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कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि ।
रामका कहा हुआ लौकिक आख्यान । किसीएक देशके कोई नगरमें एक चतुर्वेदी ब्राह्मण रहता था। वह छात्रोंको वेद पढाये करता था। एक दफह किन्हीं छात्रोंने उससे कहा- 'हमको वेदान्त पढ़ाइये । वह उनकी योग्यताकी परीक्षा करनेके निमित्त बोला- 'उसके लिये तो कुछ क्रिया करनी पडती है ।' छात्रोंने पूछा- 'सो कैसी ?' उसने कहा'काली चतुर्दशीके दिन श्वेतवर्णके छाग ( बकरे )को मारना होता है; लेकिन ऐसी जगह पर, जहां कोई भी न देखता हो । फिर उसका मांस पका कर खाना चाहिये । बादमें वेदान्तका श्रवण करनेकी योग्यता प्राप्त हो सकती है।' इस बातको सुन कर, उनमेंसे एक छात्र श्वेत छागको ले कर काली चतुर्दशीकी रात्रिको गांवके बहार कहीं निर्जन स्थान पर गया और उस बकरेको मार कर, उपाध्यायके पास ले आया। उपाध्यायने समझ लिया कि यह अयोग्य है। इसमें कुछ भी विचार-शक्ति नहीं है। इससे उसको वेदका रहस्य कुछ नहीं बतलाया । एक दूसरा छात्र भी इसी तरह बकरेको ले कर एकान्त स्थानमें गया । लेकिन उसने कुछ विचार किया । देखा तो ऊपर आकाशमें टिग-मिग टिग-मिग करते हुए तारे मानों उसकी ओर ताकते हुए नजर आये । इससे वह शून्य ऐसे एक मन्दिरमें गया। सोचता है तो वहां भी वह देवताकी मूर्ति मानों उसे देख रही है ऐसा प्रतीत हुआ। बादमें वह फिर किसी एक शून्य घर (खण्डहर )में गया, तो वहां भी उसे विचार हुआ कि - मैं स्वयं इसे देख रहा हूं, यह बकरा भी मुझे देख रहा है; और जो कोई अन्तर्ज्ञानी पुरुष होगा वह भी इसे देखता ही होगा। फिर उपाध्यायने तो यह कहा है कि- “जहां कोई भी न देखता हो वहां इसे मारना" इससे इसका तात्पर्य तो यह मालूम होता है कि इसे न मारना चाहिये । इत्यादि ।
इस आख्यानके रहस्यसे यह बात समझनी चाहिये कि-दुःखितोंमें अनुकंपाभाव रखना ही अनुकंपादान है । और ऐसे दुःखित संसारवासी सब जीव हैं । इसलिये पृथ्वी आदि असंख्य प्रकारके जीवोंका विनाश करके आहार बनाना और उसको वैसे ग्राहकोंको दानरूपमें दे कर अनुकंपा करना संगत नहीं है । क्यों कि इसके लिये जो वे त्रस-स्थावर जीव मारे जाते हैं वे क्या अपने वैरी है ? और वे क्या अनुकंपाके योग्य नहीं है ? यदि ऐसा न होता तो भगवान् , जो कि एकमात्र परहितमें ही निरत थे, उन्होंने क्यों नहीं बावडी-कूएं-तालाव आदि बनवानेका उपदेश दिया । इस लिये परमार्थ भावसे सर्व सावध योगका त्याग है वही अनुकंपा दान है । वैसा त्याग साधुको ही होता है । श्रावकको तो वह देशमात्रसे होता है । इसलिये अपनी अपनी भूमिकाके उचित दीन आदि जनोंको ग्रास आदिका दान देना वह उचित दान कहलाता है । इसलिये सूत्रका अर्थ विचारपूर्वक करना चाहिये। ___ यह सुन कर, सिर हिलाते हुए जल्लने कहा – 'मैंने इन सब बातोंसे यह अर्थ समझा है, कि "किसीने, किसीको, कुछ नहीं देना चाहिये ।" जैसा कि छात्र-छाग न्यायसे सिद्ध होता है ।' ___ तब एक साल नामक और भाई बोला- 'अरे देवानुप्रिय, तूंने कुछ भी ठीक नहीं समझा है । कह तो यह तूंने कैसे समझा कि "किसीने, किसीको, कुछ नहीं देना चाहिये ?" - जल्लने जवाब दिया- 'द्रव्यशुद्ध तो कुछ भी नहीं है । क्यों कि अचिंतित ऐसा तो किसीको संभव होता नहीं । साधुको दान देना यह तो सभीको चिंतित ही होता है । और इसका तो तुम निषेध करते हो । दायकशुद्धि भी किसीकी नहीं होती । क्यों कि कहा तो यह है कि न्यायमार्गसे प्राप्त अन्नपानी आदि द्रव्यका दान ही द्रव्यशुद्धि कहलाता है । वह न्यायमार्ग हम जैसे कूट और कपट कर्मसे व्यवहार करनेवाले बनियोंके यहाँ कैसा । इसलिये हमारा दिया गया दान द्रव्यशुद्ध कैसे हो सकता है ।।
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