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कहे कलापूर्णसूरि-३
- पं. मुक्तिचन्द्रविजय गणि - पं. मुनिचन्द्रविजय गणि
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અધ્યાત્મયોગી
भक्ति है मार्ग मुक्ति का
તાર હો તાર પ્રભુ!
પૂ. આચાર્યદેવ શ્રીમદ્ વિજયકલાપૂર્ણ સૂરિશ્વરજી મહારાજ
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જય આશાદેવશ્રીનું સાહિત્ય
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SIBU
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कपआचार्यदेव श्री कलापूर्णसरीश्वरजीम
મિત્રે મન ભીતર ભગવાન
પૂજ્ય આચાર્ય દેવ શ્રી. કલાપૂર્ણ સૂરિજી મહારાજ
રિની મ.
કહ્યું, કલાપૂર્ણસૂરિએ
હનું
Akતી માં વાચક ચિત મ િમી સાવલા
નર્ણસરિજી
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कहे कलापूर्णसूरि-३
(अध्यात्मयोगी पू. आचार्यश्री की साधनापूत वाणी) (दिनांक : १९-७-२०००, बुधवार से १७-९-२०००, रविवार)
वाचना
पूज्य आचार्यश्री विजयकलापूर्णसूरीश्वरजी म.सा.
प्रेरणा पूज्य आचार्यश्री विजयकलाप्रभसूरीश्वरजी म.सा. पू.पं.श्री कल्पतरुविजयजी गणिवर
- आलंबन पूज्यश्री के गुरुमंदिर की प्रतिष्ठा
वि.सं. २०६२, फाल्गुन वद ६, दि. १९-०२-२००६, रविवार, शंखेश्वर महातीर्थ
- अवतरण - सम्पादन पंन्यास मुक्तिचन्द्रविजय गणि पंन्यास मुनि द्रविजय गणि
अनुवादक नैनमल सुराणा : M.A., B.Ed., साहित्यरत्न
प्रकाशक श्री कलापूर्णसूरि साधना स्मारक ट्रस्ट आगम मंदिर के पीछे, पो. शंखेश्वर, जि. पाटण ( उ.गु.), पीन : ३८४ २४६.
श्री शान्ति जिन आराधक मंडल 2.0. मनफरा (शान्तिनिकेतन), ता. भचाऊ,, जी. कच्छ, Pin : 370 140.
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पुस्तक : 191772
कहे कलापूर्णसूरि-३ (पू. आचार्यश्री की साधना-पूत वाणी) हिन्दी प्रथम आवृत्ति : वि.सं. २०६२, ई.स. २००। अवतरण-संपादन : पंन्यास मुक्तिचन्द्रविजय गणि पंन्यास मुनिचन्द्रविजय गणि मूल्य : रु. १२०/प्रत : १००० संपर्क सूत्र : 8 कवरलाल एन्ड को.
२७, रघुनायकुलु स्ट्रीट, चेन्नइ - ३. 8 टीकु आर. सावला
POPULAR PLASTIC HOUSE 39, D. N. Road, Sitaram Building, 'B' Block, Near Crowford Market, MUMBAI -400 001..Ph.: (022) 23436369, 23436807,23441141 Mobile: 9821406972 SHANTILAL / CHAMPAK B. DEDHIA 20, Pankaj 'A', Plot No. 171, L.B.S. Marg, Ghatkopar (W), MUMBAI - 400086.. Ph.: (022) 25101990 B. F. JASRAJ LUNKED N. 3, Balkrishna Nagar, P.O. MANNARGUDI - 614 001 (T.N.)
Ph. (04367) 252479 मुद्रक : gelo Tejas Printers
403, Vimal Vihar Apartment, 22, Saraswati Society, Nr. Jain Merchant Society, Paldi, AHMEDABAD - 380007. . Ph. : (079) 26601045
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पुन: प्रकाशन के प्रसंग पर सुविद्यांजन-स्पर्शथी आंख ज्यारे, अविद्यानुं अंधारुं भारे विदारे; जुए ते क्षणे योगीओ ध्यान-तेजे, निजात्मा विषे श्रीपरात्मा सहेजे । ज्ञानसार १४/८ (गुर्जर पद्यानुवाद)
ज्ञानसार में इस प्रकार आते वर्णन के मुताबिक ही पूज्यश्री का जीवन था, यह सब लोग अच्छी तरह से जानते हैं । ये महायोगी अपने हृदय में भगवान को देखते थे, जब कि लोग उनमें भगवान को देखते थे ।
ऐसे सिद्धयोगी की वाणी सुनने-पढने के लिए लोग लालायित हों यह स्वाभाविक है ।
पूज्यश्री की उपस्थिति में ही 'कहे कलापूर्णसूरि' गुजराती पुस्तक के चारों भाग प्रकाशित हो चुके थे, जिज्ञासु आराधक लोग द्वारा अप्रतिम प्रशंसा भी पाये हुए थे । विगत बहुत समय से आराधकों की ओर से इन पुस्तकों की बहुत डीमांड थी, किन्तु प्रतियां खतम हो जाने पर हम उस डीमांड को सन्तुष्ट नहीं कर सकते थे । हिन्दी प्रथम भाग प्रकाशित होने पर हिन्दीभाषी लोगों की डीमांड आगे के भागों के लिए भी बहुत ही थी ।
शंखेश्वर तीर्थ में वि.सं. २०६२, फा.व. ६, दि. १९-०२२००६ को पूज्यश्री के गुरुमंदिर की प्रतिष्ठा के पावन प्रसंग के उपलक्ष में प्रस्तुत पुस्तक के चारों भाग हिन्दी और गुजराती में एकसाथ प्रकाशित हो रहे है, यह बहुत ही आनंदप्रद घटना है । इस ग्रंथ के पुनः प्रकाशन के मुख्य प्रेरक परम शासन प्रभावक वर्तमान समुदाय-नायक पूज्य आचार्यदेव श्रीमद् विजयकलाप्रभसूरीश्वरजी म.सा., विद्वद्वर्य पू. पंन्यासप्रवरश्री कल्पतरुविजयजी गणिवर एवं प्रवक्ता पू. पंन्यासप्रवरश्री कीर्तिचन्द्रविजयजी गणिवर आदि को हम वंदन करते है ।
इन ग्रंथों का बहुत ही प्रयत्नपूर्वक अवतरण-संपादन व पुनः
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संपादन करनेवाले पू. पंन्यासजी श्री मुक्तिचन्द्रविजयजी गणिवर एवं पू. पंन्यासजी श्री मुनिचन्द्रविजयजी गणिवर का हम बहुत-बहुत आभार मानते हैं ।
१ से ३ भाग तक हिन्दी-अनुवाद करनेवाले श्रीयुत नैनमलजी सुराणा और चौथे भाग का हिन्दी अनुवाद करनेवाले पू. मुनिश्री मुक्तिश्रमणविजयजी म. के हम बहुत-बहुत आभारी हैं ।
दिवंगत पू. मुनिवर्यश्री मुक्तानंदविजयजी का भी इसमें अपूर्व सहयोग रहा है, जिसे याद करते हम गद्गद् बन रहे हैं ।
इसके प्रूफ-रीडिंग में २६९ वर्धमान तप की ओली के तपस्वी पू.सा. हंसकीर्तिश्रीजी के शिष्या पू.सा. हंसबोधिश्रीजी का तथा हमारे मनफरा गांव के ही रत्न पू.सा. सुवर्णरेखाश्रीजी के शिष्या पू.सा. सम्यग्दर्शनाश्रीजी के शिष्या पू.सा. स्मितदर्शनाश्रीजी का सहयोग मिला है। हम उनके चरणों में वंदन करते है।
आज तक मनफरा में से ऐसे अनेक व्यक्ति दीक्षित बने हैं, जिनके पुण्य से ही मानो भूकंप के बाद हमारा पूरा गांव शान्तिनिकेतन के रूप में अद्वितीय रूप से बना है। एक ही संकुल में एक समान ६०० जैन बंगले हो - ऐसा शायद पूरे विश्व में यही एक उदाहरण होगा । लोकार्पण विधि के बाद उसी वर्ष वागड समुदाय नायक पूज्य आचार्यश्री का चातुर्मास होना भी सौभाग्य की निशानी है।
हिन्दी प्रकाशन में आर्थिक सहयोग देनेवाले फलोदी चातुर्माससमिति एवं फलोदी निवासी (अभी चेन्नइ) कवरलाल चेरीटेबल ट्रस्ट व चेन्नइ के अन्य दाताओं को विशेषतः अभिनंदन देते हैं ।
श्रीयुत धनजीभाइ गेलाभाइ गाला परिवार (लाकडीया) द्वारा निर्मित गुरु-मंदिर की प्रतिष्ठा के पावन प्रसंग के उपलक्ष में प्रकाशित होते इन ग्रंथरत्नों को पाठकों के कर-कमल में रखते हम अत्यंत हर्ष का अनुभव करते हैं ।
अत्यंत सावधानीपूर्वक चारों भागों को हिन्दी-गुजराती में मुद्रित कर देनेवाले तेजस प्रिन्टर्स वाले तेजस हसमुखभाइ शाह (अमदावाद) को भी कैसे भूल सकते हैं ?
प्रकाशक
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प्रकाशकीय... (गुजराती आवृत्ति में से)
अनन्तानन्त सिद्धों की पुन्य धरा पालीताना में कच्छ-वागड़ देशोद्धारक, परम श्रद्धेय अध्यात्मयोगी पूज्य आचार्यदेव श्रीमद् विजय कलापूर्णसूरीश्वरजी म.सा., मधुर भाषी नूतन आचार्य श्रीमद् कलाप्रभसूरीश्वरजी म.सा., विद्वद्वर्य पूज्य पंन्यासश्री कल्पतरुविजयजी, प्रवक्ता पू.पं. श्री कीर्त्तिचन्द्रविजयजी, पू. गणिवर्यश्री (हाल पंन्यासश्री) मुक्तिचन्द्रविजयजी, पू. गणिवर्यश्री पूर्णचन्द्रविजयजी, पू. गणिवर्यश्री मुनिचन्द्रविजयजी, पू. मुनिश्री कुमुदचन्द्रविजयजी, पू. मुनिश्री कीर्त्तिरत्नविजयजी, पू. मुनिश्री तीर्थभद्रविजयजी, पू. मुनिश्री हेमचन्द्रविजयजी, पू. मुनिश्री विमलप्रभविजयजी आदि लगभग ३० साधु भगवंत तथा ४२९ साध्वीजी भगवंतों का बीस वर्ष के पश्चात् वागड़ वीसा ओसवाल जैन संघ तथा सात चौबीसी जैन समाज दोनों की ओर से अविस्मरणीय चातुर्मास हुआ ।
चातुर्मासान्तर्गत १८ पूज्य साधु भगवंत तथा ९८ पूज्य साध्वीजी भगवंतों के बृहद् योगोद्वहन, मासक्षमण आदि तपस्याओं, जीवदया आदि के फण्ड, परमात्म-भक्ति-प्रेरक वाचना- प्रवचनों, रविवारीय सामूहिक प्रवचनों, जिन-भक्ति महोत्सवों, उपधान आदि अनेक विध सुकृतों की श्रेणि का सृजन हुआ । चातुर्मास के बाद में ९९ यात्रा, पन्द्रह दीक्षाओं (बाबूभाई, हीरेन, पृथ्वीराज, चिराग, मणिबेन, कल्पना, कंचन, चारुमति, शान्ता, विलास, चन्द्रिका, लता, शान्ता, मंजुला, भारती) तथा तीन पदवी (पूज्य गणिश्री मुक्तिचन्द्रविजयजी को पंन्यास पद, पू. तीर्थभद्रविजयजी एवं विमलप्रभविजयजी को गणि पद) आदि प्रसंग अत्यन्त शालीनतापूर्वक मनाये गये ।
इन सबमें समस्त जिज्ञासु आराधकों को सर्वाधिक आकर्षण था अध्यात्मयोगी पूज्य आचार्यश्री की वाचनाओं का । पूज्यश्री का प्रिय विषय है भक्ति । इस चातुर्मास में 'नमुत्थुणं' सूत्र की पूज्य श्रीहरिभद्रसूरि कृत 'ललित विस्तरा' नामक टीका पर वाचनाओं का आयोजन हुआ । 'ललित विस्तरा' अर्थात् जैनदर्शन का भक्ति शास्त्र ही समझ लें ।
'ललित विस्तरा' जैसा भक्ति-प्रधान ग्रन्थ हो, पूज्यश्री के समान वाचनादाता हों, पालीताना जैसा क्षेत्र हो, प्रभु-प्रेमी साधु-साध्वीजी
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के समान श्रोतागण हों, फिर बाकी क्या रहे ?
इन वाचनाओं में पूज्यश्री का हृदय पूर्णतः खुला था ।
वाचनाओं की इस वृष्टि में सराबोर होकर अनेक आत्माओं ने परम प्रसन्नता का अनुभव किया था ।
अधिक आनन्द की बात तो यह है कि यह वृष्टि तात्कालिक अवतरण के द्वारा नोट के रूप में डेम में संगृहीत होती रही ।
हमारे ही गांव के रत्न पूज्य पंन्यासश्री मुक्तिचन्द्रविजयजी गणिवर तथा पूज्य गणिवर्यश्री मुनिचन्द्रविजयजी के द्वारा इन वाचनाओं का अवतरण हुआ है, जो अत्यन्त ही हर्ष की बात है ।
इस पुस्तक की त्वरित गति से प्रेस कोपी कर देने वाले पू. साध्वीजी कुमुदश्रीजी की शिष्या पू.सा. कल्पज्ञाश्रीजी के शिष्या पू.सा. कल्पनंदिताश्रीजी का हम कृतज्ञतापूर्वक स्मरण करते हैं ।
पुस्तक के इस कार्य में आर्थिक सहयोग प्रदान करनेवाले भी अभिनन्दन के पात्र हैं ।
पूज्य बन्धु-युगल के द्वारा अवतरण किये गये दो पुस्तकों (कहे कलापूर्णसूरि-१, कहा कलापूर्णसूरिने-२) की तरह यह पुस्तक भी जिज्ञासुगण अवश्य पसन्द करेंगे ऐसी हम श्रद्धा रखते हैं ।
ये पुस्तक पढ़कर प्रभावित हो चुके पाठकों के पत्रों से हमारे उत्साह में निरन्तर वृद्धि होती रहती है । कितनेक जिज्ञासु गृहस्थ तो ये पुस्तक पढ़कर नवीन पुस्तक हेतु अपनी ओर से अनुदान देने के लिए तत्पर रहते हैं, जो इस पुस्तक की लोकप्रियता एवं हृदयस्पर्शिता कहती है ।।
भूकम्प-पीड़ित हमारा गांव (गुजराती आवृत्ति में से)
वि. संवत् २०५७, माघ शुक्ला -२, शुक्रवार, दि. २६-१२००१ के प्रातः ८.४५ का समय कच्छ-गुजरात के लिये अत्यन्त भयावह सिद्ध हुआ । केवल ढाई-तीन मिनट में ही सैंकडों गांव धराशायी हो गये । हजारों मनुष्य खंडहरों के नीचे दबकर 'बचाओ, बचाओ' की चीख मचाने लगे । अन्य अनेक व्यक्तियों को तो
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4 चीख-पुकार मचाने का भी अवसर नहीं मिला । वे तो भारी छतों,
पत्थरों आदि के नीचे दबकर तत्क्षण मौत के करालगाल में समा गये ।
८.१ रिक्टर स्केल के ऐसे भयंकर भूकम्प से अखिल विश्व हचमचा उठा (भारतीय भूस्तरशास्त्रियों के अनुसार यह भूकम्प ६.९ रिक्टर स्केल का था, जबकि अमेरिकन भूस्तरशास्त्री उसे ७.९ अथवा ८.१ का कहते थे । भारतीय भूस्तरशास्त्रियों ने उसका केन्द्र बिन्दु कच्छ-भुज के उत्तर में लोडाई-धंग के पास बताया है, जबकि अमेरिकन भूस्तरशास्त्रियों ने खोज करके कच्छ के भचाऊ तालुका में बंधडी-चोबारी के निकट कहीं केन्द्र बिन्दु होने का कहा है। नुकसान यदि देखा जाये तो अमेरिकन भूस्तरशास्त्री सही प्रतीत होते हैं ।)
भूकम्प का केन्द्र-बिन्दु हमारे गांव 'मनफरा' के निकट ही होने से अनेक गांवों के साथ हमारा गांव भी पूर्णतः ध्वस्त हो गया ।
भचाऊ, अंजार, रापर और भुज - इन चार नगरों के साथ चारों तालुकों में अपार हानि हुई । हजारों मनुष्य जीवित गड़ गये। किसी कवि ने कहा हैं कि 'जीवन का मार्ग मात्र घर से कब्र तक का है ।' परन्तु यहां तो घर ही कब्र बन गये थे । जो छत एवं छपरे आज तक रक्षक बने रहे, वे ही आज भक्षक बन गये थे । 'जे पोषतुं ते मारतुं, एवो दीसे क्रम कुदरती' कलापी की यह पंक्ति कितनी यथार्थ है ?
अनेक गांवों के साथ हमारा 'मनफरा' गांव भी धराशायी हो चुका था । जिनालय, उपाश्रय आदि धर्म-स्थानों सहित लगभग समस्त मकान धराशायी हो गये । हमारा गांव विक्रम की सत्रहवी (वि.सं. १६०७) शताब्दी के प्रारम्भ में ही बसा हुआ है । उस समय की खड़ी गांव के मध्य की जागीर भी पूर्णतः ध्वस्त हो गई जिसके सम्बन्ध में किसी विशेषज्ञ इन्जीनियरने कहा था कि अभी भी कम से कम दो सौ वर्षों तक इस जागीर का कुछ नहीं बिगड़ेगा।
गांव की शोभा के रूप में निर्मित देवविमान तुल्य सुन्दर
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त्याचEGGGLELLLLLL
चचचचचचचचमाजजजजजजज544555
३४ वर्ष पुराना तीर्थ के समान जिनालय भी पत्थरों के ढेर के रूप में परिवर्तित हो गया । मनफरा के ४५० वर्ष के इतिहास में गांव की पूर्णरूपेण ध्वस्तता तो प्रथम बार ही हुई । यद्यपि धरती- कम्प का प्रदेश होने से कच्छ में प्रायः धरतीकम्प होते ही रहते हैं। ऐसा ही भारी भूकम्प सन् १८१९ की १९वी जून को आया था, जिसके कारण सिन्धु नदी का प्रवाह कच्छ में आना सदा के लिए बंध हो गया । कच्छ सदा के लिए वीरान बन गया । 'कच्छड़ो बारे मास' की उक्ति केवल उक्ति ही रह गई । वास्तविकता सर्वथा विपरीत हो गई । उस धरतीकम्प से पश्चिम कच्छ में अधिक हानि हुई होगी, पूर्व कच्छ (वागड़) बच गया होगा, ऐसा ४५० वर्ष पुरानी जागीर एवं ८०० वर्ष प्राचीन भद्रेश्वर के जिनालय को देखने से प्रतीत होता है। उससे पूर्व वि. संवत् १२५६ में भयंकर भूकम्प आया था, जिसके कारण नारायण सरोवर का मीठा पानी खारा हो गया था ।
हजार वर्षों में दो-तीन बार आते एसे भूकम्पों से पहले की अपेक्षा भी इस बार अत्यन्त ही विनाश हुआ है, क्योंकि अधिक मंजिलो युक्त मकानों के निर्माण के पश्चात् ऐसा हृदय-विदारक भूकम्प भारत में शायद प्रथमबार आया है ।
कच्छ के बाद विश्वभर में इण्डोनेशिया, चीन, जापान, अफघानिस्तान, अमेरिका, असम आदि स्थानों पर श्रेणिबद्ध आये भूकम्प के झटकों ने विश्वभर के लोगों को भूकम्प के सम्बन्ध में सोचने को विवश कर दिये हैं।
डेढ़-दो हजार की जनसंख्या वाले छोटे से मनफरा गांव में भूकम्प से मारे गये लगभग १९० मनुष्यों में ६० तो जैन थे । घायल हो चुके तो अलग ।
दो-पांच हजार वर्ष पहले के प्राचीन मन्दिर क्यों आज नहीं दिखाई देते ? नदी क्यों लुप्त हो जाती हैं ? नगर क्यों ध्वस्त हो जाते हैं ? नदियों के प्रवाह क्यों बदल जाते हैं ? लोग क्यों स्थान बदल देते हैं ? 'मोंए जो डेरो' जैसे टीबे क्यों बन गये? ऐसे अनेक प्रश्नों का उत्तर भूकम्प है ।
आदमी के लिए बड़ा गिना जानेवाला यह भूकम्प प्रकृति
चाचाचाचाचाचाचचचचचाचाचाचाचाLLLLLLLLLLLLLLLEELHI
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के लिए सर्वथा छोटा सा तिनके जैसा कार्य भी हो ! प्रकृति में तो ऐसे परिवर्तन होते ही रहते हैं ।
धार्मिक दृष्टि से सोचें तो इसमें से अनित्यता का बोधपाठ मिलता हैं - ममता के ताने-बाने तोड़ने का अवसर मिलता है
और घर में से मुझे बाहर निकालने वाला तू कौन है ? एसा कहने वाले व्यक्ति को भूकम्प का एक ही झटका बाहर निकाल देता है । क्या यह कम बात है ?
ममता को दूर करने के लिए, अनित्यता को आत्मसात् करने के लिए इससे अधिक अन्य कौनसा प्रसंग हो सकता है ?
सम्पूर्ण विश्व को एक तंतु से जोड़ देने में निमित्त बननेवाला ऐसा अन्य कौनसा प्रसंग हो सकता है ?
भूकम्प के बाद गुजरात-भारत सहित सम्पूर्ण विश्व में से सहायता का प्रवाह चला, उससे ज्ञात होता हैं कि आज भी मानवता नष्ट नहीं हुई । आज भी मनुष्य के हृदय में करुणा धड़कती है ।
अकाल, आंधी-तूफान एवं भूकम्प के प्रहारों से जर्जर बनने के बजाय खुमारी के साथ चलती कच्छी प्रजा को देखकर किसी को भी लगे कि ऐसी खुमारी होगी तो बर्बाद हो चुका कच्छ अल्प समय में ही बैठा हो जायेगा ।
कच्छी 'माडू' इस बर्बादी को खुमारी में, इस अभिशाप को वरदान में बदल सके ऐसे सत्त्व के रूप में अडिग खड़ा है ।
'नवसर्जन के पूर्व विध्वंस भी कभी कभी आवश्यक होता है ।' ऐसा किसी ने कहा है जो याद रखने योग्य है ।
शारीरिक, आर्थिक, धार्मिक, सामाजिक सभी दृष्टियों से बर्बाद हो चुके मनुष्य को आज बैठा करने की आवश्यकता है, उसके अन्तर में भगवान एवं जीवन के प्रति भक्ति एवं कृतज्ञता उत्पन्न करने की आवश्यकता है । मानसिक रूप से भग्न हुए मनुष्यों के सन्तप्त हृदय में ऐसी पुस्तकें अवश्य ही आश्वासन के अमृत
का सिंचन करेंगी।
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पालीताना चातुर्मास में तपस्याएं ccco ५१ उपवास :
साध्वीजी श्री हेमकीर्तिश्रीजी म. २. पुनशीभाई मेकण सावला (मनफरा)
३६ उपवास : साध्वीजी श्री हंसध्वनिश्रीजी म. साध्वीजी श्री इन्द्रवंदिताश्रीजी म. साध्वीजी श्री निर्मलदर्शनाश्रीजी म. साध्वीजी श्री अभयरत्नाश्रीजी म. साध्वीजी श्री अर्हद्रत्नाश्रीजी म. साध्वीजी श्री पुन्यराशिश्रीजी म.
M635
मासक्षमण (३० उपवास) :
मुनिश्री अमितयशविजयजी म. २. साध्वीजी श्री दिव्यरत्नाश्रीजी म.
साध्वीजी श्री चारुभक्तिश्रीजी म.
साध्वीजी श्री श्रेयोज्ञाश्रीजी म. ५. साध्वीजी श्री संवेगप्रज्ञाश्रीजी म. ६. साध्वीजी श्री सुरभिगुणाश्रीजी म. ७. साध्वीजी श्री भव्यगिराश्रीजी म. ८. साध्वीजी श्री चारुस्तुतिश्रीजी म. ९. साध्वीजी श्री विरतिकपाश्रीजी म. १०. साध्वीजी श्री वीरांगप्रियाश्रीजी म. ११. साध्वीजी श्री जिनकरुणाश्रीजी म. १२. साध्वीजी श्री जयकृपाश्रीजी म. १३. साध्वीजी श्री चारुक्षमाश्रीजी म. १४. साध्वीजी श्री चारुप्रसन्नताश्रीजी म. १५. साध्वीजी श्री अमीझरणाश्रीजी म. १६. साध्वीजी श्री शासनरसाश्रीजी म. १७. साध्वीजी श्री हंसकीर्तिश्रीजी म. की शिष्या
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१८. साध्वीजी श्री विनयनिधिश्रीजी म. १९. साध्वीजी श्री प्रशान्तशीला श्रीजी म. २०. कान्तिलालजी हजारीमलजी (मद्रास) २१. हीराचंदजी चुनीलाल
२२. वेलजी भचु चरला (आधोई) २३. लीलाबेन वैद (मद्रास)
२४. बीजलबेन जयंतीलाल (अहमदाबाद) २५. चंपाबेन धीरजलाल दोशी
२६. रतनबेन जसवंतराय
२७. विमलाबेन छगनलाल (बैंगलोर) २८. भावनाबेन घमंडीमलजी
२९. शान्ताबेन ठाकरशी डुंगाणी (बकुत्रा)
१.
२.
३.
१७ उपवास :
साध्वीजी श्री भक्तिपूर्णाश्रीजी म.
१.
१६ उपवास :
मुनिश्री अजितवीर्यविजयजी म.
भद्र तप :
साध्वीजी श्री पुष्पदंताश्रीजी म. साध्वीजी श्री सौम्यपूर्णाश्रीजी म. साध्वीजी श्री स्मितपूर्णाश्रीजी म.
सिद्धि तप :
१. साध्वीजी श्री चारुविनीताश्रीजी म.
२.
३.
साध्वीजी श्री मुक्तिनिलयाश्रीजी म. साध्वीजी श्री हितवर्धनाश्रीजी म.
चत्तारि अट्ठ :
साध्वीजी श्री प्रियदर्शनाश्रीजी म.
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यह अवसर बार बार आये (गुजराती आवृत्ति में से)
पू. आचार्यश्री जिनचन्द्रसागरसूरिजी म.सा. - पू. आचार्यश्री हेमचन्द्रसागरसूरिजी म.सा.
अध्यात्मलक्षी
पू. आचार्यदेव श्री कलापूर्णसूरि म. के प्रति 1वैसे भी पहले से आकर्षण था ही क्योंकि
परम तारणहार पूज्य गुरुदेवश्री (पं. श्री अभयसागरजी म.) के ये अत्यन्त ही निकट के सम्बन्धी, साधक, नवकार महामंत्र के परम आसक, उपासक एवं चाहक हैं । अतः यह चातुर्मास पालीताना में करना सुनिश्चित हुआ तबसे ही आनन्द एवं गलगली प्रारम्भ हो गई थी
और आज तो वह आनन्द हृदय के चारों किनारों पर लहरा रहा है। क्योंकि, गत चातुर्मास में पूज्यश्री की अत्यन्त ही सुन्दर निकटता का आनन्द लिया. जीवन में सर्व प्रथम बार ही पूज्यश्री का सम्पर्क हुआ, परन्तु ठोस हुआ । जब जब भी पूज्यश्री की वाचना में गया, मेरे परम तारणहार पूज्य गुरुदेवश्री के स्मरण में तन्मय हुआ हूं ।। पूज्य गुरुदेवश्री के जीवन में तीन तत्त्व स्पष्टतः दृष्टिगोचर होते थे - (१) श्री नवकार महामंत्र की साधना । (२) साधु सामाचारी (व्यवहार धर्म की चुस्तता) की आराधना (३) जिन-भक्ति की उपासना पूज्यश्री की निश्रा में कभी भी कोई सामूहिक आयोजन हो चाहे वह व्याख्यान का वाचना का विशेष बैठक का हो
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Calam
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पूज्यश्री १२ नवकार गिनने की उद्घोषणा अवश्य करते और उस समय उपस्थित सब मैत्रीभाव के मण्डप के नीचे बारह नवकार गिनने लग जाते । मैत्रीभाव से वासित हृदय से गिने जाते इन श्री नवकार महामन्त्र के प्रभाव से ही सम्पूर्ण चातुर्मास एकता एवं एकसंपितामय व्यतीत हुआ, ऐसा प्रमाण युक्त अनुमान लगाया जा सकता है । श्री नमस्कार महामंत्र के प्रति पूज्यश्री का विशेष लगाव बना रहता है, जिसका उदाहरण ये है कि पूज्यश्री के वासक्षेप के लिए लम्बी कतार के रूप में जनता उमड़ पडती है परन्तु पूज्यश्री ने नियम बना लिया हैं कि, 'जो नित्य पांच बंधी नवकारवाली गिनेंगे उन्हें ही वासक्षेप डालेंगे', अतः श्री नवकार का जाप करनेवाला अत्यन्त बड़ा वर्ग तैयार हो गया है । विश्वशान्ति के लिए यह कितना बड़ा परिबल गिना जा सके !
और श्री नमस्कार महामंत्र से सम्बन्धित वाचना में भी जब-तब आलम्बन एवं प्रेरक उपदेश देते देखा है। सामाचारी के सम्बन्ध में भी पूज्यश्री को जब-जब अवसर मिलता तब-तब उसका पक्षपात किये बिना नहीं रहते थे । सामाचारी स्वरूप व्यवहार धर्म पर ही बनाया निश्चय धर्म टिक सकता है । यह बात वे बार-बार दोहराते, इतना ही नहीं, प्लास्टिक के घड़े या प्लास्टिक के पातरों आदि के द्वारा सामाचारी में प्रविष्ट विकृति के प्रति कभी-कभी जोरदार कटाक्ष करते हुए सुना है । मुझे अच्छी तरह ध्यान है कि एक बार तो दोनों हाथों में दो घड़े लेकर पानी लाने की विकृत प्रथा को आक्रमक रूप में निकृष्ट बताई थी । इतना ही नहीं; अनेक व्यक्तियों को ऐसा नहीं करने की प्रतिज्ञा भी दी थी। पंचाचारमय साधु-सामाचारी को सुरक्षित रखकर ही अन्य प्रवृत्तियों को महत्त्व देने के प्रति पूज्यश्री बार बार प्रेरित करते थे।
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जिन-भक्ति तो मानो पूज्यश्री का जीवन पर्याय बन गया हो ऐसा प्रतीत होता है । परमात्म-तत्त्व जड़ की तरह निरा निष्क्रिय तत्त्व नहीं है । वे वीतराग तो हैं ही, परन्तु साथ ही साथ करुणा-रहित है, ऐसा नहीं है। करुणावान् एवं कृपालु भी इतने ही हैं
और इसलिए सक्रिय हैं - इस बात को पौनः पुन्य से चूंटते अपने जीवन की घटती प्रत्येक घटमाल में परमात्मा की सक्रियता निहित है । जिस प्रकार पुत्र की प्रत्येक गति-विधि में मां का हस्तक्षेप है इस प्रकार अपने जीवन में परमात्मा का अस्तित्व है । नाम - स्थापना - द्रव्य - भाव के रूप में परमात्मा सदा विद्यमान हैं। 'नाम ग्रहंता आवी मिले, मन भीतर भगवान' यह पूज्यश्री का मनमाना विशेष नारा गिना जाता है । नाम के रूप में परमात्मा आज भी विद्यमान हैं। परमात्मा का नाम स्वयं मन्त्र-तुल्य है । आपकी कोई भी समस्या परमात्मा के नाम से निर्मूल हो सकती है। पूज्यश्री की वाचना में प्रतिदिन यह बात तो आये आये और आये ही। अतः जिस वस्तु का हमें हमारे पूज्य तारणहार गुरुदेवश्री के जीवन में निरन्तर अनुभव होता था वह बात यहां भी मिलती होने से अधिक आकर्षण होता था । इसके अतिरिक्त भी पूज्यश्री की वाचना में अनेक केन्द्रीभूत तत्त्व थे। वाचना के आरम्भ बिन्दु में स्वयं परमात्मा, गणधर भगवन् और उनकी परम्परा को । आज तक लाने वाले आचार्य देव आदि पूज्य तत्त्वों का स्मरण नित्य रहता था । , अतः अपनी बात का अनुसन्धान स्वयं परमात्मा हैं यह बात
वे 'डायरेक्टली' अथवा 'इन्डायरेक्टली' पुष्ट करते थे । वाचना में नई-नई अनुप्रेक्षा की स्फुरणा जब स्फुट होती तब मान-कषाय का तनिक भी आंटा देखने को नहीं मिलता था प्रभुने कृपा करके मुझे यह सुझाया,
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इस तरह बताया यह कहकर स्वयं को परमात्मा से सतत अनुगृहीत प्रदर्शित करते । पूज्यश्री की वाचना की सर्वाधिक ध्यानाकर्षक बात यह देखने को मिलती कि कोई भी बात बिना प्रमाण के नहीं रखते । श्री भगवतीजी, श्री पन्नवणाजी, श्री ज्ञानसार, श्री योगसार, श्री अध्यात्मसार की या भक्तामर, कल्याणमन्दिर की पंक्तिया देकर ही सन्तोष मानते... इससे भी विशेष बात यह रहती कि संस्कृत-प्राकृत के पाठों को गुजराती भाषा के स्तवनों आदिमें से भी प्रस्तुत किये बिना नहीं रहते थे । इसके लिए श्री देवचन्द्रजी म., श्री आनंदघनजी म., श्री यशोविजयजी म. की रचनाएं पूज्यश्री को विशेष पसन्द थी ।। इसके अतिरिक्त जिस ग्रन्थ की वाचना देते उस ग्रन्थ के स्वयिता के प्रति पूज्यश्री भारी बहुमान एवं आदर बारबार व्यक्त करते थे । उसके पीछे पूज्यश्री की मान्यता थी कि उससे अपना क्षयोपशम बढ़ता है । वाचना में पूज्यश्री की दृष्टि अत्यन्त ही विचक्षण रहती और वाणी जल के प्रवाह की तरह सरल एवं सरस बहती... हमें यही लगता कि बस मानो बहते रहें, बहते ही रहें । पूज्यश्री की वाचना को शब्दस्थ एवं पुस्तकस्थ करने का कार्य करनेवाले आत्मीय मित्र पंन्यास श्री मुक्तिचन्द्रविजयजी म. पंन्यासश्री मुनिचन्द्रविजयजी म. का बहुत-बहुत आभार... खंत एवं घोर श्रममय इस कार्य को करते हए दोनों मित्रों को आंखों से देखा है एक पत्रकार की अपेक्षा भी अधिक तीव्रता से लिखना
और उसके बाद तुरन्त उसका संमार्जन एवं 'प्रेस कोपी' करानी यह
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कितनी स्फूर्ति, ताजगी एवं अप्रमत्तता का कार्य है, यह तो देखनेवाले को ही ध्यान आता है... ऐसे साहित्य प्रकाशन के कारण दोनों मित्र धन्यवाद के पात्र हैं । यह बताकर मैं एक मित्र की अदा से उन दोनों को बिना मांगी सलाह करने की चेष्टा करना रोक नहीं सकता कि पुस्तक का नाम 'कहे कलापूर्णसूरि' के बजाय 'बहे कलापूर्णसूरि' अधिक संगत लगता । कहने और 'बहने' के बीच बहुत अन्तर है । कहने में तन्मयता / निमग्नता आवश्यक नहीं है, बहने में दोनों अनिवार्य हैं । पूज्यश्री की वाचना में 'कथन' की अपेक्षा 'वहन' का अनुभव विशेष है । काश ! मेरा सुझाव सफल हो । मुझे प्रस्तावना लिखने का अवसर दिया गया तब मैं प्रसन्न हुआ, हर्षित हुआ । इससे मेरा वाचना-श्रवण सानुबन्ध बना । यह उपकार किया पंन्यास-बन्धुओं ने... अन्त में उपकृत, कृत-कृत्य बनकर मैं इतना ही कहूंगा... कि 'यह अवसर बार बार आये ।'
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प्रीतम छवि नैनन बसी (गुजराती आवृत्ति में से)।
पूज्यपाद, अध्यात्मयोगी आचार्य भगवंत श्रीमद् विजय कलापूर्णसूरीश्वरजी महाराज साहिब को श्रवण करते समय सुनने का कम, देखने का अधिक होता है । 'परमात्मा ये रहे' कहते समय उनका हाथ हवा में अद्धर हिलता है तब देखने में भी मधुर असमंजस यह होता है कि आप उनकी उस अंग-भंगिमा को देखें, मुंह पर छाये स्मित को देखें या दो नैनों को देखें, हम अपनी आंखों को कहां केन्द्रित करें ?
सद्गुरु के नैन... जहां झलकता है, परमात्मा के प्रति अगाध आदर । कवि रहीम का स्मरण हो आता है - 'प्रीतम छवि नैनन बसी, पर छवि कहां समाय ।' आंखों में परमात्मा ही छा गये हैं, वहां अन्य क्या समा सकता है ? अन्य की छवि कैसे प्रकट हो सकती है ?
और सद्गुरु की यह मोहक अंग-भंगिमा, हवा में लहराताझूलता हाथ, संकेत में पेक कर के सद्गुरु क्या परम चेतना का रहस्य नहीं पकड़ाते ?
और यह निर्मल स्मित, क्वचित् मुस्कान, कभी मुक्त हास्य, परमात्मा को प्राप्त किये उसकी रस-मस्ती उभर आई है स्मित के रूप
और इसीलिए भावक असमंजस में है कि वह अपनी आंखों को केन्द्रित कहां करे ?
- यद्यपि, पता है कि सद्गुरु का सम्पूर्ण अस्तित्व ही द्वार है, जहां से परमात्मा के साथ सम्पर्क हो सकता है ।
गुरु-चेतना के द्वारा परम चेतना का स्पर्श । सद्गुरु हैं द्वार, वातायन, खिड़की । - एक द्वार की या एक खिड़की की पहचान क्या हो सकती है ? शीशम का या सेवन का लकड़ा काम में लिया हो वह खिड़की, ऐसी कोई व्याख्या नहीं हो सकती । छत के नीचे और दीवारों के मध्य हम हों तब असीम अवकाश के साथ जिसके द्वारा संबद्ध हो सकें वह खिड़की । सद्गुरु हमारे लिए एक मात्र खिड़की हैं प्रभु के साथ संबद्ध होने की; नैनों के द्वारा, अंग
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भंगिमा के द्वारा, स्मित के द्वारा, उपनिषदों के द्वारा । I 'ललित विस्तरा' तुल्य भक्ति की प्रबलतम ऊंचाई का ग्रन्थ हो और जिसकी प्रत्येक पंक्ति को अनुभवी पुरुष खोलते हों तब भावकों के लिए तो उत्सव-उत्सव हो जाये ।
परन्तु पहले कहा उस तरह साहबजी को देखने जाते हुए सुनना चूक गये व्यक्तियों के लिए और इस भक्ति पर्व को चूक गये व्यक्तियों के लिए है प्रस्तुत पुस्तक । पुस्तक के प्रत्येक पृष्ठ पर अथवा यों कहें कि उसकी प्रत्येक पंक्ति में है परम प्रिय की रसमय बातें । एक गंगा बह रही है और आप उसके तट पर बैठ कर उसके सुमधुर जल का आस्वादन कर रहे हैं। एक अनुभव । आप आचार्य भगवंत की उंगली पकड़कर प्रभु की दिशा की ओर जा रहे हैं। वैसा प्रतीत होता है... अनुभव... जो आपको सराबोर कर दे। पढ़ने का क्रम ऐसा रहेगा । दो-चार पंक्तियां अथवा एकआध पृष्ठ पढ़ा गया । अब नेत्र बंध हैं । आप उन शब्दों के द्वारा स्वयं को भरा जाता, बदलता अनुभव करते हैं। यहां पढ़ने का अल्प होगा, अनुभव करने का अधिक रहेगा ।
___ कवि मनोज खंडेरिया की काव्य-पंक्तियां हम गुनगुनाते होंगे - 'मने सद्भाग्य के शब्दो मल्या, तारे मुलक जावा ।' अन्यथा तो केवल अपने चरणों पर भरोसा रखकर चलें तो युग व्यतीत हो जायें और प्रभु का प्रदेश उतना ही दूर हो ।
प्रभु के प्रदेश की ओर ले जाने वाले सशक्त शब्दों से सभर पुस्तक आपके हाथों में है। अब आप हैं और यह पुस्तक है। मैं बीच में से बिदा लेता हूं । आप बहें इन शब्दों में, डूबें ।
- आचार्य यशोविजयसूरि
आचार्यश्री ॐकारसूरि आराधना भवन, वावपथक वाडी, दशा पोरवाल सोसायटी, अहमदाबाद.
पोष शुक्ला ५, वि. संवत् २०५७
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सम्पादकीय (गुजराती प्रथम आवृत्ति में से)
। मृत्यु के बाद तो अनेक व्यक्ति महान् बन जाते हैं या दन्तकथा रूप हो जाते हैं, परन्तु कतिपय व्यक्ति तो जीवित अवस्था में ही दन्तकथा के रूप में हो जाते हैं, वे जग-बत्तीसी पर गाये जाते
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म मानवजाति इतनी अभिमानी होती है कि वह किसी विद्यमान व्यक्ति के गुण देख नहीं सकती । हां, मृत्यु के बाद अवश्य कदर करेगी, गुणानुवाद भी अवश्य करेगी, परन्तु जीवित व्यक्ति की नहीं। मनष्यु के दो कार्य हैं - जीवित व्यक्ति की निन्दा करना और मृत व्यक्ति की प्रशंसा करना । 'मरणान्तानि वैराणि ।' (वैर मृत्यु तक ही रहता है) इसीलिए ही शायद कहा गया होगा ।
या परन्तु इसमें अपवाद है : अध्यात्मयोगी पूज्य गुरुदेव आचार्यश्री विजयकलापूर्णसूरीश्वरजी महाराज, जो स्वयं की विद्यमानता में ही दन्तकथा रूप बन गये हैं, लोगों के द्वारा अपूर्व पूज्यता प्राप्त किये हुए हैं। 4 प्रवचन-प्रभावक पूज्य आचार्यश्री विजयरत्नसुन्दरसूरीश्वरजी महाराज ने पूज्यश्री के लिए सूरत-नवसारी आदि स्थानों पर कहे गये शब्द आज भी मन में गूंज रहे हैं ।
'पूज्यश्री में पात्रता-वैभव, पुन्य-वैभव और प्रज्ञा-वैभव - इन तीनों का उत्कृष्ट रूप में सुभग समन्वय हो चुका है, जो कभी कभी ही, कुछ ही व्यक्तियों में देखने को मिलती विरल घटना है ।।
- हमारा दुर्भाग्य है कि विद्यमान व्यक्ति की हम कदर कर नहीं सकते । समकालीन व्यक्ति की कदर अत्यन्त ही कम देखने को मिलती है । उत्कृष्ट शुद्धि एवं उत्कृष्ट पुन्य के स्वामी महापुरुष हमारे बीच बैठे है जो हमारा अहोभाग्य है ।'
प्रवचन-प्रभावक पूज्य आचार्यश्री विजयहेमरत्नसूरीश्वरजी महाराज ने थाणा, मुलुण्ड आदि स्थानों पर कहा था, 'वक्तृत्व, विद्वत्ता आदि शक्ति के कारण मानव-मेदनी एकत्रित होती हो, ऐसे व्यक्ति अनेक देखे, परन्तु विशिष्ट प्रकार की वक्तृत्व शक्ति के बिना एकमात्र प्रभु-भक्ति के प्रभाव से लोगों में छा जानेवाली यही विभूति देखने को मिली।
जिनके दर्शनार्थ लोग तीन-तीन, चार-चार घंटों तक कतार
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में लगे रहें, यह प्रथम बार देखने को मिला ।'
___ श्रेणिकभाई अपने वक्तव्यों में अनेक बार कहते हैं, 'मुझे जैन धर्म में प्रवेश करानेवाले ये पूज्यश्री हैं । पूज्यश्री की निश्रा में प्रथम बार वि.सं. २०३९ में संवत्सरी प्रतिक्रमण किया । पूज्यश्री के पास नौ तत्त्वों आदि के पाठ सीखने को मिले, जो मेरे जीवन का धन्यतम अवसर था ।'
ऐसे तो अनेक अवतरण दिये जा सकते हैं जो यहां देना सम्भव नहीं है ।
निर्मल एवं निष्कपट हृदय से की जानेवाली भगवान की भक्ति का क्या प्रभाव हो सकता है ? इसका उत्तम उदाहरण पूज्यश्री हैं। पूज्यश्री सही अर्थ में परमात्मा के परम भक्त हैं, जिनकी चेतना निरन्तर परम-चेतना को मिलने के लिए तरस रही हैं, जिनके उपयोग में निरन्तर (नींद में भी) प्रभु रमण कर रहे हैं, जो सर्वत्र प्रभु को देख रहे हैं ।
आनंदघनजी, यशोविजयजी, देवचन्द्रजी या चिदानंदजी आदि प्रभु भक्त महात्माओं को तो हमने देखे नहीं हैं परन्तु ये प्रभु-भक्त महात्मा तो आज हमारे बीच हैं, यह हमारा अल्प पुन्य नहीं है।
प्रभु-भक्त कैसा होता है ? उसके लक्षण गीता में उत्तम प्रकार से बताये हैं - समस्त जीवों का अद्वेषी, मित्र, सबके प्रति करुणामय, निर्मम, निरहंकार, सुख-दुःख में समान वृत्ति वाला, जिससे लोग ऊबे नहीं और जो लोगों से ऊबे नहीं, हर्ष-शोक-भय एवं उद्वेगरहित, निरपेक्ष, पवित्र, दक्ष, उदासीन, प्रेम-घृणासे परे रहनेवाला, व्यथा-रहित, समस्त आरम्भों का परित्याग करने वाला, प्रसन्न या अप्रसन्न नहीं होने वाला, शोक या इच्छा नहीं करने वाला, शुभअशुभ कर्मों का त्यागी, मित्र या शत्रु - मान या अपमान - ठण्डी या गर्मी - तथा सुख-दुःख में समान वृत्ति रखनेवाला, संग-रहित, निन्दा या स्तुति में समान वृत्ति धारण करने वाला, मौन, चाहे जिस पदार्थ से सन्तुष्ट, घर-रहित, स्थिर बुद्धिवाला एवं भक्तिमय व्यक्ति मुझे (श्री कृष्ण को) अत्यन्त ही प्रिय लगता है ।
अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च । निर्ममो निरहंकारः, सम-सुख-दुःखः क्षमी ॥ १४ ॥
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यस्मान्नोद्विजते लोको, लोकान्नोद्विजते च यः । हर्षामर्षभयोद्वेगैः मुक्तो यः स च मे प्रियः ॥ १५ ॥ अनपेक्षः शुचिर्दक्षः उदासीनो गतव्यथः । सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्तः स मे प्रियः ॥ १६ ॥ यो न हृष्यति न द्वेष्टि, न शोचति न काङ्क्षति । शुभाऽशुभपरित्यागी, भक्तिमान् यः स मे प्रियः ॥ १७ ॥ समः शत्रौ च मित्रे च, तथा मानाऽपमानयोः । शीतोष्ण-सुख-दुःखेषु समः सङ्गविवजितः ॥ १८ ॥ तुल्यनिन्दास्तुतिौनी सन्तुष्टो येन केनचित् । अनिकेतः स्थिरमतिः भक्तिमान् मे प्रियो नरः ॥ १९ ॥ ये तु धामृतमिदं यथोक्तं पर्युपासते । श्रद्दधाना मत्परमा भक्तास्तेऽतीव मे प्रियाः ॥ २० ॥
- गीता, अध्याय - १२ भक्त के प्रायः ये सभी गुण पूज्यश्री में हमें दृष्टिगोचर होंगे।
ऐसे प्रभु-भक्त के श्रीमुख से निकले हुए उद्गार कितने महत्त्वपूर्ण होंगे? पूर्व प्रकाशित दो पुस्तकों के अभिप्रायों से इसका ध्यान आता है।
। इस पुस्तक का आमुख लिखनेवाले प्रवचन-प्रभावक, योगमार्ग के रसिक पूज्य आचार्यश्री यशोविजयसूरिजी महाराज, प्रवचनप्रभावक बन्धु युगल पूज्य आचार्यश्री जिनचन्द्रसागरसूरिजी म., पूज्य आचार्य श्री हेमचन्द्रसागरसूरिजी म. से हम अनुगृहीत हैं ।
- इन तीनों प्रकाशनों के सम्बन्ध में मूल्यवान् मार्ग-दर्शन-दाता विद्वद्वर्य पूज्य पंन्यास प्रवरश्री कल्पतरुविजयजी गणिवर के हम ऋणी हैं।
इस अवतरण-सम्पादन के कार्य में कहीं भी पूज्यश्री के आशय के विरुद्ध आलेखन हुआ हो तो मिच्छामि दुक्कडं की याचना करते हैं।
अन्य दो पुस्तकों की तरह इस पुस्तक को भी जिज्ञासु पाठकगण आन्तरिक भावना से पसन्द करेंगे और लाभान्वित होंगे ऐसी श्रद्धा रखते हैं।
- पंन्यास मुक्तिचन्द्रविजय गणि
- गणि मुनिचन्द्रविजय
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3००००
.....४०
सहायकों को धन्यवाद... ॥ श्री जैन तपागच्छ धर्मशाला, फलोदी.......... .......... ६२५
श्री फलोदी चातुर्मास-व्यवस्था समिति, फलोदी (ज्ञानद्रव्य) us कवरलाल चेरीटेबल ट्रस्ट, चेन्नई .....
............१२५ II M. M. Exporters (ह. : रमेश मुथा, चेन्नइ)..... us कलापूर्ण जैन आराधक मंडल, चेन्नइ .........
............
...५० us कोचर टेष्टाइल्स, फलोदी, चेन्नइ ............. ॥ एस. देवराजजी, चेन्नइ............. Is जतनाबाई पारसमलजी लुक्कड़....... us स्व. श्रीमती चंपाबाई __(W/o. श्री मुरलीधरजी मालू, चेन्नई - धोबीपेट, फलोदी). ४० ॐ स्व. श्रीमती पानीबाई
(W/o. श्री उदयराजजी बरड़िया, चेन्नई - टी.नगर, फलोदी)४० ॥ श्रीमान् कल्याणमलजी हीरालालजी वैद, चेन्नइ, फलोदी... ४० Is चेन्नइ - हस्तिनापुर यात्रिक संघ, चेन्नइ .............. ॥ साधर्मिक बंधु, चेन्नइ...
.............. us गिरधारीलालजी कोचर, चेन्नइ............. .............. us B. E जसराज लुक्कड़ एन्ड सन्स, मन्नारगुडी, फलोदी
(स्व. पू. आ. श्री की निश्रा में १२१ पू. साधु-साध्वीओं के साथ शत्रुजय डेम से शत्रुजय के छ'री पालक संघ (१९-५-२००० से २४-५-२०००) की स्मृति में) ........ २५
सुजानमलजी अशोककुमारजी लुक्कड़, चेन्नइ-फलोदी....... २५ ॥ संतोषजी सोनी..............
................. १२ कच्छ वागड़ देशोद्धारक अध्यात्मयोगी पू. आचार्यदेव श्रीमद् विजयकलापूर्णसूरीश्वरजी म.सा. का वि.सं. २०५७ का अंतिम चातुर्मास जन्मभूमि फलोदी में हुआ । पूज्यश्री के असीम उपकारों को हम कभी भूल नहीं सकते ।
पूज्यश्री सदा के लिए अपनी अमृतमय तत्त्व-वाणी से उपकार कर ही रहे है।
चलो, पान करें अमृत-वाणी का... इन पुस्तकों के माध्यम से ।
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વિવારીય સામ્રાવિડ UGણી - પાલીતાણા,
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શ્રીનિી દ્વાથીઢ ge=ણ Gી] ૧ = ૧@@@@@ શુ રાશિ
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પંન્યાસ-ગણિ-પુણ-પ્રદાન તથા ૧૪ દીક્ષા પ્રસંગ
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मनफरा - (कच्छ - वागड़ ) जिनालय
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జూకాల్
भूकंप के बाद पूर्णरूप से ध्वस्त उसी जिनालय की तस्वीर ।
ऐसे सैंकड़ों गांव, मंदिर आदि कच्छ - गुजरात में ध्वस्त हो गये है । भूकंप : दि. 26-1-2001, माघ सुद-२, शुक्रवार, सुबह : 8-45
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TORIA
फलोदी, वि.सं. २०१०
१९-७-२०००, बुधवार
श्रा. कृष्णा -३
खीमईबेन धर्मशाला, चंपाबेन चांपशी होल, पालीताना
* ग्रन्थ : ललित विस्तरा
प्रणम्य भुवनालोकं, महावीरं जिनोत्तमम् ।
चैत्यवन्दन-सूत्रस्य,
व्याख्येयमभिधीयते ॥ * आज जिस “ललित विस्तरा' ग्रन्थ का प्रारम्भ हो रहा है, जिसके कर्ता श्री हरिभद्रसूरिजी हैं, जिन्हें अन्य दर्शनवाले भी योगाचार्य के रूप में जानते हैं । उन्होंने यदि कलम नहीं चलाई होती तो हम योग से अनजान होते ।
'योग अथवा ध्यान जैनों का विषय नहीं हैं' ऐसे अन्यदर्शन वालों के आक्षेपों का उन्होंने ठोस उत्तर दिया है । जैन परम्परा में योग किस प्रकार बुना हुआ है यह उन्होंने समझाया ।
ध्यान और समाधि के सूचक योग (मन, वचन, काया का सूचक योग शब्द नहीं) शब्द की उन्होंने व्याख्या की -
(कहे कलापूर्णसूरि - ३0000000000000
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'मुक्खेण जोयणाओ जोगो सव्वोवि धम्मवावारो ।'
योगविंशिका
हमारे आयोजित होने वाले अनुष्ठान महान् योग हैं, क्योंकि वे मोक्ष के साथ जोड़ते हैं । 'मोक्ष के साथ जोड़ने वाले योग होते हैं ।' इस प्रकार की योग की व्याख्या से अजैन लोग भी चकित हो जाते हैं । इस व्याख्या का कौन इनकार कर सकता है ?
पतंजलि की व्याख्या ('योगश्चित्तवृत्ति निरोधः ) में शुभ वृत्ति का भी निरोध हो गया है, अतः दोष है ।
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* किसी भी शक्ति का परिमित उपयोग होना चाहिये । शक्ति नष्ट न हों । आज ऐसे अनेक वक्ता हैं जो युवावस्था में अत्यन्त ही जोश से बोले थे । वृद्धावस्था आने पर पश्चात्ताप करते हैं । योग हमें सन्तुलित जीवन सिखाता है ।
* ध्यान करने की वस्तु नहीं है । ध्यान के लिये भूमिका उत्पन्न करनी है । भूमिका तैयार होने पर ध्यान अनायास ही उत्पन्न हो जायेगा। ध्यान के लिए अलग प्रयत्न करने की अधिक आवश्यकता नहीं है । आप केवल भूमिका बनायें, चित्त को दर्पण तुल्य बनायें । प्रभु रूप चन्द्रमा स्वयं चमकेंगे ।
* चैत्यवन्दन महान् योग है, जिसमें समस्त योगों का समावेश है । इसी लिए संस्कृत आदि सिखाने से पूर्व चैत्यवन्दन आदि भाष्य सिखाये जाते हैं ।
जो व्यक्ति यह सीखे बिना ही न्याय आदि के अध्ययन में लगे उनमें से अनेक उस मूर्ख नैयायिक जैसे बने कि जो आधारता की, आधेयता की जांच करने के लिए घी का वर्त्तन ही उल्टा कर देते हैं ।
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* हंस एवं परम हंस नामक शिष्य मुनि की अकाल मृत्यु से विचलित हो गये थे । उन्हें (हरिभद्रसूरिजी को) किसी ने कहा 'आप शिष्यों की बात छोड़ दें, ग्रन्थों का सृजन करें । आपके भीतर यह शक्ति है तो उसे प्रकट करें । इसके द्वारा महान उपकार होगा । तत्पश्चात् वे ग्रन्थ-सृजन के पीछे ऐसे लग गये कि जीवन के अन्त तक पीछे मुड़कर देखा नहीं । १४४४ ग्रन्थों की रचना करके ही रुके ।
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ॐ कहे कलापूर्णसूरि - ३
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पू. हरिभद्रसूरिजी की भाषा अत्यन्त ही संक्षिप्त है । संक्षेप रुचि वाले जीवों को वह अत्यन्त पसन्द आयेगी । उनके संक्षिप्त वाक्य अत्यन्त ही गम्भीर होते हैं। किसी भी सूत्र के ऐदंपर्य अर्थ तक उनकी प्रज्ञा पहुंचती थी ।
* काल हीयमान है । बुद्धि, बल आदि कम होते प्रतीत होते हैं । पच्चीस वर्ष पूर्व घी, अनाज आदि में जो मिठास, स्वाद था वह आज है ? क्या वह बल आज है ? ऐसे पतनोन्मुख काल को ख्याल में रखकर ही महापुरुषों ने सरल कृतियों की रचना की है।
हरिभद्रसूरिजी की भी टीका कठिन लगने लगी तब मुनिचंद्रसूरिजी जैसों ने उस पर पंझिका बनाई है ।
इन ग्रन्थकारों पर भी बहुमान रखना । बहुमान होगा तो ही उनकी कृतियों का रहस्य समझ में आयेगा ।
* 'ललित विस्तरा' ग्रन्थ सर्व प्रथम बेड़ा में जब पू.पं.श्री भद्रंकरविजयजी म. के पास थे तब व्याख्यान में पढ़ा था । अत्यन्त ही आनन्द आया। उसके बाद चार-पांच बार पढ़ा । फिर तो चैत्यवन्दन पूरा न हो, ऐसा आनन्द आता है क्योंकि उसके अर्थ याद आते
स्थान (मुद्रा) योग अधिक कठिन नहीं है। कुछ प्रयत्न करोगे तो उसका अभ्यास हो जायेगा, परन्तु मन का उपयोग सूत्र में रहता है । सूत्र से वाच्य भगवान में रहता है । यह महत्त्व की बात
मन को भगवान में जोड़ना ही बड़ी बात है । ___आप अपने आप गुणों की प्राप्ति नहीं कर सकते । आपको प्रभु के साथ अनुसन्धान करना ही पड़ता है, प्रभु अनन्त गुणों के सागर हैं । उनके साथ अनुसन्धान होते ही उनके गुण हमारे भीतर आने लगते हैं । अपने शरीर में बिजली प्रविष्ट होते ही कैसा झटका लगता है ? यदि उसकी मारक-शक्ति कार्य कर सकती हो तो भगवान की तारक-शक्ति क्यों न कार्य करे ? परन्तु हमने भगवान के साथ सम्बन्ध जोड़ा नहीं है, इसीलिए तो भगवान की महिमा समझे नहीं हैं । (कहे कलापूर्णसूरि - ३ 6000000 somwww6 ३)
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ये भगवान तो दादा हैं, करुणा के सागर हैं । पिता तो थप्पड़ भी लगा दें, परन्तु 'दादा' तो पौत्र को गोद में ही बिठाते हैं । हम यहां आदिनाथ भगवान को दादा ही कहते हैं न ? ।
* ऐसे भगवान की आशातना संसार बढ़ाती है, परन्तु उनकी भक्ति संसार से पार लगाती है ।
* ऐसे भगवान को याद किये बिना, उनका चैत्यवन्दन किये बिना आप पच्चक्खाण भी पार नहीं सकते, आहार भी ग्रहण नहीं कर सकते । उन भगवान की महिमा कितनी ? परन्तु हम यह समझने के लिए कदापि तैयार नहीं हैं ।
* मैं तो यहां तक कहूंगा कि यह संसार तरने के लिए भावित किया हुआ एक श्लोक ही पर्याप्त है। हम सब की वृद्धावस्था कभी न कभी तो आयेगी ही। कभी तो यह सब भूल ही जायेंगे, तब भावित किया हुआ एक श्लोक ही काम आयेगा । इसी अर्थ में ही उपा. यशोविजयजी ने कहा है -
निर्वाणपदमप्येकं, भाव्यते यन्मुहुर्मुहुः । आप चैत्यवन्दन तो करते ही हैं, पच्चक्खाण पारते ही हैं, प्रतिक्रमण आदि क्रिया करते ही हैं, व्यवस्था ही ऐसी है कि करना ही पडता है। अब इस क्रिया में उपयोग जोड़ो तो आपका जाता है क्या ? समय तो वैसे ही जाने वाला ही है। केवल आपका उपयोग वहां जोड़ने की आवश्यकता है । हम मन को वहां क्यों नहीं जोड़ते ? क्या अधिक कष्ट होता है ? हां, वहां मन को कष्ट होता है। वहां मानसिक वीर्य की आवश्यकता पड़ती है। शारीरिक वीर्य की तरह मानसिक वीर्य भी चाहिये, तो ही सूत्रों आदि में मन लगा सकते हैं । शारीरिक व्यायाम में शारीरिक कष्ट होता है, उस प्रकार मानसिक व्यायाम में भी भिन्न प्रकार का कष्ट पड़ता है ।
* सिद्धर्षि गणि बौद्ध-दर्शन का अध्ययन करने के लिए गये थे । वहां जाकर वे विचलित हो गये ।
आज भी ऐसा होता है। विपश्यना की ११ दिनों की शिविर करके आत्मानुभूति हो जाने का दावा करने वाले कम नहीं हैं । ऐसे अनेक व्यक्ति आत्मानुभूति के भ्रम में पूजा आदि सब छोड़कर पथ-भ्रष्ट होते हैं। (४0moooooooooose
कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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* सिद्धर्षि को बुद्ध महा करुणामय प्रतीत हुए । अरिहंत केवल वीतराग प्रतीत हुए। आज भी अनेक व्यक्तियों को भगवान की वीतरागता का ख्याल है, परन्तु कारुणिकता का ख्याल नहीं है ।
अनेक व्यक्ति कहते हैं - ईसामसीह दयालू हैं । वे सबके पापों का नाश कर देते हैं ।
यह बात सर्वथा मिथ्या नहीं है, परन्तु किस प्रकार पापों का नाश होता है, यह वे समझते नहीं है । हम भी मानते है -
'एसो पंच नमुक्कारो सव्व पावप्पणासणो' हिन्दू लोग भी मानते है -
सर्व धर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज । . अहं त्वा सर्वपापेभ्यो, मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥
- गीता भगवान की शक्ति इन पापों का नाश करते है । यह सर्व प्रथम स्वीकार करना पड़ेगा, मात्र अपनी शक्ति नहीं ।
इक्कीस-इक्कीस वक्त तक बौद्ध-दर्शन की ओर आकर्षित होने वाले सिद्धर्षि को जैन-दर्शन में स्थिर करनेवाला यह 'ललित विस्तरा' है । उन्होंने स्वयं ने ही उपमिति में कहा है -
_ नमोऽस्तु हरिभद्राय, तस्मै प्रवरसूरये ।
मदर्थं निर्मिता येन, वृत्तिललितविस्तरा ॥ इस 'ललित विस्तरा' पर पंजिका के रचयिता श्री मुनिचन्द्रसूरिजी हैं । मुनिचन्द्रसूरिजी अर्थात् वादिदेवसूरि के गुरु ।
वादिदेवसूरि ने दिगम्बराचार्य कुमुदचन्द्र को पराजित किया । इसी कारण से आज गुजरात में दिगम्बर नहीं दिखाई देते। ऐसे महावादी देवसूरि को तैयार करने वाले मुनिचन्द्रसूरिजी कैसे विद्वान होंगे ?
टीकाकार कहते हैं - गणधर रचित सूत्रों के सभी अर्थ, सभी रहस्य खोलने की मेरी शक्ति नहीं है, क्योंकि भगवान की वाणी में तो अनन्त अर्थ छिपे होते हैं । बड़े-बड़े ज्ञानी भी वे अर्थ नहीं बता सकते, क्योंकि वाणी क्रमबद्ध बोली जा सकती है, आयुष्य मर्यादित होता है ।
कहे कलापूर्णसूरि - ३ Goooooooooooooas ५)
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प्रवचन फरमाते हुए पूज्यश्री
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२०-७-२०००, गुरुवार
श्रा. कृष्णा -४
सामूहिक वाचना (समस्त समुदायों के पूज्यों का आगमन)
* मोहराजा के आक्रमणों से त्रस्त संसार में भटकते हमको कैसे मार्ग मिलता यदि भगवान ने तीर्थ की स्थापना करके मार्ग नहीं बताया होता ? दवाई नहीं होती तो रोगी का क्या होता? यह शासन नहीं होता तो हमारा क्या होता ? हम सभी रोगी हैं। यह शासन उसकी औषधि है। धन्वंतरि वैद्य की अपेक्षा भी भगवान महान् वैद्य हैं, क्योंकि आन्तर रोग की औषधि धन्वंतरि वैद्य के पास भी नहीं है । इस भाव औषधि से भाव आरोग्य प्राप्त होता है ।
गणधर ऐसे आरोग्य के लिए ही भगवान के समक्ष प्रार्थना करते हैं । 'आरुग्ग बोहिलाभं'
- लोगस्स * दर्पण की इच्छा हो या न हो परन्तु वह यदि स्वच्छ हो तो प्रतिबिम्ब पड़ेगा ही । हमारा मन स्वच्छ बन जाये तो भगवान
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का प्रतिबिम्ब पड़ेगा ही । चित्त को निर्मल बनायें । भगवान आपके चित्त में प्रविष्ट होने के लिए कभी के उत्सुक हैं ।
* ऐसे शासन की तथा ऐसी सिद्धगिरि की भूमि की स्पर्शना की प्राप्ति कितना भारी पुन्योदय है ?
यह तो अनन्त सिद्धों की भूमि है । अनन्त सिद्धों की हम पर छत्रछाया है, जो निरन्तर हमें उपर खींच रहे हैं ।
शीतलता प्राप्त करने के लिए जिस प्रकार मनुष्य शीतल छाया में आते हैं, प्याऊ के समीप आते हैं, उस प्रकार हम इस तीर्थ स्थान पर आये हैं ।
यहां सभी एकत्रित हुए हैं उन सबकी एक ही भावना है - आत्म कल्याणकारी साधना करना ।
कुछ समय पूर्व समस्त महात्माओं ने विचार किया था कि सामूहिक वाचना का आयोजन क्यों न किया जाये ? उस कारण से ही यह आयोजन हुआ है । संघ को भी हमसे भारी अपेक्षा है । किसी के पास संगठन की शक्ति हो अथवा किसी के पास प्रवचन-लेखन आदि की शक्ति हो, जिसे यहां लगानी है, शासन के लिए लगानी है ।
हम सभी का कर्तव्य है कि जो मिला है वह अपनी भावी पीढी को दें । विनियोग के बिना गुण-सानुबन्ध नहीं बनता, भवान्तर में साथ नहीं चलता, ऐसा हरिभद्रसूरिजीने कहा है ।।
गृहस्थों के लिए व्याख्यान चालु है, परन्तु हमारे (साधुओं) के लिए क्या ? इसलिए इस वाचना का आयोजन हुआ है ।
यहां चातुर्मास रहे हुए लगभग सभी महात्मा एक विचार वाले हैं, परस्पर सहयोग देने वाले हैं ।
सामूहिक व्याख्यान आयोजित करने का निश्चय हुआ । विषय क्या रखा जाये ? तब मैंने कहा : सर्व प्रथम 'मैत्री' रखो, उसके बाद 'भक्ति' रखेंगे ।
परन्तु सर्व प्रथम जो कहे वह जीवन में होना चाहिये । जानकारी तो पढ़कर भी प्राप्त की जा सकती है, परन्तु जब तक वह पढ़ा हुआ हमारे जीवन में उतरा हुआ नहीं हो, तब तक व्याख्यान में कही गई बात में दम नहीं होता । अतः उसे भावित बनायें । (कहे कलापूर्णसूरि - ३0000000ooooooooooooo ७)
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चाहे जितना महान विद्वान पण्डित हो, परन्तु जब तक वह भावनाओं से भावित नहीं बनता, तब तक वह मोह के आक्रमण से बच नहीं सकता । इसीलिए भावनाओं को धर्म-वृक्ष का मूल कहा है ।
हम सब तीसरे आवश्यक के काउस्सग्ग में जो गाथा बोलते हैं - "सयणासणन्न-पाणे चेइअ जइ सिज्जकाय-उच्चारे ।
समिइ भावणा गुत्ति, वितहायरणे अ अइआरो ॥'
ज्ञानियों को हमारे प्रति परम दया है। वे सतत इच्छा करते हैं कि हम किस प्रकार निर्मल रहें ? इस गाथा में समिति के साथ भावना आई कि नहीं ?
भावना अत्यन्त गहरा शब्द है । 'शान्त सुधारस' ग्रन्थ का प्रथम श्लोक ही देखें । आपको उसकी महिमा ज्ञात होगी ।
सर्वोत्तम साधक साधु है । यदि वह आत्म-साधना नहीं करे तो अन्य कौन करेगा ? यह लक्ष्य तो होना ही चाहिये ।
इसके लिए भावना आवश्यक हैं, क्या यह लगता है ? जिस दिन भावना न भायें उस दिन अपराधी हों, ऐसा लगता है ? उपर्युक्त गाथा में आप देखते हैं - भावना नहीं भाने से अतिचार लगता है । दो-तीन वर्षों तक पू.पं. भद्रंकरविजयजी म. के पास रहने का अवसर आया । अनेक बार वे कहते - 'सम्पूर्ण आगमों को सूत्र, अर्थ तदुभय से भावित बनाने की तो शक्ति नहीं है, परन्तु एक 'नवकार' को अच्छी तरह पकड़ लूं तो भी पर्याप्त है। इसीलिए मैंने नवकार पकड़ा । उनकी बातों से समझ में आया कि हम धूमधाम में पड़ गये । यह महत्त्व की वस्तु छूट गई ।
मन स्थिर नहीं रहने से कदाचित् ध्यान नहीं हो सके, परन्तु भावना तो भा सकते हैं न ? यद्यपि ध्यान भी ध्याने की वस्तु है । इसीलिए अतिचार में हम बोलते हैं - ___ 'आर्त्त-रौद्र ध्यान ध्याया, धर्म ध्यान-शुक्ल ध्यान ध्याया नहीं'
पू. धुरन्धरविजयजी म. - व्याख्यान में धर्म-ध्यान आ ही गया न ?
पूज्यश्री - आ जाये तो बलिहारी है ! उन्हें नमस्कार, परन्तु आ जाता है, ऐसा आपको लगता है ? (८ooooomness
कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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चार भावनाओं में भी मुख्य मैत्री भावना है। शास्त्रों में यह कहां आता है, यह न पूछे । 'खामेमि सव्वजीवे ।' क्या नित्य नहीं बोलते ? क्या यह शास्त्र नहीं है ?
धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय आदि द्रव्य के रूप में एक हैं, उस प्रकार जीवास्तिकाय भी एक ही द्रव्य (जीव अनन्त होते हुए भी) है, इस तरह 'भगवती' में उल्लेख है ।
___ यहां देखें, जीवास्तिकाय में निगोद से लगा कर सिद्धों के समस्त जीवों का संग्रह हो चुका है । एक भी जीव बाकी नहीं है।
'जीवास्तिकाय अनन्त प्रदेशी है' यह पढ़कर तनिक शंका हुई कि कहीं अशुद्ध तो नहीं है ? परन्तु बाद में ध्यान आया कि 'अरे ! यह तो समस्त जीवों की बात है । समस्त जीव अनन्त हों तो उनके प्रदेश भी अनन्त ही होंगे न ? जीवास्तिकाय द्रव्य से एक, क्षेत्र से लोकव्यापी, कालसे सर्वदा सदा है और रहेगा।
पू.पं. भद्रंकरविजयजी कहते, 'उपयोगो लक्षणम्' यह स्वरूप दर्शक लक्षण है । 'परस्परोपग्रहोजीवानाम्' यह सूत्र जीव का सम्बन्ध दर्शक लक्षण है । "एक दूसरे के बिना जी नहीं सकते' यह बताने वाला यह लक्षण है । आप दूसरों को अपने समान समझते नहीं हैं, जान कर उनकी रक्षा करने का प्रयत्न करते नहीं, तब तक मोक्ष नहीं मिलेगा, भले चाहे जितना ध्यान धरो । पहले हृदय में सभी जीवों के प्रति मैत्री चाहिये ।
* आज तक भगवती का पाठ चलता था । महात्मा ने पूछा, 'अभी सामूहिक वाचना होगी तब क्या बोलना ? क्या उसकी चिन्ता नहीं है ?'
मैंने कहा, 'ये भगवान जैसा बुलवायेंगे, वैसा बोलूंगा।' (सामने ही भगवान का चित्र था, उस ओर देखकर कहा ।)
अहंकार न आये अतः भगवान को निरन्तर सामने रखें ।
* 'धर्म ध्यान, शुक्ल ध्यान न ध्याया' यह अतिचार कब लगता है ?
धर्म ध्यान, शुक्ल ध्यान ध्याने का विधान हो तब ही न? इस अतिचार के वाक्य से भी निश्चित होता है कि ध्यान दैनिक धोरण से होना चाहिये । (कहे कलापूर्णसूरि - ३ wwwwwwwwwwwwwwwwwww ९)
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* 'मुझे दीक्षा लेनी है, परन्तु उसके साथ शत्रुता है वह मैं छोड़नेवाला नहीं हूं।' यदि ऐसा कोई व्यक्ति कहे तो कृपया उसे दीक्षित न करें । जो दूसरों के साथ शत्रुता रखता है वह क्या आपके साथ नहीं रखेगा ? दीर्घकाल तक चलनेवाला एक भी जीव के साथ वैरभाव अनन्तानुबन्धीकषाय की सूचना है ।
दीक्षा ली तब सामायिक की प्रतिज्ञा ली थी । सामायिक से क्या तात्पर्य है ? समस्त जीवों के साथ उपशमभाव । इसके बिना सामायिक कैसे आयेगी? इसके बिना संयम का पालन सम्भव ही नहीं है । 'सामायिक' शब्द अनेक विशिष्ट अर्थों से परिपूर्ण है।
श्रुत - सम्यक् - चारित्र - ये तीनों सामायिक एक सामायिक शब्द से अभिव्यक्त होते हैं ।
साम, सम्म एवं सम - ये तीन प्रकार की सामायिक इसमें हैं ।
* . भगवान के साथ दो प्रकार की (एश्वर्योपासना एवं माधुर्योपासना) उपासना में भगवान के साथ जुड़ाव माधुर्योपासना से ही होता है । माता-पिता-भाई-बन्धु आदि समस्त सम्बन्धों का आरोप भगवान में करने से ही माधुर्योपासना उत्पन्न होती
* 'मैं जयणा नहीं रखू तो मेरा ही वध होगा ।' ऐसा भाव रख कर समस्त जीवों के साथ एकता रखनी है ।
'आचारांग' में उल्लेख है - 'तुमंसि नाम सच्चेव जं हंतव्वंति मन्नसि ।' 'जिसे तू मारता है वह तू ही है ।' आगे जाकर सिद्धों के साथ भी एकता रखनी है । जीवास्तिकाय पदार्थ को इस सन्दर्भ में समझना है । मात्र जानने के लिए जानना नहीं है ।
छःओं जीवनिकाय का ज्ञान न हो, उन पर करुणा उत्पन्न न हो, उनकी जयणा जीवन में न आये तब तक साधु-जीवन कैसा? इसीलिए तो 'दशवैकालिक' के चार अध्ययन (जिनमें चौथा अध्ययन छ: जीवनिकाय हैं) पढ़ने अनिवार्य हैं । इसके बिना बड़ी दीक्षा नहीं होती ।
अनन्तप्रदेशी जीवास्तिकाय में एक प्रदेश भी कम हो तब तक जीवास्तिकाय नहीं कहलाता । एक प्रदेश को भी पीड़ा होती हो तो वह अपनी ही पीड़ा समझनी है । (१०00wwwwwwwwwwwwwwwww कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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धुरन्धरविजयजी म. : 'समिइ भावणा गुत्ती' यहां मध्य में भावना कैसे घुस गई ?
उत्तर : भावना के बिना गुप्ति आ नहीं सकती यह बताने के लिए यह क्रम बताया है ।
* जयणा के बिना मुनि-जीवन नहीं होता । मक्खी मारने की न छूट सके ऐसी आदतवाले एक प्रव्रजित व्यक्ति को उत्प्रव्रजित किया गया । यह घटना बनी हुई है ।
- यदि छ: जीवनिकाय की दया न हो तो हममें और भिखारी में कोई अन्तर नहीं है ।
_ 'निर्दय हृदय छः कायमां, जे मुनि वेषे प्रवर्ते रे; गृहि-यति लिंग थी बाहिरा, ते निर्धन गति वर्ते रे...'
- उपा. यशोविजयजी म. * करण का अर्थ साधन भी होता है। व्याकरण में आता है : साधकतमं करणम् । यह अर्थ यहां नहीं लेना है, किन्तु यहां करण याने वीर्योल्लास । उस वक्त ऐसा वीर्योल्लास प्रबल होता है कि कर्मों का नाश जाये । करण अर्थात् समाधि । अपूर्व भावों से उत्पन्न इस दशा के बिना कर्म कटते नहीं हैं, ग्रन्थि का भेदन नहीं होता ।
* सात प्रकार के अध्यात्म में 'देववंदन' आदि को भी अध्यात्म माना है।
अध्यात्म और भावना में अन्तर क्या ? इन्हीं पदार्थों को पुनः पुनः भावित बनाने से भावना आती है । तत्पश्चात् ध्यान आता है। चिन्ता - भावनापूर्वकः स्थिराध्यवसायः ध्यानम् ॥
- 'ध्यान-विचार' चिन्ता में - सम्पूर्ण द्वादशांगी; चिंतनात्मक श्रुतज्ञान ।
भावना में दर्शन - चारित्र, वैराग्य, अर्थात् भावनात्मक पंचाचार का पालन ।
ये दोनों हों तो ध्यान आयेगा ही ।
ये समस्त पदार्थ आपके समक्ष रखे हैं, चिन्तन करें, भावित करें । आप सब मुझसे भी अधिक श्रेष्ठ वक्ता हैं । इस वख्त आये हैं उस प्रकार पुनः पुनः आयें ।
आचार्यश्री यशोविजयसूरिजी दस मिनट तक कुछ कहेंगे । (कहे कलापूर्णसूरि - ३00mmonsomwwwmoon ११)
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मैं तो वहां सुनने के लिए आ नहीं सकता । इस बहाने मुझे सुनने को मिलेगा ।
पू. यशोविजयसूरिजी : उपा. यशोविजयजी ने अध्यात्मोपनिषद् में जीवन को स्पर्श करने वाली एक बात कही है ' तेनात्मदर्शनाकांक्षी ज्ञानेनान्तर्मुखो भवेत् ।'
साधुता अर्थात् अन्तर्मुखता का राजमार्ग ।
श्रुतज्ञान ऐसा मिला है जो अन्तर्मुखता प्रदान करता है । * भक्तियोगाचार्य पद्मविजयजी म. कहते हैं 'आश धरीने हुं पण आव्यो, निज कर पीठ थपेटीए ।' पद्मविजयजी म. जैसे यों कहें और हम वंचित रह जायें ?
