं भाणियन्वा, जहा-रायाणं गेण्हिय तुमं रज्जे ठावेमो ति । किं पडिसुणंति नव त्ति परिक्खियव्वा । तहा पडिराइगोहववएसेण करि-तुरय-वेज्जादओ 1B अणुत्तरे। 20 वोवयइ। 11 एतद्विदण्डान्तर्गताः पंक्तयः पतिताः B आदर्श । Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या ] जिनधर्मोत्साहप्रदानविषयक सुन्दरीदत्तकथानकम् । १७७ सुवण्णदाणेण तहेव परिक्खियव्वा । तहा देवीओ पव्वाइयाहिं कम्मणं करेमि मन्नंति नव त्ति परिक्खियवाओ । भोगकाले वि विमुक्काहरणाओ नियनीरेण मज्जावियाओ मुह-केससोहिं काऊण भोगकालमेतं धारिय विसजिज्जंति, न निद्दावसमुवगम्मइ ताहिं सह । तहा निचं पडिसतूण आहणाइं संकणीयाई । करि-तुरया निच्चं पचुप्पेक्खणीया । सयमेव निच्चं रायवाडीए निग्गमणेण पाइक्काणं लिहणिया कायव्वा । सुकट्ठाणेसु वणिज्जारए पेसिय लंचादाणेण सुंकभंगं काराविय कारणिया परिक्खियव्वा । इच्चेवमाइ । सम्वत्थ अविस्सासो कायबो । ता किं रज्जसिरीए सुकरं सुहं वा अस्थि त्ति । कहं काउरिसेहिं सा कीरउ । अंब ! जो रज्जसिरिं पालिउं समत्थो सो पव्वजं पि पालिडं समत्थो । पेच्छ जे वणिजादओ कंटकभंगमित्तेण वि सिक्कारं मुंचंति ते वि पव्वज्जमणवजं पालिंता दीसंति । जे पुण सयहा 'वि छिजमाणा न नासाभंगमायरंति तेसिं कहं दुक्करा पव्वजा होज्जा । ता अंब ! मुंचसु, करेमि पव्वज ति। भणियं जणणीए – 'पुत्त ! पत्तीओ पुच्छसु' । भणियं कुमारेण - 'अंब! किं ताण वसे अम्हे उयाहु 10 ताओ अम्ह वसगाओ । जइ मए सह पव्वयंति ता सोहणं । अह न गेहंति पव्वजं ता गिहिधम्म पालेंतु । देवपाया निवाहगा' । तओ भणियं रन्ना- 'पुत्त ! जहा भे रोएइ तहा करेसु परलोयहियं' ति । तओ महाविभूईए पव्वइओ कुबेरदत्तकुमारो । जाओ कालेण चोदसपुत्वी । जोगो ति ठाविओ अम(अमि)यतेयकेवलिसूरीहिं निययपए । सो हं भद्द ! सुंदरिदत्त ! विहरंतो इहमागओ । एवं वेग्गकारणं' ति । तओ भणियं सुंदरिदत्तेण - 'भयवं! एवंविहदुक्खभायणं किमहं पि कयाइ आसि । भणियं सूरिणा- 'बाढं !' भणियं सुंदरिदत्तेण- 'जइ अणुवरोहो ता सोउमिच्छामि नियचरियचरियं' । भणियं गुरुणा - 'सुणेहि इहेव भारहे वासे अस्थि समियानामगामो तत्थ विकमराओ नाम ठक्कुरो । सो य मिच्छविट्ठी। अविरओ पंचहिं आसवदारेहिं । अनियत्तमाणसो, विसेसओ चोरियाए अईव आसत्तो । अवि यमहामुणि व वंसजे समारोवियगुणो, पाणिणो फलेहिं जोएंतो, वणवासमुवगओ, परिचत्तकामभोगो, मलमलिणो, भूमिसाई, मयनिग्गहपरो, धम्ममग्गणपरो