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कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरी। परंतु उसकी पूजाविधिके आडंबरको अनाचरणीय कहता था । कोई तीसरा पक्ष, पूजाविधिके आडंबरको तो उचित मानता था, परंतु उसमें साधुओंका सीधा संपर्क होना अनुचित समझता था । कोई चौथा पक्ष, मन्दिरोंकी स्थापना और संरक्षाके बारेमें साधुओंका मात्र उपदेशात्मक अधिकार बताता था; तो कोई पांचवां पक्ष, उन मन्दिरोंकी सर्वाधिकारिताका साधुओं ही पर निर्भर होना स्थापित करता था। कोई अन्य पक्ष,एक मन्दिरमें एक ही जिनमूर्तिकी स्थापना करना शास्त्रोक्त कहता था; तो कोई उसके विरुद्ध, अनेकों मूर्तियोंकी पंगतको अधिक आत्मलाभकी वस्तु मानता था। कोई कहता था, तीर्थंकरमूर्ति वीतरागभावकी प्रतीक है, इसलिये उसको स्त्रीजातिका स्पर्श न होना चाहिये और इसलिये श्राविकावर्ग (जैन स्त्रीमंडल )को उसकी पूजा-अर्चा न करनी चाहिये; तो कोई अन्य पक्ष कहता था, न केवल श्राविकाओंको ही जिनभक्ति करनी चाहिये किंतु जिनमूर्तिके सामने वारांगनाओंका नृत्य-गान भी पूजाका अंग होनेसे उसे अबारितरूपसे होने देना चाहिये । कोई कहता था, मन्दिरोंकी रक्षाके निमित्त साधुओंको सदैव उनमें निवास करना कर्तव्य है; तो कोई कहता था, मन्दिरकी भूमि तो देवद्रव्यकी वस्तु है अतः उसमें बैठ कर धर्मोपदेशका करना-सुनना भी भक्तजनोंके लिये देवद्रव्यका उपभोग करने समान पापजनक कृत्य है । कोई कहता था, सूर्यास्तके बाद मन्दिरोंको उद्घाट-द्वार रखना भी निशाचरके जैसा निषिद्ध कृत्य है; तो कोई कहता था सारी रात मन्दिरोंमें गान, वादन, नृत्य, रास आदिका करना कराना परम भक्तिभावका द्योतक है । कोई कहता था, मन्दिरोंकी और मूर्तियोंकी प्रतिष्ठा परम ब्रह्मचारी ऐसे साधुवर्गके हाथसे होनी चाहियेतो कोई कहता था, जो साधु मन्दिरप्रतिष्ठादिके सावधकर्ममें प्रवृत्त होता है वह अनन्तकालतक संसारमें परिभ्रमण करनेके पापका भागी होता है – इत्यादि ।
इस प्रकार इस जैनमन्दिरकी संस्थाके विषयमें अनेक तरह के तर्क-वितर्कपूर्ण मत-मतान्तर जैन संघमें उस समय प्रचलित थे और जैन संघकी प्रायः सारी कार्यशक्ति और प्रवृत्ति इसी संस्थाके पक्षविपक्षमें परिसमाप्त होती थी।
जिनेश्वर सूरि भी इन्हीं नाना पक्षोंमेंसे एक पक्षके प्रस्थापक और प्रचारक थे, यह इनके चरितमें दिये गये पूर्वोक्त वर्णनसे स्पष्ट है । इन्होंने इस विषयके अपने पक्षके विचारोंका थोडा-बहुत सूचन, प्रस्तुत कथाकोश प्रकरणमें एक कथाद्वारा भी प्रकट किया है जो इस विषय पर अच्छा प्रकाश डालता है । पाठकोंके परिचयार्थ इस कथानकका प्रायः अविकल भाषान्तर नीचे दिया जाता है । ___यह कथानक, इस ग्रन्थमें ३२ वां है, जो पृष्ठ १२५ पर धवल क था न क के नामसे मुद्रित है । इस कथानककी उद्देशात्मक जो मूलगाथा (क्रमांक २१) जिनेश्वर सूरिने बनाई है उसका भावार्थ यह है -
"जो मनुष्य जैनशास्त्रका यथार्थभाव न जान कर जिनवचनकी अन्यथा विचारणा करता है वह धवल नामक वणिक्पुत्रकी तरह अनेक वार कुगतिमें परिभ्रमण करता रहता है ।
जिनमन्दिरके विधान विषयमें धवल वणिक्पुत्रकी कथा। अच्छा तो यह धवल कौन था और किस तरह उसने जैनशास्त्रके विचारोंकी अन्यथा विचारणा की और उसके कारण किस तरह वह कुगतिका भाजन हुआ, उसको पढिये ।
इस कथाकी प्रारंभिक उपक था जिनेश्वर सूरिने जो दी है उसका प्रस्तुत विषयके साथ कोई विशेष संबंध नहीं है, जिससे उसका उतना अंश छोड कर मूल कथाहीका अवतरण यहां दिया जाता है ।
इस उपकथाका उपक्रम ऐसा होता है - इस भारतवर्षके जयपुर नामक नगरमें एक विक्रमसार नामका राजा था जो जैनधर्मका पालन करता था। उस नगरमें एक समय, समंतभद्राचार्य नामके एक
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