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जिनेश्वरीय ग्रन्थों का विशेष विवेचन- कथाकोश प्रकरण ।
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एक दिन वहां विष्णुदत्त नामक ब्राह्मणने निष्कारण ही कुपित हो कर देशान्तरसे आये हुए सुव्रतसूरिके साधुओंको भिक्षानिमित्त फिरते देख कर, अपने छात्रों द्वारा उनको कडी धूपमें खडे करवा कर अटकमें रखा । धनदेव सेठने उनको देखा और वन्दन करके पूछा कि - 'भन्ते, आप क्यों इस तरह धूपमें खडे हैं ?' तब उनमें गुणचन्द नामक जो एक ज्येष्ठ साधु था उसने कहा - 'विष्णुदत्त ब्राह्मणने अपने छात्रों द्वारा हमको रोक रखा है और जाने नहीं देता है ?' वह ब्राह्मण अपने मकानमें उपर बैठा हुआ था उसको पुकार कर धनदेवने कहा कि - 'भाई, किसलिये साधुओं को सता रहा है ?"
उसने कहा - 'इन्होंने मुझ पर कोई कार्मण प्रयोग कर रखा है, इसलिये ऐसा किया जा रहा है ।' सुन कर सेठने साधुओंसे कहा - ' जाईये भन्ते, आप अपने वसतिस्थानमें ।'
फिर उसने अपने मनुष्य द्वारा उन छात्रोंको गलेसे पकडवाया तो वे चिल्लाने लगे । विष्णुदत्त मकानमें उपर रहा हुआ सेठको धमकाने लगा कि - 'अरे किराट ! ( वणिकजनों को कुत्सित भावसे सम्बोधन करना होता है तब इस निन्दासूचक किराट शब्दका व्यवहार किया जाता है ) क्यों वृथा मौत मांग रहा है ?' सुन कर सेठने उत्तर में कुछ नहीं कहा । साधु अपने स्थानमें चले गये और सेठ मी अपने घर गया । फिर सेठने मनमें सोचा, शास्त्रोंका उपदेश है कि - " सामर्थ्य के होने पर, आज्ञा भ्रष्टके कार्यकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिये । और यदि अनुकूल साधन हो तो उसको शिक्षा देनी - दिलानी चाहिये ।” सो इस वचनका स्मरण करता हुआ वह राजकुलमें गया; और राजासे कहने लगा कि - 'देव, पूर्वर्षियोंके ऐसे वचन हैं कि – अनार्य और निर्दय ऐसे पापी मनुष्यों द्वारा यदि तपखीजन सताये जायं, तो राजा पिताकी तरह उनकी रक्षा करे । ज्ञान, ध्यान, तपसे युक्त और मोक्षाराधनमें तत्पर ऐसे साधुओं की रक्षा करता हुआ राजा, उनके धर्म कर्ममेंसे छठवां भाग प्राप्त करता है' - इत्यादि ।
सुन कर राजाने पूछा - 'सेठ ! क्या बात है ?
सेठने कहा - 'देव ! विष्णुदत्त ब्राह्मणने अपने छात्रों द्वारा साधुओंको कडी धूपमें खडा करवा कर उनको कष्ट पहुंचाया है । ऐसा तो किसी अराजक तंत्रमें हो सकता है । महाराजके राजशासनमें तो आज तक ऐसी कोई नीति नहीं देखी गई है। इसमें अब आप जो करें सो प्रमाण है ।'
सुन कर राजाने कोटवालको बुलाया और आज्ञा की कि - 'उस डोड्डे को ( जिस तरह वणिकके लिये उपर्युक्त 'किराट' कुत्सावाची शब्द है इसी तरह ब्राह्मण के लिये यह ' डोड्ड' कुत्सावाची शब्द है ) जल्दी बुला कर लाओ ।'
इसी बीच में वह विष्णुदत्त भी बहुतसे डोड्डों को साथमें ले कर राजकुलके द्वार पर आ कर खड हो गया । प्रतिहारके निवेदन करने पर वे सभाभवनमें गये । 'स्वस्ति न इन्द्रो वृद्ध श्रवा इत्यादि प्रकारका आशीर्वाद देते हुए राजाको अक्षत (चावल) समर्पित करने लगे । राजाने उनका स्वीकार नहीं किया । फिर वे ब्राह्मण जमीन पर बैठ गये ।
राजाने कहा - 'क्या राजा तुम हो या मैं हूं ?'
ब्राह्मणोंने कहा – 'किसलिये यह प्रश्न किया जा रहा है ? '
राजाने कहा - 'तुम राजाकी तरह व्यवहार कर रहे हो इसलिये ।'
ब्राह्मणोंने पूछा - 'किसने और कहां ?"
तब राजा ने पूछा कि - 'किसलिये तुमने साधुओं को क्रेशित किया है ?"
क० प्र० १६
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