परन्तु अपनी पसन्दगी के भक्तों को भगवान किस तरह बाकी रखें ? प्रभु का स्पर्श अध्यात्म एवं भावना के पश्चात् मिलता है । उसी दिन भगवान का स्पर्श मिल गया । सायंकाल में 'आचारांग ' पढ़ते समय पढ़ा, 'कितनेक अवज्ञा में होते हैं, कितनेक आज्ञा में निरुत्साही होते हैं; परन्तु हे मुनि ! तुझे ऐसा न हो ।
यह पढ़ते-पढ़ते अश्रुधारा बह निकली, मानो भगवान ने मुझे यह उपहार भेजा ! तत्पश्चात् प्रभु ने तमाचा भी मारा । आचारांग में आगे पढ़ा 'एस अगुत्ते अणाणाए... तो तू आज्ञा से बाहर है । भगवान ऐसे दयालू हैं, जो कभी पुस्तक के रूप में या कभी अन्य रूप में कृपावृष्टि करते रहते हैं । हम भाग्यशाली हैं कि ऐसे (पू. कलापूर्णसूरिजी ) महापुरुषों की निश्रा में हमें श्रवण करने को मिलता है ।
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श्रवण करने की अपेक्षा महापुरुषों के ओरा सर्कल में रहना बड़ी बात है । वावपथक में रहता हूं, फिर भी पूज्यश्री के ओरा सर्कल में ही रहता हूं - ऐसा मुझे लगता हैं; क्योंकि साधना की ऊंचाई अधिक होती है, उस प्रकार ओरा सर्कल का वर्तुल विशाल होता है ।
पू. धुरंधरविजयजी म. 'क्या आप अकेले ही रहते हैं ?' हम सभी रहते हैं । माने उसके लिए ओरा सर्कल है । न माने वह स्वयं उस सर्कल से बाहर है ।
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आधोई, वि.सं. २०२७
२१-७-२०००, शुक्रवार
श्रा. कृष्णा -५
* भगवान की वाणी आगमों में आज भी यथावत् है । भगवान की वाणी अर्थात् टिमटिमाते दीपक ! कलिकाल के घोर अंधकार में इनके बिना चलता नहीं है ।
* भगवान में अचिन्त्य शक्ति है, वही शक्ति उनके नाम में, मूर्ति में और आगम में भी हैं ।
आगमों की वाणी अत्यन्त ऊर्जायुक्त है क्योंकि वह भगवान द्वारा कथित है ।
भगवान के प्रति अनन्य श्रद्धापूर्वक पढ़े तो उनकी शक्ति का अनुभव हुए बिना नहीं रहेगा ।
सामान्य मनुष्य की वाणी भी प्रभाव डालती है तो भगवान की वाणी क्यों न डाले ?
* हरिभद्रसूरिजी प्रारम्भ में ही अपनी अशक्ति व्यक्त करते हुए कहते हैं कि - भगवान की वाणी के सम्पूर्ण अर्थ (गम, पर्याय आदि सहित) कहने में मैं असमर्थ हूं, परन्तु जितने मुझे याद हैं उतने कहूंगा, जो मुझसे अल्प बुद्धिवाले के लिए अवश्य उपयोग में आयेंगे । अधिक बुद्धिमान् व्यक्ति को तो मेरे जैसे की आवश्यकता नहीं है । [कहे कलापूर्णसूरि - ३ 60mmoon
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* यह तो बिना शर्त के सुनने को मिलते हैं अतः इतनी संख्या में आते हैं । यदि सम्पूर्ण पाठ पक्का करने की शर्त हो तो कितने लोग आओगे ? यद्यपि मैं तो मानता हूं कि आप सबका उपकार है । इस प्रकार मुझे तो लाभ ही है । मेरा पाठ पक्का होगा । अन्यथा आज आगम सुनने वाले कितने हैं ?
* पूर्वाचार्य लिखने से पूर्व इष्टदेव, श्रुतदेवता आदि को नमस्कार करते थे तथा दुर्जन को भी याद करते थे। रत्नाकरावतारिका के मंगलाचरण के श्लोक में दुर्जनों को याद करने का कारण बताते हुए कहा है कि दुर्जन तो उपकारी हैं । ये नहीं हों तो भूल कौन निकालेंगे ?
* हरिभद्रसूरिजी यहां दो प्रयोजन बताते हैं - अनन्तर एवं
परम्पर ।
(१) अनन्तर प्रयोजन : वक्ताओं का प्रयोजन जीवों पर अनुग्रह।
श्रोताओं का प्रयोजन अर्थ - बोध । __ अपना कार्य सिद्ध होने के पश्चात् वैसे ही बैठे नहीं रहना है, दूसरों को देना है ।
दुकान में कोई ग्राहक नहीं आये तो व्यापारी विज्ञापन आदि करता है, उस प्रकार आपके पास कोई श्रोता न आयें तो क्या कोई प्रयत्न करेंगे ?
सिद्धर्षि गणि ने उपमिति में स्पष्ट लिखा है -
'मेरे जैसे बेकार व्यापारी के पास कौनसा ग्राहक माल लेने आता है। मेरे जैसे के पास आनेवाले को अपनी प्रतिष्ठा कम होती प्रतीत होती है । अतः मैंने तो लकड़ी की पेटी में उत्तम पदार्थ डाल कर वह पेटी बाजार के मध्य में रख दी है। जिसे चाहिये वह ले जाये ।।
दूसरों को समझाते हुए, 'मेरा कुछ नहीं होता, मेरे लिए कुछ करता नहीं है ।' ऐसा विचार आये तो समझें, अभी स्व-पर का भेद गया नहीं है। यहां कौन पराया है ? हम सभी एक डाल के पक्षी हैं । स्व-पर के भेद विद्यमान हैं इसका अर्थ यही है कि अपनी चेतना अभी विशाल नही बनी । (१४ as soon as soon as an ass कहे कलापूर्णसूरि - ३
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एक बार पू.पं. भद्रंकरविजयजी म. ने कहा था - 'आप 'उपयोगी लक्षणम्' पर लिखते हैं, परन्तु 'परस्परोपग्रहो जीवानाम् ।' इस पर लिखने की इच्छा क्यों नहीं होती ?' परोपकार का पदार्थ उसमें से ही मिलेगा । अच्छा आपका जन्म कब हुआ ?
मैंने कहा, 'वि. संवत् १९८० में मेरा जन्म हुआ था ।'
'तो आपका दोष नहीं है । काल ही ऐसा है। प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात् आपका जन्म हुआ है । तत्पश्चात् मनुष्यों में स्वार्थवृत्ति अत्यन्त ही बढ़ गई है। उससे पूर्व परोपकार सहज रूप में जीवन में बुना हुआ था ।' पू. पंन्यासजी ने कहा ।
जब नगीनदास करमचंद का संघ कच्छ में आया तब लोग सामने चलकर मुफ्त में घी, दूध, दहीं आदि देने आये थे ।
क्या आज ऐसी वृत्ति है ? दूध तो ठीक, आज छास भी कोई मुफ्त में नहीं देता । आज तो पानी भी बेचा जाता है ।
* (२) परम्पर प्रयोजन : श्रोता एवं वक्ता दोनों का परम्पर प्रयोजन मोश्र-प्राप्ति है।
प्रश्न : चैत्यवन्दन ही निरर्थक है। आप नमुत्थुणं बोलें, चीखो, शोर मचाओ जिससे क्या आपका मोक्ष हो जायेगा ? क्या मोक्ष इतना सस्ता है ?
उत्तर : प्रकृष्ट शुभ अध्यवसाय का कारण होने से चैत्यवन्दन व्यर्थ नहीं है । शुभ-अध्ववसाय सद्गति एवं सिद्धिगति का परम कारण है ।
इसके द्वारा ग्रन्थकार बताते हैं कि चैत्यवन्दन आदि किया शुभ भाव पूर्वक करनी चाहिये । हममें से अनेक गुरुवन्दन अथवा चैत्यवन्दन इस प्रकार करते हैं मानो बेगार निकालते हों । इस प्रकार चैत्यवन्दन सफल कैसे हो ?
शुभ अध्यवसाय पूर्वक चैत्यवन्दन करना अर्थात् कर्मों की छावनी पर 'एटम बम' रखना ।
चैत्यवन्दन से सर्व प्रथम सम्यग्दर्शन मिलता है। सम्यग्दर्शन आते ही ज्ञान सम्यग्ज्ञान बन जाता है, और चारित्र सम्यक् चारित्र बन जाता है।
दीक्षा ग्रहण करते समय रजोहरण प्रदान करने से पूर्व इसीलिए चैत्यवन्दन आदि क्रिया कराई जाती है । (कहे कलापूर्णसूरि - ३nsmommmmmmmmmmmmmms १५)
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आया हुआ मुहूर्त्त नहीं लिया जा सके, कभी विलम्ब हो जाये तो समझें दीक्षार्थी के ललाट में जो समय लिखा हुआ था वह आ गया है ।
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कभी तीन नवकार सुना कर भी दीक्षा दी जा सकती है । * दीक्षा - विधि सम्पन्न करते समय चैत्यवन्दन आदि की क्या आवश्यकता है ? ऐसे प्रश्न के उत्तर में यही कहा है कि चैत्यवन्दन आदि क्रिया शुभ भाव न हों तो उत्पन्न करती हैं । उत्पन्न हो गये हों तो स्थिर रखती है ।
प्रश्न : ऐसा किसने कहा है कि चैत्यवन्दन से शुभ भाव होते ही हैं ? कभी नहीं भी हों । विनयरत्न आदि जैसे कोई माया से भी करते हैं ।
उत्तर : यदि विधिपूर्वक चैत्यवन्दन किया जाये तो शुभ भाव उत्पन्न होते ही हैं । चैत्यवन्दन विधिपूर्वक हों इसके लिए तो यह प्रयास है, ताकि जानकार बनकर कपट- माया आदि को त्याग करे । प्रश्न : कोई लब्धि आदि के लोभ से भी चैत्यवन्दन आदि करे तो उसमें शुभ भाव कैसे आयेंगे ?
उत्तर : सूत्रों के अनुसार विधिपूर्वक आशंसा आदि दोषों से रहित होकर अच्छी तरह चैत्यवन्दन आदि क्रिया करे तो शुभ भाव आते हैं । ऐसा न करे, करना चाहे भी नहीं, वह इस चैत्यवन्दन का अधिकारी ही नहीं है ।
प्रश्न : तो फिर अधिकारी को ही यह सुनायें ।
उत्तर : हम अधिकारी को ही सुनाना चाहते हैं, अनधिकारी को नहीं, अपात्र को नहीं ।
कितनेक व्यक्ति ऐसे अपात्र होते हैं कि कोई विधि समझायें तो क्रोधित होते हैं और क्रिया ही छोड़ देते हैं । एक भाई को प्रतिक्रमण की विधि समझाई तो प्रतिक्रमण करना ही छोड़ दिया । यह अपात्रता है । ऐसा व्यक्ति इस चैत्यवन्दन सूत्र के लिए अधिकारी नहीं कहा जाता ।
* तदुपरान्त यह भी देखना है कि जो देश- विरति अथवा सर्व-विरति धर्म देते हैं उसका पालन करने में क्या वे समर्थ हैं ? कइ ऐसे भी होते हैं जो कहते हैं, 'मुझे अभिग्रह दीजिये | परन्तु पूछने पर कहते नहीं है ।' तो उन्हें नहीं दे सकते ।
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जामनगर में जिनालय में एक बहन ने मुझे कहा - 'मुझे अभिग्रह दीजिये । मैंने पूछा : 'किस बात का अभिग्रह देना है ?' _ 'यह नहीं बताऊंगी ।'
'तो मैं इतना भोला नहीं हूं कि आपको अभिग्रह दूं ।' मैंने इनकार किया ।
कोई किसी की हत्या करने का भी अभिग्रह ले ले तो भारी पड़ जाये ।
* श्रोताओं की योग्यता के लिए तीन बातें सोचनी हैं : (१) क्या उसके हृदय में बहुमान है ?
ग्रन्थ - ग्रन्थकार के प्रति बहुमान आवश्यक है । बहुमान नहीं रखने वाले व्याख्यान सुनने आयें होंगे तो वे भूलें ही निकालेंगे ।
प्राप्त कराने के नशे में चाहे जिसे देना मत । (२) विधिपरता : विधि का आदर होना चाहिये ।
(३) उचितवृत्ति : गृहस्थों की आजीविका, साधुओं की गोचरी आदि औचित्यपूर्ण होनी चाहिये । यदि औचित्यपूर्ण न हों तो योग्यता नहीं कहलायेगी ।
* 'प्रभु ! मैं मूढ़ हूं। हित-अहित जानता नहीं हूं। आपकी कृपा से हित का जानकार बनूं । अहित से बचूं । अब मैं आराधक बनूं । सबके साथ उचित व्यवहार करुं ।'
- पंचसूत्र * चाहे जैसा व्यवहार करेंगे तो भी मोक्ष मिल जायेगा, क्या यह मानते हैं ? सर्व प्रथम गुरु एवं गुरु जो बतानेवाले हैं उन शास्त्रों के प्रति बहुमान होना चाहिये; अन्यथा कोई लाभ नहीं होगा ।
अनधिकारी व्यक्ति को सिखाने में अनेक हानियां होने की सम्भावना है । अनधिकारी को विधि की बात कहेंगे तो उल्टी बात भी पकड़ सकता है । विधि होती ही नहीं है तो अब छोड़ ही दो न ? यह मानकर सब छोड़ देंगे ।
इसीलिए अयोग्य आत्माओं के लिए ज्ञानी कदापि प्रयत्न नहीं करते । अन्यथा जमालि या गोशाला जैसों की भगवानने उपेक्षा नहीं की होती ।
कहे कलापूर्णसूरि - ३0000000000000000000 १७)
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किन्हीं भी संयोगों में गुरु को न छोड़ें, गुरु के प्रति बहुमान न छोड़ें । यदि वह छूट गया तो, कदापि मोक्ष नहीं होगा । यदि आपने गुरु को छोड़ दिया तो आपको भी आपके शिष्य छोड़ देंगे, अव्यवस्था की परम्परा में आप निमित्त बनेंगे ।
* मैत्री :. दूसरों के हित का विचार । यहां स्व-हित का विचार नहीं लिखा ।
अपनी सुविधा के लिए जितना विचार आये, उतना विचार दूसरों के लिए आये, तब मैत्री उत्पन्न होती है ।
प्रमोद : दूसरों के गुणों को देख कर प्रसन्न होना । __ अपने गुणों को देखकर प्रसन्न बहुत हुए हैं, इसीलिए तो मोक्ष नहीं मिला ।
करुणा : दूसरों के दुःख पर अनुकम्पा ।
अपने दुःख पर अनुकम्पा बहुत की है । दूसरों की कब की ?
मध्यस्थता-निर्गुणों के प्रति भी तटस्थता, तिरस्कार नहीं ।
इसका अर्थ यह हुआ कि दूसरों के विचार से ही धर्म का जन्म होता है । निपट स्वार्थ-वृत्तिवाले जीव धर्म के आराधक बन नहीं सकते ।
स्नान करने के पश्चात् गृहस्थों में ताजगी आती है, उस प्रकार जिनालय में जाकर चैत्यवन्दन करने के पश्चात् ताजगी आनी चाहिये, आनन्द के उल्लास का अनुभव होना चाहिये ।
- भक्ति में उल्लास बढ़ता है, उस प्रकार आत्मानुभूति की शक्ति बढ़ती है। नित्य-नित्य उल्लास बढ़ना चाहिये । अब से उल्लास बढ़ायें ।
यह पुस्तक पढ़ने से मेरे जीवन में असंख्य लाभ हुए ।
- साध्वी दिव्यरेखाश्री
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पू. दादाश्री जीतविजयजी म.सा.
२२-७-२०००, शनिवार श्रा. कृष्णा-६
( परम पूज्य दादाश्री जीतविजयजी म.सा. की स्वर्गतिथि )
मोक्ष अर्थात् छुटकारा । संसार अर्थात् कारागार । उस कारागार में से छुड़वाने के लिए तीर्थंकर तीर्थ की स्थापना करते हैं । कारागार में से छुड़ाने वाले की अपेक्षा भी संसार के कारागार में से छुड़ाने वाला महान् उपकारी है । ऐसी बात समझ में आये तो तीर्थंकर भगवान के प्रति अनन्य भक्ति उत्पन्न हो ।
करूणता यह है कि हमें संसार जेल (कारागार) नहीं लगता, महल लगता है । हम स्वयं कैदी नहीं लगते । यदि जेल, जेल न लगे तो उसमें से छूटने का प्रयत्न कैसे हो ? भगवान हमें धीरेधीरे समझाते है आप कैदी हैं, कैद में हैं ।'
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इतना पहले समझ में आये, तत्पश्चात् ही कैदी कैद में से छूटने का प्रयत्न करता है । इस कैद में से छूटे हुए तो धन्य हैं ही छूटने के लिए प्रयत्न करने वाले भी धन्य हैं ।
आज ऐसे धन्य पुरुष की बात करनी है ।
आज पू. दादाश्री जीतविजयजी म. की ७७वी स्वर्गतिथि है ।
(कहे कलापूर्णसूरि- ३ @@@@@@@@@
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कच्छ वागड़ के मनोहर गांव मनफरा में वि. संवत् १८९९ की चैत शुक्ला-२ के शुभ दिन माता अवलबाई एवं पिता उकाभाई के घर 'जयमल्ल' का जन्म हुआ था ।
बचपन से ही माता-पिता की ओर से जयमल्ल को धर्म के संस्कार मिले थे। वागड़ में मनफरा प्रसिद्ध है। यहां भी अनेक महात्मा मनफरा के हैं । बारह वर्ष की आयु में जयमल्ल को आंखों की पीडा प्रारम्भ हुई और १६ वर्ष की आयु में वे पूर्णतः अन्धे हो गये । युवावस्था में अंधत्व का कष्ट आ जाये यह कितनी दुःखद बात है ?
जन्म से ही अन्धे को अधिक कष्ट प्रतीत नहीं होता, परन्तु देखते हों और अचानक अन्धा होना पड़े तब दुःख का पार नहीं होता । यह तो अनुभव करने वाला ही जान सकता है ।
__ जयमल्ल जैन-तत्त्वों के ज्ञाता थे । वे समझते थे कि मैं ने पूर्वजन्म में किसी की आंखे फोड़ी होंगी अथवा ऐसे शब्द कहे होंगे । इसी कारण से आज मेरी आंखे चली गई हैं । मेरे किये हुए मुझे ही भोगने पड़ेंगे ।
समस्त उपचार व्यर्थ सिद्ध होने के पश्चात् उन्होंने मनफरा में प्रतिष्ठित भगवान श्री शान्तिनाथ की शरण ली - 'प्रभु ! अनाथ का नाथ तू है । अब मैं तेरी शरण में हूं । तेरी कृपा से यदि आंखे मिल गई तो मैं तेरे मार्ग पर आऊंगा ।'
सचमुच ही चमत्कार हुआ । दृढ संकल्प से वे देखते हो गये । चमत्कार वहां नमस्कार नहीं, यह नमस्कार वहां चमत्कार था । चौथे आरे में तो नमि राजर्षि की दाह-वेदना, अनाथी मुनि की आंखों की वेदना इस प्रकार दूर हुई थी, परन्तु यह तो पांचवे आरे की घटना है ।
जिन शान्तिनाथ भगवान के समक्ष उन्होंने प्रार्थना की थी, वह प्रतिमा आज भी मनफरा में विद्यमान है । (वर्तमान में वि. संवत् २०५७ की माघ शुक्ला द्वितीया के दिन आये भयंकर भूकम्प से यह गांव पूर्णतः ध्वस्त हो चुका है। अत: यह प्रतिमा मुंबई के विलेपार्ले - पश्चिम के जिनालय में बिराजमान है । अभी वह प्रतिमा पुनः मनफरा आ चुकी है । भूकम्प में ध्वस्त हो चुके मनफरा के जिनालय का चित्र इस पुस्तक में दिया जा चुका है।) (२०nomoooooooooooooooo कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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अपनी प्रतिज्ञा सफल करने के लिए यहां पालीताना आकर चतुर्थ व्रत की प्रतिज्ञा ली ।
तत्पश्चात् गुरु की खोज करते-करते अनेक वर्ष व्यतीत हो गये । अन्त में उन्हों ने पद्मविजयजी महाराज को ढूंढ निकाले । (पद्मविजयजी नाम यति अवस्था का है । संवेगी दीक्षा ग्रहण की तब गुरु पं. मणिविजयजी ने प्रेमविजयजी नाम रखा था, परन्तु बडी उम्र में संवेगी दीक्षा ग्रहण की होने से पद्मविजयजी नाम ही प्रचलित रहा । संवेगी दीक्षा में अपने शिष्य जीतविजयजी से वे केवल एक वर्ष ही बड़े थे ।) आडीसर गांव में उनके पास वैसाख शुक्ला ३ को, वि. संवत् १९२५ में दीक्षा अंगीकार की । उस समय उनकी आयु २९ वर्ष की थी । दीक्षा के समय रायण का सूखा वृक्ष नवपल्लवित हुआ और जिस कुंए के जल से दीक्षा से पूर्व स्नान किया, उस कुंए का जल मीठा हो गया ।
__ पू. पद्मविजयजी म. प्रखर ज्योतिर्विद थे, नैमित्तिक भी थे । ऐसी घटना से उन्हें ज्ञात हो गया कि यह जयमल्ल जीतविजयजी बनकर अब महान् प्रभावक बनेगा ।
वि. संवत् १९३८ की वैसाख शुक्ला-११ के दिन यद्यपि गुरु पद्मविजयजी म. कालधर्म को प्राप्त हुए, परन्तु उनके आशीर्वाद सदा उन पर वृष्टि करते रहे । तत्पश्चात् जीतविजयजी महाराज ने मारवाड़, मेवाड़, गुजरात, कच्छ आदि स्थानों पर विचरण करके अत्यन्त ही धर्म-प्रभावना की ।
हमारा बारह वर्ष पूर्व 'वाव' में चातुर्मास था । उस समय वहां के वृद्ध पुरुष कहते - यहां दादा जीतविजयजी म. ने चातुर्मास किया है । उन्हों ने चौमासी चौदस के दिन कहा था - आप यहां शान्ति से प्रतिक्रमण करें, वर्षा की चिन्ता न करें । सचमुच ऐसा ही हुआ । प्रतिक्रमण पूर्ण होते ही वरसाद टूट पड़ा । पूज्यश्री ऐसे वचन-सिद्ध थे ।
__यद्यपि हमने पूज्यश्री को देखे नहीं है, परन्तु जिन्होंने देखे हैं, उनके पास से (पू. कनकसूरिजी म. के पास से) उन्हें अनेक बार सुना है ।
. जंबूस्वामी ने भगवान महावीर को भले देखे नहीं थे, परन्तु कहे कलापूर्णसूरि - ३nommonsomnommon २१)
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श्री सुधर्मास्वामी के पास सुने अवश्य थे । भगवान महावीर कैसे थे । इसका वर्णन 'सूयगडंग' में हो चुका है। (वि. संवत् २०३६ में पालीताणा में चातुर्मास में 'सूयगडंग' पर व्याख्यान दिये थे ।)
पुनः पुनः कच्छ आ-आकर पूज्यश्री ने कच्छ-वागड़वासियों को धर्ममय बनाये। उन्होंने उजाड़ रणभूमि को वृन्दावन में परिवर्तित कर दी । उनका उपकार आज भी आप याद करते हैं ।
परन्तु क्या समुदाय के प्रति अपना उत्तरदायित्व याद आता है ? मेरे परिवार में से किसी को मैं इन उपकारी गुरुदेवों के पास पढ़ने के लिए भेजूं, यह याद आता है ?
प्रातः विष्णु मन्दिर जाते, बासी खिचड़ी खाते, इस समाज को धर्म मार्ग की ओर उन्मुख करने के लिए उन्हों ने अथाक परिश्रम किया है, उसे न भूलें ।
आप अपने सन्तानों को इस मार्ग पर मोड़ने के लिए प्रेरणा दो तो कुछ अंशो में उन उपकारों का बदला चुकाया जा सकता है।
पू. जीतविजयजी महाराज उस युग में समस्त समुदायों के महात्माओं के द्वारा प्रशंसा पा चुके थे । उनका शिष्य परिवार पूज्य कनकसूरिजी, पू. आनन्दश्रीजी आदि भी प्रशंसा पा चुके थे ।
ऐसे उपकारी पूज्यश्री वि. संवत् १९७९ में आज के दिन 'पलासवां' में सिद्धों का ध्यान करते हुए काल धर्म को प्राप्त हुए ।
* वि. संवत् २०२७ में खम्भात का अत्यन्त ही आग्रह होते हुए भी पू. देवेन्द्रसूरिजी ने 'आधोई' में चातुर्मास करने की इच्छा व्यक्त की । इस प्रकार आधोई में अनेक बड़े-बड़े चातुर्मास हुए हैं । आज आधोई संघ तथा वागड़ के संघ जो कार्य कर रहे हैं, उनमें इन उपकारी गुरुजनों का प्रभाव है।
मालशी मेघजी - स्वास्थ्य अशक्त होते हुए भी उपकारी गुरुजनों के उपकारों का वर्णन किये बिना रहा नहीं जाता । ।
हम किसान थे । प्रातः शीघ्र भोजन करके खेत पर जाते और रात्रि में लौटते थे । जाड़ी रोटियां एवं छास के द्वारा काम चलाकर पू. गुरु भगवंतोने जो उपकार किया है वह कैसे भुलाया जा सकता है ? उनके उपकारों की हारमाला याद आने पर आंखो से आंसू बहने लगते हैं ।
[२२ Boooooooooooooooooom कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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इस प्रसंग पर मैं पूज्य श्री को बिनती करना चाहता हूं, 'हे पूज्य श्री ! आप कहते हैं कि, 'आपके सन्तान इस शासन के मार्ग पर आयें ।' परन्तु मैं कहता हूं कि वे कैसे आ सकते हैं ? आज ९९ प्रतिशत समाज मुंबई में बस रहा है और मुंबई आप पधारते नहीं हैं । हमारी नई पीढ़ी आपकी परम्परा के साधुओं को कैसे पहचानेगी ? मेरी विशेष विनती है कि आप शिष्य परिवार के साथ मुंबई पधारें ।'
इस पाट पर मुंबई से मिले हुए २० - २५ साधु बिराजमान हों, ऐसा मैं जीते-जी देखना चाहता हूं । यदि बोलने में कोई अविनय हुई हो तो 'मिच्छामि दुक्कडं' मांगता हूं ।
खेतशीभाई मेघजी : आज पूज्यश्री की स्वर्गतिथि के अवसर पर चाहते हैं कि उनके गुण हममें आयें ।
भगवान के प्रति पू. दादाश्री जीतविजयजी म. की श्रद्धा कैसी फली, जो हमने व्याख्यान में सुना ?
दृष्टि मिलने के पश्चात् उन्होंने समस्त वागड़ समाज को दृष्टि दी जिसे हम कैसे भूल सकते हैं ?
आज प्रथम बार ही मैं यहां आया हूं । ८०० का अनुमान था, परन्तु १४०० जितने आराधक हुए हैं, जिसका उत्तरदायित्व भी है । आराधकों के पास प्राप्त करने के लिए अत्यन्त दौड़धूप हुई है, अभी तक चल रही है । इससे ज्ञात होता है कि पूज्यश्री की निश्रा प्राप्त करने की लोगों की कितनी तमन्ना है ? पूज्य दादाश्री जीतविजयजी म. को जिस प्रकार भगवान शान्तिनाथ के प्रति श्रद्धा थी, उस प्रकार समस्त आराधकों को पूज्य आचार्यश्री के प्रति श्रद्धा है । इसमें हम कुछ भी निमित्तभूत बनें, यह भी हमारा महान् सौभाग्य है । किसी को कोई कटु वचन कहा गया हो तो क्षमा याचना करते हैं ।
कल प्रातः ९ से १२ बजे तक समस्त समुदायों के महात्माओं का प्रवचन सात चौबीसी धर्मशाला में होगा ।
आज समस्त आराधक आयंबिल करेंगे, ऐसी विनती है । लगभग एक हजार आयंबिल तो होंगे ही ।
डुंगरशी शिवजी : पूज्य गीतार्थ गुरुदेव के मुख से आज ( कहे कलापूर्णसूरि ३
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गुणानुवाद सुना । गुणानुवाद अनेक बार सुना है, परन्तु आज सुनकर हृदय झंकृत हो उठा ।
पूज्य दादाश्री जितविजयजी म. पर बोलने के लिए मैं अत्यन्त तुच्छ हूं ।
पूज्य दादाश्री जीतविजयजी म. के गुरुदेव पू. पद्मविजयजी म. हमारे भरूडिया गांव के सत्रा परिवार में से थे । उनका स्वर्गवास हुए ११८ वर्ष हो चुके हैं । अभी तक भरूडिया में पू. पद्मविजयजी म. के पश्चात् दूसरा कोई व्यक्ति इस समुदाय में दीक्षित हुआ हो ऐसा ध्यान नहीं है । पूज्य गुरुदेव ! आप कृपा-वृष्टि करो और कुछ ऐसा करो कि जिससे यह महेणा टूटे ।
हीरजी प्रेमजी : हमने भले ही पूज्य दादाश्री जीतविजयजी म. को देखे नहीं है, परन्तु सुने अवश्य हैं ।
हम ओसवालभाई मात्र विष्णु मन्दिरों में जाकर टंकोरी बजाना जानते थे, परन्तु पूज्य गुरुदेव की मीठी नजर पड़ी और हमारे भीतर सुषुप्त जैनत्व जाग उठा । पू. देवेन्द्रसूरिजी, पू. कलापूर्णसूरिजी आदि महात्माओं का आधोई तथा समग्र कच्छ- वागड़ पर अत्यन्त ही उपकार है ।
पूज्य आचार्यश्री की प्रत्येक आज्ञा आधोई के संघ ने सदा स्वीकृत की है, अभी भी करेगा, ऐसा विश्वास दिलाता हूं । केसरीचन्दजी : महापुरुषों का गुणानुवाद जीवन का परम सौभाग्य है ।
पूज्य दादाश्री जीतविजयजी म. में जिस प्रकार प्रभु-भक्ति थी, प्रभु के प्रति श्रद्धा थी, वैसी श्रद्धा हमारे हृदय में हो ऐसी प्रार्थना है ।
नारणभाई त्रेवाडिया के द्वारा गुरु - गुण गीत प्रस्तुत किया गया । (ये नारणभाई त्रेवाडिया अत्यन्त ही उत्तम प्रभु-भक्त, गुरुभक्त एवं कवि थे । आधोई में भूकम्प की दुर्घटना में उनका स्वर्गवास हुआ है ।)
मध्यान्ह की वाचना :
* जितना भी श्रुतज्ञान आज बचा है, वह हमारे कल्याण के लिए पर्याप्त है ।
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परन्तु आज तो दशा ऐसी है कि ४५ आगमों के नाम भी बराबर आ जायें तो भी बड़ी बात गिनी जाये ।
पैंतालीस आगमों में वर्णन तो मिलता है, परन्तु तदनुरूप जीवन देखने-पढ़ने को मिले तब अत्यन्त ही आनन्द हो । आज ऐसा ही एक जीवन ( पू. श्री जीतविजयजी म. का) प्रातः काल में हमें सुनने को मिला ।
* असंग-अनुष्ठान प्राप्त करने के लिए हम उत्सुक हैं । शीघ्र आत्मानुभव हो जाये तो कितना उत्तम ? परन्तु आत्मानुभव ( असंग ) के लिए भगवान की आज्ञा का पालन ( वचन योग ) चाहिये | भगवान की आज्ञा का तब ही बराबर पालन हो सकता है, यदि उनके प्रति हृदय-पूर्वक भक्ति हो ( भक्ति योग ) । भक्ति तब ही आती है यदि भगवान पर हृदय का प्रेम ( प्रीति योग ) हो ।
प्रारम्भ सदा प्रीतियोग से हो सकता है, परन्तु हम सीधी चौथी मंजिल (असंग योग ) का निर्माण करना चाहते हैं ।
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नींव भरे बिना घर बन सकता हो तो प्रीति योग के बिना असंग योग आ सके । लगभग १५०० वर्ष पूर्व हो चुके (पूर्वधरों के निकटवर्त्ती) पूज्य श्री हरिभद्रसूरिजी के ये पदार्थ हैं । उनके कितने ही पदार्थ हमें सर्वथा नवीन लगते हैं, आगमों में न हों वैसे लगते हैं, परन्तु समझना पड़ेगा कि उनका काल पूर्वधरों के निकट का था, पूर्व चाहे विच्छिन्न हो गये होंगे, परन्तु उनकी कुछ बूंदे रह गई होंगी, जो ऐसे पदार्थों से हमें समझ में आते हैं ।
हरिभद्रसूरिजी ने कहा हैं : विशिष्ट प्रकार के क्षयोपशम के बिना ऐसे सूत्रों (चैत्यवन्दन सूत्र ) के प्रति प्रेम प्रकट नहीं होता, विधि तत्परता नहीं आती, औचित्य भी नहीं आता ।
लोक-विरुद्ध व्यवहार (जुआ आदि सात व्यसन) करने वाला ऐसे सूत्र के लिए योग्य नहीं गिना जाता । जिसका मस्तिष्क ठिकाने न हो वही इस लोक और परलोक के विरुद्ध कार्य करता है । बुद्धिमान तो दोनों लोकों में हितकर हो वैसी ही प्रवृत्ति करता है । इस 'ललित विस्तरा' (बौद्धों में भी इस नाम का एक ग्रन्थ है) का यदि आप समुचित अध्ययन करें तो आपका चैत्यवन्दन
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ACHARYA SHR KAILASSAGARSURI GYANMANDIR
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महान् योग बने बिना नहीं रहेगा ।
इससे आपकी प्रत्येक प्रवृत्ति के केन्द्र में भगवान रहेंगे । जहां भगवान हों वहां कषाय कैसे ? वहां अकल्याण कैसा ? ___ 'ए जिन ध्याने क्रोधादिक जे आसपासथी अटके ।'
- न्यायसागरजी बख्तर पहने हुए योद्धा को शस्त्र नहीं लगता, उस प्रकार प्रभुभक्ति के बख्तर वाले भक्त को मोह के शस्त्र नहीं लगते । 'विषय लगन की अग्नि बुझावत, तुम गुण अनुभव धारा; भई मगनता तुम गुण रस की, कुण कंचन कुण दारा ?
- उपा. यशोविजयजी म. * तीन में से प्रत्येक के पांच-पांच लक्षण यहां बताते हैं । (कुल १५ लक्षण होंगे ।) * बहुमान वाले के पांच लक्षण : (१) तत्कथाप्रीति (२) निन्दा-अश्रवण (३) निन्दक पर दया
उन उन योग्य वाले व्यक्तियों की कथा सुनने पर प्रेम जगता है, बहुमान जगता है, यह इच्छा योग है ।
इच्छा तद्वत्कथा प्रीतिः ।
भगवान के प्रति प्रेम है, यह कब ज्ञात हो सकता है ? उनकी निन्दा होती हो तो सुनी न जा सके । निन्दक के प्रति भी द्वेष उत्पन्न न हो, परन्तु करुणा आयेगी - बिचारा इस प्रकार भगवान की आशातना करके कहां जायेगा ?
(४) चित्त का विन्यास : चैत्यवन्दन आदि जो जो क्रिया चलती हो उस समय चित्त उसमें ही होता है । फोन पर बात करते हैं तब मन कैसा एकाग्र होता है ?
(५) परा जिज्ञासा - प्रकृष्ट जिज्ञासा : * विधि-तत्पर के पांच लक्षण : (१) गुरु का विनय
(२) सत्काल की अपेक्षा - जिस समय जो करना हो वह करने की अपेक्षा आवश्यक है। जैसे त्रिकाल-पूजा । प्रातः
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वासक्षेप पूजा, मध्यान्ह में चन्दन पूजा और सायंकाल में आरती पूजा ।
(३) उचित आसन ।
(४) युक्त स्वरता - अन्य को व्याघात न हो वैसी आवाज निकालना । जिनालय में वरिष्ठ व्यक्ति बैठे हों तब ऊंचे स्वर में
नहीं बोलना चाहिये । यह अविनय है। छोटे-बड़े किसी के योग , में बाधा न पड़े उस प्रकार आवाज निकालनी । इसे युक्त-स्वरता कहते हैं ।
जैसे आदिनाथ के दरबार में गये हों और सबके साथ मेल जमता हो तो साथ में स्तवन आदि बोले जा सकते हैं । यदि ऐसा नहीं होता हो तो विवेक रखें ।
(५) पाठ का उपयोग : चैत्यवन्दन के समय बोले जानेवाले सूत्रों का ध्यान हो । एक बार नहीं, सदा उपयोग होता है ।
* उचित वृत्ति के पांच लक्षण : (१) लोकप्रियता
(२) अगर्हित क्रिया : इस लोक-परलोक के विरुद्ध कार्य ही न हों ताकि कोई निन्दा करे ।
(३) संकट के समय धैर्य __ (४) शक्ति के अनुसार त्याग
(५) लब्ध लक्षता - जो ध्येय निश्चित किया हुआ हो वह न मिले तब तक बैठा न रहे ।
ये पन्द्रह गुण मिलते हों वैसे अधिकारी जिज्ञासु को यह पाठ देना, अन्यथा दोष लगता है ।
* पू.पं. भद्रंकरविजयजी म. कहते थे कि एक नवकार बराबर आत्मसात् करें तो भी पर्याप्त है।
एक नवकार सूत्र, अर्थ, तदुभय से आत्मसात् करने के लिए द्वादशांगी की आवश्यकता होगी ।
तदुभय अर्थात् जैसा पढ़े हैं वैसा जीवन में उतारना । ज्ञानाचार का यह भेद होने पर भी यह चारित्राचार हो वैसा लगे । ज्ञ परिज्ञा और प्रत्याख्यान परिज्ञा, ग्रहणशिक्षा एवं आसेवन शिक्षा यहां प्रत्याख्यान परिज्ञा से तथा आसेवन शिक्षा से जीवन जीने की बात ही आई है। (कहे कलापूर्णसूरि - ३ooooooooooooooooooo0 २७)
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* दूधपाक सर्वोत्तम है, परन्तु खाने वाले के पाचन-तन्त्र को देखकर ही दिया जाता है, उस प्रकार सूत्र सर्वोत्तम है, परन्तु सामने वाले की योग्यता देखकर ही दिया जाता है । टाइफोईड वाले को दूधपाक नहीं दिया जाता उस प्रकार अयोग्य व्यक्ति को सूत्र नहीं दिये जाते ।
यहां अयोग्य पर द्वेष नहीं, परन्तु करुणा ही है। टाइफोईड वाले पर द्वेष थोडा है? वह यदि दूधपाक खायेगा तो उसे ही हानि होगी । अयोग्य व्यक्ति सूत्र पढ़ेगा तो सर्व प्रथम उसे ही हानि होगी।
* किसी भी कार्य में सफलता प्राप्त करनी हो तो भगवान को आगे करें । भगवान साक्षात् न हो तो भगवान का वचन (शास्त्र) आगे करें । वह यदि आगे हो तो भगवान ही आगे हैं, यह मानें । __ भगवान जहां आगे हैं वहां सफलता मिलेगी ही।
* 'चलता है जैसे चलने दें, विधि-अविधि की सिरपच्ची छोड़ें । सब करें वैसे करें ।' ऐसी वृत्ति लोक-संज्ञा है । लोक-संज्ञा अर्थात् गतानुगतिकता । लोकहेरी । इसका त्याग किये बिना विधि में आदर नहीं बन सकेगा ।
* दुकान पर बिठाने से पूर्व पिता पुत्र को अनेक प्रकार का ज्ञान कराता है, उस प्रकार ग्रन्थ के प्रारम्भ से पूर्व योग्यताअयोग्यता आदि की बातें ग्रन्थकार कहते हैं ।
एक बात समझ लें - मार्ग पर चलना हो तो शास्त्रानुसारी वचनों के अतिरिक्त अन्य कोई उपाय नहीं है ।
पूज्य मुनिश्री धुरन्धरविजयजी म. -
बुद्धि हम में भ्रान्ति उत्पन्न करती है । बुद्धि को एक ओर रखें, मृतवत् जीयें । अहंकार की मृत्यु ही साधु का जीवन है । गृहस्थ किसी की मृत्यु के पश्चात् श्वेत वस्त्र ओढ़ते हैं । वह हम नित्य ओढ़ते हैं ।
कानून की भाषा में अपनी 'सिविल डेथ' हो चुकी है।
अहं की मृत्यु के बिना गुरु-समर्पण नहीं आता । इसके बिना साधकता प्रकट नहीं होती । साधक के लिए सद्गुरु ही शास्त्र हैं, जैसे न्यायालय में जज बोलता है वही कानून कहलाता है । (२८0 monsoom
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प्रभु में लीन सद्गुरु (पू. कलापूर्णसूरिजी) आपको मिले हैं, यह आपका महान सौभाग्य है ।
जो भगवान की बात करते-करते गद्गद् हो जायें, जिन्हें प्रति पल भगवान ही याद आयें, वे - ही सद्गुरु हैं ।
हरिभद्रसूरिजी याकिनी महत्तरा को कहीं भी नहीं भूलते, उस प्रकार प्रभु का भक्त उपकारी को कदापि नहीं भूलता, चाहे वह उपकारी बिल्कुल छोटा ही हो ।
संयम लिया अतः पसंदगी छोड़ दी । मुझे यह अच्छा लगता है । अच्छा नहीं लगता यह शब्द साधु-साध्वी के नहीं होते । चाहे जैसी परिस्थिति होगी, मैं गुरु की प्रत्येक बात शिरोधार्य करुंगा ।
एक अजैन प्रसंग बताता हूं -
सर्व प्रथम आये हुए साधक को गुरु कहते हैं - 'कचरा निकाल ।'
वह कचरा निकालना प्रारम्भ करता है। जब तक गुरु इनकार नहीं करते तब तक वह कचरा निकालता ही रहता है ।
हमें तो 'स्वामी शाता हे जी ?' का उत्तर नहीं मिले तो भी हमारा मुंह चढ़ जाता है । वह साधक बारह वर्षों तक कचरा निकालता रहता है ।
धैर्य के बिना गांठ नहीं छूटती, मार्ग नहीं मिलता ।
गुरु को क्या करना चाहिये? यह नहीं, हमे क्या करना चाहिये, यह सीखना है ।
गुरु को क्या करना है ? ऐसा विचार करने वाला का इस शासन में स्थान नहीं है । बारह वर्षों के पश्चात् गुरु ने पूछा, 'बेटे ! तू क्या करता है ?'
'आपकी आज्ञा से कचरा निकालता हूं ।' . 'जा, बेटे ! तेरा सब कचरा निकल गया ।'
उसके भीतर का सभी कचरा निकल गया, मन शुद्ध हो गया । यहां गुरु की आज्ञानुसार प्रत्येक आज्ञा निर्जरा का कारण है।
हम व्याख्यान देने में प्रतिष्ठा (स्टेटस) मानते हैं, परन्तु पानी लाना, कचरा निकालना आदि प्रतिष्ठा (स्टेटस) से बाहर के कार्य मानते हैं ।
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मैं पू.पं. भद्रंकरविजयजी म. को अनेक बार पूछता : आपके बाद हमारा क्या होगा ? हमें कौन मार्ग-दर्शन देगा ? सद्गुरु को कैसे पहचानें ?' वे कहते, 'जो अपने सद्गुरु एवं भगवान को याद करते हुए गद्गद् हो जाये वह सद्गुरु है, यह मानें; ज्ञान न देखें...'
केवल अष्टप्रवचन- माता का ज्ञान चलेगा, परन्तु वह प्रभु में तन्मय बना हुआ होना चाहिये । वह व्यक्ति सब कुछ दे सकता है । केवल ग्रहण करने वाले को खाली होने की आवश्यकता है । प्रकाम - तीव्र, निकाम * बार बार की छोटी-छोटी इच्छाओं में से मुक्त होना है । इसके बिना गुरु के प्रति समर्पण नहीं आता । इच्छा गई तो समर्पण गया । इच्छा है वहां भाव - निद्रा है । इच्छा से आप दौड़ों तो भी निद्रा में ही हैं । मुनि सदा जागृत होते हैं । इच्छा के कारण गुरु की शक्ति की धारा रुक जाती है । पेट्रोल से मोटर दौडती है, उस प्रकार प्रभु की शक्ति से हम धर्म- क्रिया कर रहे हैं यह मानें तो ही सच्चा धर्म बनता है ।
हमारा धर्म संसार के लिए है !
प्रभु का धर्म मोक्ष हेतु है !! हम अपना धर्म मान बैठे । 'शिष्यस्य सर्वं गुर्वायत्तम् । 'गुरोः सर्वं परमायत्तम्' ।
परम (प्रभु) के अधीन न हो वह गुरु ही नहीं है । प्रभु गुरु के बिना सीधे नहीं मिल सकते, पंचसूत्र में स्पष्ट कहा है । इच्छाओं से निरावरण बनने वाले ही गुरु के कृपा-पात्र बन सकते हैं। मुझे कुछ नहीं करना है । गुरु कहें वही करना है । मैंने किया इसलिए तो संसार में भटका ।
हैं ।
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पकड़ती है पुलिस, परन्तु सचमुच सरकार पकड़ती है । करते हैं धर्म हम, परन्तु कराते हैं प्रभु । गुरु प्रभु के माध्यम
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RASPARAGARHWARIES
प्रभु दर्शन में लीनता
२३-७-२०००, रविवार श्रा. कृष्णा-७ : वागड़ सात चौबीसी धर्मशाला
सामुदायिक प्रवचन, विषय - मैत्री पूज्य आचार्यश्री विजयकलापूर्णसूरिजी
धर्म-कल्पद्रुमस्यैता: मूलं मैत्र्यादि भावनाः ।
यैर्न ज्ञाता न चाऽभ्यस्ताः स तेषामतिदुर्लभः ।। अनन्त गुणों के भण्डार अनन्त करुणा के सागर तीर्थंकर भगवन्तों ने जो मुक्ति-मार्ग बताया है, उसके द्वारा अनेक आत्मा मोक्ष में गई हैं । ७०० साधु, १४०० साध्वीजी, गौतम स्वामी के ५०००० शिष्य आदि अनेक मोक्ष में गये हैं ।
प्रभु की कृपा से ही निगोद से निकलकर हम यहां तक बराबर मध्य में आये हैं । अभी का मार्ग ही दुरुह है । अभी तक प्रभु की कृपा थी, उस प्रकार अब भी प्रभु की कृपा से ही मार्ग में आगे बढ़ सकेंगे ।
* 'ललित विस्तरा' पढ़ने से ज्ञात होगा कि तीर्थंकर की कितनी महिमा है ? यह पढ़ने से हृदय प्रभु को समर्पित बनेगा ।
आज आप देख रहे हैं कि अनेक पू. साधु-साध्वीजी भगवंत
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यहां उपस्थित हैं जो सभी सिद्धाचल की स्पर्शना हेतु आये हुए हैं । स्वयं भगवान आदिनाथ आते हों तो अन्य क्यों न आयें ? सामुदायिक रूप से सबकी भावना हुई कि सब एकत्रित होकर क्यों न मैत्री के तन्तु को सुदृढ करें ?
भगवान संघ तथा सकल जीवराशि का उपकार मानते हैं, क्योंकि उनके प्रति करुणा से ही वे भगवान बने हैं ।
भगवान को भगवान बनाने वाली करुणा है । यह करुणा ही उन्हें समस्त जीवों के प्रति विनय करने के लिए प्रेरित करती है । भगवान भी विनय नहीं छोड़ते तो हम कैसे छोड़े ?
आज मैत्री - भावना पर बोलना है ।
मैं ने कहा, 'पहले हम जीकर बतायें, फिर सबको कहेंगे ।' मैत्री- भाव से ओत-प्रोत बना अपना संघ कितना सुशोभित लगता है ?
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आज वात्सल्य-भाव, मैत्री भाव जो मृतप्रायः बन गये हैं, उन्हें पुनर्जीवित करना पड़ेगा ।
चार भावनाओं का स्वरूप स्वयं भगवान ने कहा है । धर्म यदि कल्पवृक्ष है तो ये चार भावनाऐं उसके मूल हैं । शास्त्रों के मन्थन से निकाला हुआ मक्खन हैं ये चार भावनाऐं । जो यह जानते नहीं हैं, इन्हें जीवन में लाते नहीं हैं, वे धर्म की आशा छोड़ दें ।
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जिन भावनाओं के बिना धर्म मूल्यहीन गिना जाता है, उन भावनाओं का महत्त्व कितना है ?
परहितचिन्ता मैत्री दूसरों के हित का विचार मैत्री है । हम केवल अपना ही विचार करते हैं । वही मोह है । यह धर्म मोह के चंगुल में से सर्व प्रथम छुड़ाता है ।
चतुर्विध संघ का प्रत्येक सदस्य अर्थात् मोहराजा के विरुद्ध लड़ने वाला शूरवीर योद्धा । मोह को परास्त करने का लक्ष्य नहीं हो वह जैन नहीं है ।
अनादिकाल से चार कषाय हमारे भीतर अधिकार जमा कर बैठे हैं । जब तक कषायों से मुक्ति नहीं मिले तब तक संसार से मुक्ति नहीं मिलेगी ।
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ॐ कहे कलापूर्णसूरि -
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कषायों से भावना के द्वारा ही मुक्ति मिल सकेगी । मैत्री से क्रोध, प्रमोद से मान, करुणा से माया, माध्यस्थ से लोभ जीते जा सकते हैं । आप सोचेंगे तो बराबर समझ में आ जायेगा ।
जहां मैत्री होगी वहां क्रोध नहीं रह सकेगा, प्रमोद होगा वहां मान नहीं रह सकेगा, करुणा होगी वहां माया नहीं रह सकेगी और जहां माध्यस्थ भावना होगी वहां लोभ नहीं रह सकेगा ।
गत गुरुवार को वाचना में समस्त आचार्य भगवन् हमारे यहां आये तब मैत्री की बात निकली थी तब मैत्री के लिए शास्त्रों का आधार दिया था । जीवों के एक, दो, तीन इस तरह अक भेद हैं । एक भेद किस प्रकार ? उपयोग की अपेक्षा से ।
उपयोग सब में है । उपयोग की अपेक्षा से समस्त जीव एक हैं । जीवास्तिकाय के द्वारा भी एकता सिद्ध होगी । जीवास्तिकाय आदि समझ कर हम मैत्री आदि नहीं ला सकें तो सच्चा साधुत्व नहीं आ सकेगा ।
मैंने कहा था
सबसे पहला व्रत प्राणातिपात विरमण है । यह मैत्री का पूरक ही है । प्रश्न व्याकरण में अहिंसा के ६० पर्यायवाची शब्द हैं, जिनमें एक नाम 'शिवा' भी है । शिवा अर्थात् करुणा । यहीं तीर्थंकर की माता हैं ।
'अहं तित्थयरमाया सिवादेवी' यह शिवा देवी करुणा देवी है । यह नींव है । इस पर निर्मित साधना का भवन ही सुदृढ बनेगा |
अब अन्य पू. आचार्य भगवन् बोलेंगे । इनका आवाज बुलन्द है । सब सुन सकेंगे । सारा समय मैं ही ले लूं, यह उचित नहीं है । भले मेरे लिए आधा घंटा रखा हो, परन्तु मुझे सोचना चाहिये । पू. आचार्यश्री हेमचन्द्रसागरसूरिजी : साहेबजी ! हम ऐसे कंजूस नहीं हैं । आप अभी चालु रखें ।
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पूज्यश्री : जिस दिन किसी के साथ कुछ भी कटुता हुई हो, उस दिन साधना में मेरा मन नहीं लगता । हमें अपनी साधना भी बराबर करनी हो तो भी सबके साथ मैत्री जमानी पड़ेगी । कहे कलापूर्णसूरि ३
७०० ३३
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किसी को भी आप कहेंगे - 'तू मेरा मित्र है ।' वह निश्चित रूप से प्रसन्न होगा । जीवों के साथ पहले मित्रता का सम्बन्ध, फिर आत्म-तुल्य सम्बन्ध और उसके बाद एकता का सम्बन्ध विसित करना है । इससे भी आगे बढ़कर सब में परमात्म-दृष्टि आयेगी, सब में परमात्मा बैठे दृष्टिगोचर होंगे । __ हमारा संघ मैत्रीमय बने, यही शुभकामना है ।
पू. मुनिश्री धुरन्धरविजयजी : इतने सारे आचार्य भगवंतों का एक साथ दर्शन अनेक व्यक्तियों के लिए प्रथम बार होगा । धन्य है यह क्षण जहां इन सबके दर्शन होते हैं ।
यहीं समवसरण है। यहां ही भगवान हैं, ऐसा अनुभव होगा । ___ हमारे परम सौभाग्य से प्रभु के परम भक्त, आगमों के रहस्यों के उद्घाटक पूज्य आचार्य श्री विजयकलापूर्णसूरिजी मुख्य आचार्य देव के रूप में हैं। __ पूज्य आचार्य भगवन् के शब्द चाहे आपको सुनने में नहीं आये हों, परन्तु उन शब्दों की तरंगे तो यहां से बही ही हैं । आपको उन पवित्र शब्दों का स्पर्श हुआ ही है । आप पर उनका प्रभाव भी हुआ ही है। आपको सुनाई नहीं देता हो फिर भी आप शान्तिपूर्वक बैठे रहे, यही इस बात का प्रतीक है।
यहां पू. रामचन्द्रसूरिजी, पू. सागरजी, पू. भुवनभानुसूरिजी, पू. धर्मसूरिजी, पू. नेमीसूरिजी, पू. ॐकारसूरिजी, विमलशाखा, त्रिस्तुतिक, अचलगच्छ आदि समुदायों के महात्मा उपस्थित हैं ।
आज शिष्य आगे बैठे हैं । गुरु पीछे बैठे हैं, मानों शिष्यों की पीठ थपथपा रहे हैं ।
प्राचीनकाल में चार जैन राजधानियां थीं, ऐसा उल्लेख मिलता
सम्यकत्व सप्ततिका ग्रन्थ के मल्लवादी के प्रबन्ध में लिखा है कि पटना (पाटलिपुत्र), पैठन (प्रतिष्ठानपुर), वलभीपुर (वला), जीर्णदुर्ग (जूनागढ) ये चार जैन राजधानियां थीं, जहां सभी गच्छों के उपाश्रय थे ।
आजकल राजनगर (अहमदाबाद) और पालीताना राजधानी गिनी जाती हैं। आज आप यहां उपस्थित हैं, यह अपना सौभाग्य समझें ।
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किसी की आवाज धीमी हो तो भी चिन्ता नहीं करें, दर्शन करके सन्तोष माने ।
सबको भारी आशा है, इतने आचार्य भगवन् क्या करेंगे ? हमें मैत्री करनी है, संघर्ष नहीं करना है । संघर्ष करना है कर्मो के साथ, धुलमिल जाना है प्रभु में । यही हमारा कर्तव्य है ।
श्री भद्रबाहुस्वामी नेपाल में महाप्राणायाम ध्यान करने गये थे । बारह वर्षों का अकाल पडा । श्रुत परम्परा विच्छिन्न होने लगी । आपका धंधा जैसे बहियों से चलता है, उस प्रकार प्रभु का शासन श्रुत से चलता है। श्रुत परम्परा को अविच्छिन्न रखना सबका कर्तव्य है। जिसके पास जो श्रुतज्ञान हो वह लेना है। आचार्य भगवन् भी विद्यार्थी बनकर उसके पास जायें ।
पाटलिपुत्र में श्रमण संघ एकत्रित हुआ । ग्यारह अंग मिले, परन्तु दृष्टिवाद नहीं मिल सका । दृष्टिवाद के ज्ञाता एकमात्र भद्रबाहुस्वामी नेपाल में थे । उनको दो साधुओं के द्वारा निमंत्रण भेजने पर भी उनका उत्तर मिला कि आवश्यक ध्यान के कारण मैं नहीं आ सकूँगा । पुनः दो मुनियों के द्वारा उन्हे पुछवाया कि 'जो संघ की आज्ञा का उल्लंघन करे, उसे क्या प्रायश्चित आता है ?'
भद्रबाहुस्वामी चौंके, ‘में संघ का सेवक हूं । जो कहे वह करने के लिए बंधा हुआ हूं ।'
श्रमणसंघ के शीर्षस्थ नायक के ये शब्द हैं । तीर्थंकर भी 'नमो तित्थस्स' कहकर जिसे नमस्कार करते हैं, उसकी भद्रबाहु स्वामी किस प्रकार अवहेलना कर सकते हैं ?
___ 'वहां नहीं आ सकूँगा, परन्तु सुनकर याद रख सकें वैसे बुद्धिमान मुनियों को भेजो, मैं नित्य सात वाचना दूंगा ।'
यह है संघ की गरिमा । .
'आयरिय उवज्झाए' इस सूत्र की प्रथम गाथा में आचार्य, उपाध्याय, शिष्य, स्वधर्मी, कुल, गण के साथ जो कषाय किये हों वैसे कहा, परन्तु 'पूज्य' शब्द का प्रयोग सकल श्रमण संघ के लिए हुआ है । आगे की गाथा में देखो, 'सव्वस्स समण संघस्स भगवओ ।' संघ को 'भगवान' शब्द से नवाजा गया है। भगवान शब्द पूज्यतावाची है। ऐसे श्रमण संघ का मूल्यांकन (कहे कलापूर्णसूरि - ३00000000000 Homom ३५)
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नहीं किया जा सकता । इस तीर्थ की यात्रा नित्य दर्शन के रूप में की जा सकती है । प्रत्येक रविवार को ये दर्शन हो सकते
एकत्रित होना ही मंगल हैं ! यही शक्ति का संचय है । एक दूसरे के प्रति सद्भाववाले मुनि साथ बैठें जिससे अकल्पनीय महा शक्ति उत्पन्न हो ।
बोलेगा तो कोई एक ही, परन्तु वह सबकी ओर से बोलेगा । मेरी क्या शक्ति है बोलने की ? परन्तु सबका पीठ-बल है ।
आप सभी विभिन्न गांवों के एकत्रित हुए हैं, परन्तु कहीं भी झगड़ा होने का नहीं सुना । होता भी कहां से ? प्रारम्भ से ही श्रमण संघ के दर्शन से मंगल हुआ है। अब यह मंगल प्रत्येक सातवे दिन होता ही रहेगा ।
* ईसामसीह के २००० वर्ष पूरे हो गये हैं। अब महावीर स्वामी के वर्ष प्रारम्भ होने चाहिये । ईसामसीह के वर्ष अर्थात् लड़ाई के वर्ष । अब लड़ाई के नहीं, मैत्री के वर्ष चाहिये ।
हमारे गुरुदेव पू.पं. श्री भद्रंकरविजयजी म. की यही इच्छा थी । भले ही वे आज मौजूद नहीं हैं, परन्तु अदृश्य रूप में वे सक्रिय हैं ही।
यह सकल संघ का मिलन उसका प्रमाण है । पूज्य आचार्यश्री विजयजगवल्लभसूरिजी :
येन ज्ञानप्रदीपेन, निरस्याऽभ्यन्तरं तमः ।
ममात्मा निर्मलीचक्रे, तस्मै श्रीगुरुवे नमः ॥ धर्म चक्रवर्ती श्री महावीर स्वामी के प्रभाव से हम समतांगन में उपस्थित हुए हैं ।
सबको मैत्रीभाव से भावित करने हैं । अन्तरात्मा कहती है - किसी को मैत्री के लिए कहने की आवश्यकता नहीं है, मानो मैत्री प्रकट ही है।
किसी भी क्षेत्र में मैत्री के बिना नहीं चलता । साधु-जीवन में भी मैत्री चाहिये । मित्र होंगे परन्तु मैत्री न हो तो ? मैत्रीरहित मित्र व्यर्थ हैं । पूज्य आचार्य भगवान् की अध्यक्षता में मैत्री का मंगल मनाते हुए अपनी आत्मा सम्यग्दर्शन की स्पर्शना करता (३६ Www S
s s कहे कलापूर्णसूरि - ३
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हुआ सद्गति एवं सिद्धि गति प्राप्त करे, यही ।
पूज्य आचार्यश्री यशोविजयसूरिजी : यह चातुर्मास अहोभाव की धारा में झूमने का अवसर बन जायेगा । अजैन संत सूरदास ने कहा है - सदा हमारे नेत्रों में वर्षाऋतु रहे । प्रभु को देखते ही नेत्रों में से हर्षाश्रु के तोरण बंधने चाहिये । सम्पूर्ण चातुर्मास इस प्रकार व्यतीत करना है ।।
* मेरे मुख्य तीन शब्द हैं : रूप परमात्मा, वेष परमात्मा, शब्द परमात्मा ।
* पू. यशोविजयजी ने गाया है - इतनी भूमि प्रभु ! तू ही आण्यो, परि परि बहुत बढ़ावत माम ।
हे प्रभु ! निगोद में से निकालकर आप ही यहां तक लाये हैं । अब दो-चार गुण-स्थानक आगे बढ़ा लो तो क्या आपत्ति है ?
पुत्र पूछता है : मम्मी ! मामा का घर कितना दूर है ? मम्मी : 'दीपक जलता है उतनी दूर ।' भगवान कहते हैं : अब मुक्ति का घर कहां दूर है ?
जोसेफ मेकवान ने एक अंग्रेजी कृति का अनुवाद किया है : एक यात्री-भक्त रेगिस्तान में अकेला जा रहा है ।
प्रवास में अकेले को आनन्द नहीं आता ।
अंग्रेजी में लोगों के लिए तीन कम्पनी है, चार भीड़ है । अपने वहां एक कम्पनी है, दो भीड़ हैं । _ 'प्रभु ! क्या मेरे साथ आप नहीं आयेंगे ?' उस यात्री ने भगवान को कहा । हम प्रतीक्षा करें उससे परम चेतना अपनी अधिक प्रतीक्षा कर रही है। भगवान आने के लिए तैयार हैं, केवल हमारे निमन्त्रण की आवश्यकता है ।
थोड़ी ही देर में उसे दो परछाई दिखाई दी । उसे प्रतीत हुआ कि प्रभु हैं । पुनः देखा तो एक ही परछाई थी। उसे लगा कि भगवान चले गये प्रतीत होतें हैं । कानों में आवाज आई - मैं दुःख में तुझे उठाकर चल रहा था, अतः एक ही परछाई दिखाई दे रही थी।
* 'भगवन् ! आपने भले ही मेरे चित्त को चुराया हो, परन्तु मैं तो पूरे के पूरे आपको चुराकर हृदय में बसा लूंगा ।' (कहे कलापूर्णसूरि - ३ 6000000000666666 ३७)
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'स्वामी तुमे कांई कामण कीg, चित्तधू अमाझं चोरी लीधुं...'
- पू. उपा. यशोविजयजी 'प्रभु ! मेरे हृदय में कैसे आयेंगे ?' 'तेरा हृदय कमल के समान कोमल बनेगा तब आऊंगा ।' भक्त एवं भगवान का यह संवाद है । 'हृदय कमल में ध्यान धरत हूं ।'
* अब प्रभु के शब्द सुनने नहीं हैं, पीने हैं, अस्तित्व में संभाल कर रखने हैं ।
चातक चाहे जितना प्यासा हो, वह नदी आदि का पानी नहीं पीता । क्योंकि उसके गले में छेद होता है, ऐसी प्राचीन कवियों की मान्यता है । वह जैसे वर्षा का पानी पीता है, उस प्रकार भक्त को यहां शब्दों को पीना है ।
हम तो वैखरी वाणी वाले हैं । परा वाणी के स्वामी प. आचार्य भगवन् पू. कलापूर्णसूरिजी यहां बिराजमान हैं ।
व्याख्यान शब्द परमात्मा है ।
रूप परमात्मा तो यहां बिराजमान समस्त साधु-साध्वीजी भगवंत हैं ही । हृदय को कमल के समान बना लें, प्रभु अवश्य आयेंगे ।
परम तपस्वी वर्धमान तप की १०० ओली के आराधक पूज्य आचार्यश्री नवरत्नसागरसूरिजी : सचमुच, आज मैं भाग्यशाली हो गया हूं। चाहें तो भी इतनी त्यागी-संयमियों की संख्या कहां मिलेगी ? आज एक साथ सबके दर्शन हो रहे हैं, जो शासन के श्रृंगार स्वरूप अणगार हैं । वे भी ऐसे उत्तम क्षेत्र में !
अपना धंधा आदि छोड़कर आने वाले श्रावक-श्राविका भी उत्तमता की कोटि में पहुंचे हैं ।
समस्त दुःखों से मुक्त करने की शक्ति प्रभु के शासन में है । अनन्त मैत्री के स्वामी भगवान जगत् के समस्त जीवों को दुःख में से मुक्त करने के लिए करुणा भावना भाते हैं । जीव शासन-रसिक बने तो ही वह दुःख मुक्त बन सकता है ।
मैत्री किसे कहते हैं ? होटल अथवा उद्यान में दो-चार मित्र खा-पीकर आओ, क्या यह मैत्री कहलाती है ? वहां तो कर्मों के ढेर ही लगेंगे, वहां पुद्गलो का राग ही बढ़ेगा । आत्मा के (३८ 60 0 WOROSS कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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दोषों को उन्मूलन करने की इच्छा हो वहां मैत्री का जन्म होता
'मा कार्षीत् कोऽपि पापानि ।' ऐसी मैत्री न हो वहां धर्म नहीं है। हरिभद्रसूरिजी का वचन प्रामाणिक माना जाता है, जिसे समस्त गच्छों के मुनि स्वीकार करते हैं । वे कहते हैं - चाहे जितने धर्मानुष्ठान करो, परन्तु मैत्री न हो तो सब शून्य है। धर्म वह कहलाता है जहां भगवान की आज्ञा हो तथा मैत्री आदि भावना हो । अरबों का दान दो, ब्रह्मचर्य का पालन करो परन्तु मैत्री नहीं हो तो धर्म नहीं है । ___आत्मा को परमात्मा, जीव को शिव, नर को नारायण, खुद को खुदा बनाने वाला मैत्रीयुक्त धर्म है । तालियों से मैत्री नहीं आती ।
सिद्धाचल कहता है - सीधा चल ! अब तक हम टेढ़े ही चले हैं । आत्मा का स्वभाव सीधा चलने का है, परन्तु मोह हो तब सीधा चला नहीं जाता । इसीलिए कल्याण नहीं हो रहा ।
मेरु पर्वत छोटा पड़े, उतने रजोहरण किये, फिर भी कल्याण नहीं हुआ क्योंकि हम उल्टे ही चले ।
मा + उह = मोह । जहां सार-असार का विचार न हो वह मोह है।
ऐसी उत्तम भूमि में, आनन्ददायी वातावरण में आकर आत्मा को सरल बनायें । चार महिनों में इतनी प्राप्ति होगी कि जिसकी कल्पना भी नहीं होगी ।
किसी को बताने के लिए नहीं, परन्तु आत्मा के लिए करना
पूज्य आचार्यश्री विजयसिंहसेनसूरिजी :
'मा कार्षीत् कोऽपि पापानि ।' * कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्रसूरिजी योगशास्त्र में मैत्री भावना बताते हैं । मण्डप में दृश्य देखकर ही लगे कि मैत्री हृदय में ओतप्रोत हो गई है। (कहे कलापूर्णसूरि - ३ womosomwwwwwwwww ३९)
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तीर्थंकर-रूप संघ के दर्शन परम पुन्योदय से होते हैं ।
परम पुन्योदय से सभी धर्म-सामग्री प्राप्त हुई है। अब संकल्प करें कि मुझे कोई पाप नहीं करना है । 'सव्वपावप्पणासणो' मेरे नमस्कार से अनन्त-अनन्त पाप नष्ट होते हैं ।
__ कदाचित् कोई पाप हो जाये तो पश्चाताप करें । अइमुत्ताजी को पश्चाताप से केवलज्ञान प्राप्त हुआ था ।
कोई दुःखी मत बनो । जब तक संसार है तब तक दुःख है । दुःखमय संसार से जो मुक्त हो गये हैं वे सिद्ध हैं ।
'ओं ही नमो सिद्धांणं' का जाप करने से अनन्त सिद्धों को नमस्कार होता है।
'जगत् के सभी जीव सर्व दुःखों से मुक्त हों ।' जड़-राग एवं जीव-द्वेष ही अनादिकाल से हम करते आये
हैं ।
एक साधकने ब्रह्मा को कहा - 'सुख प्राप्त हो वैसा कुछ
दो ।'
ब्रह्मा ने कहा, 'ये दो गठरियां ले । एक में तेरे जीवन के पाप हैं । दूसरे में तेरे पड़ोसी के पाप हैं । तेरी गठरी आगे और पड़ोसी की गठरी पीछे रखना ।'
परन्तु नीचे उतरते समय गठरी आगे-पीछे हो गई । इस रूपक का चिन्तन कितना प्रेरक है ?
मनुष्य को सदा पड़ोसी के ही पाप दृष्टिगोचर होते रहते हैं, स्वयं के कदापि दृष्टिगोचर नहीं होते । पडोसी की गठरी आगे और स्वयं की पीछे हो गई है।
__पूज्य मुनिश्री धुरन्धरविजयजी : एक अजैनों की बस्ती में रात को मेरा प्रवचन हुआ । प्रवचन पूरा हुआ तो भी कोई उठा नहीं । नौ से दस, दस से ग्यारह, ग्यारह से बारह बज गये ।
लोगों ने कहा, 'आप नहीं उठेंगे, तब तक हम नहीं उठेंगे ।'
अजैनों में भी इतना विनय हो तो हम जैनों में कितना विनय होना चाहिये ? अब आप में से कोई नहीं उठेगा, ऐसी मेरी अपेक्षा
है ।
(४० 65 6 samasoma
कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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पूज्य आचार्यश्री प्रद्युम्नविमलसूरिजी : अपना दुःख भूलकर दूसरों के सुख का विचार करना मैत्री है ।
जो 'पर' के लिए जीता है वही परमात्मा कहलाता है ।
ऐसे महापुरुषों के साथ यदि ऋणानुबंध बंध जाये तो भी काम हो जाये । अश्व को प्रतिबोध देने के लिए मुनिसुव्रतस्वामी भगवान को आना ही पड़ा ।
ऐसे अध्यात्म योगी सद्गुरु पूज्य आचार्यदेव (पू. कलापूर्णसूरिजी) के साथ हम सम्बन्ध जोडेंगे तो क्या हमारा काम नहीं होगा ?
'सद्गुरु मेरा सूरमा करे शब्दों की चोट ।'
एक भी जीव ऐसा नहीं हो सकता कि जिसे सद्गुरु के बिना मार्ग मिला हो । ये गुरु भगवान के रूप में मिले हैं। जीवन में उनकी प्रतिष्ठा हो जाये तो काम बन जाये । मोह नष्ट करने के लिए गुरु-कृपा ही अनिवार्य है ।
चन्दन के नन्दन-वन की सुगन्ध सदा प्राप्त होती रहे ।
चन्दन में आम लगे तो वह चन्दनाम्र कहलाता है । उस आम में चन्दन की सुगन्ध उत्पन्न होती है ।
पुष्प में सुगन्ध, मकरंद, रंग एवं मार्दव होता है ।
हमें भक्ति का रंग, मैत्री की मृदुता, ज्ञान का मकरंद एवं गुणों की सुगन्ध प्राप्त करनी है ।
* एक संवाद : 'पुष्प ! तू सुन्दर खिला है, परन्तु सायंकाल में तू मुरझा जायेगा।'
'हे मानव ! क्या तू स्वयं मिट्टी में नहीं मिलने वाला है ? मैं तो सुगन्ध फैलाऊंगा, तू क्या करेगा ?'
पुष्प का उत्तर बताता है कि हे मानव ! तू भी इस जीवन में कुछ करता जा ।।
सदा ऐसा वातावरण, ऐसे गुरु और एसा ही माहौल मिले, यही कामना है।
__ अचलगच्छीय पूज्य गणिश्री महोदयसागरजी : मंगलमय विश्व मैत्री की बात कर रहे हैं तब विश्व-मैत्री से युक्त दो गुजराती पद्यांशो का पठन करके तत्पश्चात् मैत्री पर बोलेंगे । ___ 'सकल विश्वमा शान्ति प्रगटो, थाओ सौ कोईन कल्याण ।
. सर्व जगत्मां सत्य प्रकाशो, दिलमां प्रगटो श्री भगवान ॥ (कहे कलापूर्णसूरि - ३ 506655566555 Bosses ४१)
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शान्ति-तुष्टि, पुष्टि पामो, जीवो पामो मंगलमाल । आत्मिक ऋद्धि सिद्धि पामो, पामो सौए पद निर्वाण ॥
मांडवगढ के मंत्री 'झांझण' एक लाख से भी अधिक संख्या में छरी' पालक संघ के साथ सिद्धाचल आते हुए मार्ग में कर्णावती (अहमदाबाद) आये । राजा सारंगदेव ने कहा, 'मुख्य तीर्थ-यात्रियों को लेकर भोजन के लिए पधारें ।' ।
झांझण : 'राजन् ! यहां कोई मुख्य या साधारण नहीं हैं । सभी स्वधर्मी समान हैं। एक को भी छोड़कर मैं नहीं आ सकूँगा ।'
उसके बाद सम्पूर्ण गुजरात को झांझण ने भोजन कराया ।
भगवान भी कहते हैं : 'हे भाविक ! तू मेरा जाप तो करता है, परन्तु जाप सफल कब होता है जब सबके साथ मैत्री बनाये रखे ।' _ 'सवि जीव करूं' (भवी जीव करूं नहीं) इस प्रकार भगवान ने भावना भाई है । एक भी जीव बाकी होगा वहां मैं नहीं आ सकूगा ।' इस प्रकार भगवान कहते हैं ।
'निन्नाणवे के साथ मैत्री रखूगा, परन्तु एक के साथ तो नहीं ही रखूगा ।' ऐसा भाव होगा तब तक चाहे चातुर्मास करो, तप करो, निन्नाणवे यात्रा करो, उपधान आदि सब कुछ करो, परन्तु आत्मकल्याण नहीं होगा ।
'यहां से घर जायें, उससे पूर्व वैर का विसर्जन करके ही जायेंगे।' यह निश्चय करके ही जायें । यदि एक भी जीव बाकी रखा तो भगवान की कृपा-वृष्टि नहीं होगी।'
ऐसा माहौल देखकर हमारे पू. गुरुदेव (पू. आचार्यश्री गुणसागरसूरिजी) याद आते हैं, जिन्हों ने कहा था - 'जिनशासन में अनन्त शक्ति विद्यमान है, फिर भी वह परस्पर टकराने में नष्ट हो रही है। यदि सकल संघ एक होता हो तो मैं अपने गच्छ की सामाचारी या तिथि का आग्रह नहीं रखूगा ।'
ऐसा मैत्रीपूर्ण वातावरण देखकर स्व. पूज्यश्री की आत्मा अवश्य प्रसन्न हो रही होगी ।
पूज्य आचार्यश्री विजयकलाप्रभसूरिजी : जिनेश्वर भगवान द्वारा कथित आनन्ददायक बातों का रस लिया, स्थिर आसन से, (४२00wwwwwwwwwwwwwwwww कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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स्थिर चित्त से सबने आनन्द उठाया, जिसकी अनुमोदना करते हैं । समस्त श्रोताओं को लाख-लाख धन्यवाद ! हम चाहे जितने एकत्रित हो, निमन्त्रण भी हों, आप आये भी हों, परन्तु यदि श्रवण करने में आपका चित्त एकाग्र न बने तो आप दो-दो घंटे बैठ ही नहीं सकते । इसीलिए आप सबको लाख-लाख धन्यवाद !
समस्त महात्माओं ने जिस सुन्दर शैली में मैत्री की बातें की, उन सबके भाव को सम्मिलित करता यह श्लोक आप सब साथ बोलें -
'शिवमस्तु सर्व जगतः'
'मैं जैन हूं' अमेरिका में निवास करने वाले उन भाई को बचपन में जैन कुल में माता-पिता के संस्कार मिले। अमेरिका में अध्ययन हेतु गये, कमाये ।
एक बार ऐसा हुआ कि उनकी कम्पनी के मालिक ने कहा कि आपका पद और वेतन बढाया गया है। भाई प्रसन्न हुए फिर पूछा के मुझे कार्य क्या करना
_ 'चरबी से बननेवाली दवाइयों की जांच एवं निरीक्षण करें।'
इस भाई ने तुरन्त उत्तर दिया कि 'मैं यह पद नहीं ले सकता। मैं जैन हूं ।'
अन्यत्र नौकरी पर जाना पसन्द किया । घर जाकर पत्नी को बात बताई । पत्नी ने कहा - हम सादगी से रहेंगे । चिन्ता न करें। आपने बहुत अच्छा किया। __जैन कुल मिलने का निमित्त भी पाप से बचाता
- सुनंदाबेन वोरा
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कहे कलापूर्णसूरि - ३00000000000000000000 ४३)
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प्रभु दर्शन में लीनता, कोइम्बत्तूर, वि.सं. २०५३
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२३-७-२०००, रविवार
श्रा. कृष्णा -७
* हमारे पास इस समय न तो तीर्थंकर हैं, न गणधर हैं या नहीं हैं पूर्वधर । आज हमारे पास दो ही आधार हैं - जिनमूर्ति एवं जिनागम ! जिनागम बोलते हुए तीर्थंकर हैं, जिनमूर्ति मौन तीर्थंकर हैं । मूर्ति भी भगवान हैं । 'चउव्विह जिणा' में स्थापना के रूप में मूर्ति भी भगवान हैं । भाष्य में हम यह पढ़ ही चुके हैं ।
ऐसे जिनागमों का एक भाग आवश्यक सूत्र हैं। उनमें से एक सूत्र (नमुत्थुणं) की टीका यह 'ललित विस्तरा' है ।
छ: आवश्यकों में प्रथम सामायिक साध्य है । सामायिक के द्वारा समता मिलती है । समता के आनन्द की झलक के बिना मोक्ष के आनन्द की कल्पना कैसे कर सकेंगे ?
सामायिक के परिणाम बहुत दुर्लभ हैं, परन्तु निराश मत होना । उसे लाने वाले अन्य पांच 'चउविसत्थो' आदि पांच आवश्यक हैं ।
'आचारांग' का अधिकारी कौन है ? शीलांकाचार्य लिखते हैं - जिसने आवश्यक सूत्र, सूत्र, अर्थ तदुभय से भावित किये हुए हैं, जिसने सूत्रों के जोग कर लिए हैं, वह (साधु) इसका अधिकारी है । वही इसके रहस्य समझ सकेगा ।
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जितने रहस्यमय शास्त्र हैं, उन अध्यात्म शास्त्रों में 'आचारांग ' प्रधान है ।
* कर्म सुख दें तो भी विश्वास न करें । पुन्य के विश्वास पर भी रहने जैसा नहीं है । कर्म कब धोखा दें, यह कहा नहीं जा सकता ।
साधन का भी अभिमान नहीं करना है । उपशम श्रेणि पर चढ़े हुए श्रुतकेवली भी अनन्त काल के लिए निगोद में जा सकते हैं, गये हैं ।
* चार जिनों (नाम, स्थापना, द्रव्य एवं भाव - जिन) में इस समय भाव - जिन ही नहीं हैं । शेष तीनों की बराबर आराधना करें तो भाव-जिन मिलेंगे ही ।
* अर्थी अर्थात् केवल अभिलाषी ही नहीं, तीव्र अभिलाषी । रोग नष्ट करने की तीव्र इच्छा हो वैसे रोगी का ही 'केस' वैद्य हाथ में लें । उस प्रकार तीव्र अर्थी ही यहां अधिकारी गिना गया है ।
अर्थी वह कहलाता है जो सामने से ढूंढ़ता हुआ आये । हमें लाखों के समूह एकत्रित करके उनके मध्य जाना नहीं है । लोग ढूंढ़ते हुए आयें तब अभिलाषा प्रतीत होती है ।
कल ही यह बात होनी चाहिये थी, परन्तु पृष्ट उलट जाने से बात रह गई । कोई चिन्ता नहीं । इसमें भी कोई अच्छा ही होगा । अधिक छानबीन होनी होगी ।
यह चैत्यवन्दन जिसे अचिन्त्य चिन्तामणि लगे वह सच्चा अर्थी है । हरिभद्रसूरिजी को अचिन्त्य चिन्तामणि लगा था । हमें लगता है क्या ?