वणे वियरइ । तहा सुयणो इव स-परजणनिविसेसो, सन्नाहिओ, मग्गपडिवण्णए एंते निरूवेइ । अण्णया सो दिव्वजोएण पविट्ठो चेइयालए । दिट्ठाई तेण तत्थ भगवंतबिंबे नाणामणिरयणनिम्मियाइं आहरणाई । चिंतियमणेण - एएहिं आजम्मं कयत्थो होमि पाविएहिं । ता रत्तीए पविसिय गेण्हिस्सामि । तओ जामदुगं वोलाविय, पविठ्ठो सो दुट्ठमई तत्थ । तालयं भंजिउमाढत्तो । थंभिओ देवयाए तालयनिबद्धहत्थो । पचूसे दिट्ठो लोएण तालयभंजणवावडो। 23 तओ आरक्खिएण बंधिय 'रायकुले उवणीओ । रन्नावि समाणत्तो वज्झो । तओ समारोविओ रासहे, विलितो मसीए, दिन्नाइं पुंडयाई सुक्किलाई, निबद्धा गलए सरावमाला, सिरे रतकणवीरमाला । तओ समाहओ डिंडिमो । धारियमुवरि छित्तिरयआयवत्तं । तओ उत्तालबालबोलाणुगम्ममाणमम्गो नीणिओ नयराओ । समारोविओ सूलाए । तओ ताणुवरि रोद्दज्झाणाणुगो मरेचा गओ बीयपुढवीए तिसागरोवमाऊ नारओ । अणुभूया तत्थ दारुणा दुबिसहा वेयणा । अहाउयं पालिय उबट्टो ततो, ॥ उववन्नो पक्खीसु । तत्थ वि जलयरजीववहं काउं आउक्खए उववन्नो तच्च पुढवीए । तत्थ वि खेतपच्चयाओ परमाहम्मियजणियाओ अवरोप्परकयाओ य दारुगवेयणाओ अणुहविय सत्तसागरोवमाइं आउयं पालिय उववन्नो सागेए दरिदकुले पुतत्ताए । कालेण जाओ, कयं नामं वामणो ति । जाओ जोब. णत्थो । लोयं विलसंतं दट्ठण सो वि तह च्चिय ववहरिउमिच्छइ । ततो पविट्ठो चोरियाए । गहिओ 1C समणा। 2 C बंधेऊण । क०२३ Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ श्रीजिनेश्वरसूरिकृत-कथाकोशप्रकरणे [२५ गाथा , आरक्खियपुरिसेहिं । विडंबणासारं आरोविओ सूलाए । सूलभिन्नेण दिठ्ठा साहूणो वियारभूमीओ पच्छा गच्छंता, पए पए लोएण वंदिज्जमाणा । चिंतियमणेण - अहो सुकडाणं कम्माणं इह लोगे वि एरिसो विवागो पच्चक्खं चिय दीसइ । जं नं एए साहुणो पए पए लोएण पूइज्जंति । अहं पुण मंदभग्गो इह लोए चेव एरिसं विडंबणं पत्तो । मओ य दोग्गइं गमिस्सामि । संपयं पुण किं करेमि । एवंविहवेयणाविभलो । एतेणं चिय कयत्थो हं जं मरणकाले एते भगवंतो दिट्ट ति । तओ एवंविह सुहज्यवसायाणुगो मरिऊण उववन्नो तुमं एत्थ सत्थाहपुत्तत्ताए ति । तओ ईहापोहं करेंतस्स तयावरणिजाणं कम्माणं खओवसमेण समुप्पण्णं जाईसरणं । पञ्चक्खीभूयं सव्वं नियविलसियं । तओ वंदिय भगवंतं भणिउमाढत्तो सुंदरिदत्तो- 'भयवं ! एवमेयं, नन्नहा । मज्झ वि पच्चक्खीभूयं