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जिनेश्वरीय ग्रन्थोंका विशेष विवेचन - कथाकोश प्रकरण ।
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करनी चाहिये । क्यों कि आज भी हमें ऐसे कई साधु दिखाई देते हैं जो द्रव्य - आदिके प्रतिबन्धसे रहित हैं, यथाशक्ति दिनको भी स्वाध्याय करते हैं और विकथासे दूर रहते हैं । प्रायः समितियोंके पालनमें अप्रमत्त होते हैं, यथास्फुट जैनागमों के सारकी प्ररूपणा करते हैं और एषणासमितिपूर्वक आहारगवेषणा करते हैं । तो फिर ऐसा कैसे कहा जाय कि साधु नहीं हैं । इसलिये हे भाइयो, अन्यथाभाव न करना चाहिये । इसी तरह कई श्रावक भी शुद्ध दायक होते हैं । और यह जो कहा कि - सब कुछ चिंतित ही होता है, सो भी साधुओंके प्रत्यनीक ऐसे पापिष्ठोंका मिध्याभिनिवेश है । क्यों कि साधु विकाल समयमें तो आहारके लिये निकलते नहीं । और फिर क्या तुम्हारे घरोंमें, रसोई कर लेनेके बाद ऐसे मूग आदि नहीं बचते रहते हैं, जो गौ आदिको खिलाये जाते हैं ? | क्या बच्चों को सबेरे खिलानेके लिये, घरोंमें चावल आदि वघार कर नहीं रखे रहते ? और अपने घरों में विकालमें पकाए हुए मांड आदि जो हवादानमें रखे रहते हैं क्या तुम उन्हें नहीं जानते ! यह सब जानते हुए भी यह कैसे कहते, हो कि साधुओं को शुद्ध दान मिल ही नहीं सकता । ऐसा कहने से तो जो आधाकर्मादिक आहार ग्रहण करनेवाले शिथिलाचारी साधु हैं उनका स्थिरीकरण होगा, और जो उद्यत - विहारी हैं उनकी अवज्ञा होगी । वह अभव्य या दुर्भव्य ही कहलायेगा जो इस प्रकारके वचनों द्वारा साधुओंकी तरफ भक्तिभाव रखनेवालोंका श्रद्धाभंग करता है । भक्तिपूर्वक दान देनेवालोंको देख कर जो कोई शिथिलविहारी होता है वह भी आधाकर्मादिका ग्रहण करनेसे लज्जानुभव करता है । परंतु यदि, जो आधाकर्मादि ग्रहण नहीं करते हैं उनके लिये भी तुम्हारे जैसे ऐसा कहे कि वे ग्रहण करते हैं तो, फिर शिथिल - विहारी उलटा लज्जा छोड कर ही आधाकर्मादिके ग्रहण में प्रवृत्त होगा । इसलिये अनजानोंके सामने सर्वथा खुले मुंहसे केवल कर्मबन्धका ही कारण होनेवाला ऐसा विवाद न करना चाहिये । इस विषय में साधुओंके पास मैंने एक आख्यानक सुना है जो मैं तुम्हें सुनाना चाहता हूं ।
यह सुन कर वे सब बोले सुनाओ । तब पार्श्वश्रावकने यह कथानक कहा
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पार्श्व श्रावकका कहा हुआ कथानक ।
yosरकिनी नगरी में एक पुण्डरीक राजा था और उसका छोटा भाई कण्डरीक युवराज था । वहां पर एक समय स्थविर (साधु) आए। दोनों भाई उन्हें वन्दन करने गये । धर्मोपदेश सुन कर वे अपने घर पर आये, तो राजाके मनमें उपदेश सुन कर विरक्तभाव हो आया । इसलिये उसने अपने छोटे भाईसे कहा - 'मैं दीक्षा लेना चाहता हूं, इसलिये यह राज्यभार तुम ग्रहण करो ।' युवराजने कहा- ' स्वयं ही दीक्षा लेना चाहता हूं । इसलिये राज्यका पालन तुम ही करो। तुम्हारे सिवा राज्यधुराको धारण करने योग्य और कोई नहीं है ।' यह सुन कर राजाको अपना विचार स्थगित रखना पडा । कण्डरीकने ast धामधूमके साथ दीक्षा ली । वह खूब तपस्या करने लगा । दो-दो दिन के उपवास नियमित रूपसे करते रहते, कुछ काल बाद उसे बडी भयानक खुजलीका रोग हो गया । धीरे धीरे वह रोग असह्य हो कर दाहज्वरके रूपमें परिणत हो गया । स्थविर फिर घूमते-फिरते उसी पुण्डरीकिनी नगरीमें आये और गांवके बहार उद्यानमें ठहरे । राजा और अन्य प्रजाजन वन्दन करनेको गये । स्थविरका धर्मोपदेश सुना । राजाने अपने भाईको रोगग्रस्त देख कर गुरुसे कहा - 'आप मेरी यानशालामें आ कर ठहरें; जिससे वैध, औषध और पथ्यादिके यथाप्रयोग द्वारा मैं कण्डरीककी परिचर्या कर सकूं ।' गुरुने स्वीकार किया । वे यानशाला में जा कर ठहरे । राजाने परिचर्या करानी शुरू की । रूक्षता के कारण वह रोग हुआ था इसलिये स्निग्धवस्तुओंके प्रयोग द्वारा उसकी प्रतिक्रिया प्रारंभ की गई । लक्षपाकादिकसे अभ्यंग कराया
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