लाखों भवों में एकत्रित किये हुए कर्मों से आये हुए दुर्भाग्य, दुर्गति आदि को उड़ा देने वाला यह चैत्यवन्दन है ।
ऐसा चैत्यवन्दन होते हुए भी विधि न अपनाई जा सके तो दुष्प्रयुक्त औषधि की तरह वह अकल्याणकर बनेगा ।
एक ही चैत्यवन्दन यदि लाखों, करोड़ो भवों के कर्मों को उड़ा देता हो तो आप साधु तो नित्य सात-सात चैत्यवन्दन करते हैं, कितने भाग्यशाली हैं ?
क्या चैत्यवन्दन विधिपूर्वक होता है ?
( कहे कलापूर्णसूरि- ३ wi
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साधु सभा : प्रयत्न करेंगे ।
पूज्यश्री : गोचरी आने के बाद 'खाने का प्रयत्न करेंगे' ऐसा उत्तर देते हैं ?
यहां उत्कण्ठा हो, तड़प हो तो विलम्ब हो भी कैसे ?
औषधि विधिपूर्वक लें तो आरोग्य मिलेगा ही । यदि अविधि से लोगे तो आरोग्य होगा वह भी चला जायेगा । इसीलिए यहां विधि को महत्त्व दिया गया है ।
__ अंजार में डोक्टर यू. पी. देढ़िया, हमारे परिचित थे । वे पूर्व अवस्था में चलती-फिरती होस्पिटल चलाते थे । (मोटर लेकर छोटे गांवो में जाते ।)
एक बार उन्होंने अपना स्वयं का अनुभव एक भाई को बताया : 'एक भाई को दिन में तीन बार पुडियें लेने का कहा । तीन दिनों के पश्चात् रोग नहीं मिटने पर पूछा, तब उसने बताया, 'श्रीमान् ! आपने कहा था न कि पुड़िया लेनी हैं । मैंने पुडिया ली । भीतर का दवा का पाउडर फैंक दिया ।'
चैत्यवन्दन में हम ऐसा तो नहीं करते न ?
प्रभु की भक्ति करने का भाग्य मिले कहां से ? देवचन्द्रजी के कथनानुसार अनन्त पुन्यराशि एकत्रित होने पर प्रभु-भक्ति करने की इच्छा होती है।
* संयम में निश्चलता आयेगी तो गुरु के प्रसाद से ही आयेगी, भगवान की भक्ति से ही आयेगी ।
__ संयम तो लिया परन्तु अब आनन्द नहीं आता । कहां मुझे कुबुद्धि आई कि मैं ने दीक्षा अंगीकार कर ली ? ऐसा विचार करते हो तो सावधान हो जाना । संयम में आनन्द बढ़ता ही है। यदि नहीं बढ़े तो समझ लेना कि विधि में भूल हो गई हैं ।
'गर्म पानी पीने से कुष्ठ हो जाता है ।' ऐसी शंका एक कुष्ठ-ग्रस्त साध्वीजी को हुई । ऐसा नहीं होता न ? बडा भारी विघ्न है यह !
जब मैं राजनादगांव में था तब मेरे ही निकटस्थ व्यक्ति मुझे कहते : 'क्या करोगे वहां दीक्षा लेकर ? साधु तो डण्डे-डण्डे लड़ते हैं ।' मैं कहता : 'आप भला तो जग भला ।' (४६ 00000000000000000 कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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जगत् ऐसा है । संसार में विघ्न आये तो कोई सहायता करने के लिए नहीं आता, परन्तु संयम में विघ्न डालने के लिए सब तैयार है।
अविधि से करो या विधिपूर्वक किये जाने वाले धर्मानुष्ठानों को आप रोको तो उसका प्रत्यपाय खतरनाक है ।
इसीलिए विधिपूर्वक सूत्र दें । अनधिकारी को न दें । 'मैं ने तो शुभ आशय से दिया था । उसने उल्टा किया तो उसमें मैं क्या करूं ?' यह कहकर आप छटक नहीं सकते । आपका भी उत्तरदायित्व है।
अधिकारी को देने से ही भगवान की आज्ञा की आराधना की हुई कही जायेगी, भगवान का बहुमान किया गिना जायेगा, लोक-संज्ञा छोड़ी कही जायेगी, धर्माचार का पालन किया गिना जायेगा ।
इसके अतिरिक्त हितकर मार्ग नहीं है ।
लोग करते हैं वैसे करें वह नहीं चलेगा । यह तो लोकसंज्ञा हुई । इससे मिथ्या परम्परा खड़ी होगी ।
चाहे जैसा व्यक्ति आपको कहे, 'आपके घर में निधान है' तो आप उसके कहने से खोदने नहीं लगोगे । परन्तु यदि आपके पिता अथवा दादा का मित्र हो, विश्वासु हो तो उसके कहने पर ही आप प्रयत्न करोगे ।
* अहमदाबाद में एक ने तनिक भूल की जिसका परिणाम यह आया कि साधु-साध्वीजी को सोसायटी में ठहरने का स्थान मिलना कठिन हो गया ।
पू.पं. भद्रंकरविजयजी म. कहते : रोड़ पर बैठने की अपेक्षा (क्योंकि इससे शासनकी निंदा होती है, जो बड़ा पाप है ।) हरी वनस्पति पर बैठना श्रेष्ठ है, क्योंकि उससे शासन की निन्दा होती है, जो घोर पाप है।
* सवा सौ गाथों के स्तवन के अर्थों में पद्मविजयजी ने लिखा है कि जो आप्त पुरुष हैं, श्रद्धेय हैं, उनका प्रत्येक वचन आगम है। इसी अर्थ में हरिभद्रसूरिजी, यशोविजयजी जैसे आगमिक पुरुषों के वचन भी आगम ही हैं, परन्तु मेरे लिए (पू. कलापूर्णसूरिजी
(कहे कलापूर्णसूरि - ३Commonomosomomoooooo ४७)
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के लिए) तो तीन चौबीसी में (पू. यशोविजयजी, पृ. आनंदघनजी, पू. देवचन्द्रजी की) भी आगम हैं । मुझे तो बड़ी उम्र में अधिक याद नहीं रहता, अतः मेरे लिए ये ही आधार हैं, ये ही आगम
पू. देवचन्द्रजी के स्तवन तो द्रव्यानुयोग एवं भक्ति का खजाना है।
* आप विद्वान वक्ता हैं, लाखों को पहुंचाने वाले हैं, अतः आपके पास बात करता हूं ।
अनेक व्यक्ति कहते हैं : इन वाचनाओं में बोलने का रहने दें । श्रम पड़ेगा । परन्तु मैं कहता हूं : यह श्रम नहीं है। यही श्रम उतारने वाला है। अभी ही वाचना पूर्ण होगी और वासक्षेप लेने वालों की कतार लगेगी । वासक्षेप आदि में समय जाये उसकी अपेक्षा इसमें समय व्यतीत हो तो अधिक अच्छा है।
तदुपरान्त, चिन्ता किस बात की ? ध्यान रखने वाले भगवान बैठे हैं ।
पं. जिनसेनविजयजी म. : द्रव्यानुयोग का विचार कैसे करें ?
पूज्यश्री : पूछा है तो संक्षेप में कह दूं : शुद्ध आत्मद्रव्य अर्थात् परमात्मा । हम संसारी जीवों का अशुद्ध द्रव्य है, कर्म से लिप्त है । यदि भगवान का आलम्बन लेंगे तो अपना आत्म द्रव्य भी शुद्ध बनेगा ।
पू. देवचन्द्रजी कहते हैं : जब तक मेरी शुद्धता नहीं होगी, तब तक तेरी शुद्धता का आलम्बन मैं छोड़ने वाला नहीं हूं।
'सकल सिद्धता ताहरी रे, माहरे कारण रूप ।'
जगतसिंह सेठ ने ३६० व्यक्तियों को करोड़पति बनाया था । जो आये उन्हें करोड़पति बनाये । भगवान हम सबको अपने समान करोड़पति से भी अधिक बनाना चाहते हैं । सेठ का धन तो घटता जाता है । यहां प्रभु के पास कुछ भी कम नहीं होता ।
[४८ 6000000000
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कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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बाएं से पू. देवेन्द्रसूरिजी, पू. कनकसूरिजी आदि
२४-७-२०००, सोमवार
श्रा. कृष्णा -८
* 'संसार में थोडा सा ज्ञान प्राप्त कर के 'फूलणजी' बनने वाले हम जैसों की दशा क्या होती ? यदि ये जिनागम हमें नहीं मिले होते ?' ये उद्गार श्री हरिभद्रसूरिजी के हैं ।
हमारी बुद्धि कूप-मण्डूक जैसी है । कुंए का मैंढ़क कूदफुदक कर कहता है - क्या आपका समुद्र इससे भी बड़ा है ? असम्भव, हो ही नहीं सकता ।
हमारी ऐसी तुच्छ बुद्धि है, फिर भी आश्चर्य तो देखो । तुच्छ बुद्धि का भी अभिमान कितना ? यह अभिमान ही हमें जिनागम समझने नहीं देता । स्व-बुद्धि के अहंकार का परित्याग किये बिना जिनागम कदापि समझ में नहीं आते ।
* अध्यात्म-तत्त्व के गहन अभ्यासी आनंदघनजी ने भी नौवे भगवान के स्तवन में पूजा की विधि बताई है। जिसमें उल्लेख है कि सच्चा अध्यात्म-वेत्ता कदापि प्रभु-पूजा की उपेक्षा नहीं कर सकता । जो उपेक्षा करता है वह अध्यात्म-वेत्ता हो ही नहीं सकता ।
इस अध्यात्म का वर्णन ग्यारवे स्तवन में आया है, जिसमें लिखा है कि जहां अध्यात्म होता है वहां कामनाऐं समाप्त हो जाती हैं । (कहे कलापूर्णसूरि - ३ 66 6 6 6 6 6 6 6 6 ४९)
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___ 'ते केवल निष्कामी रे ।' कामनाएं समाप्त हो जायें तो ही अपने नाम एवं रूप का प्रभु में विसर्जन हो सकता है तो ही 'अहं' का 'अर्ह' में विलय हो सकता है।
__भक्ति के बिना ज्ञान की सफलता नहीं है । महान विद्वान जंबूविजयजी म. जिनका नाम आपने सुना ही होगा । वे आगमों के श्रेष्ठ सम्पादक-संशोधक के रूप में प्रसिद्ध हैं, परन्तु उनका प्रभुप्रेम तो देखो ।
बीस माला गिने बिना कभी पच्चक्खाण पारते नहीं । भक्ति-युक्त ज्ञान ही प्रवर्तक ज्ञान बन सकता है ।
भक्ति-रहित ज्ञान तो केवल अहंकार-पोषक एवं अहंकारप्रदर्शक ही कहलाता है ।
* 'सभी जीव मोक्ष में जायें, बाद में ही मैं मोक्ष में जाऊंगा । जगत् के समस्त जीवों के पाप मुझ में संक्रान्त हो जायें ।' बुद्ध की ऐसी करुणा की बातों से ही सिद्धर्षि प्रभावित हो गये थे। उन्हें हुआ होगा - 'अपने भगवान तो वीतराग हैं । हमें संसार में भटकते छोड़कर वे मोक्ष में चले गये । करुणा तो सचमुच बुद्ध की ही है।'
__इस प्रकार सोच-सोचकर इक्कीस बार बौद्ध भिक्षु बनने के अभिलाषी सिद्धर्षि गणि का मस्तिष्क ठिकाने लाने वाला यह 'ललित विस्तरा' है। यह 'ललित विस्तरा' इस समय वाचना में चलता है।
प्रश्न : सम्पूर्ण विधिपूर्वक स्थान, वर्ण, अर्थ, आलम्बन आदि सहित चैत्यवन्दन करने वाले कितने हैं ? अतः अपवाद मार्ग से अविधि से चैत्यवन्दन हो तो क्या हर्ज है ?
उत्तर : भाई ! आप अपवाद-उत्सर्ग के सम्यग् ज्ञाता नहीं हैं । अपवाद किसे कहते हैं ? चाहे जिसे अपवाद नहीं कहा जाता । मार्ग पर चढ़ाये वह अपवाद कहलाता है, जो उन्मार्ग का पोषण करे उसे अपवाद नहीं कहा जाता । इस प्रकार तो अविधि की ही परम्परा चलेगी । अपवाद सदा अधिक दोषों की निवृत्ति के लिए होता है । जंगल में मुनि जाते हों, और उस समय दोषयुक्त गोचरी वापरनी पड़े तो अपवाद है, क्योंकि उपवास तो अधिक समय तक नहीं किये जा सकते । (५०wwwsas an is an am
कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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पूर्व के सत्त्वशाली मनुष्य के द्वारा सेवित एवं शुभ के अनुबंध वाला अपवाद होना चाहिये । चाहे जिस प्रवृत्ति को अपवाद नहीं
कहा जा सकता ।
सूत्र को बाधा आती हो, हित-अहित या गुरु-लाघव का सोच न हो उसे अपवाद नहीं कहा जाता । ऐसा अपवाद तो भगवान तथा भगवान के शासन की अपभ्राजना करने वाला है ।
क्षुद्र सत्त्वों के द्वारा आचरित को अपवाद नहीं कहा जाता । छोटे से घास के तिनके अथवा पत्ते को तैरता देखकर उसके आलम्बन से आप तर नहीं सकते । उस प्रकार ऐसे क्षुद्र अपवाद से आप टिक नहीं सकते ।
* इस शासन की गम्भीरता को आप सोचे, शासन की गम्भीरता आप लोगों को भी बतायें ।
इसी ग्रन्थ में आगे आएगा अभय, चक्षु, मार्ग, शरण अथवा बोधि भगवान के पास से ही मिलेंगे, अन्य कहीं से नहीं मिलेंगे यह बात अच्छी तरह समझायेंगे ।
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इस ग्रन्थ में एक ओर भगवान की करुणा को बताने वाले विशेषण आते जायेंगे । साथ ही साथ अन्य अन्य दार्शनिकों के कुमतों का खण्डन भी आता जायेगा ।
अन्य दर्शनों का निरुपण एकांगी होगा। यहां अनेकान्त होगा । यह बड़ा अन्तर होगा ।
जैन दर्शन इतना विशाल है कि संसार के समस्त धर्म समा जायें । एक ऋजुसूत्र नय में बौद्ध दर्शन का समावेश हो गया । इसीलिए जैन दर्शन राजा है । समस्त धर्मो का एक पुरुष बना लें तो सिर के स्थान पर जैन दर्शन है । अन्य समस्त दर्शन हाथ-पैर, पेट आदि के स्थान पर हैं । नास्तिक दर्शन भी पेट के स्थान पर है ऐसा आनन्दघनजी ने कहा है । जैन दर्शन विशाल समुद्र है, जहां समस्त धर्मों की नदियों का समावेश है । जैन-दर्शन माला है, जिसमें सर्व धर्म मणकों के रूप में पिरोये हुए हैं ।
परन्तु याद रहे सागर में नदियां हैं, नदी में सागर नहीं हैं । माला में मणके हैं, मणके में माला नहीं है । जैन दर्शन
कहे कलापूर्णसूरि- ३
SHE CITIESTERONEY CYRAIMAHDI ५१
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में सब धर्म हैं, सब धर्मों में जैन-दर्शन नहीं है।
ऐसे स्याद्वादमय जैन-दर्शन को कौन परास्त कर सकता है ? ___ काशी में एक वादी को काशी का कोई विद्वान परास्त नहीं कर सका, परन्तु हमारे उपा. श्री यशोविजयजी ने उसे परास्त किया था । __ यह जैन-दर्शन की विजय थी ।
* क्षुद्र पुरुषों द्वारा किया हुआ अपवाद के रूप में नहीं लिया जाता । सत्त्वशालियों का आलम्बन लेना है । वज्रमुनि को विचलित करने के लिए उस देव ने भिन्न-भिन्न रूप करके कैसे प्रयत्न किये थे ? एक भी दोष नहीं लगने दिया । अतः प्रसन्न होकर देव ने उन्हें आकाशगामिनी तथा वैक्रिय लब्धि की विद्या प्रदान की । ऐसे सत्त्वशाली पुरुषों का आचरण प्रमाण गिना जाता है । ऐसे व्यक्तियों का आलम्बन लिया जाता है, क्षुद्र सत्त्ववालों का आलम्बन नहीं लिया जाता ।
* वज्र के अक्षरों से हृदय की तख्ती पर एक पंक्ति लिख रखें, जो मैं बार-बार कहता हूं -
__'प्रभु-पद वलग्या ते रह्या ताजा;
अलगा अंग न साजा रे ।' जिस गुफा में सिंह होता है, वहां अन्य क्षुद्र प्राणी क्या आ सकते हैं ? जहां भगवान बिराजमान हों, वहां क्या मोह आदि आ सकते हैं ?
भगवान मोक्ष में गये अतः उनके अतिशय आदि भी चले गये, यह न मानें । उनकी शक्तियां आज भी कार्य करती है - नाम रूप में, तीर्थ रूप में ।
उनके शासन से ही तो हमें इतना मान मिलता है । दक्षिण में देखा दूर-दूर से हजारो मनुष्य दौड़े आते हैं । यह किसका प्रभाव है ? यह पूजातिशय भगवान का नहीं तो किसका है ? क्या मेरा है ? भगवान का यह प्रभाव इक्कीस हजार वर्षों तक ऐसा ही रहेगा ।
यहां ही देखो न ? इतने ठाणे हैं, फिर भी वस्त्र, आहार, वसति के सम्बन्ध में क्या किसी को कष्ट हुआ ? किसी को कष्ट हुआ हो तो बताना । क्या यह शासन का प्रभाव नहीं है ? (५२ oooooooooooooooooo कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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बीस वर्ष पूर्व यहां चातुर्मास में २४० साध्वीजी थी । किसी को कुछ कहना न पड़े। वस्त्रों आदि का ढ़ेर स्वयमेव लगता जाये । आधोई संघ जो मुख्य चातुर्मास कराने वाला था, उसे कुछ भी लाभ नहीं मिला ।
* आप असत्य नहीं बोलोगे तो आपके वचनों में वचन-सिद्धि लब्धि प्रकट होगी । आप किसी को पीड़ा हो वैसा व्यवहार मन, वचन, काया से नहीं करो तो उपशम की लब्धि प्रकट होगी । आप संयम का उत्तम प्रकार से पालन करो तो अनेक अद्भुत लब्धियां उत्पन्न होंगी, परन्तु सुनो । ये लब्धियां आपकी हैं यह मत मानना । यह भगवान का प्रभाव है, यह मानना ।
लोग कैसी हवा फैलाते हैं ? मुझे अवधिज्ञान हुआ है । ऐसी बात कर्णाटक, आन्ध्र, तामिलनाडु आदि राज्यों में बहुत ही फैल गई। कितने ही फोन आदि आये । मैं कहता हूं, ऐसा कुछ हुआ नहीं है।
पू. हेमचन्द्रसागरसूरिजी : हुआ हो तो क्या पता ?
पूज्यश्री : हमें अवधिज्ञान हो या न हो, लोगों को पहले ज्ञान हो जाता है ।।
एक उदाहरण बताता हूं । राजनादगांव में चतुर्थ व्रत ग्रहण किया, अतः लोगों ने अफवाह फैलाई - ये अक्षयराजजी तो दीक्षा लेने वाले हैं । उस समय दीक्षा लेने की बात मेरे मन में भी नहीं थी । दीक्षा की कोई बात ही नहीं थी । संयोग भी नहीं था, परन्तु दो वर्षों में ही दीक्षा ग्रहण करने के भाव जगे । उस समय कहता - 'आपकी बात सच्ची सिद्ध हो ।'
यहां भी ऐसा ही होगा न ? अभी नहीं तो अगले भव में । कभी तो केवल ज्ञान होगा न ? हमें नहीं होगा तो किसे होगा ?
अवधि ज्ञान नहीं, अनुभव ज्ञान हो ऐसी तमन्ना है; जिसे हरिभद्रसूरिजी ने संस्पर्श ज्ञान कहा है ।
अवधि ज्ञान की क्या बात करते हैं । केवल ज्ञानी के ग्रन्थ कण्ठस्थ हों तो अपने पास केवल ज्ञान है । आप अवधि ज्ञान की कहां कहते हैं ?
* सकल कुशल वल्ली बोलें, तब जगचिन्तामणि० चैत्यवन्दन (कहे कलापूर्णसूरि - ३ 6 6 6 6 6 6 0 0 0 0 0 0 0 ५३)
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नहीं बोलते । क्या कारण है ?
पूज्यश्री : जगचिन्तामणि का भाव सकल कुशल वल्ली० में आ गया । यही कारण है । आप सोचोगे तब ध्यान आ जायेगा । अक्षर अर्थ की ओर ले जाते हैं, अभिधान, अभिधेय की ओर ले जाते हैं । यह नियम है, परन्तु आप तो जगचिन्तामणि आदि के अक्षर इतनी तीव्र गति से बोलते है कि अक्षर ही पकड़े नहीं जाते तो फिर अर्थ कहां से पकड़े जायें ?
गोचरी में आप जो जो नाम गिनाओ, वे वस्तुएं आपके पात्रों में आ जाती हैं कि नहीं ?
क्या नाम - नामी का सम्बन्ध समझ में आता है ? यहां जगचिन्तामणि बोलते समय उस प्रकार के भगवान हमारे मानसपटल पर क्यों न आयें ?
चिन्तामणि तो जड़ है । भगवान परम चैतन्यरूप हैं । यह भारी अन्तर है।
ऐसे चिन्तामणि से क्या मांगोगे ? 'सकल प्रत्यक्षपणे त्रिभुवन-गुरु, जाणूं तुज गुण ग्रामजी; बीजुं कांई न मागू स्वामी ! एहिज छे मुझ कामजी ।'
पू. देवचन्द्रजी महाराज की इस प्रार्थना में क्या बाकी रहा ? केवलज्ञान तक का आ गया ।
__यह सब समझ कर यदि आप जगचिन्तामणि बोलेंगे तब अपूर्व भावोल्लास बढ़ेगा । _ 'भगवान जगन्नाह' - भगवान जगत् के नाथ हैं उस प्रकार वे जगत् के गुरु भी हैं, जगत् के रक्षक भी हैं । (जग-रक्खण)
दुर्गति दुर्भाव से होती है। भगवान दुर्भावों को रोक कर हमें दुर्गति से बचाते हैं । इस तरह भगवान जगत् के बन्धु हैं । भगवान ठेठ मोक्ष तक पहुंचाने वाले सार्थवाह हैं । जगसत्थवाह !
भगवान के संघ में एक बार आप जुड़ जायें । फिर मोक्ष तक का उत्तरदायित्व भगवान का ।।
(५४00000000000000000000 कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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SCORIANRAISAARERNSERIALISARKIDSORAMERAMANG
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दक्षिण भारत में प्रतिष्ठा
२५-७-२०००, मंगलवार
श्रा. कृष्णा -९
गुणों आदि के लिए पुरुषार्थ करने पर भी वह गौण है, भगवान की कृपा ही मुख्य है। भगवान की कृपा से ही वे गुण आते हैं ।
देव एवं गुरु की कृपा भक्ति के अधीन है। गुरु की इच्छा नहीं होने पर भी शिष्य भक्ति के द्वारा उनकी कृपा प्राप्त कर सकता है । एकलव्य उसका उत्कृष्ट उदाहरण है । द्रोणाचार्य की कहां इच्छा थी ? फिर भी एकलव्य अर्जुन से भी बढ़कर तीरन्दाज बन गया ।
_ 'पत्ते में ये छेद किसने किये ? भौंकते हुए कुत्ते को किसने शान्त किया ?' यह कार्य एकलव्य का है, यह जानकर द्रोणाचार्य को भारी आश्चर्य हुआ । 'द्रोण गुरु की कृपा से ही मैं यह सीखा हूं ।' यह उत्तर सुनकर तो द्रोण के आश्चर्य का पार न रहा ।
यह हकीकत हम जानते हैं ।
गुरु की आप सेवा करते रहें । गुरु कदाचित् अल्प ज्ञानी होंगे तो भी आप उनसे भी अधिक ज्ञान प्राप्त कर सकोगे । गौतम स्वामी के पचास हजार शिष्य इसके उत्कृष्ट उदाहरण हैं । गौतम स्वामी के पास कहां केवल ज्ञान था ?, फिर भी पचास हजार (कहे कलापूर्णसूरि - ३ 6666666666666666666666 ५५)
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शिष्य प्राप्त कर पाये न ?
गुरु के विनय से प्राप्त ज्ञान अभिमान उत्पन्न नहीं करता । जिस ज्ञान से अभिमान उत्पन्न हो, उसे ज्ञान कहा भी कैसे जाये ?
* 'ललित विस्तरा' ग्रन्थ की पात्रता के तीन गुण अवश्य याद रखें । यही उसकी नींव है। नींव में ये गुण न हों तो 'ललित विस्तरा' का श्रवण आपका उद्धार नहीं कर सकेगा ।
* संसार-रसिक जीव धर्म नहीं कर सकता । कदाचित् करे तो अपने भौतिक मनोरथ पूर्ण करने के लिए ही करेगा । भले ही वह शंखेश्वर जाये, महुडी जाये अथवा यहां आये, परन्तु उसके मन में संसार बैठा होगा । ऐसे जीवों को भवाभिनंदी कहा है । ऐसे जीव धर्म के लिए अपात्र हैं ।
जिसके कर्म क्षीण हो गये हों, जिसके हृदय में शुद्ध आशय हो, जिसका संसार के प्रति राग मन्द पड़ गया हो, वैसे जीव ही इसके श्रवण के लिए योग्य हैं ।
भारी कर्म किया हुआ, मलिन-आशयी, संसार-रसिक जीव तो इसके लिए सर्वथा अनधिकारी हैं ।
ऐसे अपात्र जीव भगवान की शुद्ध देशना सुन ही नहीं सकते । शुद्ध धर्मदेशना अर्थात् सिंहनाद ! उसे सुनते ही हिरनों के समान संसार-रसिक जीव तो कांप ही उठते हैं। ऐसे लोग विधि की बात सुनते ही चौंक पड़ते हैं, धर्म करना ही छोड़ देते हैं । ऐसे करना, ऐसे नहीं करना, ऐसे बोलना, ऐसे नहीं बोलना, ऐसे बैठना, ऐसे नहीं बैठना, ये फिर क्या है ? हमारा इसमें काम नहीं है ।
भवाभिनंदी को आप विधि समझाने बैठे तो ऊपर बताये अनुसार सोच कर जो करते हों वह धर्म भी छोड़ देगा ।
__ योग्य जीवों के पास योग्य पुस्तकें आदि या योग्य प्रवचन आदि मिलने पर नाच उठे । __. * ज्ञान भण्डार में जो पुस्तकें है वे निरर्थक नहीं है। उनके योग्य कोई न कोई जीव इस विश्व में हैं ही । योग्य समय पर वे आ ही पहुंचेगें । पुस्तकें स्वयं के योग्य पाठकों की प्रतीक्षा करती हुई भीतर बैठी हुई हैं। (५६0000000000 sooooooooo कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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अपात्र को शास्त्र श्रवण कराना अर्थात् चढ़ते हुए ज्वर में औषधि देना । इस प्रकार औषधि दोगे तो उल्टी अधिक हानी होगी ।
जिसकी बुद्धि शान्त नहीं हुई, जो सतत उफान एवं विह्वलताओं में जी रहा है, उसके पास ऐसी बातें करना व्यर्थ है ।
ऐसे मनुष्यो के पास भगवान की कृपा अथवा करुणा की बातें करेंगे तो भी उल्टा अर्थ लगायेंगे - बैठे हैं न भगवान ! करेंगे यह सब ! भगवान करुणा के सागर हैं !
- स्वयं निष्क्रिय होकर बैठ जायेंगे । उसके लिए भगवान की करुणा को आगे धरेंगे ।
भगवान की करुणा की बात करने का भगवान के भक्त के अतिरिक्त अन्य किसी को अधिकार नहीं है।
* प्रभु का भक्त भगवान के मन्दिर में जाकर निसीहि पूर्वक समस्त सांसारिक प्रवृत्तियों का त्याग करके, तीन प्रदक्षिणा देकर, तीन बार भूमि को पूंजकर भगवान को गद्गद् होकर नमस्कार करता
भक्ति का प्रकर्ष ऐसा बढ़ता है कि हृदय में भक्ति का सागर हिलोरे लेता है ।
चन्द्रमा को देखकर सागर उछलता है, उस प्रकार प्रभु को देखकर भक्त का हृदय उछलता है । _ 'जिन गुण चन्द्र किरण शुं उमट्यो, सहज समुद्र अथाग; मेरे प्रभु शुं प्रगट्यो पूरम राग ।'
- उपा. यशोविजयजी भक्ति की अधिकता से ऐसा वेग आये कि नेत्रों में से हर्ष के आंसू आयें ।
सम्पूर्ण देह रोमांचित हो उठे, साढ़े तीन करोड़ रोमावलि भगवान के नाम से खड़े हो जायें । आज भगवान की भक्ति करने का अवसर प्राप्त हुआ है। उनके चरणों में रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। कैसी दुर्लभ है यह भगवान के चरणों की सेवा ? मेरे जैसे रंक को यह प्राप्त हो गई ? मैं अपने भाग्य का क्या वर्णन करूं ? कितने ही भवों के पुन्य एकत्रित हुए होंगे तब ऐसे भगवान मिले हैं। (कहे कलापूर्णसूरि - ३00mmommmmmmmmmmmmm ५७)
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मानो, चाहे न मानो, पूर्व के अनेक भवों की कमाई के रूप में ही ऐसा भव और ऐसे भगवान मिले हैं । यह निश्चित बात है । ऐसे भव का एक पल भी आप व्यर्थ न जाने दें ।
'समयं गोयम मा पमायए' यह सूत्र सदा याद रखें । चिन्तामणि, कल्पवृक्ष, इन्द्रत्व, चक्रित्व अथवा अन्य कुछ भी मिलना सरल है, परन्तु प्रभु की सेवा मिलना कठिन है ।
संसार अर्थात् भयंकर सागर, जिसमें मिथ्यात्व का जल भरा हुआ है । अनेक कदाग्रहों के मगरमच्छ आदि जलचर जीव हैं । ऐसे इस संसार में भगवान मिलें कहां से ?
ऐसे दुर्लभ मानव-भव का जीवन भी कितना चंचल है ? क्षण भर पूर्व खुली आंख क्षण भर के पश्चात् बंद भी हो जाये । किसे खबर है ? मद्रास में हम देखते कि कितने ही बिचारे 'हार्ट' आदि के ओपेरशन के लिए आते । छोटे बच्चों के भी 'हार्ट' के ओपरेशन ! उसमें भी जीवन-मरण के मध्य झोले खाते मनुष्य ! देखकर आयुष्य की अनित्यता याद आती है ।
मेरी नित्य की आदत, वापरने से पूर्व जिनालय में जाकर चैत्यवन्दन करने की ! उससे पूर्व मैं वर्षीदान की शोभायात्रा में गया । (भुज - वि. संवत् २०४६) मुझे कहां पता था कि अब मैं जिनालय में नहीं, होस्पिटल में होऊंगा ?
हजारों मनुष्य थे, परन्तु किसी को नहीं, मुझे ही गाय के कारण धक्का लगा, फ्रैकचर हुआ, गोला टूटा । मैं होस्पिटल में दाखिल हुआ । याद रहे यह क्षण अपने हाथ में है । आगामी क्षण हाथ में नहीं है । जितना हुआ उतना अपना । अतः करने का शीघ्र कर लो ।
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मद्रास में भी चले जाने जैसी दशा हो गई थी । ऐसी स्थिति में से बचानेवाला भगवान हैं। मैं तो यह मानता हूं । भगवान में मैं माता का स्वरूप देखता हूं । वह अपने बालक को कैसे दुःख होने दे ?
भगवान अपना सच्चा स्वरूप भक्त को ही बताते हैं । भक्त के बिना भगवान एवं भक्ति की बात दूसरे को समझ में ही नही आती । उसे तो नशा अथवा पागलपन ही लगता
५८ कळ
OOOOOOOO १ कहे कलापूर्णसूरि -
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है । भक्त को समझने के लिए भक्त बनना पड़ता है । ज्ञानी को समझने के लिए ज्ञानी बनना पड़ता है । भक्त की ऊंचाई पर पहुंचने के पश्चात् ही भक्ति की बात समझ में आती है ।
भक्त के हृदय में भगवान आते हैं, यह बात आपकी समझ में नहीं आयेगी । केवल बकवास लगेगा, परन्तु भक्त के लिए यह सीधी-सादी बात है । चित्त दर्पण के समान निर्मल बनने पर भगवान चित्त में प्रतिबिम्बित होंगे ही। इसमें आश्चर्य ही क्या है ? अभक्त हृदय को यह बात समझ में नहीं आती ।
इस पुस्तक को पढ़ने से जीवन में निम्नलिखित लाभ हुए :
विशिष्ट प्रकार से भगवद् भक्ति करने के लिए मन लालायित हुआ ।
क्रिया सूत्र, अर्थ एवं तदुभय से भावित रीति से होने लगी ।
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सम्बन्ध देखे बिना परोपकार करने की इच्छा हुई । साध्वी भद्रंकराश्री
यह पुस्तक पढ़ने से अनेक लाभ हुए हैं । प्रभु के प्रति भक्ति, संयम के प्रति श्रद्धा और ज्ञान के प्रति रूचि में वृद्धि हुई है ।
साध्वी प्रियदर्शनाश्री
H
यह पुस्तक तो अमृत का प्याला है । जो पुण्यात्मा इसका पान करेंगे, वे सचमुच अमर हो जायेंगे ।
साध्वी संवेगपूर्णा श्री
कहे कलापूर्णसूरि ३
100 ५९
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११ दीक्षा प्रसंग, भुज, वि.सं. २०२८, माघ शु. १४
६.प. नीशर ग
२६-७-२०००, बुधवार श्रा. कृष्णा - १० : सात चौबीसी धर्मशाला
सामुदायिक 'अरिहंत पद' जाप,
पू. हेमचन्द्रसागरसूरिजी : पूज्य आचार्य श्री विजयकलापूर्णसूरिजी बराबर समय पर आ गये हैं । मंत्र - ग्रहण का समय हो चुका है ।
चलो, सब साथ बोलें :
जो शक्ति मुजने मले, आपुं सौने सुख;
कर्मना बंधन टाळीने, कापुं सहुना दुःख ॥ १ ॥ मुजने दुःख आपे भले, तो पण खमुं तास; सुख पीरसवा सर्वने, छे मारो अभिलाष ॥ २ ॥ जगना प्राणीमात्रने, व्हाला छे निज प्राण; माटे मन-वच-कायथी, सदा करूं तस त्राण ॥ ३ ॥ आशीर्वाद मुजने मळो, भवो भव ए मुज भाव; त्रस-स्थावर जीवो बधा, दुःखीया को नव थाव ॥ ४ ॥ भवोभव ए मुज भावना, जो मुज धार्युं थाय; तो श्रीजिनशासन विषे, स्थापुं जीव बधाय ॥ ५ ॥
६० wwwwwwwwwwwww कहे कलापूर्णसूरि -
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( पूज्यश्री के वन्दन के पश्चात् आत्म - रक्षा मंत्र ) पूज्य श्री की ओर से सब को तीन बार नवकार दिया गया । पू. जिनचन्द्रसागरसूरिजी के द्वारा 'नमो अरिहंताणं' १०८ बार बुलवाया गया ।
पू. मुनिश्री धुरंधरविजयजी म. : समवसरण में अष्ट प्रातिहार्य युक्त भगवान बैठे हैं । ऐसे भावपूर्वक सभी एक घंटे तक 'नमो अरिहंताणं' का जाप करें ।
बहन के रूप में सम्बोधन का अवसर अमेरिका में निवास करने वाला वह युवक बचपन से परिचित था, अतः 'काकी' कह कर बुलाता था । उसके शहर में प्रवचन करने के लिए जाना पड़ा । उसके घर पर गई । घर में देखा मदिरा का ठेका था । देश के वेश के अनुसार व्यसन सेवन होता रहा । मैंने उसे उसका बचपन स्मरण कराया 'कहां तेरे माता-पिता के संस्कार और कहां यह दुराचार ?' उसके बाद धर्म की अनेक कथाएं कही ।
सायंकाल प्रवचन में उसे मेरा परिचय देना था । तब मैंने कहा 'बहन' कह कर परिचय देना ।' उसने परिचय देते समय सार्वजनिक रूप से कहा कि 'बहन' सम्बोधन का मुझे जो अवसर मिला उसके लिए मैं आज से मदिरा (शराब) पीने का त्याग करता हूं । पुण्ययोग से उसे धर्म की भावना वाले भाई की मित्रता थी, वह अधिक परिचित हुई और वह स्वयं ही धर्म-भावना में जुड़ गया ।
सुनन्दाबेन वोरा
( कहे कलापूर्णसूरि ३
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०४ ६१
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भुज चातुर्मास, वि.सं. २०४३
२६-७-२०००, बुधवार
श्रा. कृष्णा -१०
* जिनागम में प्रत्येक सूत्र अनन्त अर्थपूर्ण होता है। क्या बात मस्तिष्क में बराबर नहीं बैठती ? अनेक व्यक्तियों को मस्तिष्क में नहीं बैठती । पंजाब में व्याख्यान-दाता समयसुन्दरजी की इस बात में वहां के श्रोताओं को विश्वास नहीं हुआ, तब उन्हों ने दूसरे दिन एक ही वाक्य के आठ लाख अर्थ करके बताये । आज भी वह अष्टलक्षी ग्रन्थ विद्यमान है । 'राजानो ददते सौख्यम् ।' उक्त ग्रन्थ में इस वाक्य के आठ लाख अर्थ हैं ।
सामान्य वाक्य के भी आठ लाख अर्थ होते हैं तो भगवान की वाणी के अनन्त अर्थ क्यों नहीं हो सकते ?
गम्भीर अर्थों से परिपूर्ण ऐसे जिनागम मिलने पर कितना आनन्द होना चाहिये ?
_ 'नमस्कार-स्वाध्याय' नामक पुस्तक में 'नमो अरिहंताणं' के १०८ अर्थ किये हुए है, पढ़ लें ।
* चैत्यवन्दन नित्य सात बार करते ही हैं, परन्तु क्या यहां लिखे भाव हृदय में जगते हैं ? मैं कहता हूं - मेरे हृदय में ऐसे भाव नहीं जगते । श्री हरिभद्रसूरिजी अजैन कुल में उत्पन्न हुए (६२0000000000000000000 कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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थे फिर भी उन्हें ऐसे भाव आते थे ।
इसीलिए उन्हों ने लिखा - चैत्यवन्दन करते समय आंखों में से हर्ष के आंसु न आयें तो समझें कि अभी तक मेरी भक्ति अधूरी है । शोक, दीनता आदि के कारण अनेक बार आंसू गिर चुके हैं । क्या भक्ति के कारण कभी आंसू गिरे हैं ? यदि भगवान के प्रति अगाध प्रेम हो तो ही ऐसा संभव है।
हरिभद्रसूरिजी को दीक्षा ग्रहण नहीं करनी थी, फिर भी ले ली । गुरु ने योग्यता देखकर उन्हें दीक्षा प्रदान कर दी । फिर भी उन्हें प्रभु के प्रति अपूर्व प्रीति जगे और हम प्रभु-प्रेम से लाखों योजन दूर रहें, यह कैसा ?
* मन प्रसन्न न हो तो कृपा करके मन्दिर न जायें, अन्यथा गुरु के समक्ष चाहे जैसे बोल देते हो, उस प्रकार कभी भगवान के समक्ष भी बोल जाओगे ।
प्रसन्न चित्त के बिना प्रभु-भक्ति नहीं होती । साथ साथ यह भी समझ लें कि प्रभु की भक्ति के बिना चित्त की प्रसन्नता भी नहीं मिलेगी ।
प्रश्न यह उठता है कि चित्त प्रसन्न हो तो भक्ति हो सकती है या भक्ति करें तो चित्त प्रसन्न बनता है ?
दोनों परस्पर सापेक्ष हैं । सामान्यतः चित्त प्रसन्न हो तब ही प्रभु की भक्ति करने से चित्त विशेष प्रसन्न होता है। अत्यन्त कलुषित मन प्रभु-भक्ति में एकाकार नहीं बनता ।
गृहस्थों के लिए इसी लिए द्रव्य-पूजा आवश्यक हैं । अनेक आरम्भ-समारम्भों, धन्धे से चित्त व्यग्र बना हुआ हो, द्रव्य-पूजा करते-करते मन तनिक निर्मल बनता है। उसके बाद चैत्यवन्दन में मन लगता है । इसी कारण से आनंदघनजी ने नौवे स्तवन में द्रव्य-पूजा की बात की होगी न ?
चैत्यवन्दन करते समय स्वाध्याय बिगड़ता है, यह कदापि न मानें । स्वाध्याय के द्वारा आखिर यही करना है । समय बिगड़ता नहीं है, परन्तु सफल होता है, यह माने ।
चैत्यवन्दन करते समय अन्य समस्त कर्त्तव्यों का त्याग चाहिये । गृहस्थों को धंधे आदि के विचार नहीं करना चाहिये । साधुओं (कहे कलापूर्णसूरि - ३ mmmmmmmmmmmmmm ६३)
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को वसति आदि के विचार नहीं करने चाहिये । मन पूर्णतः भगवान में लीन चाहिये ।
श्री हरिभद्रसूरिजी ने लिखा है : 'न च अतः परं कृत्यमस्ति ।' चैत्यवन्दन से बढ़कर अन्य कोई कार्य विश्व में नहीं है ।
गृहस्थों को प्रधानमंत्री का पद प्राप्त हो जाये तो कितने प्रसन्न हों। उससे भी अधिक आनन्द यहां होना चाहिये । सत्ता के सिंहासन पर बैठने के आनन्द की अपेक्षा भगवान के चरणों में बैठने का आनन्द बढ़कर है । इसीलिए भक्त चक्रवर्ती बनने की इच्छा नहीं करता, परन्तु वह भगवान का सेवक बनने की इच्छा करेगा । __ संसार की सेवा तो बहुत की, अब प्रभु की सेवा करनी
___अभी आणंदजी कल्याणजी पेढ़ी के समस्त कर्मचारी (पुजारी) आदि आये थे तब मैंने कहा था - 'किन्हीं बड़े सेठों को भी न मिले ऐसा महत्त्वपूर्ण कार्य (आजीविका चलाने का धंधा) आपको मिला है । अत्यन्त पुन्योदय मानकर ये प्रभु की पूजा आदि के कार्य करें ।
उन्हों ने उत्तर दिया : गुरुदेव ! अब हम ऐसा (हडताल करने का) कदापि नहीं करेंगे ।
* किसी भव में साथ न छोडें ऐसे मित्र, साथी, बन्धु अथवा रिश्तेदार भगवान के अतिरिक्त अन्य कोई है ?
अतः आनंदघनजी ने कहा है : 'ऋषभ जिनेश्वर प्रीतम माहरो रे, और न चाहूं रे कंत ।'
यहां चेतना ही अपने चेतन को कहती है, अब तो बस मेरे एक ही पति हैं, परमात्मा ! मुझे अब अन्य कोई कन्त नहीं चाहिये; क्योंकि इन परमात्मा का ही साथ ऐसा है जो कदापि छूटता नहीं
ऐसा प्रेम जगे तो भक्ति जगे बिना नहीं रहेगी।
सबका मूल प्रभु-प्रेम है। प्रीतियोग का विकास ही भक्तियोग है । उसका विकास वचन एवं उसका विकास असंग योग है । भक्ति, वचन और असंग में प्रेम नहीं है, ऐसा नहीं माने । क्रमशः प्रेम वहां बढ़ता ही जाता है ।
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भगवान के समान प्रेम अन्य कहीं भी न हो वह प्रीतियोग है । धन, शरीर, मकान, कीर्ति, शिष्य आदि समस्त पदार्थों से बढ़ जाये वैसा प्रेम प्रभु के प्रति होना चाहिये । यदि अन्यत्र प्रेम होगा तो भगवान नहीं आयेंगे । भगवान कदाचित् सोचते होंगे कि भक्त को अभी भटकना है, भटकने दो । थक कर आयेंगे तब बात ।
हम दोनों ओर प्रेम रखते हैं । दूध तथा दही में, संसार में तथा भगवान में प्रेम रखते हैं । इस प्रकार भगवान नहीं मिलते । ____मैं इतना कहता हूं फिर भी आप में प्रभु-प्रेम प्रकट नहीं होता हो तो उत्तरदायित्व मेरा नहीं है। नहीं कहूं तो उत्तरदायित्व मेरा, परन्तु कहने के पश्चात् भी आपमें परिवर्तन नहीं आये तो मैं क्या कर सकता हूं? जमालि एवं गोशाला के लिए भगवान भी क्या कर सके थे ?
* हमारे फलोदी में बिच्छु बहुत होते हैं । उसमें भी हमारा मकान अर्थात् बिच्छुओं का ही मकान । मेरे पिताजी नित्य बाल्टी में दस-पन्द्रह बिच्छु एकत्रित करके जंगल में छोड आते थे । एक बार बनियान उतार कर में 'स्थंडिल' गया था । लौटने के पश्चात् बनियान पहना और मुझे कांटे जैसा लगा । देखा तो एक बडा बिच्छु था । संभाल कर उसे मैं ने बाहर रखा । उन तीस वर्षों में मुझे कदापि बिच्छु काटा नहीं ।।
यह जीव दया का प्रभाव है। यदि हमारा अन्तःकरण जीवों की दया से परिपूर्ण हो तो कौन क्या कर सकता है ?
* मेरी इतनी बात तो मानो - चैत्यवन्दन तो शान्तिपूर्वक करो । मैं अनेक व्यक्तियों को पूछता हूं - चैत्यवन्दन में कितना समय निकाला ? केवल १०-१५ मिनट ?
इधर-उधर की प्रवृत्तियों में तो अपना बहुत समय जाता है, परन्तु चैत्यवन्दन जैसी महत्त्वपूर्ण वस्तु के लिए हमें समय नहीं है। सचमुच तो चैत्यवन्दन हमें महत्त्वपूर्ण नहीं लगता होगा ।
कदाचित् ऐसा हो, जिन्दगी अधिक लम्बी प्रतीत होगी । मेरे जैसे वृद्ध के लिए आवश्यक होगा, आप युवानों को आवश्यक नहीं लगता होगा, या तो स्वर्ग अथवा मोक्ष निश्चित होगा, अन्यथा इतना प्रमाद किस कारण होगा ? कहे कलापूर्णसूरि - ३nsomnosomammooooomn६५)
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हंसने की बात नहीं है । आप सब सोचते हैं - महाराज दूसरों को कहते हैं, मुझे नहीं कहते । 'मुझे ही कहते हैं' ऐसा लगे तब ही परिवर्तन संभव होगा ।
छोटे थे तब माता को कितना कष्ट दिया था ? खेलने में इतने तल्लीन रहते कि भोजन करने जायें वे दूसरे । मां जबरजस्ती खींच कर लाती और भोजन कराती, वह याद है न ?
श्री हरिभद्रसूरिजी यहां माता बन कर आते हैं और कहते हैं, बालको ! समझो । बहुत खेले । अब महत्त्व का कार्य कर लो । इससे अधिक महत्त्व का अन्य कोई कार्य नहीं है। 'न चाऽतः परं कृत्यमस्ति ।'
* चैत्यवन्दन को, भक्ति को गौण करके ध्यान, काउस्सग्ग करके देखो और भक्ति को मुख्य मानकर ध्यान काउस्सग्ग करके देखो । दोनो में अन्तर होगा । भक्ति के बिना ध्यान काउस्सग्ग सफल नहीं हो सकता ।
ध्यान किस का करे ? काउस्सग्ग किसका करें ? लोगस्स (चउविसत्थो) में भक्ति ही है न ?
सम्यक् सामायिक भक्ति स्वरूप है। चारित्र सामायिक ध्यान स्वरूप है ।
गुरु, शास्त्र, भगवान या भगवान के उपदेश आदि के बिना सीधी ही सामायिक मिल जाती होती तो शेष पांच आवश्यक भगवान ने बताये ही नहीं होते । सामायिक प्राप्तव्य है, यह सही है, परन्तु वह मिलता है भगवान एवं गुरु की भक्ति के द्वारा ही ।
__ 'मुझे भक्ति के द्वारा ही मिला है । आपको भी उसके द्वारा ही मिलेगा ।' इस प्रकार भगवान स्वयं जीवन के द्वारा कहते है -
__ भगवान ने स्वयं पूर्व के तीसरे भव में भक्ति के द्वारा ही प्राप्त किया है ।
धूमधाम से अथवा भाषणबाजी से तीर्थ नहीं टिकता, सामायिक-भाव से टिकेगा ।
मोहराजा आपके बड़े ‘डांड़े' से नहीं डरेगा । आपके भीतर हुए शुद्धात्मा के संस्पर्श से वह डरेगा । यह सोंचे ।
[६६ 80 ooooooooooooo000 कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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अब तो हरिभद्रसूरिजी की बात मानोगे न ? 'इस चैत्यवन्दन से अधिक कोई श्रेष्ठ कृत्य नहीं है।' यह बात स्वीकार करोगे न ?
जिनालय में आप अपनी आंखों को भगवान की आंखों में जोड़ दें । आप अपना मन प्रतिमा में जोड़ दें ।
आंखें प्रभु की आंखों से जुडेंगी तो तारक ध्यान होगा ।
प्रतिमा में मन जुड़ेगा तो रुपस्थ ध्यान होगा । इसीलिए यहां लिखा है - 'भुवनगुरौ विनिवेशितनयनमानसः ।'
* चैत्यवन्दन के समय सूत्र अस्खलित आदि गुणों पूर्वक बोलने हैं । उनके अर्थो का अनुस्मरण भी तब होना चाहिये । यहां 'अनुस्मरण' इसलिए लिखा है कि बोलते समय पीछे-पीछे भगवान का वैसा-वैसा स्वरूप याद आता जाये । (अनु अर्थात् पीछे)
आठ सम्पदा (विश्राम स्थान) पूर्वक 'नमुत्थुणं' बोलना है ।
'नमुत्थुणं' में ३२ आलावा हैं। अन्य आचार्य 'वियट्टछउमाणं' सहित ३३ आलावा मानते हैं ।
यह भक्तियोग है। भक्तियोग के बिना सब शुष्क एवं निष्फल है। भक्ति अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्दर्शन के बिना ज्ञान और चारित्र आदि व्यर्थ हैं, यह तो जानते हैं न? यदि सम्यग्दर्शन उत्पन्न नहीं हुआ तो हममें और अभव्यों में कोई अधिक अन्तर नहीं है। अन्यथा इस स्थान पर तो अभव्यों की तरह हम भी अनन्तबार आ गये हैं, परन्तु बीज नहीं पड़ा था अतः सभी प्रयत्न व्यर्थ गये । समकित बीज है ।
यह तो आपको मिला हुआ ही है। गृहस्थ-जीवन में ही मिला हुआ है। मैं तो केवल याद कराता हूं। भूल तो नहीं गये न ?
तर
मोक्ष के साथ जोड़ दे वह योग है ।
- - हरिभद्रसूरि
कहे कलापूर्णसूरि - ३
mmmmmmmmmmmmmmmon ६७)
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तीर्थमाल, शंखेश्वर, वि.सं. २०३८
२७-७-२०००, गुरुवार
श्रा. कृष्णा -११
(सामूहिक वाचना, समस्त समुदायों के पूज्यों का आगमन)
* अभिमानी इन्द्रभूति गौतम के अभिमान का विष नष्ट कर के उनमें विनय का अमृत सिंचन करने वाले भगवान महावीर स्वामी की करुणा-शक्ति का क्या वर्णन करें ?
* इन्द्रभूति के साथ उनके ५०० शिष्य भी साथ ही दीक्षित हुए । उनका स्वयं का गुरु के प्रति समर्पित भाव कैसा होगा ?
* परमात्म-गुणगान मंगलरूप है। उस गुण-गान में उपसर्गों को दूर करने की तथा चित्त को प्रसन्न करने की शक्ति है ।
* प्रीति आदि चारों अनुष्ठानों में उत्तरोत्तर प्रभु-प्रेम बढ़ा हुआ प्रतीत होगा । ज्यों ज्यों प्रेम बढ़ता जायेगा, त्यों त्यों प्रीति ही भक्ति में बदल जायेगी । भक्ति ही आज्ञा-पालन में परिवर्तित होगी और आज्ञा-पालन (वचन) ही असंग में रुपान्तरित होगा ।
असंगयोग प्रभु-प्रेम की पराकाष्ठा है, क्योंकि वहां प्रभु के साथ एकता हो गई है ।
प्रभु के प्रति बहुमान से ही इन्द्रभूति आदि गणधर प्रभु से प्राप्त कर सके थे । (६८00mmaooooooomamasoma कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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पू. हेमचन्द्रसागरसूरिजी : उपादान कारण भी तैयार चाहिये न ?
पूज्यश्री : उपादान कारण को भी तैयार करने वाले प्रभु हैं । इन्द्रभूति उपादान के रूप में उपस्थित थे ही । भगवान नहीं मिले तब तक उनका उपादान तैयार क्यों नहीं हुआ ? मिट्टी पड़ी है परन्तु कुम्हार के बिना घड़ा क्यों नहीं बन जाता ?
हम मुँह से शरणागति बोलते हैं, परन्तु सब कुछ अपने पास रख कर । मन, वचन, काया ही नहीं, आत्मा को भी प्रभु को समर्पित करनी है । आप सब कुछ प्रभु को सौंप कर देखो । क्या मिलता है वह देखो ।
इन्द्रभूति ने वैसा कर के देखा और उन्हों ने प्राप्त कर लिया ।
* आगमिक दृष्टि से ध्यान के भेद बताने वाला 'ध्यानविचार' उत्तम ग्रन्थ है, जिसमें ध्यान के सब भेद आ गये ।
दिन में सात बार चैत्यवन्दन और चार बार स्वाध्याय प्रकृष्ट ध्यानयोग है। चैत्यवन्दन से भक्ति और स्वाध्याय से स्थिरता मिलती है । दोनों मिल कर प्रभु के साथ हमें जोड़ देती है । इतना होते हुए भी उसमें उल्लास उत्पन्न नहीं होने का कारण मिथ्यात्व मोहनीय है । मोहराजा क्यों चाहें कि कोई जीव आत्म-कल्याण प्राप्त कर
ले
?
* भक्ति का अतिशय प्रकट करना चाहो तो एक बार 'ललित विस्तरा' अवश्य पढ़ें । मैं अपने अनुभव से कहता हूं । उसके द्वारा विश्वास होगा कि भगवान की शक्ति कार्य कर रही
उदार धनी व्यक्ति दान देता रहता है, उस प्रकार अरिहंत अपने गुणों का सतत दान करते ही रहते हैं । वे ही सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु तैयार करते रहते हैं।
भक्ति योग का विकास होने पर ही अन्य गुण आ सकेंगे । उसके बिना एक भी गुण नहीं आ सकेगा । अब सम्भव हो तो सामुदायिक व्याख्यान में आगामी रविवार को प्रभु-भक्ति, उसके बाद के रविवार को गुरु-भक्ति और फिर संघ-भक्ति पर व्याख्यान रखें । (इसके अनुसार ही सामुदायिक व्याख्यान रखे गये थे ।)
किसी भी अनुष्ठान की सफलता का आधार प्रभु-प्रेम है । (कहे कलापूर्णसूरि -
३ aasa oooooooooooom ६९)
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भगवान की प्रीति निष्काम होनी चाहिये । आनंदघनजी के शब्दों में कहें तो निरुपाधिक होनी चाहिये ।
भगवान का प्रेम ज्यों ज्यों बढ़ता जाता है, त्यों त्यों हम वैसे बनते जाते हैं । 'उत्तम संगे रे, उत्तमता वधे ।'
पू. आचार्यश्री नवरत्नसागरसूरिजी : ज्ञान की अपेक्षा भक्ति योग बढ़कर है ?
पूज्यश्री : भक्ति के बिना ज्ञान अहंकार करेगा । अच्छा व्याख्यान दिया, अच्छी स्तुति बोली अथवा कोई भी श्रेष्ठ कार्य किया वह अभिमान का कारण बन जायेगा । ज्ञान का इनकार नहीं है, परन्तु तुलना करने में भक्ति पहले हो । किसी का भी वर्णन चल रहा हो तब अन्य को गौण समझें, परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि इसकी सर्वथा उपेक्षा करें ।
पू. आचार्यश्री नवरत्नसागरसूरिजी : भगवान की सर्वज्ञता ने ही इन्द्रभूति को आकर्षित किया था ।
पूज्यश्री : इसका इनकार नहीं है, परन्तु भगवान में रहे हुए अन्य गुण, गुणों के प्रति जागृत प्रेम भी कारण है न ?
* भगवान चार रूपों में हैं : नाम-स्थापना आदि के रूप में, उपासना करके, भाव रूप में हृदय में भगवान को प्रकट करना
श्री ज्ञानविमलसूरिजी कहते हैं :
'नामे तू जगमा रह्यो, स्थापना पण तिमही; द्रव्ये भवमांहि वसे, पण न कले किमही ।' भावपणे सवि एक जिन, त्रिभुवन में त्रिकाले ।' हम मानते हैं कि भगवान मोक्ष में गये, परन्तु ये महापुरुष हमें सान्त्वना देते हुए कहते हैं कि भगवान नाम आदि के रूप में यहीं पर हैं । चिन्ता क्यों करते हैं ?
तपागच्छ के आद्य महात्मा आचार्यश्री जगच्चन्द्रसूरिजी के शिष्य शासन को समर्पित आचार्यश्री देवेन्द्रसूरिजी भी स्व-रचित चैत्यवन्दन भाष्य में कहते हैं कि - 'नाम जिणा जिणनामा'
पू. आचार्यश्री नवरत्नसागरसूरिजी : समवसरण में देशना देते हैं तब ही भाव भगवान कहलाते हैं ? (७०6oooooooooooooooooo कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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पूज्यश्री : एवंभूत नय की अपेक्षा से यह बात है । अन्यथा हम तो च्यवन से ही प्रभु को प्रभु के रूप में मानते ही हैं । च्यवन से ही क्यों ? तीर्थंकर नाम कर्म की निकाचना से पूर्व भी उन्हें भगवान मान सकते हैं ।
शंखेश्वर पार्श्वनाथ भगवान की मूर्ति गत चौबीसी में घड़ी गई थी । आगामी चौबीसी में होने वाले पद्मनाभ एवं अमम स्वामी की मूर्ति भी इस समय पूजी ही जा रही हैं न ?
पत्थर सभी । अक्षर अभी ।
* नाम की आराधना नाम-मंत्र के द्वारा करनी है । स्थापना की आराधना प्रतिमा के द्वारा करनी है । कल मैं ने एक श्लोक दिया था वह याद है न ? 'मन्त्रमूर्त्तिं समादाय, देवदेवः स्वयं जिनः । सर्वज्ञः सर्वगः शान्तः सोऽयं साक्षाद् व्यवस्थितः ॥ ' 'प्रभु - मूर्त्ति में है क्या पड़ा ? हैं मात्र वे प्रभु नाम में है क्या पड़ा ? हैं मात्र वे ऐसा कहो मत सज्जनो ! साक्षात् ये निज - नाम - मूर्त्ति का रूप लेकर, स्वयं यहां हम जैसे छद्मस्थों को तो नाम एवं स्थापना ही दिखाई देती है । शेष दो भगवान (द्रव्य एवं भाव) तो हृदय में प्रकट करने हैं 1 बातचीत में भी हम क्या बोलते हैं ? मन्दिर में कौन सी मूर्ति है ? वैसे नहीं, कौन से भगवान हैं ? इस प्रकार पूछते हैं ? मूर्त्ति का तो जयपुर के मूर्त्ति-मुहल्ले में पूछते हैं ।
नाम-स्थापना के रूप में भगवान जाने जा सकते हैं, द्रव्य तीर्थंकर नहीं जाने जा सकते हैं । भगवान कहे और सुलसा आदि को जान सकें यह बात अलग है । अन्यथा हम अज्ञानी कैसे जान सकेंगे ? इस कारण ही तो संघ भक्ति की इतनी महिमा है । इसी संघ में से तीर्थंकर आदि होंगे । अभी भी अनन्त तीर्थंकर यहीं होने वाले है ।
भगवान हैं । आसीन हैं ।'
मैं तो कहता हूं कि यहां बैठे हुए इस समूह में भी द्रव्य तीर्थंकर क्यों न हों ?
* 'आया सामाइए' ऐसा पाठ मिलता ही है । फिर भी केवल सामायिक ही आवश्यक के रूप में नहीं बताई । उसे प्राप्त
( कहे कलापूर्णसूरि ३ कwww
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करने के लिए अन्य पांच आवश्यक बताये हैं । सामायिक रूपी साध्य को सिद्ध करने के लिए अन्य पांच साधन हैं ।
देव के पास से दर्शन,
हैं ।
गुरु के पास से ज्ञान,
धर्म के पास से चारित्र मिलता है ।
ये देव आदि तीनों क्रमशः छःओं आवश्यकों में दिखाई देते
सामायिक के परिणाम चउविसत्थो के द्वारा ही प्रकट होते हैं, प्रभु के आलम्बन से ही प्रकट होते हैं । अतः सामायिक के पश्चात् चउविसत्थो आवश्यक है । अत: दीक्षा देते समय सीधा ही ओघा (रजोहरण) न देकर उससे पूर्व देववन्दन कराते हैं । भक्ति जितनी सुदृढ होगी, सम्यग्दर्शन उतना ही शीघ्र प्राप्त होगा । यदि प्राप्त हो गया होगा तो भक्ति से अधिक निर्मल बनेगा । कल जो सामूहिक जाप किया था वह प्रभु-भक्ति ही है । यह पदस्थ ध्यान है
1
पदस्थ ध्यान में प्रभु नाम,
रूपस्थ ध्यान में प्रभु - मूर्ति,
पिण्डस्थ ध्यान में प्रभु की अवस्थाऐं,
रूपातीत ध्यान में प्रभु की सिद्ध अवस्था का ध्यान करना
व तीर्थंकर भी दो प्रकार के हैं
* भावएक तो साक्षात् भगवान स्वयं,
दूसरा भगवान के उपयोग में रही हमारी आत्मा ।
* प्रभु का नाम जपते रहें उस प्रकार प्रभु के सान्निध्य का अनुभव होगा ।
नाम ग्रहंता आवी मिले, मन भीतर भगवान ।
नाम के साथ एकाग्र बनने से प्रभु के सामीप्य का अजैन मीरा, रामकृष्ण अथवा नरसी भगत को अनुभव हुआ है । प्रभुनाम के अतिरिक्त उन्हें कौन सा आधार था ?
प्रभु के हजारों नाम हैं। किसी भी नाम से प्रभु को जपो, प्रभु उपस्थित हो जायेंगे ।
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पू. आचार्यश्री हेमचन्द्रसागरसूरिजी : वे किस प्रकार? उनकी मान्यता तात्त्विक कैसे कही जाये ?
__ पूज्यश्री : हमें सम्पूर्ण नहीं पकड़ना है। थोड़ा ही लेना है । देखो 'कल्याण मन्दिर' में - 'त्वामेव वीततमसं०...'
प्रभु ! वे भले हरिहर के रूप में भजें, परन्तु वस्तुतः तुझे ही भजते हैं । शंख सफेद ही होता है, परन्तु किसी नेत्र-रोगी को पीले आदि रंग का दिखाई देता है, जिससे क्या हो गया ? शंख थोड़े ही पीला हो जायेगा ?
सम्पूर्ण 'शक्रस्तव' पढ़ो । बुद्ध, महादेव, शंकर, ब्रह्मा, विष्णु आदि के नाम प्रभु के ही नाम हैं ।
अधिक कहूं तो संसार के समस्त सुवाक्य, सारा ही सत्साहित्य भगवान का ही है । यहां से ही उड़े हुए छींटे हैं ।
* प्रभु के नाम से जीभ और स्थापना से आंखे निर्मल बनती हैं ।
* हम भले भगवान को कहें - मैं पतित हूं, पापी हूं, परन्तु भगवान हमें वैसे नहीं मानते । वे तो पूर्ण रूप से ही देखते
दोष लेने होंगे तो दोष देखोगे । गुण लेने होंगे तो गुण देखोगे ।
दुर्योधन एवं युधिष्ठिर का प्रसिद्ध दृष्टान्त ध्यान है न ? दुर्योधन को कोई अच्छा नहीं दिखाई दिया । युधिष्ठिर को कोई बुरा नहीं दिखाई दिया । दुर्योधन की आंखों से विश्व को देखेंगे या युधिष्ठिर की आंखों से ?
दुर्योधन के समान दृष्टिवाले तो भगवान में से भी दोष ढूंढ निकालेंगे । गोशाला कहता - मैं साथ था तब भगवान अच्छे थे । अब ठठारा बढ़ गया है । देव-देवियों का कितना परिवार साथसाथ रखते हैं ? वीतराग भगवान को यह आडम्बर कैसा ?
३६३ पाखंडी प्रभु के पास जाते हैं, परन्तु दुर्योधन की आंखें लेकर ही जाते हैं । इसीलिए वे प्रभु से कुछ प्राप्त नहीं कर सकते ।
* यदि संघ में जागृति लानी हो, कुंछ कल्याण करना हो तो एक कार्य करें । मैं इसी लिए यहां सूत्रात्मक बोल रहा कहे कलापूर्णसूरि - ३ 600 CROS CG BOSS 0 ७३)
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हूं | आप विद्वान वक्ता हैं । हजारों व्यक्तियों को यह बात पहुंचायेंगे, ऐसा विश्वास है ।
सर्व प्रथम हृदय को मैत्री एवं भक्ति से भावित बनायें, फिर सकल संघ में इस बात का प्रचार करें ।
* प्रभु के नाम आदि का आलम्बन हम लें, पवित्रता का संचार भगवान करेंगे ।
जल का स्वभाव है, सफाई करने का ।
प्रभु का स्वभाव है, पवित्रता फैलाने का । (पूज्यश्री के जाने के पश्चात् )
पू. मुनिश्री धुरन्धरविजयजी म. :
* पूज्यश्री ने आनन्द दायक बातें कही । कदाचित् किसी को नहीं भी सुनाई दी हों । प्रभु के साथ एकता करनेवाले के अश्राव्य शब्द भी प्रभाव डालते ही हैं । अश्राव्य ध्वनि के तरंगो का भी प्रभाव होता है । मेरे गुरुदेव पू. पं. भद्रंकरविजयजी म. तथा पूज्यश्री का मुख्य स्वर यही है, इतने वर्षों की साधना के पश्चात् भी इतने हताश क्यों ? स्वयं को हलकी दृष्टि से क्यों देखना ? कारण यह है कि प्रभु के धर्म के साथ सम्बन्ध हुआ नहीं है । क्रिया करते हैं । उसके द्वारा धर्म प्राप्त करना है, परन्तु गर्व है कि मैं धर्म करता हूं । धर्म मैं क्या करूं ? प्रभु कराता है । धर्म हमसे उत्पन्न नहीं होता, इसीलिए धर्म प्रभु का है, अपना नहीं । अपना धर्म नहीं, प्रभु का धर्म कल्याण करता है ।
यह बात समझनी है ।
तृप्ति मिले यह अपनी क्रिया का फल है या अन्न का फल ? स्पष्ट बात है कि अन्न का फल है । हाथ-मुँह की क्रिया का फल नहीं है । प्यास बुझाने का स्वभाव जल का है, अपनी क्रिया का नहीं ।
क्रिया अपनी परन्तु कर्तृत्व पानी आदि का है । क्रिया अपनी है परन्तु धर्म प्रभु का है ।
जब तक अपनी प्रधानता है तब तक धर्म नहीं मिलेगा । प्रभु की प्रधानता के पश्चात् ही धर्म मिलेगा ।
मूर्त्ति घड़नेवाले हम हैं, परन्तु फिर परम तत्त्व का फल प्रभु www कहे कलापूर्णसूरि- ३
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की तरफ से है । मूर्ति घड़ी जा सकती है, प्रभु नहीं ।
अत्यन्त अधिक क्रिया के द्वारा बहुत फल प्राप्त करना चाहते हैं, परन्तु जब तक प्रभु को प्रधानता नहीं देंगे तब तक समस्त क्रियाएँ अहंकार का ही पोषण करेंगी । अहंकार का चरम फल हताशा है।
यह अहंकार ही नष्ट करना है, अतः 'नवकार' में 'नमो' प्रथम है । 'हे प्रभु ! आप ही हैं, मैं नहीं' इसका स्वीकार 'नमो' में
प्रभु की ओर से धर्म आ रहा है । मैं धर्म उत्पन्न करता हूं - ऐसा ख्याल में नहीं रखना है ।
गणि पूर्णचन्द्रविजयजी म. : क्या साधु-जीवन में हताशा होती है ?
उत्तर : मात्र वेष-क्रिया हो तो हो सकती है, सच्चे साधु को हताशा नहीं होती ।।
किसी भी भक्त कवि ने प्रभु की खुशामत नहीं की, परन्तु हृदय के भाव व्यक्त किये हैं । * 'तुं गति तुं मति आशरो, तुं आलंबन मुज प्यारो रे...'
- पू. उपा. यशोविजयजी म. पांव मेरे, गति तेरी । हाथ मेरे, स्पन्दन तेरा । नाक मेरा, सांस तू । जीभ मेरी, स्वाद तू । नाक मेरा, गन्ध तू ।
शुभ तू, अशुभ मैं । जब तक यह स्वीकार नहीं करोगे, तब तक आपका धर्म आपको नहीं मिलेगा, नहीं फलेगा । इनका स्वीकार करो तो ही धर्म मिलता है और फलता है ।
जब 'मैं' मर जाये, तब ही शुद्ध धर्म आयेगा, अन्यथा नहीं । अशुद्ध धर्म संसार का कारण है । प्रभु का धर्म मोक्ष का कारण है । संसार खड़ा हो वहां दुःख, हताशा होगी ही । दैनिक क्रिया इसीलिए करनी हैं । कहे कलापूर्णसूरि - ३
6 6 666666666666666 ७५)
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पूज्यश्री इसीलिए यह सब कहते हैं -
* भक्ति के द्वारा प्रभु को और मैत्री के द्वारा प्रभु के समस्त जीवों को स्वीकार करो । भगवान के जीवों को नहीं स्वीकार करें, वह भी नहीं चलेगा । परिणीता स्त्री पति को ही स्वीकार करती है, दूसरों को स्वीकार नहीं करे वह नहीं चलता ।
प्रभु ने जिन्हें निज स्वरूप में देखा, उन जीवों को स्वीकार नहीं करो तो नहीं चलेगा । जब धर्म होता है तब तू (प्रभु) ही होता है।
* प्रभु कहां नहीं है ? नाम आदि के रूप में सर्वत्र है । एक भी आकाश-प्रदेश ऐसा नहीं है जहां अनन्त द्रव्य-अरिहंत न हों । निगोद में विद्यमान अनन्त जीव अरिहंत बनने वाले ही हैं । सभी पास ही हैं । आप जब उस स्वरूप में स्वीकार करो तब - वे कार्यकारी बनते हैं । मूर्ति को जब भगवान के रूप में स्वीकार करो तब वह कार्यकारी बनती है। उस प्रकार चारों ओर अरिहंतो के मध्य हम हैं ।
__ आपके गुणों की वृद्धि करनी भगवान का स्वभाव है । कमल के विकास का स्वभाव जैसे सूर्य का है ।
शरीर, उपकरण आपके परन्तु शक्ति उनकी (प्रभु की) जिसकी शक्ति हो उन्हों ने ही कार्य किया कहलाता है ।
मुंबई आप गये, परन्तु आप गये या गाड़ी गई ? मुख्य कौन ? गाड़ी या आप ? गाडी के स्थान पर आप प्रभु को देखें ।
गाडी में बैठे उन सबको मोक्ष में ले जाने का उत्तरदायित्व भगवान का है ।
___ यही शरणागति है । कुछ भी अच्छा हो जाये तो तुरन्त ही 'मैंने किया' भाव आ जाये ।
'तूने क्या किया ?' तेरे माध्यम से भगवान ने किया ।
तू क्या दर्शन करेगा ? भगवान ही भगवान को देखता है । हमारे भीतर रहे हुए भगवान ही भगवान को देखते हैं ।
पूजा भी प्रभु की प्रभु ही करते हैं । अशुद्ध चेतना प्रभु की पूजा नहीं कर सकती । राजा भिखारी को क्या गोद में बिठायेगा ?
आप स्वयं स्वयं को अशुद्ध करते हैं, अशुद्ध मानते हैं । (७६ 05 am somwwwwwwwww कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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कर्तृत्व भाव के कारण हम अशुद्ध बनते हैं, प्रभु अशुद्ध नहीं बनते ।
मात्र बोलने के लिए नहीं, परन्तु हृदय से यह स्वीकार करना
पू. आचार्य भगवंत तो स्पष्ट कहते हैं : मैं क्या बोलूंगा ? भगवान मुझ से बुलवाते हैं । गाड़ी की क्या शक्ति? चलानेवाला ड्राइवर है ।
धर्म की स्खलनाएं अपनी, धर्म प्रभु का !
शुद्ध धर्म का प्रारम्भ कराने के लिए ही इस आयु में पूज्यश्री इतना परिश्रम उठाते हैं । आज पूज्यश्री की आवाज भारी थी, क्योंकि भगवान बोलते थे ।
गुरु भगवत्-रूप बनते है तभी गुरु बनते है । प्रभु उनके भीतर आये तो ही वे शुद्ध धर्म बता सकते हैं । अन्यथा 'अहो रूपम् अहो ध्वनिः' जैसी ताल होगी ।
गुरु-शिष्य दोनों परस्पर प्रशंसा करते रहते हैं ।
चित्त की प्रसन्नता प्रभु के प्रविष्ट होने का चिन्ह है । यही अनुभव कर्तृत्व-भाव हरता है ।
पूज्यश्री (आचार्यश्री विजयकलापूर्णसूरिजी) ने एक बार ज्ञानसार के शमाष्टक के सार स्वरूप कहा कि आत्मा ज्ञान स्वरूप है । उस ज्ञान के प्रकट होने पर उसकी परिपक्वता के रूप में आत्मा समतामय बनती है, क्योंकि आत्मा जैसी ज्ञान स्वरूप है, वैसी समता रूप है । दोनों गुण अभेद बनते हैं तब जीव सच्चिदानन्द स्वरूप में प्रकट होता है ।
- सुनन्दाबेन वोरा ।
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GURASHIRANIOS
HIGH
पट्टधर के साथ
२८-७-२०००, शुक्रवार
श्रा. कृष्णा -१२
* साक्षात् तीर्थंकर मिले हों वैसा आनन्द जिनागम पठन से होता है, जिन मूर्ति के दर्शन करने से होता है, क्योंकि जिनागम एवं जिनमूर्ति भगवान के ही रूप हैं ।
__ भगवान के समवसरण में भी तीन बिम्ब मूर्ति के ही हैं। वहां समवसरण में बैठे हुए लोग मूर्ति नहीं, भगवान के रूप में ही उसे देखते हैं ।
* नाम जिनकी स्तवना गणधरों ने सर्व प्रथम लोगस्स के द्वारा की है। 'अभिथुआ' अर्थात् सामने बिराजमान भगवान की स्तवना की ।
'जय वीयराय !' हे भगवन् ! तेरी जय हो, ऐसा तब ही बोला जा सकता है जब भगवान सामने हैं ऐसा लगता हो ।
* पुक्खरवरदी० वैसे तो श्रुतस्तव है, फिर भी पहले गाथा में श्रुत की नहीं, ढाई द्वीप में विद्यमान भगवान की स्तुति की है जो बताती है कि श्रुत एवं भगवान भिन्न नहीं हैं ।
श्रुत अर्थात् भगवान ।
श्रुत को आगे किया अर्थात् भगवान को ही आगे किया कहा जाता है ।
(७८
000000000000066 कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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शास्त्रे पुरस्कृते तस्माद० पं. वीरविजयजी म. कहते हैं : 'जिनवर जिनागम एक रूपे, सेवंता न पडो भव-कूपे ।' यह पंक्ति तो सबको याद है न ?
यह सब आप मात्र सुनते हैं या याद रखकर भीतर उतारते हैं ? दुकान पर आकर केवल माल देख कर जानेवाले ग्राहक क्या आपको पसन्द आते हैं ? __अन्य कुछ नहीं तो श्रद्धा तो बढती है न ? श्रद्धा बढ़ जाये तो भी प्रयास सफल है ।
* इस 'ललित विस्तरा' में अद्भुत भाव भरे हुए हैं । दिन में सात बार 'नमुत्थुणं०' बोलते ही हैं । यह पढ़ेंगे तो बोलते समय अहोभाव बहुत ही बढ़ेगा ।
इस नमुत्थूणं में नौ सम्पदाएं हैं । सम्पदाओं का अर्थ मात्र विश्राम स्थान नहीं है, परन्तु भगवान की परोपकार आदि सम्पदाओं को बतानेवाले भी हैं । __ चाहे जिसकी स्तुति नहीं की जाती । दोषी-पापी की स्तुति करोगे तो उनके दोषों की पापों की अनुमोदना हो जायेगी । जगत् में सर्वोत्कृष्ट गुणवान् एक मात्र भगवान है । उनकी यहां स्तुति है।
स्तुति करने वाले गणधर जानते हैं - हम तो दोषों के ढेर से युक्त थे । हमारे दोषों को दूर करके गुण प्रकट करने वाले भगवान हैं । उन भगवान का उपकार कैसे भूला जाये ? 'प्रभु उपकार गुणे भर्या, मन अवगुण एक न माय रे ।'
- उपा. यशोविजयजी म. भगवान ने समस्त गुणों के संग्रह एवं दोषों का निरसन किया
'गुण सघला अंगी कर्या, दूर कर्या सवि दोष' हमें उस मार्ग पर चलना है । दोष दूर करते जायें तो गुण स्वयमेव प्रकट हो जायेंगे ।
क्रोध दूर करो तो क्षमा हाजिर !
___ मान दूर करो तो नम्रता हाजिर ! (कहे कलापूर्णसूरि - ३ BBWww am a DOG G6 ७९)
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दोषों को हटाने के लिए प्रयत्न करना है, गुण तो भीतर विद्यमान ही हैं । दोषों का पर्दा हटने पर गुण अपने आप प्रकट होंगे ।
क्रोध के आवेश के समय क्षमा नहीं होती, यह बात नहीं है । वह भीतर दबी हुई होती है । अतः लगता है मानो क्षमा है ही नहीं ।
सचमुच, क्षमा न हो ऐसा कदापि होता ही नहीं । क्षमा आदि तो हमारे स्वभाव रूप है। यह न हो ऐसा संभव ही नहीं है।
भगवान को बुलाओ, समस्त गुण आयेंगे । भगवान को भूलो, समस्त गुण भाग जायेंगे ।
मेरा तो यह अनुभव है । भगवान जाते हैं तो सब कुछ जाता है । फिर भगवान को मनाने पड़ते हैं, विनती करनी पड़ती
'आज मारा प्रभुजी ! सामु जुओ ने, रूठडा बाल मनावो रे !'