जाईसरणाओ। ता भीओ हं नारयदुक्खाणं । ता तहा करेह जहा न दुक्खभायणं भवामि' । भणियं सूरिणा- 'कुणसु 10 पव्वजं' । भणियं सुंदरिदत्तेण – 'जाव अम्मापियरो अणुण्णवेमि, ताव करेमि पव्वज्जापडिवत्तीए सहलं माणुसत्तणं' ति । धम्मकहावसाणे उट्ठिया परिसा । गया सट्ठाणं । सुंदरिदत्तेण वि अम्मा-पिउसमीवमागम्म विणयपुव्वं भणियं- 'सुयं अम्म ! ताय ! जं भगवया वागरियं ? मयावि अणुभूयं । ता असंपत्तजिणधम्माणं विवेगवज्जियाणं अनिरुद्धासवदाराणं सज्झाय-ज्झाणरहियाणं अज वि सुलभमेयं । ता जइ जाणह मा पुणो वि दुहपरंपरं पावउ । ता अणुजाणह करेमि पव्वजं । अह जाणह अम्ह वल्लहो, । ता किह एयं पव्वजं करेंतं अणुजाणामो । ता चिंतेह किं दुहसंघाए जोइज्जइ वल्लहो, उयाहु सुहसंघाए । जइ जाणह दुहसंघाए ता दुहनिबंधणेसु विसएसु जोएह । जेण अपरिचत्तकामा सुभूमबंभदत्तादओ जहा दुहसागरं पविट्ठा, तहा अहं पि पविस्सामि । ता सुट्ठ वल्लहो हं अम्मा-पिऊणं । अह जाणह सुहसंघाए एयं जोएमो, ता अणुजाणह पव्वजं करेमि' । भणियं पिउणा- 'पुत्त ! अम्हे वि निसुतो आगमो जिणिदाणं, सुंदरि ! उवएसेण अम्हे वि सावगा जाया। किंतु पुत! चोदसपुव्वाइं अहिजिय 20 जीवा संसारम्डंति । मरुदेवीपमुहा पुण अपाउणित्ता वि दिक्खं मोक्खं गया । तेण भवियन्वया विलसइ । सा एव एत्थ कारणं' ति । भणियं सुंदरिदत्तेण- 'ताय ! एवं सासण विलोवो पावइ । ता जं तित्थयरो तित्थं पयट्टावेइ, साहुणो दुकरं तवं कुणंति, एवं सव्वं विहलं पावइ' । भणियं पिउणा'पुत्त ! सच्चिय करेइ सव्वमेयं जं तुमे उल्लवियं, तो किह विहलत्तणं होज्जा' । भणियं सुंदरिदत्तेण - 'जइ एवं ममं पि सच्चिय करावेइ, न किं पि अजुत्तं' । भणियं जणणीए- 'पुत्त ! किं सावगधम्मो नस्थि जेण सो न कीरइ ?' । भणियं सुंदरिदत्तेण - 'अत्थि; किंतु न तत्तो सिग्धं संसारुच्छेदो, कमेणं गुणठाणेणं संपत्तीए । भणियं माऊए - 'पुत्त ! भगवया गब्भत्थेणं अभिग्गहो गहिओ- नाहं समणो होहं अम्मा-पियरंमि जीवंते । पुत्त ! भगवओ चरियमणुसरियव्वं पव्वजाए । ता अम्मा-पिइपीडापरिवजेणणं पव्वज्जा कीरउ' । भणियं सुंदरिदत्तेणं- 'पीडा पियराण मए दूरेच्चिय विवजिया । जओ अक्खाया जम्मंतरपउत्ती गुरूहिं तुम्ह पच्चक्खं । ता जइ दुग्गईए छूढेण पओयणं मए तुम्ह, ता ७ सज्झमिणं करेमि जं भणह । जइ पुण सुहभायणविहाणओ ताय ! तुम्हं संतोसो ता तहा करेह जहा पुणरवि तं दुक्खं न