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प्रास्ताविक वक्तव्य
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उसको लिखते समय, फिर साथमें यह भी थोडासा विचार हो आया, कि जब जिनेश्वर सूरिके चरितके विषय में इतना विस्तारसे लिखा गया है तो फिर उनके रचे हुए उपलब्ध सभी ग्रन्थोंका मी थोडा थोडा परिचय दे दिया जाय तो उससे जिज्ञासु वाचक वर्गको, उनके शब्दात्मक ज्ञानदेह स्वरूपका भी कुछ परिचय हो जायगा । इस विचारसे फिर 'जिनेश्वरसूरिकी ग्रन्थरचना ' इस ७ वें प्रकरणका लिखना आरम्भ किया । इसके २-४ पृष्ठ ही लिखे गये थे कि उतने में मुझे कार्यवश बम्बई आना पड़ा । और फिर अन्यान्य संपादनों आदि के कार्य में, इसका लिखना वहीं अटक गया । उधर प्रेस में जो लिखान भेजा गया था वह भी प्रेसकी शिथिलता के कारण महिनों तक वैसे ही पड़ा रहा और उसका छपना प्रारम्भ ही नहीं हुआ । बाद में उदयपुर में होने वाले 'अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन' के स्वागताध्यक्ष के पदका कार्य कुछ सिर पर आ कर पड जानेसे तथा फिर उसी उदयपुर ही में महाराणा द्वारा प्रस्तुत की गई 'प्रताप विश्वविद्यालय' की स्थापनाकी योजना में कुछ भाग लेनेकी परिस्थिति उत्पन्न हो जानेसे, एवं फिर कलकत्ता आदि स्थानों में कुछ समय रहनेका निमित्त आ जानेसे, इस प्रकरणका लेखनकार्य आगे बढ ही नहीं सका और जो विचार पूनाके उस प्रशान्त स्थान और मनोरम वातावरणके बीच में रहते हुए, मनमें उपस्थित हो कर आँखों के सामने संगठित हुए थे, वे सब विखरसे गये । कोई वर्ष डेढ वर्ष बाद जा कर प्रेसने पूनासे भेजे हुए प्रकरणों का काम छापना शुरू किया, ६-७ महीनोंमें जा कर कहीं ५ - ६ फार्म छप कर तैयार हुए । तब फिर पिछले वर्ष के ( सं. १९०४ के ) फाल्गुण मासमें एकाग्र हो कर अवशिष्ट प्रकरणका लिखान पूर्ण किया और प्रेस में दिया - जिसकी छपाई की समाप्ति अब इस वर्तमान सं. १९०५ के फाल्गुण मासमें हो कर, यह ग्रन्थ इस रूप में वाचकवर्गके करकमलमें उपस्थित हो रहा है ।
जैसा कि मैंने ऊपर सूचित किया है, इस निबन्धमें मैंने कोई विशेष नूतन तथ्य नहीं आलेखित किये हैं; उसी पुराने छोटेसे लेखमें जो विचार मैंने संक्षेप में अंकित किये थे उन्हीं का एक विशद भाष्यसा यह निबन्ध है । इस निबन्ध में जो कुछ भी ऐतिहासिक पर्यवेक्षण मैंने किया है वह प्रायः साधार है । इसकी प्रत्येक पंक्तिके लिये पुरातन ग्रन्थोंके प्रमाणभूत उद्धरण दिये जा सकते हैं । प्रस्तावनाका कलेवर न बढ जाय और सामान्य पाठकों को प्रस्तुत विवेचन कुछ जटिलसा न लगे इस कारण मैंने उन उद्धरणोंका अवतारण करना यहां उपयुक्त नहीं समझा । जो कुछ विचार मैंने यहां पर प्रदर्शित किये हैं वे सूत्रात्मक रूपमें संक्षेप में हैं । इस इतिहासको विशेष रूपसे लिखनेके लिये तो और कोई प्रसङ्ग अपेक्षित है । जैन इतिहासका यह काल बहुत ही अर्थसूचक, स्फूर्तिदायक और महत्त्वदर्शक है इसमें कोई सन्देह नहीं ।
सिंघी जैनग्रन्थमालाके कथासाहित्यात्मक विविध मणि
जैन कथासाहित्यकी जिस विशाल समृद्धिका संक्षिप्त निर्देश, मैंने आगे के निबन्ध में (पृ. ६७-७० पर ) 'जैन कथासाहित्यका कुछ परिचय' इस शीर्षक नीचे किया है, उस समृद्धिके परिचायक कुछ विशिष्ट एवं प्राचीन ग्रन्थोंको प्रकाशमें लानेकी दृष्टिसे जिन प्रकीर्ण कथासंग्रहात्मक बहुमूल्य मणियों का इस ग्रन्थमाला में गुम्फन करना मैंने अभीष्ट समझा है, उन्हींमेंसे यह एक विशिष्ट मणि है - यह इसके पढनेसे पाठकोंको स्वयं ही प्रतीत हो जायगा ।
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