हरिभद्रसूरिजी यह बात अपने भीतर जचाना चाहते हैं ।
सिंहत्व जाने हुए सिंह को बकरा या ग्वाला (चरवाहा) डरा नहीं सकता, उस प्रकार अपना परमात्मत्व पहचान गई आत्मा को मोह आदि डरा नहीं सकते ।
* 'गुरुत्वं स्वस्य नोदेति ।'
गुरुत्व कब प्रकट होता है ? क्षपक श्रेणी में प्रकट होता है । गुरुत्व अर्थात् परमात्मत्व । भीतर का परम तत्त्व प्रकट होने के पश्चात् गुरु की आवश्यकता नहीं रहती । तब तक गुरु आवश्यक
क्षपक श्रेणि के समय इतनी भयंकर ध्यान की आग होती है कि विश्वभर के जीवों के कर्म उसमें डाले जायें तो सब भस्म हो जायें, परन्तु ऐसा संभव नहीं है ।
* दीपक अपना प्रकाश अन्य दीपक को दे सकता है, उस प्रकार ज्ञान आदि गुण दूसरे को दिये जा सकते हैं । गुण आप दूसरों को देंगे तो कम नहीं होंगे । ऋण पर देने वाले की रकम घटती नहीं और लेने वाला कमा लेता है, ऐसा होता है न? वहां कदाचित् ऐसा न भी बने, परन्तु यहां तो बनता ही है । देने वाले का घटता नहीं और लेने वाला समृद्ध हुए बिना रहेगा नहीं । ८०nmmmmmmmmmmmmmmmmm कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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गुणों का केवल बहुमान करते रहें । गुणों का आगमन स्वयमेव प्रारम्भ हो जायेगा । गुण प्राप्त करने का यही मुख्य उपाय है। (१) नमुत्थुणं अरिहंताणं : ये दो स्तोतव्य सम्पदा हैं । (२) आइग : आदि तीन, साधारण-असाधारण हेतु सम्पदा । (३) पुरिसुत्त : आदि चार, असाधारण हेतु सम्पदा । (४) लोगुत्त : आदि पांच, सामान्य उपयोग सम्पदा । (५) अभयदयाणं : आदि पांच, उपयोग सम्पदा की करण सम्पदा । (६) धम्मदयाणं : आदि पांच, विशेषोपयोग सम्पदा (उपयोग अर्थात्
उपकार) (७) अप्पडि : स्वरूप सम्पदा । (८) जिणाणं : आदि चार आत्मतुल्य परफल कर्तृत्व सम्पदा । (९) सव्वन्नूणं : आदि तीन अभयसम्पदा ।
* शिष्य कहता है : आप की कृपा से मैंने प्राप्त किया ।
गुरु कहते हैं : आयरिय संतियं - मेरा नहीं, यह तो आचार्य भगवन् का है।
गणधर कहते हैं : सब भगवान का है। हमें भगवान के द्वारा ही मिला है।
* प्रभु ने धर्म पर सम्पूर्ण अधिकार जमाया है ।
आपको धर्म प्राप्त करना हो तो भगवान के पास जाना ही पड़ता है। अन्य कहीं से नहीं मिल सकता । इसी लिए कदमकदम पर अपने यहां 'देव-गुरु-पसाय' बोला जाता है । यह बोलने के लिए नहीं है, वास्तविकता है ।
विषयों से निवृत्ति, तत्त्व-चिन्ता या सहज अवस्था में स्थिति, ये सब गुरु की कृपा के बिना मिल नहीं सकता । यह आप जानते हैं न ? गुरु के माध्यम से यहां भगवान ही देते हैं ।
'शुद्धात्मद्रव्यमेवाऽहं' यह बोलकर शुद्ध आत्म-द्रव्य पकड़ लें । अब गुरु अथवा किसी की आवश्यकता क्या ? यह मानकर देव-गुरु को छोड़ मत देना । ज्ञान का विपरीत अर्थ नहीं निकालें ।
निन्दा-स्तुति, तृण-मणि, वन्दक-निन्दक और मोक्ष अथवा संसार दोनों पर समभाव रहे वह समता है। ऐसी समता भगवान कहे कलापूर्णसूरि - ३aasansoooooooooooooo00 ८१)
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की कृपा के बिना नहीं मिलती ।
कवि धनपाल कहते हैं : 'जहां आपकी भक्ति प्राप्ति न हो, वैसी मुक्ति मुझे नहीं चाहिये ।'
यहां मुक्ति की उपेक्षा नहीं है, परन्तु भक्ति के प्रति दृढ़ विश्वास है । भक्ति होगी तो मुक्ति कहां जायेगी ?
गौतमस्वामी इसके उत्कृष्ट उदाहरण हैं । उन्हों ने भक्ति के लिए केवल ज्ञान छोड़ दिया था । क्या आवश्यकता है केवल ज्ञान की ? भगवान का केवल ज्ञान मेरा ही केवल ज्ञान है । ऐसा उच्च समर्पण भाव उनका था । इसी लिए वे उच्च गुरु बन सके, स्वयं में नहीं होने पर भी सभी शिष्यों को केवलज्ञान दे सके ।
* भगवान की भक्ति होगी तो सभी गुण आ जायेंगे । ऐसा कोन सा पदार्थ है जो भक्ति से न मिले ? यह तो बताओ।
समस्त आत्मसम्पत्तियों का मूल जिन का अनुराग है । यह हो जाये तो काम हो जाये ।
अन्य पदार्थों की अपेक्षा विशेष अनुराग भगवान के प्रति हो गया है न ?
'सर्व-सम्पदां मूलं जायते जिनानुरागः ।' यह मेरा नहीं, सिद्धसेन दिवाकरसूरिजी का वाक्य है । __ भगवान केवल उपदेश नहीं देते, सब प्रकार की संभाल रखते
आपका कार्य है केवल रथ में बैठने का, शेष समस्त उत्तरदायित्व भगवान का है ।
चलेंगे घोडे (अश्व), चलायेगा सारथी । आपको केवल एक ही कार्य करना है - बैठने का ! क्या अधिक सरल प्रतीत नहीं होता ? सरल है फिर भी दुष्कर है, क्योंकि यहां पूर्ण समर्पणभाव होना चाहिये जो अत्यन्त ही दुष्कर है, कठिन है।
। भगवान के प्रति समर्पण-भाव रखना अर्थात् उनके रथ में बैठ जाना । भगवान अपने जीवन-रथ के सारथी बनेंगे । भगवान को कह दें :
'यावन्नाप्नोमि पदवी, परां त्वदनुभावजाम् ।
तावन्मयि शरण्यत्वं, मा मुञ्च शरणं श्रिते ॥' (८२0000 sooooooooooo कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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हे भगवान् ! आपके प्रभाव से उत्पन्न परम पद जब तक मैं प्राप्त न कर लूं, तब तक मुझ शरणागत की शरण आप न छोड़ें।
कलिकालसर्वज्ञ आचार्यश्री की ऐसी प्रार्थना अपने हृदय की प्रार्थना क्यों न बने ?
भगवान की एक ही शर्त है - आप बराबर रथ में बैठे रहें । रथ में से उतरे नहीं । उतर जाओगे तो मैं क्या कर सकूँगा ? आप रथ से चिपके रहोगे तो पहुंच जाओगे । यदि रथ छोड़ दोगे तो संसार में कुचले जाओगे ।
___ 'प्रभु-पद वलग्या, ते रह्या ताजा;
अलगा अंग न साजा रे ।' प्रभु ! आप होते हैं तब मेरे मन-गृह की शोभा बढ़ती है । आप जाते हैं तब मन रूपी घर वीरान हो जाता है । प्रभु ! आप स्थायी रूप से यहीं रहें । आपके आगमन से मेरा घर सुशोभित हो जायेगा । मेरा मन वैकुण्ठ बन जायेगा ।
भगवान को मेहमान के रूप में रखो तब तक हटाये जा सकते हैं, परन्तु प्रतिष्ठा होने के पश्चात् ?
भगवान को हृदय में मेहमान (अतिथि) के रूप में ही मत बिठाना, प्रतिष्ठा ही कर दें ।
बाह्य मन्दिर में भगवान का प्रवेश-प्रतिष्ठा इत्यादि मनमन्दिर में भगवान का प्रवेश-प्रतिष्ठा आदि कराना है, इसके सूचक हैं।
जब तक यह न हो तब तक मन्दिर में नित्य जाना है।
* भगवान की विशेषता है - स्व-सेवक को जीवन भर सेवक ही न रखकर अपने समान बनाते ही है। आप अपनी सम्पत्ति अपने पुत्र को ही देते हैं । भगवान अपनी सम्पत्ति अपने सभी भक्तों को ही देते हैं । भगवान के लिए जगत् के समस्त जीव पुत्र हैं।
अपने समान बनाने की शक्ति भगवान में है। भगवान का यह स्वभाव है।
(कहे कलापूर्णसूरि - ३ ooooooooooooooooo50 ८३)
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PARIHARASHMISension
पालिताना, वि.सं. २०५६
२९-७-२०००, शनिवार
श्रा. कृष्णा -१३
भगवान के निर्वाण के पश्चात् उनकी ओर से उनका कार्य धर्म करता है। आदिनाथ भगवान का तो चौरासी लाख पूर्व का ही आयुष्य ! उसमें भी दीक्षा पर्याय तो केवल एक लाख पूर्व ! परन्तु उनके द्वारा स्थापित तीर्थ का आयुष्य पचास लाख करोड़ सागरोपम ! तब तक तीर्थ सतत उपकार करता ही रहता है। भगवान का नाम तो उससे भी अधिक समय तक उपकार करता रहेगा।
__ भगवान के विशेष नाम (आदिनाथ) बदलते रहते हैं, परन्तु सामान्य नाम (अरिहंत) नहीं बदलता ।
नामाकृतिद्रव्यभावैः - श्लोकों में सामान्य अरिहंतो की स्तुति हैं, विशेष की नहीं ।
__ भगवान आदिनाथ से लगाकर सभी तीर्थंकर अभी सिद्ध हैं, तो फिर 'अरिहंते कित्तइस्सं ।' क्यों लिखा ? ।
इस समय भी वे द्रव्य अरिहंत हैं ही और हमें अरिहंत के रूप में उनका ध्यान करना है ।
* क्षायिक भाव के गुण सिद्ध अवस्था में लुप्त नहीं होते । परार्थव्यसनिता गुण भी सिद्ध अवस्था में लुप्त नहीं होता । इस
८४oooooooooooooooooon कहे
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समय भी वह गुण सक्रिय है, यह मानना रहा ।
* पू. हरिभद्रसूरिजी ने १४४४ ग्रन्थों की रचना क्यों की होगी ? उस युग में अनेक दूध में से पौरे निकालने वाले यह पूछते भी थे कि आगम में सब है ही, आपको नवीन प्रकरण ग्रन्थों की रचना करने की क्या आवश्यकता है ? उनका उत्तर था - आपकी बात सत्य है, परन्तु सबके पास उनका अर्क निकालने की शक्ति नहीं होती, कितनेक व्यक्तियों को गुरुगम भी नहीं मिलता, इसलिए ये रचना करता हूं ।
तदुपरान्त जो मिला है वह दूसरों को देने से ही सानुबंध बन कर भवान्तर में सहगामी बनता है । जो देते हैं वह रहता है । जो नहीं दें, वह नहीं रहता । हरिभद्रसूरिजी मानते थे कि सिद्धि के बाद विनियोग चाहिये ।
* 'ललित विस्तरा' में यहां भगवान के सद्भूत विशेषण हैं । अपने जैसे नहीं । मेरा ही नाम 'कलापूर्ण' है, परन्तु मैं कहां कलापूर्ण हूं ? कला + अपूर्ण = कलापूर्ण हूं। कलापूर्ण तो भगवान हैं । भगवान की भक्ति से कलापूर्ण बन सकूँगा, इतना विश्वास है ।
पू. हेमचन्द्रसागरसूरिजी : सत्तागत तो है ही ।
परन्तु यह नहीं चलता । उधार के पैसे व्यवहार में चलते हैं ? उसके पास आप पैसे ले लेना, किसी को ऐसे कहें तो क्या चलता है ?
संग्रहनय हमें पूर्ण कहे तो नहीं चलता, एवं भूत कहे तो चलता है । संग्रह का उधार खाता है । एवं भूत पूरी तरह रोकड़ में विश्वास रखता है । शब्दनय तक पहुंच जायें तो भी पर्याप्त है।
* कोई भी नाम अथवा पदार्थ अनन्त धर्मों को बताता है, परन्तु वे सब धर्म एक साथ नहीं बोले जा सकते । एक की मुख्यता से ही बोला जाता है । उस समय अन्य धर्मों को गौण रखना पड़ता है।
कान्ति के विवाह के समय कान्ति के गीत गाये जाते हैं, बडे भाई (ज्येष्ठ भ्राता) शान्ति के गीत नहीं गाये जाते, जिससे वह अप्रसन्न भी न हो । उस प्रकार यहां अन्य को गौण करके कहे कलापूर्णसूरि - ३ namasaramommmmmmmoooooooo ८५)
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कथयितव्य को मुख्यता से कहा जाता है । सामने श्रोताओं को जिसकी आवश्यकता हो, उस नय को आगे करके भगवान देशना देते हैं । 'अर्पिताऽनर्पितसिद्धेः'
- तत्त्वार्थ ऐसा न हो तो कुछ भी बोला ही नहीं जा सके ।
अतः प्रश्न पूछते समय ख्याल रखें कि मैं इस समय किस नय को आगे करके बोल रहा हूं। जिस नय को आगे करके बोला जाता हो उसका अर्थ यह नहीं है कि दूसरों का महत्त्व नहीं है । उस समय अन्य नय गौण होते हैं ।
* शास्त्रों की व्याख्या छ: प्रकार से होती है :
संहिता, पद, पद का अर्थ, पद का विग्रह, चालना एवं प्रत्यवस्थान ।
* 'नमोऽस्तु' में 'नमः' पूजा के अर्थ में है । द्रव्यभाव से संकोच करना पूजा है । काया एवं वाणी का संकोच द्रव्य-संकोच कहलाता है ।
मन का संकोच भाव-संकोच कहलाता है । __ हजारों स्थानों पर भटकते मन को एक ही स्थान (प्रभु में) पर केन्द्रित करना भाव-संकोच है । द्रव्य-संकोच से भाव-संकोच कठिन है ।
मन को सूत्र, अर्थ अथवा आलम्बन में कही जोड़ देना चाहिये । यदि मन जुड़ जाये तो आपको अलग ध्यान करने की कोई आवश्यकता नहीं है ।
रूपातीत अवस्था का भावन अनालम्बन योग है। हम यह बात समझते नहीं हैं अतः तीव्रता से चैत्यवन्दन करके ध्यान में बैठने का प्रयत्न करते हैं । आप चैत्यवन्दन छोड़ कर अन्य कौन सा ध्यान करेंगे ?
क्या काउस्सग्ग में ध्यान नहीं है ? 'झाणेणं' शब्द का अर्थ क्या होता है ? क्या चैत्यवन्दन में काउस्सग्ग नहीं आता ?
* आगे की भूमिका आने पर तो अर्थ चिन्तन पूर्वक का एक लोगस्स भी पर्याप्त है, फिर वहां संख्या का आग्रह नहीं रहता । (८६oooooooooooooooooooo कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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है । उपयो सामायिक धर्म र
इस तरह अधिक जाप होने के पश्चात् (भीतर अनाहत नाद उत्पन्न होने के पश्चात्) एक नवकार पर्याप्त है। वहां संख्या का आग्रह नहीं रहता । अपयस्स पयं नस्थि ।
- आचारांग 'अशब्द आत्मा को शब्द से नहीं पकड़ी जाती ।' परन्तु यह बात पकड़कर अभी से ही जाप छोड़ मत देना ।
* सामायिक धर्म पुस्तक में - उपयोग की बात आती है । उपयोग एवं ध्यान में कोई अन्तर नहीं हैं । ध्यान क्या है ? क्या उपयोग (जागृति) रहित ध्यान सम्भव है ? उपयोग अर्थात् जागृति, ध्यान ।
सतत उपयोग पूर्वक का जीवन अर्थात् सतत ध्यान की धारा चालु हो तो दैनिक प्रवृत्ति कैसे हो सकती है ? इस प्रश्न का भी सुन्दर उत्तर दिया है । विषयान्तर होने के कारण यहां अधिक कुछ नहीं कहता ।
* अन्य विषयों में मन को नहीं जाने देना प्रभ की पूजा है, क्या ऐसा ज्ञात होता है ? अन्य विषयों में मन को जाने देना प्रभु की आशातना है, क्या यह कदापि समझ में आया ?
* 'नमुत्थुणं' में पहला ही 'नमः' अत्यन्त ही अद्भुत है । समस्त ध्यानों का उसमें समावेश है ।
आपको नमस्कार करने वाला मैं कौन होता हूं? आपके प्रभाव से मुझ में नमस्कार करने की शक्ति आये - यह बताने के लिए 'नमोऽस्तु' लिखा । 'नमोऽस्तु' अर्थात् नमस्कार हो । 'मैं नमन करता हूं ।' ऐसा कहने का साहस नहीं चलता ।।
पू. हेमचन्द्रसागरसूरिजी : क्या पुरुषार्थ सर्वथा गौण है ?
पूज्यश्री : पुरुषार्थ तो करना ही है, परन्तु उसे सफल बनाने के लिए प्रभु को प्रार्थना करनी है - प्रभु ! एक बार भी नमन करने का पुरुषार्थ सफल हो जाये तो काम हो जाये ।
'एक वार प्रभु वंदना रे, आगम रीते थाय । कारण सत्ये कार्यनी रे, सिद्धि प्रतीत कराय ।'
___- पू. देवचन्द्रजी (कहे कलापूर्णसूरि - ३000000000000८७)
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पुरुषार्थ छोड़ना नहीं है, परन्तु अधिक से अधिक करना है और प्रभु को प्रार्थना करते रहना है - 'प्रभु ! आपके पसाय से मेरा यह पुरुषार्थ सफल हो ।' 'होउ ममं तुह प्पभावओ ।'
- जय वीयराय 'होउ मे एसा सम्म गरिहा ।'
- पंचसूत्र कई मनुष्य क्या नहीं कहते ? 'गुरुदेव ! मासक्षमण करने की मुझमें शक्ति नहीं है। आपकी कृपा चाहिये ।' इसका अर्थ यह नहीं कि मासक्षमण करने का पुरुषार्थ छोड़ दें । पुरुषार्थ चालु रख कर भगवान के पास नम्रता पूर्वक बल मांगना है, कृपा की याचना करनी है ।
* व्याख्या के सात अंग हैं : (१) जिज्ञासा, (२) गुरुयोग, (३) विधिपरता, (४) बोध-परिणति (५) स्थिरता, (६) उक्तक्रिया, (७) अल्प भवता (अल्प संसार)
जिज्ञासा : अपने शब्दों में कहे तो झंखना ! तमन्ना ! ये हो तो ही गुरु आदि का योग मिलता है, और आगे का काम होता है।
ऐसी लगन लगने के कारण ही घोड़े को मुनिसुव्रत स्वामी का और उदायन राजा को श्री महावीर स्वामी का योग हुआ था । आपकी लगन प्रबल बने तब गुरुयोग होता ही है ।
__ अनेक बार देखा है - आपको जो ग्रन्थ पढ़ने की तीव्र उत्कण्ठा हो, गुरु को भी वही ग्रन्थ पढ़वाने की तीव्र उत्कण्ठा हो ।
* जिज्ञासा के साथ साधक में स्थिरता भी चाहिये । यह नहीं हो तो पूरा पढ़ा नहीं जायेगा । आर्यरक्षितसूरिजी पढ़ते थे और घर में से बार-बार बुलावा आया - 'जन्मभूमि में आइये ।'
वज्रस्वामी को पूछा : कितना अध्ययन बाकी है ? 'बिन्दु अध्ययन किया है, सागर बाकी है ।'
वज्रस्वामी के इस उत्तर से अधीर एवं अस्थिर बने आर्यरक्षितसूरिजी ने जन्मभूमि की ओर विहार किया, पदार्पण किया । इसी कारण से साढ़े नौ पूर्व से अधिक फिर वे अध्ययन नहीं कर सके ।
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* जिसका संसार दीर्घ हो, वह इस वाचना के योग्य नहीं है । उसके जीवन से उसका पता लगता है। संवेग-निर्वेद आदि से इसका ख्याल आता है ।
श्रोता में भव-भ्रमण का भय होना चाहिये ।
निगोद में तो अनन्त काल निकाला ही है। वहां से निकलने से पश्चात् भी अनन्त भव किये हैं - ऐसे विचारों से वैराग्य आता हो उसका अल्प संसार समझें । . तो ही आप संसार से छूटने का पुरुषार्थ करो । जो ऐसा पुरुषार्थ करते हैं, उन्हें ही भगवान की कृपा प्राप्त होती है । ऐसा पुरुषार्थ करने की इच्छा हो उसमें भी भगवान की कृपा समझें ।
पू. पंन्यासश्री कीर्त्तिचन्द्रविजयजी महाराज के द्वारा आपश्रीजी की सम्पादित पुस्तकें 'कहे कलापूर्णसूरि' एवं 'कहा कलापूर्णसूरिने' दोनों प्राप्त हो गई हैं । ___दोनों पुस्तकों में वाचनाओं का उत्तम संग्रह किया गया है। सचमुच ! अनुभव की खान ऐसी सूरि 'कलापूर्ण' की वाणी है। भक्तियोग - परमात्मा के प्रति अनन्य श्रद्धा के प्रतीक पुस्तकों में यत्र-तत्र दृष्टिगोचर होते हैं ।
पूज्य आचार्य देवेशश्रीजीने जीवन में उच्च प्रकार की साधना आत्मसात् की है । इस प्रकार पूज्यों ने भी पूज्यश्री की वाणी को अनेक भाविकों तक पहुंचाने के लिए पुस्तकों के द्वारा सुन्दर प्रयास किया है ।
- साध्वीश्री चन्दनबालाश्री
अहमदावाद
(कहे कलापूर्णसूरि - ३00000000000000000000८९)
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पदवी प्रसंग, मद्रास, वि.सं. २०५२, माघ सु. १३
सात चौबीसी धर्मशाला मण्डप
विषय
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भक्ति
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३०-७-२०००, रविवार श्रा. कृष्णा- १४
सामुदायिक प्रवचन
पूज्य आचार्यश्री विजयकलापूर्णसूरिजी :
* महान् पुण्योदय से इस मानव जन्म में प्रभु का शासन मिला, सच्ची पहचान कराने वाले गुरु मिले, दुःख - मुक्ति एवं सुखप्राप्ति का मार्ग मिला । इन्द्र को भी ईर्ष्या हो ऐसी प्राप्ति हुई है । सच्चा भक्त याचना करता है इन्द्र चक्रवर्ती का पद नहीं चाहिये, मुझे तो प्रभु का शासन ही चाहिये । आप इन्द्र के साथ यह सौदा करो तो इन्द्र तैयार हो जाये और इन्द्र को आप मूर्ख समझो और इन्द्र आपको मूर्ख समझे ।
* आज विषय है भक्ति । श्रावक को भक्ति बतानी नहीं पड़ती, वह तो उसमें व्याप्त ही होती है ।
* संसार में कौन सी वस्तु है जो प्रभु भक्त को न मिले ? यह सिद्धसेनदिवाकरसूरिजी का 'शक्रस्तव' में टंकार है । 'शक्रस्तव' में स्वरूप- सम्पदा बताने के पश्चात् उपकार-सम्पदा ९० Wwwwwwwwww
कहे कलापूर्णसूरि- ३
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बताई है । जगत् में किसी के पास न हो ऐसी सम्पदा भगवान के पास है। उसकी श्रद्धा रखें तो भी काम हो जाये, ३४ अतिशय, ३५ वाणी-गुण, आठ प्रातिहार्य देखकर ही विरोधी भी फीके पड़ जाते हैं ।
पाण्डित्य बताने के लिए नहीं, परन्तु उपकार करने के लिए प्रभु का जगत् में पदार्पण हुआ है ।
* पूज्यश्री हरिभद्रसूरिकृत 'ललित विस्तरा' में भगवान की अद्भुत महिमा बताई है । परार्थ सम्पत्ति से भक्त को ख्याल आता है - कि मैं चाहे निर्बल हूं, मेरे भगवान निर्बल नहीं हैं । वे मुझे तारेंगे ही, मेरा उद्धार करेंगे ही।
एक अनुभवी सन्त ने कहा - 'नमो अरिहंताणं' में से मात्र 'नमो' आ जाये तो भी पर्याप्त है । एक बार भाव-नमस्कार आ जाये तो भी पर्याप्त है । इसके लिए ही ये द्रव्य-नमस्कार हैं ।
नमस्कार पूजा के अर्थ में हैं । पूजा अर्थात् द्रव्य-भाव का संकोच । तन, धन, वचन आदि प्रभु के चरणों में धरना द्रव्यसंकोच है । मन को अर्पण करना भाव-संकोच है ।
प्रभु की प्रशंसा करने से ऐश्वर्योपासना होती है, परन्तु माधुर्योपासना करनी हो तो प्रभु के साथ सम्बन्ध जोड़ना चाहिये । उसके बिना प्रभु के साथ प्रेम प्रकट नहीं होगा । 'त्वं मे माता पिता नेता' यह माधुर्योपासना है ।
संसार का राग आग बनकर जलाता है । प्रभु का राग बाग बनकर जीवन को उज्जवल करता है ।
प्रभु का राग करने से दोषों का नाश और गुणों का प्रकटीकरण होता है।
यह बात गणधरों ने स्पष्ट की है ।
छ: आवश्यक अर्थात् मात्र प्रतिक्रमण नहीं, परन्तु सम्पूर्ण जीवन छः आवश्यकमय होना चाहिये ।
खाना-पीना तो कभी होता है, परन्तु सांस तो प्रतिपल चाहिये, उस प्रकार प्रभु सांस बनने चाहिये । प्रत्येक सांस में प्रभु याद आने चाहिये ।
. 'समय-समय सो वार संभारूं' ऐसी अपनी स्थिति होनी चाहिये।
(कहे कलापूर्णसूरि - ३00 ooooooooooooooooo ९१)
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* उपमिति में एक दृष्टान्त आता है ।
एक बाबाजी को चोरों ने ऐसा वश में किया कि वे सभी सम्पत्ति लूट कर भाग गये तो भी उन्हें तब पता नहीं लगा । रिश्तेदारों की बात बाबाजी ने नहीं मानी ।
हमारी आत्मा की कर्मों ने ऐसी ही दशा की है।
भूखे, प्यासे बाबाजी को हाथ में चप्पणिया देकर भीख मांगते कर दिये। जिन्हें हम मान-सम्मान देते हैं वे विषय-कषाय ऐसे ही चोर हैं।
पिंजरे में पड़े हुए बाबाजी जैसे हमें देखकर क्या प्रभु को करुणा नहीं आती ? बिचारा चोरों से कैसा दब गया है ?
गुरु के माध्यम से प्रभु उसे अपना स्वरूप समझाना चाहते है । परन्तु समझे कौन ?
'भूख्या ने जिम घेवर देतां, हाथ न मांडे घेलोजी ।'
* छ: आवश्यकों में प्रथम मुख्य सामायिक है, क्योंकि यही साध्य है, परन्तु उसकी प्राप्ति चउविसत्थो आदि पांच से होती है, यह न भूलें ।
जो जो सम्बन्ध आपने दुनिया के साथ बांधे हैं वे समस्त सम्बन्ध अब आप भगवान के साथ जोड़ दें । भगवान के अतिरिक्त कुछ याद न आये, ऐसा वातावरण बनाएँ ।
प्रभु के प्रति प्रेम प्रकट हो यही बीजाधान है ।
हम शाब्दिक शरण लेते हैं, परन्तु मुझे ऐसा लगता है कि हृदय शून्य है । गौतम स्वामी को शरणागति इतनी प्रिय थी कि उसके लिए उन्हों ने केवल ज्ञान छोड़ दिया । छट्ठ के पारणे प्रभु की गोचरी का लाभ मिले न ? केवलज्ञान के पश्चात् गोचरी कौन जाने दै ? पांचवे आरे के जीवों को उन्हों ने मानो जीवन के द्वारा गुरु-भक्ति सिखाई है।
'मुक्ति से अधिक तुझ भक्ति मुझ मन बसी' - यह बात गौतम स्वामी में चरितार्थ थी । इसी कारण यशोविजयजी ने इस प्रकार गाया है और कहा है कि समग्र शास्त्रों का सार प्रभु-भक्ति है । भक्ति पदार्थ को सम्यग् समझने के लिए 'ललित विस्तरा' अवश्य पढ़ें । प्रभु के उपकार कितने असंख्य है और हम कैसे कृतघ्न है, यह ध्यान में आयेगा । प्रभु के गुण गाते ही दोष भाग
[९२ 0000000000000000 कहे कलापूर्णसूरि - ३]
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जाते है, और गुण आने लगते हैं ।
अतः हम ऐसी साधना करें कि ऐसे प्रभु हमारे हृदय में, हमारी रग रग में निवास करें ।
भक्ति के बिना मुक्ति प्राप्त हुई ही नहीं है और किसी को मिलेगी भी नहीं, यह बात लिख रखें । आखिर ज्ञान आदि सब प्रभु-प्रेम में पर्यवसित होते हैं । ज्ञानयोग आदि सब मार्ग बाहर से अलग लगते हैं, परन्तु अन्त में प्रभु-प्रेम में सब एक हो जाते हैं।
प्रभु-भक्ति को तात्त्विक बनानी हो तो विशेषतः आप 'वीतराग स्तोत्र' कण्ठस्थ कर लें । उसमें लिखा है - भवत्प्रसादेनैवाहं०
'प्रभु ! आप ही निगोद में से बाहर निकाल कर मुझे यहां तक लाये हैं । अब आपको ही मुझे मुक्ति तक पहुंचाना है । ऐसी प्रार्थना हेमचन्द्रसूरिजी जैसे करते हों तो हम किस खेत की मूली हैं ?
* मेरे कहने मात्र से सामुदायिक प्रवचन के विषय में भक्ति के सम्बन्ध में सब सहमत हुए उसका आनन्द है । भक्ति के सम्बन्ध में अन्य वक्ता आपको समझ में आये ऐसी भाषा में कहेंगे ।
जैन संघ का उज्जवल भविष्य मैत्री एवं भक्ति से ही बनेगा, ऐसा दृढ विश्वास होना चाहिये । यदि विश्वास होगा तो सर्व प्रथम उसे जीवन में उतारेंगे और उसके बाद जगत् में फैलायेंगे ।
पूज्य हेमचन्द्रसागरसूरिजी :
अगर वे सत्य संयम का हृदय में बीज न बोते, सभी संसार-सागर में खाते रहते गोते; न पावन आत्मा होती, न जीवित मन्त्र ये होते,
कभी का देश मिट जाता, जो ऐसे सन्त न होते । सर्व प्रथम अषाढ़ शुक्ला ११ को तलहटी पर सब मिले । उस समय का माहौल देखते ही प्रत्येक पूज्य के हृदय में भाव उत्पन्न हुआ कि प्रत्येक रविवार को मंच पर साथ-साथ क्यों न मिलें ?
प्रथम रविवार को मैत्री पर प्रवचन रहे । . बुधवार को अरिहंत का जाप हुआ ।
(कहे कलापूर्णसूरि - ३ 000000000000000000 ९३)
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आज भक्ति पर प्रवचन है ।
मैत्री-भाव सरल नहीं है, बीच में मोह पड़ा है, जिसे भक्ति के बिना दूर नहीं किया जा सकता ।
मोह जीव के साथ मैत्री एवं जड़ के प्रति अनासक्ति पनपने नहीं देता ।
मैत्री भाव को सिद्ध करने के लिए भक्ति अनिवार्य गिनी गई है। प्रभु-प्रेमी पू. आचार्यश्री कलापूर्णसूरिजी ने २७ मिनट तक भक्ति पर प्रवचन दिया, परन्तु सबने नहीं सुना होगा । उन्हों ने सुन्दर मुद्दों पर कहा, कैसे रहस्य खोले, उन्हें स्पष्ट करने के लिए मैं श्री धुरन्धरविजयजी को विनती करुंगा । - दूसरे गच्छाधिपती पू. सूर्योदयसागरसूरिजी अस्वस्थ होते हुए भी उपस्थित हुए हैं, यह हमारा पुण्योदय है । कैसा उत्तम योग बना है। ऊपर बिराजमान दोनों गच्छाधिपति एवं धुरन्धरविजयजी भी परिवार से साथ दीक्षित हुए हैं ।
दोनों गच्छाधिपतियों की आयु ७७ वर्ष है । नहीं सुनाई दे तो भी शान्ति से बैठें । __ पू. मुनिश्री धुरन्धरविजयजी म. :
(पूज्य मुनिश्री धुरन्धरविजयजी ने पूज्य कलापूर्णसूरिजी की बात बुलन्द आवाज में कही ताकि सबको सुनाई दे ।)
प्रभु के परम भक्त पू. आचार्य कलापूर्णसूरिजी को जिन्हों ने नहीं सुना, उन्हें भी झरने की तरह उनके शब्दों के स्पन्दनों का स्पर्श तो हुआ ही है ।
इस मंच पर पूज्यश्री ने भक्ति विषय पर चर्चा की ।। गत रविवार को चर्चित मैत्री यहां स्पष्ट दिखाई देती है ।
मैत्री भक्ति से ही सिद्ध होती है। छोटी-छोटी बातों में वाडे बांधने वाले हम मैत्री को कैसे समझ सकेंगे ? यह आदत भक्ति से ही मिट सकती है ।
पूज्यश्री ने कहा : गौतम स्वामी ने केवलज्ञान का लोभ भी छोड़ दिया । अइमुत्ता की बात आप सभी सुन चुके हैं ।।
क्या प्रभु के प्रथम गणधर गोचरी लेने जाते हैं ? कितनी नम्रता ?
९४mnangaponomoganana कहे
SHIKITS कहे कलापूर्णसूरि-३
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श्रावकों के जीवन में द्रव्य से भक्ति बुनी हुई है । श्रावक जीवन के बदले में इन्द्र भी इन्द्रत्व देने के लिए तत्पर हैं ।
इन्द्र केवल आधा तन या थोड़ा सा मन ही देते हैं । आप तन-मन-धन सब दे सकते हैं - यह अन्तर है।
जब अनुपमा देवी इस सिद्धाचल पर संघ के साथ आई तब उनकी भोपला नामक दासी ने २१ लाख रूपये के आभूषण भगवान के चरणों में समर्पित कर दिये थे । प्रभु को समर्पित हुए बिना उनके गुण प्राप्त नहीं हो सकते ।
प्रभु के अनुग्रह के बिना एक भी गुण दान, शील, तप आदि नहीं मिल सकता । मिला है उसमें से प्रभु का भाग निकालते जाओ । वह भक्ति कहलायेगी ।
आधे घंटे तक जो कहा उसमें से मैं यदि बोलूंगा तो फिर लम्बा होगा, क्योंकि पूज्यश्री की भाषा सूत्रात्मक है।
माल पूज्यश्री का है । आप ग्राहक हैं । मैं बीच में दलाल हूं । मैं भी अछूता (कोरा) नहीं रहूंगा । पूज्यश्री के माल को देते समय जो उड़ा वह आपका, चिपक गया वह हमारा । अपना मानते हैं वह प्रभु को दो । तो ही साधना में बल आयेगा । द्रव्य-पूजा हो चुकी हो तो भाव-पूजा आये ।
संक्षेप में इतना ही पकड़ना है कि जो मिला है वह प्रभु की कृपा से ही मिला है। वह अब प्रभु को ही समर्पित करना है । समर्पण में नाम की कामना भी नहीं चाहिये । प्रभु-भक्ति के द्वारा शक्ति प्राप्त करके सच्ची शासन-प्रभावना कर सकते हैं ।
पूज्यश्री ने एक बाबाजी की बात कही वह सुनी है न ? __ भक्तगण अनेकवार गुरु को ठग कर जाते हैं, यदि गुरु सावधान न रहे । जहां भक्ति नहीं है वहां भीख है, भूख है, भय है ।
भक्ति से भोग्य और भोग प्रकट होते हैं, भीख एवं भूख चली जाती है । वह त्याग के रूप में आगे आती है ।
बारहखड़ी में भक्ति का 'भ' सीखना है । हमारी दृष्टि केवल प्रभु की ओर ही रहे वह सच्ची भक्ति है।
'त्वं मे माता पिता०' यह श्लोक प्रस्तुत करके पूज्यश्रीने कहा - 'प्रभु ! तू ही मेरा सर्वस्व है ।' (कहे कलापूर्णसूरि - ३ wwwwwwwwwww ९५)
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* गुरु अपने नहीं, प्रभु के भक्त बनाते हैं ।।
* पूज्यश्री भी ये बातें भगवान की ओर से कहते हैं, अपनी ओर से नहीं । इस प्रकार ऋण-मुक्ति की पूज्यश्री ने कोशिश की है; मैं तनिक माध्यम बना, इस बात का हर्ष है ।
पूज्य आचार्यश्री सूर्योदयसागरसूरिजी : अरिहंत मंगलमय है । जैन-शासन का बुनियादी मन्त्र 'नमो अरिहंताणं' है । 'नमो अरिहंताणं' समर्पण भाव है।
यहां पहले 'नमो' है, तत्पश्चात् 'अरिहंत' है । अरिहंत में नहीं, 'नमो' में देने की शक्ति है । ___ 'नमो' अर्थात् भक्ति ! समर्पण !
अरिहंत तब ही फलदायी बनते हैं, यदि आप नमस्कार करो ।
* आप जिनालय में जाओ और 'निसीहि' कहें, परन्तु फिर कौन आया और गया यह ध्यान रहे तो 'निसीहि' कैसी गिनी जायेगी ?
- कांसे के बर्तन में पानी भरकर २४ घंटे रखे । खाली करने पर पानी कैसा होगा ? मिट्टी के बर्तन में पानी कैसा ठण्डा रहेगा ? आपको कैसा बनना है ? मिट्टी का बर्तन भले टूट सकता है, परन्तु अरिहंत का योग मिले तो वह अटूट बन सकता है ।
अनादि के भव्यत्व को तथाभव्यता के रूप में परिणमित करना हो तो तीन बातें करनी चाहिये : शरणागति, दुष्कृत गर्हा और सुकृत अनुमोदना । __'धम्म सरणं पवज्जामि ।' यह शरणागति है ।
पापों के पश्चाताप के द्वारा फिर अन्तर की शुद्धि करें, यह दुष्कृत गर्दा है।
दुष्कृत गर्दा करेंगे तो जगत् में सभी प्राणी सरस लगेंगे और उससे सुकृत-अनुमोदना होगी ।
पूज्य कलापूर्णसूरिजी के हृदय में भावना है कि समस्त अनुयायी भगवान के भक्त बन जाये ।
भगवान की 'सवि जीव करूं शासन-रसी' की भावना साकार करने के लिए हम सब मिल कर प्रयत्न करें ।।
पूज्य मुनिश्री धुरन्धरविजयजी : पूज्यश्री की ओर से सूचना आई है कि उपद्रव शान्त नहीं हुए, अतः प्रत्येक आराधक अपने [९६ Wooooooooooooooooo कहे कलापूर्णसूरि-३)
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कमरे में नित्य नौ स्मरणों का तीनों समय पाठ करे ।
प्रभु-भक्त जो निर्देश करे, वह प्रभु का निर्देश है । यदि तदनुसार करें तो प्रभु को वैसा करना अनिवार्य हो जाता
पू. मुनिश्री भाग्येशविजयजी : शाश्वत गिरिराज की गोद में इतने विशाल श्री चतुर्विध संघ के दर्शन कदाचित् जीवन में प्रथम बार हुए हैं । बोलने का प्रसंग भी पहली बार है ।
* एक सन्त के पास एक युवक कहने लगा : 'अनेक वर्षों से एक तमन्ना है कि मुझे प्रभु के साथ मिलाप करना है, मार्ग बतायें ।'
'सामने जो वृक्ष है उसके पांच पत्ते तोड़ कर ला ।' सन्त के कहते ही उस व्यक्ति ने वैसा ही किया । _ 'पांचो पत्ते पुनः वृक्ष पर लगा कर आ ।' 'गुरुदेव ! तोड़ तो सकता हूं, परन्तु जोड़ नहीं सकता ।' जोड़ना कठिन है, तोड़ना सरल है । आप सभी साथ जुड़े, इसीलिए प्रथम मैत्री भावना है ।
अनन्त जीव रह सकें वैसे दो ही स्थान हैं - निगोद और निर्वाण ।
___ जीवों के साथ अभेद करे वह निर्वाण में और भेद करे वह निगोद में जाता है।
दशवैकालिक टीका में हरिभद्रसूरिजी : 'साधुत्वं किं नाम ?' 'सर्व जीव - स्नेह - परिणामत्वं साधुत्वम् ।'
साधुता अर्थात् प्रेम के वर्तुळ का विस्तार, संकोच नहीं । पहले साधु घर का था, अब सर्व का हो गया है ।
आप भी जितने अंशों में विस्तरते हैं, उतने अंशों में साधु
'समणो इव सावओ हवइ जम्हा ।' सामायिक में प्रेम का वर्तुल विकसित होता है ।
चण्डकौशिक के प्रसंग में भगवान ने ये ही बात बताई है। चण्डकौशिक को प्रभु मिल गये और उसका उद्धार हो गया । कहे कलापूर्णसूरि - ३ wwwwwwwwwwwwwwww ९७)
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एक भाई ने पूछा : 'हमारा उद्धार क्यों नहीं होता ?'
मैं ने कहा : एक बात है । चंडकौशिक को जब तक भगवान नहीं मिले तब तक सर्वत्र विष था, परन्तु हम कदाचित् जीभ पर से विष दूर करते हैं परन्तु हृदय में विष भरा रखते हैं ।
मैत्री का अमृत आने पर हृदय का विष चला जाता है । भगवान कहां जन्म लेते हैं ? कल्पसूत्र में लिखा है : तुच्छ, दरिद्र, कृपण आदि के कुल में प्रभु का जन्म नहीं होता । तुच्छ कुल में भगवान का जन्म नहीं होता तो तुच्छ हृदय में भगवान का आगमन कैसे होगा ? हृदय को विशाल बनायें ।
मेरे द्वारा
हरा वृक्ष समस्त पक्षियों के निमन्त्रण का कारण बनता है । हरा हृदय समस्त जीवों के आश्रय का कारण बनता है । * तुकाराम मार्ग में चल रहे थे और आहट से दाना चुगते कबूतर उड़ गये । तुकाराम के हृदय पर आघात लगा इन्हें कितना कष्ट हुआ ? कितना अन्तराय हुआ ? किसी की भूख तो कदाचित् मैं न मिटा सकूं, परन्तु क्या किसी को खाने भी न दूं ? ऐसा मेरा जीवन ?
वे वहीं बैठ गये, निश्चय किया जब तक कबूतर पुनः नहीं आयेंगे तब तक अन्न-जल का त्याग ।
तुकाराम की संकल्प-शक्ति से कबूतर पुनः आकर उनके कंधे पर बैठे ।
-
* एक बहन के हाथ में से अंगूठी नीचे गिर गई । दूसरी बहन बोली : बहुत बुरा हुआ ।
उसने कहा : बहुत बुरा नहीं हुआ । कोई चुरा ले जाता तो अच्छा होता । कम से कम किसी के उपयोग में तो आती । खो गई अतः किसके काम आयेगी ? योगी न बनें तो किसी के लिए उपयोगी तो बनें ।
सर्वप्रथम घर से मैत्री का प्रारम्भ करना पड़ेगा । घर में नौकर आदि से प्रारम्भ करो । इसीलिए कल्पसूत्र में नौकरों के लिए कौटुम्बिक शब्द का प्रयोग हुआ है ।
नौकर आपको कभी भी कुटुम्बी लगा ?
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कहे कलापूर्णसूरि
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प्लास्टिक के फूल सुन्दर प्रतीत होते है, परन्तु हूंफ वाले नहीं । हूंफ वाले बनने के लिए मैत्रीमय बनना पड़ता है ।
भक्ति, मैत्री एवं शुद्धि को जन्म देती है । भक्ति से शुद्धि, शुद्धि से सिद्धि प्राप्त हुए बिना नहीं रहती ।।
भक्ती की व्याख्या : जिस प्रकार पूज्यश्री ने (पूज्य आचार्य कलापूर्णसूरिजी ने) कहा उस प्रकार प्रभु को पूर्ण रूपेण समर्पण ।
I am nothing. मैं कुछ नहीं हूं। I have nothing. मेरे पास कुछ नहीं है । उसके बाद ही पूर्ण समर्पण-भाव आता है ।
I am something. था, तब तक गौतम स्वामी भी समर्पित हो सके नहीं ।
* एकाग्रता नहीं है यह अखरता है अथवा अहोभाव नहीं है वह अखरता है ?
एकाग्रता नहीं है वह अखरता है, परन्तु अहोभाव नहीं है वह अखरता नहीं है।
जल के दो गिलास हैं - एक में पत्थर है, दूसरे में पताशा है ।
हमें पत्थर की तरह केवल मिलना नहीं है, परन्तु पताशे की तरह प्रभु में धुल मिल जाना है । प्रभु सब देने के लिए तैयार हैं । हमारी ओर से मात्र समर्पण की आवश्यकता है ।
पूज्य मुनिश्री धुरन्धरविजयजी :
आज परम शासन-प्रभावक पूज्य आचार्यश्री विजयरामचन्द्रसूरिजी की स्वर्ग-तिथि है। पूज्यश्री के गुणानुवाद महाराष्ट्र भुवन में हुए । कल प्रातः पूज्य सागरजी महाराज के गुणानुवाद आगम-मन्दिर में होंगे ।
इस पुस्तक को पढ़ने से हमें ऐसी पाप-भिरुता, प्रभु-भक्ति में स्थिरता, गुरु-भक्ति में समर्पितता और धर्म के प्रति दृढता प्राप्त हो, वैसी प्रभु से प्रार्थना करते हैं।
- साध्वी जयपूर्णाश्रीश
(कहे कलापूर्णसूरि - ३00mmonsomwwwwwwwww
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NRNATARAMA
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पू. आनंदसागरजी म.
३१-७-२०००, सोमवार श्रा. कृष्णा अमावस : आगम मन्दिर प्राङ्गण
पूज्य आचार्यश्री सागरानन्दसूरिजी के गुणानुवाद
पूज्य आचार्यश्री सूर्योदयसागरसूरिजी :
चाहे जितनी गालियों अथवा पत्थरों की वृष्टि हो परन्तु पूज्य सागरजी की धीरता एवं वीरता गजब की थी । उनका रोम भी नहीं फरकता था । शंखेश्वर में अभयसागरजी की दीक्षा के समय हमने प्रत्यक्ष देखा । चबूतरे पर स्वस्थतापूर्वक बैठे थे । वे पूज्यश्री आज भी मुझे याद आते हैं ।
* आचार्य पद प्राप्त होने के पश्चात् भी वे अपने लिए आचार्य आनन्दसागरसूरि नहीं लिखते थे । कारण पूछने पर कहते - व्यवहार के लिए आचार्य पदवी स्वीकार करनी पड़ी, परन्तु सचमुच मुझ में आचार्य की योग्यता नहीं है, पात्रता नहीं है । केवल दो ही आगम मन्दिरों में (पालीताणा-सूरत) आचार्य आनन्दसागर लिखा हुआ है। यह भी इस कारण कि भविष्य के इतिहासकार कहीं भूल न करें ।
* पूज्य सागरजी में सागर जितने गुण थे। वक्ता अनेक हैं, समय सीमित है । अतः मैं अपना वक्तव्य यहीं समाप्त करता हूं।
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- * पूज्य आचार्य जगवल्लभसूरिजी के शिष्य पू. मुनिश्री दर्शनवल्लभविजयजी :
आग लगी आकाश में, जर-जर पड़े अंगार ।
यह शासन न होता अगर, जल मरता संसार ॥ सागर को चम्मच से उलीच नहीं सकते । पू. सागरजी के गुणानुवाद करने वाला मैं कौन ? मैंने उन्हें न देखे हैं, न जाने हैं, परन्तु उनकी कृतियों ने उन्हें अमर बनाया है । वे भले ही विद्यमान नहीं है, परन्तु उनकी प्रतिकृति एवं कृति विद्यमान हैं ।
पूज्यश्री आगमों की सुन्दर परम्परा चलाने वाले थे । जिनके बिना जीने का मालूम न पड़े वे आगम हैं ।
प्रतिकृति कदाचित् विलीन हो जायेंगी, परन्तु आगम मन्दिर रूपी यह कृति कहां जायेगी ?
उनके गुणगान करके उठ जायें, उसकी अपेक्षा एक-आध गुण ग्रहण करें । हम आगमों का अध्ययन करें, आप श्रवण करें, यह सच्ची भावांजलि होगी ।
* पू. बालमुनिश्री आगमसागरजी : सब मनुष्य जानते हैं कि यह तस्वीर किसकी है ? (थोडा सा बोलकर अटक गये, तो भी लोग प्रसन्न हो गये) * पूज्य आचार्य यशोविजयसूरिजी :
पूज्य सागरजी ज्ञान के सागर थे ही, ध्यान के भी सागर थे । दर्शन करने का लाभ तो मुझे नहीं मिला, परन्तु तस्वीर में ध्यानस्थ मुद्रा देखकर नत मस्तक हो गया । उनमें स्वरूप रमणता की अनुभूति दिखाई दी । दशवैकालिक का एक श्लोक है :
णाणमेगग्ग-चित्तो अ ठिओ अ ठावइ परं ।
सुयाणि अहिज्जित्ता, रओ सुअ-समाहिए ॥ ज्ञान को स्वरूप-रमणता में बदलने का कार्य उन्हों ने करके बताया । 'टीम-वर्क' के लिए विराट कार्य कहा जाता है, वैसा कार्य अकेले हाथ से वे कैसे कर सके होंगे ?
प्रतीत होता है कि ध्यान की पृष्ठभूमि पर प्रभु के ज्ञान को अवतरित किया था । ध्यान के बिना प्रभु का ज्ञान संभाला नहीं जा सकता । (कहे कलापूर्णसूरि - ३ 500mmmmmmmm60500000 १०१)
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ज्ञानविमलसूरिजी ने आनन्दघनजी पर स्तबक लिखने का निश्चय किया परन्तु लगा कि विवेचन बैठ नहीं रहा है। उन्हें तुरन्त समझ में आया कि आनन्दघनजी की प्रसादी ध्यान के बिना समझ में नहीं आयेगी ।
सूरत में सूरजमण्डन पार्श्वनाथ का छ: माह तक ध्यान किया । उन्हों ने प्रार्थना की कि प्रभु ! तू मुझे शक्ति प्रदान कर ।
उसके बाद उन्हों ने कलम चलाई । आज भी वह 'टबा' विद्यमान है।
इसे कहते हैं ज्ञान के लिए पृष्ठ भूमिकारूप ध्यान । ___ अन्तिम समय में १५-१५ दिनों तक ध्यानावस्था में रहते थे, यह तो आपको ख्याल है, परन्तु उनका सम्पूर्ण जीवन ध्यानमय था, क्या यह आपको पता है ? आज तो ज्ञान-ध्यान की परम्परा विलीन होने लगी है । पूज्य ज्ञानविमलसूरिजी कहते हैं :
_ 'वींझे छे शुद्ध मुज चेतना...' महाविदेह में भले ही नहीं जा सके, परन्तु विदेह अवस्था में यहीं पर अपने भीतर महाविदेह प्रकट किया जा सकता है ।
भक्तिनगरी ही पुण्डरीकिणीनगरी है। मेरा साहिब आत्मदेव ही सीमंधर स्वामी हैं । ऐसा पूज्य सागरजी ने प्रेक्टिकल किया था ।
नित्य ज्ञान-ध्यान में डुबकी लगाकर ही उन्हें सच्ची अंजलि दी जा सकती है।
पू. धुरन्धरविजयजी म. :
पूज्य कलापूर्णसूरिजी के प्रतिनिधि के रूप में पूज्य गणिश्री पूर्णचन्द्रविजयजी तथा पूज्य गणिश्री मुनिचन्द्रविजयजी दोनों पांचपांच मिनट बोलेंगे ।
* पूज्य गणिश्री पूर्णचन्द्रविजयजी : मन्त्र-मूर्ति-आगम उत्कृष्ट साधना पद्धति है ।
मन्त्र-मूर्ति-आगम के द्वारा प्रभु का भाव-मिलन किया जा सकता है।
(पूज्य आचार्यश्री कलापूर्णसूरीश्वरजी महाराज के पधारने के कारण वक्तव्य अपूर्ण रहा ।)
(१०२ooooooooooooooooooo कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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पूज्य आचार्यश्री विजयकलापूर्णसूरिजी :
* शासन-नायक भगवान महावीर के अनुग्रह से तीर्थ की स्थापना हुई है तब से गणधरों से लगाकर आज तक परम्परा मिली है। उनमें से प्रत्येक महापुरुष को याद करके हम पवित्र बन सकते हैं । भगवान की तरह गुरु को याद करने से भी पवित्र बना जा सकता है।
शास्त्रों में कहा गया है : 'गुरु-बहुमाणो मोक्खो ।' . जीवन में गुरु का बहुमान जगे वही मोक्ष है । आठ कर्मों का क्षय होने पर मोक्ष होगा, तब तब की बात । उससे पूर्व ऐसा मोक्ष प्रकट करना है । गुरु को भगवान के रूप में देखना है। भगवान का परिचय कराने वाला भगवान से भी बढ़ जाता है । यदि गुरु न होते तो भगवान कहां से पहचान पाते ?
गुरु बहुमान से मोक्ष किस प्रकार ? मोक्ष तो कर्मों का क्षय होने से होता है । कर्म-क्षय से होने वाला मोक्ष गुरु के बहुमान से ही मिलेगा । इसीलिए गुरु-बहुमान को ही मोक्ष कहा है । इतनी बात जानने के पश्चात् गुरु के प्रति अपार बहुमान उत्पन्न होना चाहिये ।
गुरु-भक्ति के प्रभाव से अपनी आत्मा भगवान के साथ जुड़ जाती है।
जो भगवान प्रतिमा में हैं, वे ही भगवान गुरु में भी हैं । न हो ऐसा सम्भव ही कैसे ?
मुनिराज के मानस में हंस की तरह सिद्ध रमण कर रहे होते
सिद्ध सिद्धशिला पर भले रहे, परन्तु मुनि जब ध्यान करते हैं तब वे उनके हृदय में आते ही हैं ।
* अभी आगम मन्दिर के दर्शन करते समय क्या पू. सागरजी के दर्शन नहीं होते ? हृदय में आगम अंकित हो जायें, तत्पश्चात् दीवारों पर उत्कीर्ण करने की क्या आवश्यकता है ? आपको ऐसा होता होगा, परन्तु जिन आगमों के स्पर्श से लोहे के समान मेरी आत्मा स्वर्ण तुल्य बन गई, उसका दर्शन अन्य भी क्यों न करें ? आगम उत्कीर्ण कराने के पीछे पूज्यश्री की ऐसी भावना थी । (कहे कलापूर्णसूरि - ३ 66555555555 GOOGoooooo १०३)
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* कलिकाल में दो ही भगवान हैं । जिनागम = बोलते भगवान । जिनमूर्ति = मौन भगवान ।
आगमों के प्रति जितना आदर बढ़ेगा, उस प्रमाण में भगवान मिलेंगे ।
जिन आगमों की सुरक्षा के लिए हमारे पूर्वाचार्यों ने प्राण देने के लिए भी तत्परता दिखाई उन्हें हम कितना धन्यवाद दें ?
जैसलमेर में ताड़पत्रियां क्यों एकत्रित की गई हैं ? क्योंकि किसी का वहां शीघ्र आक्रमण न हो ।
इस प्रकार आगमों की सुरक्षा के लिए पूज्य सागरजी ने इस आगम मन्दिर का निर्माण कराया ।
अपने जीवन को आगममय बनाकर जीयें यही पूज्य सागरजी महाराज को सच्ची श्रद्धांजलि दी कहलायेगी ।
उन महापुरुषों के सम्बन्ध में जितना कहें उतना कम हैं ।
उन्हों ने कपडवंज, पाटन आदि स्थानों पर दो-चार बार आगम वाचनाओं का आयोजन किया था, जिनमें हमारे पूज्य कनकसूरिजी ने भी लाभ लिया था ।
आगमों में भगवान हैं यह समझा जाये तो स्वाध्याय करते समय भी भगवान याद आयें ।
भगवान अलग नहीं है, परन्तु भक्त की भूल के कारण भगवान अलग लगते हैं ।
यदि हम आगमों का पाठ करेंगे तो निश्चित रूप से पूज्य सागरजी की आत्मा प्रसन्न होगी ।
* पूज्यपं.भंद्रकरविजयजी म.के प्रशिष्य धुरन्धरविजयजी म. : 'जीवंता जग जस नहीं, जस विण का जीवंत ?
जे जस लेई आतमा, रवि पहेला उगंत ।'
- श्रीपाल रास, पुतली के मुंह से, उपा० यशोविजयजी जीते जी यश नहीं, उसका कोई मूल्य नहीं, जिसका यश होता है उसका नाम सूर्योदय से पूर्व गाया जाता है ।
पूज्य सागरजी महाराज ने वृद्धों को समझा-समझा कर हस्तलिखित प्रतों में सुरक्षित आगमों को बाहर निकाले । (१०४0000000aoooooooooooo कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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यह उनका महान् उपकार है । __ शासन में आगम स्थिर (स्थायी) रहें, सुरक्षित रहें इस हेतु से तीन बार बड़े परिवर्तन हुए हैं । ___ (१) वीर संवत् ९८० में देवर्द्धिगणि ने वलभीपुर में श्रमण सम्मेलन करके आगमों को ग्रन्थों में लिखवाये ।
(२) विक्रम की नौवी-दसवी शताब्दी में शीलांकाचार्य एवं कपडवंज में स्वर्गवासी हुए आचार्यश्री अभयदेवसूरि ने आगमों पर टीकाएं लिखीं । उन्हें शासनदेवी का संकेत प्राप्त हुआ था कि दुरूह आगमों पर टीका लिखें ।
शासनदेवी ने सूरिजी को निःशंक करने के लिए ओढ़नी देकर कहा, 'प्रथम प्रत को आप इस रत्नजड़ित ओढ़नी में लपेटना । उसकी धनराशि से प्रतें लिखवाना ।
उक्त ओढ़नी को बहुत अधिक धनराशि देकर तत्कालीन गुर्जर राजा ने खरीदी थी और उस धनराशि से वे प्रतें लिखवाई ।
(३) सौ वर्ष पूर्व हस्तलिपि जानने की परम्परा लुप्त प्रायः हो गई । पैसों के खातिर हस्त-प्रतें बिकने लगी ।
आपको एक प्रसंग बताता हूं । सूरत में एक व्यक्ति हस्तप्रत बेचने के लिए आया । उसने उसके तीस हजार रूपये मांगे ।
पूज्य सागरजी ने कहा : 'तैंतीस हजार रूपये दिला सकता हूं।' वह बोला : 'मैं देखता हूं।'
तत्पश्चात् दो घंटों के पश्चात् उसे बुलाकर कहा : 'ला पैंतीस हजार रूपयों में दे दे ।'
वह बोला : “एक अंग्रेज छत्तीस हजार रूपये देकर ले गया ।' इस प्रकार इतने ग्रन्थ बाहर गये कि मत पूछो बात ।
अतः पूज्य सागरजी महाराज ने आगम-सुरक्षा के निर्णय को वेगवंत बनाया । उस समय उसका अत्यन्त विरोध हुआ कि आगम छपाये नहीं जा सकते । आगम साधुओं के अतिरिक्त अन्य किसी से देखे भी नहीं जाते ।
जिसका विरोध होता है वही सर्व स्वीकृत होता है । जिसका विरोध न हो, उसे बल ही नहीं मिलता । विरोध से ही बल पूरा पड़ता है। (कहे कलापूर्णसूरि - ३00mmswammmmmmmmmmmm १०५)
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अकेले हाथ से सटीक ४५ आगम छपवाये । अन्य अनेक ग्रन्थ भी छपवाये । उनकी प्रस्तावना मूल ग्रन्थ से भी कठिन होती है। केवल प्रस्तावना लिखने में भी कितना समय लगा होगा ? सभी प्रस्तावनाओं के संग्रह के रूप में एक अलग पुस्तक भी छपी है।
__ अभयदेवसूरिजी के गांव में ही जन्मे इन सूरिजी ने टीका तो नहीं लिखी, परन्तु प्रस्तावना भी अद्भुत है। उनके व्याख्यान भी अद्भुत थे ।
हमारे पूज्य मुक्तिचंद्रसूरिजी कहते थे : सूत्र को चौड़ा करना हो तो पूज्य रामचंद्रसूरिजी का व्याख्यान और गहरा करना हो तो पूज्य सागरजी के व्याख्यान पढ़ने चाहिये ।
आगम तो उन्हें कण्ठस्थ थे । उनके व्याख्यान तो आगम तत्त्वों के भण्डार थे । अभी व्याख्यान साहित्य अप्रकाशित भी बहुत है ।
वे छोटे से जीवन में सब पूरा करके गये । हमारे पास 'टीम' होने पर भी हम वह कार्य पूरा नहीं कर सकते ।
पूज्य पं. भद्रंकरविजयजी म. का साहित्य पढ़ता हूं तो विचार आता है कि यह शैली किसकी है ? पूज्य रामचन्द्रसूरिजी की तो है ही नहीं । पूज्य भुवनभानुसूरिजी तो छोटे थे । तो यह प्रदान किसका है ?
मेरे गुरुदेव पूज्य पं. भद्रंकरविजयजी म. कहते थे : मैं आठ वर्ष का था तब बड़े पिताजी (भोगीभाई ने) पाटन में वि. संवत् १९७३ में पूज्य सागरजी को वाचनाओं के लिए तीन वर्ष रखे थे । आठ वर्ष का मैं, नित्य वहां बैठा रहता । वे लिखने-पढ़ने में व्यस्त रहते थे, ज्ञान की जगमग ज्योति जलती ।
पूज्य सागरजी के पास बैठे रहने से ही उनका प्रभाव उनके साहित्य पर पड़ा है।
* भूराभाई पंडित (सरस्वती पुस्तक भंडारवाले) कहते थे कि शासन के चार स्तम्भ हुए हैं : (१) मन्दिरों का जीर्णोद्धार करानेवाले पूज्य नेमिसूरिजी (२) आगमों का जीर्णोद्धार करनेवाले पूज्य सागरजी महाराज । (१०६ wwwwwwwwwwwwwmoms कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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(३) दीक्षा-जीर्णोद्धार करनेवाले पूज्य प्रेमसूरिजी, पूज्य रामचन्द्रसूरिजी । (४) श्रावक जीर्णोद्धार करनेवाले पूज्य वल्लभसूरिजी ।।
इन चार शासन-स्तम्भों ने अत्यधिक कार्य किया है । उत्तराधिकारी केवल सम्हालें इतनी ही अपेक्षा नहीं है, उन्हें आगे भी बढ़ायें ।
हेमचन्द्रसागरसूरिजी के आचार्य पद के समय मैं ने लिखा था - जिस परम्परा में आप आते हैं, तदनुसार ४५ आगमों को धारण करके भावाचार्य बनें, ऐसी अपेक्षा रखता हूं।
आगम के उत्तराधिकारियों को मैं कहना चाहता हूं कि जैसे अभयसागरजी ने आगमों की सुरक्षा की उस प्रकार आप सुरक्षा करें ।
पूर्व पुरुषों के प्रति हमारी प्रार्थना है कि हम आगमों के अधिक गूढ़ अर्थ निकाल सकें ।
पूज्य गणिवर्यश्री महोदयसागरजी :
कुछ समय पूर्व छोटे महाराज (बालमुनि) ने इतनी सभा में उद्बोधन किया जिससे आनन्द एवं आश्चर्य हुआ। यहां अन्य बालमुनि भी हैं ।
एक समय ऐसा था जब अल्पायु बालकों को दीक्षित नहीं किये जाते थे । ऐसा कानून भी पारित होने वाला था । उस समय उसका प्रचण्ड विरोध करने वाले आचार्य पूज्य सागरजी और पूज्य रामचन्द्रसूरिजी थे और वे सफल भी हुए ।
__ हमारे पूज्य गुरुदेव अनेक बार नाम लेते थे जिनमें दो नाम मुख्य थे - पूज्य सागरजी तथा पूज्य रामचन्द्रसूरिजी ।।
उनके प्रभाव से ही इन बाल-मुनियों को हम देख सकते
पूज्य गुणसागरसूरिजी चातुर्मास हेतु विनंती करने के लिए आने वाले श्रावकों को कहते : 'विद्वान तो नहीं है, परन्तु विधवा साध्वीजी मिलेंगी ।'
बीस वर्ष पूर्व प्रतिज्ञापूर्वक ४५ आगमों का अध्ययन चालु था, तब हमारे पूज्य गुरुदेव कहते थे - 'आज आगम उपलब्ध हैं, उसका मुख्य उपकार पूज्य सागरजी महाराज का है।' कहे कलापूर्णसूरि - ३ 00 HOSE WOW WWW WE HAS १०७)
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आजके शुभ दिन हम संकल्प करें कि ४५ आगमों का एक बार तो अवश्य वाचन करेंगे । श्रावक गण संकल्प करें कि हम आगमों का श्रवण करेंगे और बालकों को धार्मिक विद्यापीठों में अध्ययन करायेंगे।
आज दिगम्बर समाज में विद्वान श्रावक देखने को मिलते है, परन्तु श्वेताम्बरों में विद्वान श्रावक देखने को नहीं मिलते । आगमों में विद्वान् श्रावकों के लिए विशेषण आते हैं - 'लद्धट्टा' आदि ।
गुरुकुल, श्राविकाश्रम, मेहसाना संस्था आदि अनेक विद्याधाम हैं । यदि हम उन्हें प्रोत्साहन देंगे तो ही पूज्य सागरजी महाराज को सच्ची श्रद्धांजलि दी गिनी जायेगी ।
अन्तिम पन्द्रह-पन्द्रह दिनों तक ध्यान-दशा में रहना कितना दुष्कर कहा जाये ? 'झाणज्झयणसंगया'
__ - पंचसूत्र काल के प्रभाव से ध्यान-साधना लुप्त प्रायः हो गई है। प्रत्येक क्रिया ध्यानमय होने पर भी उसे उस प्रकार कर नहीं सकते । अतः अन्य शिविरों में जाकर जैन-शासन से विमुख होने वाले जैन देखने को मिलते हैं ।
यहां ध्यान-मार्गी पूज्य कलापूर्णसूरिजी, पूज्य यशोविजयसूरिजी जैसे यदि दस-पन्द्रह दिन तक चले वैसी ध्यान-पद्धति चलायेंगे तो अत्यन्त आनन्द होगा ।
पूज्यश्री हेमचन्द्रसागरसूरिजी : _ 'गुर्वाधीन्यं सुसत्त्वं च, संयमे सुप्रतिष्ठितम् ।
महतां लक्षणं तुर्य, विपुलो ज्ञानवैभवः ॥' प्रश्न है : महान कौन ? महापुरुष बनने के अरमान तो सबके होते हैं परन्तु कौन महापुरुष बन सकता है ?
इस श्लोक में चार बाते हैं : (१) गुरु - अधीनता । (२) सत्त्वशीलता । (३) संयम में चुस्तता ।
(४) विपुल ज्ञान - वैभव । (१०८ 00000mmmmmmoooooooo कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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पूज्य सागरजी में ये चारों बातें थी । इसीलिए वे महापुरुष कहे जा सकते हैं ।
अपने गुरुदेव पूज्य झवेरसागरजी का सान्निध्य मात्र नौ महिनों के लिए ही मिला, फिर भी गुरु-सेवा के माध्यम से उन्हों ने जो कृपा प्राप्त की वह अद्भुत थी ।
कालधर्म के समय पूज्य झवेरसागरजी का हाथ उनके सिर पर था । उन्हों ने कहा था, 'बेटे ! आगमों का ध्यान रखना ।' . उनकी घटनाओं में 'सत्त्वशीलता' दृष्टिगोचर होती है ।।
वे चारित्र-पालन करने में कितने चुस्त थे? कितने ही अभिग्रह धारण करते, जो पूर्ण न हो सकें वैसे थे; तो भी वे अभिग्रह पूर्ण हुए ।
विपुल ज्ञान-वैभव का वर्णन तो सुन ही लिया है ।
उन महापुरुष के गुणानुवाद से हम गुणानुरागी बनें, यही अभ्यर्थना है।
Pos
पुस्तक पढ़ने पर आये आनन्द को व्यक्त करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं ।
- साध्वी मुक्तिरसाश्री
जीव मैत्री, जिन-भक्ति एवं गुरु-भक्ति कैसी महान् है ? इसका हार्द इस पुस्तक में अत्यन्त ही गहराई से समझाया गया है ।
___ - साध्वी नयगुणाश्री
वाचना की प्रसादी स्वरूप इस पुस्तक का पठन हमारे भीतर प्रसन्नता की ऊर्मियां उत्पन्न करें और प्रभु के प्रति प्रेम उत्पन्न करें, वैसी अपेक्षा है ।
- साध्वी ज्योतिदर्शनाश्री
कहे कलापूर्णसूरि -३ooooooooooooooooooo १०९)
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पालिताना, वि.सं. २०५६
३१-७-२०००, सोमवार
श्रा. कृष्णा अमावस
* जिसके हाथों दीक्षा हुई हो वह अपनी शक्ति दीक्षित में स्थापित करे । भगवान जैसे दीक्षा-दाता हों वहां कितनी शक्ति प्रकट होगी ? भगवान ने इस तीर्थ में शक्ति डाली है, वह आज भी कार्यशील है। (१) जिज्ञासा :
'भयवं किं तत्तं ?' गणधरों का यह प्रश्न भीतर की उत्कट जिज्ञासा व्यक्त करता है । यह जिज्ञासा भी भगवान के समक्ष विनयपूर्वक, प्रदक्षिणा एवं वन्दनपूर्वक प्रस्तुत की है।
प्रश्न भीतरी जिज्ञासा प्रकट करता है । जिज्ञासा के बिना प्रश्न हो ही नहीं सकता । जिज्ञासा के बिना आप किसी को ज्ञान देते हैं अर्थात् भूख के बिना आप उसे भोजन कराते हैं । ग्राहक की मांग के बिना यदि आप उसे माल देते हो तो आपको भाव घटाना पड़ेगा ।
एक प्रश्न से समाधान नहीं हुआ तो गणधरों ने दूसरा तथा तीसरा प्रश्न भी पूछा और उस में से उन्हें त्रिपदी मिली । त्रिपदी ध्यान की माता है। उसमें से द्वादशांगी का जन्म हुआ । उत्पत्ति, व्यय एवं ध्रौव्य तीन मूल बीज हैं, जिनमें से समग्र ज्ञान का जन्म
|११० Dolanooooooooooo0 कहे कलापूर्णसूरि - ३
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होता है। छोटे से बीज में से बडा जंगल उत्पन्न होता है । मरुदेवी एक थे, परन्तु उनकी सन्तति कितनी थी ? कितने समय तक यह परम्परा चली ?
इन तीन पदों में ध्यान के बीज हैं। उन शब्दों में प्राणों का संचार करने वाले भगवान हैं, ग्रहण करने वाले गणधर हैं । इसीलिए उन्हें विशिष्ट ध्यान लगता है और उसमें से द्वादशांगी का सृजन होता है । वही त्रिपदी मैं बोलूं और आप सुनें तो द्वादशांगी का सृजन नहीं होता ।
* यहां लिखा है - 'धर्मं प्रति मूलभूता वन्दना ।'
आन्तरिक भाव से वन्दन नहीं हो तब तक धर्म का जन्म नहीं होता । मन-वचन-काया तीनों नम्र बनें तो ही भाव-नमस्कार आयेगा ।
* भूख प्रत्येक व्यक्ति को लगती है, परन्तु जिज्ञासा किसी विरले को ही होती है । 'इसका क्या अर्थ होता है ?' यह जानने की इच्छा ही जिज्ञासा है । जिज्ञासा के बिना सम्यग्ज्ञान नहीं होता, सम्यग्ज्ञान के बिना सम्यक् क्रिया नहीं होती । मिथ्यात्वी को यह कदापि प्राप्त नहीं हो सकती ।
(२) विधि-परता :
किसी भी वस्तु के निर्माण के लिए विधि का ज्ञान चाहिये । खिचडी बनानी हो तो भी ज्ञान चाहिये । हण्डिया में कैसे रखनी ? चावल और मूंग कितने डालने ? आदि बातें जाने बिना क्या खिचड़ी बनाई जा सकती है ?
* आप धैर्य रखें; भगवान एवं भगवान का शासन आपको सब देने के लिए तैयार ही है। भगवान पर अटल आस्था होनी चाहिये - 'देशो तो तुमही भलूं, बीजा तो नवि याचं रे ।'
- पूज्य उपाध्याय यशोविजयजी यह अचल धैर्य है। भगवान मिलने के पश्चात् उपाध्याय महाराज गाते हैं -
_ 'मारे तो बननारूं बन्यु ज.छ, हूं तो लोकने वात सिखाऊं रे ।'
'धन्य दिन वेला धन्य घड़ी तेह ।' (कहे कलापूर्णसूरि - ३wwwwwwwwwwwwwwwwwwww १११)
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यह प्रभु-मिलन का आनन्द है, जो इन पंक्तियों में व्यक्त हुआ है।
* ज्ञानी कहते हैं : पल-पल, सांस-सांस में प्रभु का स्मरण करो । प्रभु को याद नहीं करते तब निश्चय मानें कि मन संक्लिष्ट है । प्रभु हो तो मनं कदापि संक्लिष्ट नहीं होता ।
'तुम न्यारे तब सब ही न्यारा...' (३) गुरु योग :
भगवान दूर तो सब दूर । भगवान निकट तो सब निकट । ऐसे भगवान को नमस्कार करो । इस 'नमो' में विनय है । नवकार में प्रथम 'नमो' है, उसके बाद अरिहन्त है । 'नमुत्थुणं' में प्रथम 'नमो' है । दशवैकालिक में लिखा है -
___ 'आयारस्स मूलं विणओ ।' यह समस्त विनय नमो का महत्त्व बताता है । गुरु के विनय के बिना सम्यग् क्षयोपशम कदापि खुलता नहीं
ऐसे मनुष्य को पढ़ने की (अध्ययन करने की) इच्छा भी नहीं होती । उसे विचार भी ऐसे ही आते हैं कि अनपढ़ के भी शिष्य हो जाते हैं तो मुझे पढ़ने की सिर-पच्ची करने की आवश्यकता क्या ? ये अज्ञानी के विचार हैं ।
जिज्ञासा उत्पन्न करने के लिए सर्व प्रथम मोह का क्षय आवश्यक है। यदि यह क्षय नहीं हो तो क्षयोपशम चाहिये । इसीलिए यहां 'विशिष्ट क्षय - क्षयोपशमनिमित्ता इयं (जिज्ञासा) न असम्यगदृष्टेः भवति ।' ऐसा लिखा है, अन्यथा, क्षय के पश्चात् क्षयोपशम लिखने की आवश्यकता नहीं थी ।
* हम गृहस्थों को तो उपदेश देते है, परन्तु हम अपनी ही आत्मा को भूल जाते हैं । बारात में दुल्हा को ही भुला दिया गया है।
* बोध देने वाले गुरु में कम से कम चार गुण चाहिये । (१) यथार्थ नामवाले :
'तत्त्वं गृणातीति गुरुः ।' यह व्याख्या लागू हो ऐसे गुरु होने चाहिये ।
[११२ 000000000000000000mm कहे कलापूर्णसूरि - ३]
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(२) स्व-पर शास्त्रों के ज्ञाता । (३) पर-हित में तत्पर । (४)सामने वाले के आशय के ज्ञाता ।
गुरु केवलज्ञानी थोड़े ही हैं जो दूसरों का आशय समझ लें ? केवलज्ञान चाहे न हो, केवलज्ञानी का सहारा तो है न ?
कई बार श्रोतागण मुझे कह कर जाते हैं कि हमारे ही मन की बातें आपने कह दी । हमारे मन का समाधान हो गया ।
शिष्य किस आशय से अवकाश मांगता हो? गुरु उसे बराबर समझ जाते हैं । चाहे वे बोलें नहीं ।
मैं पहले स्पष्टीकरण कर देता हूं कि मुझमें चारों में से एक भी गुण नहीं है। कदाचित् आप ये पूछे कि फिर व्याख्या करने क्यों बैंठे? तो मैं कह दूं - पूज्य हरिभद्रसूरिजी की टीका, पूज्य मुनिचन्द्रसूरिजी की पंजिका, पूज्य भुवनभानुसूरिजी की व्याख्या मेरे सामने है। उन पर बहुमानपूर्वक बोलता हूं। अन्यथा, मुझ में शक्ति कहां है ? मेरी भूलों के लिए आप मुझे क्षमा करें।
उमास्वाति महाराज कहते हैं : मैंने भिखारी की तरह दाने चुन-चुनकर सब एकत्रित किया है। मैंने भी इसी प्रकार से एकत्रित किया है।
हमें गौतम स्वामी जैसे गुरु चाहिये । इसीलिए प्राप्त गुरु का विनय नहीं करते । परन्तु हम जानते नहीं है कि गौतम स्वामी जैसे गुरु के शिष्य बनने की भी योग्यता चाहिये न? अपनी योग्यता का हम विचार नहीं करते ।
वर्तमान समय में प्राप्त गुरु का बहुमान करोगे तो आगामी भव में गौतम स्वामी जैसे गुरु मिलेंगे ।
यशोविजयजी को अपने गुरु नयविजयजी के प्रति कितना बहुमान था ? विनयविजयजी तो अपने गुरु कीर्तिविजयजी के नाम को मन्त्र मानते थे ।
इस प्रकार का गुरु के प्रति बहुमान हो तो ही ज्ञान आता है।
गुरु का बहुमान करने से ज्ञान प्राप्त हुआ है, इसलिए यह गुरु का कहलाता है ।। (कहे कलापूर्णसूरि -
३ ommoooooooooooooo ११३)
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* चाण्डाल का स्पर्श वर्जित गिना जाता है, परन्तु प्रभु के चरणों के स्पर्श के लिए उतावल की जाती है, कारण क्या ?
अशुभ स्पर्श का प्रभाव अशुभ होता है और शुभ का शुभ । यह बात इससे स्पष्ट हो जाती है।
तांबे को स्वर्ण-रस का स्पर्श होने पर वह स्वर्ण बन जाता है, ऐसा कहते हैं । यह स्पर्श का प्रभाव है।
जब तक प्रभु का स्पर्श न हो तब तक हम तांबा हैं। भगवान का स्पर्श तो वेधक-रस है । उनका स्पर्श होते ही अपनी पामर आत्मा परम बन जाती है । अप्रकाशित दीपक प्रकाशित दीपक के स्पर्श के बिना प्रकाशित नहीं बन सकता, उस प्रकार प्रभु के स्पर्श के बिना अपनी आत्मा परम आत्मा नहीं बन सकती ।
प्रभु के गुण कदाचित् प्राप्त न कर सको, विकसित न कर सको, परन्तु उनके प्रति प्रेम तो बढा सको न ? प्रभु के गुणों का प्रेम ही वेधक रस है, जो आपको स्वर्ण-मण्डित कर देगा ।
गुरु में भी भगवान की शक्ति कार्य कर रही है। इसीलिए गुरु के चरणों को स्पर्श करने की इतनी महिमा है । वे जहां बैठे हों उस पाट, आसन आदि को कितने भावपूर्वक स्पर्श करते हैं ? वांदणा में क्या है ? 'अहो, कायं-काय-संकासं' के द्वारा गुरु के चरणों की कल्पना कर के उनका भाव से स्पर्श करते हैं ।
___ भावपूर्वक स्पर्श करने से बहुमान उत्पन्न होता है । बहुमान गुणों के लिए प्रवेश-द्वार है ।
(३) विधिपरता :
गुरु को वन्दन की आवश्यकता नहीं है, परन्तु यह विधि है । इसके बिना ज्ञान नहीं आता ।
कितनी ही विधियां है जैसे - मांडली में बैठना, स्थापनाचार्य, गुरुजनों का अनुक्रम, औचित्यपूर्वक आसन आदि बिछाना, विक्षेप का सर्वथा त्याग करना (वाचना आदि का फल प्राप्त करना हो तो विक्षेप का त्याग करना ही पड़ता है, टेढ़े-मेढ़े प्रश्न, टेढ़ी-मेढ़ी दृष्टि आदि विक्षेपकारी परिबल हैं) उपयोग पूर्वक सुनना ।
यह गुरु के पास ज्ञान प्राप्त करने की विधि है। ऐसा करोगे तो
???
