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जिनेश्वरीय ग्रन्थोंका विशेष विवेचन । मन्तव्योंका प्रतिक्षेप किया गया है । सांख्यमें सुप्रसिद्ध शास्त्रकार ईश्वरकृष्णके कथनोंका और नैयायिकोंमें सूत्रकार गौतम और उसके भाष्यकार वात्स्यायनके तत्तद्विषयक सिद्धान्तोंका परिहार प्रदर्शित किया गया है।
प्रमाणात्मक ज्ञानके स्वरूप, संख्या और लक्षण आदिके विषयमें जैन दर्शनका सभी अन्य दर्शनोंके साथ कुछ-न-कुछ मतभेद है; इसलिये प्रमाणतत्त्वका विचार करते समय उन मतभेदोंका विचार करना आवश्यक हो जाता है और तत्तद् दर्शनोंके मौलिक सिद्धान्तोंका आलोचन-प्रत्यालोचन करना भी अनिवार्य हो जाता है । इसीतरह अन्य दार्शनिकोंका भी दूसरे-दूसरे दर्शनोंके साथ कुछ-न-कुछ मतभेद है ही और इसीलिये उन्होंने भी अपने-अपने सिद्धान्तके प्रतिपादक ग्रन्थोंमें अन्यान्य दार्शनिकोंके विशिष्ट सिद्धान्तोंकी यथेष्ट आलोचना-प्रत्यालोचना की है।
प्रमालक्षणमें विवेचित विचारोंका संक्षिप्तसार। प्रस्तुत ग्रन्थमें जिनेश्वर सूरिने प्रारंभके १९ श्लोकोंमें, जैनसम्मत प्रत्यक्ष प्रमाणका विचार किया है और इसके अन्तर्गत सर्वज्ञकी सिद्धि और वह सर्वज्ञ जिन ही हो सकता है अन्य नहीं, यह संक्षेपमें स्थापित किया है । प्रत्यक्ष प्रमाणके खरूपके विषयमें बौद्ध तार्किकोंका जो विधान है उसका संक्षेपमें खण्डन कर, सर्वज्ञके विरुद्धमें जो कुमारिलका कथन है उसका निरसन किया है । इसीमें नैयायिकदर्शनसम्मत सर्वज्ञ ईश्वरके अस्तित्वका एवं उसके जगत्कर्तृत्वका अभाव भी सूचित किया गया है ।
२१ वें श्लोकसे लेकर ११३ वें श्लोक तक, परार्थ अनुमान प्रमाणका वर्णन है । इसमें अनुमान प्रमाणके साधक-बाधक हेतुओं, हेत्वाभासों आदिका विस्तारसे विवेचन किया है और अन्यान्य दार्शनिकोंके दिखाए हुए तत्तद्विषयोंके हेतु आदिकोंका ऊहापोह किया है।
११४ वें श्लोकसे लेकर ३१६ वें श्लोक तकमें, शब्द प्रमाणकी विस्तृत चर्चा उपस्थित की गई है । प्रन्थका विशेष भाग इसी प्रकरणमें व्याप्त है । शब्द प्रमाणसे तात्पर्य है आगम प्रमाणका । मोक्षमार्गका खरूप बतलानेमें एक मात्र आगम ही प्रमाणभूत साधन है । जीवात्माका पुनर्जन्म, वर्ग-नरकगमन और मोक्षप्राप्ति आदि जैसी बातोंको केवल आगमके आधार पर ही हम मानते हैं । इसलिये मनुष्यको पारलौकिक जीवन की दृष्टिसे आगम प्रमाणका स्वरूप जानना परमावश्यक है। ___ दर्शनशास्त्रकारोंने आगमका अर्थ बतलाया है 'आप्तवचन' - अर्थात् आप्तपुरुषका जो वचन अथवा उपदेश है उसीका नाम आगम है । इसलिये दर्शनशास्त्रोंमें आप्तपुरुषका भी लक्षण और खरूप बतलाना आवश्यक हुआ । अतः जिनेश्वर सूरिने इस शब्दप्रमाणवाले प्रकरणमें आगम और आप्तपुरुषके विषयमें विस्तारसे चर्चा की है । इनकी चर्चाका निष्कर्ष, जो इन्होंने प्रकरणके प्रारंभमें ही सूचित कर दिया है, उसका आशय है कि सर्वविद् वीतराग पुरुषका जो वचन है वही शब्द प्रमाण है।
परंतु, इस विधानके विरुद्ध में तो दार्शनिकोंकी अनेक विप्रतिपत्तियां हैं । दर्शनशास्त्रके वाद-विवादका सबसे बड़ा और सबसे मुख्य विषय तो यही रहा है । भिन्न-भिन्न दार्शनिकोंके नाना-प्रकारके मतामत इस विषयमें उपस्थित हैं । ब्राह्मणधर्म का सबसे प्रधान और प्राचीन संप्रदाय जो मीमांसक मत या वैदिक मतके नामसे प्रसिद्ध है उसमें सर्वविद् या सर्वज्ञ पुरुषका अस्तित्व ही मान्य नहीं है । उनका मन्तव्य है कि भूत, भविष्य और वर्तमान कालके सब भावों और सब पदार्थोंके जाननेकी शक्तिवाला पुरुष न कोई, कभी, कहीं हुआ है न हो सकता है । इसलिये सर्वज्ञ जैसी कोई व्यक्तिका अस्तित्व उनको स्वीकार्य
, 'सर्वविद्वीतरागोक्तः सोऽपि तस्या निबन्धनम् ॥' तथा 'सर्वविद्वीतरागस्य वचनं नापरोऽप्यसौ ॥'
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