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जिनेश्वर सूरिकी पूर्वावस्थाका परिचय । अडचनें उत्पन्न होनेकी परिस्थिति पैदा हो गई । दूसरे दिन, जब ये ब्राह्मण भाई फिर उसके मकान पर गये, तो सेठकी वह हालत देख कर इनको बडा क्लेश हुआ । सेठकी विषादपूर्ण मुखाकृति देख कर ये उसको कुछ सान्त्वना देनेके लिये उपदेशात्मक दो शब्द बोले, तो सेठने कहा- मुझे इस धन, अन्न, वस्त्रादिके नाशका वैसा कोई खेद नहीं है जैसा लेन देनके हिसाबके नाशका दुःख है। क्यों कि इसके कारण मेरा कई अन्यान्य व्यवहारियोंके साथ कलह होगा और मेरी धार्मिकताको धक्का पहुंचेगा । तब इन भाइयोंने कहा, कि उस दिवाल पर जो कुछ लिखा हुआ था वह साराका सारा हमें अक्षरशः याद है; यदि तुम चाहो तो उसे लिखवा सकते हो । यह सुन कर सेठको बडी खुशी हुई और उसने इनको अच्छे उच्चासन पर बिठा कर इनके मुंहसे वह लेखा लिखाने लगा। इन्होंने वह सब हिसाब, संवत् , महिना, तिथि, वार पूर्वक, एवं वस्तुओंके नाम, परिमाण, मूल्य और लेने-देने वालेके उल्लेखके साथ, ज्यों का त्यों लिखवा दिया । एक विश्वाका भी उसमें फरक नहीं पडा । यह देख कर सेठ बहुत ही प्रसन्न हुआ और उसने मनमें माना, कि अहो ये तो कोई मेरे साक्षात् गोत्रदेवताके जैसे मुझपर अनुकंपा करनेके लिये ही यहां आ गये हैं । उसने इनका फिर बहुत ही सत्कार किया और अपने ही घर पर, अपने घरकी सब व्यवस्था करने वालेके तौर पर इनको रख लिया ।
ये दोनों भाई जितेन्द्रिय और शान्त खभावके थे। इससे फिर उस सेठके मनमें आया कि ये तो बड़े साधु पुरुष होनेके लायक हैं; अतः यदि इनकी भेट, अपने धर्मगुरु वर्द्धमानाचार्यसे हो जाय तो बहुत उत्तम हो । ऐसा विचार कर सेठ, एक दिन इन भाइयोंको वर्द्धमानाचार्यके पास ले गया जो उस समय वहां आए हुए थे। श्रीपति और श्रीधर आचार्यकी ब्रह्मतेजःपूर्ण तपोमूर्ति देख कर बडे प्रसन्न हुए और श्रद्धापूर्वक इन्होंने उनके चरणोंमें नमस्कार किया । आचार्य भी इन बन्धुओंकी भव्य आकृति और उत्तम प्रकारके लक्षणोंसे अंकित देह-रचना देख कर बहुत मुदित हुए । कुछ दिन निरंतर आचार्यके पास आनेजानेसे और शास्त्र-विचार होते रहनेसे इनके मनमें उनके दीक्षित शिष्य हो जानेकी अभिलाषा उत्पन्न हुई और फिर अन्तमें, सेठकी अनुमति और सहानुभूतिपूर्वक, इन्होंने वर्द्धमानाचार्यके पास जैन यतित्वकी दीक्षा अंगीकार कर ली।
ये, यों पहले ही बड़े विद्वान् तो थे ही, जैन दीक्षा लेनेके बाद थोडे ही समयमें जैन शास्त्रों के भी पारगामी बन गये और कुछ कालके बाद, आचार्यने सब तरहसे योग्य समझ कर, इनको आचार्य पदसे भूषित कर दिया । श्रीधरका नाम जिनेश्वर सूरि रखा गया और श्रीपतिका नाम बुद्धिसागर सूरि । ___ आचार्यने इनको फिर देश-देशान्तरोंमें परिभ्रमण कर, अपने शुद्ध उपदेश द्वारा, जैन धर्मका प्रसार करनेकी आज्ञा दी । गुरुने कहा- गुजरातकी अणहिलपुर राजधानीमें चैत्यवासि यतिजनोंका बडा जोर हो रहा है और वे लोग वहां पर सुविहित यतिजनोंको न आने देते हैं न ठहरने देते हैं । तुम अच्छे प्रतिभावान् और प्रभावशाली संयमी हो, अतः वहां जा कर अपने चारित्र्य और पाण्डित्यके बलसे, चैत्यवासियोंके मिथ्या अहंकार और शिथिलाचारका उत्थापन करो । गुरु की आज्ञासे ये दोनों भाई, अपने कुछ अन्य संयमी साथियोंके साथ, परिभ्रमण करते करते अणहिलपुर पाटनमें पहुंचे।
शहरमें प्रवेश करके इन्होंने कई स्थानों पर अपने ठहरनेके मकानकी गवेषणा की परंतु किसीने कहीं कोई जगह नहीं दी । तब इनको गुरु महाराजके कथनकी पूरी प्रतीति हुई । उस समय वहां पर चालुक्य तुपति दुर्लभराज राज्य कर रहा था। उसका उपाध्याय एवं राजपुरोहित गुरु सोमेश्वर देव था जो
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