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कल्याण हुए बिना रहेगा ही नहीं, शास्त्रकार ऐसी 'गारंटी' देते हैं ।
उपाय उपेय को देकर ही शान्त रहता है । यह नियम है। दीपक जलाओगे तो प्रकाश होगा ही । पानी पियोगे तो प्यास बुझेगी ही । विधि पूर्वक करो तो कल्याण होगा ही ।।
भगवान की भक्ति करो तो मंगल होता ही है, दुर्गति का भय नष्ट होता ही है। भगवान के भक्त को दुर्गति का भय कैसा ? भक्त निश्चिन्त होता है । क्या हम इतने (ऐसे) निश्चिन्त हैं ?
जब तत्त्व की बात समझ में आती है
अहमदाबाद में तत्त्वज्ञान के वर्ग चलते हैं । एक बहन मंडल की सदस्या होने से वर्ग में आतीं । दो माह के पश्चात् एक बार मिलने आई । अत्यन्त रोई । कारण पूछने पर बताया कि, 'मैं अधोगति में जाऊंगी, अतः रोती हूं ।'
'तुझे ऐसा किसने कहा ?' 'आपने ।'
'अरे ! मेरे पास ऐसा ज्ञान कहां है कि तुझे बता सकूँ कि तेरी गति क्या होगी ?'
'आपने तत्त्व के वर्ग में कहा था कि अति क्रोध, असत्य आदि के परिणाम से जीव अधोगति में जाता है ।' _ 'तू एक काम कर, अभी तक आयुष्य का बंध हुआ है या नहीं, उसका पता नहीं है, परन्तु तू प्रभु-भक्ति में लग जा । दर्शन-पूजन ही तेरा उद्धार कर लेंगे ।'
__ और असत्य नहीं बोलने आदि के नियम ग्रहण कराये ।
एक वर्ष के पश्चात् उसके पति मिलने के लिए आये और कहने लगे कि बहन ! जीवन में घर में शान्ति-शान्ति हो गई है जिसके लिए आपका आभार ।
- सुनन्दाबेन वोरा dol
(कहे कलापूर्णसूरि - ३00aaaaoooooooooooooo ११५)
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पालिताना, वि.सं. २०५६
१-८-२०००, मंगलवार
सावन शुक्ला -२
* पंचांगी आगम का अपमान भगवान का अपमान है । आगमों में से किसी भी अंग को आप नहीं मानते अर्थात् भगवान को ही नहीं मानते । उनके अंग का छेदन करते हो अर्थात् भगवान का ही छेदन करते हों ।
'चूणि भाष्य सूत्र नियुक्ति, वृत्ति परस्पर अनुभव रे; समयपुरुषना अंग कह्या ए, जे छेदे ते दुर्भव्य रे ।'
- पूज्य आनन्दघनजी अनुभव एवं परम्परा भी साथ ले लिये हैं । इन छ: में से एक का भी अपमान अर्थात् भगवान का अपमान मानें ।।
टीकाकार हरिभद्रसूरिजी स्वयं आगम पुरुष हैं । उनकी रचना आगम तुल्य गिनी जाती हैं ।
उपाध्याय यशोविजयजी द्वारा रचित सवासौ गाथों के स्तवन पर पद्मविजयजी महाराज ने टबा लिखा है, जिसमें उल्लेख हैं कि हरिभद्रसूरि के ग्रन्थ भी आगम ही गिने जाते हैं । उनकी बात आप नहीं मानते तो आगमों को ही नहीं मानते । (११६
5 5550566600 कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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* आगमों आदि को पढ़ने में तो नया-नया आने से फिर भी रस आता है, परन्तु दैनिक किये जाने वाले चैत्यवन्दन आदि में प्रायः रस नहीं आता । हरिभद्रसूरिजी के समय में भी कदाचित् ऐसी स्थिति होगी, अतः उनकी 'ललित विस्तरा' लिखने की इच्छा हो गई होगी ।
* उपमिति, समराइच्च, वैराग्य कल्पलता आदि पढ़ने से भी वैराग्य उत्पन्न नहीं हो तो समझें कि यह जीव दुर्भव्य अथवा अभव्य होगा ।
अनन्त भव नहीं करने हों तो इस भव में तनिक सहन कर लें । तनिक साधना कर लें तो काम हो जाये ।
वयोवृद्ध महात्मा इसीलिए पहले वैराग्यकारक ग्रन्थ कण्ठस्थ कराकर फिर व्याकरण आदि में प्रवेश कराते थे ।
* हम तो अमुक वर्षों में चले जायेंगे परन्तु ये आगम स्थायी रहेंगे । हजारों वर्षों तक इनके आधार पर ही शासन चलेगा । इन आगमों की हम उपेक्षा नहीं कर सकते । भावी पीढ़ी की उपेक्षा नहीं की जा सकती ।
जैन श्रावक अपनी सन्तान की चिन्ता करता है कि कहीं मेरा पुत्र दुर्गति में न जाये । हमारे यहां एक बात आती है न ? किसी भी तरह से धर्म-क्रिया नहीं करने वाले अपने पुत्र को धार्मिक बनाने के लिए उसके पिता ने चौखट की साख पर भगवान की मूर्ति बिठाई, द्वार छोटा कराया ।।
भले ही वह पुत्र मृत्यु के पश्चात् मछली बना परन्तु बाद में तो ठिकाना पड़ा न ? वहां से मर कर आठवे देवलोक में गया न ?
श्रावक चिन्ता करे तो क्या हमें अपनी भावी पीढ़ी की चिन्ता नहीं करनी ? यह सब बात मैं कोमलता से करता हूं। ठिकाना पड़ेगा न ? या ओर अधिक कठोर भाषा की आवश्यकता पड़ेगी ? 'लातों के देव बातों से नहीं मानते' ऐसा तो नहीं है न ?
युगलिक काल में तो केवल हकार, मकार, धिक्कार से कार्य हो जाता था । परन्तु ज्यों ज्यों पतनोन्मुख काल आया, त्यों त्यों अधिक शिक्षा की आवश्यकता पड़ने लगी । (कहे कलापूर्णसूरि - ३wwwwwwwwwwwwwwwwwww ११७)
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जीवों की वक्रता, जड़ता अधिक होती है त्यों अनुशासन कठोर बनता जाता है । (४) बोध परिणति :
* बोध सच्चा वही कहलाता है जो परिणाम प्राप्त हो । परिणाम में कुछ नहीं हो वह ज्ञान किस काम का ?
व्यावहारिक ज्ञान भी परिणाम प्राप्त न करें तो क्या सफल होगा ?
ज्ञान भण्डार में से चौपडे मंगवाये । यहां सुनते समय खोले, फिर बंध कर दिये । वहां जाकर खोले कौन ?
ऐसा ज्ञान कल्याणकारी बनेगा, ऐसा प्रतीत होता है ? क्या ऐसा ज्ञान मोह के पिंजरे में से मुक्ति दिला सकेगा ? क्या ऐसा ज्ञान ग्रन्थियों में से मुक्ति दिला पायेगा ?
चौदह ग्रन्थियां हैं । इन ग्रन्थियों से मुक्त हो वही निर्ग्रन्थ है। चौदह ग्रन्थियां सुन लो : नौ नोकषाय + ४ कषाय + मिथ्यात्व = ये चौदह ग्रन्थियां हैं ।
सम्पूर्ण भव-चक्र में मोहनीय का उपशम पांच बार ही हो सकता है । क्षयोपशम असंख्य बार होता है । क्षय एक ही बार होता है । क्षय हो गया अर्थात् क्षायिक सम्यक्त्व मिल गया । क्षायिक सम्यक्त्व मिलने के पश्चात् जाता ही नहीं है ।
___ मोह का जोर घटने के पश्चात् ही बोध परिणाम पाता है । फिर वहां कुतर्क नहीं होते । ऐसा व्यक्ति जहां तहां जाकर अपने ज्ञान का प्रदर्शन नहीं करता । रत्नों को तो ढक कर रखे जाते हैं, प्रदर्शन नहीं किया जाता ।।
कोई बात चलती हो, हम कुछ जानते हों और बिना पूछे तुरन्त ही बोल जाते हों तो समझें कि अपना ज्ञान प्रदर्शक है ।
सच्चा ज्ञान मार्गानुसारी होता है ।
जो उन्मार्ग पर ले जाये वह उल्टा ज्ञान है। मार्गानुसारी ज्ञान भले थोडा हो, परन्तु उल्टा तो नहीं ही होता । कभी कुछ बोला जाये अथवा गैर समझ आ जाये, परन्तु वह हठाग्रह में परिणमित हो वैसा न हो । दवा से मिटने वाले दर्द जैसा यह अज्ञान होता
(११८00wwwwwwwwwwwwwwwwww कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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गृहस्थों के पास धन-सम्पत्ति हो, उस प्रकार अपनी सम्पत्ति ज्ञान है । धन नष्ट हो जाता है । यह सम्पत्ति अखूट है । धन को चोर लूटता है । यहां तो कोई नहीं लूटता । कदाचित् कोई लूट लें तो भी यहां तो कम नहीं होता ।
चक्रवर्ती का साम्राज्य टिकता नहीं है । अन्त में छोड़ना ही पड़ता है । नहीं छोड़ें तो नरक में ले जाता है । अन्त में उसे यही साधुत्व की शरण में आना पड़ता है । जो नहीं आये वह नरक में जाता है।
कतिपय गृहस्थों को धन से अभिमान आ जाता है, उस प्रकार साधु-जीवन में ज्ञान आदि सम्पत्ति से कइयों को अभिमान आ जाता है । ज्ञान का ही नहीं, अन्य किसी भी लब्धि का अभिमान करने योग्य नहीं है।
दूसरे के अज्ञान पर हास्य एवं मजाक करने की इच्छा हो तो समझे कि अपना ज्ञान अभिमान-कारक है ।
आणंदजीभाई पंडितजी पाठ याद नहीं होने पर कहते - 'सर्वथा बुद्ध है, 'ढ' है ।' यद्यपि वे तो विद्यार्थी पाठ अच्छी तरह याद करें उसके लिए कहते । यह अभिमान नहीं कहलाता, परन्तु दूसरे का अपकर्ष करने की बुद्धि से ऐसे वाक्य कहे जायें, उसमें अभिमान
सच्चा ज्ञानी अपनी ऋद्धि का गर्व नहीं करता, अन्य अज्ञानियों का उपहास नहीं करता, व्यर्थ विवाद नहीं करता, भोले मनुष्यों में बुद्धि-भेद न कराये, समझदार व्यक्तियों को वह समझाता है, दूसरों को नहीं ।
इसका नाम ही पात्रता है।
पूज्य पं. श्री भद्रंकरविजयजी म. हमें अनेक बार पूछते - आपको क्या बनना है ? वक्ता कि पण्डित ? प्रभावक कि आराधक ? गीतार्थ कि विद्वान ? तत्पश्चात् वे कहते - आराधक, गीतार्थ बनें । यदि गीतार्थ उत्तर दिया हो तो वैसे बनें ।
पू. नूतन आचार्यश्री : 'आपने तो पूछ लिया होगा ?'
पूज्यश्री : मैंने तो पहले से ही निश्चित कर लिया था, पूछने की आवश्यकता ही नहीं थी ।
कहे
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मैं उन्हें वन्दन करता । वे मुझे इनकार करते, वे कहते - आप आचार्य हैं, आप वन्दन नहीं कर सकते; परन्तु मैं कहता - इस समय मैं आचार्य नहीं हूं, विद्यार्थी हूं, शिष्य हूं; तो भी पाट पर तो मुझे समीप ही बिठाते । उनकी उपस्थिति में मैं प्रवचन भी करता ।
भगवान ज्यों बुलवायेंगे वैसे बोलूंगा । कोई टेढ़ा-मेढ़ा होगा तो पंन्यासजी म. बतायेंगे वैसे करूंगा । चिन्ता क्या है ? ऐसे विचार के साथ प्रवचन भी कर चुका हूं । (५) स्थिरता :
सच्चा ज्ञानी कदापि विवाद नहीं छेड़ता । __ आप भी देखते हैं, कितनों का जीवन वाद-विवाद में ही पूरा हो जाता है। अनेक गृहस्थ कोर्ट-कचहरी के लफरों में जीवन पूरा कर डालते हैं ।
सच्चा ज्ञानी भोले मनुष्यों की बुद्धि में भेद नहीं करता ।
योग्य व्यक्ति को वह अपना ज्ञान देता है । इसका नाम ही पात्रता है।
___ यह पात्रता ही गुणवान मनुष्यों को मान्य है। यह तो मूर्तिमंत शमश्री है ! भाव-सम्पत्ति का स्थान है !
द्रव्य सम्पत्ति तो अनेक व्यक्तियों को मिलती है। जिसै भावसम्पत्ति प्राप्त हो वह सच्चा भाग्यशाली गिना जाता है ।
ज्ञान का अध्ययन करना हाथ की बात है, गुण प्राप्त करने हाथ की बात नहीं है । ध्यान लगना, स्थिरता-प्राप्ति क्या हाथ की बात है ? आप निश्चय करो कि आज मुझे अपना मन स्थिर रखना है और मन भागने लगेगा । इसीलिए आनन्दघनजी ने कहा है -
___ 'मनई किमही न बाझे हो कंथुजिन !' उनकी भी ऐसी दशा हो तो अपनी तो बात ही कहां ?
मन को स्थिर करने का प्रयत्न करो तब लगता है कि मानों खटमल हो । पकड़ने जाओ तो भागे ।
मन की चार अवस्थाऐं समझ लो - विक्षिप्त, यातायात, सुश्लिष्ट और सुलीन ।
प्रारम्भ में आप स्थिर रखने का प्रयत्न करोगे तो मन विक्षिप्त
(१२०wooooooooooooooooooo कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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होगा, भागेगा । यह प्रथम अवस्था है ।
मन को स्थिर बनाने के लिए वर्षों तक सतत साधना करनी पडती है।
मन मोह के अधीन है । अतः वह कूदता ही रहेगा । मन रूपी यह बन्दर कूदाकूद न करे तो ही आश्चर्य है ।
धारणा के द्वारा तनिक मन स्थिर बनने के पश्चात् तनिक स्थिरता आने लगती है।
तत्पश्चात् दूसरी अवस्था आती है - यातायात । कुछ समय तक स्थिर रहता है और पुनः अस्थिर हो जाता
किसी महात्मा ने यदि ध्यान में स्थिरता प्राप्त की हो तो समझें कि वर्षों की साधना ही नहीं, कदाचित् जन्मान्तर की साधना होगी।
ये सभी पदार्थ अभ्यास के बिना समझ में नहीं आते ।
यह पुस्तक पढ़ने से बहुत-बहुत जानने को मिलता है, मानो साक्षात् आचार्यश्री हमें कहते हों ऐसा ही आभास होता है ।
- साध्वी दृष्टिपूर्णाश्री
पुस्तक पढ़ने से हृदय भावार्द्र बन गया है ।
__- साध्वी चारुनिधीश्री
पुस्तक पढ़ने पर प्रभु को प्रार्थना करने का मन हुआ । पूज्य आचार्य भगवान में जैसे गुण हैं, वैसे हम में भी उत्पन्न हों ।
- साध्वी चारुविरतिश्री
(कहे कलापूर्णसूरि - ३00amasoomoooooooooo १२१)
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पू. जगवल्लभसूरिजी के साथ, पालिताना, वि.सं. २०५६
२-८-२०००, बुधवार
सावन शुक्ला-३
* किसी कैदी को कारागार से मुक्त करने के लिए कोई सज्जन प्रयत्न करे उस प्रकार मोह की कैद में से छुड़ाने के लिए भगवान ने प्रयत्न किया ।
सम्यक्त्व अर्थात् कैद में से मुक्त होने की लगन ।
सम्यक्त्व में भी अपूर्व आनन्द आता हो तो मोक्ष में कितना आनन्द आता होगा ?
सम्यक्त्व आदि की प्रभावना करके भगवान सबको आनन्द की प्रभावना कर रहे हैं। यही भगवान की करुणा है, परार्थ व्यसनिता
'मुझे एक हजार वर्षों में मिला वह पलभर में कोई क्यों प्राप्त कर ले ?' (मरु देवी आदि) ऐसा भाव हमारे मन में आ सकता है, भगवान के मन में नहीं ।
ब्रह्माण्ड में सर्वत्र अरिहंत की करुणा कार्य कर रही है । सिद्धों ने हमें निगोद में से बाहर निकाला यह सही है, परन्तु सिद्धों को सिद्ध बनाने वाले भी अरिहंत ही हैं न ?
हमें मान-सम्मान मिलता है वह क्या अपने नाम से मिलता
(१२२
Commmmmmmmmmmmm कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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है ? यहां प्रत्यक्ष भगवान का उपकार है, उसे तो स्वीकार करें । आप भगवान के शासन में न हो तो आपको कौन पूछे ?
* आत्मा निमित्तवासी है। जिसके पास रहेगी वैसी बनेगी । यदि हमारा जन्म कसाई आदि के घर हुआ होता तो? कैसे संस्कार आते ? मारने-काटने के दृश्य हमें कभी कभी देखने को मिलते हैं तो भी क्षुब्ध कर देते हैं । (अहमदाबाद में स्थंडिल के लिए जाते समय मुर्गे कटते हुए देखने को मिलते । बचपन में हैदराबाद में खुले आम लटकते प्राणियों के शव देखने को मिलते, परन्तु मैं वह मार्ग ही छोड़ देता ।) तो ये दृश्य जिन्हें नित्य देखने को मिलते हों, वे धीरे-धीरे ढीठ हो जाते हैं। यह है संगति का प्रभाव ।
* आप इतना निश्चय करें कि यह जन्म सब व्यर्थ नहीं जाने देना है । भले कम अध्ययन हो, परन्तु अध्ययन किया हुआ भावित बना हुआ होगा तो आत्म-कल्याण होकर ही रहेगा । ज्ञान दूसरे का काम में आ जायेगा परन्तु भावितता आपकी ही आवश्यक होगी, श्रद्धा आपकी ही आवश्यक होगी ।
* बोध-परिणति :
ज्ञान परिणति में आने के पश्चात् स्थिरता चाहिये । अभिमान ज्ञान को स्थिर होने नहीं देता । इसीलिए सर्वप्रथम ज्ञान के अनुत्सेक की बात कही । ज्ञान बढ़ने के साथ अज्ञान का भान होता रहना चाहिये । ज्यों ज्यों अध्ययन करते जायें, त्यों त्यों अपना अज्ञान दृष्टिगोचर होता जाये तो अभिमान नहीं आता ।
* मुझे अभी एक स्वप्न आया था कि चारों ओर हरियाली है, चारों ओर निगोद है। कहां पांव रखे? जहां निगोद नहीं थी, वहां मैंने पाव रखा ।
जयणा एवं करुणा भावित होने पर ही ऐसे स्वप्न आ सकते हैं । स्वप्न आपके भीतर की परिणति का सूचक है ।
आजकल हैजे (कोलेरा) के वायरस चलते हैं । किसी को भी उल्टी-दस्तें होने लगती हैं तब तुरन्त ही होस्पिटल में प्रविष्ट होकर बोटल लेना प्रारम्भ करते हैं, गोलियां लेते हैं' उस प्रकार आत्मा थोड़ी भी भूल करे तो तुरन्त सचेत हो कर उसकी प्रतिक्रिया करनी चाहिये । (कहे कलापूर्णसूरि - ३ wwwoooooooooooooooo १२३)
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वर्तमान ज्ञान मुझे निरन्तर पर-लक्षी प्रतीत होता है । व्याख्यान आदि में उपयोगी होगा, यह मानकर अध्ययन करते हैं । आत्म-लक्ष से अध्ययन करनेवाले कितने हैं ?
* जीव शरीर से भिन्न है यह सत्य है, परन्तु हम उसे भिन्न देख नहीं सकते । दूध और जल मिश्रित हो तो हंस उसमें से दूध-दूध पी लेता है और पानी छोड़ देता है । यही सच्चा विवेक है।
__ इस समय हम चेतन होते हुए भी जड़ जैसे बन गये हैं, पुद्गल के पक्ष में बैठ गये हैं, निरन्तर देह-भाव का पोषण कर रहे हैं । अपना षट्कारक चक्र उल्ट घूम रहा है, जो बाधक बन कर सतत कर्म-बन्धन कराता रहता है । अब यदि इसे साधक बनायें तो इसके द्वारा ही कर्म-विसर्जन का कार्य किया जा सकता है ।
* अभी 'भगवती' में निगोद की अत्यन्त सूक्ष्म चर्चा चल रही है । गोले, निगोद, जीव आदि की चर्चा पढ़ने पर लगता है कि अपने ही आत्म-बन्धु कैसी दशा में हैं ? हम भी एक दिन यहीं थे ।
किसी सिद्ध का उपकार है कि उसमें से हम बाहर निकले । बाहर निकलकर ठेठ मानव-भव तक पहुंचे, परन्तु यहां आने के पश्चात् सब जीवों का उपकार ले रहे हैं, परन्तु प्रायः किसी पर उपकार करते नहीं है । हमें जीवित रखने के लिए पृथ्वी, पानी, हवा, वनस्पति आदि के कितने जीव निरन्तर अपने प्राणों की आहुति देते रहते हैं ? इस विषय में कभी तो सोचो । * ज्ञान एवं दर्शन दोनों मिलकर ही चारित्र मिलता है।
'ज्ञाननी तीक्ष्णता चरण तेह, ज्ञानं एकत्वता ध्यान गेह ।'
- पू. देवचन्द्रजी, अध्यात्मगीता । आगमों में हो तो ही पू. देवचन्द्रजी यहां ऐसी व्याख्या लिखते, अन्यथा कदापि नहीं लिखते । देखो, पू. उपा. यशोविजयजी कहते हैं -
___'ज्ञानदशा जे आकरी, ते चरण विचारो;
निर्विकल्प उपयोगमां, नहीं कर्मनो चारो । दोनों एक ही बात कहते हैं । (१२४ wwwwwwwwwwwwwwwwww कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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जिस रीतिसे जाना हुआ हो उस रीति से जीना यही ज्ञान की तीक्ष्णता है, वही चारित्र है । ____ यहां चैत्यवन्दन के विषय में आप सीखते हैं । सीखने के पश्चात् चैत्यवन्दन तदनुसार ही करो तो वह ज्ञान तीक्ष्ण बन जाता
* अशुभ विकल्प में पाप का आश्रव ।
शुभ विकल्प में पुण्य का आश्रव ।
निर्विकल्पदशा में सम्पूर्ण संवर । (६) उक्त क्रिया :
जिस रीति से मुद्रा आदि के लिए लिखा, उस रीति से शक्ति के अनुसार करना 'उक्त क्रिया' है। मैं आजकल बांया पांव ऊंचा नहीं कर सकता, क्योंकि उतनी शक्ति नहीं है । इसीलिए लिखा है - 'यथा शक्तिः ' ।।
आहार के ज्ञान मात्र से भूख नहीं मिटती । दवाई की जानकारी मात्र से आरोग्य नहीं मिलता । चैत्यवन्दन की जानकारी मात्र से सफलता नहीं मिलती ।
दवाई न लेकर आप रोग के लिए शिकायत नहीं कर सकते । 'उक्त क्रिया' न करके आप शिकायत नहीं कर सकते कि चैत्यवन्दन में आनन्द नहीं आता । यदि पूर्ण फल चाहिये तो जाना हुआ अमल में लेना ही पड़ता है। यहां कथनानुसार आप चैत्यवन्दन करेंगे तो इसी जन्म में आप निहाल हो जाओगे । यहां ही आनन्द का अनुभव होगा ।
* 'लोगस्स' अर्थात क्या ?
स्वयं गणधरों के द्वारा २४ भगवानों की की गई स्तुति । गणधरों के गृहस्थ-जीवन की स्थिति हम जानते हैं। भगवान मिलने के पश्चात् की स्थिति भी हम जानते हैं । वे तो यही मानते हैं कि 'हम सर्वथा लोहा थे । भगवान ने हमें स्वर्ण बनाया ।'
वे भगवान को कैसे भूल सकते हैं ?
वे स्तुति के द्वारा हमें सिखाते हैं कि भगवान के द्वारा ही आरोग्य, बोधि, समाधि आदि मिलेगी । भगवान नहीं मिले होते तो कर्म के इस रोग में से तनिक भी मुक्त नहीं बन सके होते । कहे कलापूर्णसूरि - ३ wwwwwwwwwwwwwwwwwww १२५)
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'मैं रोगी हूं' ऐसा भान भी भगवान के बिना नहीं होता । शरीर का रोग हमें अखरता है, परन्तु शरीर में बैठी आत्मा को जो रोग है, उसका विचार तक नहीं आता । विचार आये तो भगवान के पास आरोग्य मांगने का मन हो न ? ___'प्रभु ! प्रसन्न हो और मुझे ये तीन पदार्थ अवश्य दें : आरोग्य, बोधि और समाधि ।' इन तीनों में गणधरों ने पूर्ण मोक्ष-मार्ग मांग लिया ।
गणधरों की यह मांग है । आप की मांग क्या है ?
भगवन् ! अकेला हूं । एकाध शिष्य मिल जाये तो काम हो जाये । ऐसा कुछ नहीं मांगते न ? गृहस्थों की अपने क्षेत्र की इच्छाएं होती है। यहां भी इस प्रकार की इच्छाएं हो सकती हैं । ऐसी इच्छाएं हों तो समझें - यहां आकर हम नया संसार खड़ा कर रहे हैं ।
* निष्णात के कथनानुसार औषधि न लें तो रोग तो नहीं मिटेगा परन्तु उल्टा रोग बढ़ जायेगा ।
यहां भी प्रत्यपाय संभव हो सकता है ।
कालग्रहण आदि में गलती हो जाये तो कई बार पागलपन, भूत-पिशाच-डाकिनी का उपद्रव आदि होते प्रतीत होते हैं, गुरु चाहे कुछ न करें परन्तु आसपास के देव थोडे ही क्षमा करेंगे ?
___ एक साध्वीजी ने 'गर्म पानी से कुष्ठ रोग हुआ है।' यह कहा तब शासनदेवी ने उसकी खबर ले ली । बाद में साध्वीजी ने अपनी भूल स्वीकार कर ली ।
__ गर्म पानी से रोग आता है कि जाता है ? इस समय हैजे (कोलेरा) के वातावरण में तो डोक्टर विशेष तौर पर उबाला हुआ पानी पीने की सलाह देते हैं ।
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दीक्षा प्रसंग, लुणावा (राज.), वि.सं. २०३२
३-८-२०००, गुरुवार
सावन शुक्ला -४
* जिनके कर-कमलों से इस तीर्थ की स्थापना हुई, उनका सामर्थ्य अप्रतिहत एवं अचिन्त्य था । आज भी उक्त सामर्थ्य सक्रिय है। तीर्थ की भक्ति करने से उस सामर्थ्य का अनुभव होता है ।
स्वयं को पूर्ण समपित हो जाये उसे तीर्थ, तीर्थंकर बनाते हैं । प्रत्येक तीर्थंकर तीर्थ के द्वारा ही तीर्थंकर बने हैं जो उनके नमस्कार ('नमो तित्थस्स') के द्वार ज्ञात होता है । तीर्थंकर भले ही नहीं मिले, परन्तु जिस में से तीर्थंकर उत्पन्न होते है वह तीर्थ मिला है, यह कम पुण्य की बात नहीं है ।
दिव्य नेत्रों वाले तीर्थंकर चाहे नहीं है, परन्तु उनके शासन के रागी ज्ञानी मिलते ही हैं ।
'वस्तु विचारे रे दिव्य नयनतणो रे,
विरह पड्य निरधार; तरतम जोगे रे तरतम वासना रे, वासित बोध आधार ॥ .
- पू. आनंदघनजी तीर्थंकर भगवान का प्रभाव गणधरों पर तो स्पष्ट प्रतीत होता कहे कलापूर्णसूरि - ३00
5
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ही है अन्यथा उनकी देशना के पश्चात् गणधरों की देशना सुनने के लिए कौन रुके ? परन्तु श्रोताओं को गणधरों की देशना भगवान के जैसी ही लगती है ।
यहां भगवान का प्रभाव कार्य करता है । वही प्रभाव आज भी कार्य कर रहा है । गणधरों की स्थापना भगवान ने की है उस प्रकार तीर्थ की स्थापना भी भगवान ने ही की है ।
* आगमों में स्थान-स्थान पर 'त्तिबेमि' शब्द बताता है कि मैं मेरी ओर से नहीं, भगवान की ओर से कहता हूं। 'सुअं मे आउसं तेणं भगवया' मैंने भगवान से यह सुना है । जो सुना है वह तुझे कहता हूं।
* भगवान चाहे आज विद्यमान नहीं हैं, फिर भी गुरु आज भी ध्यान के द्वारा मिलती समापत्ति के योग से भगवान के दर्शन करा सकते हैं ।
___ 'सामायिक धर्म' नामक पुस्तक में भाव-स्पर्श द्वार अवश्य पढ़ें । उससे यह समापत्ति का पदार्थ अधिक स्पष्ट होगा - गुरु किस प्रकार शिष्य को भगवान का स्पर्श कराते हैं ?
प्रीति हुई हो उस व्यक्ति को देखने का मन होना स्वाभाविक है। आनंदघनजी की चौबीसी के प्रथम स्तवन में प्रभु की प्रीति बताई है । चौथे स्तवन में दर्शन की उत्कट अभिलाषा व्यक्त की
अभिलाषा तीव्र बने तो ही प्रभु के दर्शन होते हैं, प्रभु के दर्शन कराने वाले गुरु मिलते हैं।
यह बात याद कराने के लिए ही मानो गुरु आपको नित्य प्रति जिनालय में दर्शनार्थ भेजते हैं ।
आगे बढ़ कर सच्चा प्रभु-भक्त मूर्ति की तरह गुरु में, तीर्थ में और आगमों में भी भगवान के दर्शन करते हैं । भगवान ने जिनकी स्थापना की हो उनमें उनके दर्शन क्यों न हों ?
इक्कीस हजार वर्षों तक शासन चलेगा, जिसमें अपनी शक्ति कार्य नहीं करती, भगवान की शक्ति कार्य कर रही है, क्या यह समझ में आता है ? तीर्थंकर प्रभु की अप्रतिम शक्ति थी, इसी लिए तो इन्द्र ने अन्त में कुछ ही क्षणों का आयुष्य बढ़ाने (१२८ wwwoooooooooooomnoon कहे कलापूर्णसूरि - ३
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की विनती की थी । इन्द्र जानते थे कि भगवान की मात्र दृष्टि पड़ जायेगी तो भी यह क्रूर ग्रह कुछ भी नहीं कर सकेंगे । क्षणभर की दृष्टि में भी इतनी शक्ति हो तो तीर्थंकर की समग्र क्षणों की शक्ति कितनी होगी ? उसका अनुमान हम लगा सकते हैं । उक्त शक्ति के प्रभाव से ही इतने तूफानों के मध्य जैन शासन का जय जय कार हो रहा है । मुसलमानों के आक्रमण हुए, मन्दिर - मूर्त्ति टूटी, पुस्तक जल गई आदि बहुत हुआ, फिर भी शासन अभी तक चलता है और चलता ही रहेगा ।
भगवान की इस शक्ति की गुरु के माध्यम से हम अनुभूति कर सकते हैं । इसीलिए कहता हूं कि गुरु को कदापि छोड़े नहीं । गुरु को छोड़ा तो भगवान छूट जायेंगे । यदि भगवान छूट गये तो सब छूट जायेगा ।
* क्या भगवान की स्तुति मात्र करने से कोई मनुष्य भगवान जैसा बन जायेगा ? वह कैसे बनेगा ?
कवि अपने ही प्रश्न का उत्तर देते हुए कहता है कि इसमें क्या आश्चर्य है ? एक सेठ भी अपने आश्रित को अपने समान सेठ बना देता हो, तो भगवान क्यों नहीं बना सकें ?
शक्कर भी अपने सम्पर्क में आने वाले प्रत्येक को मधुर बना देती है । जल में शक्कर डालो तो जल मधुर हो जाता है, घी युक्त आटे में यदि शक्कर मिल जाये तो 'सीरा' बन जाये, मावे में शक्कर मिले तो उसके पेड़ें बन जाते है, बरफी बन जाती है । एक शक्कर कितने पदार्थों को मधुर बना देती है ? शक्कर में भी इतनी शक्ति हो तो क्या भगवान में नहीं होगी ?
* 'योगसार' के प्रथम प्रस्ताव में अन्त में प्रभु को दो विशेषण प्रयुक्त हुए हैं ।
भविनां भवदम्भोलिः 'स्बतुल्य पदवी प्रदः ।' संसार को तोड़ने में वज्र तुल्य । निग्रह गुण । अपने समान पदवी देने वाले । अनुग्रह गुण । निग्रह गुण से भगवान आपको शून्य बना देते हैं । अनुग्रह गुण से भगवान आपको पूर्ण बना देते हैं ।
* कौन सी पीड़ा अधिक खतरनाक होती है ? कांटे, ( कहे कलापूर्णसूरि ३
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तलवार, आदि से होने वाली बाह्य पीड़ा खतरनाक होती है कि भीतर कषाय आदि की पीड़ा खतरनाक होती है ? गहराई से देखोगे तो भीतर की (आन्तरिक) पीड़ा खतरनाक प्रतीत होगी । आन्तरिक पीड़ा को नष्ट करने वाले भगवान हैं ।
तुभ्यं नमस्त्रिभुवनार्त्तिहराय नाथ ।' भगवान तीनों भुवनों की ऐसी पीड़ा को 'नाश करने वाले
- भक्तामर ___ क्रोध की कैसी वेदना से चंड़कौशिक पीड़ित था ? उसके नेत्रों में विष कहां से आया ? पूर्व भव में क्रोध के जो गहरे संस्कार पड़े थे उनके प्रभाव से चंडकौशिक के नेत्रों में विष आया । क्रोध को विष कहा गया है। यह केवल उपमा ही नहीं है, परन्तु इस प्रकार वास्तविक भी है ।
__ अपनी दृष्टि में भरे हुए विष से वह अन्य को भस्म कर देता था । अतः आप यह न मानें कि दूसरे ही पीड़ा प्राप्त करते थे और वह स्वयं पीडा-मुक्त था । कोई भी क्रोधी व्यक्ति दूसरों को पीड़ित करता है, उससे पूर्व वह स्वयं को ही पीड़ित करता है । इस महान् सत्य को समझ लें ।
* जैन गुरु का सम्मान जगत् में सर्वोत्कृष्टता पूर्वक होता है, यह भगवान का प्रभाव मानें । मद्रास में प्रतिष्ठा के अवसर पर हजारों अजैन मनुष्य दर्शनार्थ आते थे । उस समय यह प्रतीत हुआ कि अजैनों में भी जैन सन्तों के प्रति कितना आदर है ? भले वे लोग मांसाहारी थे, परन्तु हृदय के सरल थे । सात व्यसन खतरनाक हैं । इतनी बात करें और वे सातों व्यसन छोड़ने के लिए तत्पर हो जायें । यहां आपको केवल कन्दमूल छुड़वाना हो तो भी हमें खून का पानी करना पड़ता है । एक डॉक्टर को मैंने मांसाहार छोड़ने की बात कही और उसने तुरन्त स्वीकार कर ली । कोई बात समझाने की आवश्यकता नहीं पड़ी । फीस लेने की तो बात ही कहां ?
ओसवाल सभी मांसाहारी क्षत्रिय थे, परन्तु पार्श्वनाथ सन्तानीय पू. रत्नप्रभसूरिजी के उपदेश से (अम्बिका देवी की प्रेरणा से) मांसाहार (१३०Booooooooooooooooooo कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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का परित्याग करते जैन बने । आज भी समस्त ओसवाल उस देवी को (सच्चाई मात को) मानते हैं ।
ओसिया में राजकुमार को सांप ने डस लिया । उस समय दैवी-प्रभाव से पू. रत्नप्रभसूरिजी ने उसे निर्विष कर दिया । उनके प्रभाव से उस समय एक लाख राजपूत वीर संवत् ७० में जैन बने ।
वे ही सब ओसवाल बने । ओसवालों का इतना प्रभाव था कि जोधपुर आदि स्थानों पर मंत्री आदि के पदों पर इन की ही नियुक्ति होती थी।
इसके द्वारा मैं गुरु-तत्त्व की महिमा बताना चाहता हूं ।
ये साध्वियों का समूह भी कोई कम उपकार नही करता । __ आचार्य हरिभद्रसूरिजी नहीं होते तो 'ललित विस्तरा' कहां से प्राप्त होता ?
याकिनी साध्वीजी नहीं होती तो हरिभद्रसूरिजी कहां से मिलते ? यह साध्वीजी का उपकार है।
मुनिचंद्रसूरिजी नहीं हुए होते तो उनकी पंजिका के बिना 'ललित विस्तरा' किस तरह बराबर समझ में आता ?
भुवनभानुसूरिजी नहीं हुए होते तो परम तेज के बिना 'ललित विस्तरा' का विस्तारपूर्वक वर्णन कैसे जाना जाता ?
ये समस्त गुरु भगवंतो का हम सब पर महान् उपकार है।
गुरु मोक्ष के अवन्ध्य कारण कहे गये हैं । वन्ध्य अर्थात् सन्तानहीन - जिसके सन्तान उत्पन्न न हों । वन्ध्य आम पर फल नहीं लगते । गुरु ऐसे वन्ध्य नहीं, अवन्ध्य कारण हैं । अवश्य फल-दाता अवन्ध्य कारण कहलाते है । अतः 'गुरु-बहुमाणो मोक्खो ।' कहा गया है ।
गुरु-समागम का प्रथम ही प्रसंग याद करो । जब गरु ने आपको समझाने का प्रयत्न किया था, आपको नियम लेने का समझाया था । मैं अपनी स्वयं की ही बात करता हूं । ऐसे नियमों के कारण ही मेरा धर्म में प्रवेश हुआ । .
गुरुने मधुर वचनों से बुलाकर समझाकर शपथ नहीं दी होती तो क्या इस स्टेज तक हम पहुंचे होते ? (कहे कलापूर्णसूरि - ३00mmswwwssssmasoom १३१)
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कल्याण की परम्परा गुरु के द्वारा ही चलती है । पुण्य गुरु के बहुमान के द्वारा ही बढ़ता है ।
गुरु आपको भगवान के साथ जोड़ देता है । भगवान के साथ जुड़ते ही आपकी कल्याण-परम्परा अखण्ड बन जाती है ।
जितने तीर्थंकरो ने पूर्व के तीसरे भव में तीर्थंकर नाम-कर्म की निकाचना की है, उन सबने गुरु का आलम्बन लिया है ।
भगवान महावीर स्वामी के समय में ही देखिये न । नौ जने तीर्थंकर पद के लिए योग्य घोषित हुए । जो गुरु मिले हैं, उनकी सेवा करें। उनकी योग्यता देखने का प्रयत्न न करें। यह आपका काम नहीं है । कदाचित् योग्यता कम होगी, ज्ञान कम होगा तो भी आपको कोई आपत्ति नहीं है। आप उनसे अधिक ज्ञानी
और अधिक योग्य बन सकेंगे । उपाध्याय यशोविजयजी इसके उत्तम उदाहरण हैं ।।
गुरु-तत्त्व विनिश्चय में तो 'महानिशीथ' का पाठ देकर स्पष्ट लिखा है कि भगवान के विरह में गुरु ही भगवान हैं, गुरु ही सर्वस्व हैं।
गुरु चंडरुद्राचार्य क्रोधी थे, फिर भी क्षमाशील शिष्य ने केवलज्ञान प्राप्त कर लिया । गौतमस्वामी के पास केवलज्ञान नहीं था, फिर भी पचास हजार शिष्यों ने केवलज्ञान प्राप्त कर लिया ।
यह गुरु-तत्त्व का प्रभाव है।
यहां व्यक्ति गौण है, तत्त्व मुख्य हैं । व्यक्ति में अयोग्यता हो तो भी स्थायी रूप से थोडे ही रहती है ? स्वर्ण के कटोरे में मदिरा भरी हुई हो तो भी स्वर्ण स्वर्ण ही है । मदिरा स्थायी थोड़ी ही रहने वाली है ? आप में योग्यता होगी तो आप गुरु के पास प्राप्त कर ही लेंगे ।
प्रश्न यह नहीं है कि गुरु कैसे हैं ? प्रश्न यह है कि आप कैसे हैं ? आपका समर्पण कैसा है ? * व्याख्या का सातवां अंग है - 'अल्प भव' ।
दीर्घ संसार वाला आत्मा इस ग्रन्थ के लिए सर्वथा अयोग्य है। चरम पुद्गलावर्त में भी द्विबंधक, सकृबंधक अथवा अपुनर्बंधक जीव ही इसके लिए योग्य है, दूसरे नहीं । (१३२ wwwwwwwwwwwwwwww कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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दरिद्र एवं अभागे व्यक्ति को चिन्तामणि नहीं मिलता, उस प्रकार दीर्ध संसारी को ऐसा चैत्यवन्दन नहीं मिलता । चैत्यवन्दन आपको मिला, उसमें आपका कितना पुण्य है यह सोचना ।
हरिभद्रसूरिजी का कथन है कि यह बात मैं नहीं कहता । आगमों के रहस्य के ज्ञाताओं ने यह बात कही है ।
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पूज्यश्री का वात्सल्य एवं वचन - लब्धि
यह बात है सन् १९८५ की। एक बार किसी गृहस्थ के वहां पुरानी पुस्तकें बेचने के लिए रखी थीं। उनमें से 'तत्त्वज्ञान प्रवेशिका' पर दृष्टि गई । दो तीन पृष्ठ पढ़े और मानो कोई नवीन रहस्य मिला हो, वैसा भाव हुआ । आगे-पीछे के पृष्ठ फट गये थे, अतः ज्ञात नहीं हो सका कि लेखक कौन हैं। जांच करने पर ज्ञात हुआ कि पू. आचार्यश्री की यह कृति है । मन में हुआ कि यह तत्त्वदोहन तो जैन मात्र को प्राप्त कराने योग्य है ।
इतने में कच्छ की तीर्थयात्रा पर जाने का काम पड़ा । सायंकाल में मांडवी पहुंचे । ज्ञात हुआ कि आचार्यश्री पधारे हैं । संध्या हो चुकी थी । जांच की तो किसी भाई ने कहा कि सन्ध्या हो गई है, पूज्यश्री अब मिलेंगे नहीं । मैंने कहा कि पूछो कोई बहन अहमदाबाद से आई हैं और 'तत्त्वज्ञान प्रवेशिका' के विषय में बात करनी है। कोई पुन्योदय होगा, अनेक जीवों के सद्भाग्य जुडे हुए होंगे, और पूज्य श्री बाहर के बरामदे में आये । हम तीन बहनें थी । आदरपूर्वक वन्दन करके बैठी ओर पूछा, 'साहेबजी ! 'तत्त्वज्ञान प्रवेशिका' विदेश ले जानी है और जिज्ञासुओं तक उसका रहस्य पहुंचाना है । आप कुछ बोध दें । पूज्य श्री ने एक पाठ का रहस्य समझाया, परन्तु चमत्कार यह हुआ कि उक्त पुस्तक एक बार पढ़ी और प्रथम बार ही उसके भीतर के रहस्य स्पष्ट होते गये । यह पूज्य श्री की वचनलब्धि ही थी । फिर तो ५०० पुस्तकें मंगवाई । अफ्रीका, लन्दन और अमेरिका तक पुस्तकें पहुंची। लगभग दो हजार जिज्ञासुओं में अध्ययन हुआ ।
सुनन्दाबेन वोरा,
कहे कलापूर्णसूरि ३
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कळळ १३३
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चन्दा
न नया मंदिर ट्रस्ट,मदास
1GBROSES
पदवी प्रसंग, वि.सं. २०५२, माघ सु. १३
४-८-२०००, शुक्रवार
सावन शुक्ला -५
* किसी आशंसा से किया जाये तो हमारा अनुष्ठान विष अथवा गरल बनेगा, गतानुगतिक से करेंगे तो अनुष्ठान बनेगा, भगवान की आज्ञा सामने रख कर करेंगे तो तद्धेतु बनेगा और तन्मय बन कर करेंगे तो अमृतानुष्ठान बनेगा । _ अनुष्ठान तो करते ही है, परन्तु वह अनुष्ठान कैसा बनाना है ? यह अनुष्ठान विष भी बन सकता है और अमृत भी बन सकता है । हमें कैसा बनाना है ?
* 'नमुत्थुणं' में पहली स्तोतव्य सम्पदा है। स्तोतव्य अरिहंत है । यहां कहा - नमोऽस्तु । नमस्कार हो । _ नमोऽस्तु में भी रहस्य है। रहस्य-दर्शियों को ही यह समझ में आता है । नमस्कार अभी तक हुआ नहीं है, इसीलिए मैं कहता हूं - नमस्कार हो ! मैं तो मूढ़ हूं। अज्ञानी हूं। मैं नमस्कार करने वाला कौन हूं ? नमस्कार करने की मुझ में कौन सी शक्ति हैं ?
* हम द्रव्य-प्राण की तो चिन्ता करते हैं, परन्तु क्या हमें भाव-प्राण की चिन्ता है ? द्रव्य-प्राण भी आखिर भाव-प्राण के
(१३४ 0666666666666600 6600 कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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कारण मिले हैं, फिर भी (ज्ञान-दर्शन आदि) वह याद न आये तो क्या हमारी करुणता नहीं है ?
हम जितनी सावधानी द्रव्य-प्राण की रखते हैं, उतनी ही यदि भावप्राणों की रखें तो काम हो जाये । मुझ में भाव-प्राण हैं उसका पता भी असंज्ञी को नहीं लगता । इसीलिए धर्म का सच्चा अधिकारी संज्ञीपंचेन्द्रिय है। __ इन ग्रन्थों के द्वारा भाव-प्राणों की पुष्टि होगी ।
* 'नमस्कार करता हूं, नमस्कार किया है' यह न कह कर 'नमस्कार हो' यह कहा उससे स्व की असमर्थता बताना ही है । असमर्थता जानें तो ही मांगने की इच्छा होगी न ? पुत्र पिता के पास मांगता है, भक्त भगवान के पास मांगता है ।।
भक्त की यही मांग है कि प्रभु ? मेरा एक ही भाव नमस्कार हो जाये तो काम हो जाये । इसीलिए लिखा है - 'दुरापो भावनमस्कारः ।' मनुष्य-जन्म की तरह भाव-नमस्कार अत्यन्त ही दुर्लभ
आत्मा में यदि बीजाधान हुआ हो तो ही भाव नमस्कार आ सकता है।
यदि किसान विधिपूर्वक बीज बोये तो ही वह फल प्राप्त कर सकता है। किसान पहले हल चलाता है, फिर बीज बोता है । बीज यदि न बोये तो क्या उगेगा ?
अपने हृदय में भी धर्म-बीज नहीं बोया गया हो तो फल नहीं मिलेंगे। धर्मात्माओं की प्रशंसा ही धर्म-बीजों का वपन है। जीवन में धर्म भले ही न हो परन्तु उसकी प्रशंसा आ गई तो सच्चा धर्म आयेगा ही ।
भाव-धर्म सदा बाद में ही आता है। उससे पूर्व उसकी प्रशंसा ही आती है। हमें आज यह धर्म मिला है, जिसका मूल कारण यही है कि हम उसकी प्रशंसा कर चुके हैं ।
प्रशंसा करना अर्थात् वह वस्तु जीवन में लाने की इच्छा करना । वास्तव में तो 'मुझे प्रिय है उसका अर्थ ही यह होता है कि - 'मुझे चाहिये ।' आप किसी जेवर की प्रशंसा करते हो उसका अर्थ यह होता है कि मुझे ऐसा जेवर (आभूषण) (कहे कलापूर्णसूरि - ३00oooooooooooooooo १३५)
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चाहिये । किसी का बंगला आप को प्रिय लगता है उसका अर्थ इतना ही है कि वह बंगला आप को चाहिये । धर्म प्रिय है, उसका अर्थ यही होता है कि मुझे धर्म की आवश्यकता है ।
फल की आशा से ही बीज बोया जाता है ।
मुक्ति रूपी फल की आशा से ही धर्म की प्रशंसा होती
है ।
यहां पालीताना में चातुर्मास क्यों हुआ ? पहले पालीताना में चातुर्मास करना प्रिय लगा । प्रिय नहीं लगा होता तो चातुर्मास होता ही नहीं ।
आज आप क्यों शिक्षित हैं ? कारण यही हैं कि पहले आप को शिक्षा प्रिय लगी । आज आप धनाढ्य क्यों हैं ? कारण यह है कि पहले आप को पैसे प्रिय लगे, धनवान बनना प्रिय लगा । जो वस्तु प्रिय लगने लगती है, उसके लिए अथक पुरुषार्थ होगा ही ।
धर्म प्रिय लगने लगता है तब सर्व प्रथम यह चिन्तन चलता है कि वह कैसे प्राप्त होता है ? तत्पश्चात् धर्म-श्रवण होता है और उसका पालन होता है । फल स्वरूप देव- मनुष्य रूप सद्गति प्राप्त होती है। इसी धर्म-बीज के अंकुर, तना, शाखा, फूल आदि समझें ।
ये सभी आनुषंगिक फल हैं । मुख्य फल तो मोक्ष ही है । किसान के लिए मुख्य फल अनाज है, घास नहीं ।
धर्मी के मन से मुख्य फल मोक्ष है, स्वर्ग आदि नहीं । इसीलिए प्रधान फल - रूप लक्ष्य से कदापि च्युत न हो जायें ।
धर्म का चरम एवं परम फल केवल परम-पद है, यह कदापि न भूलें । विहार में जिस प्रकार अमुक गांव आदि का लक्ष्य हो तो मार्ग में चाहे जितनी विनती आयें, आकर्षण आयें. फिर भी हम रुकते नहीं है, उस प्रकार यहां भी परम-पद के अतिरिक्त कहीं भी रुकना नहीं है ।
मार्ग मार्ग ही कहलाता है, भले चाहे जितना आकर्षण हो । इसी कारण से समझदार व्यक्ति मंजिल तक पहुंचे बिना बीच में कहीं भी रुकता नहीं है ।
१३६ www
5 कहे कलापूर्णसूरि - ३
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अपनी मंजिल आत्म-घर है, परम-पद है । यह संसार तो मार्ग है, स्टेशन है । यदि आपकी भाषा में कहूं तो ससुराल है। ससुराल में मेहमान नवाजी से आकर्षित होकर आप यदि अधिक रुकना चाहें तो क्या दशा होती है ?
'सासरा सुख वासरा, दो दिन का आसरा; ज्यादा रहेगा जो,
खायेगा खासड़ा ।' इस संसार में यदि अधिक समय तक रहे, दो हजार सागरोपम तक में मोक्ष में नहीं गये (क्योंकि त्रस काय की स्थिति दो हजार सागरोपम से अधिक नहीं है) तो इस संसार में जूते ही खाने के हैं ।
ये सब बातें यहां सुनते हैं, परन्तु स्थान पर जाते ही भूल जाते हैं । सब गुरु पर डाल देते हैं । आप यदि अपनी ही आत्मा की चिन्ता नहीं करोगे तो दूसरा कौन करेगा ? मन-वचन-काया की चौकीदारी हम नहीं करेंगे तो कौन करेगा ?
भगवान मार्ग बताते हैं, गुरु प्रेरणा देते हैं,
परन्तु चलना तो हमें ही पडेगा न ? निमित्त कारण चाहे जितना पुष्ट हो, परन्तु उपादान तैयार ही नहीं हो तो क्या हो सकता है ?
_भगवान तो प्रतीक्षा कर रहे हैं कि कब ये जीव मेरे पास आयें, परन्तु हमें ही कहां शीघ्रता है ? सम्यग्दर्शन के द्वारा आत्मानुभूति की झलक प्राप्त की हैं ? नहीं प्राप्त की हो तो शान्ति से हम कैसे बैठ सकते हैं ? एक बार उक्त झलक प्राप्त की हो तो क्या संसार हमें आकर्षित कर सकता है ?
मंजिल नहीं मिले तब तक पथिक रुकता नहीं है । अनाज नहीं मिले तब तक कृषक रुकता नहीं है । तो परम-पद प्राप्त न हो तब तक हम कैसे रुक सकते हैं ?
कृषक घास से सन्तुष्ट नहीं होता तो भौतिकता से हम किस प्रकार सन्तोष मान सकते हैं ?
अन्य कुछ नहीं तो धर्म की सच्ची प्रशंसा से प्रारम्भ तो करें । कि यहीं पर गड़बड़ी है ? कहे कलापूर्णसूरि - ३wooooooooooooooomans १३७)
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भाव-नमस्कार सम्यग्दर्शन सूचित करता हैं । इससे पूर्व अपुनबंधक आदि में प्रशंसा देखने को मिलेगी । प्रशंसा सदा गुणवान की, धर्मात्मा की होगी क्योंकि गुण अथवा धर्म गुणवान अथवा धर्मात्मा के अतिरिक्त अन्यत्र देखने को नहीं मिलते ।
दूसरे के धर्म की प्रशंसा का अर्थ यह हुआ कि वह धर्म मुझ में भी आये, ऐसी इच्छा हुई । दूसरे का भोजन उत्तम लगा, उसका अर्थ यह हुआ कि मेरे घर पर नित्य ऐसा भोजन बना कर खाने की इच्छा हुई ।
* नमोऽस्तु । यहां इच्छा योग है। मुझ में भाव-नमस्कार करने की शक्ति नहीं है, परन्तु इच्छा अवश्य है । मुझे कब ऐसा नमस्कार मिले ? यह इच्छायोग है ।
इच्छा हुई यह भी बड़ी बात है । धर्म के अभिलाषियों को भी अनुभवी मनुष्य धन्यवाद देते हैं । __'धन्य तू आतमा जेहने, एहवो प्रश्न अवकाश रे ।'
- पूज्य आनन्दघनजी ___ तुझे शान्ति की चाह हुई ? तुझे ऐसी प्रसन्नता प्राप्त करने की इच्छा हुई ? अधन्य व्यक्ति को ऐसी इच्छा भी नहीं होती ।
क्या तुझे खाने की इच्छा हुई ? अब तेरा रोग गया । रोग में खाने की इच्छा नहीं होती । संसार-रोग की तीव्रता में धर्म की इच्छा भी नहीं होती । विषय-अभिलाषा का अतिरेक कदापि धर्म की ओर जाने नहीं देता ।
जो खाने-पीने में से ऊंचे नहीं आते, वे पशु धर्म नहीं कर सकते, क्योंकि प्राथमिक इच्छा ही उनकी पूर्ण नहीं हुई । जिन में विषय-कषाय की तीव्रता है, वे धर्म की इच्छा नहीं कर सकते । क्योंकि अभी तक उसकी चेतना अन्धकार में भटक रही है। उसकी चेतना अभी तक अत्यन्त निम्न स्तर की है। उसे शिखर की कल्पना कहां से होगी ? उसे परम का प्रकाश कहां से प्रिय लगेगा ? वह तो अन्धकार में ठोकरें खा रही है । अन्धकार में घूमनेवाले उल्लू को प्रकाश अच्छा नहीं लगता, उस प्रकार भवाभिनंदी को धर्म अच्छा नहीं लगता । ऐसा व्यक्ति कदम-कदम पर विषय-कषायों की प्रशंसा करता ही रहता है । (१३८ womoooooooooooooooo कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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पोलिसी (माया) के बिना तो चल ही नहीं सकता । क्या लोभ के बिना कमाया जा सकता है ? क्या क्रोध के बिना दूसरों पर थोडा नियन्त्रण रहेगा ? मान के बिना तेज कैसा ? यही इसकी विचारधारा है । उसे कषाय अत्यन्त ही प्रिय
कषाय प्रिय लगना अर्थात् संसार प्रिय लगना । कषाय ही संसार का मूल है।
कषाय प्रिय लगते हों तो अब इतना करें । क्रोध करना हो तो क्रोध पर ही करें । अभिमान आत्मगुणों का करें । माया के साथ ही माया करें । ज्ञान आदि का लोभ रखें । काम हो जायेगा । ये प्रशस्त कषाय हैं । अप्रशस्त कषायों को प्रशस्त कषायों से ही जीते जा सकते
बद्धि एवं श्रद्धा बुद्धि दाखला दलीलें करके संघर्ष खड़ा करती है । श्रद्धा के द्वारा आत्मा परमात्मा में डुबकी मारती है, तब समाधि प्राप्त करती है। बुद्धि द्वारा निर्णय किया हुआ ज्ञान कथंचित् व्यवहार में सच्चा हो सकता है। आत्मज्ञान के द्वारा प्रकट होता ज्ञान सर्वदा सच्चा होता है । उसे दाखला दलीलों (तर्को) के द्वारा या किसी
प्रयोगशाला में जांच करने की आवश्यकता नहीं रहती २क्योंकि वह सर्वज्ञ के स्रोत में से प्रकट हुआ है ।
(कहे कलापूर्णसूरि - ३00oooooooooooooooo00 १३९)
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अमेरिकनों को आशीर्वाद, बेंगलोर, वि.सं. २०५२
५-८-२०००, शनिवार सावन शुक्ला - ६
'मुक्ति के मार्ग में प्रभु के अतिरिक्त कोई सहायक नहीं है ।' इस बात की दृढ प्रतीति ही प्रभु के प्रति अनन्य प्रेम-भाव एवं भक्ति-भाव उत्पन्न कराती है ।
भगवान मात्र धर्म का प्रतिपादन करके रुक नहीं जाते, परन्तु साधना भी कराते हैं । प्रारम्भ से लेकर ठेठ शैलेशीकरण तक भगवान सहायक बनते हैं ।
बीज खेत में अपने आप नहीं गिरता, किसान बोता है । धर्म-बीज भी हमारे भीतर भगवान के द्वारा डाला जाता है, क्या यह समझ में आता है ? चतुर्विध संघ के किसी सदस्य के द्वारा ही धर्म का बीज पड़ता है । इस चतुर्विध संघ के स्थापक भगवान हैं । यह तो हमें स्वीकार करना पडेगा न ?
अष्ट प्रातिहार्य, चौतीस वाणीगुण आदि धर्म के ही फल हैं । धर्म को भगवान ने सिद्ध किया है । ऐसा सिद्ध किया है कि धर्म उन्हें छोड़कर कहीं जा ही नहीं सके ।
* क्या धर्म का प्रभाव दिखाई देता है । आजकल कुछ समय तक कोलेरा (हैजा ) का वातावरण चला ।
१४० 000000000 S
ॐ कहे कलापूर्णसूरि - ३
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राजनाद गांव में तेरह वर्ष का लड़का बाहर घूमने गया था । गन्दी बस्ती में जाने से उसे हैजा हो गया । उस समय कोई ऐसे उपचार नहीं थे । निरन्तर दस्तें लगने और वमन होने से वह लड़का
मर गया ।
उस समय कोई विशेषज्ञ डॉक्टर मिल जाये तो ? अभी इतने हैजे के केस बने, किन्तु सभी बच गये न ? यह डॉक्टर का उपकार है ।
भगवान भी इस प्रकार हम पर सतत उपकार करते रहते हैं, परन्तु भगवान का उपकार समझ में नहीं आता, यही कष्ट है । भगवान का यही कार्य है, रोग ग्रस्त मनुष्यों की देखभाल करनी ।
हम बीमार हैं । भगवान धन्वन्तरी वैद्य हैं । कठिनाई यह है कि हमें अपनी ही बीमारी समझ में नहीं आती ।
सभी वक्ताओं का उत्तरदायित्व हैं कि वे श्रोताओं को भगवान तथा धर्म का उपकार अच्छी तरह बतायें, उनके हृदय में भगवान तथा धर्म के प्रति आदर - भाव उत्पन्न करें । इतना हो जाये तो अन्य कार्य अत्यन्त सरल हो जायेगा ।
* धर्म निरन्तर विधिपूर्वक एवं आदरपूर्वक होना चाहिये । ऐसा धर्म होता रहे तो दूरन्त संसार का भी अन्त हो सकता है । * सही संसार तो भीतर है । जन्म-मरण आदि तो बाह्य फल हैं । इन्हें उत्पन्न करने वाला कर्म है, सहजमल है । इस पर मुख्य प्रहार होना चाहिये । डालियों, पत्तों पर प्रहार न होकर मूल पर प्रहार होना चाहिये ।
* यहां प्रश्न उठता है कि भाव नमस्कार के लिए ही यह धर्म है । तो जिसे भाव नमस्कार मिल गया है, उसे तो नमस्कार की आवश्यकता नहीं है । वे तो कृत-कृत्य हो गये । कदाचित् वे यह पाठ बोलें तो भी मृषावाद गिना जायेगा । जो सिद्ध हो गया है उसे पुनः सिद्ध करने की क्या आवश्यकता ?
उत्तर : अभी तक आपने तत्त्व का परिज्ञान नहीं पाया । भाव नमस्कार में भी तारतम्यता है ही । भाव नमस्कार वाले को भी अभी तक अधिक उत्कर्ष प्राप्त करना होता ही है ।
कहे कलापूर्णसूरि ३
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हम जिस भूमिका पर हों वहां स्थिर रहकर आगे की भूमिका को प्राप्त करने का प्रयत्न करना ही चाहिये । यदि प्रयत्न नहीं करें तो जहां हैं वहां भी स्थिर नहीं रह सकते । किसी सीढ़ी पर बीच में खड़े रह कर देख लें, चलने वाले कहेंगे कि भाई ! आप बीच में क्यों खड़े हैं ? या तो नीचे जायें, अथवा ऊपर जायें । बीच में खड़े न रहें । हम भी बीच में खड़े नहीं रह सकते । ऊपर जाने का प्रयत्न नहीं करें तब अपने आप नीचे आ जाते हैं।
__ आगे की भूमिका प्राप्त करने की इच्छा न हो तो विद्यमान भूमिका भी नहीं टिकेगी ।। * 'गुणवद्-बहुमानादे नित्यस्मृत्या च सक्रिया । जातं न पातयेद् भावमजातं जनयेदपि ॥'
- ज्ञानसार गुणवान के बहुमान आदि से, नित्य स्मरण से शुभ क्रिया उत्पन्न भाव को जाने नहीं देती और नहीं उत्पन्न हुए भाव को उत्पन्न करती है। अतः गुणों की वृद्धि हेतु नित्य यह क्रिया करनी ही चाहिये ।
कतिपय साधक इसके लिए ही १२, ५०, १००, १००० लोगस्स के काउस्सग्ग तक पहुंचते हैं ।
'मैं उच्च कक्षा में पहुंच गया हूं। मुझे किसी बाह्य क्रिया आदि की आवश्यकता नहीं है', यह मान कर कदापि क्रिया-काण्ड का त्याग न करें । एक समान भाव तो केवल केवली भगवान को ही रहता है । हम केवली भगवान बने नहीं हैं ।
(हाथ लगने से पुस्तक गिर गई)
देखा ? तनिक ध्यान नहीं रखने पर यह पुस्तक कैसी गिर गई ? हमारे भाव इस प्रकार के हैं । अतः सतत सावधानी की आवश्यकता है।
प्रारम्भ में गुरु आपको प्रेरणा देते हैं ।
तत्पश्चात् गुरु के द्वारा प्राप्त विवेक आपको निरन्तर प्रेरणा देता ही रहता है । आपके भीतर उत्पन्न विवेक ही आपका गुरु बन सकता है।
(१४२ moonommommmmmmmmmmon कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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उपमिति में यही बात समझाई गई है। गुरु की अनुपस्थिति में वह भिखारी बार-बार गन्दा अनाज खोलता है तब वह निवेदन करता है कि 'गुरुदेव ! कुछ ऐसा करिये, कोई ऐसी परिचारिका दें जो मुझे गन्दा खाने से रोके ।'
गुरु की प्रेरणा ने उसे सद्बुद्धि नामक दासी प्रदान की, जो उसे मलिन अनाज खाने से रोकने लगी ।
यही विवेक हैं ।
* 'भगवन् ! आप मोक्ष में गये हैं, फिर भी नाथ कहलाते हैं । योग-क्षेम करते तो प्रतीत नहीं होते, फिर नाथ कैसे हुए ?' पूज्य देवचन्द्रजी ने सातवे भगवान के स्तवन में ऐसा प्रश्न उठाया
जहां वीतरागता हो वहां करुणा कैसे होगी ? ऐसे प्रश्न हमारे भीतर उठते हैं, परन्तु समझ लो कि भगवान चमत्कारों के भण्डार हैं, भगवान में कृपालुता है उस प्रकार कठोरता भी है; निर्ग्रन्थता है उस प्रकार चक्रवर्तित्व भी है। ऐसे एक-दो नहीं, अनन्त विरोधी धर्म भगवान में रह सकते हैं । यह बात स्याद्वाद के ज्ञाताओं को समझानी नहीं पड़ती । भगवान जगत् के जीवों के प्रति कृपालू है और कर्मों के प्रति कठोर है ।
भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं से परस्पर विरोधी धर्म भी एक वस्तु में घटित हो सकते हैं ।
पूज्य आनंदघनजी म. का वह स्तवन 'शीतल जिनपति ललित त्रिभंगी' परस्पर विरोधी गुणधर्मो का सूचक है ।
पूज्य देवचन्द्रजी का मजेदार प्रश्न है - 'संरक्षण के बिना आप नाथ हैं, धन के बिना आप ईश्वर है, धनवान हैं । _ 'संरक्षण विण नाथ हो, द्रव्य विण धनवंत हों ।'
पानी वापरते समय यह पंक्ति अभी ही मुझे याद आई । बार बार घोट घोट कर याद की हुई ये पंक्तियां कैसे भूलें? इसलिए बार-बार कहता हूं कि ये तीन चौबीसी विशेषतः आप कण्ठस्थ करें ।
अप्राप्त गुणों को प्राप्त करानेवाले और प्राप्त गुणों की रक्षा करने वाले भगवान नाथ हैं । हमारे भीतर गुण नहीं आते हों
(कहे कलापूर्णसूरि - ३Wooooooooooooooooom १४३)
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तो समझ लें कि उन भगवान को हमने नाथ के रूप में स्वीकार नहीं किया । भगवान की आज्ञा के बिना एक भी गुण आ नहीं सकता । भगवान का गुणों पर अनन्य स्वामित्व है । मेरी इस बात का खण्डन करके देखो । मेरी सहायता करने के लिए सिद्धर्षि गणि का वह वचन आता है - एक भी शुभ भाव भगवान की कृपा के बिना मिलता नहीं है । शुभ भावों से ही गुण प्राप्त होते हैं । शुभ भाव भगवान की कृपा से प्राप्त होते हैं । इसीलिए कहता हूं कि गुणों पर भगवान का स्वामित्व
आज प्रातः वन्दन के समय पच्चक्खाण नहीं दे सका । शंका थी कि आज कदाचित् वाचना नहीं दे सकूँगा, परन्तु भगवान बैठे हैं न ? उन्होंने मुझे तैयार कर दिया । मैं भगवान को कैसे भूलुं ? ठेठ बचपन में मैं भी भगवान को इस प्रकार नहीं जानता था, परन्तु आज जानता हूं। पल-पल भगवान याद आयें, ऐसी भूमिका पर भगवान ने ही पहुंचाया है । ये भगवान मैं कैसे भूल सकता
गुरु के द्वारा, पुस्तक के द्वारा, किसी घटना के द्वारा अथवा किसी के भी द्वारा आपके जीवन में गुण आयें तो वे आखिर भगवान के द्वारा ही आते हैं । मुख्य धारा एक ही है। जहां कहीं भी बिखरा हुआ है वह भगवान का ही है । इतना मानने लग जायें तो काम हो जाये ।
यह पुस्तक पढ़ने से सम्यक्त्व की प्राप्ति हो ।
___- साध्वी विरतियशाश्री
यह पुस्तक पढ़ने से मेरा रोम-रोम पुलकित हो गया । ओह ! गुरुदेवश्री के जीवन में इतनी पवित्रता?
- साध्वी वाचंयमाश्रीश
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श्री चन्द्रप्रमुजैन नया मा
पदवी प्रसंग, वि.सं. २०५२, माघ सु. १३
६-८-२०००, रविवार
सावन शुक्ला -७ सात चौबीसी मण्डप ( सामूहिक शंखेश्वर अट्ठम का प्रारम्भ )
(शQजय तप का प्रारम्भ )
('ॐ ह्रीं श्रीं अहँ शंखेश्वर पार्श्वनाथाय नमः ।' की पांच मालाएं सामुदायिक रूप में बोली गई ।)
पूज्य आचार्यश्री विजयकलापूर्णसूरिजी :
* पालीताना चातुर्मास पर रहा चतुर्विध संघ एकत्रित हुआ है । आराधना निर्विघ्न सम्पन्न हो उसके लिए सामूहिक रूप से श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ भगवान का जाप कर रहे हैं ।।
* तीनों प्रकार के (चतुर्विध संघ, द्वादशांगी, प्रथम गणधर) तीर्थों की स्थापना करने वाले तीर्थंकर हैं । प्रथम गणधर भी तीर्थ है अर्थात् गुरुत्व की स्थापना स्वयं तीर्थंकरों के द्वारा हुई है ।
भगवान गणधरों के गुरु हुए न ? इसलिए भगवान, भगवान भी हैं और गुरु भी हैं ।
स्थापना' अर्थात् अपनी शक्ति का न्यास करना । अजैनों में शक्तिपात शब्द प्रचलित है । पात अर्थात् पतन । यहां स्थापना
(कहे कलापूर्णसूरि -
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शब्द है। भगवान की शक्ति की स्थापना चतुर्विध संघ, द्वादशांगी
और प्रथम गणधर में हो चुकी है। क्या यह समझ में आता है ? एक आदिनाथ भगवान की यह शक्ति (तीर्थ में रखी हुई शक्ति) पचास लाख करोड़ सागरोपम - आधे चौथे आरे तक चली ।
यह शक्ति आंज भी कार्य करती है। इसीलिए तो हम 'देवगुरु-पसाय' शब्द का प्रयोग पुनः पुनः करते रहते हैं । 'देव-गुरुपसाय' कहना अर्थात् भगवान एवं गुरु की शक्ति को स्वीकार करना ।
अपनी उपादान शक्ति का प्रकटीकरण पुष्ट निमित्त भगवान के द्वारा ही हो सकता है, इतना तो स्वीकार करना ही पड़ेगा । देवगुरु की कृपा से ही मुक्ति का मार्ग मिलेगा ।
___ इस समय भले साक्षात् भगवान नहीं है, परन्तु नाम आदि तीन तो हैं ही । यह बात गुरु के द्वारा जानने को मिलती है । इसीलिए गुरु की आराधना से मोक्ष मिलता है, 'गुरु बहुमाणो मोक्खो ।' यह कहा गया है।
गुरु के प्रति बहुमान रखने वाला व्यक्ति अवश्य मोक्ष में जायेगा । अर्थात् वह साधना के बिना ही मोक्ष चला जायेगा, यह न मानें । गुरु का बहुमान उसके पास साधना करायेगा ही । यही गुरु-बहुमान कहलाता है । गुरु का बहुमान कदापि निष्क्रिय नहीं होता । वह साधना करायेगा ही।
* पूज्य आनंदघनजी ने भगवान को 'मुक्ति परम-पद साथ' कहा है । परम-पद न मिले तब तक भगवान साथ रहते हैं । भक्त की जीवन-नैया मोह के तूफान से भले डांवाडोल हो जाये, परन्तु डूबती नहीं है क्योंकि भगवान साथ हैं ।
* गुरु की भक्ति के प्रभाव से इस काल में भी समापत्ति के द्वारा भगवान के दर्शन हो सकते हैं । ऐसा 'योगदृष्टि समुच्चय' में उल्लेख है ।
उसकी प्रतीति आनन्द के द्वारा होती है। भगवान के दर्शन होते ही योगी के हृदय में आनन्द की ऊर्मियां उठती हैं । वह आनन्द ही बता देता है कि भगवान मिल गये हैं ।
साधना अपरिपकव है अतः भगवान के दर्शन नहीं होते । (१४६ 0000000000000000@ कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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* जब तक भगवान के दर्शन कराने वाले ऐसे गुरु होंगे तब तक जैन-शासन की जाहोजलाली रहेगी ही । ऐसे गुरु अपनी नहीं, परन्तु भगवान की महिमा जन-जन के अन्तर में प्रतिष्ठित करते
भक्त कदापि यह नहीं कहेगा कि 'मैंने किया ।' परन्तु वह कहेगा कि भगवान की कृपा से हुआ । वह कहेगा, 'देव-गुरुपसाय' से हुआ । कहने के लिए नहीं, परन्तु हृदय से ही कहेगा । यही बात अहंकार-नाशक है ।
योगशास्त्र के अनुभव-प्रकाश नामक बारहवे प्रकाश में लिखा है कि गुरु की कृपा के प्रभाव से योगी उस स्थिति तक पहुंचता है, जबकि उसे मोक्ष की भी परवाह नहीं होती । वह कह सकता है कि 'मोक्षोऽस्तु वा माऽस्तु ।'
* मैं तो इतनी विशाल सभा के प्रत्येक सदस्य के हृदय में भगवान एवं गुरु के प्रति हृदय में विद्यमान बहुमान देख रहा
* इस संघ की जय जय कार हो रही है, जिसके प्रभाव से साधु-साध्वी आदि को आहार, वस्त्र आदि के विषय में चिन्ता नहीं करनी पड़ती ।
जो संघ अपने लिए (साधु-साध्वीजी के लिए) इतना करता हो, उस संघ के लिए कुछ करने का उत्तरदायित्व हमारा है ।
हमें भी इस पाट पर बिठाने वाले गुरु-भगवन् ही हैं । यदि उन्हों ने हमें पाट पर नहीं बिठाया होता तो हम भी आपकी तरह भटकते ही होते ।।
_ 'गुरु तो जिन हैं, केवली हैं, भगवान हैं ।' ऐसा 'महानिशीथ' में पढ़ा तब मैं नाच उठा । गुरु-तत्त्व का कितना सम्मान ?
सिद्धचक्र में भगवान के लिए दो पद, परन्तु गुरु के लिए तीन पद हैं । इससे भगवान का महत्त्व नहीं घटता । भगवान स्वयं ही कहते हैं कि 'जो गुरु का मानता है, वह मेरा मानता है।'
ऐसे गुरु की भक्ति करोगे तो मुक्ति दूर नहीं है । . गुरु की भक्ति कदाचित् नहीं हो सके तो भी आशातना तो
कहे कलापूर्णसूरि - ३ 6 monsomwwwwwwmom १४७)
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करना ही मत । आप गुरुवन्दन - भाष्य पढ़ेंगे तो गुरु की आशाता ध्यान में आयेगी ।
पूज्य आचार्य हेमचन्द्रसागरसूरिजी :
अध्यात्मयोगी पूज्य आचार्यश्री ने अभी प्रवचन में गुरु-तत्त्व की महत्ता बताई ।
उमास्वातिजी ने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र में मोक्ष मार्ग बताया है ।
पूज्यश्री ने तो संक्षेप में मोक्ष का मार्ग बता दिया ।
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'गुरु - बहुमाणो मोक्खो ।' 'पंचसूत्र' की इस पंक्ति के द्वारा बता दिया । गुरु के बिना कोई भगवान प्राप्त नहीं कर सकता । जो गुरु को मानता है वही मुझे मानता है ।
जो गुरु को नहीं मानता, वह मुझे भी नहीं मानता । ऐसा स्वयं भगवान कहते हैं ।
इस सिद्धाचल में तो इतने सारे गुरु-पुंगवों के दर्शन से हम सभी निहाल हो गये हैं ।
कल्पसूत्र में उल्लेख है - 'नयणसहस्सेहिं पेहिञ्जमाणे पेहिज्जमाणे । '
हजारो आंखों में से देखे जाते भगवान ।
यहां भी हजारों आंखें धन्य हैं जो गुरु- भगवंतों को देख रही
रोगों, उपद्रवों को नष्ट करने के लिए इस समय शंखेश्वर पार्श्वनाथ का सामूहिक जाप हो रहा है ।
नाम लेते ही भगवान आपके समक्ष आयेंगे । अभी ही आप आंखे बंध करें और मैं नाम लूं - 'शंखेश्वर पार्श्वनाथ ।' वे आपको दिखाई देंगे न ?
इसीलिए कहा है - 'नाम ग्रहंता आवी मिले, मन भीतर भगवान ।' कोई प्रश्न पूछ सकता है कि यहां आदिनाथ भगवान की निश्रा में शंखेश्वर पार्श्वनाथजी क्यों ?
जिस पानी से मूंग चढें, उस पानी से चढा दें । यह कहावत सुनी है न ? विघ्न निवारण हेतु शंखेश्वर पार्श्वनाथ भगवान उत्कृष्ट माने गये हैं ।
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ॐ कहे कलापूर्णसूरि - ३
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साक्षात् नेमिनाथ भगवान स्वयं ने भी 'जरा' के निवारणार्थ पार्श्वनाथ भगवान की प्रतिमा के स्नात्र जल का उपयोग करने का कहा था ।
'मैं बैठा हूं न ? झुका दे मस्तक । तेरा कार्य सिद्ध हो जायेगा ।' नेमिनाथ भगवान ने ऐसा नहीं कहा था । विघ्न निवारण करने का अधिकार केवल शंखेश्वर पार्श्वनाथ का है ।
* अर्जुन : 'हे कृष्ण ! आप भक्त को किस प्रकार सहायता करते हैं ?'
श्री कृष्ण : येमां यथा प्रपद्यन्ते,
तांस्तथैव भजाम्यहम् ।' गीता 'जिस प्रकार से मुझे जो स्वीकार करता है, उस प्रकार मैं उसकी सहायता करता हूं ।'
मानव, देव, राजा अथवा भगवान जिस प्रकार भक्त स्वीकार करें, उस रीति से उसे सहायता करता हूं ।
शंखेश्वर पार्श्वनाथ के लिए हमारा दृष्टिकोण कैसा है ? या विश्वास ही नहीं है ?
भिखारी तथा उद्योगपति दोनों मन्दिर में गये । दोनों ने एक समान प्रार्थना की, 'प्रभु ! अब तो कार्य करना ही पड़ेगा । पन्द्रह दिनों से प्रार्थना करता हूं ।' मन्दिर में से बाहर निकलने के पश्चात् भिखारी ने भिक्षा मांगनी प्रारम्भ की और वह उद्योगपति गाड़ी में बैठ कर चला गया । भिखारी को पचास रूपये का नोट मिलने पर वह खुश-खुश हो गया सचमुच भगवान ने मेरी बात सुन ली । उस उद्योगपति का माल, जो कोई भी लेता नहीं था, उसे खरीदने वाला मिल गया । पांच लाख रूपयों का लाभ हुआ । दोनों की समान प्रार्थना होते हुए भी एक को पचास रूपये और दूसरे को पांच लाख मिले । भेद भगवान का नहीं है, परन्तु भक्त के मन का है ।
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प्रभु वही है, परन्तु आप उन्हें किस दृष्टिकोण से स्वीकार करते हैं, यही महत्त्वपूर्ण हैं ।
अभी जाप पूर्ण हो और कृपावृष्टि होगी ही, ऐसी श्रद्धा होनी चाहिये । पालथी लगाकर कमर सीधी रख कर सब बैठ जायें ।
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शंखेश्वर पार्श्वनाथ का जाप कराने वाले पूज्य नवरत्नसागरसूरिजी शंखेश्वर पार्श्वनाथ के उत्कृष्ट भक्त हैं । उनके मुंह से प्रभु के नाम का श्रवण मिले कहां से ?
