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जिनेश्वर सूरिके जीवन चरितका साहित्य । उत्तराधिकारी पट्टपर इनकी स्थापना हो, परन्तु ये मूल चैत्यवासी गुरुके दीक्षित शिष्य होनेसे शायद इनको गच्छनायकके रूपमें अन्यान्य शिष्य खीकार नहीं करेंगे, ऐसा सोच कर अपने जीवित कालमें वे इस विचारको कार्यमें नहीं ला सके । उनके पट्टधरके रूपमें वर्द्धमानाचार्य (आदिनाथ चरितादिके कर्ता )की स्थापना हुई । तथापि अपनी अन्तावस्थामें अभयदेव सूरिने प्रसन्नचन्द्र सूरिको सूचित किया था कि योग्य समयपर जिनवल्लभको आचार्य पद दे कर मेरा पट्टाधिकारी बनाना । परन्तु, वैसा उचित अवसर आनेके पहले ही प्रसन्नचन्द्र सूरिका भी खर्गवास हो गया। उन्होंने अभयदेव सूरिकी उक्त इच्छाको अपने उत्तराधिकारी पट्टधर देवभद्राचार्यके सामने प्रकट किया और सूचित किया कि यह कार्य तुम संपादन करना ।
अभयदेव सूरिके स्वर्गवासके बाद, उनके अन्यान्य शिष्योंका जिनकल्लभके प्रति, शायद विशेष सद्भाव नहीं रहा । अणहिलपुर और स्तम्भतीर्थ जैसे गुजरातके प्रसिद्ध स्थानोंमें, जहां अभयदेवके दीक्षित शिष्योंका विशेष प्रभाव था, जिनवल्लभको अपना प्रभाव प्रस्थापित करनेका कोई विशेष सुयोग नहीं दिखाई दिया। इससे इन्होंने किसी अपरिचित स्थानमें जा कर, अपने विद्याबल के सामर्थ्य द्वारा अपने प्रभावका कार्यक्षेत्र बनाना चाहा । इसके लिये मेवाडकी राजधानी चित्तोडको इन्होंने पसन्द किया । वहां इनकी यथेष्ट मनोरयसिद्धि हुई और फिर मारवाडके नागोर आदि स्थानोंमें भी इनके बहुतसे भक्त उपासक बने । धीरे धीरे इनका प्रभाव मालवामें भी बढा । मेवाड-मारवाडमें जो बहुतसे चैत्यवासी यतिसमुदाय थे उनके साथ इनकी प्रतिस्पर्धा भी खूब हुई । इन्होंने उनके अधिष्ठित देवमन्दिरोंको अनायतन ठहराया और उनमें किये जानेवाले पूजन, उत्सवों आदिको अशास्त्रीय उद्घोषित किया। अपने भक्त उपासकों द्वारा अपने पक्षके लिये जगह जगह नये मन्दिर बनवाये और उनमें किये आनेवाले पूजा आदि विधानोंके लिये कितनेक नियम निश्चित किये । इस विषयके छोटे-बड़े कई प्रकरण और ग्रन्थादिकी भी इन्होंने रचनाएं की। - देवभद्राचार्यने इनके बढे हुए इस प्रकारके प्रौढ प्रभावको देख कर, और इनके पक्षमें सैकडों ही उपासकोंका अच्छा समर्थ समूह जान कर, इनको आचार्य पद दे कर अभयदेव सूरिके पट्टधरके रूपमें इन्हें प्रसिद्ध करनेका निश्चय किया। जिनेश्वर सूरिके शिष्यसमूहमें, उस समय, शायद देवभद्राचार्य ही सबसे अधिक प्रतिष्ठासम्पन्न और सबसे अधिक वयोवृद्ध पुरुष थे । वे इस कार्यके लिये गुजरातसे रवाना हो कर चित्तोड पहुंचे। यह चित्तोड ही, जैसा कि हमने ऊपर सूचित किया है, जिनवल्लभ सूरिके प्रभावका उद्गम एवं केन्द्रस्थान था । यहीं पर सबसे पहले जिनवल्लभ सूरिके नये उपासक भक्त बने और यहीं पर इनके पक्षका सबसे पहला 'वीरविधिचैत्य' नामक विशाल जैन मन्दिर बना । वि. सं. ११६७ के आषाढ मासमें इनको इसी मन्दिरमें आचार्य पद पर अधिष्ठित कर देवभद्राचार्यने अपने गच्छपति गुरु प्रसन्नचन्द्र सूरिके उस अन्तिम आदेशको सफल किया ।
पर दुर्भाग्यसे ये इस आचार्य पदका दीर्घकाल तक उपभोग नहीं कर सके। चार ही महिनेके अन्दर इनका उसी चित्तोडमें स्वर्गवास हो गया। इस घटनाको जान कर देवभद्राचार्यको बडा दुःख हुआ । जिनवल्लभ सूरिने अपने प्रभावसे मारवाड, मेवाड, मालवा, वागड आदि देशोंमें जो सेंकडों ही नये भक्त उपासक बनाये थे और अपने पक्षके अनेक 'विधिचैत्य' स्थापित किये थे उनका नियामक ऐसा कोई समर्थ गच्छनायक यदि न रहा तो वह पक्ष छिन्न-भिन्न हो जायगा; और इस तरह जिनवल्लभ सूरिका किया हुआ कार्य विफल बन जायगा । यह सोच कर देवभद्राचार्य, जिनवलभ सूरिके पट्टपर प्रतिष्ठित करनेके लिये अपने सारे समुदायमेंसे किसी विशेष योग्य व्यक्तित्ववाले यतिजनकी खोज करने लगे । उनकी
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