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कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि ।
नहीं है । पारलौकिक जीवनके मार्गका उपदेश करनेवाला उनका आगम वेद है । वेदमें जो प्रतिपादित किया गया धर्म या कर्मका विचार है वही श्रेयस् है, वही मोक्षमार्ग है । वेदकी उत्पत्ति कब हुई इसका किसीको ज्ञान नहीं है, अतः वह सनातन अर्थात् अनादिकालीन है; उसका कर्ता कोई नहीं है इसलिये वह अपौरुषेय है ।
इस वेदवादी मीमांसक मतके विरुद्ध, बौद्ध और जैन दोनों मतोंने बडा प्रचंड प्रतिवाद उपस्थित किया है । इनका कहना है कि वेद सधर्म या मोक्षमार्गका प्रतिपादक नहीं हो सकता । उसमें तो हिंसा और अभिचार जैसे दुष्कर्मों का विधान किया गया है । यदि हिंसा और अभिचारके कर्म भी धर्मके निमित्त हो सकते हैं तो फिर अधर्म किस कर्मका नाम रहा । जिनेश्वर सूरिने यह भी दिखलाया है कि वेद में न केवल यज्ञ-यागके रूपमें होनेवाली हिंसा ही विहित बतलाई गई है, अपि तु मातृसंभोग और भगिनी - संभोग आदि जैसे लोकविरुद्ध कर्म भी विहित बतलाये गये हैं । ऐसे हिंसाप्रधान और लोकविरुद्धाचार प्रतिपादक आगमका प्रामाण्य कैसे स्वीकार किया जाय। इसलिये -
तस्मादतीन्द्रियार्थेषु सर्वज्ञगदितागमः । मानमभ्युपगन्तव्यो न वेदस्ताविको यतः ॥ २०५
अर्थात् - अतीन्द्रिय ( पारलौकिक ) भावोंके विषयमें सर्वज्ञका कहा हुआ जो आगम है वही प्रमाणभूत मानना चाहिये, न कि अतास्विक ऐसा वेद । वेदकी इस प्रकारकी अनागमत्व विषयक आलोचनाप्रत्यालोचना करते समय, बौद्ध एवं जैन दार्शनिकोंने उसके सनातनत्व और अपौरुषेयत्वका भी खण्डन करनेका यथेच्छ प्रयक्ष किया है ।
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वैदिक, बौद्ध और जैन दार्शनिकोंके बीच में इस विषयके वाद-विवाद की परंपरा बहुत प्राचीन काल से 'चली आ रही है । तीनों मतोंके दार्शनिक ग्रन्थ इस विषयके खण्डन- मण्डनात्मक तर्क-वितर्कों से भरे पड़े हैं । पूर्वकालीन आचार्योंके प्रदर्शित किये गये तर्क-वितर्कों के उत्तर, उनके उत्तरकालमें होनेवाले आचार्योंने अपने-अपने ग्रन्थोंमें देनेका प्रयत्न किया और फिर उनके प्रत्युत्तर, उनके बाद होनेवाले आचार्योंने अपने ग्रन्थोंमें प्रथित करनेका उद्योग किया ।
मीमांसक मतके सबसे बडे समर्थक और सबसे बडे आचार्य भट्ट कुमारिल हुए, जिन्होंने अपने 'मीमांसा श्लोकवार्तिक' नामक प्रकृष्ट ग्रन्थमें, वेदके विरुद्ध जिन-जिन मतों संप्रदायों द्वारा जो-जो आक्षेप किये गये उनका, बहुत ही मार्मिक, तीव्र और उदग्र युक्तियों द्वारा खण्डन किया । इसके साथ उन्होंने बौद्ध और जैन आदि दर्शनोंके कुछ मूलभूत सिद्धान्तों पर भी, वैसी ही प्रचण्ड शैलीसे, बहुत उग्र आक्षेप किये । पुनः भट्ट कुमारिलके बाद होनेवाले बौद्ध, जैन आदि विद्वानोंने, उनके किये गये उन-उन आक्षेपोंके प्रत्युत्तर देने में भी वैसा ही उम्र और तीव्र प्रयत्न किया है । दर्शनशास्त्र विषयका शायद ही कोई ऐसा प्रसिद्ध ग्रन्थ हो जिसमें कुमारिल के प्रतिपादित तर्कों और विचारोंका ऊहापोह न किया गया हो ।
१ ऐसे लोकबिरुद्ध कर्मके कुछ वैदिक उद्धरण भी जिनेश्वर सूरिमे अपनी व्याख्यामें उद्धृत किये हैं। यथा
'यद्दा लोकबिरुद्धेऽपि' वेदे । न खलु लोके मातृभोगादि प्रशस्यते । यथा चोक्तम् - ऋग्वेदे त्रयस्त्रिंशतिमे ब्राह्मणे हरिचन्द्रकथायाम् । पाठः - 'नापुत्रस्य गतिरस्तीति सर्वे पशवो विदुः । तस्मात् पुत्रार्थं मातरं स्वसारं चाभिगच्छेदिति । एष पन्था उभयगामी' त्यादि । तथा सामवेदे सौमित्रिकाणां गोसवे यज्ञोपदेशः । पाठः - - 'एतत्ते सुभगे भगं आलिप्य मधुसर्पिषा जिह्वया लेलिहामी' त्यादि । न चैतल्लोके सम्मतम् । न च लोकप्रतीतिबाधितं प्रामाण्यं साध्यमित्यलं विस्तरेण । प्रमालक्षण- व्याख्या, २४७.
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