(सामुदायिक जाप पुनः प्रारम्भ) पूज्य मुनिश्री धुरन्धरविजयजी :
जब तक पूज्य कलापूर्णसूरिजी बैठे हैं, तब तक किसी को उठना नहीं है। पूज्य साध्वीजियों को भी आज्ञा-पालन करना है।
__ यह मन्त्र-जाप केवल सुनना नहीं है, बोलना भी है। बोलने से ही अपने मुंह आदि पवित्र बनेंगे ।
सभी बोलें । पूज्य आचार्यश्री की शिकायत है कि अभी तक आनी चाहिये, उतनी आवाज आ नहीं रही है ।
(जाप के मध्य में) पूज्य नवरत्नसागरसूरिजी : एक प्रसंग बताऊं ।
एक कुम्हार भगवान का पूजारी बन गया । उसे कुछ आता नहीं था, फिर भी आदत से सुन्दर आंगी करना सीख गया । नाम उसका 'रामजी' था, शंखेश्वर का पूजारी था । वह नित्य मेरे पास आता । उसने एक बार कहा, 'पत्नी के गले में गांठे हुई हैं । महिने में एक हजार रूपयों की दवायें आती हैं । इतने रूपये लाने कहां से? वेतन तो सातसौ रूपये ही है। मैंने शंखेश्वर पार्श्वनाथजी को पत्र लिखा - 'प्रभु ! आप पर आधार है। आपको जो करना हो वह करें ।'
दूसरे ही दिन गांठें मिट गई ।
आज भी वह रामजी पूजारी, उसकी पत्नी, बच्चे आदि सब विद्यमान हैं । इन प्रत्यक्ष प्रभावी पार्श्वनाथ भगवान के जाप में कोई कसर न रखें ।
पूज्य मुनिश्री धुरन्धरविजयजी : कतिपय सूचनाएं -
अधिकतम लोगों की यह मान्यता है कि 'तलहटी पर अष्टप्रकारी पूजा करनी ही चाहिये ।' जब तक निर्माल्य न उतरे तब तक पूजा नहीं की जा सकती । आजकल दूध कैसा आता है ? आप जानते ही हैं । पूजारी गाय के दूध से पक्षाल कर ले, वह ठीक है । बाकी आप सब कुंए का पानी (भाता खाता में बावडी है) (१५०wwwwwwwwwwwwwwwww कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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तांबे, चांदी अथवा स्वर्ण के कलश में लेकर अभिषेक करें । दुध से अनेक त्रस जीवों की विराधना होती है। कभी-कभी कुत्ते भी चाट कर जाते हैं ।
प्लास्टिक के प्याले, डिब्बे आदि किसी भी बर्तन में पूजा की सामग्री अब नहीं ले जायें । किसी बहरे माजी ने यह बात नहीं सुनी हो तो आप उन्हें यह अच्छी तरह सुना दें।
जलपूजा भी निर्माल्य उतरने के बाद ही की जा सकती है । जय तलहटी पर भण्डार में सिक्के डाले जा सकते है, परन्तु गिरिराज पर सिक्के नहीं चढ़ाये जाते । सोना, चांदी आदि चढ़ा सकते हैं । नैवेद्य, फल आदि तलहटी पर नहीं रखे जाते, पाटले पर ही रखे जाते हैं ।
यह पुस्तक पढ़ने के पश्चात् सचमुच परमात्मा की भक्ति में अधिक आनन्द आता है ।
- साध्वी जिनदर्शिताश्री
यह पुस्तक पढ़ने से जीवन में शान्ति का अनुभव हुआ, राग-द्वेष, क्रोध आदि मन्द हुए और निर्णय हुआ कि भगवान की भक्ति करने के लिए अधिक समय निकालना है ।
- साध्वी विजयलताश्री
यह पुस्तक पढ़ने से उत्तम भाव उत्पन्न हुए ।
___- साध्वी वैराग्यपूर्णाश्री
जिस महापुरुष के नाम से ही जीवन परिवर्तित हो जाता हो, वैसे महापुरुष के वचनों से कितना लाभ ? यह पुस्तक पढ़ने से क्या लाभ नहीं होगा ? यही प्रश्न है ? ,
- साध्वी नंदीवर्धनाश्री HO.
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(कहे कलापूर्णसूरि-३0oooooooooooooooooo० १५१)
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लाकड़िया - पालिताना संघ, वि.सं. २०५६
६-८-२०००, रविवार
सावन शुक्ला -७
* भक्ति में उल्लास की वृद्धि होने से सम्यग् दर्शन निर्मल बनता है । ग्रन्थि-भेद तक पहुंचाने वाली भक्ति है ।
* गृहस्थ-जीवन में हम सभी पूजा कर के आये हैं । अब पूजा नहीं करते, इसका अर्थ यह नहीं है कि पूजा व्यर्थ है । कोलेज के विद्यार्थी भले क-ख-ग, बारहखड़ी छोड़ दे, परन्तु बालकों के लिए वह आवश्यक है ।
* आवश्यक सूत्र साधना के मूल हैं । विद्यमान आगमों में सर्व प्रथम आवश्यक-सूत्र हैं । यह मूल आगम है । उस पर नियुक्ति आदि भी बहुत ही है । ये चैत्यवन्दन सूत्र भी आवश्यकों के अन्तर्गत ही हैं । आवश्यक नियुक्ति, चूर्णि, टीका, विशेषावश्यक भाष्य आदि आवश्यकों का ही साहित्य है। इससे ही इसका महत्त्व समझा जाता है ।
सामायिक केवल उच्चारण करने से नहीं आती । उसके लिए भक्ति चाहिये। चउविसत्थो आदि पांच आवश्यकः भक्ति-वर्धक ही हैं।
* साधु-साध्वियों का एक पल भी आर्त्तध्यान - रौद्रध्यान में क्यों जाये? इसके लिए ही तो चार बार स्वाध्याय, सात बार चैत्यवन्दन (१५२ 6 GS 5 GS 6 Cass I CD 5 6 saas a 5 कहे कलापूर्णसूरि - ३
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करने का कहा गया है। चैत्यवन्दन करने से स्वाध्याय में प्रेम बढ़ता है । स्वाध्याय करने से चैत्यवन्दन के प्रति प्रेम बढ़ता है। दोनों परस्पर एक दूसरे के पूरक हैं, विरोधी नहीं है। 'जिम जिम अरिहा सेविये रे, तिम तिम प्रगटे ज्ञान सलूणा' - पैंतालीस आगम की पूजा में ऐसा इसलिए लिखा है कि ज्ञान, प्रभु-भक्ति के साथ जुड़ा हुआ है। ज्यों-ज्यों आप अरिहंत की आराधना करते जाओगे, त्यों त्यों आपके ज्ञान में वृद्धि होती जायेगी।
* भाव-नमस्कार सिद्ध हो जाने पर भी नमस्कार इसलिए करना है कि अभी तक उसे अधिक निर्मल, अधिक प्रकर्षयुक्त बनाना है।
'मेरे गुणस्थानों में अभी तक जो अपूर्णता है, वह मिटे, मुझ में अधिक निर्मलता प्रकट हो ।' ऐसे भाव के साथ छद्मस्थ गणधर भी यह 'नमुत्थुणं' बोलते हैं ।
* 'नमः' का अर्थ पूजा होता है । पूजा का अर्थ द्रव्यभाव का संकोच होता है । नियुक्ति के आधार पर ये अर्थ किये हैं, ये घर के अर्थ नहीं हैं ।
__ अजैनों ने पुष्प, आमिष, स्तोत्र एवं प्रतिपत्ति - पूजा के ये चार प्रकार बताये हैं, जो क्रमशः अधिक श्रेष्ठ हैं । वीतराग को भी प्रतिपत्ति पूजा होती हैं । प्रतिपत्ति अर्थात आज्ञा-पालन ।।
देशविरति को चारों प्रकार की पूजा होती है ।
सराग-संयमरूप सर्व विरति को दो प्रकार की (स्तोत्र एवं प्रतिपत्ति) पूजा होती है । ग्यारहवे, बारहवे और तेरहवे गुणस्थानक पर केवल प्रतिपत्ति पूजा होती है । प्रतिपत्ति अर्थात् सम्पूर्ण आज्ञा का पालन । आज्ञा का जितना कम पालन करें उतनी प्रतिपत्ति पूजा में त्रुटि समझें ।
* पूज्य देवचन्द्रजी ने बारहवे भगवान के स्तवन में कहा है कि प्रशस्त एवं शुद्ध दो प्रकार की भावपूजा (प्रतिपत्ति पूजा) है।
(१) प्रशस्त पूजा में प्रभु का गुण-गान होता है । प्रभु के प्रति का विशिष्ट अनुराग भक्त को उनका गुणगान करने के लिए प्रेरित करता है। प्रशस्त भावपूजा की आराधना से विशुद्ध भावपूजा का सामर्थ्य प्रकट होता है । (कहे कलापूर्णसूरि - ३00smomosomoooooooooo १५३)
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(२) शुद्ध भाव पूजा : स्वभाव में सम्पूर्ण रमणता के समय मुनि को शुद्ध भाव पूजा होती है ।
____ 'ज्ञानदशा जे आकरी, ते चरण विचारो;
निर्विकल्प उपयोगमां, नहीं कर्मनो चारो ।' इस दशा में शुद्ध भाव पूजा होती है ।
* पतंग को आप डोर से खींच कर ला सकते हैं, परन्तु इस प्रकार खींच कर गुणस्थानक नहीं ला सकते । इसके लिए आत्म-द्रव्य को जानना पडता है ।
'जिहां लगे आतम द्रव्यर्नु, लक्षण नवि जाण्यु; तिहां लगे गुणठाणुं भलूं, किम आवे ताण्यु ?'
- पूज्य उपा. यशोविजयजी म. * हमारे मन-वचन-काया तो साधन मात्र हैं; भले वे भगवान को झुकें, परन्तु सचमुच तो आत्मा झुकती है । आत्मा झुके तो ही काम का है । मन आदि तो पुद्गलों से बने हुए हैं । उन्हें प्रभु के साथ क्या लेना-देना ? उसका उपयोग करके आत्मा को प्रभु-प्रेम से रंग देना है, प्रभु के प्रेम में सराबोर कर देना है । दूल्हा वह है, मन आदि तो बाराती हैं ।
पू. हेमचन्द्रसागरसूरिजी : आत्मा एवं चेतना में क्या अन्तर है ? पूज्यश्री : गुण एवं गुणी की तरह किंचित् भेद है ।
आचार्य भगवान प्रश्न पूछे तो मुझे उत्तर तो देना ही चाहिये । जिज्ञासा में तीव्रता आये तो ही नित्य आने की इच्छा हो । अभी तक जिज्ञासा अल्प है अतः कभी-कभी ही आ जाते हो ।
पूज्य हेमचन्द्रसागरसूरिजी : चाबुक लगाई ।
पूज्यश्री : दुःख हुआ हो तो 'मिच्छामि दुक्कडं ।' __ अन्य दर्शन वाले मीरा आदि प्राप्त कर लेते हैं तो हम क्यों नहीं प्राप्त कर सकते ? प्रभु-प्राप्ति का आनन्द महापुरुषों ने छिपाया नहीं है । संस्कृत के ज्ञाता न हों वे भी आनन्द प्राप्त कर सके, इसीलिए गुजराती कृतियों की रचना की है। ज्ञान के साथ यहां कोई सम्बन्ध नहीं है । भाषा के साथ भी इन का कुछ भी लेना-देना नहीं है। अशिक्षित भी (निरक्षर भी) प्रभु-प्रेम प्राप्त कर सकता है । ये केवल विद्वानों की ठेकेदारी नहीं है। [१५४ 00wwwwwwww w wwww कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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मैं कोई विद्वान नहीं हूं। कितना पढा हुआ हूं वह मुझे पता है । परन्तु जब जो आवश्यक होता है, वह मुझे याद आ जाता है । भगवान बराबर याद दिला देते हैं । वे जैसा बुलवाते हैं वैसा बोलता हूं।
* सुविधिनाथ भगवान के स्तवन में पूज्य देवचन्द्रजी कहते
'प्रभु ! मेरे गुण भले क्षयोपशम के हैं, परन्तु वे आपके क्षायिक गुणों के साथ मिल गये हैं । अब क्या बाकी रहे ? बिन्दु सिन्धु में मिलने पर अक्षय बन जाता है, उस प्रकार अपना क्षुल्लक ज्ञान, अपने क्षुल्लक गुण प्रभु के गुणों में मिला दें तो विराट् बन जायेगा, अखूट बन जायेगा ।
शुद्ध स्वरूपी प्रभु में अपनी चेतना मिल जाये तो उसका आस्वाद प्राप्त होता है । यह हुई शुद्ध प्रतिपत्ति पूजा ।
क्या आपको यह विषय अच्छा लगा ? प्रश्न इसलिए पूछता हूं कि आपकी जिज्ञासा को मैं जान सकुँ ।
इस समय 'नमः' का वर्णन चालु है । 'नमः' पूजा के अर्थ में है । पूजा अर्थात् संकोच । हम तो द्रव्य से भी संकोच करते नहीं हैं । 'अहमदाबादी' खमासमण देते हैं ।
पू. हेमचन्द्रसागरसूरिजी : आप भी तो अहमदाबादी ही हैं न ?
पूज्यश्री : नहीं, मैं राजस्थानी हूं। गुजराती बोलता हूं, परन्तु गुजराती नहीं हूं।
पूज्य देवचन्द्रजी आदि के प्राचीन स्तवन अत्यन्त भावपूर्ण हैं । उन्हें बार-बार इसलिए बोलना है कि उनके भाव हमको भी स्पर्श करें । इन समस्त रचयिताओं ने ध्यान के द्वारा प्रभु के साथ अभिन्नता स्थापित कर ली है जो उनकी रचनाओं से स्पष्ट प्रतीत होता है ।
* प्रभु कहते हैं : 'तू तो अभी मित्र के घर में है । अभी तक स्व-घर में कहां आया हैं ? मैं तो तुझे अपने समान बनाना चाहता हूं । बारहवे गुणस्थानक तक अभी मित्र का घर कहलाता है ।
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अभी हमारी चेतना निमित्तालम्बी है। भगवान कहते हैं - 'तू इसे उपादानालम्बी बनाकर मेरे जैसा क्यों नहीं बनता ?'
जब तक ऐसी कक्षा नहीं मिले तब तक स्व-भूमिका के अनुसार पूजा चालु रखनी होगी ।
प्रश्न : 'अरिहंताणं' में बहुवचन किस लिए ?
उत्तर : अद्वैतवाद का व्यवच्छेद करने के लिए तथा अनेक अरिहंतो को नमस्कार करने से अधिक फल मिलता है, जिस प्रकार अधिक मूलधन का अधिक व्याज प्राप्त होता है । 'मुझे अधिक फल मिलेगा ।' यह जानने के पश्चात् नमस्कार करने वाले के भाव कितने बढ़ते हैं ?
* ये धुरन्धरविजयजी अभी ही आये और मुझे अभी ही इनके गुरु महाराज पू.पं. भद्रंकरविजयजी म. का चिन्तन याद आया -
द्रव्य से वृद्धि गुण से एकता पर्याय से तुल्यता
प्रथम दृष्टि में यह पढ़कर नया प्रतीत हुआ, परन्तु बाद में सोचने पर बहुत बहुत जानने को मिला ।
मैं समस्त मुनियों, आचार्यों को कहना चाहता हूं कि यह द्रव्यानुयोग का अध्ययन करने जैसा है।
यह साधु-जीवन प्राप्त होने के पश्चात् बकरे की तरह 'बें बें' क्यों करते रहें ? सिंहत्व क्यों न जगाये ?
सिंहत्व पहचानना हो तो सिंह को (प्रभु को) पहचानना होगा । इसके लिए द्रव्यानुयोग विशेष आवश्यक है ।
एक पद्यांश कह कर पूरा करता हूं : 'जे उपाय बहुविधनी रचना, जोग माया ते जाणो रे । शुद्ध द्रव्य गुण पर्याय ध्याने, शिव दिये प्रभु सपराणो रे ॥' क्या इसका अर्थ जानते हैं ? चलो, कल बताऊंगा ।
(१५६ 800mmonsoooooooooo कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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STOR ESOHORSPIRNORT
छत्तीसगढ, वि.सं. २०५४
७-८-२०००, सोमवार
सावन शुक्ला -८
* सर्वोत्कृष्ट धर्म-सामग्री इस भव में हमें प्राप्त हुई है । हम प्रभु को बहुत-बहुत धन्यवाद देते हैं, जिन्हों ने हमें यह सामग्री प्रदान की । उनकी कृपा के बिना यह सामग्री कहां मिलने वाली थी ?
उसमें भी सिद्धक्षेत्र जैसी उत्तम भूमि मिली । साधना के लिए इससे अधिक क्या अनुकूलता हो सकती है ? यहां आकर साधना न करें तो फिर कहां करेंगे ? यहां लगने वाले दोष साधना के द्वारा ही धोये जा सकेंगे ।
ऐसा अवसर बार-बार नहीं आयेगा । अन्य स्थानों में तो बड़ेबड़े संघों को संभालना पड़ता है, यहां ऐसा कोई उत्तरदायित्व नहीं है । यहां आपका समय बिगाड़ने वाला कोई नहीं है, केवल आपको सचेत रहना है ।।
* यह चैत्यवन्दन कोलाहल नहीं है, अनुष्ठानों में राजा के समान यह तो महान् योग है।
* नमस्कार तीन प्रकार के हैं : (१) कायिक : काया की स्थिरतापूर्वक । (कहे कलापूर्णसूरि - ३ 0 Goa Goaasana १५७)
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(२) वाचिक : शुद्ध पाठ के उच्चारपूर्वक । (३) मानसिक : मन की स्थिरतापूर्वक ।
इस नमस्कार को हम ऐसा क्यों न बना लें, जो हमें संसार से पार लगा दे ।
* तीन योग हैं : इच्छायोग, शास्त्रयोग और सामर्थ्ययोग ।
योग-ग्रन्थों में ये तीनों योग प्रसिद्ध हैं । __ योगाचार्यों का कथन है कि इच्छायोग के बल से ही अगले दो योग मिल सकते हैं और वे आपको केवलज्ञान तक ले जाते
इसका अर्थ यह हुआ कि हरिभद्रसूरि के युग में इन तीन योगों आदि को बताने वाले अन्य ग्रन्थ, अन्य आचार्य होंगे । उनके आधार पर ही हरिभद्रसूरिजी ने ये तीन योग बताये हैं, अपनी ओर से नहीं । (१) इच्छायोग : विकल धर्म-प्रवृत्ति (विकल अर्थात् अपूर्ण) (२) शास्त्रयोग : अविकल धर्म-प्रवृत्ति (अविकल अर्थात् सम्पूर्ण) (३) सामर्थ्ययोग : अधिक धर्म-प्रवृत्ति ।
यहां अत्यन्त ही संक्षेप में यह व्याख्या बताई है । संक्षेप में बतायें तो पढ़नेवाला उल्लासपूर्वक पढ़ लेता है । बड़ा ग्रन्थ हो तो उसकी विशालता देखकर ही पाठक रख देंगे । तत्त्वार्थसूत्र संक्षेप का उत्कृष्ट नमूना है ।
'उपोमास्वातिं संग्रहीतारः ।' ऐसा हेमचन्द्रसूरिजी ने व्याकरण में उल्लेख किया है । उमास्वाति के संग्रह की समानता अन्य कोई नहीं कर सकता ।
* भद्रबाहुस्वामी जैसे कहते हैं कि मैं मध्यम वाचना से सूत्रों के अर्थ कहूंगा । विस्तारपूर्वक कहने की मुझ में क्या शक्ति
चौदह पूर्वधर भी यदि ऐसी नम्रता प्रकट करते हों तो हमारी क्या विसात ? हम तो ऐसे लाट साहब (फूलणजी) हैं कि एकाध सुन्दर स्तुति अथवा सज्झाय बोलें और कोई प्रशंसा करे तो फूलकर कुप्पा हो जायेंगे । यही ज्ञान का अजीर्ण है। (१५८ esewas some B assam कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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चंदाविज्झय में कहा है कि विनय स्वयं भी साध्य है । विनय के द्वारा ज्ञान साध्य है यह अनेक बार सुना परन्तु विनय साध्य है ऐसा कभी सुना है ? चंदाविज्झय ग्रन्थ जोर देकर कहता है कि गुरु बनने का नहीं, शिष्य बनने का प्रयत्न करें । अभिमान आपको गुरु बनने का कहता है, विनय शिष्य बनने का कहता
* पूज्य लब्धिसूरिजी के गुरु पूज्य कमलसूरिजी वृद्धावस्था में भी स्वाध्याय आदि में तल्लीन रहते थे । ग्रन्थ उनके हाथ में पड़े ही रहते । कोई पूछता तो कहते - यह तो मेरा स्वभाव है, यह तो सांस है । इनके बिना कैसे जीवित रहा जा सकता है ? दरजी का लड़का, जीये तब तक सियें । ज्ञान का अध्ययन ही हमारा धंधा है । ८० वर्ष की आयु में भी हमें विद्यार्थी ही रहना है । विद्या का अर्थी हो वह विद्यार्थी ।
* पृथ्वीचन्द्र-गुणसागर आदि की कहानियां बचपन में सुनता था, तब मन में विचार आता कि हम भी ऐसे शीलवान कब बनेंगे ?
बचपन में पूजा में 'संयम कबही मिले ससनेही प्यारा' बोलते समय हृदय बोलने लगता था कि मैं कब संयम ग्रहण करुंगा ?
बचपन की हमारी भावना ही बड़ी आयु में साकार बनती
* यहां बैठे हुए अधिकतम लोग बाल-दीक्षित हैं । बचपन में बहुत अध्ययन किया है, परन्तु मैं पूछता हूं अब उनमें से कितना कण्ठस्थ है ? इस समय बैठे हुए बाल मुनियों को विशेष तौर से कहना है कि आप जो करें वह भूलें नहीं । व्यापारी कमाने के पश्चात् धनराशि खो नहीं देता । तो हम ज्ञान की धनराशि कैसे खो सकते हैं ?
बाल मुनियों को कहना है कि इस शास्त्र में कदाचित् कोई बात आपकी समझ में न आये तो भी परेशान न हों । मनोरथ बनायें कि बड़े होकर हम इन समस्त ग्रन्थों का अध्ययन करेंगे । . * थर्मामीटर से ज्वर की उष्णता (तापक्रम) ज्ञात होती (कहे कलापूर्णसूरि - ३ woommmmwwwwwwwwwwww १५९)
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है, उस प्रकार इन तीन योगों के द्वारा, आठ दृष्टियों के द्वारा यह ज्ञात होता है कि हम कहां हैं ? हमारी साधना की मात्रा ज्ञात होती है ।
जो साधना पहले की हो, उसे छोड़ कर आगे नहीं बढ़ना है, प्रत्युत उसे अधिक पुष्ट बनानी है । कोई व्यक्ति करोड़पति बन जाये, तो क्या पूर्व अर्जित हजार रुपयों को छोड़ दे ? हज़ार ही बढ़ते-बढ़ते करोड़ बनते हैं, उस प्रकार पूर्व की साधना ही बढ़तेबढ़ते पराकाष्ठा पर पहुंचती है ।
हमारे पूर्वज योग-साधना में इतने आगे बढ़े हुए थे कि सुनकर हम दंग हो जाते हैं । 'ध्यान- विचार' में उल्लेख है कि पुष्पभूति नामक आचार्य अनेक दिनों तक समाधि में रहते थे ।
उन आचार्य ने एक शिष्य को ही समाधि में से जागृत करने का रहस्य समझाया था । दूसरे शिष्यों को लगा कि कहीं ये अपने आचार्य को मार न डाले । दूसरे शिष्यों के शोर-शराबा करने पर शिष्य ने आचार्य को अंगूठा दबाकर उन्हें समाधि में से बाहर निकाला । कारण पूछने पर शिष्य ने आचार्य को बताया कि इन गुरु भाईयों के कारण आपको समाधि में से शीघ्र जगाये हैं । क्षमा करें ।
समाधि हमारी मोक्ष- यात्रा में प्रचण्ड वेग लाती है । पका हुआ आम खाने के लिए चींटी भी जाती है और पक्षी भी जाता है । दोनों पका हुआ आम चाहते हैं, परन्तु वेग किसका अधिक है ? * धर्माचरण की सच्ची इच्छा ही 'इच्छायोग' है । इच्छायोग अवश्य ही 'शास्त्रयोग' में ले जाता है । शास्त्रयोग 'सामर्थ्ययोग' में ले जाता है । यही उसकी कसौटी है ।
सूत्रों एवं अर्थों के ज्ञाता ज्ञानी धर्मानुष्ठान करना चाहते हैं, परन्तु प्रमाद से अपूर्ण रूप में वह करता है । यही 'इच्छायोग' है ।
विधि के अनुसार होता नहीं है (जान बूझ कर विधि का अनादर नहीं होना चाहिये) अतः अनुष्ठान छोड़ना अच्छा है, यह समझकर छोड़ देने वाले विचार करें । वे 'इच्छायोग' को ही छोड़ देते हैं ।
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पूज्य मुनिश्री भाग्येशविजयजी : कल की ‘जे उपाय बहुविधनी रचना' तथा 'द्रव्य-गुण-पर्याय' की बात समझानी बाकी
पूज्यश्री : योग आदि की अन्य सभी जालों में ही मत उलझ जाना, परन्तु उनके अर्क तक पहुंचना ।।
आपने तो अल्प आयु में दीक्षा ग्रहण की थी। मैंने तो ३० वर्षों की आयु में दीक्षा अंगीकार की थी और मुझे 'रामः रामौ रामाः' का अध्ययन करना पडा । मन में अध्यात्म की तीव्र इच्छा होने पर भी यह सब अध्ययन किया, क्योंकि मैं जानता था कि पूर्वाचार्यों का पूर्ण परिचय भाषाकीय ज्ञान के बिना नहीं होगा ।
मैं कहना चाहता हूं कि जीवनभर न्याय, काव्य एवं कोश में उलझ मत जाना । ये सब साधन ग्रन्थ है, यह न भूलें ।
पूज्य जम्बूविजयजी महाराज को पूछ लें । वे न्याय में अत्यन्त गहराई में उतरे । उनके गुरु बार-बार कहते - 'घट-पट और गधे' में ही समय मत निकाल, साधना में आगे बढ़ । कागज पर क्या लिखता है ? कलेजे में लिख, चतुर्विध संघ के हृदय में तनिक उतार ।' उनकी वाणी से वे भक्ति-मार्ग में आगे बढ़े ।
माया अर्थात् प्रपंच नहीं, विस्तार । उस विस्तार के वन में उलझ मत जाना । शुद्ध द्रव्य-गुण पर्याय के ध्यान से प्रभु सामने से मोक्ष प्रदान करते हैं । यहां 'सपराणो' शब्द आया है । इसका अर्थ जानते हैं न ?
___ 'वीतराग स्तोत्र' में आता है - 'पराणयन्ति ।' इसका अर्थ विचारें ।
शुद्ध द्रव्य गुण पर्याय का ध्यान पक्षी का मार्ग है ।
हमारा मार्ग चींटी का है । (यद्यपि यह भी हो तो उत्तम बात है ।) चींटी के मार्ग में विघ्न अनेक हैं । मार्ग में अनेक खड्डे, टेकरियां आती हैं । किसी के पांवो के नीचे दब जाने की भी सम्भावना है । गगनमार्ग में ऐसी कोई सम्भावना नहीं है ।
पू.पं. भद्रंकरविजयजी म. कहते थे : 'पंच परमेष्ठि में अरिहंत सिद्ध शुद्ध आत्म-द्रव्य हैं । इन्हें पकड़ लो तो शुद्ध आत्म-द्रव्य पकड़ में आ जायेंगे । (कहे कलापूर्णसूरि - ३ womowwwwwwwwwwwww00 १६१)
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पंच परमेष्ठियों के अनन्त गुणों में अपनी आत्मा लीन हो जाये तब द्रव्य से वृद्धि हुई । आटे में घी-शक्कर डालने से भार बढ़ता है, उस प्रकार अपनी आत्मा परमेष्ठियों के संग से पुष्ट बनती है । आटा = अपनी आत्मा ।
घी-शक्कर = पंच परमेष्ठी ।
आटे में भी कुछ तो मधुरता है । यह कोई नीम का चूर्ण नहीं है । अपनी आत्मा भी ज्ञानमय है, जड़ नहीं है ।
गुणों से एकता = आत्मा एवं परमेष्ठी घुल-मिल गये । आटा, शक्कर और घी मिल गये । अब अलग स्वाद नहीं आता । प्रत्येक कण में मधुरता का अनुभव होगा ।
पर्याय (कार्य) से तुल्यता । जो कोई यह माल खायेगा उसे समान तृप्ति मिलेगी ।
यह बात आध्यात्मिक सन्दर्भ में घटित करके देखो तो सब समझ में आ जायेगा ।
यह प्रक्रिया जानने से जानकारी प्राप्त होगी, परन्तु अनुभव करना हो तो साधना ही करनी पड़ेगी ।
वांकी चातुर्मास का तो अवसर नहीं मिला, परन्तु पुस्तक पढ़ने पर वांकी चातुर्मास की वाचना का आस्वादन करने का अवसर मिला ।
लेखक पूज्य पं. मुक्तिचन्द्रविजयजी म. तथा पूज्य गणिश्री मुनिचन्द्रविजयजी म. का अत्यन्त उपकार । उन्हों ने आलेखन किया ही नहीं होता तो हम तक कहां से पहुंचता ?
साध्वी शीलवती श्री
१६२ WWW.
१८ कहे कलापूर्णसूरि - ३
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भुज, वि.सं. २०४३
८-८-२०००, मंगलवार
सावन शुक्ला -९
* शास्त्र, अध्यात्म, कर्म आदि के रहस्यों को ग्रहण करके हम जैसों पर उपकार हो, अतः पूर्वाचार्यों ने ऐसे शास्त्रों की रचना की है, जो हमारी आत्मा के लिए हितकर सिद्ध हो । 'ललित विस्तरा' ग्रन्थ उनमें से एक है ।
* 'नमोऽस्तु' में रहा हुआ 'अस्तु' शब्द यह बताता है कि अभी तक मुझे उत्कृष्ट भाव-नमस्कार मिला नहीं है । मैं उक्त भाव-नमस्कार की इच्छा अवश्य रखता हूं । इच्छायोग आदि के ऐसे रहस्य श्री हरिभद्रसूरिजीने यहां खोले हैं । गणधर भी जब ऐसी नम्रता प्रकट करते हो, तब उत्कृष्टता का दावा करने वाले हम कौन हैं ?
* प्राचीन समय में योगोद्वहन निरन्तर चलते ही रहते थे । आज तो योगोद्वहन सम्पूर्ण हो जायें फिर सब ताक पर रख देते हैं । मूल उद्देश्य कहीं दूर रह गया है । उद्देश्य, समुद्देश्य, अनुज्ञा आदि शब्दों के अर्थ समझे तो पता लगे कि हम कितने दूर हैं ?
उद्देश्य = सूत्र पक्के करना, सूत्रों का आत्मा के साथ योग करना ।
कहे
३ooooooooooooooooo १६३
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समुद्देश्य = उन सूत्रों को स्थिर-परिचित करना । अनुज्ञा = अन्यों को देने के लिए समर्थ बनना ।
इस ढंग से एक नवकार भी करें तो काम हो जाये । नवकार पर पू.पं. भद्रंकरविजयजी म. का विशाल साहित्य है। कहो, पठन कर लोगे ? क्या भावित बना लोगे ?
सूत्र बोलते समय क्या अर्थ का चिन्तन करते हैं ? कि शीघ्र पूरा कर देते हैं ? मेरा जैसा भी कभी कह दे कि शीघ्र बोलो ।
यदि सूत्र धीरे-धीरे बोले जायें तो अर्थ का उपयोग रहता
* ज्ञान है, परन्तु साथ में प्रमाद भी है, अतः सोचें जितना अनुष्ठान हो नहीं सकता । आराधकों को इसका दुःख रहता है । अतः नम्रता रहती है । अभिमान नहीं आता । यही 'इच्छायोग' है।
ऐसा आराधक दूसरों के द्वारा होती प्रशंसा सुन कर फूलता नहीं है । वह अपनी कमजोरी जानता है।
* सामर्थ्ययोग अर्थात् केवलज्ञान की पूर्व अवस्था । जिस तरह सूर्योदय से पूर्व अरुणोदय होता है, उस तरह । केवलज्ञान से पूर्व यह 'सामर्थ्ययोग' होता है, परन्तु इससे पूर्व इच्छायोग होना चाहिये ।
'इच्छायोग' नींव है। 'शास्त्रयोग' मध्य भाग है । 'सामर्थ्ययोग' शिखर है ।
* अतिचार अर्थात् खर्च-खाता । समझदार व्यक्ति खर्च कम करता है । यदि कोई अधिक खर्च करता हो तो भी ऐसा नहीं करने की बात उसे समझाता हैं । क्योंकि आय कम और व्यय अधिक है, दो-तीन टको पर व्याज पर रुपये लिए हुए हैं ।
यहां भी अपना व्यय (अतिचार) अधिक है। आय (आराधना) कम है । परिणाम क्या होगा ? यह आप समझ सकते हैं ।
* घर-परिवार का त्याग करने के पश्चात्, इतनी आराधनाएँ करने के पश्चात्, हमें जो गुणस्थानक (छठा) मिले उसका नाम ज्ञानियों ने 'प्रमत्त' दिया है । क्या ऐसा नाम आपको प्रिय लगता है ?
(१६४0ooooooooooooooooooo कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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कोई आपको प्रमादी कहे तो क्या आपको अच्छा लगेगा ? अच्छा न लगे तो भी क्या होगा ? ज्ञानियों ने नाम दिया है ।
ज्ञानियों ने सब अच्छी तरह देख कर ही कहा है ।
अर्थात् यहां तक आने के पश्चात् भी प्रमाद की पूर्ण सम्भावना है । इसीलिए लिखा है - 'ज्ञानिनोऽपि प्रमादिनः ।' ज्ञानी होते हुए भी प्रमादी । ऐसे का विकल अनुष्ठान 'इच्छायोग' है ।
* दूसरों का सम्यक्त्व 'बोधि' कहलाता है । तीर्थंकरो का सम्यक्त्व 'वरबोधि' कहलाता है । क्या कारण है ? कदाचित् भगवान का क्षायोपशमिक हो तो भी 'वरबोधि' कहलाता है । दूसरों का क्षायिक हो तो भी 'बोधि' ही कहलाता है ।
इसका अर्थ यह हुआ कि तीर्थंकरों के सम्यग् दर्शन में कुछ विशेष होगा । समस्त जीवों में स्व का रूप देखते होंगे। दूसरों की पीड़ा को सूक्ष्म रूप से स्व में संवेद करते होंगे ।
* शास्त्रयोग वाले की श्रद्धा तीव्र होती है, प्रमाद तनिक भी नहीं होता । तीव्र श्रद्धा के कारण बोध भी तीव्र होता है, अतः उनका पालन सम्पूर्ण होता है ।
* संगमाचार्य वृद्धावस्था में स्थिरवास रहे थे । एक बार उनका दत्त नामक कोई प्रशिष्य आया । गोचरी नहीं मिलने के कारण परेशान देखकर आचार्य ने उसकी समाधि के लिए एक घर पर रोती हुई लड़की को चुटकी बजा कर शान्त की । अतः प्रसन्न हुए गृहस्थ से उसे गोचरी दिलवाई ।
शिष्य उलटी खोपड़ी का था । उसने सोचा, 'देखा ? इतनी देर तक मुझे भटका कर हैरान कर के अब गोचरी दिलवाई । स्वयं तो उत्तम गोचरी लेने के लिए स्थापित घरों में चले गये ।'
वह शिष्य सारा दिन दोष ही देखा करता था । ऐसे दोषी एकल-विहारी के साथ नहीं रहा जायेगा, यह मान कर वह अलग रहा ।
रात्रि में शासनदेवी के अंधेरा करने पर वह भयभीत हुआ और आचार्य भगवान को प्रार्थना करने लगा । तब आचार्य भगवन् के अंगुली ऊंची करने पर लब्धि से प्रकाश हो गया ।
तब उसने सोचा, 'अरे ! ये आचार्य तो अग्निकाय का भी (कहे कलापूर्णसूरि - ३00mmonanesamoooo १६५)
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सेवन करते हैं । अब तो हद हो गई । शासनदेवी से नहीं रहा गया । उन्हों ने उस शिष्य की घोर तर्जना की ।
आप जब अपने आत्म धर्म में पूर्ण रूपेण स्थित होते हैं तब आसपास के देव आपकी रक्षार्थ आयेंगे ही।
* आज समय कम हैं, क्योंकि साध्वीजी सुगुणाश्रीजी कालधर्म को प्राप्त हुए हैं । उनकी अग्नि-संस्कार-विधि बाकी है।
उन्होंने अधिकतर चातुर्मास अहमदाबाद में ही किये थे । चातुर्मास के लिए स्वास्थ्य के कारण हमने भी इनकार लिखा था, परन्तु अत्यन्त भावना होने से अनुज्ञा प्रदान की । कैन्सर की बीमारी से कालधर्म को प्राप्त हुए, परन्तु किसी को शोक नहीं करना है। अत्यन्त ही आराधक थे। उनकी आत्मा को शान्ति प्राप्त हो, इसीलिए यह वाचना रखी है।
आज प्रातः ही मैं जाकर आया था । मुझे देखकर अत्यन्त ही प्रसन्न हुए थे, जागृत थे । उसके बाद गणि मुक्तिचंद्रविजयजी भी जाकर आये थे ।
उनकी समाधि की अत्यन्त अनुमोदना करते हैं ।
(सूचना : आज पूज्य साध्वीजी सुगुणाश्रीजी म. कालधर्म को प्राप्त हुए हैं । उनके अग्नि-संस्कार की बोलियां सात चौबीसी धर्मशाला में बोली जायेगी। यहां वाचना पूर्ण होने पर सभी गृहस्थ वहां आयें ।)
अनुभव-ज्ञान अनेक शास्त्रों के पारंगत पंडितों को जो अनुभव ज्ञान नहीं होता वह सच्चे भक्तों में होता है, क्योंकि अनुभव ज्ञान में केवल बुद्धि प्रवेश करने के लिए असमर्थ है । परमात्ममय बनी हुई बुद्धि जिसे प्रज्ञा कहते हैं, वह अनुभव ज्ञान बनती हैं । उस प्रज्ञा के द्वारा आत्मा पहचानी जाती है।
(१६६ 00000000000000000 कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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ANSAMANANEWS
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शान्ति स्नात्र में पूज्यश्री
९-८-२०००, बुधवार
सावन शुक्ला-१०
* निक्षेप अर्थात् स्वरूप, पर्याय । यह कदापि द्रव्य से भिन्न नहीं होता । भगवान के पर्याय भगवान से भिन्न नहीं होते । इसीलिए नाम आदि चार भगवान से भिन्न नहीं गिने जाते । (प्रत्येक वस्तु के चार निक्षेप होते ही हैं ।)
भाव भगवान की तरह नाम आदि भी पूज्य ही हैं ।
भाव भगवान चाहे नहीं मिले, नाम आदि तीन तो मिले ही हैं न ? यह जानकर कैसा भावोल्लास बढ़ता है ? भावोल्लास से कर्म-निर्जरा बढ़ती है, कर्म-निर्जरा से आत्म-शुद्धि बढ़ती है और उससे चित्त की प्रसन्नता बढ़ती है ।
जब तक तृप्ति नहीं होती तब तक भोजन करते हैं, परन्तु क्या प्रसन्नता न हो तब तक धर्मानुष्ठान करते हैं ?
यदि आत्मा को प्रसन्न-तृप्त करनी हो तो गुण चाहिये । पुद्गलों से होने वाली शारीरिक तृप्ति नश्वर है, गुणों से होने वाली तृप्ति अनश्वर है ।
ऐसा ज्ञान आत्मा के साथ अवश्य जोड़ देता है । नकली पैसे भी होते हैं, परन्तु क्या वे बाजार में चलते हैं ?
(कहे कलापूर्णसूरि - ३ 666666
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नकली ज्ञान भी होता है, परन्तु साधना में वही ज्ञान चलता है जिससे दोषों का निवारण हो और गुणों की प्राप्ति हो ।
गुणों से ही सच्ची तृप्ति होती है।
* भगवान को कह दीजिये : 'प्रभु ! मैं धुंए से तृप्त नहीं होऊंगा । पेट में कुछ जाये तो ही तृप्ति होगी न ? भगवन् ! अब आपको मुझे प्रत्यक्ष दर्शन देने ही पडेंगे । 'धुमाडे धीजें नहीं साहिब, पेट पड्या पतीजे ।'
* साधक अवस्था में भगवान ने समस्त जीवों के साथ प्रेम किया है। उनका जीवन बताता है - 'यदि मोक्ष में जाना हो तो समस्त जीवों को आत्मवत् गिनना पड़ेगा । दशवैकालिक के चार अध्ययनों (चौथे अध्ययन में छ: जीवनिकाय की बात है।) के बिना बड़ी दिक्षा प्रदान नहीं की जाती, इसका यही कारण है। इससे पूर्व 'आचारांग' के शस्त्र-परिज्ञा के अध्ययन के बिना बड़ी दीक्षा प्रदान नहीं की जाती थी ।
* दशवैकालिक मूल आगम हैं ।
आवश्यकों एवं दशवैकालिक के तो प्रत्येक के जोग हो चुके हैं। उन पर उपलब्ध समस्त साहित्य पढ़ लो तो भी निहाल हो जाओगे । नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि, टीका आदि कितना विशाल साहित्य है ?
आप यदि उसकी गहराई में उतरो तो भी आपका जीवन योगीश्वर का जीवन बन जाये ।
ये मूल आगम हैं। ये सुदृढ होंगे तो अगला सरल हो जायेगा । नींव सुदृढ होती है तो ऊपर का भवन आप निर्भय होकर निर्माण कर सकते हैं । फिर आपके आनन्द में होने वाली वृद्धि को कोई रोक नहीं सकता ।
अन्य दर्शन वालों में उस समय भी आनन्द में मग्न रहने वाले योगी थे । अतः भगवान ने गौतम स्वामी को कहा था कि हमारा जैन साधु तो केवल बारह महिनों में समस्त देवों के सुख से भी अधिक प्राप्त कर लेता है । (मनुष्यों की तो बात ही छोड़ो) साधु के उस सुख के लिए तेजोलेश्या शब्द का प्रयोग हुआ है ।
* देह के तीन दोष हैं - वात, पित्त और कफ । आत्मा के तीन दोष हैं - राग, द्वेष और मोह ।
[१६८6ommonsoooooooo00000 कहे कलापूर्णसूरि-३)
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आराधना के तीन सोपान हैं - शरणागति, दुष्कृतगर्दी और सुकृत-अनुमोदना ।
छः आवश्यकों में ये तीनों आराधनाऐं प्रतीत होंगी ।
* पुनिया श्रावक-जीवन में था तो भी इतना आत्मानन्द में मग्न रहता था कि भगवान महावीर स्वामी ने उसकी प्रशंसा
की थी
हमें ऐसे आनन्द की कोई झलक है क्या ? - हमें तो यावज्जीवन सामायिक है ।
चाबुक नहीं मार रहा हूं, केवल पूछता हूं ।
ये लोग तपस्वियों की भक्ति के लिए अनेक प्रकार की खाद्य सामग्रियां बनाते हैं, उस प्रकार भगवान ने आत्मा के आस्वादन हेतु अनेक प्रकार की साधना की सामग्रियां बनाई हैं, परन्तु हम इन्हें खायें तो स्वाद आयेगा न ?
* अपने छःओं आवश्यक पांचों आचारों की शुद्धि करने वाले हैं ।
* लोगस्स में नाम, अरिहंत चेइआणं में स्थापना, नमुत्थुणं में द्रव्य और भाव भगवान हैं ।
पुक्खरवरदी में बोलते भगवान (आगम) हैं ।
पुक्खरवरदी में आगमों को भगवान कहा है । (सुअस्स भगवओ) क्योंकि श्रुत एवं भगवान भिन्न नहीं हैं ।
'जिनवर जिनागम एक रूपे, सेवंता न पड़ो भव-कूपे ।'
- पं. वीरविजयजी शास्त्रे पुरस्कृते तस्माद् वीतरागः पुरस्कृतः । पुरस्कृते पुनस्तस्मिन्, नियमात् सर्वसिद्धयः ॥
- ज्ञानसार - उपा. यशोविजयजी किसी कार्य में सफलता प्राप्त हो तो कदापि अभिमान न करें कि मेरे कारण से सफलता प्राप्त हुई है। भगवान को ही आप आगे करें । कार्य में सफलता प्राप्त कराने वाले हम कौन हैं ? हमारा क्या सामर्थ्य है ? भगवान ही हमारी सफलता के सूत्रधार हैं । इसीलिए योगोद्वहन आदि की क्रिया में (कहे कलापूर्णसूरि - ३0wwwwwwwwwwwwwwwws १६९)
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'खमासमणाणं हत्थेणं' पूर्व महर्षि क्षमा-श्रमणों के हाथ में (मैं नहीं देता, मैं तो केवल वाहक हूं) मैं आपको दे रहा हूं' ऐसा कहा जाता है।
ऐसी विचारधारा से भक्ति बढ़ेगी । भक्ति बढ़ेगी तो ही समग्र साधना का बगीचा महक उठेगा । भक्ति ही जल है जो आपके समस्त अनुष्ठानों को नव-पल्लवित करती है।
* नमुत्थुणं का नाम भले 'शक्रस्तव' हो, परन्तु रचयिता इन्द्र नहीं है, गणधर ही रचयिता हैं । इन्द्र तो केवल बोलते हैं । इन्द्र की क्या शक्ति जो ऐसे सूत्रों का निर्माण कर सकें ?
इन्द्र अवश्य सम्यग्-दृष्टि होते हैं । पूर्व भव का याद होता है, अतः वे 'नमुत्थुणं' बोल सकते हैं । उदाहरणार्थ - इस समय के सौधर्मेन्द्र पूर्व जन्म के कार्तिक सेठ (मुनिसुव्रत स्वामी के शासन में) हैं तो उन्हें नमुत्थुणं याद होगा ही । वैसे भी इन्द्र के पास अवधिज्ञान है ही ।
* 'नमोऽस्तु' का 'अस्तु' शब्द 'इच्छायोग' व्यक्त करता है । हरिभद्रसूरिजी स्वयं स्वीकार करते हैं कि मुझ में अभी तक 'शास्त्रयोग' नहीं आया । इच्छायोग से ही मैं भगवान को नमस्कार करता हूं - ___ 'नत्वेच्छायोगतोऽयोगं योगिगम्यं जिनेश्वरम् ।'
- योगदृष्टि-समुच्चय इच्छायोग में इच्छा पूर्णतः पालन की होती है, परन्तु पालन अपूर्ण होता है, जबकि शास्त्रयोग में सम्पूर्ण पालन है। श्रद्धा एवं ज्ञान इतने तीव्र होते हैं कि जब जो करना हो तब वह याद आता ही है ।
परन्तु ऐसा शास्त्रयोग अत्यन्त दुर्लभ है । इच्छायोग भी आ जाये तो भी बड़ी बात है । पू. आनंदघनजी कहते हैं :
'सूत्र अनुसार विचारी बोलूं, सुगुरु तथाविध न मिले रे; क्रिया करी नवि साधी शकीए, ए विखवाद चित्त सघले रे ।' पूज्य उपा. यशोविजयजी कहते हैं - 'अवलम्ब्येच्छायोगं, पूर्णाचारासहिष्णवश्च वयम् । भक्त्या परममुनीनां, तदीयपदवीमनुसरामः ॥'
- अध्यात्मसार
(१७० ®®®®oooooooooooooooo कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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'काल लब्धि लही पंथ निहालशुं रे, ए आशा अवलंब ए जन जीवे रे जिनजी जाणजो रे, 'आनंदघन' मत अंब ।'
इस समय भले हम इच्छायोग से पालन करते हैं, परन्तु शास्त्रसामर्थ्य योग से भी भविष्य में अवश्य पालन करेंगे । इस आशा से ही हम जी रहे हैं ।
पू. आनंदघनजी का यह आशावाद है ।
इच्छायोग में दृढ प्रणिधान (आज की भाषा में दृढ संकल्प, दृढ निर्धार) होता है। इससे ही आगे के शास्त्रयोग और सामर्थ्ययोग आ सकते हैं ।
क्या दृढ संकल्प के बिना दीक्षा प्राप्त होती ? क्या दृढ संकल्प के बिना यहां चातुर्मास हो सकता था ? क्या दृढ संकल्प के बिना कोई कार्य हो सकता है ? अब मोक्ष के लिए दृढ संकल्प कर लें ।
मोक्ष बाद में मिलता है। पहले मोक्ष का मार्ग मिलता है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र मोक्ष का मार्ग है । जानते हैं न? मार्ग पर चलोगे तो मंजिल मिलेगी ही । रत्नत्रयी की साधना करोगे तो मोक्ष मिलेगा ही । मोक्ष का संकल्प तब ही सच्चा गिना जायेगा यदि रत्नत्रयी में हमारी प्रवृत्ति हो ।
ऐसे शास्त्रों के द्वारा हमें पता लगता है -
रत्नत्रयी में हम कितने आगे बढ़ें ? थर्मामीटर से देह की उष्णता का पता लगता है, उस प्रकार शास्त्रों से आत्म-शुद्धि की मात्रा का पता लगता है ।
* औषधि जान ली, परन्तु ली नहीं, तो रोग, पीडा नहीं जायेगी । शास्त्र पढ़े परन्तु तदनुसार कार्य नहीं किया, तो आत्मरोग नहीं जायेगा ।
* सामर्थ्ययोग शास्त्रयोग का फल है। वहां साधक इतना आगे बढ़ जाता है कि शास्त्र भी पीछे रह जाता है । शास्त्र में नहीं बताये गये अनुभव वहां होते हैं ।
पू. आचार्य हेमचन्द्रसागरसूरिजी : वहां शास्त्र तो छोड़ने ही पड़ेंगे न ? क्योंकि यहां 'अतिक्रम' शब्द है ।
पूज्यश्री : शास्त्र को छोड़ने की बात नहीं है । शास्त्र (कहे कलापूर्णसूरि - ३ 000000000000000000 १७१)
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का अतिक्रमण करने की बात है। लाख रूपयेवाला कोई हजार रूपये छोड़ता नहीं है, परन्तु अतिक्रमण कर लेता है, समझ गये ?
आत्मशक्ति का (आत्मवीर्य-जनित) उद्रेक इतना तीव्र होता है कि साधक साधना के अगम्य प्रदेश में कहीं आगे चला जाता है।
शास्त्रयोग के पश्चात् सामर्थ्ययोग नहीं आये तो केवलज्ञान नहीं मिलता ।
वर्तमान समय में भी सामर्थ्ययोग की तनिक झलक मिल सकती है।
'ध्यान-विचार' में आने वाला 'करण' शब्द आत्म-शक्ति के उल्लास का वाचक है ।
चार से पांच करण की कक्षा योगशास्त्र में देखने को मिलती है, फिर नहीं देखने को मिलती, क्योंकि शब्दों में वह शक्ति नहीं है । 'अपयस्स पयं नत्थि ।' .
- आचारांग पालीताना पहुंचने की मुख्य-मुख्य जानकारी आप प्राप्त कर सकते हैं, परन्तु सम्पूर्ण अनुभव तो चलने से ही मिलेगा । शास्त्र में भी मुख्य-मुख्य बिन्दु ही होते हैं । अनुभव तो हमें ही करना पड़ेगा ।
शास्त्र केवल दिशा बताता है, चलना तो हमें ही पड़ेगा । ___ 'इक्कोवि नमुक्कारो' में जो एक ही नमस्कार संसार से पार उतार सकता है, ऐसा कहा है, वह इस 'सामर्थ्ययोग' का नमस्कार समझे ।
इस पुस्तक को पढ़ने से स्व दोष-दर्शन की भावना जगी।
- साध्वी विरागपूर्णाश्री
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लाकड़िया - पालिताना संघ, वि.सं. २०५६
RRRRRRRRRR
१०-८-२०००, गुरुवार
सावन शुक्ला-११
* ज्ञान का प्रकाश, श्रद्धा की शक्ति और अन्तर्मुखी दृष्टि बढ़ाने के लिए हम सब इस सिद्धाचल की शीतल छाया में आये हैं ।
श्री संघ हमसे भारी आशा रखता है ।
* आज गुरुवार है । गुरु-तत्त्व पर अभी अधिक अनुप्रेक्षा करने की इच्छा होती है ।
* इस 'ललित विस्तरा' में मुख्य रूप से स्वरूप एवं उपयोग सम्पदा का अद्भूत वर्णन है, जिसे सुनकर भगवान की अचिन्त्य शक्ति आदि का ध्यान आयेगा - यह अतिशयोक्ति नहीं है, वास्तविकता है ।
नित्य पढ़े, सुनें, रटें तो ही उसका ध्यान आयेगा । सर्व प्रथम पूज्य पं. भद्रंकरविजयजी महाराज ने इस ग्रन्थ के लिए सलाह दी थी ।
* आत्म-शक्ति कदापि समाप्त नहीं होती । इस समय भी प्रभु की शक्ति कार्य कर ही रही है । सिद्धों का उपकार आज भी चालु ही है, अधिक क्या कहूं ? सिद्ध अधिक उपकार करने के लिए ही वहां गये हैं । (कहे कलापूर्णसूरि - ३ ( Samata
THANK ACA १७३)
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पू. हेमचन्द्रसागरसूरिजी : उपकार किस तरह समझें ?
पूज्यश्री : बुद्धि में बैठे तो ही मानें, उन लोगो को यह नहीं समझ में आयेगा ।
मैं ही पूछता हूं - गृहस्थ तो साधुओं पर उपकार करते हैं। साधु गृहस्थों पर अधिक उपकार करते हैं, क्या यह समझ में आता है ? आप ही समझायें । साधु परोपकार की भावना से परोपकार करते हैं । साधुओं को बोलने की आवश्यकता नहीं है । उनके अस्तित्व मात्र से परोपकार होता ही है । सूर्य को तो फिर भी भ्रमण करके प्रकाश फैलाना पड़ता है, साधु बिना परिभ्रमण किये भी परोपकार फैलाते हैं, यह समझ में आता है ?
* चारित्र में आनन्द गुरु-भक्ति के प्रभाव से ही प्राप्त होता है । गुरु को यदि भगवान तुल्य मानें तो भगवान का अपमान नहीं होता, परन्तु भगवान अधिक प्रसन्न ही होते हैं । आखिर गुरुपद की स्थापना भगवान ने ही तो की है न ?
तीन तीर्थों में प्रथम गणधर भी तीर्थ हैं, जिसकी स्थापना भगवान ने ही की है । चतुर्विध संघ की स्थापना भी भगवान ने ही की है। हम सबके भीतर भगवान की शक्ति ही कार्य कर रही है ।
* विश्व के सभी पदार्थ कुछ न कुछ परोपकार करते ही हैं । परोपकार न करें ऐसा एक पदार्थ तो बताओ । धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय तो उपकार करते ही हैं । आकाश भी स्थान प्रदान करके उपकार करता ही है न ? पुद्गल भी उपकार करते हैं । शरीर, मन, वचन पुद्गलों में से ही बने हैं न ? क्या इनके बिना मोक्ष के योग्य साधना सम्भव होगी ? वज्रऋषभनाराच संघयण, पुद्गल के बिना क्या है ?
सिद्धों में जीवन है न ?
जहां शुद्ध जीवन होता है वहां सहज परोपकार होता ही है। तीर्थंकर भी सिद्धों के आलम्बन से कर्मों का क्षय करते हैं ।
हमारी शक्ति वैसी हे सही, परन्तु अप्रकट है ।
प्रकट शक्ति वाले के आलम्बन से ही अप्रकट की शक्ति प्रकट होती है। (१७४ 00000mmommomooooooom कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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गुरु कैसे होते हैं ?
नय - निक्षेप प्रमाणे, जाणे जीवाजीव, स्व- पर विवेचन करतां थाये लाभ सदीव; निश्चय ने व्यवहारे विचरे जे मुनिराज, भवसायर तारण निर्भय तेह जहाज ।
ऐसे गुरु ही जहाज बनकर तार सकते हैं की यह गाथा है । पहले हिन्दुओं की गीता की स्वाध्याय होता था ।
अध्यात्मगीता । अध्यात्म गीता तरह इसका भी
जो दुर्गति में जाने न दें, वे गुरु हैं ।
I
गुरु केवल नेत्र खोलने वाले ही नहीं हैं, नेत्र प्रदान करने वाले भी हैं । हमारी दो आंखें हैं, परन्तु तीसरी विवेक की, ज्ञान की आंख हमारे पास नहीं है वह गुरु प्रदान करते हैं । ऐसे गुरु की सेवा कैसे करनी चाहिये ?
सकता है ।
-
रोगी डॉक्टर को समर्पित रहे तो ही आरोग्य प्राप्त कर सकता है । शिष्य गुरु को समर्पित रहे तो ही भाव-आरोग्य प्राप्त कर
भगवान उपस्थित नहीं है, परन्तु उनका पद गुरु सम्हाल रहे हैं । गुरु की शक्ति तो काम करती ही है, परन्तु शिष्य का समर्पण कैसा है उस पर सब आधार है । सिद्धों को, भगवान को या गुरु को देना नहीं पड़ता, परन्तु शिष्य अपनी योग्यता के अनुसार उसे प्राप्त कर ही लेता है ।
यहां बल्ब प्रकाश दे रहा है, परन्तु उसका प्रकाश 'पावरहाऊस' में से आता है । गुरु में ज्ञान का प्रकाश भी भगवान में से आता है । ऐसे गुरु की जिन्हों ने अमृत-वाणी का पान किया, वे अमर हो गये ।
कहे कलापूर्णसूरि ३
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जल के बिना जीवित नहीं रह सकते । गांव बसाने से पूर्व जल की सुविधा देखी जाती है । आध्यात्मिक जीवन भी जिन-वाणी के बिना नहीं चल सकता । यह जिन-वाणी श्रवण कराने वाले गुरु हैं । जिनवाणी अर्थात् ज्ञान का अमृत ।
जिन्हों ने ज्ञानामृत का पान कर लिया, क्रिया के अमृतफलों का आस्वादन किया, समता का पान खाया, उनके हृदय
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में आनन्द का सागर हिलोरे लेता रहता है ।
भावना ज्ञान से भावित बनी आत्मा कर्मों से लिप्त नहीं होती परन्तु उक्त भावना ज्ञान भी गुरु से ही प्राप्त होता है ।
ज्ञान पूर्ण रूपेण गुरु के अधीन है । गुरु-भक्त को शास्त्रों के गुप्त से गुप्त रहस्य प्राप्त हो सकते हैं ।
अभयकुमार को आकाश-गामिनी विद्या नहीं आती थी, फिर भी पदानुसारिणी प्रज्ञा से उन्हों ने उस विद्या की पूर्ति कर दी थी, जो समर्पण का ही प्रभाव है । किसी को भी आप पूछोगे तो वह अपने गुरु के प्रभाव का ही वर्णन करेगा । अन्य दर्शनवाले तो गुरु को ब्रह्मा, विष्णु और महेश कहते हैं ।
'गुरुर्ब्रह्मा, गुरुर्विष्णु, गुरुर्देवो महेश्वरः ।' हमें भी कुछ अजैन बुलाते हैं तो कहते हैं - 'प्रभु ! आदेश दो ।' इस प्रकार वे प्रभु कह कर पुकारते हैं।
गुरु की कृपा के बिना आत्मानुभूति का विकट कार्य पूर्ण नहीं होता । प्रत्येक जन्म में सब कुछ मिला है, परन्तु आत्मानुभूति नहीं मिली । गुरु की कृपा के बिना यह नहीं मिलती ।
एकाध पद को भी भावित करने से वह मोक्ष का कारण बन सकता है, यदि उसमें गुरु के प्रति समर्पण सम्मिलित है । माषतुष, चिलातीपुत्र आदि इसके उदाहरण हैं ।
हमें तो अनेक आगम-श्लोक कण्ठस्थ हैं, परन्तु कमी यह है कि वे ज्ञान-भावित नहीं हैं ।।
* अभी जल वापरते समय शास्त्रीय पदार्थ याद आया है, जिसका निर्देश हरिभद्रसूरिजी ने दिया है - कोई भी जीव सर्व प्रथम धर्म किस प्रकार प्राप्त करता है ? कौन सा जीव प्राप्त करता है ?
योगावंचक प्राणी ही धर्म प्राप्त कर सकता है ।।
योगावंचक से तात्पर्य है - गुरु में भव-तारक की बुद्धि रखने वाला प्राणी । इस भव में या पूर्व भव में योगावंचकता प्राप्त हुई हो वही धर्म प्राप्त कर सकता है। योगावंचक हुए बिना कोई जीव धर्म प्राप्त नहीं कर सकता ।
___ 'निर्मल साधु-भक्ति लही, योगावंचक होय; क्रियावंचक तिम सही, फलावंचक जोय ।'
___ - पूज्य आनंदघनजी (१७६ 800 Goose GSSSSSSS GOOD कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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अभी तक गुरु का योग मिलता था, परन्तु ठगाई थी, गुरु के नाम पर अनेक ठग भी भटक गये ।
_ 'स्वर्ण दो, दुगुना कर दूंगा' ऐसी बावाजी की बातें सुनकर अनेक व्यक्ति ठगे गये हैं ।
पू. नवरत्नसागरसूरिजी : उन्होंने अपरिग्रह का पालन करा दिया न ?
पूज्यश्री : है न गुणानुरागी ! - मुनि धुरन्धरविजयजी : तो फिर हत्या करके स्वर्ग में भेज दो न ?
पूज्यश्री : पैसा गृहस्थों के लिए ग्यारहवां प्राण है । उन्हों ने त्याग नहीं किया । ऐसे गुरु देख कर ही किसी ने कहा होगा -
_ 'कपटी गुरु लालची चेला;
दोनों नरक में ठेलंठेला ।' इसीलिए ज्ञानी, क्रियावान, निःस्पृह आत्मानुभूति में रमण करने वाले गुरु ही स्वयं तरते हैं और दूसरों को तारते हैं ।
ऐसे गुरु में तारकता के दर्शन हों यह योगावंचकता है ।
ऐसे गुरु के दर्शन करने से पाप नष्ट होते हैं । दर्शन मात्र से कितना सारा आता है ? इसीलिए तो गोचरी-पानी वहोरते समय (भिक्षा ग्रहण करते समय) धर्मलाभ देते हैं न ? धर्मलाभ से बड़ा लाभ कौन सा है ?
नहीं वहोराये (भिक्षा नहीं दे) तो भी धर्मलाभ देना, ऐसा अपने गुरुदेवों ने हमें सिखाया है । ऐसे गुरु हमारे भीतर विद्यमान वीरत्व (सिंहत्व) जागृत करते हैं ।
'वीर जिनेश्वर चरणे लागू,
वीरपणुं ते मांगू रे; मिथ्या मोह तिमिर भय भांग्युं,
जीत नगारूं वाग्युं रे...' ऐसा वीरत्व हमें प्राप्त करना है ।
वीर से ही 'वीर्य' शब्द बना है। वीर्यशक्ति से ही प्रत्येक कार्य सिद्ध होता है। ज्ञान का अध्ययन करने के पश्चात् भी क्रिया आदि में आगे बढ़ने के लिए वीर्य-शक्ति आवश्यक हैं । पंचाचार की आराधना से ही वीर्याचार की शक्ति बढ़ती है । (कहे कलापूर्णसूरि - ३ mmsmoonmomwwwwwwww0 १७७)
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गुरु आपका प्रमाद नष्ट करके आपको क्रिया में जोड़ते है। इसीलिए फिर क्रिया-वंचकता प्राप्त होती है ।
पू. मुनि धुरंधरविजयजी म.: क्रिया में लगा रखेंगे तो फिर ध्यान कब करेंगे ?
पूज्यश्री : क्रिया करते करते निर्विकल्प में जाते हैं । पू. धुरन्धरविजयजी म. : क्रिया करते करते वृद्ध हो गये । इस समय तो ध्यान का क्रेझ चलता है ।
पूज्यश्री : मैं कहां ध्यान का निषेध करता हूं? कहता हूं कि सविकल्प में से ही निर्विकल्प में जा सकते हैं । पहले मनवचन-काया को शुभ में परिवर्तित करो, उसके बाद निविकल्प में जाओ। सीधे सातवी मंजिल पर नहीं जा सकते ।
पू. धुरन्धरविजयजी म. : क्या गुरु 'ध्यान' नहीं दे सकते ? अनेक गुरु दावा तो करते हैं ।
पूज्यश्री : भले ही दें, देखेंगे । पू. धुरन्धरविजयजी म. : कैसा देंगे ? पूज्यश्री : वे लोग जैसा सीखे होंगे, वैसा ही देंगे न ?
आपके गुरु महाराज पूज्य पं. भद्रंकरविजयजी महाराजा के साहित्य का पठन करें । उसमें यह सब है ।
* 'सामायिक-धर्म' पुस्तक उनकी ही है, उनके ही पदार्थ हैं । केवल नाम मेरा है ।
उनके ही परामर्श से 'ध्यान-विचार' ग्रन्थ पढ़ने के लिए निकाला था । मैं ने वह निकाला और मुझे प्रतीत हुआ कि मुझे साक्षात् सर्वज्ञ मिल गये ।
पूर्वाचार्यों के अक्षर पढ़ने से ही 'जैन ध्यान पद्धति' पर परम श्रद्धा हुई ।
जहां आपकी रुकी हुई साधना है, उसे आगे बढ़ाने के लिए जैन-शासन बंधा हुआ है।
मन में कोई दुःख न लगायें । जैन-शासन के प्रति प्रेम से ही यह सब बोला हूं। आप उसका आदर करके निर्विकल्प समाधि प्राप्त करें, यही मनोकामना है ।
(१७८00000000000000000000 कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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प्रभु दर्शन में लीनता, वि.सं. २०४१, जयपुर
११-८-२०००, शुक्रवार
सावन शुक्ला-१२
* स्वाध्याय साधुओं का भोजन है, आहार है । जितना स्वाध्याय प्रबल होगा, उतनी आत्मा की पुष्टता प्रबल होगी। स्वाध्याय से मन शास्त्रों में रहता है, जिस से ध्यान की पूर्व भूमिका तैयार हो जाती है ।
स्वाध्याय प्रेमी सहज ही ध्यान कर सकता है । इसी लिए अभ्यंतर तप में स्वाध्याय के पश्चात् ध्यान बताया है ।
* उपयोग एवं ध्यान एकार्थक हैं, पर्यायवाची हैं । उपयोग अर्थात् ध्यान । ध्यान अर्थात् उपयोग ।
उपयोग नहीं रहने के कारण ही हमारी क्रियाएं ध्यान नहीं बनती । उपयोग-रहित क्रियाएँ द्रव्य-क्रिया कहलाती हैं ।
स्वाध्याय में वाचना, पृच्छना, परावर्तना तक फिर भी द्रव्यक्रिया हो सकती है, परन्तु अनुप्रेक्षा उपयोग के बिना नहीं हो सकती । अतः अनुप्रेक्षा ध्यान है ।
केवल उपयोग को सिद्ध कर लें तो सब ध्यान रूप बन जायें । कहे कलापूर्णसूरि - ३ 60 SESS SSSSSSSSSS १७९)
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पूज्य आनन्दघनजी ने कहा है -
'दहतिग पण अहिगम साचवतां,
इकमना धुरि थइए रे...' एक-मना दस त्रिकों से बना जाता है । एकमना अर्थात् ही उपयोग सहित साधक ।
योग की व्याख्या-मोक्ष (भगवान) के साथ जोड़ दे वह योग
मोक्ष एवं भगवान कहां भिन्न हैं ? संक्षेप में - आत्मा को जो परमात्मा बना ले वह योग
इच्छायोग आदि में भी योग शब्द का प्रयोग हो चुका है। इच्छायोग रुचि है। सामर्थ्य-योग अनुभूति है।
अनुभूति का मूल रुचि है । यदि रुचि में ही कमी (त्रुटि) हो तो अनुभूति की आशा छोड़ देनी चाहिये ।।
प्रत्येक अनुष्ठान उपयोगपूर्वक हो तो काम हो जाये, समस्त क्रियाएं भाव आवश्यक बन जायें ।
उपयोग न हो तब तक चैत्यवन्दन, प्रतिक्रमण आदि द्रव्यक्रिया ही कहलाती हैं ।
उपयोग मिल जायेगा तो भगवान के प्रति बहुमान उत्पन्न होगा ।
अर्थ में मन सम्मिलित हो जाये तो भगवान के प्रति बहुमान उत्पन्न होगा ही।
'नमुत्थुणं' का अर्थ जानने पर ही सिद्धर्षि को भगवान की करुणा समझ में आ गई । इसीलिए वे जैन-शासन में स्थिर हुए ।
उपयोग पूर्वक आप आनन्दघनजी आदि के स्तवन बोलें तो आपकी चेतना झंकृत हो उठेगी ।
'अभिनंदन जिन दरिसण तरसिये...' यह बोलते समय आपकी चेतना दर्शन के लिए तड़प का अनुभव करेगी ।
चन्द्रप्रभु स्वामी का स्तवन बोलते समय लगेगा -
अनादिकाल में ऐसे दर्शन कहां हुए हैं ? अब दर्शन हुए (१८०00wwwwwwwwwwws कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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हैं तो पेट भर कर दर्शन करने दे । विमलनाथ के स्तवन में दर्शन होने का आनन्द है -
'विमल जिन दीठा लोयण आज...' * पुदगलास्तिकाय जिस प्रकार द्रव्य रूप में एक है उस प्रकार जीवास्तिकाय भी एक ही द्रव्य है, जिसमें निगोद से सिद्ध तक के समस्त जीव आ गये । एक भी जीव बाकी नहीं है ।
इन जीवों को आत्मवत् देखना है ।
'आत्मवत् सर्वभूतेषु' आगे बढ़कर कहूं तो जीवों को परमात्मतुल्य देखना है । यह कक्षा आने के पश्चात् भेद समाप्त हो जायेगा ।
* इस समय जिसप्रकार एकत्रित होकर कार्य करते हैं उस प्रकार सदा के लिए एकत्रित होकर कार्य किया जाये तो जैनशासन का जयजयकार हो जाये । यहां मेरे-तेरा का भेद कैसा ?
* योग अर्थात् ध्यान, समाधि आदि । संक्षेप में मोक्ष के सभी साधन योग हैं । जो भगवान के साथ जोड़ दे वह योग है । भक्ति भी योग है जो भगवान के साथ जोड़ देती है। तस्मिन् परमप्रेमरूपा भक्तिः ।'
- नारदीय भक्तिसूत्र * व्यवहार से सम्यग्दर्शन विनय है ।। चैत्यवन्दन आदि विनय के सूचक हैं ।
समकित के सड़सठ भेदों को देखें, देव-गुरु का परम विनय ही दृष्टिगोचर होगा । पांच शंका-दूषण टालने से तात्पर्य है देवगुरु के प्रति अविनय टालना ।
सुनने की इच्छा शुश्रुषा । शुश्रुषा होती है वहां ज्ञान आता ही है।
अनुष्ठानों की आराधना सम्यक् चारित्र है । तात्पर्य यह कि विनय से सम्यग्दर्शन, शुश्रुषा से सम्यग्ज्ञान और अनुष्ठानों की आराधना से सम्यक्चारित्र प्राप्त होता है ।
* 'योगविंशिका' का सम्पूर्ण सार 'ज्ञानसार' के योगाष्टक में मात्र आठ श्लोकों में बताया है।
उसमें लिखा है - चैत्यवन्दन आदि में स्थान आदि का उपयोग करना । (कहे कलापूर्णसूरि - ३ 0000000000000000 १८१)
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स्थान, वर्ण - क्रियायोग । अर्थ, आलम्बन, अनालम्बन ज्ञानयोग है।
अर्थ आदि का भावन करें तो ही चैत्यवन्दन भाव-चैत्यवन्दन हो सकेगा ।
स्थान-वर्ण में प्रयत्न और अर्थ आदि में विभावन करना है।
इन पांचो (स्थान आदि) में ध्यान रखना कहां ? ऐसा न सोचें । मन का इतना शीघ्र स्वभाव है कि एक साथ चारों में पहुंच जाता है।
मन के बालक को छूट दे देनी है - इन चारों में चाहे जहां जा, छूट हैं ।
स्थान में काय । वर्ण में वाणी ।
अर्थ आदि में मन जोड़ना है। मन को जोड़ना ही कठिन है। मन को जोड़ो । कदाचित् छटक जाये तो पुनः वहां जोड़ो । रोकड़, खाता-बही लिखते समय मन का ध्यान हट जाये तो पुनः वहां मन को जोडते हैं न ? उस प्रकार मन को यहां भी पुनः पुनः जोड़ो । प्रशिक्षण दो तो यह सम्भव है । मन सर्वथा बेवफा नहीं है, कुछ तो मानेगा ही।
रसगुल्लों में मन एकाग्र हो सकता हो तो ऐसे अनुष्ठानों में एकाग्र क्यों न हों ?
__ अशुभ में एकाग्रता के लिए तो प्रयत्न करना ही नहीं पड़ता, शुभ के लिए ही प्रयत्न करना पड़ता है।
यदि मन आप कहो वैसा करने लग जाये तो ही वह आपका सेवक गिना जाता है। मन स्वेच्छानुसार करता रहे और आप विवश हो कर देखते रहो तो उसमें आपका स्वामित्व नहीं है ।
* 'भगवती' में उल्लेख है कि शिवराजर्षि को सात द्वीपोंसमुद्रों का अवधि ज्ञान हुआ और उसने घोषणा की कि जगत् इतना ही है ।
पुद्गल परिव्राजक को पांचवे देवलोक तक ज्ञान हुआ और उसने तदनुसार घोषणा की ।
वर्तमान विज्ञान यही करता है न ? जितना जानता है वही (१८२Wooooooooooooooooooo कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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सम्पूर्ण है, यही मानता है न ? यही 'कूप-मण्डूक-वृत्ति' है ।
कुंए में रहनेवाले मैंढक ने कुंए के अतिरिक्त कुछ जाना ही नहीं । वह समुद्र को कैसे जान सकता हैं ?
उस समय लोगों में ऐसी बाते फैला कर उनका निराकरण करने के लिए गौतम स्वामी भगवान को पूछते और भगवान उनका निराकरण करते ।।
अधकचरा ज्ञान खतरनाक है। शिवराजर्षि आदि को तो भगवान मिले, परन्तु हमें ? हम अपूर्ण ज्ञान से छलक रहे हैं ।
* क्षपकश्रेणी, केवलज्ञान, अयोगी गुणस्थानक इत्यादि का वर्णन शास्त्रों में उपलब्ध ही है, परन्तु शास्त्र पढ़ने मात्र से कोई केवलज्ञान नहीं हो जाता । इसके लिए आपको शास्त्रों से अतिक्रान्त होना पड़ता है । शास्त्र यहां रुक जाते हैं । शास्त्रों का कार्य केवल दिशा-निर्देशन है, चलना तो हमें है । दूसरा व्यक्ति मंजिल की मुख्य-मुख्य जानकारी देता है, परन्तु चलने का अनुभव तो अनुभव से ही मिलता है न ?
शास्त्र मील के पत्थर हैं । मील के पत्थर यही बताते हैं कि आप कितने चले ? अन्य कुछ नहीं बताते । उस प्रकार शास्त्रों की भी सीमा है, मर्यादा है।
कोई व्यक्ति भोजन की सामग्रियां के नाम बताये, उतने मात्र से पेट नहीं भर जाता । पेट भरने के लिए भोजन करना पड़ता है।
इसी प्रकार से शास्त्रों की बातें जीवन में उतारनी पड़ती हैं, फिर आगे जाकर ऐसी दशा आती है कि शास्त्र भी पीछे रह जायें । यह 'सामर्थ्य योग' है ।।
सामर्थ्य योग से प्रातिभ ज्ञान मिलता है। फिर प्रातिभ ज्ञान केवल ज्ञान तक ले जाता है। योगाचार्यों ने विशेष तौर से 'प्रातिभ ज्ञान' शब्द का प्रयोग किया है।
* जिस भूमिका में हों वहां से प्रारम्भ करना पडता है। हम यहां पालीताना आये । कोई ५०० किलोमीटर दूरी से, कोई हजार कि.मी. की दूरी से और कोई ढाई हजार कि.मी. की दूरी से आये हैं तो जो जितने दूर हों, वहां से उन्हें चलना पड़ता है ।
. हम जिस भूमिका में हों, वहां से प्रारम्भ करना पड़ता कहे कलापूर्णसूरि - ३ wwwwwwwwwwwwwwwwww १८३)
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है । तलहटी में खड़ा व्यक्ति शिखर से यात्रा प्रारम्भ नहीं कर
सकता ।
प्रातिभ ज्ञान में आत्मवीर्य की प्रधानता है । वह क्षपकश्रेणि के समय होता है । जिस प्रकार कोई व्यापारी अमुक समय पर एक भी ऋण दाता लेनदार को अपने पास आने नहीं देता । मुद्दत दी हो तो ऋण दाता मांगने के लिए आयेंगे ही । यदि वे लेनदार एक साथ मांगने के लिए आ जायें तो आज का व्यापारी दिवाला निकाल देता है न ?
पूज्य हेमचन्द्रसागरसूरिजी : व्यापार किया प्रतीत होता है । पूज्य श्री : सब नाटक किये हैं, परन्तु ऐसा कदापि किया नहीं है । भूल से भी अन्याय नहीं किया । कोई भूल जाये तो सामने से याद कराया है ।
* बांधे हुए कर्म तो उदय में आते ही हैं । बांधते समय आप स्वतन्त्र हैं, भोगते समय आप परतन्त्र हैं । भोगते समय समता ही रखनी पड़ती है ।
आपको क्या ? मुझ पर भी प्राणघातक व्याधि आई है । उस समय भगवान के तत्त्वज्ञान ने ही मुझे दुर्ध्यान से बचाया है, अन्यथा उस समय क्रोध भी आ जाये कि कोई सेवा करता नहीं है आदि; परन्तु एक अंगुली की पीड़ा दूसरी अंगुली ले नहीं सकती तो अपनी पीड़ा दूसरे कैसे ले सकते हैं ?
यश-3 - अपयश, शाता - अशाता सब अशाश्वत हैं, चले जाने वाले हैं । विहार में अच्छा तथा बुरा दोनों मार्ग चले जाने वाले हैं, यही मानें न ? उस प्रकार यहां भी यह सब चला जाने वाला है, यह मानकर समता रखनी है ।
ऐसा करने से ही राग, द्वेष आदि लुटेरों को जीत सकेंगे । वे सर्व प्रथम भगवान के भक्तों पर आक्रमण करते हैं, क्योंकि उन्हें क्रोध है भगवान ने हमारा अपमान किया है । अब उनके भक्तों को नहीं छोड़ेंगे । अतः राग-द्वेष आदि भक्तों पर आक्रमण करते हैं, परन्तु भक्त भी कहां पीछे रहने वाले हैं ?
-
उन्हें विश्वास है कि हमारे मन की गुफा में सिंह के समान
१८४ WW
१८
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भगवान बैठे हैं । राग-द्वेष आदि पशुओं का क्या सामर्थ्य है कि वे वहां आ सकें ?
गांव के बाहर सिंह का पुतला रखकर देखो । अन्य पशु उसे देख कर ही भाग जायेंगे ।
पूज्य नवरत्नसागरसूरिजी : सिंह के पद-चिन्हों को देख कर भी भाग जायेंगे ।
पूज्यश्री : हम सब तो भगवान के किले में हैं। यहां अशुभ भावों का स्पर्श कहां से होगा ?
