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जिनेश्वरीय ग्रन्थोंका विशेष विवेचन ।
४५ प्रमाणभूत बतलाने के लिये ग्रन्थान्तरों और शास्त्रान्तरोंसे तत्तविषयक प्रमाणों और अवतरणोंके उद्धरण दे दे कर जिनेश्वर सूरिने इसमें अपने विशाल अध्ययन और विशिष्ट पाण्डित्यका उत्तम परिचय प्रदर्शित किया है। ___ जैसा कि हमने ऊपर सूचित किया है, इस ग्रन्थमें हरिभद्रसूरिने ब्राह्मण, बौद्ध और आहेत अर्थात् जैन इन तीनों संप्रदायोंमें कतिपय विशेष विचारणीय तात्त्विक और आचार विषयक प्रश्नोंके विषयमें ऊहापोह किया है । इन सब प्रश्नोंकी विस्तृत चर्चाका,- यद्यपि वह बहुत मनोरञ्जक और मननीय है तथापि- यहां पर अवकाश न होनेसे, उसका दिग्दर्शन कराना शक्य नहीं है । इसके लिये तो जिज्ञासुओंको उस ग्रन्थका ही अवलोकन करना चाहिये । जिनेश्वर सूरिने इस ग्रन्थकी वृत्ति करनेका जो अपना उद्देश आदि बतलाया है वह निम्न प्रकार है
गुणेषु रागाद् हरिभद्रसूरेस्तदुक्तमावर्तयितुं महार्थम् । विबुद्धिरप्यष्टकवृत्तिमुच्चैर्विधातुमिच्छामि गतत्रपोऽहम् ॥ सूर्यप्रकाश्यं क नु मण्डलं दिवः खद्योतकः कास्य विभासनोद्यमी। क धीशगम्यं हरिभद्रसद्वचः काधीरहं तस्य विभासनोद्यतः॥ तथापि यावद् गुरुपादभक्तर्विनिश्चितं तावदहं ब्रवीमि।
यदस्ति मत्तोऽपि जनोऽतिमन्दो भवेदतस्तस्य महोपकारः॥ जिनेश्वर सूरि कहते हैं कि- मैं विबुद्धि अर्थात् अल्पबुद्धि हो कर भी हरिभद्र सूरिके महार्थवाले 'अष्टक प्रकरण' की जो वृत्ति करना चाहता हूं उसमें मुख्य कारण तो हरिभद्र सूरिके गुणोंमें जो मेरा अनुराग है, वही है। नहीं तो कहां महाबुद्धिवालोंको जानने लायक हरिभद्रके गभीर वचन और कहां मेरे जैसा अल्पबुद्धिवाला उनके अर्थोंका प्रकाश करनेमें उद्यत । यह तो ऐसा ही लगता है जैसे सूर्यके प्रकाशसे प्रकाशित होने लायक आकाशके विशाल खण्डको मानों खद्योत प्रकाशित करनेको उद्यत होता है । तब मी मैंने गुरुकी पादसेवा द्वारा जो अर्थ ज्ञात किया है उसको, लज्जा छोड कर, इस विचारसे प्रकट करना चाहता हूं कि जो मेरेसे भी मन्द बुद्धिवाले जन हैं उनका इससे कुछ उपकार हो । ___ इस वृत्तिकी रचना वि. सं. १०८० में, जाबालिपुर ( आधुनिक जालोर, मारवाड राज्य ) में समाप्त हुई थी। इसकी अन्तकी प्रशस्ति निम्न प्रकार है
जिनेश्वरानुग्रहतोऽष्टकानां विविच्य गम्भीरमपीममर्थम् ।
अवाप्य सम्यक्त्वमपेतरेकं सदैव लोकाश्चरणे यतध्वम् ॥ १ सूरेः श्रीवर्धमानस्य निःसंबन्धविहारिणः । हारिचारित्रपात्रस्य श्रीचन्द्रकुलभूषिणः॥२ पादाम्भोजद्विरेफेण श्रीजिनेश्वरसूरिणा । अष्टकानां कृता वृत्तिः सरवानामनुग्रहहेतवे ॥३ समानामधिकेऽशीत्या सहस्त्रे विक्रमाद्गते । श्रीजाबालिपुरे रम्ये वृत्तिरेषा समापिता ॥४ नास्त्यस्माकं वचनरचना चातुरी नापि तादृग , बोधः शास्त्रे न च विवरणं वास्ति पौराणमस्य । किन्त्वभ्यासो भवतु भणितौ सूदितायाममुष्मात् संकल्पानो विवरणविधावत्र जाता प्रवृत्तिः॥५
इति श्रीजिनेश्वराचार्यकृता तच्छिष्यश्रीमदभयदेवरिप्रतिसंस्कृता अष्टकवृत्तिः समाप्ता ॥ इन श्लोकोंका सारांश यह है कि- जिनेश्वरके अनुग्रहसे अष्टकोंके गम्भीर ऐसे इस अर्थका जो विवेचन किया गया है उसको ज्ञात करके, सम्यक् तत्त्वकी प्राप्तिके साथ, लोकजन सदैव सच्चारित्रके लिये प्रयत्न करें।
निःसङ्ग भावसे विचरण करनेवाले, उत्तम चारित्रके पात्र और चन्द्रकुलके भूषण समान, आचार्य वर्द्धमान सूरिके चरणकमलमें भ्रमरके समान वसने वाले, जिनेश्वर सूरिने प्राणियोंके हितके लिये अष्टकोंकी
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