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जिनेश्वरीय ग्रन्थों का विशेष विवेचन-कथाकोश प्रकरण ।
यक्ष श्रावकका कथानक । इस भारतवर्षके वसंतपुर नामक नगरमें यक्ष नामका एक श्रमणोपासक साधुओंको शुद्ध ऐसे भक्त पानादिका दान करता हुआ रहता था । एक दिन, तपसे जिसका शरीर कृश हो गया है, केशलोचसे जिसका मस्तिष्क शुष्क चर्म हो गया है और जलादिक संस्कारके अभावके कारण जिसका देह. विवर्ण हो गया है ऐसे अनगार तपस्सीको, भिक्षाके निमित्त अपने घरकी तरफ उसने आते देखा। उस मुनिका नाम सुदत्त था । यक्ष उसे आते देख, एकदम ऊठ खडा हुआ और घीसे भरा हुआ भाजन ले कर श्रद्धापूर्वक उसे देनेको तत्पर हुआ । सुदत्त मुनि अन्तर्ज्ञानी था। उसने यक्षके श्रद्धाशील मनोभावकी तर-तमताका चिन्तन करते हुए मनमें पर्यालोचन करना शुरू किया, कि ऐसे श्रद्धाशील जीवका कैसा आयुष्यबन्ध होता है । यक्ष बडी भक्तिसे उसके पात्रमें घी डालने लगा। पात्र पूरा भर गया, तो भी साधु अपने मनोविचारमें मग्न होनेके कारण, 'बस, भाई बस करो' आदि कुछ नहीं बोला । यक्ष घी डालता ही रहा और पात्रके भर जाने पर वह फिर उसमेंसे बहार निकल कर नीचे गिरने लगा। इसे देख कर यक्षका मन विचलित हो गया । वह सोचने लगा - यह साधु कैसा प्रमत्त है जो 'बस भाई अब बस कर' आदि कुछ नहीं बोल रहा है । इसको यह दान देनेसे क्या फल है ? । ज्यों ज्यों इस प्रकारका विचार उसके मनमें उग्र होता जा रहा था, त्यों त्यों उसका पूर्वमें बन्धा हुआ शुभ आयुष्य भी क्षीण होता जा रहा था और वह अपने उच्च भावोंसे नीचे गिरता चला जाता था। उसकी उस मानसिक क्रियाको जान कर साधुके मुंहसे यह शब्द निकल गया कि 'अरे भाई नीचे मत गिर !' सुन कर यक्षने कहा 'यह साधु तो उन्मत्त मालूम देता है जो गिरते हुए घीको रुकने का कहता है ।' साधुने भी घी शब्दको सुन कर उसकी तरफ ध्यान दिया और जमीन पर गिरते हुए उस घीको देखा । वह बोला- 'मिथ्या मे दुष्कृतम्' (मैंने जो दुष्कृत् किया उसके लिये खिन्न हूं) अहो, घी दुल गया !' तब यक्षने कहा'इतनी देर कहां गया था जो अब 'मिच्छामि दुक्कड' दे रहा है ? तूंने घीको गिरनेके लिये टोंका, लेकिन यह न रुका । घी कोई थोडी ही आज्ञाधीन वस्तु है जो रुकजानेकी आज्ञा सुन कर बन्ध हो जाय ।' साधु सुदत्तने कहा- 'अरे भाई, क्यों ऐसे उल्लंठ वचनसे अपनी आत्माको ठगता है । यह तो तेरे लिये और भी फोडे पर फुनसी जैसा हो रहा है ।' सुन कर यक्षने मनमें सोचा 'यह साधु क्यों ऐसी असम्बद्ध बात बोल रहा है ? और फिर बोला 'भगवन् , यह आपका सरोष वचन है ।' तब साधुने कहा-'मेरे मनमें न पहले, न वर्तमानमें और न बादमें कोई रोष होसकता है । जैसा मैंने देखा वैसा कहा है। तब यक्षने विनम्र हो कर कहा 'भगवन् , बताइए यह क्या बात है ?' तब मुनिने कहा- 'जब मैं तेरे घरमें मिक्षाके लिये प्रविष्ट हुआ तब ज्ञानसे तेरे मनोभावोंका पर्यालोचन करनेमें एकाग्र हो गया । मैंने ज्ञात किया कि तूं विशुद्ध परिणामके कारण, प्रतिक्षण उच्च-उच्चतर देव योनिका आयुष्यबन्ध उपार्जन कर रहा है । इस विचारनिमग्नतासे मैं घीकी तरफ खयाल न कर सका । जब घी नीचे गिरने लगा तब तेरे विचार भी फिरने लगे और तूं मनकी विपरिणामताके कारण उस उच्च देवायुष्यबन्धसे च्युत होने लगा। तब मैंने तेरे परिणामोंको लक्ष्य करके यह कहा कि 'नीचे मत गिर !' जब तैंने उल्लंठ वचनका प्रयोग किया था तब तूं भ्रष्टदर्शन ( श्रद्धानसे पतित) हो कर, तिर्यंचयोनिके योग्य आयुष्यबन्धका भागी हो रहा था । इसलिये मैंने कहा 'यह तो फोडे पर फुनसी जैसा हो रहा है; क्यों कि एक तो तेरा देवायुष्यबन्ध मष्ट हो गया और फिर उस पर यह नीच कोटिका तिर्यंचायुष्यबन्ध तूं उपार्जन कर रहा है । इसीलिये यह फोडे पर फुनसी जैसा कर्म है । ऐसा कथन करते हुए मेरे मनमें किसी प्रकारका भी रोष नहीं है।'
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