हम सबको सामर्थ्य योग प्राप्त करना है, परन्तु वह प्राप्त होगा शास्त्र योग के द्वारा और शास्त्र योग प्राप्त होगा इच्छा योग के द्वारा ।
इस समय तो इच्छा योग आ जाये तो भी बड़ी बात है।
अतः आप भगवान को प्रार्थना करें कि प्रभु ! उसके लिए मुझे शक्ति दें ।
यह पुस्तक अर्थात् मेरे जीवन के लिए 'सर्च लाईट'। नवकार की आराधना के दिनों की वाचना सर्वाधिक तात्त्विक लगी ।
- साध्वी शान्तरसाश्री
इस पुस्तक से मेरा जीवन धन्य हो गया ।
- साध्वी संयमरसाश्री
इस पुस्तक के पठन से मुझ में विनय, वेयावच्च, समर्पणभाव, ज्ञान, ध्यान आदि आयें ऐसी भावना रखती
. - साध्वी मुक्तिनिलयाश्री
(कहे कलापूर्णसूरि - ३nommonsoommmmmmmmm
१८५)
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आजीवन अंतेवासी एवं पूज्यश्री के आंतरिक गुणों को जीवन में उतारनेवाले पू.पं.श्री कल्पतरवि. के साथ
१२-८-२०००, शनिवार सावन शुक्ला प्रथम १३
* इस जन्म में विश्वास हो जाये कि 'अब मेरा भवपरिभ्रमण का भय चला गया ।' ऐसी साधना कर लें ।
'आज भव-भ्रमण का भय मिट गया ।' ऐसे उद्गार कब निकलते हैं ? अनुभवी महापुरुषों के ग्रन्थ पढ़ें । उनकी कृतियों में ऐसा आत्म-विश्वास छलकता प्रतीत होगा ।
एकेन्द्रिय जीवों के लिए भी भावना भानी है कि वे मानवजन्म प्राप्त करके शीघ्र मोक्ष प्राप्त करें ।
('एकेन्द्रियाद्या अपि हन्त जीवा' - विनयविजयजी, शान्तसुधारस)
परन्तु हम तो अपनी आत्मा के लिए भी ऐसी भावना नहीं भाते । भगवान का स्वभाव है कि 'जो शरण में आये उसका भव-भ्रमण दूर करना ।' भगवान का 'भविनां भवदम्भोलिः ।' विशेषण है ।
एक ही गेहूं के आटे से विविध प्रकार की मिठाईयां बनती हैं, उस प्रकार एक ही मुद्दे 'भव-भ्रमण का भेद' पर विभिन्न प्रकार के शास्त्र रचे गये हैं ।
|१८६ Cartoonstantmasootram कहे कलापूर्णसूरि - ३]
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* गुणों से आत्मा तृप्त होती है । पुद्गलों से अनेक बार देह तृप्त हुई, परन्तु आत्मा अनादिकाल से अतृप्त है, इसका कभी विचार आया ?
एक क्षमा गुण आ जाये तो कितनी तृप्ति होगी ? आत्मा तो तृप्त होती ही है, देह भी स्वस्थ होती है। क्रोध, आवेश, अधीरता इत्यादि से देह भी रोग-ग्रस्त बन जाती है, यह अब सिद्ध हो चुका
है ।
सदा प्रसन्न-चित्त एवं क्षमा से युक्त मुनि इसीलिए नीरोगी होता है।
'अलौत्यमारोग्यमनिष्ठुरत्वम् ।' योग प्रवृत्ति के प्रथम चिन्हों में आरोग्य भी है । समस्त जीवों को करुणामय दृष्टि से देखनेवाले साधु के चित्त में सदा समता रहती है ।
हरी वनस्पति आदि पर दृष्टि डालते समय भी साधु की यही दृष्टि होती है।
भगवान में तो ऐसे अनन्त-अनन्त गुण हैं। केवली के अतिरिक्त उन गुणों को कौन जान सकता है? कौन उनका वर्णन कर सकता है ?
इन गुणों को जान लेने के पश्चात् क्या उन्हें प्राप्त करने का लोभ नहीं जगेगा ? यहां लोभ जगना पाप नहीं है ।
एकाध गुण से हम कितने गर्जते हैं ? गुण आने से पूर्व अहंकार आ जाता है और गुण दोषों में परिवर्तित हो जाते हैं, ऐसे हैं हम ।
दर्शन मोहनीय के क्षयोपशम के बिना गुण आयें तो ऐसी ही दशा होती है । दर्शन मोहनीय आदि सात (अनन्तानुबंधी सप्तक) प्रकृति अत्यन्त ही खतरनाक है ।
* ज्ञान-प्राप्ति भिन्न बात है, उसे क्रियान्वित करना भिन्न बात है । योग हमें ज्ञान को क्रियान्वित करने की बात कहता है, प्रदर्शक नहीं प्रवर्तक ज्ञान प्राप्त करने का कहता है । प्रवर्तक ज्ञान आते ही जीवन में परिवर्तन प्रारम्भ हो जाता है । यही इसका चिन्ह है।
... कोई अपूर्व ज्ञान प्राप्त होते ही बैठे न रहें । उसे जीवन में (कहे कलापूर्णसूरि - ३00000000 0 00000 १८७)
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उतार लें । समय अत्यन्त तीव्रता से जा रहा है। भगवान महावीर गौतम स्वामी को कहते हैं कि दर्भ की नोक पर रहे बिन्दु को गिरने में क्या देरी ? यह जीवन जाने में क्या देरी ? अतः प्रमाद न करें ।
परन्तु भगवानं की वाणी भी लोगों ने स्वीकार नहीं की तो मेरी बात तो कहां से स्वीकार करेंगे ? आप यहां नित्य श्रवण · करने के लिए आते हैं यह भी बड़ा उपकार है ।
* सामर्थ्य योग के दो प्रकार है : (१) धर्म संन्यास । (२) योग संन्यास ।
संन्यास अर्थात् विरति । संन्यास अर्थात् रुकना । दूसरे अपूर्वकरण में (आठवे गुणस्थानक में) यह सामर्थ्य योग सच्चे अर्थ में आता है। उससे पूर्व अतात्त्विक सामर्थ्य योग दीक्षा ग्रहण करने के समय हो सकता है ।
* उच्च भूमिका में जाने के पश्चात् नीची भूमिका के गुण लुप्त नहीं हो जाते, वे ही गुण पुष्ट होते रहते हैं । मार्गानुसारी, श्रावकों आदि के गुण अधिकाधिक पुष्ट होते रहते हैं । लाख रुपये हो गये अतः पहले के दस हजार रुपये गये नहीं हैं, परन्तु वे दस गुने हुए हैं ।
आठवे गुणस्थानक के अतिरिक्त श्रेणी बनती नहीं है। श्रेणी के बिना केवल ज्ञान नहीं । केवल ज्ञान के बिना मोक्ष नहीं । इस समय यह सब नहीं मिलेगा अतः हम उदासीन बने बैठे हैं । यही अपनी भूल है । इस समय प्राप्त सामग्री पर्याप्त नहीं है । सामग्री पर्याप्त मिलेगी तब भारी साधना करेंगे । महाविदेह मे जाकर सीमंधर स्वामी के पास घोर साधना करेंगे, यह सोचने वाले यह नहीं देखते कि इस समय प्राप्त सामग्री का पर्याप्त उपयोग नहीं किया तो किस आधार पर अगली उत्तम सामग्री मिलेगी ? कदाचित् महाविदेह मिल जायेगा, परन्तु वहां से मोक्ष मिलेगा ही, क्या यह निश्चित है ? वहां से मोक्ष जानेवाले हैं और सातवी नरक में जाने वाले भी हैं, यह न भूलें ।
* मन ज्यों घूमता हैं उस प्रकार घूमने देते हैं, मन चंचल (१८८mmmmmmmmmmmmmmmmss कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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बने इसका हमें तनिक भी दुःख नहीं है । प्राप्त सामग्री का कोई उपयोग नहीं है । साधना की कोई दृष्टि नहीं है, फिर भी हम कहते हैं कि मोक्ष क्यों नहीं ?
मन को बलपूर्वक खींचना नहीं है। खींचोगे तो मन अधिक छटकेगा । उपा. यशोविजयजी ने लिखा है - मन के साथ प्रेमपूर्वक काम लें - हे बालक मन ! तू चंचल क्यों हैं ? तुझे क्या चाहिये ? आनन्द चाहिये न ? वह आनन्द तुझे स्थिरता बतायेगा । तू तनिक स्थिर हो जा । तेरी अस्थिरता ही तुझे आनन्द का खजाना बताती नहीं है।
इस प्रकार प्रेम से मन को समझाने से ही वह धीरे-धीरे वश में हो जाता है, साधना के लिए वह अनुकूल बनता है ।
पूज्य आनन्दघनजी, पूज्य यशोविजयजी, पूज्य देवचन्द्रजी आदि महात्माओं का मन भगवान में लग गया, साधना का मार्ग खुल गया । इसका अर्थ यह हुआ कि उन्हों ने पूर्व जन्म में साधना की होगी । अधूरी साधना पूर्ण करने के लिए ही उन्हों ने योगीकुल में जन्म लिया है ।
मुझे स्वयं को भी ऐसा अनुभव होता है। जो भक्त भगवान को समर्पित हो गया, उसकी समस्त अपूर्णता पूर्ण करने के लिए भगवान प्रतिबद्ध हैं, मुझे तो निरन्तर ऐसा लग रहा है।
विपत्तौ किं विषादेन, संपत्तौ हर्षणेन किम् । _ 'ज्ञानी ने देखा हो वह होता है।' यह बात भक्त को अधिक प्रेरक बनती है, आराधना में अधिक सक्रिय करती है और जो अभक्त होता है उसे निष्क्रिय बनाती है ।
सिद्धगिरि जैसी उत्तम धरा पर आये हैं तो साधना के मार्ग पर चलना प्रारम्भ कर ही देना । अन्य स्थान पर जो सफलता प्राप्त करने में वर्षों लग जाते हैं, वह सफलता यहां अल्प समय में ही प्राप्त हो जाती है, इस धरा का इतना महान् प्रभाव है ।
* कोई भी जीव चाहे जहां से सिद्ध हो नहीं सकता, उसे यहां ढाई द्वीप में आना ही पड़ता है । .
लिफ्ट में बैठ कर ऊपर की मंजिल पर जा सकते हैं । उस प्रकार यहां आकर ही सिद्ध शिला पर जा सकते हैं । वह लिफ्ट (कहे कलापूर्णसूरि - ३amasmomooooooooooooom १८९)
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तो तैयार है और आप उसमें बैठ सकते हैं, परन्तु यहां कोई 'लिफ्ट' तैयार नहीं है । आपको स्वयं को वह तैयार करनी पड़ती है । ... इस तरह सम्पूर्ण ढाई द्वीप तीर्थ है, क्योंकि सभी जीव यहीं से मोक्ष में गये हैं । ढाई द्वीपों में भी सिद्धाचल सबसे उत्तम (सर्वोत्तम) क्षेत्र है, जहां से सर्वाधिक जीव मोक्ष में गये हैं । इस पावन धरा का यह विशिष्ट प्रभाव है ।
यहां आने पर विशिष्ट आत्मवीर्य उल्लसित होता है।
आत्मवीर्य-सूचक आठ शब्द हैं - वीर्य, शक्ति, बल, पराक्रम, उत्साह, स्थाम, चेष्टा एवं सामर्थ्य ।
आत्मशक्ति भिन्न-भिन्न प्रकार से कार्य करती है, अतः उसे बताने वाले शब्द भी भिन्न-भिन्न हैं । कोई शक्ति धोबी की तरह धोकर कर्मों को छिन्न-भिन्न करती है, कोई शक्ति ऊपर उछाल कर नीचे गिराती है, कौई कूट-कूट कर कर्मों को बिखेरती है - ऐसा 'ध्यान-विचार' में स्पष्ट किया है ।
* केवल ज्ञान की जघन्य, मध्यम, उत्तम अवगाहना कितनी है ? ऐसा शास्त्र में प्रश्न आता है ।
यह तेज-पुंज रूप केवलज्ञान की अवगाहना की बात है।
उत्कृष्ट अवगाहना लोक व्यापी है, जो समुद्घात के चौथे समय में होती है । लोक व्यापी ध्यान से केवली इस प्रकार कर्मों का क्षय करते हैं -
ऐसा समुद्घात प्रत्येक छ: माह में एक बार तो होता ही है । इसका अर्थ यह है कि प्रत्येक छ: माह में एक केवलज्ञानी का साक्षात्कार तो होता ही है । यदि अपनी भूमिका तैयार हो तो आत्म-शक्ति में उल्लास की वृद्धि होती है ।
समय सूक्ष्म होने के कारण चाहे पकड़ नहीं सके, परन्तु कार्य रूप में अनुभव कर सकते हैं ।
- चक्रवर्ती की पत्नी के बालों का स्पर्श कराकर मोहराजा यदि अपना चमत्कार बता सकता है तो केवली का स्पर्श चमत्कार का सृजन क्यों नहीं कर सकता ?
[१९०00ooooooooooo.0000000 कहे कलापूर्णसूरि -३)
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मद्रास, वि.सं. २०५१
१३-८-२०००, रविवार सावन शुक्ला द्वितीय-१३
सामूहिक प्रवचन स्थान : वागड़ सात चौबीसी, विषय : गुरु भक्ति
पूज्य मुनिश्री धुरन्धरविजयजी महाराज :
* तीन रविवार से पालीताना बिराजमान पूज्यश्री पधारते हैं । संघ भी उल्लासपूर्वक एकत्रित होता है । भिन्न-भिन्न विषयों पर प्रवचन होते रहते हैं । प्रभु-भक्ति, अरिहन्त का जाप, शंखेश्वर दादा के अट्ठम आदि विषयों पर प्रवचन हुए । अब आज 'गुरुभक्ति' पर प्रवचन होगा ।
पूज्य मुनिश्री जीतरत्नसागरजी :
वह दिन पाटन के लिए बुरा सिद्ध हुआ था । प्रत्येक व्यक्ति के नेत्रों में आंसू थे, क्योंकि कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्रसूरिजी का स्वर्गवास हुआ था । गुजरात पर जितना उपकार श्री हेमचन्द्रसूरिजी का है, उतना दूसरों का शायद ही होगा ।
अग्नि-संस्कार के समय कुमारपाल बच्चे की तरह रो रहे थे । दुःख का कारण पूछने पर बताया कि ऐसे गुरु मिलने पर (कहे कलापूर्णसूरि - ३ 6 6 6 6 6 Cas can as a 5500 5 GS 6 १९१)
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भी एक बार भी गोचरी नहीं वहोरा सका, क्योंकि वे राज-पिण्ड ले नहीं सकते थे । मैं ने राज्य का त्याग क्यों नहीं किया ?
यह हे गुरु-भक्ति !
प्रभु की आज्ञा का पालन गुरु करते हैं । गुरु की आज्ञा का पालन हमें करना है। गुरु-तत्त्व के बिना कभी किसी का उद्धार नहीं हो सकता । देव, गुरु और धर्म, इन तीनों के मध्य गुरु है। जो मुख्य होता है वह मध्य में ही रहता है। दीपक को बीच में रखने से दोनों कमरों में प्रकाश आ सकता है । इसे देहली-दीपक-न्याय कहते हैं । देव और धर्म दोनों की पहचान गुरु के द्वारा होती है ।
प्राप्त करने जैसा गुण गुरु-समर्पण है ।
हृदय में गुरु बसे हों यह तो ठीक है, परन्तु गुरु के हृदय में हमारा स्थान हो जाये तो काम बन जायेगा । एकलव्य का स्थान गुरु के हृदय में भी था ।
शास्त्रों में कहा गया है कि सम्भव हो तो गीतार्थ गुरु बनें, अथवा उनके शरणागत बनें । तीसरा कोई विकल्प नहीं है ।
हमारे नगर में गुरु आते हैं और हम उनकी परीक्षा करना चाहते हैं । यह है हमारा समर्पण ! गुरु की परीक्षा नहीं, प्रतीक्षा करें । प्रथम स्वयं की परीक्षा करें । अभी गुरु की परीक्षा का हमें अधिकार नहीं है ।
एक प्रसंग याद आता है । किसी गुरु ने शिष्य को कहा, 'गोचरी के साथ धारदार चाकू भी ले आना ।' समर्पित शिष्य ने वैसा ही किया ।
मध्य रात्रि में गुरु उसकी छाती पर चढ़ बैठे । यदि ऐसा हो जाये तो क्या करेंगे आप? वह तो समर्पित शिष्य था । गुरु ने चाकू से अंगुली में से खून लिया और चले गये ।
प्रातः गुरु ने शिष्य को पूछा तब उसने उत्तर दिया - 'जिसको मैंने अपना सम्पूर्ण जीवन सौंप दिया, उनसे क्या डरना ? वे जो भी करेंगे, वह मेरे हित में ही होगा ।'
गुरु ने कहा, 'तेरा पूर्व जन्म का कोई शत्रु सांप तुझे डंसने के लिए आया था । उसका निवारण मैं ने इस प्रकार किया । यदि मैं ऐसा नहीं करता तो तेरे प्राण चले जाते ।
(१९२ wwwwwwwwwwwwwwwww00 कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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गाय मालिक की शरणागति स्वीकार करती है तो उसकी सुरक्षा होती है । हम गुरु की शरणागति स्वीकार करेंगे तो हमारी सुरक्षा होगी।
पूज्य मुनिश्री धुरन्धरविजयजी म. : जिसने गुरु की उपासना की हो, उसका जीवन धन्य है ।
जिन्हों ने दीक्षा ग्रहण करके मात्र गुरु-भक्ति ही की है, वे पं. वज्रसेनविजयजी अब वक्तव्य देंगे ।।
* पूज्य पं. वज्रसेनविजयजी म. : _ 'मेरे अज्ञान का नाश करनेवाले गुरु हैं' - यह लगे तो गुरु याद आयें और 'अहं' टूटे । अनादिकाल से 'मेरी बात रहनी चाहिये' वैसी इच्छा है । यह इच्छा टूटने पर ही गुरु को समर्पण हो सकता है ।
उसमें भी जिन गुरु ने विशिष्ट उपकार किया हो, उनके प्रति विशेष समर्पित रहना चाहिये ।
* पंच परमेष्ठी में अरिहंत एवं सिद्ध परम गुरु हैं । आचार्य, उपाध्याय, साधु गुरु हैं ।
गुरु अनुपस्थित हों अथवा गुरु हमसे अल्प बुद्धिवाले हों तो भी समर्पण से कार्य होता ही है । एकलव्य ने मिट्टी के पुतले के द्वारा ही समर्पण से सफलता प्राप्त कर ली थी।
पू. जंबूविजयजी म. को अपने गुरु पू. भुवनविजयजी म. पर कैसी भक्ति है ? दर्शन करने के लिए जाना हो तब भी उनके फोटो से आज्ञा लेकर जाते हैं और दर्शन करने के पश्चात् भी फोटो के समक्ष कहते हैं - 'मैं दर्शन करके आ गया ।'
स्थापनाचार्य के प्रति भी ऐसा ही भाव । कदाचित् गिर जायै तो उसी दिन वे उपवास करते हैं ।
ऐसे अन्य भी अनेक महात्मा होंगे । यह तो मेरे अनुभव में आई हुई बात मैं कहता हूं । अपने गुरु की स्मृति में ४० वर्षों से आज भी वे प्रति माह अट्ठम करते हैं ।
गुरु की सहायता मिलती है, उस प्रकार उन्हें सतत अनुभूति होती रहती है । (कहे कलापूर्णसूरि - ३00woooooooooooooo00 १९३)
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कृतज्ञता अधिक होती है उस प्रकार गुण-प्राप्ति अधिक होती
गुण-प्राप्ति का मूल कृतज्ञता है । उपकारी को नित्य स्मरण करें तो गुणों की वृद्धि होती है ।
पू. कलापूर्णसूरिंजी कहते हैं : 'जिनके पास अध्ययन किया है, उन सबको मैं नित्य याद करता हूं ।'
आप कितनों को याद करते हैं ?
आत्म-विकास हेतु योग्यता प्राप्त करने की आवश्यकता है। योग्यता बढ़ने के साथ योग्य वस्तुएं प्राप्त होती ही रहती है। कदाचित् व्यक्ति उपस्थित न हो तो दिव्यकृपा उतरती ही है ।
थोडी-बहुत सहायता भी जिन्हों ने की हो, उन्हें याद करके यदि नवकार गिनेंगे तो नवकार में भी शक्ति बढ़ी हुई प्रतीत होगी ।
पूज्य धुरन्धरविजयजी म. :
मेरे परम उपकारी गुरुदेव पू.पं. भद्रंकरविजयजी म. की सेवा में रहने वाले पं. वज्रसेनविजयजी ने एक मजेदार बात कही । बात गुरुजनों के प्रति कृतज्ञता की है ।
__ गिरिविहार में चतुर्विध संघ की अद्भुत भक्ति होती है जिसके प्रेरक गुरु थे । अपने गुरु की भावना साकार करने के लिए उन्हों ने यह कार्य उठाया ।
भविष्य में तीन रूपयों के स्थान पर भोजन में एक ही रूपया लिया जायेगा । यह है गुरु-भक्ति का उत्कृष्ट उदाहरण ।
अब सद्गुरु स्वरूप एवं स्वरूप-रमणता में लीन पूज्य कलापूर्णसूरिजी वक्तव्य देंगे ।
पूज्य आचार्यश्री विजयकलापूर्णसूरिजी महाराज :
(सबको बारह नवकार गिनने की पूज्यश्री की ओर से सूचना दी गई ।)
* गत रविवार को गुरु-तत्त्व पर विचार किया गया । आज भी इस विषय में अनेक महात्मा इसका रहस्य बतायेंगे ।
___पांचो परमेष्ठी गुरु हैं । इसीलिए ये पंच गुरुमंत्र भी कहलाते हैं । ये पांच परम मंगलरूप हैं । ये जग का मंगल करने के लिए बंधे हुए हैं। (१९४ 0mmommonsooooooooom कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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ऐसा कहने की अपेक्षा उनका ऐसा स्वभाव है यह कहना अधिक ठीक गिना जायेगा । ये पांचो थे, हैं और रहेंगे । इनके आधार पर ही आध्यात्मिक जीवन जिया जा सकता है ।
उनमें से ज्ञात एवं अज्ञात के उपकार भी स्वीकार करने हैं । अदृष्ट गुरु अनन्तानन्त हैं, ऐसा सिद्धचक्र पूजन में हम जानते हैं । किसी भी जन्म में तनिक भी उपदेश दिया हो, मित्र बनकर मार्गदर्शन भी दिया हो, वे भी अपने गुरु गिने जाते हैं । वे यदि भूल जायें तो ज्ञान भूल जायें । यदि धर्म नहीं खोया हो तो देव-गुरु को भूलें नहीं ।
अन्य दर्शनों में भी कहा है : 'प्रभु ! आपका स्मरण ही सम्पत्ति और विस्मरण ही विपत्ति है ।।
गौतम स्वामी को संसार महान् मानता है, परन्तु वे स्वयं तो गुरु महावीर के चरणों में ही लीन हैं ।
तापसों ने जब गौतम स्वामी के मुंह से गुरु महावीर देव की बात सुनी तब वे स्तब्ध हो गये ।
केवलज्ञानी बने तापस भी पीछे और छद्मस्थ गौतम आगे । यह है गुरु का बहुमान । हरिभद्रसूरिजी ने १४४४ ग्रन्थ गुरु को समर्पित किये । एक उपकारी साध्वीजी याकिनी महत्तरा को वे कदापि नहीं भूले । उन्हों ने प्रत्येक ग्रन्थ में धर्म-माता के रूप में उनका उल्लेख किया है ।
अभी वज्रसेन विजयजी ने अपने गुरु का नहीं परन्तु जम्बूविजयजी का उदाहरण दिया। उनके गुरुदेव पूज्य पं. भद्रंकर विजयजी महाराज कैसे महान् थे, वह हमें पता है । ___ 'गुरु दीवो गुरु देवता, गुरु विण घोर अंधार ।'
अंधेरी गुफा में धातुवादी प्रविष्ट हों और वहां दीपक बुझ जाये तो क्या दशा हो ?
ऐसी ही दशा गुरु को छोड़ देने पर हमारी होती है। भवभव भटकने का कारण यही है। गुरु मिले होंगे, परन्तु हम समर्पित नहीं हुए हों ।
___ 'होउ मे एएहिं संजोगो ।' ।
'मुझे ऐसे गुरु का संयोग हो ।' कहे कलापूर्णसूरि - ३ wastessonsomwwwwwwwwwcom १९५)
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मैं उनकी सेवा के योग्य बनूं, मैं उनके वचनों का पालन करने वाला बनूं और निरतिचार पालन करके उन्हें बतानेवाला बनूं । .
- पंचसूत्र ऐसा करेंगे तो ही आराधक बनेंगे ।
* यहां कैसे आनन्द से सब महात्मा मिलते हैं ? केवल रविवार को ही नहीं, हम तो लगभग कहीं न कहीं नित्य मिल जाते हैं ।
हृदय का प्रेम भाव इस प्रकार संघ में बढ़े तो ही उन्नति होगी । बाकी संघ में कोई कमी नहीं है । शक्तियां संगठित बनें यही आवश्यक हैं ।
गुरु-भक्ति के सम्बन्ध में जो सुनो, उस पर अमल करें । आज भी ऐसे श्रावक हैं जो कहते हैं - 'गुरु वचन तहत्ति ।'
कभी कुमारपाल वी. शाह को पूछे । गुप्तरूप से करोड़ो रूपयों का कार्य करने वाले गुरु-भक्त कितने हैं ?
छिपे रत्न हमारे चतुर्विध संघ में हैं ।
इसीलिए रत्नों की खान-तुल्य संघ का आज भी जयजयकार हो रहा है।
गुरु-भक्ति का साक्षात् प्रभाव यहां भी अनुभव किया जा सकता है । इसी भव में भगवान के दर्शन किये जा सकते हैं ।
पू. हरिभद्रसूरिजी ऐसी बात (गुरु-भक्ति प्रभावेन) कहां से लाये ? सिद्धान्तों के अक्षरों के बिना तो ऐसी बात होती नहीं । उन्हें 'पंचसूत्र' में से ये अक्षर मिले : गुरु-बहुमाणो मोक्खो ।
गुरु एवं भगवान एक ही हैं । गुरु को समर्पित होते हो, अतः व्यक्ति को नहीं, भगवान को ही समपित होते हों; क्योंकि गुरु भगवान के द्वारा ही स्थापित हैं ।
समापत्ति ध्यान के द्वारा आज भी भगवान के दर्शन हो सकते हैं । ऐसा व्यक्ति स्वयं भगवान बनता है अथवा भगवान के पास पहुंचता है।
सभी साधु-साध्वी स्व-गुरु के प्रति आदर रखें और भक्ति में वृद्धि करें तो रुका हुआ आत्म-विकास तीव्र वेग से चलता
(१९६ wwwwwwwwwwwwwwwww
कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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दर्शनमोह, मान, कषाय आदि गुरु-भक्ति में रुकावट करते हैं।
पं. वज्रसेनविजयजी ने कहा उस प्रकार गुरु-भक्ति के प्रभाव से 'अहं' नष्ट हो जाता है ।
धर्मराजा का भवन नमस्कार पर खड़ा है । मोहराजा का भवन अहं पर खड़ा है ।
अहं पर झटका लगते ही बस, संसार का समग्र भवन धराशायी हो जाता है । - 'ललित विस्तरा' (परम तेज) पढ़ो तो गुरु एवं परम गुरु की भक्ति बढ़ेगी, समर्पण-भाव में वृद्धि होगी ।
सब के हृदय में ऐसी भक्ति का परिणमन हो ऐसी अभिलाषा
पूज्य धुरन्धरविजयजी म.: गुरु के प्रति तीव्र बहुमान ही मोक्ष है । इससे ही मोह का क्षय होता है ।
मैत्री प्रभु के अनुग्रह के बिना नहीं मिलती । प्रभु का अनुग्रह गुरु के अनुग्रह के बिना नहीं मिलता, ऐसी बातें हमने पूज्यश्री से सुनी ।
अब पूज्य भद्रसूरिजी के आजीवन अन्तेवासी पूज्य ॐकारसूरिजी के आजीवन अन्तेवासी पूज्य यशोविजयसूरिजी :
प्रार्थना सूत्र 'जयवीयराय' में प्रभु के समक्ष नित्य दोहराते हैं। ___ 'सुहगुरुजोगो ।' प्रभु ! तू मुझे सद्गुरु का योग करा दे । मेरे समग्र अस्तित्व का जुड़ाव जब तक सद्गुरु के साथ न हो तब तक जीवन का अर्थ नहीं है। यह विरलतम घटना है। सद्गुरु एक खिड़की है, जिसके द्वारा परम का असीम आकाश देखा जा सकता है ।
खिड़की एवं अलमारी बाहर से समान प्रतीत होती हैं, परन्तु खोलने पर पता लगता है। जिसके पीछे दीवार हो वह अलमारी, जिसके पीछे खाली हो वह खिड़की है ।
जो भीतर से शून्य बन गये हैं वे सद्गुरु हैं ।
हो सकता है कि पू. हेमचन्द्रसूरिजी अथवा पू. हरिभद्रसूरिजी के समय में भी हम हों, परन्तु उन सद्गुरु के साथ जुड़ाव नहीं था ।
(कहे कलापूर्णसूरि - ३00000000000000000000 १९७)
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सद्गुरु के द्वारा ही परम गुरु मिलते हैं ।
सदगुरु के चरणों में सिर झुकाने के पश्चात् कोई इच्छा नहीं रहती ।
'सद्गुरु-चरण बिना मोहे कछु नहीं भावे ।'
'भवसागर अब सूख गया है ।
फिकर नहीं मोहे तरनन की । मोहे लागी लगन गुरु चरनन की ।'
-- मीरा सागर सूख जाये फिर तैरने की आवश्यकता क्या ?
एक साधक को सद्गुरु की तलप लगी; वह सद्गुरु को ढूंढने के लिए निकल पड़ा ।
जंगल में मिले गुरु को साधक ने पूछा, 'मुझे सद्गुरु कहां मिलेंगे ।'
गुरु ने कहा, 'गुरु प्रत्येक के लिए निश्चित हैं, योग्य समय पर मिलते हैं । वे जंगल में अमुक वृक्ष की डाली के नीचे तुझे मिलेंगे।'
यह सुनते ही वह दौड़ा । पांच वर्षों तक जंगल में भटका, परन्तु कहीं पता नहीं लगा । गुरु हैं तो वृक्ष नहीं है, वृक्ष हैं तो गुरु नहीं हैं । कही मेरी समझ में भूल तो नहीं है। फिर याद आया - ये ही गुरु वृक्ष के नीचे थे । पुनः पांच वर्षों के पश्चात् वे ही गुरु वृक्ष के नीचे मिले । उस समय भी वे उसी वृक्ष के नीचे खड़े थे।
शिष्य ने अपनी वेदना व्यक्त की -
'मुझे तो पता नहीं था गुरु ! आपको तो पता था न ? तनिक कहना तो था । पांच-पांच वर्षों तक मेरी पांवो की कढ़ी कर डाली ।'
'मुझे पांच वर्षों तक तेरे लिए एक स्थान पर बैठा रहना पड़ा उसका क्या ? उस समय तेरे शिष्यत्व की परिपक्वता नहीं थी। उसके बिना सद्गुरु का योग नहीं हो सकता ।' गुरु ने कहा ।
सद्गुरु की प्राप्ति महान् घटना है । अरणिक मुनि को सद्गुरु मिले थे । दोपहर में पांव जले । उनका पतन हुआ । यह जानते (१९८ on woman woom a कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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साया
हैं । माता पागल हो गई । फिर माता के पास वे बोले - 'तेरा अभागा पुत्र मैं ही हूं।'
साध्वी-माता बोली : 'चल गुरु के पास ।'
गुरु का नाम पड़ते ही अरणिक मुनि लौट आये, तब गुरु ने कुछ भी उपालम्भ नहीं दिया । गुरु जानते हैं कि - 'प्रातःकाल का भूला सायंकाल में पुनः लौटेगा ही ।'
गुरु का सशक्त हाथ पड़ा और शक्ति प्राप्त हुई ।
'वासक्षेप करो, वासक्षेप दो' ऐसा बोला जाता है । 'वासक्षेप डालो' ऐसा नहीं कहा जाता । वासक्षेप के द्वारा गुरु की शक्ति प्राप्त होती है ।
__उन्ही अरणिक मुनि ने धधकती शिला पर संथारा कर लिया । यह शक्ति गुरु से ही मिली थी ।
यह जीवन केवल सद्गुरु-योग के लिए ही है ।
यदि सम्पूर्ण समर्पितता आ जाये तो जीवन मंगलमय बन जाता है ।
पूज्य धुरन्धरविजयजी म. : आज शीघ्रता न करें, सवा ग्यारह बजे तक बैठे ।
गुरु सामने ही होते हैं, परन्तु हम उन्हें पहचान नहीं पाते । इस शासन में कभी भी सद्गुरु की अनुपस्थिति नहीं होती, मात्र अपनी पात्रता नहीं होती । जहां गुरु उपस्थित हों वहां भगवान होते ही हैं।
पूज्य वीररत्नविजयजी : प्रभु ने केवल ज्ञान से देखकर सभी के लिए मोक्ष-मार्ग बताया है। स्कूल में क्या पढ़े थे ? याद है ?
मस्तिष्क में याद हो और उस मार्ग पर चलें तो गुरु के आशीर्वाद मिल सकते हैं ।
हम छोटे थे तब वर्णमाला सीखीं थी - क : कमल, ख : खरगोश, ग : गणेश, घ : घर इत्यादि।
'क' का कमल कहता है कि जीवन कमल की तरह जीओ, अनासक्त भाव से जीओ ।
खरगोश की तरह तीव्र गति से समय चलता है, समय को पकड लो । (कहे कलापूर्णसूरि - ३ womowwwooooo00 १९९)
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गणेश : गण + ईश, गणधरों को याद करो । घर : अपने घर मोक्ष को याद करो । हम इन सबको भूल गये और हमने इतना ही याद रखा -
क : कमाना, ख : खाना, ग : गहना बनाना, घ : घर बनाना । (मिट्टी का घर बनाना)
बुद्धिमान खड़ा-खड़ा ही घर से निकल जाता है, क्योंकि वह जानता है कि खड़े-खड़े नहीं निकलेंगे तो आड़े होकर तो निकलना ही पड़ेगा ।
पूज्य धुरन्धरविजयजी म. : एक प्रसंग - गुरु : वत्स ! तुझे मुझसे अलग होना है । साधक : आपको छोड़ कर कहीं भी नहीं जाऊंगा ।
गुरु : मेरी आज्ञा पालन करके एक हजार मील दूर जाएगा तो भी तू मेरे पास है । आज्ञा का पालन नहीं किया और तू मेरे पास रहेगा तो भी तू दूर है । ऐसा गुरु कुल-वास ही ब्रह्मचर्य है, ऐसा शास्त्रों में उल्लेख है ।
आगामी रविवार को संघ-भक्ति पर प्रवचन रहेगा । नन्दलालभाई (धर्मशाला के ट्रस्टी) : पूज्य आचार्य भगवन् तथा समस्त पूज्यश्रीयों को सादर वन्दना !
चार-चार रविवारों से इस स्थान पर जिस वातावरण का सृजन हुआ है, वह भारत भर में फैले, ऐसी भावना है । इसका मूल यहां होने का हमें गौरव है।
पर्युषण महापर्व के पश्चात् भी यहां अनुष्ठानों का आयोजन हो वैसी अपेक्षा रखते हैं ।
पूज्य हेमचन्द्रसागरसूरिजी : पूज्य आचार्यश्री शान्तिचन्द्रसूरिजी ने अद्भुत बात बताई है - 'ते धन्ना जेसि हिययम्मि गुरुओ वसंति ते धन्नाण वि धन्ना गुरु-हिययम्मि जे वसंति'
गुरु को आप हृदय में बसाओ तो आप धन्य हैं परन्तु यदि जीवन को धन्यतम बनाना हो तो गुरु के हृदय में निवास करना पड़ेगा ।
प्रत्येक वक्ता के पास भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण देखने को मिला । (२०० &
00000000000 कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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कभी-कभी छोटे साधु के पास भी अद्भुत बात सुनने को मिल जाती है ।
* वनस्पतियों में 'परोपजीवी' नामक एक मात्र दो-तीन इंच की वनस्पति है। जन्म लेने के पश्चात् अधिक जीने की उसको तमन्ना होती है, परन्तु शक्ति नहीं है। करें क्या ? जीवन को अल्पजीवी नहीं बनाना है, दीर्घजीवी बनकर धन्य बनना है ।
___मैं तो ऊपर पहुंच नहीं सकता । वह अपने आसपास दृष्टि डालता है (आंख नहीं होती । यह तो मात्र अपनी कल्पना है) और समीपस्थ बड़े वृक्ष की मूल में लिपट जाता है । मूल में से सब चूसता रहता है । विशाल वृक्ष के सभी लाभ उसे प्राप्त होते रहते हैं ।
___ इस वृक्ष का दृष्टान्त हम पर घटित करना है ।। (१) सान्निध्य : वह नहीं छोड़ेगा, छोड़ेगा तो मृत्यु है । (२) समीपता : बिना भेद-भाव के सघन निकटता करता है । (३) समग्रता : अपना पूरा शरीर मूल के साथ एकमेक कर डालता
ये तीन मुख्य नियम है ।
इसी से ही उक्त वनस्पति दीर्घ काल तक रह सकती है । वर्तमान काल में हम भी इस वनस्पति के समान तुच्छ हैं ।
जो मूल परम (गुरु) के साथ जुड़ा हुआ हो, उसे पकड़ लें तो काम हो जाये । आपको आपकी सात पीढियों के नाम शायद ही याद होंगे । हम भगवान महावीर स्वामी तक की पीढियों के नाम गिना सकते हैं । अन्त में आखिरी नाम भगवान का आता है । ये सभी गुरु भगवान के साथ जुड़े हुए हैं ।
यदि गुरु के साथ जुड़ जायें; सान्निध्य, सामीप्य एवं समग्रता - इन तीनों को अपना लें तो भगवान की वह शक्ति आज भी प्राप्त कर सकते हैं ।
पूज्य आचार्यश्री नवरत्नसागरसूरिजी : त्रिकालाबाधित शासन के शरण में आये बिना कल्याण नहीं है ।
भगवान भी जिस तत्त्व के बिना शासन नहीं स्थापित कर सकें वह गुरु तत्त्व है । अद्भुत है यह गुरु-तत्त्व ! कहे कलापूर्णसूरि - ३ 0000000000000000 २०१)
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* गुरु के कतिपय पर्यायवाची शब्द : गुरु : 'गु' अर्थात् अज्ञान, 'रु' अर्थात् उलीचने वाला,
अज्ञान को उलीचता है वह गुरु है । भिक्खु : जो कर्म को भेदता है वह । यति : यतना के द्वारा जो तिर जाये वह । संयत : जो सम्यक् प्रकार से यम-नियमों आदि की धारणा
करके तत्त्व प्रकाशित करता है वह । अणगार : जिसको घर. नहीं है वह ।
घर अर्थात् छ: काय का कूटा । संसार का मूल आरम्भ है । आरम्भ का अन्त
करने वाले का नाम अणगार है । मुनि : मौन रहे वह मुनि । अथवा जगत् - तत्त्वों का
मनन करता है वह मुनि है । प्रत्येक शब्द में कैसे अर्थ हैं ?
तत्त्वत्रयी में गुरु मध्य में है। - पूज्य कलापूर्णसूरिजी मध्य में हैं, महत्त्वपूर्ण मध्य में बैठते
तीन लोकों में महत्त्वपूर्ण मृत्युलोक मध्य में है।
मन-वचन-काया में महत्त्वपूर्ण वचन मध्य में है, जिससे परोपकार हो सकता है ।
गुरु नहीं हो तो शासन नहीं चलेगा ।
एक लाख पूर्व के दीक्षा पर्याय में एक हजार एवं ८९ पक्ष न्यून शासन आदिनाथ भगवान ने चलाया, परन्तु शेष आधे चौथे आरे तक शासन किसके कारण चला ? नवे एवं दसवे तीर्थंकरो के मध्य गुरु नहीं थे, अतः शासन विच्छिन्न हुआ ।
* इलाची-पुत्र नटनी के पीछे दीवाना था, परन्तु गुरु के दर्शन करने से केवल ज्ञान पा गया । गुरु के दर्शन में कितनी शक्ति है ?
सुना है कि वर्तमान काल में पूज्य भुवनभानुसूरिजी के आचार्यश्री जगच्चन्द्रसूरिजी के संसारी ज्येष्ठ भ्राता पूर्व जन्म में मुर्गे थे । उसे कसाई काट रहा था । कोई बचाने वाला नहीं था । (२०२ 00000000000000000 कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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मार्ग में चलते हुए मुनि को उसने देखा और उस कसाई ने उसे काट डाला । अन्तिम समय में जैन मुनि के दर्शन से उसका जैन कुल में जन्म हुआ ।
तीर्थंकर पद भी गुरु-पद की आराधना से ही प्राप्त होता है ।
गुरु भगवंतो ने शासन चलाने के लिए कितना-कितना सहन किया है ? एक-दो प्रसंग बताता हूं -
शासन की बदनामी (अपकीर्ति) रोकने के लिए, यह पालीताना जिनके नाम से बसा हुआ है, वे पादलिप्तसूरिजी जीवित जलने के लिए तैयार हो गये थे । तरंगवई लोला के लिए साहित्यचोरी का आरोप था । उसे मिटाने के लिए उन्हें ऐसा करना पड़ा । यद्यपि उस पण्डित को पश्चाताप हुआ और आचार्य भगवन् बच गये ।
__ शासन की अपकीर्ति रोकने के लिए ही कालकाचार्य ने अपनी मृत्यु को निमंत्रण दिया था । ऐसे गुरु भगवन् मिले हैं तो उनकी समुचित आराधना कर लें ।
ऐसे गुरु का क्या वर्णन करें ? ___ 'सब धरती कागज करो, कलम करो वनराई ।
सब समुद्र स्याही करो, गुरु-गुण लिख्या न जाई ।'
श्रीकृष्ण ने गुरु-वन्दन के द्वारा ही सात नरकों में से चार के पापों का क्षय किया था तथा तीर्थंकर नाम-कर्म बांधा था जिसे हम जानते हैं ।
पूज्य धुरन्धरविजयजी म. :
गुरु का सान्निध्य मिले उतना कम । अतः इस सान्निध्य को आप छोड़ें नहीं ।
पूज्यश्री हीरविजयसूरिजी के पीछे उस काल में संघ पागल था । उस समय प्रत्येक नगर में करोड़पति थे । गुरुओं के बहुमान से ही आज लक्ष्मी बढ़ी हुई प्रतीत होती है । कुमारपालभाई गुरुकृपा के उत्कृष्ट उदाहरण हैं ।
कुमारपाल वी. शाह : वक्तव्य नहीं देना है । एक बात कह दूं ।
पू. साधु-साध्वीजी के दर्शनार्थ हम आये हैं । श्रवण करने को नहीं मिला हो, कम अथवा आधा मिला हो तो भी सन्तोष कहे कलापूर्णसूरि - ३WOOOOOB
H B00 २०३)
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है । दर्शन से दृष्टि धन्य हो गई है ।
अभी पू. आचार्यश्री हेमचन्द्रसागरसूरिजी ने मुझे कहा : 'खड़े हो जाओ, और वह दृश्य देखो तो सही ।'
भगवानश्री कृष्ण का रथ वृन्दावन में आया और गोपियों आदि दौड़ी आई । रथ में से भगवान नहीं उतरे । केवल सारथी उतरा तो भी सब धन्य हो गये ।
प्रभु ! चाहे आप नहीं आये । भगवान के दर्शन करके आये भक्त के दर्शन से भी हम धन्य हुए हैं ।
हम भी पूज्यश्री को यही कहना चाहते हैं ।
इतनी बड़ी सभा में बोलने की इच्छा बहुत होती है, परन्तु उक्त लालच को रोक कर रखता हूं।
पूज्य गुरु भगवंतो को मुझे एक ही बात करनी है - हे गुरु भगवन्तो ! हम गुरु की सेवा करने में कमजोर सिद्ध न हों या विलम्ब न हो जायें, ऐसे आशीर्वाद दें ।
प्रकाश दाढ़ी : आगामी रविवार को पूज्यश्री गिरि-विहार जायेंगे ।
गिरि-विहार में भोजन के लिए तीन में से केवल एक ही रूपया निश्चित होगा । घी-दूध भी डेरी के नहीं, परन्तु शुद्ध दिये जायेंगे ।
___इन्द्रियों के सुख की तो कई बार अनुभूति हुई है, परन्तु इन्द्रियातीत सुख का कदापि आस्वादन नहीं हुआ ।
- साध्वी महाप्रज्ञाश्री
प्रभु के प्रति भक्ति की मस्ति पुस्तक के प्रत्येक शब्द में उतरी है।
- साध्वी अक्षयरत्नाश्री.
(२०४ 00oooooooooooooooos कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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पदवी प्रसंग, सुरत, वि.सं. २०५५
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१३-८-२०००, रविवार सावन शुक्ला द्वितीय-१३
* काल की अपेक्षा से भाव तीर्थंकर सबसे कम समय तक उपकार करते हैं, परन्तु यह उतना उत्कृष्ट होता है कि उनके जाने के पश्चात् भी उस उपकार की धारा चलती रहती है ।
थोड़ा समय होने पर भी यह महत्त्वपूर्ण है । यदि यह नहीं हो तो नाम, स्थापना भी कहां कार्य करने वाले थे? नाम किसका ? स्थापना किसकी ? सबका मूल भाव तीर्थंकर है ।
* साधु ही नहीं, शासन में साध्वी, श्रावक, श्राविका भी उपकार करते रहते हैं ।
साध्वीजी के द्वारा प्रतिबोधित भी मोक्ष में जाते हैं । श्रावक-श्राविका से भी प्रतिबोध होता है ।
श्रावक सुबुद्धि मन्त्री से प्रतिबोधित वह राजा जैन धर्मी बना था । देखें ज्ञाता धर्मकथा सूत्र ।
* तापी अथवा नर्मदा नदियों के पुल पर मैं चलता था तब विचार आता था कि ओह ! इतना छोटा पुल नहीं होता तो? या नाव न होती तो ? छोटा पुल या छोटी नाव कितना बडा उपकार करते हैं ?
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नदी चाहे भयंकर हो, पुल पर चलने वाले को भय नहीं है। मजबूत नाव पर बैठने वाले को भय नहीं है। संसार चाहे भयंकर हो, परन्तु उसके शासन में बैठने वाले को भय नहीं है ।
भगवान स्वमी है, गुरु नाविक है, हम बैठने वाले हैं । भगवान कहीं भी गये ही नहीं हैं । केवल भौतिक देह ही अदृश्य हुई है । शक्ति के रूप में तो भगवान यहीं हैं ।
(गाय के आगमन से आवाज हुई) क्या गाय के जितना अनुशासन भी हममें है ?
रापर में स्थंडिल भूमि से मैं लौट रहा था । बाजार में भारी भीड़ थी ।
एक महिला छोटी बालिका को लेकर जा रही थी । पीछे से बड़ा बैल एवं गाय दौड़ते हुए आ रहे थे, परन्तु बालिका को देखते ही वे रुक गये ।
पाटन में गाय दौड रही थी । बीच में बालिका आ गई तो उस पर पैर न रखकर वह कूद गई ।
इस प्रकार क्या हम देख कर चलते हैं ? आप कहेंगे : भुज में आपको गाय ने धक्का क्यों लगाया ?
एक स्पष्टीकरण करने दें । गाय ने धक्का नहीं दिया । कहीं स्थान नहीं मिलने से वह मात्र वहां से निकली थी । उसने मेरा स्पर्श नहीं किया, परन्तु उसके निमित्त से धक्का लगने के कारण मैं गिर पड़ा । गाय का मुझे धक्का लगाने का कोई इरादा नहीं था ।
* पुल हो परन्तु उस पर नहीं चले तो नदी को पार नहीं कर सकेंगे । प्रभु का शासन विद्यमान होते हुए भी यदि उसका आलम्बन नहीं लें तो संसार पार नहीं कर सकते । भूतकाल में अनेक बार शासन मिला होगा, परन्तु हम उसकी शरण में गये नहीं होंगे, इसीलिए भटकते हैं न ?
* जैन दर्शन केवल मानसिक ध्यान को ही नहीं मानता, वाचिक-कायिक ध्यान भी मानता है और वह प्रवृत्ति एवं निवृत्ति रूप भी होता है । (२०६ 800mmooooooooooo कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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इस मन को सीधा शून्य नहीं बनाना है । निर्विकल्प की इस समय की बातें खतरनाक हैं । सर्व प्रथम अशुभ विचारों को रोकें ।
मन तो अत्यन्त सुन्दर साधन है । उसे शून्य नहीं बना कर, उसका सुन्दर उपयोग करना है । शून्य मन से जिन पापों का क्षय होता है, उसकी अपेक्षा शुभ विचारों से पूर्ण बनें, ताकि अधिक पापों का क्षय होगा ।
प्रारम्भ में इसी प्रकार से साधना करनी है। हां, अगली भूमिका मिलने पर मन स्वयं ही हट जायेगा, हमें हटाना नहीं पड़ेगा । ऊपर जाने पर सीढ़ियां नीचे रह ही जाती हैं न ? सीढ़ियों को पूर्णतः छोड़ना नहीं है, उनकी निन्दा भी नहीं करनी है । ध्यान दशा में से पुनः नीचे तो आना ही पड़ेगा, तब मन की आवश्यकता होगी ही न ?
*
मार्गानुसारी के गुणों के बिना श्रावक नहीं बना जा सकता । श्रावक के गुणों के बिना साधु नहीं बना जाता । साधु के गुणों के बिना क्षपकश्रेणी नहीं मंडती । यहां तो क्रमशः ही चढ़ा जाता है । बीच में से प्रवेश नहीं हो सकता ।
पूज्य हेमचन्द्रसागरसूरिजी : क्या बीच में घुसा नहीं जाता ? पूज्य श्री : बीच में घुस गये हैं, इसीलिए यह कष्ट उत्पन्न हो गया है ।
व्यवहार से यह सब मिल गया है । निश्चय से कहां हैं ? यह हम जानते हैं या भगवान जानते हैं ।
* साधना में योग-बीज है
'जिनेषु कुशलं चित्तं '
प्रभु के प्रति जिसे प्रेम हो, उसे गुरु एवं शास्त्रों के प्रति प्रेम होता ही है । ऐसा व्यक्ति गुरु से वाचना श्रवण करता है, आगम लिखता है लिखवाता है और उनका प्रचार करता है । ये समस्त लक्षण उसमें दृष्टिगोचर होने लगते हैं ।
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सर्व प्रथम योग - बीज चाहिये । प्रभु के प्रति प्रेम ।
एक मात्र प्रभु - प्रेम का बीज पड़ गया तो धर्म का घटादार बरगद होने में विलम्ब नहीं लगेगा ।
( कहे कलापूर्णसूरि ३
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* प्रथम अपूर्वकरण सम्यक्त्व की प्राप्ति के समय होता है ।
सामर्थ्य योग का वर्णन करते समय सम्यक्त्व की बात इसलिए की जाती है कि जिससे सिंहावलोकन हो सकता है और हमारी साधना का उचित निरीक्षण हो सकता है ।
___ यह निरीक्षण भी अन्य का नहीं, परन्तु अपना ही करें, अन्यथा तो पुनः गड़बड़ी हो जायेगी ।
__ चाकू आपके हाथ में है, अब अन्य को देना है तो कैसे दोगे ?
चाकू का हाथा सामने वाले के हाथ में आये उस तरह ही दिया जाता है न ?
__ अपने पास रखने की बात अलग है। अन्य को देते समय दृष्टिकोण अलग है।
यहीं बात यहां लागू करनी है । यों तो मैत्री-प्रमोद आदि स्वयं पर क्या कम हैं ? सर्वाधिक प्रमोद अपने गुणों पर है ही । सर्वाधिक करुणा अपने दुःखों पर है ही ।। सर्वाधिक मध्यस्थता अपने दुर्गुणों पर है ही । परन्तु अब यह दृष्टिकोण बदलना है ।।
अन्य पर करना हो वह स्वयं पर कर रहे हैं और स्वयं पर करना हो वह अन्य पर कर रहे हैं । हम पांव में पहनने के जूते सिर पर और सिर की टोपी पांवों में डाल रहे हैं । यही अपनी करुणता है ।
* सामर्थ्य योग अवाच्य है, यह अनुभव-गम्य है । यदि वह शब्दगम्य हो तो अनुभवगम्य नहीं कहा जायेगा । अनुभव गम्यता ही उसे कहा जाता है जिसे वर्णन से प्राप्त नहीं किया जा सके ।
इसीलिए इसका वर्णन यहां नहीं किया । सम्भव हो उतना कह कर शेष के लिए 'अवाच्य' कह दिया ।
* ध्यान-विचार' में दो शब्द विशेष आते हैं : (१) करण, (२) भवन
करण में शिक्षण से प्राप्त होता है ।
भवन में सहजता से प्राप्त होता है । [२०८ 0oooooooooooooooo00 कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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मरुदेवी माता कोई शिक्षा प्राप्त करने के लिए नहीं गये थे, फिर भी केवली बन गये, वह भवन योग था ।
परन्तु अधिकतर जीव गुरु के पास शिक्षा प्राप्त करके ही केवल ज्ञान प्राप्त करते हैं । मरुदेवी जैसे तो कोई विरल ही होते है।
* प्रथम अपूर्वकरण हुआ है या नहीं, यह हमें स्व में देखने की विशेष आवश्यकता है ।
इस बिन्दु पर मैं विशेष बल देता हूं क्योंकि मोक्ष में जाने की मुझे शीघ्रता है ।
परन्तु मैं आपको छोड़ कर कैसे जाऊं ? * यहां अच्छा है वह भगवान का है । उचित नहीं हो वह मेरा है ।
* पंच परमेष्ठियों में पूज्य का क्रम अरिहन्त से प्रारम्भ होता है, परन्तु साधना के क्रम में प्रथम साधु आते हैं, अर्थात् पहले साधु बनना पड़ता है ।
भगवान की वाणी 'परा' में से निकलती है, पश्यन्ती, मध्यमा में से गुजरती हुई 'वैखरी' बन कर निकलती है ।
परन्तु सीखते समय वैखरी वाणी प्रथम आती है । गुरु पाठ देते है वह वैखरी वाणी का प्रयोग करते है । आप स्कूल जायें और गुरु और आप दोनों मौन रहो तो क्या पढाई हो सकेगी ?
वैखरी वाणी का महान उपकार है। भगवान यदि बोलें नहीं तो क्या उपकार होता है ? भगवान बोलते हैं वह वैखरी वाणी है ।
गुरु यदि नहीं बोलें तो क्या होगा ? जो गुरु बोलें, वह यदि आपको पसन्द न आये यह ठीक है, परन्तु उसके बिना कहां ठिकाना पड़ने वाला है ?
यह गुरु का महत्त्व समझाने के लिए ही दो रविवार गुरुतत्त्व के लिए रखे थे ।
कदाचित् आप गुरु का विनय नहीं करें, परन्तु आशातना तो कदापि मत करना ।
आ... शातना... चारों ओर से गुणों का नाश करदे वह आशातना है । गुरु का विरोध करने की इच्छा हो जाये तब यह याद करना । . गुरु की आशातना भगवान की आशातना है । (कहे कलापूर्णसूरि - ३00mmonsoonsmoooo00 २०९)
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पूज्य पं. कल्पतरुविजयजी म. : गुरु-तत्त्व के प्रति बहुमान हो, परन्तु अपने व्यक्तिगत गुरु के प्रति बहुमान न हो, ऐसा नहीं चलेगा ?
पूज्यश्री : जिसे समस्त गुरुओं पर प्रेम हो गया उसे स्वगुरु के प्रति प्रेम न हो ऐसा होता ही नहीं है । एक तीर्थंकर की आशातना सबकी आशातना है । एक गुरु की आशातना समस्त गुरुओं की आशातना है ।
सन्निपात का रोगी चाहे जैसे बोले तो भी वैद्य उस पर क्रोधित नहीं होता । उस प्रकार ऐसे उद्धत पर गुरु क्रोधित नहीं होते ।
बड़ी दीक्षा से पूर्व पूज्य आचार्य भगवन् मिले । चार प्रकरण आदि हो चुके । मैंने पूछा - अब क्या करूं? पू. आचार्य भगवन्त : सिन्दूर प्रकर करो । तुरन्त मैंने 'तहति' कहा ।
भगवती में शतक पूर्ण होने पर अन्त में आता है - 'सेवं भंते, सेवं भंते ।' प्रभु आप कहते हैं वैसा ही है।
इसका नाम स्वीकार है ।
ऐसी श्रद्धा आने पर आस्तिकता आती है। आस्तिकता आने पर स्व की तरह अन्य का जीवत्व भी स्वीकार किया जाता है
और उसका दुःख स्वयं को लगता है। पांव में कांटा लगे तो सिर को क्या ? हमें क्या ? यह मान कर हम उसकी उपेक्षा करते नहीं हैं, उस प्रकार दूसरों की पीड़ा की उपेक्षा नहीं हो सकती, क्योंकि सबके साथ हम जुड़े हुए हैं ।
पर दया : अप्प दया पर पीड़ा : अप्प पीड़ा पर हिंसा : अप्प हिंसा जीव वहो : अप्प वहो ये आगम-सूत्र यही बात कहते हैं । आप दूसरों को कठोर बोलेंगे तो यह आपको ही फलेगा ।
एक सज्जन कल आये थे । कमर से नीचे का भाग शून्य था । भयंकर वेदना थी । बोले : 'मैंने किसी को पीड़ा नहीं दी । ऐसा क्यों ?'
[२१०noonomoooooooooooooo कहे कलापूर्णसूरि-३)
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'इस जन्म में नहीं तो पिछले जन्म में हमने पीड़ा दी ही होगी । इसका ही यह फल है।' ऐसा उसे समझाना पड़ा । ऐसी विचारधारा से अनुकम्पा आती है। अनुकम्पा दो प्रकार की होती है - द्रव्य अनुकम्पा, भाव अनुकम्पा ।
द्रव्य-प्राण की रक्षा द्रव्य अनुकम्पा है । भाव-प्राण की रक्षा भाव अनुकम्पा है ।
किसी की देह की पीड़ा के लिए सहानुभूति बताना द्रव्य अनुकम्पा है । उस प्रकार उसके अभिमान आदि दोषों के लिए दया सोचना भाव अनुकम्पा है । बिचारी गुणहीन आत्मा का क्या होगा ?
___ अनुकम्पा आने पर ऐसे गुणहीन एवं दोष-पूर्ण संसार से छूटने का और गुण पूर्ण दोषहीन मुक्ति में जाने की इच्छा होती ही है।
यही संवेग - निर्वेद कहलाता है। इन सबके फल स्वरूप 'शम' मिलता है ।
ये सम्यग्दर्शन के लक्षण हैं । यह सम्यग्दर्शन प्राप्त करके सभी मुक्ति प्राप्त करें ।
यह पुस्तक तो आगमों के रहस्यों का खजाना है। प्रत्येक पृष्ठ पढ़ते समय मन-मयूर नृत्य कर उठता है।
- साध्वी मोक्षदर्शिताश्री
पूज्यश्री के हृदय में... अरे, रग-रग में कैसी अद्भुत जिन-भक्ति बसी है, जिसकी अनुभूति यह पुस्तक पढ़ने
से
हुई ।
- साध्वी संवेगरसाश्री
(कहे कलापूर्णसूरि - ३00 aoooooooooooo00 २११)
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શ્રી સ્તર સરોવરજી મ.સા."
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पू. यशोविजयसूरिजी के साथ, वि.सं. २०५६, पालिताना
१५-८-२०००, मंगलवार
सावन शुक्ला-१५
* भूखे को भोजन, प्यासे को पानी, वस्त्रहीन को वस्त्र और आवास-हीन को आवास देने वाला उपकारी गिना जाता है, तो धर्म प्रदान करने वाले भगवान कितने उपकारी गिने जायेंगे ? उनके उपकार की कोई सीमा नहीं है ।
यदि इस धर्म का पालन करें तो यह अव्याबाध सुख की गारण्टी देता है । इस धर्म के प्रणेता भगवान का उपकार कितना है ?
'अपुव्वो कप्पपायवो' यह धर्म अपूर्व कल्पवृक्ष, अपूर्व चिन्तामणि है। दुर्गति में जाने वाले को बचाकर सद्गति में स्थापित करने वाले ऐसे धर्म के उद्गाता भगवान का उपकार कितना है ? उपकारों का यह ऋण कैसे चुकाया जा सकेगा ?
जो कुछ करें वह भगवान के चरणों में समर्पित करें । मुनीम सेठ को सौंपे, सैनिक राजा को सौंपे, गुरु शिष्य को सौंपे; उस प्रकार भक्त सर्वस्व भगवान को सौंपे । तप, जप, स्वाध्याय आदि सब भगवान के चरणों में रखना है । 'गुह्यातिगुह्यगोप्ता त्वं गृहाणाऽस्मत्कृतं जपम् ।'
- शक्रस्तव
| २१२
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Monitorica कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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हरिभद्रसूरिजी यही कहते हैं :
मुझे ही नहीं, इस ग्रन्थ-रचना के द्वारा सबको फल मिले । आप भोजन करो तो तृप्ति मिलेगी ही । इसमें मांगना नहीं पड़ता कि हे भोजन ! तू मुझे तृप्ति दे ।
__ इस प्रकार आप धर्म करें तो आपको फल मिलेगा ही । मांगने की आवश्यकता ही नहीं है । मात्र अन्य के लिए आप भला चाहें ।
ऐसे करुणाशील हरिभद्रसूरिजी का नाम मुझे पू.पं. भद्रंकरविजयजी म. के द्वारा वि. संवत् २०१३ में मांडवी में मिला था । फिर तो इतना रस उत्पन्न हुआ कि जितना बैठता उतना गुरु के मुख से लेकर बिठाता । प्रारम्भ में वैसे भी सूत्र के रूप में आता है, तत्पश्चात् अर्थ आते हैं और फिर तदुभय के रूप में तथा ऐदंपर्य के रूप में तो भगवान की कृपा से ही आता है ।
मेरे श्रम से मुझे मिला हो वैसा नहीं लगता । भगवान ने कृपा-वृष्टि की और मुझे मिला यही लगता है।
यदि हरिभद्रसूरि पर बहुमान बढ़ेगा तो ही इस ग्रन्थ का हार्द हमें समझ में आयेगा । ऐसा हार्द समझ में आयेगा कि एक ग्रन्थ से अनेक ग्रन्थों का ताला खुल जायेगा ।
अभी 'ललित विस्तरा' में सामर्थ्य योग चल रहा है, जिसके तात्त्विक एवं अतात्त्विक दो भेद हैं । हम सबको अतात्त्विक सामर्थ्य योग मिल ही गया है, क्योंकि घर आदि का परित्याग किया हैं।
गृहस्थ जीवन में निश्चल ध्यान नहीं हो सकता क्योंकि वैसा वातावरण घर में जमता ही नहीं । मुझे ऐसी प्रेरणा नहीं मिली होती तो मैं घर में ही रहा होता । यहां बाह्य वातावरण, बाह्य तप आदि कितने सहायक होते हैं ? .
बाह्य तप अभ्यन्तर तप को बढ़ाने वाला है ।
बाह्य तप निकाल देने जैसा नहीं है । जिस दिन उपवास किया हुआ हो उस दिन ध्यान आदि में अत्यन्त ही मन लगता है, ऐसा मैं अपने अनुभव से कह सकता हूं । इस बाह्य तप की उपेक्षा न करें । . अभ्यन्तर तप के लक्ष्य बिना का बाह्य तप सफल नहीं होता । (कहे कलापूर्णसूरि - ३ 90066650mm BOOBB00 २१३)
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"कोई पति-रंजन अति घणुं तप करे रे' उस प्रकार तप नहीं करना है, ईर्ष्या अथवा प्रतियोगी के रूप में भी तप नहीं करना. है। युवानी के जोश में हो जाये, परन्तु उसके बाद परिणाम अच्छा नहीं आता ।
यह बात इसलिए याद आई कि आज एक साध्वीजी पूछने के लिए आये कि ५१ हो चुके है, आगे करूं ?
देह क्षीण एवं अशक्त देख कर आज्ञा देने का मन नहीं हुआ । हमें अनुभव है कि एक साध्वीजी ६८ उपवास करने गये तो आज भी उनका स्वास्थ्य खराब है। इस प्रकार तप नहीं किया जाता ।
__ 'तदेव हि तपः कार्य, दुर्थ्यानं यत्र नो भवेत् । येन योगा न हीयन्ते, क्षीयन्ते नेन्द्रियाणि च ॥'
- ज्ञानसार यह बात अच्छी तरह समझ लें ।
शरीर अश्व है । इसे बाह्य तप का प्रशिक्षण देना है, परन्तु कुचलना नहीं है । शक्ति से अधिक करके कुचलना नहीं है।
इसी लिए प्रत्येक स्थान पर 'यथाशक्ति' शब्द का प्रयोग किया जाता है ।
यहां भी लिखा है - 'यथाशक्त्यप्रमादिनः ।' * 'नाणं च दंसणं चेव, चरित्तं च तवो तहा ।
वीरियं उवओगो य, एअं जीवस्स लक्खणं ॥' ये जीव के लक्षण हैं न ? या इस पाट के लक्षण हैं ? गाथा केवल रटने-कण्ठस्थ करने के लिए हैं कि जीवन में उतारने के लिए हैं ? देखो उपा. महाराज के शब्द :
'जिहां लगे आतमद्रव्यन, लक्षण नवि जाण्यु; तिहां लगे गुणठाणुं भलूं, किम आवे ताण्यु ?' उपालम्भ देने का मेरा स्वभाव नहीं है। यह तो महापुरुषों ने जो लिखा है वह कहता हूं ।
यह सब आपको इसलिए पढ़ाया है । सर्व प्रथम आप अपना स्वरूप तो पहचानें । गृहस्थों को
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तो तीव्रता से सिखाते है, परन्तु क्या अपने जीवन में कभी दृष्टि करते हैं ?
'परोपदेशे पाण्डित्यं' अत्यन्त ही शीघ्रता करते हैं। हमारे खोखले शब्दों का कितना प्रभाव होगा ?
* 'अध्यात्म-मत-परीक्षा', 'अध्यात्मोपनिषद्' आदि अनेक ग्रन्थों की श्रेणी उपा. महाराज ने खड़ी कर दी । इससे प्रतीत होता है कि उन्हों ने अपनी तरह एक मिनिट भी नष्ट नहीं की होगी ।
ग्रन्थों की रचना क्यों की ? अहंकार के पोषण के लिए नहीं, परन्तु परोपकार की भावना से, करुणा-भावना से रचना की गई है।
कहीं लिखा है - स्वस्मृत्यर्थम् - मेरी स्मृति के लिए । __ ऐसे ग्रन्थ किसी योग्य व्यक्ति के हाथ में आ जायें तो काम हो जाये । उनका 'ज्ञानसार' ग्रन्थ देवचन्द्रजी के हाथ में आया
और वे बोल उठे - 'उपाध्यायजी तो मेरे लिए भगवान हैं ।' उन्हें वह ग्रन्थ अद्भुत प्रतीत हुआ और उन्हों ने उस पर 'ज्ञान मंजरी' टीका भी लिखी ।
* हमारे सभी अनुष्ठानों को सप्राण बनाने वाली भगवान की भक्ति है, जीवों की करुणा है ।
चैत्यवन्दन हम करते हैं, परन्तु चाहिये वैसा उल्लास नहीं है । वह प्राप्त करने के लिए हम यह ग्रन्थ पढ़ रहे हैं ।
तनिक ज्ञान बढ़ते ही हम क्रिया में शिथिल हो जाते हैं । प्रतिक्रमण, पडिलेहण आदि करते हैं, परन्तु कभी-कभी बेगार जैसा करते हैं । मैं भी उसमें शामिल हूं ।
पूज्य पं. कल्पतरुविजयजी म. : _ 'ज्ञानी श्वासोच्छ्वासमां करे कर्मनो छेह;
__ पूर्व कोडी वरसा लगे, अज्ञानी करे तेह ।' यह बात भी आती है ।।
पूज्यश्री : यह सत्य है परन्तु कौन सा ज्ञानी ? समितियों से समित तथा गुप्तियों से गुप्त मुनि । वह कदापि क्रिया की उपेक्षा नहीं करेगा ।
... ज्ञान-दर्शन-चारित्र-तप इन चारों के जितने भेद हैं उतने ही किहे कलापूर्णसूरि - ३noooooooooooooooo00 २१५)
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(३६) भेद वीर्याचार के हैं । इसका अर्थ यह हुआ कि वीर्योल्लास के बिना एक भी आचार की आराधना नहीं हो सकती । पांचो आचारो के कुल ७२ भेद होंगे । __वीर्योल्लासपूर्वक क्रिया करने से ही ध्यान की अग्नि प्रकट होती है और उसके बाद ही 'ज्ञानी श्वासोच्छ्वासमां' यह बात लागू होती है।
न्याय-काव्य आदि ग्रन्थ पढ़ने से ही वीर्योल्लास बढ़ जायेगा, यह भ्रम है।
यहां तक आने के पश्चात् भी प्रमाद ? तो फिर घर क्या बुरा था ? क्यों प्रमाद नहीं हटाते हैं ? यह अपनी वेदना व्यक्त करता हूं।
मरुदेवी - भरत की तरह बैठे-बैठे ही केवल ज्ञान प्राप्त हो जायेगा, इस भ्रम में तो नहीं हैं न ?
मरुदेवी माता में सामर्थ्य योग आदि समस्त योग आ गये, परन्तु आये कहां से ? भगवान के पास से आये ।।
आज पाठ मिला - धनेश्वर सूरि-कृत 'शत्रुजय माहात्म्य' में लिखा है कि मरुदेवी ने जब समाचार सुना कि ऋषभदेव को केवल ज्ञान प्राप्त हुआ है। यह सुनते ही शोक के आंसू हर्षाश्रुओं में बदल गये । पुत्र के वियोग में रो-रोकर आंखो की ज्योति चली गई थी।
उन्हें पता था कि मेरा पुत्र भगवान बनने वाला है। आपको मालूम हो और उन्हें मालूम नहीं होगा ? सर्व प्रथम चौदह स्वप्न आने के कारण उन्हें ही मालूम था ।
ऐसे भगवान तुल्य पुत्र के प्रति प्रेम क्या भगवान का प्रेम नहीं कहलाता ? वर्तमान माताओं के समान केवल पुत्र के लिए ही पुत्र नहीं था । यशोदा इत्यादि अजैन माताओं का प्रेम भी भगवान का प्रेम गिना जाता है ।
माता-पिता का प्रेम सर्वथा अप्रशस्त नहीं गिना जाता । भक्तिराग है । स्नेह-राग नहीं कहलायेगा ।
पू.आचार्य हेमचन्द्रसागरसूरिजी: क्यास्नेह- राग नहीं कहलाता? पूज्यश्री : नहीं, स्नेह-राग नहीं कहलाता ।
पुत्र को स्नेह-राग से देखने के लिए, तीर्थंकर माता की (२१६ 00swamsoom
w ww कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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गोद में बैठे हैं और परस्पर दोनों स्नेहपूर्वक देख रहे हैं । ऐसे शिल्प मिलते हैं और ऐसा ध्यान भी धरा जा सकता है। ध्यानविचार' ग्रन्थ देखें । शंखेश्वर में ऐसा चित्रपट्ट है । अन्य अनेक मन्दिरों में भी ऐसे चित्रपट्ट हैं । ये प्राचीन ध्यान-पद्धति के चिन्ह है । यदि राणकपुर की नक्काशी, शिल्प-कला देखोगे तो वहां आपको 'ध्यान-विचार' के ध्यान की श्रेणी मिलेगी ।
_ 'सिद्धचक्र पूजन' अनेक व्यक्तियों को नया लगता होगा, परन्तु मैं कहता हूं : जीर्णोद्धार होता है, परन्तु नया कौन निकाल सकता
अभी जो हम देखते है ऐसा ही ताम्बे का सिद्धचक्र का यन्त्र 'ओसिया' में देखा था । ___ओसिया में मन्दिर में प्रदक्षिणा देते समय सिद्धचक्र यन्त्र का आधा भाग नजर में आया । विचार आया कि इसका शेष आधा भाग भी होना चाहिये । फिर आधा भाग भी मिल गया । लगभग २५०० वर्ष पुराना यह मन्दिर है । समस्त ओसवालों की उत्पत्ति वहीं हुई है।
'शान्ति-स्नात्र' ही प्राचीन है, सिद्धचक्र-पूजन प्राचीन नहीं है - यह कहने वालों को समुचित उत्तर दिया जा सके, वैसा यह प्रमाण मिल गया ।
प्राचीन समय में लोग ताम्बे के यंत्र पर 'सिद्धचक्र-पूजन' पढ़ाते होंगे ।
मैं ने फिर फलोदी में इसी यंत्र पर 'सिद्धचक्र-पूजन' पढ़ाने की प्रेरणा दी थी ।
___ माता, एवं पुत्र का प्रेम मातृवलय में व्यक्त हो चुका है । पुत्र का प्रेम तथा माता का वात्सल्य दोनों हमारे भीतर उत्पन्न हों, वैसा ध्यान करने का उल्लेख है । चौबीस वलयों में से यह एक वलय है ।
* यहां सामर्थ्य योग की बात आई है। कर्मों का मूलोच्छेदन करने की शक्ति सामर्थ्य योग से ही आती है ।
ज्ञान आदि के लिए अभी तक अभ्यास करते हैं । वीर्योल्लास के लिए तनिक भी प्रयत्न नहीं करते । 'ज्ञानी श्वासोच्छ्वास मां' (कहे कलापूर्णसूरि - ३ 0 0
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0 २१७)
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कह कर बैठ जाते हैं । वीर्योल्लास के बिना कर्मों का क्षय नहीं होता ।
मरुदेवी माता ८३ लाख पूर्व गृहस्थ-जीवन में पुत्र भगवान के साथ रहे । इतने समय तक जिसने पुत्र का सम्पर्क किया हो वह माता पुत्र के ही विरह में रोये, क्या यह सम्भव है ? नहीं, माता पुत्र में भगवान का रूप देखती थी ।
माता का प्रेम तो अद्भुत है । माता की ओर के इस प्रेम के कारण ही प्रवचन माता, धर्म माता आदि शब्द शास्त्रों में प्रयुक्त
पू. गणि मुक्तिचन्द्रविजयजी : क्या नाभिराजा को कुछ नहीं हुआ ?
पूज्यश्री : मां तो मां है । माता के जितना प्रेम (वात्सल्य) पिता में स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर नहीं होता । इसीलिए प्रवचन माता इत्यादि शब्दों का प्रयोग हुआ है, प्रवचन पिता आदि शब्दों का नहीं ।
उस समय नाभिराजा जीवित थे, वैसा कोई उल्लेख जाना नहीं है । सम्भव है - उस समय वह विद्यमान नहीं भी हो ।
जितना शास्त्रों में उपलब्ध है, उतना तो पकड़ें । __क्या मरुदेवी इन्द्रों के द्वारा हो चुके अभिषेक नहीं जानते थे ? इन्द्र के द्वारा राज्याभिषेक, विवाह, दीक्षा आदि क्या नहीं जानते थे ? उन्हें ज्ञात ही था कि मेरा पुत्र भगवान है ।
गौतम स्वामी को केवल ज्ञान से गुरु-भक्ति विशेष प्रिय लगी थी । कदाचित् पांचवे आरे के जीवों को गुरु-भक्ति समझाने के लिए ही उन्हों ने ऐसा किया हो । कदाचित् नहीं किया हो तो भी हमारे लिए वह आदर्श रूप है ही ।
'मुक्ति थी अधिक तुज भक्ति मुज मन वसी' क्या इस पंक्ति का विरोध करोगे ?
जिस प्रकार गौतम स्वामी का भक्ति-राग होने पर भी भगवान का राग भी था ही । मन में पता ही है कि ये भगवान हैं । इसीसे उनका शोक विराग में बदल सका । भगवत्ता याद आई
और केवल ज्ञान हो गया । (२१८ Booooooooooooooooooo कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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इसी तरह से मरुदेवी का पुत्र-प्रेम भी प्रभु-प्रेम में बदल गया । प्रभु की प्रीति तो योग का बीज है । वह आपको मोक्ष के साथ जोड़ देती है । ऐसी प्रीति मरुदेवी को हुई थी ।
मरुदेवी माता को प्रभु के प्रति प्रेम हुआ वह योग का बीज गिना जायेगा या नहीं ? क्या शास्त्र का उल्लेख बताऊं ?
'जिनेषु कुशलं चित्तं तन्नमस्कार एव च ।' प्रभु-प्रेम के कारण मरुदेवी माता के वीर्योल्लास ने इतना उछाला मारा कि ठेठ आठवी दृष्टि तक पहुंच गये ।
मैं तो कहता हूं कि प्रतिमा के आलम्बन से भी श्रेणी लगाई जा सकती है, केवलज्ञान प्राप्त किया जा सकता है । 'निमित्त समान स्थापना जिनजी, ए आगम नी वाणी रे'
- पूज्य देवचन्द्रजी निमित्त रूप से हमारे समक्ष साक्षात् तीर्थंकर हो या प्रतिमा हो, कोई अन्तर नहीं पड़ता । नागकेतु को मूर्ति के समक्ष ही केवल ज्ञान हुआ था न ?
मरुदेवी की तरह विहंगम गति से मोक्ष मार्ग की ओर जाना हो तो प्रभु को पकड़ना ही पड़ेगा ।
* जिन विचारों को हम पूर्णतः नष्ट करना चाहते हैं, वे विचार तो शुक्ल ध्यान की प्रथम नींव में भी हैं ।
भारी कर्मों के कारण वांकी चातुर्मास में हम उपस्थित नहीं रह सके । खैर, अफसोस करने की कोई आवश्यकता नहीं है। पूज्य गुरुदेव के श्रीमुख से निकले वाणी के उद्गार इस पुस्तक के द्वारा प्रत्यक्ष तौर पर सुनने को मिले हों, उतना आनन्द हुआ ।
- साध्वी हर्षितप्रज्ञाश्री
(कहे कलापूर्णसूरि - ३000000000000000000 २१९)
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विहार में पूज्यश्री
१६-८-२०००, बुधवार
भाद्र. कृष्णा -१
गणधर भगवान द्वारा रचित नामस्तव, शक्रस्तव आदि सूत्र इतने महान हैं कि वे अपने चैत्यवन्दन, देववन्दन में जोड़ दिये गये । कितने अर्थ-गम्भीर युक्त हैं ये सूत्र ?
'नमस्कार स्वाध्याय' पुस्तक पढेंगे तो ध्यान आयेगा ।
'ध्यान-विचार' का विवेचन लिखना था, परन्तु आधार कौन सा लें ? मैं इस विचार में था । मैंने नवकार गिने । 'नमस्कार स्वाध्याय' पुस्तक समक्ष रख कर संकल्प किया । जो पृष्ठ खुले वही पढ़ना । खोलते ही 'ध्यान विचार' के लिए ही मसाला मिला । एक साथ चार ग्रन्थ मिले । मन नाच उठा । श्री भद्रगुप्तसूरि रचित 'अरिहाण स्तोत्र' श्लोक-३० ग्रन्थ में २४ ध्यान-भेदों के नाम आये ।
__मानो भगवान ने ही कृपा-वृष्टि की । आगमों में से ही 'ध्यानविचार' आया हुआ है, वैसी प्रतीति हुई ।
एकाग्र चित्त से साधना करते रहें तो तत्त्व मिलेंगे ही। वैज्ञानिक भी एक ही पदार्थ पर दत्तचित्त होकर कितना अनुसन्धान करते हैं ? योगियों को भी ऐसा ही एकाग्र बनना है ।
* अभव्य भी बीजाधान के बिना तो यथाप्रवृत्तिकरण अनन्त
(२२० 16600 GS 5 GS 6 6 6 6 6 6 6 6 6 6 6 कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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बार कर सकते हैं। अतः अब आप निश्चय कर लें कि मुझे बीजाधान तो कर ही लेना है ।
मैं पूछता हूं कि क्या आपको ये ग्रन्थ पढ़ने-सुनने में आनन्द आता है ? आनन्द कितना और कैसा आता है ? इस पर से आपकी भूमिका निश्चित होती है ।
क्षायिक की बात जाने दें । क्षायोपशमिक भाव के गुण तो आ ही गये हैं न ?