लहामि' । भणियं सत्थाहेण- 'पुत्त! जं भे रुच्चइ तं करेसु; न वयं पडिबंधगा' । भणियं जणणीए - 'पुत्त ! सोहणं होतं* जइ जाव अम्हे जीवामो ताव विमालेतो । पच्छावि तुज्झ वारिया न केणइ पव्वज्जा' । भणियं सुंदरिदत्तेण - 'अंब ! अस्थि भे निच्छओ तत्तियं कालं मए जीवियव्वं ?; न नजइ कया आउयं समप्पइ । ता अणुजाणह, मा कुणह विग्धं । भणियमणाए 1 नास्ति C 'तित्थयरो'। 2 A कारवेइ । 3 C संपत्ताण । 4 C हुतं । 5C विमालितो। 6 C न कोणइ वारिया। Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनधर्मोत्साहप्रदानविषयक-सुन्दरीदत्तकथानकम् । 'पुत्त ! बद्धकोडुबिएहिं न गामो वासिउं तीरइ । जहारुयं करेसु' । तओ काऊण महिमं जिणालएसु, पूइय साहूणो एसणिज्जआहार-वत्थ-पत्ताइएहिं, सम्माणिय सावगवग्गं भत्त-वत्थाभरणाइएहिं, निक्खिविय साहारणे दव्वं, दाऊण दीणाणाहाइयाण दाणं, महाविभूईए पव्वइओ सुंदरिदत्तो । अहिजिउमाढतो । जाओ कालेण समम्गसुयनाणी । ठाविओ निययपए गुरूहिं । कुबेरदत्तसूरी वि काऊण अणसणं गओ देवलोगं ति । सुंदरिदत्तमूरिणो वि अप्पडिकम्मसरीरा सव्वहा भाडयगहियपओहणं पिव सरीरं। मण्णमाणा न अच्छिमलमवि अवणेति । तहावि अधरियसुरकुमाररूवा जायामायाहारा न दंसमसगेसु सरीरं तुदंतेसु उत्तसंति, न ताई वारेंति, न मणं पउस्संति । अखंडसुत्तत्थपोरिसीरया संविग्गा सेसाण वि ईसिसंवेगजुयाणं गाढतरं संवेगं जणयंता निम्विन्ना संसारवासाओ । वीरासणाइ सेवणेण अन्नाण वि ईसिनिबिन्नाणं गाढतरनिन्वेयं जणयंता, तहाविहदेसणाओ य तहाविहभव्वसत्ताणं संवेयं निव्वेयं जणयंता । एवं उग्गविहारेण विहरिता, भव्वसत्ते धम्मे उच्छाहिय पडिबोहिता, दाऊण पध्वजं जोग-" सीसस्स नियपयं च नाऊण नियआउयपज्जंतं मासियाए सलेहणाए अप्पाणं झोसेत्ता अंतगडा केवली जाया । समगं चिय असेसकम्मक्खयं काऊण निव्वाणं गय ति । एवमन्नेहिं वि भवसत्तेहिं कायव्वं ति उवएसो। ॥ सुंदरीदत्तकथानकं समाप्तम् ॥ ३६ ।। साम्प्रतमुक्तकथानकगतवक्तव्यशेषमाह - जिणसमयपसिद्धाइं पायं चरियाई हंदि एयाइं। भवियाणणुग्गहट्ठा काइँ वि परिकप्पियाई पि ॥ २६ ॥ व्याख्या - 'जिनसमयप्रसिद्धानि' - अर्हच्छासनप्रकटानि, 'प्रायो' - बाहुल्येन, 'चरितानि - पूर्वोदितपात्राणामिति शेषः । 'भव्यानामनुग्रहार्थ कानिचित् परिकल्पितान्यपि' । कमं भव्यानुग्रह एतेभ्य इत्याह - सकिरियाए पवित्तीनिबंधणं चरियवण्णणमिणं तु । अकिरियाए निवित्ती फलं तु जं भव्वसत्ताणं ॥ २७ ॥ व्याख्या - 'सक्रियायां प्रवृत्तिनिबन्धनं' संसारोच्छेदकमोक्षसाधनानुष्ठाने निमित्रं, एवंविध'चरितवर्णनं' श्रवणमपीति शेषः । तथा मोक्षबाधिका संसारसाधिका क्रिया 'अक्रिया' सर्वज्ञप्रतिषिखाचरणतो मोक्षाभावस्य न्यायप्राप्तत्वात् । 'तभिवृत्तिः फलं भव्यसत्त्वानां' एतानि चरितानि । कथं कल्पितचरितेभ्योऽपि मोक्षप्राप्तिः, अन्यथा सर्वज्ञप्रणीतागमवैयर्थ्यप्रसंग इत्याह - समयाविरुद्धवयणं संवेगकरं न दुट्ठमियरं पि । तप्फलपसाहगत्ता तं पि हु समयप्पसिद्धं तु ॥ २८ ॥ ब्याख्या - 'समयः - सिद्धान्तस्तेन तस्य वा 'अविरुद्धं तत्प्रसिद्धार्थप्रतिपादकत्वेन, तच्च 'तद्वचनं च । किं भूतं 'संवेगो' - मोक्षाभिलाषस्तत्करणशीलम् । उपलक्षणं चैतन्निर्वेदादीनां, 'न दुष्टं 30 नानुचितं, किं तदित्याह - 'इतरदपि कल्पितपात्रविषयं मदीयमपीति । कथमेतदित्याह - 'तत्फलप्रसाधकत्वात् । तस सममाभिहितस्य वचस इति गम्यते, तत्फलं संसारस्य तन्निबन्धनमिथ्यात्वादीनां Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 10 15 १८० श्रीजिनेश्वरसूरिकृत-कथाकोशप्रकरणे [ २८-३० गाथा चासारता प्रतिपत्तिलक्षणं, मोक्षस्य तत्कारणानां च सम्यक्त्वादीनां सारताप्रतिपादकम् । अत एव संसारं प्रति निर्वेदो मोक्षं प्रत्यभिलाष इत्येवंभूतफलप्रसाधकत्वात् हेतोः, 'तदपि ' मदीयवचनं कल्पितचरितोपनिबद्धं, 'हु' अवधारणे । 'समयप्रसिद्धमेव ' जिनोक्त सिद्धान्तमेवेति । उपसंहरन्नाह - सम्मत्ताइगुणाणं लाभो जइ होज्ज कित्तियाणं पि । ता होज्ज णे पयासो सकयत्थो जयउ सुयदेवी ॥ २९ ॥ व्याख्या - 'सम्यक्त्वादिगुणानां लाभो यदि भवति कियतामपि भव्यानामिति गम्यते । 'ततो भवेदस्माकं प्रयासः' क था कोश विरचनागोचरः, 'सन्' शोभनः 'कृतो' निष्पादितः 'अर्थो' येन स तथा । अन्तमङ्गलमाह - 'जयतु श्रुतदेवी' जयत्विति स्तुतिवाचकं वचः, श्रुतदेवी सरखतीति ॥ २९ ॥ साम्प्रतं कथाकार आत्मानं निर्दिदिक्षुराह - सिरिवद्धमाणमुणिवइसीसेणं विरइओ समासेणं । एस कहाणयकोसो जिणेसरायरियनामेण ॥ ३० ॥ व्याख्या – 'श्रीवर्धमानमुनिपतिशिष्येण' श्रीवर्धमानाचार्य पादान्तेवासिना, 'विरचितः कृतः, 'समासेन' संक्षेपेण, 'एष' प्रक्रान्तः 'कथानककोशः । षट्त्रिंशन्मूलकथानकानां कोशो निधिः । जिनेश्वराचार्यनाम्ना कविनेति ॥ ३० ॥ ॐ* ॥ श्रीजिनेश्वरसूरिविरचितकथानककोशविवरणं समाप्तम् ॥ ॥ ग्रंथाग्रं ५००० ॥ Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ---॥ ग्रन्थलेखकप्रशस्तिः ॥ विक्कमनिवकालाओ वसु-नहं-रुद्दे-प्पमाणवरिसंमि । मग्गसिरकसिणपंचमिरविणो दिवसे परिसमत्तं ॥ पणयसुरमउलिमणिकरकरंबिया जस्स पयनहमऊहा । अमरसरासणणियरं दिसि दिसि कुव्वंति नहमग्गे ॥ संकेति तिहुयणव्वहणउयसमसीसियं(?) समुव्वहइ । जस्स पयंगुलिनिम्मलणहणियरो केवलिसिरीए ॥ भुवणभवणेक्कदीवस्स सयलभुयणेक्कबंधुणो तस्स । वीरस्स विणेयपरंपरागओ आसि सुपसिद्धो॥ उज्जोइयभुयणयले चंदकुले तह य कोडियगणम्मि । वइरमहामुणिणिग्गयसाहाए जणियजयसोहो ॥ सिरिउज्जोयणसूरी तस्स महा पुण्णभायणं सीसो। सिरिवडमाणसूरी तस्सीसजिणेसरायरिओ ॥ तस्स पयपंकउच्छंगसंगसंवट्टियंगसीसेहिं । एस कहाणयकोसो लिहिओ जिणभहसूरीहिं ॥ पढमं तओ कमेणं अन्नेसु वि पोत्थएसु संचरिओ। आचंदकं सुम्मउ संसारुत्तत्थभविएहिं ॥ केवलं A सज्ञक आदर्श एव लिखिता लभ्यत इयं प्रशस्तिः । Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनेश्वरसूरिविरचितस्य कथानककोशप्रकरणस्य मूलसूत्रपाठः। नमिऊण तित्थनाहं तेलोकपियामहं महावीरं । वोच्छामि मोक्खकारणभूयाइं कइ वि नायाइं ॥१॥ जिणपूयाए तहाविहभावविउत्ताए' पावए जीवो। सुरनरसिवसोक्खाइं सूयगमिहुणं इहं नायं ॥२॥ पूयंति जे जिणिदं विसुद्धभावेण सारदव्वेहि । परसुरसिवसोक्खाइं लहंति ते नागदत्तो व्व ॥३॥ पूयापणिहाणेण वि जीवो सुरसंपयं समजिणइ । जिणदत्त-सूरसेणा-सिरिमाली-रोरनारि व्व ॥४॥ जे वंदंति जिणिदं वंदणविहिणा उ सम्ममुवउत्ता । सुरसंघवंदणिज्जा हवंति ते विण्हुदत्तो व्व ॥ ५॥ गायंति जे जिणाणं गुणणियरं भावसुद्धिसंजणगं । ते गिजंति सुरेहिं सीहकुमारो व्व सुरलोए ॥६॥ वेयावच्चं धन्ना करिंति साहूण जे उ उवउत्ता। भरहो व नरामरसिवसुहाण ते भायणं होंति ॥ ७ ॥ जे दव्वभावगाहगसुद्धं दाणं तु देंति साहणं । ते पार्वति नरामरसोक्खाइं सालिभद्दो व्व ॥ ८॥ दाणंतरायदोसा भोगेसु वि अंतराइयं जाण । पायसविभागदाणा निदंसणं एत्थ कयउण्णो ॥९॥ धन्नाणं दाणाउ चरणं चरणाउ तब्भवे मोक्खो। भावविसुद्धीए दढं निदंसणं चंदणा एत्थ ॥ १० ॥ 1 'भावेण विणावि' इति पाठमेदः। Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथानककोशप्रकरणस्य मूलसूत्रपाठः। जं दव्वभावगाहगसुद्धं इह मोक्खसाहगं दाणं । इहलोगणिदाणाओ तं हणइ मूलदेवो व्व ॥ ११ ॥ भावं विणा वि दिंतो जईण इहलोइयं फलं लहइ । वेसालि-पुण्णसेट्टी-सुंदरि-साएयनयरंमि ॥ १२ ॥ दाणं विणा वि दिंतो भावेण देवलोगमजिणइ । वेसालि-जुण्णसेट्टी चंपाए मणोरहो नायं ॥ १३ ॥ अणुमन्नंति जईणं दिजंतं जे य अन्नलोगेणं । सुरलोगभायणं ते वि होंति हरिणो व्व कयपुण्णा ॥ १४ ॥ दाऊणं पि जईणं दाणं परिवडइ मंदबुद्धीओ। घय-वसहि-वत्थदाया नायाई एत्थ वत्थुमि ॥ १५ ॥ अणुगिण्हति कुचित्तो भावं नाऊण साहुणो विहिणा। जह सीहकेसराणं दाया रयणीए वरसड्ढो ॥ १६ ॥ जिणसासणावराहं गृहेउं सासणुण्णई कुज्जा। णायाइं इह सुभद्दा मणोरमा सेणिओ दत्तो ॥ १७ ॥ केइ पुण मंदभग्गा णियमइउप्पेक्खिए बहू दोसे। उब्भावेंति जईणं जय-देवड-दुद्द-दिटुंता ॥ १८॥ दोसे समणगणाणं अण्णेणुब्भाविए वि णिसुणेति । ते वि हु दुग्गइगमणा कोसिय कमला इहं णायं ॥ १९ ॥ साहूणं अवमाणं कीरंतं पाविएहिं ण सहति । आराहगा उ ते सासणस्स धणदेवसेट्टि व ॥ २०॥ अहिट्ठसमयसारा जिणवयणं अण्णहा वियारित्ता । धवलो व्व कुगइभायणमसइं जाइंति इह जीवा ॥ २१ ॥ उच्छाहिंति कयत्था गिहिणो वि हु जिणवरिंदभणियंमि । धम्ममि साहु-सावगजणं तु पज्जुण्णराया व ॥ २२ ॥ इसीसिमभिमुहं पि हु केई पाडेंति दीहसंसारे । मुणिचंदो व्व अपरिणयजणदेसणअविहिकरणा उ ॥ २३ ॥ 1 'जे ते वि कुगइगामी' इति पाठभेदः। 2 'साहूण जे वमाणं' इति पाठान्तरम् । Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथानककोशप्रकरणस्य मूलसूत्रपाठः। जयसेणसूरिणो इव अण्णे पावेंति उण्णइं परमं । जिणसासणमविगप्पं दुवियड्डजणाण वि कहेत्ता ॥ २४ ॥ ईसीसिमुजमंतं दढयरमुच्छाहिऊण जिणधम्मे । साहेति निययमटुं सुंदरिदत्तो व्व जइवसहो ॥ २५॥ जिणसमयपसिद्धाइं पायं चरियाई हंदि एयाई । भवियाणगुग्गहट्ठा काइं पि परिकप्पियाई पि ॥ २६ ॥ सकिरियाए पवित्तीनिबंधणं चरियवण्णणमिणं तु । अकिरियाए निवित्ती फलं तु जं भव्वसत्ताणं ॥ २७ ॥ समयाविरुद्धवयणं संवेगकरं न दुट्टमियरं पि। तप्फलपसाहगत्ता तं पि हु समयप्पसिद्धं तु ॥ २८ ॥ सम्मत्ताइगुणाणं लाभो जइ हुज्ज कित्तियाणं पि । ता हुज्ज णे पयासो सकयत्थो जयउ सुयदेवी ॥ २९ ॥ सिरिवद्धमाणमुणिवइसीसेणं विरइओ समासेणं । एस कहाणयकोसो जिणेसरायरियनामेण ॥ ३०॥ ॥ श्रीजिनेश्वरसूरिविरचित्तं कथानककोशप्रकरणं समाप्तमिति भद्रम् ॥ ॥शुभं भवतु श्रीश्रमणसंघस्य । Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Prvale & Personal use only