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जिनेश्वरीय ग्रन्थोंका विशेष विवेचन । बल्कि एक प्रकारका श्रीमंताईका औदार्य सूचक शिष्ट आचार माना जाता था । इसलिये उस समय धनवान् और सत्तावान् जनोंका वेश्या-संसर्ग बहुत सामान्य व्यवहार था । धनिक श्रावक लोग भी जो परस्त्रीगमनका व्रत लेते थे उसमें वेश्यागमनका निषेध नहीं माना जाता था । इस दृष्टिसे वेश्या स्त्रीके साथ संभोग व्यवहार में श्रावकको कैसे कुशल रहना चाहिये इसका सूचन जिनेश्वर सूरिने यहां पर किया है । ___ इस प्रकारके सूचन पर, शायद कुछ अतिचार्चिक एवं संकीर्ण मनोवृत्तिवाले उपदेशकोंने ऐमा प्रश्न भी उठाया होगा कि जिनेश्वर सूरि जैसे परमविरागी जैनाचार्यका यह कामकुशल विषयक उपदेश देना जैन सिद्धान्तानुसार कैसे संगत हो सकता है । इसका उत्तर इस ग्रन्थके टीकाकारने स्वयं दिया है जो मनन करने लायक है । टीकाकार कहते हैं कि- 'जिनेश्वर सूरिका यह स्त्रीको प्रसन्न रखने आदिका उपदेश, विषयभावका पोषक होनेसे, जैन प्रणालिसे असंगत है' -ऐसा नहीं समझना चाहिये। क्यों कि शरीरकी रक्षाकी दृष्टिसे यह उपदेश दिया गया है और शरीर-रक्षाका उपदेश, धर्म-रक्षाका निमित्त होनेसे उसका विचार कर्तव्यसंगत है।
इस प्रकार धर्म, अर्थ और काम विषयक कुशलताके उपदेशके बाद लोक-कुशलताकी दृष्टिसे भी कुछ व्यावहारिक बातें कही गई हैं; जो इस प्रकार हैं - श्रावकको अपने समाज या राष्ट्रमें जो लोक प्रधान (अग्रणी) समझे जाते हों उनसे मैत्री रखनी चाहिये । राजाके पास जाते-आते रहना चाहिये और सदैव सद्भाव पूर्वक उसकी उपचर्या करते रहना चाहिये । कभी भी राजाका अवर्णवाद नहीं करना चाहिये, उसके विपक्षियोंका संसर्ग न रखना चाहिये, और जो जो गुण उसमें विद्यमान हों उनका उच्चारण करते रहना चाहिये । इसी तरह ज्ञानसे, जन्मसे और जाति आदिसे जो जन अधिक प्रसिद्ध हैं उनके भी गुणोंकी सदा प्रशंसा करते रहना चाहिये और किसी प्रकारका कोई अपराधजनक भी उनका व्यवहार हो तो उसको यत्नपूर्वक सुधार लेना चाहिये - इत्यादि बातें लोक-कौशलकी दृष्टिसे श्रावकको ध्यानमें रखनी चाहिये। ___ऊपर जो धर्म, अर्थ, काम और लोक-कौशलके विषयकी बातें कही गई हैं. उन बातोंके करनेमें, श्रावकको न केवल ऊपरी बातोंका ही ज्ञान रखना चाहिये, अपि तु उन उन बातोंके करनेमें आवश्यक ऐसे अन्दरके भावोंकी जानकारी भी रखनी चाहिये । जैसे कि धर्म-कौशलकी दृष्टिसे श्रावकको अपने नवीन जो साधर्मी भाई आदि हों उनकी बाह्य चेष्टाओंसे- शारीरिक और वाचिक आदि प्रवृत्तियोंसे- उनके मनोगत भावोंके जाननेका प्रयत्न करना चाहिये और तदनुसार उनके धर्ममें स्थिरमनस्क होनेके उपायोंकी योजना करनी चाहिये । वैसे ही काम-कौशलकी दृष्टिसे स्त्री
और वेश्याके इंगितभाव जानते रहना चाहिये और तदनुकूल अपने शरीरकी रक्षाके संबंधमें सावधान रहना चाहिये । अर्थ-कौशलकी अपेक्षासे ऋणिक (कर्जदार) आदिकी चेष्टाओंको समझ कर तदनुसार उसके साथ व्यवहार रखना चाहिये । क्यों कि कभी कभी कर्जदार दुष्टवृत्तिवाला बन कर लेनदारका घात करने-करानेमें उद्यत हो सकता है । इसलिये उसके मनोभाव जान कर तदनुसार उसके साथ व्यवहार करना चाहिये । यदि ऐसा मालूम हो जाय कि देनदारको अधिक तंग करनेसे वह किसी प्रकारका अनर्थ करनेपर उतारु हो जायगा तो उसके साथ कठोर व्यवहार न कर उसको अनुकूल बनाना चाहिये और समझना चाहिये कि वह पैसा था ही नहीं । इसी तरह लोक-कौशलकी न चायं स्त्रीप्रसादनाथुपदेशोऽसङ्गतः सावद्यत्वात् इति वाच्यम् । शरीररक्षाधारणे धर्मरक्षानिदानत्वात् ।'
मुद्रित प्रति, पृ. ४७.
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