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कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि ।
इस प्रकार, इस शब्द प्रमाणवाले प्रकरणमें आगमके प्रामाण्य - अप्रामाण्यको लक्ष्य करके अनेक प्रकारके मत-मतान्तरोंकी आलोचना की गई है।
३१८ वें श्लोकसे लेकर ३९४ वें तकके श्लोकमें, दर्शनान्तरोंमें माने गये उपमान, अभाव आदि प्रमाणों की चर्चा की है और जैन आचार्योंने उनको स्वतंत्र प्रमाण न मान कर अनुमान प्रमाणके अन्तर्गत ही उनका समावेश क्यों कर दिया है इसका विवेचन किया है ।
३९५ से ३९९ तकके श्लोकोंमें, जैनदर्शनअभिमत प्रमाण, नय और कुनयका, विषयविभागकी दृष्टिसे विचार किया है और ४०० से ४०५ तकके श्लोकोंमें ग्रन्थका उपसंहार आलेखित किया है, जिनका उद्धरण और सार हमने इस परिचयके प्रारंभ में ही दे दिया है ।
(६) निर्वाणलीलावती कथा ।
जिनेश्वर सूरिकी कृतियोंमें सबसे बडी कृति यह कथा थी । खरतर गच्छकी कुछ पट्टावलियोंमें मिलनेवाले उल्लेखों के अनुसार इसका ग्रंथपरिमाण कोई १८००० श्लोक जितना था । यह कथा प्रायः प्राकृत में और गाथाबद्ध रचना में बनाई गई थी । यह मूल कृति अभी तक कहीं किसी भंडारमें उपलब्ध नहीं हुई है । इसका एक सारोद्धार रूप, संस्कृत श्लोकबद्ध भाषान्तर, जेसलमेर के भंडारमें उपलब्ध हुआ है । यह कथासार प्रायः ६००० श्लोक ग्रन्थपरिमाण है । यद्यपि इस ग्रन्थमें, आदि या अन्त भागमें, कहीं भी, स्पष्ट रूप से इसके कर्ताका नामनिर्देश नहीं मिलता, परंतु जेसलमेर में जो इस पुस्तककी ताडपत्रीय प्रति उपलब्ध हुई है उसकी पट्टिकापर 'जिनरत्नसूरिविरचिता निर्वाण लीलावती कथा' ऐसा उल्लेख किया हुआ मिला है । तथा ग्रन्थके अन्तके उत्साह के अन्तिम पद्यमें श्लेषरूप से 'जिनरत' इस शब्दका प्रयोग किया गया है, इससे इसके कर्ता 'जिनरत्न' है यह निश्चित होता है । ये जिनरत्नाचार्य जिनपतिसूरि के शिष्य जिनेश्वराचार्य के शिष्य थे और वि. सं. १३०४ में इनको आचार्य पदवी मिली थी । यह कथासार, २१ उत्साहोंमें विभक्त है । प्रत्येक उत्साह के समाप्ति लेखमें ' इति श्रीनिर्वाणलीलावतीमहाकथेतिवृत्तोद्धारे लीलावतीसारे जिनांके' ऐसा उल्लेख किया गया है । प्रत्येक उत्साह के अन्तिम पद्यमें किसीन- किसी स्वरूपमें 'जिन' शब्दका प्रयोग किया गया है, इससे इस कृतिको कर्ताने 'जिनांक' विशेषणसे अंकित की है । इस सारके अवलोकनसे जिनेश्वर सूरिकी मूल कृतिकी कथावस्तुका परिज्ञान तो ठीक तरहसे हो जाता है परंतु उसकी भाषा, रचना, वर्णना, कविता, छन्दोबद्धता, आलंकारिकता आदिका परिज्ञान नहीं हो सकता । ऊपर जिनेश्वर सूरिकी प्रशंसावर्णनाके प्रस्तावमें हमने जिनभद्राचार्यकृत 'सुरसुन्दरी कथा' का जो अवतरण दिया है, उसमें इस कथाकी परिचायक दो गाथाएं मिलती हैं - जिनमें कहा गया है, कि यह कथा अतीव सुललित पदसंचारवाली, प्रसन्नवाणीयुक्त, अतिकोमल श्लेषादि विविध अलंकारोंसे विभूषित एवं सुवर्णरूप रत्नसमूह से आल्हादक है सकल अंग जिसका, ऐसी वारवनिताकी तरह, सकल जनोंके मनको आनन्दित करनेवाली है । जिनरत्नाचार्यने अपने इस कथासारके उपोद्घातमें मूल कथाको, नाना प्रकारके विस्तृत वर्णनोंसे तथा अनेक रसोंसे परिपूर्ण, अत एव अल्पमेधाशक्तिवाले जनोंके लिये समुद्रकी तरह दुरवगाह बतलाई है । इसलिये इस कथाका 'मात्र कथावस्तु' स्वरूप सुधापान करने की इच्छा रखनेवाले विद्वानोंके उपकारार्थ उन्होंने इस सारभागका संकलन किया है' ।
१ जेसलमेरके भंडार में इस ग्रंथकी जो प्रति विद्यमान है उसके आद्य पत्रका कुछ भाग तूट गया है और जो कुछ पंक्तियां उपलब्ध हैं उनके भी कुछ अक्षर घिस गये हैं, इसलिये प्रारंभ के ११-१२ श्लोक, जिनमें सारकर्ताने उपोद्घातके रूपमें अपना वक्तव्य गुंफित किया है, पूर्ण रूपसे पाठ्य नहीं हैं ।
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