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________________ कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि । तब 'तथेति' कह कर उस यदुराजाने वह सब संपादित किया । वैसा करने पर फिर वे सब हाथी अपने अपने स्थान पर जा कर खडे हो गये और उपद्रव शान्त हो गया । लेकिन साधुओंका द्वेषकरनेवाले कर्मके फलसे, वह राजा अनन्तकाल तक अनेक दुःखोंकी परंपराको अनुभवता हुआ संसारमें परिभ्रमण करता रहेगा।' इस प्रकार बौद्ध पक्षपाती और जैनद्वेषी जयदेवकी कथा समाप्त होती है । ब्राह्मणधर्मीय सांप्रदायिकोंके साथ जैनसाधुओंका संघर्ष जिस तरह उपर्युक्त कथानकमें बौद्ध सांप्रदायिकोंके साथ जैन साधुओंके संघर्षका चित्र आलेखित किया गया है, इसी तरह ब्राह्मण धर्मीय त्रिदंडी, संन्यासी, शैव आदि मतोंके अनुयायी जनोंके साथ, श्वेतांबर साधुओंका किस प्रकारका संघर्षण आदि चलता रहता था, इसके चित्रणके भी कुछ कथानक जिनेश्वर सूरिने दिये हैं । उदाहरणके रूपमें, इनमेंके एक त्रिदंडीभक्त कमल वणिकके कथानकका (क्रमांक ३०) सार देते हैं । त्रिदंडीभक्त कमल वणिकका कथानक कौशांबी नगरीमें एक कमल नामक वणिक रहता था । वह त्रिदंडी (संन्यासी) संप्रदायका भक्त था । अपने मतके सिद्धान्तोंको ठीक जान कर वह जैन साधुओंका आदर नहीं करता था । एक दिन बहुतसे लोगोंकी सभामें बैठा हुआ उसका गुरु त्रिदंडी (संन्यासी) जैन साधुओंका कुछ अवर्णवाद करने लगा कि- 'ये श्वेतपट ( श्वेतांबर साधु ) तो ऐसे हैं वैसे हैं' इत्यादि । सुन कर कमल उसको अच्छा मानता था और उसका कुछ विरोध नहीं करता था । इतनेमें एक जिनदत्त सेठका पुत्र अर्हदत्त उस तरफसे निकला और उसने वह कथन सुना । अपने साधुओंकी निंदाको न सहन करता हुआ वह वहां पर जा कर बैठ गया। कहने लगा – 'कमल ! तुम इस तरह साधुओंकी निन्दा करवा रहे हो सो क्या तुम्हारे जैसोंके लिये यह ठीक कहा जाय ? ये त्रिदंडी तो सदा मत्सरदग्ध होते हैं - साधुओं के तपस्तेजको सहन न करते हुए अंडसंड बकते रहते हैं। परंतु तुम तो मध्यस्थ हो, तो क्या इनको ऐसा बकनेसे रोक नहीं सकते ? यों ही यहां बीचमें बैठे रहते हो? क्या तुमको भी इनका कथन अच्छा लगता है ? सुन कर कमलने कहा- 'भाई, वस्तुखभावके सुननेमें क्या दोष है ? ईख मीठा है, निंब कडुआ है - इस प्रकारका कथन सुननेमें क्या कुछ विरोध भाव होता है जिससे रोष किया जाय ! क्या 'निंब मधुर नहीं होता' ऐसा नहीं कहना चाहिये ? किसीको दोषके लिये कुछ उपालंभ नहीं देना चाहिये क्या? श्रेष्ठिपुत्र, तुम अपने साधुओंको कुछ सिखामण दो।' सुन कर अर्हद्दत्तने कहा- 'हमारे साधु ऐसा कौनसा बुरा आचरण करते हैं ? कमलने कहा- 'वे तो लोकाचारसे रहित होते हैं । लोकाचारकी बाधासे धर्मकी सिद्धि नहीं होती । इसीलिये कहा है कि - तस्माल्लौकिकाचारान् मनसाऽपि न लंघयेत् । अर्थात् लौकिक आचारोंका मनसे भी उल्लंघन नहीं करना चाहिये ।। अर्हद्दत्त - 'यह लोक कौन है ? क्या पाषंडी जन लोक हैं या गृहस्थ जन लोक हैं ! यदि पाषंडी जन लोक हैं, तो वे तो परस्पर समी एक दूसरेके आचारको दूषित कहते रहते हैं। यदि गृहस्थ जन लोक हों, तो वे तो इस प्रकार ६ तरहके कहे जाते हैं - १ उत्तमोत्तम, जैसे चक्रवर्ती, दशार आदि । २ उत्तम, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016066
Book TitleKathakosha Prakarana
Original Sutra AuthorJineshwarsuri
Author
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1949
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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