* भगवान के प्रेम के अतिरिक्त दूसरा कोई भी योग का मार्ग नहीं है। भगवान के प्रति प्रेम नहीं जगा हो तो समझें कि अभी तक संसार का प्रेम विद्यमान है, अन्य कोई उद्देश्य बैठा है । प्रभु-प्रेम की अनुपस्थिति ही बताती है कि अभी तक अन्य आकांक्षाएं भीतर विद्यमान हैं । ये सभी अत्यन्त ही खतरनाक भयस्थान हैं ।
सभी सामग्री अपने सामने हैं । केवल अपने उद्यम की कमी है, परन्तु हम तो प्रतीक्षा कर रहे हैं कि शीघ्र महाविदेह में जन्म मिल जाये और मोक्ष में चले जाये, परन्तु किस आधार पर महाविदेह मिलेगा ? इसका विचार करते नहीं हैं । वर्तमान में प्राप्त सामग्री का उपयोग नहीं करने वाला व्यक्ति भविष्य में उससे उत्तम सामग्री प्राप्त कर नहीं सकता । वर्तमान में प्राप्त रोटी खाकर जो व्यक्ति जीवन व्यतीत नहीं कर सकता उसे भविष्य में गुलाबजामुन कैसे मिल सकेंगे ? जो व्यक्ति जीवित ही नहीं रहे, वह गुलाबजामुन कैसे प्राप्त कर सकता है ?
* मरुदेवी को जिस प्रकार ऋषभ पर प्रेम था, उस प्रकार त्रिशला को भी वर्धमान पर प्रेम था । उन्हों ने भी बालक रूप में भगवान का ध्यान किया, यह कहा जा सकता है !
अन्य दर्शनों में पुत्रों के नाम नारायण इत्यादि इसलिए रखतें हैं कि उसे भगवान याद आते रहें ।
पूज्य हेमचन्द्रसागरसूरिजी : त्रिशलाजी तो देवलोक में गई ।
पूज्यश्री : जाती हैं । तीर्थंकर की माता मोक्ष में या स्वर्ग में जाती है । त्रिशलाजी बाद में मोक्ष में जायेंगी । भगवान का प्रेम. ही उन्हें मोक्ष में ले जायेगा । कहे कलापूर्णसूरि -३00mmonsomwwwwwwwwna २२१)
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* कोई चन्दन का विलेपन करे अथवा कोई बांस से छाल उतारे, फिर भी जिसकी समता खण्डित नहीं हो, वह सहज क्षमा है। जब तक ऐसी क्षमा न आये तब तक क्षयोपशम भाव की क्षमा तो रखें ।
भगवान के पास हमने प्रतिज्ञा ली है कि 'राग-द्वेष नहीं करेंगे, सावध का सेवन नहीं करेंगे और किसी के प्रति वैर-विरोध नहीं करेंगे ।'
क्या इस प्रतिज्ञा का . पूर्ण रूप से पालन होता है ? मरणान्त कष्टों के समय भी हमारे पूर्वषियों ने समता रखी है।
* चौदहवे गुण स्थानक में मन-वचन-काया रूप योगों का भी त्याग होने पर योग संन्यास होता है ।
पू.हेमचन्द्रसागरसूरिजी:धर्म-संन्यास में किसका त्याग होता है?
पूज्यश्री : क्षयोपशम भाव के क्षमा आदि गुण छोड़ने होते हैं । क्षायिक भाव के क्षमा आदि गुण प्राप्त करने होते हैं ।
__नई सीढ़ी पर चढ़ना हो तो पिछली सीढ़ी छोड़नी ही पड़ती है । पुरानी सीढ़ी को पकड़ी रख कर आप नई सीढ़ी प्राप्त नही कर सकते ।
* प्रभु की शान्त मुद्रा देखते ही मरुदेवी माता के भीतर समस्त भूमिकाएं तीव्रता से आती गई और अन्त में निर्विकल्प अवस्था प्राप्त करके उन्हें केवल ज्ञान प्राप्त हो गया ।
* प्रभु योग - क्षेमंकर कहलाते हैं ।
आगे आयेगा - भगवान धर्म का पालन करते हैं, धर्म का प्रवर्तन कराते हैं, स्थिर करते हैं ।
भगवान ऐसे हैं । वे पहले धर्म के साथ योग कराते हैं, फिर स्थिर परिचित कराते हैं और उसके बाद विनियोग कराते हैं ।
ये समस्त भेद-प्रभेद अभी बताने की आवश्यकता क्यों ? अभी तो कोई सिद्ध नहीं करने हैं, परन्तु इसलिए जानने हैं कि यह सब जानकर इच्छा तो प्रकट हो । इच्छा प्रकट हो जाये तो भी काम हो जाये ।
* तीन योग :
नमुत्थुणं से इच्छायोग । (२२२Wommmmmmmmmomooooooo कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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नमो जिणाणं से शास्त्रयोग । इक्को वि नमुक्कारो से सामर्थ्य योग बताया गया हैं । सामर्थ्य योग के बिना संसार से पार नहीं जा सकते ।
शास्त्र आपको मार्ग बतायेगा, परन्तु उसका अमल आपको ही करना पड़ेगा । यह पुरुषार्थ प्रबल होने पर क्षपक श्रेणी हो, सामर्थ्य योग प्रकट हो और संसार से पार उतर सकें ।
सामर्थ्य योग हमें अनुभव-दशा में लीन होने का कहता है । ___ 'शब्द अध्यात्म अर्थ सुणीने, निर्विकल्प आदरजो रे । शब्द अध्यात्म भजना जाणी, हाण ग्रहण मती धरजो रे ॥'
- पूज्य आनन्दघनजी शब्द अध्यात्म अर्थात् अध्यात्म शास्त्र । अजैन इसे शब्द ब्रह्म कहते हैं । शब्द ब्रह्म से पर-ब्रह्म प्राप्त किया जा सकता है । शास्त्र दृष्टि से शब्द-ब्रह्म को जान सकते हैं और अनुभव दृष्टि से पर-ब्रह्म का आनन्द प्राप्त कर सकते हैं ।
पू. हेमचन्द्रसागरसूरिजी : शब्द ब्रह्म अर्थात् शास्त्रयोग, परब्रह्म अर्थात् सामर्थ्य योग । ठीक है न ?
पूज्यश्री : हां, ऐसे ही ।
साधक बनना हो तो सीधा अनुभव में (असंग में) नहीं जाया जा सकता । प्रारम्भ तो प्रीतियोग से ही करना पड़ेगा ।
वाह ! वाह ! ऐसे भगवान ? ऐसे आचार्य ? यदि ऐसे शब्द निकलें तो समझें कि प्रीतियोग में आपका प्रवेश हो गया ।
पू. यशोविजयजी की चौबीसी देख लें। आप को प्रेम-लक्षणा भक्ति प्रतीत होगी । यही प्रीतियोग है । प्रीति भक्ति को उत्पन्न करेगी । प्रीति-भक्ति जागृत होने पर 'वचन योग' आयेगा ही, शास्त्र के प्रति प्रेम उत्पन्न होगा ही। .
शास्त्रों के प्रति हमें प्रेम नहीं है। इसका अर्थ यह हुआ कि हमें भगवान के प्रति प्रेम नहीं है। भगवान पर प्रेम हो और उनके वचनों (शास्त्रों) पर प्रेम न हो, यह असम्भव है ।
* वचन और असंग अनुष्ठान जुड़े हुए हैं । वचन योग आने पर असंग योग आने लगता है ।
. असंग योग ही अनुभव दशा है । (कहे कलापूर्णसूरि -
३ awwwwwwwwwwww000 २२३)
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अनुभव दशा का वर्णन सुनकर डरें नहीं ।
अन्य कुछ न कर सको तो प्रभु का प्रेम तो कर सकते हैं न ? परन्तु उसके लिए अन्य प्रेम छोड़ना पड़ता है । एक पत्नी भी 'बालक' किसका ? ऐसा पूछेगे तो उसके पिता का नाम देगी, क्योंकि सम्पूर्ण प्रेम वहां समर्पित कर दिया है । वह स्वयं को कदापि आगे नहीं करेगी ।
प्रभु के प्रति समर्पित व्यक्ति भी कदापि अपना नाम आगे नहीं करता ।
गौतम स्वामी कितने समर्पित होंगे ? भगवान के कहने से वे श्रावक को मिच्छामि दुक्कडं देने गये थे ।
हमने समर्पण भाव खो दिया । इस लिए न तो भगवान की शक्ति प्राप्त कर सकते हैं, न गुरु की ।
* जो शून्य बन गये वे ही पूर्ण बन गये ।
* ये भगवान ही हमें सब देते हैं, अन्यथा इस समय हम पर कौन रहा ?
बादल घिर आये हैं, अतः शीघ्र समाप्त करता हूं ।
।
30 पूज्यश्री तो तीर्थंकर-तुल्य हैं। उनके मुंह से निकला
हुआ शब्द यदि पुण्यानुबंधी पुण्य बांधा हो तो ही सुनने को मिलता है।
___ मैं तो नित्य वांकी में वाचना में से आकर कहती - 'जिनालय में त्रिशलामाता के दुलारे वर्धमान स्वामी हैं, जबकि त्रिशला भवन में खमा देवी के दुलारे तीर्थंकरतुल्य पूज्यश्री है ।।
तब कदाचित् सभी शब्द नहीं भी सुने हों, परन्तु इस पुस्तक में रहे शब्द पढ़कर ऐसा ही होता है कि मानो पढ़ते ही रहें । पुस्तक पढ़े बिना चैन भी नहीं पड़ता ।।
- साध्वी मुक्तिप्रियाश्री
(२२४Boooooooooooooooooon कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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SSES
ANDROINISTRATIONPARDAMOMASHANGA
SSESSION
मद्रास पदवी प्रसंग, वि.सं. २०५२, माघ शु. १३
१७-८-२०००, गुरुवार
भाद्र. कृष्णा -२
* २५०० वर्ष व्यतीत होने पर भी संघ आज भी जयवंत है । संघ गुण-रत्नों की खान है ।
तीर्थंकर 'नमो तित्थस्स' कह कर जिसे नमस्कार करते हैं, वह संघ क्या अन्य व्यक्तियों के लिए पूजनीय नहीं है ? इसकी गुण-गरिमा का वर्णन अन्य कौन कर सकता है ? चौदह पूर्वघर एवं केवली भी भगवान का वर्णन नहीं कर सकें, उस संघ की क्या बात ? क्योंकि संघ तो तीर्थंकरो के लिए भी पूजनीय है।
पू. धुरन्धरविजयजी म. : 'नमो तित्थस्स' इतना पूजनीय होने पर भी नवकार में इसका स्थान क्यों नहीं है ?
पूज्यश्री : संघ में नवकार है । नवकार में संघ है । पंच परमेष्ठी कहां से उत्पन्न होते हैं ? इसी संघ में से ही तो उत्पन्न होते हैं न ?
पांचों पद तीर्थ रूप भी हैं । 'सिन्दूर-प्रकर में' संघ का महत्त्व बतानेवाला श्लोक देख लें ।
अरिहन्त संघ को इसलिए नमस्कार करते हैं कि मुझे तीर्थंकर बनाने वाला यह संघ है । हमें दीक्षा प्रदान करने वाले गुरु हैं, कहे कलापूर्णसूरि - ३ 66655555 S ane 6 २२५)
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परन्तु उन गुरु को दीक्षा प्रदान करने वाले उनके गुरु हैं । इस प्रकार आगे चलने पर भगवान आयेंगे ।
आकाश में तारे कितने हैं ? रोहणाचल में रत्न कितने हैं ? उस प्रकार संघ में गुण कितने हैं ? 'इत्यालोच्य विरच्यतां भगवतः संघस्य पूजाविधिः ।'
__- सिन्दूर प्रकर हमें शक्ति मिल रही है वह संघ का प्रभाव है । नवकार में संघ को नमस्कार कैसे आया ?
तीर्थंकर को नमन करने से तीर्थ को नमस्कार आ ही गया । शेष परमेष्ठी स्वयं तीर्थरूप हैं । नवकार में संघ को (तीर्थ को) नमस्कार आ ही गया है। अतः अलग नमस्कार की आवश्यकता नहीं है।
तीर्थंकर स्वयं तीर्थंकर भी हैं और तीर्थ भी हैं । तीर्थंकर स्वयं मार्गदाता भी हैं और मार्ग भी हैं । देखें भक्तामर -
_ 'त्वामेव सम्यगुपलभ्य जयन्ति मृत्यु ।
नान्यः शिवः शिवपदस्य मुनीन्द्र पन्थाः ॥' मरुदेवी माता को तीर्थंकर के आलम्बन से ही केवलज्ञान प्राप्त हुआ है न ? मरुदेवी माता ने तीर्थंकर को देखे और प्रभु का ध्यान लग गया ।
इसीलिए अन्य लिङ्ग अथवा अतीर्थ सिद्ध की बात आये वहां भगवान या भगवान का नाम आलम्बन के रूप में समझ लें । उपादान स्वयं ही पुष्ट निमित्त के बिना कार्यकारी बन नहीं सकता । पू. देवचन्द्रजी की बात (उपादान आतम सही रे, पुष्टालंबन देव) अच्छी तरह याद रखें ।
उपादान एवं उपादान कारणता भिन्न वस्तु हैं । हम उपादान हैं, परन्तु उपादान कारणता अभी तक प्रकट नहीं हुई है। उसे तो प्रभु ही प्रकट कर सकते हैं । 'उपादान कारणपणे रे, प्रगट करे प्रभु सेव' ।
- पूज्य देवचन्द्रजी एक भी प्रतिमा लकड़े अथवा पत्थर में से अपने आप बन
(२२६ 000000000000000000 कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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गई हो तो बतायें । एक भी जीव अपने आप मोक्ष में गया हो तो बतायें । और, एक भी गुण अपने आप प्राप्त किया हो तो बतायें।
पू. धुरन्धरविजयजी म. : निसर्ग समकित कैसे ? पूज्यश्री : निसर्ग को ध्यान-योग में भवनयोग कहा है ।
करण में उपदेश होता है। भवन में प्रत्यक्ष उसकी आवश्यकता नहीं होती । अधिकतर भवन में भी पूर्व जन्म के गुरु तो कारण होते ही हैं । मरुदेवी माता को चाहे पूर्व जन्म के गुरु नहीं थे, परन्तु उस जन्म में तो भगवान का आलम्बन मिला ही था ।
संघ का उपकार अत्यन्त अधिक हैं । हमें चतुर्विध संघ के सदस्य नहीं मिले होते तो यह कक्षा सम्भव ही नहीं हो सकती थी । धार्मिक माता आदि नहीं मिली होती तो अपनी दशा कैसी होती? कतिपय आत्मा तो गर्भ में होते हैं और माता उपधान करती है । कितने-कितने विधि-विधान के संस्कार गर्भावास से ही प्राप्त होते हैं । उसके बाद स्तन-पान आदि के द्वारा, परिवार-शिक्षक आदि के द्वारा भी संस्कार प्राप्त होते हैं । इसीलिए कृतज्ञता के स्वामी तीर्थंकर संघ को नमन करते हैं। उनकी योग्यता अन्य जीवों की अपेक्षा सर्वोत्कृष्ट हैं ।
__ भगवान की अनुपस्थिति में इक्कीस हजार वर्षों तक संघ ही शासन चलाता है। अतः नवकार में पंच परमेष्ठियों को नमस्कार संघ को ही नमस्कार है ।
आप और आपकी पेढ़ी (दुकान) एक ही गिनी जाती है । दुकान का लाभ आपको ही मिलता है, उस प्रकार तीर्थंकर एवं तीर्थं एक ही गिने जाते हैं । तीर्थ अर्थात् भगवान की दुकान । यह दुकान आज भी चल रही है। जिस प्रकार आपकी अनुपस्थिति में मुंबई में इस समय भी दुकान चल रही है ।
* ढाई द्वीप की सुंई के अग्र भाग जितनी भी ऐसी जगह नहीं है, जहां से अनन्त सिद्ध नहीं हुए हों । अनन्त-अनन्त काल व्यतीत हो गया अतः अपहरण आदि के द्वारा समुद्र, नदी आदि स्थानों से भी अनन्त सिद्ध हो चुके हैं । .
पू. धुरन्धरविजयजी म. : मेरु पर्वत की चोटी खाली न रह जाये ? मेरु शिखर तो उर्ध्व लोक गिना जाता है न ?
कहे कलापूर्णसूरि - ३ 60mmoooooooooooooo २२७)
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पूज्यश्री : सब भरा हुआ है । कहीं भी स्थान रिक्त नहीं है। कुबडी विजय (अधोलोक) में से सिद्ध हो सकता है तो उर्ध्वलोक में से क्यों नहीं हो सकता ?
पू. धुरन्धरविजयजी म. : क्या गृहस्थ संघ में आते हैं ?
पूज्यश्री : श्रावक-श्राविका संघ में आते है। उनका जन्म चाहे अजैन कुलों में हुआ हो । श्रावक-श्राविका बनने के पश्चात् ही साधु-साध्वी बन सकते हैं । __हम गुण प्राप्त न करें तो हम भी संघ से बाहर गिने जायेंगे, यह भी याद रखें । यह निश्चय-नय की बात है, परन्तु व्यवहार तो व्यवहार नय से ही चलता है ।
यह संघ कितना उदार है ? आप को कितना देता है ? सम्पत्ति एवं पुत्र तक भी शासन को समर्पित कर देता है ।
संघ स्वयं पच्चीसवां तीर्थंकर है । इसीलिए संघ के दर्शन अर्थात् भगवान के दर्शन ।
* पंचसूत्र' में साधु के सात विशेषण हैं । उन्हें पढ़ोगे तो ध्यान आ जायेगा कि साधु कैसे होते हैं ? साथ ही साथ यह भी ध्यान आयेगा कि हम कैसे हैं ?
ऐसे साधु स्वयं तीर्थ स्वरूप हैं । 'तीर्थभूता हि साधवः ।' संघ गुणयुक्त है अर्थात् साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका गुणयुक्त
ऐसे गुणवानों की स्वयं भगवान प्रशंसा करते हैं ।
_ 'जास पसंसइ भयवं दृढ़वयत्तं महावीरो ।'
दुर्योधन को एक भी गुणवान नहीं दिखाई दिया । युधिष्ठिर को एक भी दुर्गुणी दृष्टिगोचर नहीं हुआ। हमारे पास यदि युधिष्ठिर की आंखे होंगी तो संघ में गुणवानों के दर्शन होंगे ।
संघ गुणवान् है । इसका अर्थ यह हुआ कि इसमें से असंख्य तीर्थंकर होने वाले हैं। आज भी तीर्थंकर नाम-कर्म निकाचित किये हुए असंख्य देव हैं, महाविदेह में भी हैं।
पू. धुरन्धरविजयजी म. : क्या निकाचित हो सकते हैं ?
पूज्यश्री : निकाचित हुए हैं या नहीं, यह तो ज्ञानी ही जान सकते हैं, परन्तु आपके गुरुदेव पूज्य पं. भद्रंकरविजयजी गणि (२२८ Wwwwwwwwwwwwwww कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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के लिए ऐसी कल्पना हो सकती है कि वे निश्चित रूप से किसी भगवान की आत्मा होंगे ।
गुणवान् को पहचानने के लिए गुणवान और ज्ञानी को पहचानने के लिए ज्ञानी बनना पड़ता है । उन्हें पहचानने वाले कितने ?
आनन्दघनजी को पहचानने वाले कितने थे ?
पूज्य उपा. यशोविजयजी स्वयं भी आनन्दघनजी को पहले कहां पहचानते थे ?
* गुरु की भक्ति में भी संघ की ही भक्ति है ।
यह संघ ४८ गुणों से युक्त है - २७ साधु के तथा २१ श्रावक के, कुल ४८ गुण हुए ।
आकाश में तारों की गिनती नहीं हो सकती, उस प्रकार संघ के गुणों की गिनती नहीं होती । कलिकाल में, पतन के काल में, ऐसा सब नहीं होता, यह न मानें । अब भी आचार्य, युग प्रधान आदि यहीं से ही होंगे ।
हमने ऐसे भाविक अपनी आंखों से देखे हैं जो माता-पिता की तरह साधु-साध्वीजी की भक्ति करते हैं । एक दिन गोचरी लेने के लिए यदि नहीं आयें तो अप्रसन्न हो जाते हैं - 'महाराज ! कोई वहोरने नहीं आया ?'
हम कहते हैं : 'आये थे न ?' वे कहते हैं : 'आये थे, परन्तु कोई गोचरी ग्रहण नहीं की।'
हम दक्षिण में दूर तक जाकर आये हैं, परन्तु कही भी कोई कष्ट नहीं हुआ । यह संघ ही था न भक्ति करने वाला ?
पूज्य धुरन्धरविजयजी म. : बड़ो का पुण्य बड़ा होता है। बड़ो की बात नहीं है, संघ की निष्ठा कितनी हैं वह देखें ।
यदि संघ के प्रति भक्ति न हो तो करोड़ो रूपये कौन खर्च कर सकता है ? अभी ही लाकडिया से धनजीभाई ने सिद्धाचल का संघ निकाला था । जिसमें दो करोड़ रूपयों से अधिक खर्च किये और यहां आकर उन्हों ने इक्कीस लाख रूपये जीवदया में लिखाये ।
मालशीभाई : यहां जीवदया में डेढ़ करोड़ रूपये एकत्रित
कहे
३0ornoonamooooooomnp २२९
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रूपयों की बात नहीं है, उनकी निष्ठा देखो । संघ ऐसी भक्ति करता हो तो अपना कर्त्तव्य क्या है ? .
क्या आपके गुरु महाराज पू.पं. भद्रंकरविजयजी म. याद आये बिना रहते हैं ? वे रात-दिन संघ की चिन्ता करते थे कि मेरा संघ टुकड़ों में विभाजित क्यों हो? एकता के प्रयत्न में सफलता नहीं मिलती तो भी तनिक भी हताश हुए बिना वे पुण्य बढ़ाने की ही बात करते थे ।
इस संघ की भक्ति वे द्रव्य से करते हैं, हमें भाव से करनी है । इसी लिए शास्त्रों का अध्ययन करना है। अतः चतुर्विध संघ की तरह द्वादशांगी भी तीर्थ है । द्वादशांगी का अध्ययन तीर्थ की ही भक्ति है । आप यदि अपना ज्ञान दूसरों को नहीं देते हैं तो अपराधी हैं ।
मैं यदि आपको कोई शास्त्र-पदार्थ नहीं दूं, आडी-टेढ़ी बातों में समय व्यतीत कर दूं तो अपराधी बनता हूं ।
संघ की भक्ति तीर्थंकर की भक्ति गिनी जायेगी। __ पंच परमेष्ठी स्वयं ही संघ रूप होने से भिन्न रूप से 'नमो तित्थस्स' कहने की नवकार में आवश्यकता नहीं पड़ी । अन्य प्रकार से कहूं तो नवकार में 'नमो तित्थस्स' का ही विस्तार है ।
* 'णमो सुअस्स' ऐसा भगवती के प्रारम्भ में आया है ।
‘णमो सुअस्स' में तीर्थ आ गया, क्योंकि श्रुत (द्वादशांगी) स्वयं तीर्थ है। इस तीर्थ की सेवा करने वाला तत्त्व प्राप्त करेगा ही । ___ 'तीरथ सेवे ते लहे, आनंदघन अवतार'
- पूज्य आनन्दघनजी पूज्य धुरन्धरविजयजी म. : अतः व्याख्यानकार बनना ही न ?
पूज्यश्री : व्याख्यानकार बनने का नहीं कहता, गीतार्थ बनें ।
पूज्य प्रेमसूरिजी म., पू. मुक्तिविजयजी म. एवं भानुविजयजी म. दोनों का व्याख्यान सुन कर कहते - इसमें क्या आया ? शास्त्रीय पदार्थ तो कुछ भी नहीं आया । पूज्य प्रेमसूरिजी महाराज नहीं होते तो क्या आप तैयार होते ? (२३० Ww
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जितने आचार्य मिले, उन सबकी हमें यही सलाह थी कि आगमों को कदापि भूलें नहीं ।
आवश्यक नियुक्ति, अनुयोग द्वार, नन्दी ये आगमों की चाबियां हैं । वे हाथों में आ जायें तो समस्त आगमों के ताले खुल जायेंगे । अखबार पढ़कर व्याख्यानकार बनने के भ्रम में न रहें । शास्त्रीय पदार्थ चाहिये ।
पूज्य पं. भद्रंकरविजयजी म. का मनोरथ था कि एकत्रित संघ में मैत्री आदि का वातावरण कैसा जमे ?
इस समय ये सब बातें युवान मुनि एवं बाल मुनि सुनते हैं । भविष्य में ये भी बड़े होंगे न ? वे ऐसा वातावरण सृजन करने का प्रयत्न करेंगे ।
संघ की भक्ति करने से क्या फल मिलता है ?
सिंदूर-प्रकर-प्रणेता कहते हैं कि निष्काम भक्ति करोगे तो तीर्थंकर पद इसका फल है ।
इससे बड़ी पदवी कौन सी है ? पू. धुरन्धरविजयजी म. : क्या सिद्धों की पदवी बड़ी नहीं है ?
पूज्यश्री : सिद्ध तो हैं ही, परन्तु तीर्थंकर बन कर सिद्ध क्यों न बनें ? चक्रवर्ती - देवेन्द्र के फल तो आनुषंगिक फल हैं । मुख्य फल तो तीर्थंकर पद एवं सिद्ध पद हैं ।
हम भी श्रावक-श्राविकाओं को स्थिरीकरण, उपबृंहणा आदि के द्वारा संघ-भक्ति कर सकते हैं ।
आठ दर्शनाचारों में प्रथम चार स्व के लिए हैं । अन्य चार संघ के लिए हैं ।
इस पुस्तक में पूज्य आचार्य भगवन् के उद्गारों व की आनन्दानुभूति हुई और जीवों के प्रति मैत्री-भाव एवं करुणा से ओतप्रोत सुवाक्य देखने को मिले ।
__ - साध्वी पद्मदर्शनाश्रीश
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V. IN
प्रवचन फरमाते हुए पूज्यश्री
१८-८-२०००, शुक्रवार
भाद्र. कृष्णा -३
* यहां 'नमुत्थुणं' में नाम आदि चार में से भाव तीर्थंकर को नमस्कार किया है । 'लोगस्स' में नाम तीर्थंकर को, ‘अरिहंत चेइआणं' में स्थापना तीर्थंकर को और 'जे अ अइआ' में द्रव्य तीर्थंकर को नमस्कार किया है ।
समवसरण में नाम आदि चारों भगवान उपस्थित होते हैं ।
अपना आत्म-द्रव्य भगवन्मय बने वही द्रव्य तीर्थंकर गिने जाते हैं । यहां भूत-भावी पर्याय रूप द्रव्य नहीं लेना है । यद्यपि भूतभावी का कारण भी आत्म-द्रव्य ही बनेगा न ?
* ध्याता जिसे ध्येय रूप में रखे, वह उस रूप में बन जाता है । पुद्गल को ध्येय के रूप में रख कर चेतन ने बहुत मार खाई है। अब यदि बचना हो तो परमात्मा को ध्येय बनाओ।
परमात्मा में हम रंग नहीं लगाते, इसका अर्थ इतना ही है कि हम पुद्गल में रंग करते हैं ।
जीव-विचार आदि सबका अध्ययन करें, सबको समझें, परन्तु यदि 'स्व' में कुछ भी न घटित करें, सब अन्य में ही घटित करें । हम कोरे ही रहें, इसका अर्थ क्या ?
(२३२ 000000000006
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प्रभ की जो सम्पत्ति प्रकट है, हमारी वह तिरोहित है। प्रभु एवं हमारे बीच में इतना ही अन्तर हैं । 'आविरभाव थी सकल गुण माहरे, प्रच्छन्न भावथी जोय ।'
- पद्मविजयजी आत्म-सम्पत्ति को प्रकट करने के लिए प्रभु की शरण में जायें, चार का शरण स्वीकार करें । यह शरण स्वीकार करते ही प्रभु अपना हाथ पकड़ लेंगे और आत्म-सम्पत्ति प्रकट होगी ।
इन प्रभु ने तो कष्टों को सहन करके भी दुःखी जीवों को भव से पार उतारे हैं । प्रभु करुणा-सागर हैं । एक घोड़े को बचाने के लिए मुनिसुव्रत स्वामी ने एक रात्रि में ६० (योजन) ४८० मील पैठण से भरुच तक का विहार किया था । भगवान के साथ अन्य मुनि आदि भी होंगे न? परन्तु भगवान आदि इसमें कष्ट नहीं देखते थे।
हम शिष्य मिलते हों, प्रतिष्ठा या नाम मिलता हो तो विहार करते हैं । यहां तो शिष्य नहीं, परन्तु घोड़ा था । करुणा के अतिरिक्त अन्य कारण क्या था विहार का ?
* किसी भी नाम से, किसी भी रूप में, किसी भी अनुष्ठान से प्रभु को पकड़ लें । प्रभु आपका उद्धार करने के लिए तत्पर हैं । अपनी कठिनाई यह है कि किसी को समर्पित नहीं होते । देव-गुरु अथवा धर्म किसी को भी समर्पित नहीं होते । यह स्वतन्त्रता ही मोह की पराधीनता है, यह हम नहीं जानते । गुरु की परतन्त्रता से ही मोह की पराधीनता दूर होती है । पूज्य पंन्यास भद्रंकरविजयजी म. यह बारबार समझाते थे ।
* भगवान तो पहले से ही परोपकार-व्यसनी होते हैं - 'आकालमेते परार्थव्यसनिनः ।' परोपकार का व्यसन सहज रूप से हो वे ही तीर्थंकर बन सकते हैं ।
* एक दुकान में चार फोन हों, किसी भी नम्बर पर फोन लगायें तो दुकान के साथ सम्पर्क हो सकता है न ? यहां भी नाम आदि चार भगवान हैं । किसी भी एक को पकड़ें, भगवान पकड़ में आ जायेंगे ।
हाथी ने बिना गुरु की प्रेरणा के उस शशक (खरगोश) को बचाया और वह मेघकुमार बना । (कहे कलापूर्णसूरि - ३ 000000000000000 २३३)
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'सव्वे जीवा न हंतव्वा' भगवान की इस आज्ञा का यहां अनजाने भी पालन हो गया तो भी फल कैसा अद्भुत मिला ?
__ अनन्त बार दुःख भोगना हो तो ही किसी जीव को सताना । इसे उल्टा कर यह भी कहा जा सकता है कि आपको अनन्त सुख चाहिये तो दूसरे को सुख देना ।
* तथाभव्यता की परिपक्वता के लिए शरणागति आदि तीन हैं। भगवान की स्तवना करने से उनके गुणों की अनुमोदना हुई । पाप की गर्दा न करें तो वह प्रगाढ़ बनती है उस प्रकार पुण्य की अनुमोदना न करें तो वह प्रगाढ़ नहीं बनता ।
पाप का अनुबन्ध तोड़ने के लिए सुकृत-अनुमोदना है ।
अपने अनुष्ठान ही ऐसे हैं, जिनमें कदम-कदम पर ये तीनों गुथे हुए ही हैं, चाहे हम जानें कि नहीं जानें । अनजाने भी भोजनपानी ग्रहण करते हैं तो भी शक्ति मिलती ही है न ?
* 'स्वाध्याय में मन लगता है, क्रिया में नहीं ।' कल एक व्यक्ति ने मुझे एक प्रश्न पूछा था । मैं कहता हूं कि ज्ञान के बिना क्रिया व्यर्थ है । उस प्रकार क्रिया के बिना ज्ञान भी व्यर्थ है । आप कदापि एकांगी न बनें । पूज्य मुनिचन्द्रसूरिजी : "क्रियाहीनं च यज्ज्ञानं, ज्ञानहीना च या क्रिया । अनयोरन्तरं ज्ञेयं, भानुखद्योतयोरिव ॥'
- ज्ञानसार ज्ञानसार के इस श्लोक में क्रिया से ज्ञान का अधिक महत्त्व क्यों दिया गया है ?
पूज्यश्री : जिनके जीवन में ज्ञान न हो उन्हें इस प्रकार समझायें, परन्तु क्रिया न हो उसे दूसरी तरह से समझाना पड़ता है।
* पत्र में पता लिखो, परन्तु उस व्यक्ति को पहुंचे ही नहीं तो उस पत्र का मूल्य कितना ? भगवान का नाम लें और भगवान के साथ अपना जुड़ाव न हो तो उस नाम-ग्रहण का मूल्य कितना? सोचें । आप यह न भूलें कि नाम आदि के द्वारा आखिर भगवान के साथ जुड़ाव करना है ।
[२३४ oooooooooooooooooooo कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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* 'भग' के १४ अर्थ है, परन्तु यहां 'भग' के ६ अर्थ लेने हैं - ऐश्वर्य, रूप, यश, लक्ष्मी , धर्म और प्रयत्न - इन छ: को 'भग' कहा जाता है । जिनमें ये छ:ओं सर्वोत्कृष्ट रूप में हो वह भगवान कहलाता हैं । १. ऐश्वर्य : इन्द्र जैसों के द्वारा भगवान की भक्ति तथा अष्ट
महाप्रातिहार्यादि भगवान का ऐश्वर्य है । रूप : जगत् भर के तीनों काल के इन्द्र भी भगवान के अंगूठे के समान रूप भी नहीं बना सकते । शायद बना लें तो भगवान के सामने कोयले के समान प्रतीत होता है। भगवान का ऐसा रूप भी उपकार के लिए ही होता है। यह देखने के लिए सम्यग्दृष्टि जीव उतावल करते हैं । अरे ! उनकी मूर्ति देखकर भी भक्त पागल हो जाते हैं । 'अमीय भरी मूर्ति रची रे, उपमा न घटे कोय । शान्त सुधारस झीलती रे, निरखत तृप्ति न होय ॥'
- पूज्य आनंदघनजी संप्रति महाराजा के समय के बिम्ब देखो, आपका मन नाच उठेगा । भगवान की मूर्ति भी इतनी मनोहर हो तो भगवान कैसे होंगे ? ३. यश : संसार में कोई ऐसा व्यक्ति नहीं है, जिसका यश भगवान
की तुलना कर सके । राग-द्वेष आदि अन्तरंग शत्रुओं को जीत कर भगवान ने यह यश प्राप्त किया है । यह यश भी क्षणिक नहीं है, परन्तु सदाकाल रहने वाला होता है ।
भगवान के पास राग-द्वेष आदि जीतने की उत्कृष्ट शक्ति होती है। इसीलिए वर्धमान 'महावीर' के रूप में पहचाने गये हैं। भगवान का यश भी लोगों के लिए आनन्द-दायक होता है । जीवन में कुछ न हो और यश फैलाने का प्रयत्न करें तो लोग दुत्कारते हैं - धत्, ऐसे मम्मण का नाम कहां लिया ?
भगवान का या गौतम स्वामी जैसे का नाम हम लेते हैं क्योंकि उनका जीवन साधना से समुज्ज्वल था । .
गौतम स्वामी का नाम तो आज भी मुनिगण गोचरी जाने से पहले लेते हैं - (कहे कलापूर्णसूरि - ३00ooooooooooooooooo® २३५)
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'यस्याऽभिधानं मुनयोऽपि सर्वे, गृह्णन्ति भिक्षा-भ्रमणस्य काले ।
मिष्टान्नपानाम्बरपूर्णकामाः, स गौतमो यच्छतु वाञ्छितं मे ॥' . ४. लक्ष्मी : केवलज्ञान रूपी उत्कृष्ट लक्ष्मी भगवान के पास है।
ज्ञान का आनन्द अद्भुत होता है। उसकी किसी दूसरे पदार्थ के साथ तुलना नहीं कर सकते ।। 'ज्ञानमग्नस्य यच्छर्म, तद्वक्तुं नैव पार्यते ।'
- ज्ञानसार आत्मा के एक-एक प्रदेश में अनन्त गुण हैं । एक एक गुण का आनन्द कितना ? जैसे प्रत्येक मिठाई का स्वाद अलग होता है वैसे प्रत्येक गुण का आनन्द भी अलग-अलग होता है। कौन जाने भगवान कितना ही आनन्द अनुभव करते होंगे ।
घेवर, अमृती, गुलाबजामुन, रसगुल्ला, पेठा, मलाई की पुड़ी आदि प्रत्येक का स्वाद अलग-अलग होता है न ? यै सब मीठे हैं, परन्तु अन्तर भी है। उस प्रकार भगवान के केवल ज्ञान, केवल दर्शन आदि का आनन्द अलग-अलग होता है, यह कभी सोचा
बाह्य पदार्थों से होने वाली तृप्ति नश्वर है । ऐसे गुणों से होने वाली तृप्ति ही अनश्वर है, ऐसा यशोविजयजी का कथन है।
प्रभु के गुण हम में चाहे पूरे प्रकट न हों, उनका क्षयोपशम हो थोड़े-बहुत प्रकट हों और जो आनन्द उत्पन्न हो वह भी ऐसा होता है कि शब्दों में कहा नहीं जा सकता ।
ज्ञान-ध्यान आदि में मग्न रहें, फिर जो आनन्द उत्पन्न होगा वह अवर्णनीय होगा । पंचसूत्रकार ने साधु का सुन्दर विशेषण दिया
_ 'झाणज्झयणसंगया ।' साधु ध्यान एवं अध्ययन में संगत होता है । ध्यान से थक जायें तो ज्ञान, ज्ञान से थक जायें तो ध्यान में मग्न रहें । जहां ये दोनों होंगे वहां चारित्र होगा ही। चारित्र अर्थात् स्थिरता । 'चारित्रं स्थिरतारूपम् ।'
- ज्ञानसार ३/८ ऐसी स्थिरता सिद्धों में भी होती है। कोई आगम में सिद्धों
(२३६ 0
omooooooooooooom कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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को जो चारित्र-विहीन कहा गया है उससे घबराये नहीं । स्थिरता रूप चारित्र सिद्धों में भी होता है । आगमों में सिद्धों को अवीर्य कहा गया है जो बालवीर्य की अपेक्षा से कहा गया है । आत्मवीर्य तो अनन्त है ही ।
मन अस्थिर होने का अर्थ यही है कि हम स्वभाव छोड़ कर विभाव में गये, कषाय में गयें
अकसायं खु चारित्तं, कसाय - सहिओ न मुणी होइ
- बृहत् कल्पभाष्य बारह कषायों के क्षय-उपशम से ही यह चारित्र आता है। संज्वलन कषाय को भले छोड़ दें, परन्तु बारह कषायों का क्षयोपशम तो करना ही पड़ेगा ।
अनन्तानुबंधी का उदय हो वहां दूसरे कषायों का क्षयोपशम नहीं होता, नहीं हो सकता ।
अनन्तानुबंधी का उदय हो वहां मिथ्यात्व होता ही है । मिथ्यात्व नहीं गया और अनन्तानुबंधी की विसंयोगना (क्षय) की हुई हो, तो भी वह स्थिति अन्तर्मुहूर्त से अधिक नहीं रहेगी, क्योंकि उसका बीज (मिथ्यात्व) पड़ा है।
इसीलिए मूल में पलीता लगाये बिना जीत नहीं होगी। सबका मूल मिथ्यात्व है, मिथ्यात्व के कारण होने वाले कषाय हैं ।
अपने आप ये कषाय नहीं जायेंगे । इसके लिए पूरी शक्ति से लड़ना ही पड़ेगा । आपके जैसी आत्मा की मिली हुई सीट ऐसे ये क्यों छोड़ेंगे ?
भगवान ने तो उनसे इतना युद्ध किया, इतना संघर्ष करके उन्हें निकाल दिया कि निराश होकर सभी कषाय चले गये । भागतेभागते वे कह गये कि कोई आपत्ति नहीं, आप नहीं रखेंगे तो हमें रखने वाले दूसरे अनेक हैं ।
(कहे कलापूर्णसूरि - ३ 0000000moooooooooom २३७)
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पू. कनकसूरिजी
१९-८-२०००, शनिवार
__ भाद्र. कृष्णा -४
(पूज्य आचार्यश्री विजयकनकसरिजी की
३६वी स्वर्गतिथि)
पूज्य आचार्यश्री विजयकलाप्रभसूरिजी :
* गुरु के बिना भगवान नहीं मिल सकते । गुरु के बिना पद-प्रतिष्ठा आदि किसी का भी मूल्य नहीं है ।
महाराजा कुमारपाल को गुरु-भक्ति के पास राज्य तुच्छ लगता था । पूज्य कनकसूरिजी में भीम और कान्त दोनों गुण थे, जिन्हें आप 'नेगेटिव-पोजिटिव' रूप में कह सकते हैं। उनके पास कुनेहपूर्ण दृष्टि थी । समाधान करने की, उत्तर देने की उनके पास एक विशिष्ट कला थी । वे सामने वाले व्यक्ति की पूरी बात सुनते थे, परन्तु एक घंटे भर की बात का उत्तर सिर्फ एक ही वाक्य में होता, ऐसी संक्षिप्त अर्थ-गम्भीर युक्त वाणी के वे स्वामी थे, जिसे सुनकर अत्यन्त बुद्धिमान व्यक्ति भी प्रभावित हो जाते थे । जितनी संक्षिप्त बात कही जाये उतनी ही वह प्रभावशाली बनती है ।
गुरु अर्थात् गरिमा एवं गौरव का केन्द्र ! तीर्थंकर की अनुपस्थिति
२३८00mammoooooooooooo कहे
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में गुरु ही तीर्थंकर गिने जाते हैं ।
'पंचसूत्र' में सुन्दर वाक्य है कि 'यदि आपको मित्र के रूप में किसी को रखना हो तो गुरु को ही रखें । गुरु ही आपके कल्याण-मित्र बन सकते हैं ।'
परिस्थिति बदलने की सलाह देने वाला मित्र है । मनःस्थिति बदलने की सलाह देने वाला कल्याण-मित्र
मम्मण को पूर्व भव में कैसा मित्र मिल गया था ? कल्याणमित्र मिला होता तो शायद मम्मण का इतिहास भिन्न होता ।
परिस्थिति कर्म के कारण बनती है, परन्तु उससे आपको बदलने की आवश्यकता नहीं है ।
इसीलिए मनःस्थिति बदलाने वाले कल्याण मित्र का संयोग आवश्यक हैं । चंडकौशिक को भगवान महावीर नहीं मिले होते तो क्या दुर्दशा होती ?
कल्याण मित्र को प्रत्येक घटना के केन्द्र में रखें तो कदापि अकल्याण (अहित) नहीं होता ।
गुरु एक तत्त्व है, व्यक्ति नहीं । गुरु की सेवा से तत्त्वों की प्राप्ति होती है ।
अपन (हम) तो सगुरु हैं, नगुरे नहीं हैं। यह पूज्य आचार्यश्री विजयकनकसूरिजी जैसे गुरुदेवों को आभारी हैं । पूज्य आचार्यश्री विजयकलापूर्णसूरीश्वरजी म. : _ 'गुरु-भक्ति-प्रभावेन, तीर्थकृद्दर्शनं मतम् ।
समापत्त्यादिभेदेन, निर्वाणैकनिबन्धनम् ॥' आज हमें एक ऐसे महापुरुष को याद करने हैं जो मात्र कच्छ अथवा गुजरात में ही नहीं, गुप्त रूप से समग्र भारत के जैनों में छाये हुए थे । गुप्त रूप से इसलिए कहता हूं कि उन्हों ने प्रसिद्धि के लिए कोई भी प्रयत्न किया नहीं था, किसी समाचारपत्र आदि में उनकी खबर छपती नहीं थी ।
हम जितने उनके गुण गायेंगे, उतने गुण हममें प्रकट होंगे। यदि हम दोष बोलते हैं तो दोष आते हैं, गुण गायें तो गुण आते हैं। हमें जो चाहिये वह बोलना है । जिस वस्तु को खरीदनी कहे कलापूर्णसूरि - ३00aoooooooooooooooo २३९)
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हो उस दुकान में ही जाते हैं न ? इसीलिए कुसंगति का इनकार किया है । बुरा पड़ोस हो वहां रहने का भी इनकार किया है। क्या आप जानते हैं कि मार्गानुसारी में यह भी एक गुण हैं ? भुज की वाणियावाड़ में आप जायेंगे तो आपको समस्त जैन ही देखने को मिलेंगे । वहां कुसंगति शीघ्र नहीं आ सकती ।।
अभी आषाढ़ कृष्णा ६ के दिन पूज्य दादाश्री जीतविजयजी महाराज का जीवन देखा । आज उनके ही प्रशिष्य महापुरुष को याद करना है।
उनका जीवन ही व्याख्यान था । उन्हें कुछ कहने की आवश्यकता नहीं रहती थी ।
संवत् १९३९ की भादों कृष्णा पंचमी को पूर्व कच्छ के पलांसवा गांव में चंदुरा नानजीभाई - नवलबेन के घर उन महापुरुष का जन्म हुआ था । गृहस्थ-जीवन का उनका नाम कानजीभाई था ।
उस समय उंगली के वेढों पर गिने जा सकें उतने ही संविग्न पूज्य साधु-साध्वीजी थे ।
पूज्य पद्मविजयजी ने यति परम्परा छोड़ कर संवेगी दीक्षा ग्रहण की थी । उनके शिष्य थे पूज्य जीतविजयजी महाराज !
पूज्य जीतविजयजी महाराज की आज्ञावर्तिनी विशुद्ध संयमी पूज्य साध्वी आणंदश्रीजी की दृष्टि में पलांसवा-निवासी ये कानजी बस गये । विनय-व्यवहार आदि देख कर ये भावी शासन-प्रभावक प्रतीत हुए ।
हरिभद्रसूरिजी को तैयार करनेवाली याकिनी महत्तरा साध्वी थी । उस प्रकार इन महापुरुष को तैयार करने वाली आणंदश्रीजी साध्वी थी।
उनके ही संसारी चाचा हीरविजयजी पहले से ही दीक्षित थे, जिनके परिवार में एक दीक्षित हो तो दूसरे की भी इच्छा होती ही है । मालशीभाई ! आपके परिवार में से कितने दीक्षित हुए ?
मालशीभाई : कुछ कहने जैसा नहीं है ।
सर्व प्रथम कानजीभाई साध्वीजी आणंदश्रीजी के सम्पर्क में आये । साध्वीजी की प्रेरणा ने उनमें वैराग्य का बीज बोया ।
कानजी की आत्मा संसार के कैद में से छूटने के लिए तड़प रही थी । उन्हों ने दीक्षा ग्रहण करने का दृढ़ संकल्प किया । (२४० 56 GB GS 5 GS 6 6 6505666 कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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कतिपय व्यक्ति दृढ़ संकल्प वाले होते हैं - 'देहं पातयामि कार्यं वा साधयामि ।' उनके समान दृढ़ संकल्प वालों से ही यह शासन चला है ।
दृढ़ संकल्प वाले कुमारपाल जैसे एकाध आत्मा ने क्या किया ? यह हम जानते हैं कि अहिंसा तो मेरी माता है । इसका पालन मेरे देश में होना ही चाहिये ।
कसाइयों और मच्छीमारों ने शिकायत की तो उन्हें तीन वर्षों के लिए आजीविका बांध दी, परन्तु अहिंसा का प्रवर्तन तो कराया ही ।
दृढ़ संकल्प क्या नहीं कर सकता ? अपना संकल्प सिद्ध करने के लिए ही उन्हों ने युवावस्था में चौथे व्रत की प्रतिज्ञा स्वीकार की ।
वि. संवत् १९९२ की माघ शुक्ला-१५ के शुभ दिन भीमासर में २३ वर्ष की युवा-आयु में उनकी दीक्षा हुई ।
पलांसवा के ठाकुर की बुद्धिमान् कानजी को बैरिस्टर बनाने की इच्छा थी, परन्तु भावी जैनाचार्य बनने वाले कानजीभाई ने ऐसी ओफर सादर ठुकरा दी ।
दीक्षा अंगीकार करने के बाद विनय, विवेक, त्याग, वैराग्य आदि गुणों की वृद्धि होने के साथ ज्ञानवृद्धि भी होने लगी ।
विनयपूर्वक सीखी हुई विद्या विवेक उत्पन्न करती है ।
विवेक वैराग्य लाता है, वैराग्य विरति लाता है, विरति वीतरागता लाती है और वीतरागता विदेह-मुक्ति प्रदान करती
विनय, विवेक, वैराग्य जहां हों वहां वीतरागता दूर नहीं रहती । यहां (पालीताणा) आने के बाद दादा कितने दूर ?
वि. संवत् १९७५ में उन्हें सिद्धिंसूरिजी के कर-कमलों से पंन्यास पदवी दी गई थी । पूज्य मेघसूरिजी उनके खास सहपाठी
थे ।
पूज्यश्री ने अनूपचंद मलूकचंद नामक श्रावक के पास अध्ययन करने के लिए भरुच में खास चातुर्मास किया था ।
पूज्यश्री ने पूज्य सागरजी महाराज के पास कपड़वंज, पाटण (कहे कलापूर्णसूरि - ३ 60saawwwwwwwwws २४१)
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आदि स्थानों पर आगमों की वाचनाएं भी ली थी ।
__पंन्यास पदवी लेकर पूज्यश्री पलांसवा पधारे तब पूज्य जीतविजयजी म. स्वयं भी श्रावकों के साथ सामैया में आये थे और कारण बताते हुए बताया था कि मैं तेरे लिए नहीं, तेरे पद का सम्मान करने के लिए आया हूं ।
गुरु का कितना वात्सल्य होगा ? शिष्य की कैसी भक्ति होगी ?
ये ऐसे प्रसंगो से ज्ञात होता है । 'चंदा विज्झय' में वर्णित बात 'विनय सीखना है, ज्ञान नहीं । विनय आयेगा तो ज्ञान आयेगा ही' पूज्यश्री में चरितार्थ हुई प्रतीत होगी ।
"गुरु बहुमाणो मोक्खो ', 'पंचसूत्र' की यह बात भी पूज्यश्री में स्पष्ट प्रतीत होगी ।
गुरु के प्रति बहुमान रखना नहीं और हम मुक्ति की आशा रखते हैं । मुक्ति तो क्या मिलेगी ? मुक्ति का मार्ग भी नहीं मिलेगा ।
दशवैकालिक में विनय-समाधि शब्द आते हैं । विनय से ऐसी समाधि, ऐसी प्रसन्नता प्रकट होती है कि जिसकी समानता देव भी नहीं कर सकते ।
पूज्यश्री के विकास का मूल विनय में था ।
उनको नजर से देखने वाले समकालीन साध्वीजी चतुरश्रीजी आदि ने देखा था कि पूज्यश्री में विनय की इतनी पराकाष्ठा थी अपने चार गुरुजनों (दादा गुरु पू. जीतविजयजी, पू. गुरुवर्यश्री हीरविजयजी, पू. सिद्धिसूरिजी, पू. मेघसूरिजी) के मुंह से 'कनकविजयजी ! यहां आओ' इस वाक्य का 'क' अक्षर सुनते ही चाहे जैसा कार्य छोड़ कर, हाथ जोड़ कर वे बालक की तरह विनीत मुद्रा में उपस्थित हो जाते ।
वि. संवत् १९८५ में भोयणी तीर्थ में पूज्य बापजी म., पूज्य सागरजी म. आदि के हाथों आपकी उपाध्याय पदवी हुई और वि. संवत् १९८६ में पूज्य गुरुवर्यश्री हीरविजयजी स्वर्गवासी हुए ।
वि. संवत् १९८९ में अहमदाबाद में आचार्य पदवी हुई ।
दीक्षा के योगोद्वहन से लगाकर सभी योगोद्वहन पूज्य सिद्धिसूरिजी ने कराये थे । (२४२ 00000000000000000000 कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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हमने दीक्षा ली तब पूज्य सिद्धिसूरिजी विद्यमान थे । पूज्यश्री स्वयं २५० साधु-साध्वियों के नायक होते हुए भी पूर्ण रूप से पूज्य बापजी महाराज को समर्पित थे ।
मैं ने स्वयं देखा है
राधनपुर के संघ की चातुर्मास की
विनती थी ।
पूज्य बापजी महाराज ने लिखा
-
'वहां चातुर्मास कर सकते
हैं ।'
यह कोई आज्ञा नहीं कहलाती, यह मान कर उन्हों ने पूज्य बापजी म. की निश्रा में चातुर्मास करने के लिए विहार किया । जेठ महिने की भयंकर तेज गर्मी में पहले ही मुकाम पर (गोचनाद मे) स्वास्थ्य अत्यन्त बिगड़ने के कारण राधनपुर के श्रावक स्वयं पूज्य बापजी म. के पास से आज्ञा - पत्र ले आये । फिर वह चातुर्मास सांतलपुर में हुआ ।
उनका जीवन हमने तो अपनी आंखों से देखा है । आणंदजी जैसे महान् पण्डित आकर किसी की ओर से घंटों तक तर्क करते तब पूज्य श्री का एक ही वाक्य में उत्तर होता, 'आपकी बात सत्य है, परन्तु हम तो पूज्य बापजी म. करते हैं उस प्रकार करते हैं ।' एक घंटे के तर्कों का उत्तर वे एक ही वाक्य में दे देते थे ।
उनकी ब्रह्मचर्य के प्रति निष्ठा कैसी थी ?
राधनपुर में साध्वीजियों को योगोद्वहन कराते समय वेलजीभाई को कहा, 'यहां बैठो ।' कुछ समय के बाद कहा, 'अब जाओ ।' 'परन्तु कारण क्या ?'
'इस समय कोई पुरुष नहीं था, अतः मैं ने आपको यहां बिठाया ।"
हलवद में पूज्य कान्तिविजयजी ने देखा, 'साध्वीजी को वे जो आज्ञा देते, वे तुरन्त 'तहत्ति' करके उसे स्वीकार करते । स्त्रीजाति इतनी आज्ञांकित ?
पूज्यश्री का कितना प्रभाव ?
वे कहते, 'सचमुच, ये तो कलिकाल के स्थूलभद्र हैं । पूज्यश्री को शिष्यों आदि की कोई तमन्ना नहीं थी । उसके (कहे कलापूर्णसूरि ३
OOOOO०००० २४३
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लिए कोई प्रयत्न नहीं किया, परन्तु उनका ध्यान रखनेवाले ऊपर वाले बैठे हैं न ?
गुलाब को कहना नहीं पड़ता कि भौंरो ! तुम आना । तालाब को कहना नहीं पड़ता कि मछलियो ! तुम आना । योग्य व्यक्ति को योग्य पात्र, मिल ही जाता है ।
पूज्यश्री चाहे कहीं भी नहीं गये, परन्तु उनके संयम की सुगन्ध सर्वत्र फैली हुई थी।
मुझे यहां कैसे आना हुआ ? बताऊं क्या ?
दीक्षा लेने की भावना के बाद मैं ने अपने ससुर मिश्रीमलजी को बता दिया, क्योंकि माता-पिता आदि कोई गुरुजन थे नहीं ।
ससुर ने कहा, 'मेरा भी दीक्षित होने का ही विचार है ।' वागड़वाले पूज्य कनकसूरिजी से दीक्षा लेनी है ।
परन्तु मेरी इच्छा पूज्य रामचन्द्रसूरिजी के पास दीक्षा लेने की थी ।
राजनादगांव में स्थित पू. मुनिश्री रूपविजयजी के पास आते पूज्य रामचन्द्रसूरिजी के जैन प्रवचन पढ़कर मुझे वैराग्य हुआ था । गुजराती यद्यपि नहीं आता था तो भी भावार्थ समझ लेता था । उन्हें पढ़ कर संसार की असारता मन में जम गई । संसार बुरा है, ऐसा वर्णन नहीं किया जाये तो कोई इसकी निर्गुणता को नहीं समझेगा ।
दीक्षा का प्रवाह बढ़ा है, यह इन महापुरुषों का प्रभाव है । पूज्य सागरजी म., पूज्य रामचन्द्रसूरिजी आदि महापुरुषों का प्रभाव है।
___अतः मेरा विचार पूज्य रामचन्द्रसूरिजी के पास दीक्षा ग्रहण करने का था, परन्तु ससुरजी ने जब अपनी भावना व्यक्त की, तब मैं भी उससे सहमत हो गया ।
अब यह भी बता दूं कि उन्हें पूज्य कनकसूरिजी के पास दीक्षा लेने की भावना क्यों हुई ?
पूज्य लब्धिसूरिजी का चातुर्मास वि. संवत् १९९६ में फलोदी में था तब उस समय जिन्हों ने संघ निकलवाया था वे जसराज लुक्कड के पिताजी भोमराजजी ने उनकी निश्रा में जैसलमेर का संघ निकलवाया था ।
[२४४000000momoooooooooo कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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एक बार ससुर मिश्रीमलजी के पिताजी ने पूज्य लब्धिसूरिजी को रात्रि में पूछा था कि इस काल में उत्कृष्ट संयमी कौन है ?
उस समय गुण-रागी पू. लब्धिसूरिजी ने पूज्य कनकसूरिजी का नाम दिया था । उस समय कमलविजयजी म. भी वहां थे और उन्हों ने मन में गांठ बांध ली कि दीक्षा लेनी तो इन्हीं महात्मा के पास लेनी ।
दीक्षा ग्रहण करने के बाद लगा कि सचमुच भगवान ने मुझे अत्यन्त ही उचित एवं योग्य स्थान पर लगाया है ।
पूज्यश्री के जितने गुण-गान करें उतने कम हैं ।
उन्हों ने ही हमें जामनगर अध्ययन करने के लिए भेजा था । दो वर्षों के बाद कहलवाया - या तो पाटण जाओ, या अहमदाबाद जाओ, जामनगर छोड़ दो, क्योंकि दो वर्ष हो गये हैं । अधिक समय एक स्थान पर नहीं रहना चाहिये ।
हमें विचार आया कि अब पूज्यश्री के पास ही जाना है । हम पूज्यश्री के चरणों में भचाऊ पहुंचे ।
उस समय पूज्यश्री स्वयं आवश्यक नियुक्ति, आरम्भ सिद्धि आदि पढ़ाते थे तथा पं. अमूलखजी को भी पढ़ाने के लिए रखा ।
परन्तु प्रकृति को मंजूर हो वही होता है ।
हमें गांधीधाम चातुर्मासार्थ जाना पड़ा और डेढ़ महिने में तो दादा परलोक सिधार गये ।
हमें वे सदा के लिए छोड़ गये, परन्तु भक्त को कदापि गुरु का विरह होता ही नहीं है ।
उस समय पू.पं. भद्रंकरविजयजी (वर्तमान में आचार्य) चातुर्मास के लिए आये, अतः हमें अलग होना पड़ा । उस समय उत्तरदायित्व कम थे, अतः अध्ययन आदि अच्छी तरह होता था । जिनके ऊपर ऐसी जवाबदारी नहीं है, उन्हें खास सूचना है कि स्वर्ण अवसर का सदुपयोग कर लो ।
पूज्यश्री ने कालधर्म से २-४ दिन पूर्व ही स्वयं लोच कर लिया था ।
अन्तिम दिन, अन्तिम समय में पूज्यश्री ने 'पंचसूत्र' श्रवण करने की इच्छा व्यक्त की थी। तब से ही मेरा मन 'पंचसूत्र' कहे कलापूर्णसूरि - ३ 6600mwwwwwwwwwwww.00 २४५)
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पर मुग्ध है और इस समय भी व्याख्यान में 'पंचसूत्र' ही चालु है न ?
उस समय उनके पास नित्य रहनेवाली घड़ी भी बंध हो गई थी, मानो वह भी आघात से स्तब्ध हो गई हो ।
(पूज्य कनकसूरिंजी के गुरु-पूजन की बोली हरखचन्द वाघजी, गींदरा, आधोई ।
आज १५०० आयंबिल होंगे। अभी रू. २०/- का संघपूजन है । दोपहर में सामूहिक सामायिक और सायंकाल में कुमारपाल की आरती का कार्यक्रम रहेगा ।)
नीति पर दृढ़ता अमेरिका में बसे एक सज्जन बैंक में डाइरेक्टर के पद पर नियुक्त हुए । उन्हें ग्राहकों को ऋण देने का कार्य सौंपा गया । एक बार ऋण के कागज़ देखने पर ध्यान आया कि इसमें तो कत्लखाने के जैसे कार्य होते हैं और उन्हों ने वह पद छोड़ दिया । छः माह तक बिना नौकरी के बैठे रहना पड़ा । अनेक कष्टों का सामना किया, परन्तु बुरा कार्य छोड़ने का आनन्द उन्हें कष्टों में भी व्याकुल नहीं करता था । वे सद्बुद्धि से श्रद्धा में टिके रहे ।
सुनने में आया कि मछली पकड़ने के जालों की बड़ी फैक्ट्री प्रारम्भ हुई । उसके शेअर जैनों ने भी खरीदे थे। उसमें बुद्धि भी कैसी । श्रद्धा का तो मानो अकाल ही पड़ गया ।
- सुनन्दाबेन वोरा कश
(२४६ Boooooooooooooooooom कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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००
भुज चातुर्मास, वि.सं. २०४३
(१) अपुनर्बंधक
(२) सम्यक्त्वी
*
चतुर्विध संघ स्वयं मुक्ति-मार्ग पर चलता है, अन्य को भी चलाता है, इस चतुर्विध संघ के दर्शन पुण्य की पराकाष्ठा कहलाती है 1 संसार में कितने पुद्गलावर्त गये ? अनन्त पुद्गलावर्त गये । अब भी कितने पुद्गलावर्त बाकी होंगे, यह भगवान जाने ।
कहे कलापूर्णसूरि ३
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PS-M
१९-८-२०००, शनिवार भाद्र कृष्णा-४
यह तीर्थ हमें भूतकाल में भी अनन्त बार मिला होगा, परन्तु अपना उपादान कारण तैयार नहीं था । हमारे भीतर 'दुर्भव्य' बैठा था । आज भी हम कैसे कह सकते हैं कि दुर्भव्य नहीं बैठा । दुर्भव्य को कदापि भगवान की देशना अच्छी नहीं लगती ।
अपुनर्बंधक अर्थात् धर्म का आदि साधक, आदि धार्मिक, जो अब कदापि मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति बांधने वाला नहीं हैं । साधक के चार विभाग हैं :
(३) देशविरत
(४) सर्वविरत
भूमिका देख कर ही देशना देने का विधान है
कwwwwwwww २४७
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सामान्य ग्राहक को उच्च स्तर का माल बताओ तो क्या होगा ? वह ग्राहक उच्च स्तर के माल का मूल्य नहीं दे सकेगा और निम्न स्तर का माल लेने के लिए तैयार नहीं होगा । यहां भी ऐसी ही दशा होती है ।
पूज्य हेमचन्द्रसागरसूरिजी : भगवान पहले सर्वविरति बताते हैं, फिर देशविरति बताते हैं न ?
पूज्य श्री : अन्य दर्शनी को सर्वविरति बताई जाती है । उदाहरणार्थ हरिभद्र भट्ट । परन्तु जो सम्यग्दर्शन प्राप्त किया हुआ है, उसे देशविरति रूप भूमिका के लिए तैयार करके सर्वविरति के लिए योग्य बनायें । एकदम उतावल न करें ।
भवन बनाने से पहले नींव मजबूत करनी पड़ती है न ? सम्यग्दर्शन नींव है; फिर देशविरति और सर्वविरति रूपी मंजिल का निर्माण किया जा सकता है । फिर भी एकान्त नहीं है । उत्तम आत्मा हो तो उसे सर्वविरति भी पहले दी जा सकती है, परन्तु यह ज्ञानियों का विषय है । हम उनकी होड़ (तुलना) नहीं कर सकते ।
* मैं यहां उपदेश नहीं देता । हम सब साथ मिलकर स्वाध्याय कर रहे हैं । जिस प्रकार परिहार विशुद्धि में एक वाचनाचार्य बनता है न ? मैं भी उसी प्रकार से वाचना देता हूं, यह मानें ।
* 'भगवन् ! तेरी आज्ञा का पालन तो दूर रहा, आदर भी हो जाये तो भी काम हो जाये ।' ऐसा भाव भी तारक ( तारणहार) बनता है ।
* 'नमुत्थुणं' के अर्थ जानोगे तो जब उन्हें बोलोगे तब शुभ भाव बढ़ता जायेगा ।
शुभ भाव से सम्यग्दर्शन मिलेगा, मन की प्रसन्नता मिलेगी, जो बाजार में दूसरे कहीं से नहीं मिलेगी । मन की प्रसन्नता समाधि प्रदान करती है । समाधि मुक्ति प्रदान करती है । प्रभु मन की प्रसन्नता भरपेट देने के लिए तैयार हैं, क्योंकि प्रसन्नता का पूर्ण भण्डार भगवान के पास है ।
कल आपको भग के छः अर्थ बताये थे । महत्त्व के अन्तिम
दो अर्थ बाकी हैं ।
२४८ कळकळ
८ कहे कलापूर्णसूरि -
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सांख्य दर्शन, निरसन आदि की चर्चा में गौण करुंगा, क्योंकि इस सभा में इनकी आवश्यकता नहीं है।
* हमारे भीतर गुणों के विविध व्यंजन हैं। विविध मिठाइयों या विविध पदार्थों की तरफ होने वाला आकर्षण सचमुच इसी बात का संकेत है, परन्तु हम यह संकेत समझते नहीं हैं । हम विविध पदार्थों से तृप्त होकर गुणों के प्रति पराङ्मुख रहते हैं ।
'भग' का छठा अर्थ प्रयत्न होता है । (६) प्रयत्न :
प्रभु में उत्कृष्ट पुरुषार्थ होता है । रातभर एक ही पुद्गल पर अनिमेष रहकर प्रभु-साधना करते हैं । आंख तनिक भी झपके नहीं । कितनी भीषण साधना ! कितना भयंकर पुरुषार्थ !
भगवान महावीर की साधना का श्रम तो देखो । भगवान के सिवाय ऐसा श्रम कौन कर सकता है ?
हम तो भरत चक्रवर्ती की तरह केवलज्ञान प्राप्त हो जायेगा, यह मानकर आराम से बैठे हैं ।
भगवान तो परिषह-उपसर्ग अधिक आते हैं त्यों अधिक मजबूत बनते हैं । समुद्घात के समय क्या कम पराक्रम होता है ? इसमें प्रयत्न की पराकाष्ठा होती है। योग-निरोध के समय भी प्रबल पुरुषार्थ होता है । केवलज्ञान होने के बाद भी कितना भव्य पुरुषार्थ ?
सामान्य केवली ही समुद्घात करते है ऐसा नहीं है, परन्तु तीर्थंकर भी समुद्घात करते हैं। आयुष्य तथा कर्म समान स्थिति वाले न हों तो समुद्घात करना पड़ता है ।
यह पुरुषार्थ आत्मवीर्य से प्रकट हुआ है । यहां सर्वत्र समग्र शब्द लगायें ।
ऐश्वर्य, रूप, यश, श्री, धर्म और प्रयत्न के स्वामी भगवान को हमें नमस्कार करना चाहिये ।
पूज्य में जितनी शक्ति है, वह समस्त शक्ति पूजक को मात्र नमस्कार से मिलती है । जिस कम्पनी के आप 'शेअर होल्डर' बने हैं उस कम्पनी का लाभ आपको ही मिलेगा न ?
जिस नमस्कार से ये सब गुण मिलते हैं, उस नमस्कार का मूल्य कितना है ? इस नमस्कार के पीछे भक्ति-भावना का जितना (कहे कलापूर्णसूरि - ३000mooooooommon २४९)
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बल हो, उतना यह नमस्कार शक्तिशाली बनता है । यह नमस्कार आपको 'परम' के साथ जोड़ देता है । जिसे आप नमन करते हैं, उसके साथ आप नमस्कार के माध्यम से ही जुड़ सकते हैं ।
पूज्य कीर्तिसेनसूरिजी : बोधि एवं सम्यक्त्व में क्या अन्तर है ? पूज्यश्री : बोंधि एवं सम्यक्त्व में वैसे कोई अन्तर नहीं है, फिर भी वैसे तनिक अन्तर भी हैं ।
पूज्य हेमचन्द्रसागरसूरिजी : और वरबोधि ?
पूज्यश्री : वरबोधि तो भगवान के पास ही होता है, अन्य किसी को आशा रखनी ही नहीं है ।
पूज्य हेमचन्द्रसागरसूरिजी : हमें भगवान बनना है न ? पूज्यश्री : मनोरथ किसको नहीं होता ? परन्तु बनता कौन
है ?
भगवान का भक्त कदापि भगवान बनने का कोड़ नहीं करता । वह कोड़ करे तो भक्त नहीं बन सकता, परन्तु आप भले ही निःस्पृह रहें, भगवान आपको भगवान बनायेंगे ही । सांख्य-दर्शन आत्म-कर्तृत्व नहीं मानता ।
जैन दर्शन अन्य दर्शनों की तरह जगत्कर्तृत्व नहीं स्वीकार करता, परन्तु सम्यग्दर्शन आदि गुणों में निमित्त रूप से भगवान कर्त्ता है, यह जैन दर्शन मानता है । साधना के लिए यह मानना आवश्यक है । 'मैं स्वयं पढ़ा हूं' ऐसा विद्यार्थी कदापि नहीं कहता । गुरु ने पढ़ाया है, ऐसा ही कहेगा । इसी प्रकार से भक्त भी यही कहेगा कि भगवान ने ही गुण प्रदान किये हैं ।
साधना के लिए यह दृष्टिकोण अत्यन्त ही आवश्यक है । यह दृष्टिकोण नहीं रख कर अनेक व्यक्ति भूले पड़ गये हैं । आत्मा सर्वथा अकर्त्ता है, यह सांख्य दर्शन मानता है । जैनदर्शन आत्मा का कर्तृत्व स्वीकार करता है । कर्म स्वयं आकर नहीं चिपकते । आत्मा शुभाशुभ परिणाम करती है, तदनुसार कर्म चिपकते रहते हैं । अतः जैन दर्शन मानता है कि आत्मा कर्म का कर्त्ता है ।
जैन दर्शन भले सर्वथा जगत्कर्तृत्व स्वीकार नहीं करता, परन्तु इस प्रकार कथंचित् कर्तृत्व स्वीकार करता है ।
२५० WW
wwwwwwwwww कहे कलापूर्णसूरि- ३
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सांख्य दर्शन का कथन है कि आप पुद्गल को ही कर्ता मान लो न ? आत्मा को कर्त्ता मानने की क्या आवश्यकता है ?
हम कहते हैं कि पुद्गलों में चिपकने की योग्यता है, उस प्रकार आत्मा में भी चिपकने की योग्यता है। दोनों में वैसा स्वभाव है । इसीलिए कर्म के साथ सम्बन्ध हो सकता है । * तित्थयराणं ।
भगवान तीर्थ-कारक हैं । * हम आत्मा के गुणों का कर्तृत्व कर नहीं सकते, अतः उनका आरोप पुद्गलों में करते हैं ।
अपने षट्कारक इस समय बाधक बनकर कार्य कर रहे हैं । उन्हें भगवान के आलम्बन से साधक बनाने हैं ।
हम कार्य कर रहे हैं, परन्तु वह कार्य अपना नहीं, पुद्गलों का (शत्रुओं का) कर रहे हैं । अपनी ही शक्ति से शत्रु मजबूत हो रहे हैं, यह कितना आश्चर्य है ?
आपका कारक-चक्र आपको ही बदलना है। यह दूसरा कोई नहीं करेगा ।
दूसरे आदमी ज्यादा से ज्यादा तो आपको परोस देंगे, परन्तु खाने का कार्य तो आपको ही करना पड़ेगा ।
भगवान एवं गुरु मार्ग बताते हैं, परन्तु चलने का कार्य तो आपको ही करना पड़ेगा ।
कर्म-बन्धन का कार्य तो आपने ही किया था न ? कि भगवान और गुरु ने किया था ? अब ये कर्म छोड़ने का कार्य भी आपको ही करना पड़ेगा न ?
यह कार्य दूसरे कर देते होते तो भगवान एक भी जीव को संसार में रहने नहीं देते; संसार खाली हो गया होता ।
पू. हेमचन्द्रसागरसूरिजी : भगवान तो मां है, उसे सब कर देना होगा न ?
पूज्यश्री : मां स्तन-पान कराती है, परन्तु चूसने की क्रिया तो बालक को ही करनी पड़ेगी न? मां का मां के रूप में स्वीकार तो बालक को ही करना पड़ता है न...?
इतना भी करने को तैयार नहीं हो उस बालक को क्या कहें ?
[कहे कलापूर्णसूरि - ३00ooooooooooomnamas २५१)
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हम सब ऐसे हैं ।
* भगवान तीर्थ के आदि स्थापक हैं । इस विशेषण से वेदों का अपौरुषेयपन निरस्त हुआ ।
कितनेक यह मानते हैं कि केवलज्ञान होने पर तुरन्त ही जीव मोक्ष में ही जाता हैं, संसार में रह ही नहीं सकता । इसका खण्डन भी इस विशेषण से होता है ।
सूर्य स्वभाव से प्रकाश देता है, उस प्रकार तीर्थंकर स्वभाव से ही तीर्थ की स्थापना करते हैं । यदि ऐसा न करें तो उनके कर्मों का क्षय नहीं होता ।
जिसके सहारे से जीव तर जाये वह तीर्थ कहलाता है ।
भयंकर मगरमच्छो और मत्स्यो (राग-द्वेष) आदि से भरे हुए इस सागर (संसार) को तरने के लिये तीर्थ (घाट) की आवश्यकता होती है । उसे बांधने वाले तीर्थंकर हैं । जन्म, जरा एवं मृत्यु यहां पानी है।
* निगोद के जीव एक सांस में १७-१/२ बार जन्म-मरण करते हैं । विचार करो कि जन्म-मरण का कितना दुःख है ? ऐसे अनन्त पुद्गल-परावर्त हमारे भूतकाल में गुजरे । अब भविष्य में गुजरना है ? भविष्य का सृजन अपनी आराधना पर आधारित है।
* संसार-सागर में मिथ्यात्व-अविरति की अत्यन्त ही गहराई
भयंकर कषाय रूप पाताल है । मोह का भयंकर चक्रावर्त है । विचित्र दुःख भयंकर जलजन्तु है । राग-द्वेष का पवन खलबली मचाता है ।
प्रबल मनोरथ रूप ज्वार है । * मिथ्यात्व का एक भी अंश होता है तब तक हमें देह में आत्मबुद्धि रहती हैं ।
अपनी आत्मा को पूर्ण रूप में नहीं मानना भी मिथ्यात्व है।
जब तक देह में आत्म-बुद्धि करेंगे, तब तक यह देह बारबार मिलता ही रहेगा ।
(२५२a
moms son
कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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डोली में विहार
२०-८-२०००, रविवार भाद्र कृष्णा - ५
सामुदायिक प्रवचन; विषय : संघ-भक्ति सात चौबीसी धर्मशाला
पूज्य मुनिश्री दर्शनवल्लभविजयजी :
* यह पावन भूमि है । अनन्त सिद्धों की भूमि है । हमारे उपकारी गुरुदेव पूज्य प्रेमसूरिजी लगभग एक सौ वर्ष पूर्व यहीं दीक्षित हुए थे । ऐसी भूमि में ऐसा स्नेहपूर्ण वातावरण उत्पन्न न हो तो अन्यत्र कहां उत्पन्न होगा ?
*
संघ की महिमा अनुपम है । जब तक भरत क्षेत्र में यह संघ रहेगा, चतुर्विध संघ का एक-एक सदस्य भी विद्यमान होगा, तब तक छठा आरा प्रारम्भ नहीं होगा, सूर्य मर्यादा नहीं छोड़ेगा, प्रकृति कुपित नहीं होगी ।
ऐसा संघ हमें मिला हैं । इसकी सफलता किसमें है ? एक घर से दूसरे घर, एक गांव से दूसरे गांव जायें वह यात्रा है । एक भव से दूसरे भव की भी यात्रा ही है । चार गतियों की यात्रा अनन्त बार की । अब यह यात्रा बन्ध कर के
कहे कलापूर्णसूरि ३ कळकळ.wwwwwwwwळ २५३
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परमलोक की यात्रा प्रारम्भ करनी है । इस संघ को प्राप्त करने की यही सफलता है।
पूज्य गणिश्री पूर्णचन्द्रविजयजी : _रेलवे में तीन लाइन होती हैं । अपने मन में तीन लाईन हैं - ब्रोड गेज, मीटर गेज एवं नैरो गेज । 'नैरो लाइन' संकड़ी होती हैं, स्पीड कम होती है और बोझा भी अधिक नहीं उठा सकती।
मीटर गेज उससे चौड़ी, स्पीड़ अधिक और बोझा भी अधिक उठा सकती है, जबकि ब्रोड गेज उससे भी स्पीड़ आदि में अधिक होती हैं ।
मनुष्यों के मन भी तीन प्रकार के होते हैं । कोई मानता है - मैं सुखी होऊं । कोई मानते हैं - हम सुखी बनें । कोई मानते हैं - अपन सुखी बनें । तीर्थंकरों की भावना होती है कि अपन सुखी बनें ।
तीर्थंकर स्वयं इस संघ को नमन करते हैं। इससे ख्याल आयेगा कि व्यक्ति महत्त्वपूर्ण नहीं है, संघ महत्त्वपूर्ण है। संघ भावना, व्यक्तित्व का अहंकार तोड़ डालता है, विशाल भावना पैदा करता है ।
__ भगवान द्वारा स्थापित ऐसे संघ के साधुओं को देख कर क्या अहोभाव जागृत होता है ? 'ण तित्थं विणा निग्गंठेहिं ।' साधुओं के बिना तीर्थ नहीं होता ।
वर्तमान विज्ञान युग में भी एक भी पैसे के बिना, एक भी वाहन के बिना जीवन जीने वाले ये जैन साधु हैं, क्या यह विचार आता है ?
क्या यह लगता है कि भगवान के ये साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका आदि हैं ? संघ तीर्थंकरों का प्रोडक्शन है। पांचों परमेष्ठियों की यह खान है। इस संघ में ज्ञानी, ध्यानी, दानी आदि अनेक गुणवान हैं ।
कल्पवृक्ष का आधार नन्दनवन है, तेज का आधार चन्द्रमा है, उस प्रकार गुणों का आधार संघ है।
एक साधु की साधना सम्पूर्ण जगत् को बचा सकती है । आज भी कुछ ठीक है वह इस संघ का प्रभाव है । (२५४ womansooooooooooooons कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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संघ के द्वारा संघ की भावना उत्पन्न होनी चाहिये ।
किसी भी संघ में होने वाली देवद्रव्य की आमदनी भारत के किसी भी संघ में भेजते हैं । यह है संघ-भावना !
हम जितने संगठित रहेंगे, उतना बल बढ़ेगा । वर्तमान युग में संगठित होने की विशेष आवश्यकता है। 'संघे शक्तिः कलौ युगे ।'
एकत्रित रहेंगे तो बल बढ़ेगा । यदि बिखरे हुए रहेंगे तो टूट जायेंगे ।
'वह संगठन संगठन नहीं, जिसमें फूट हैं ।
वह व्यापार व्यापार नहीं, जिसमें लट हैं । प्रामाणिकता की पूजा तो हर जगह होती है, -
वह धर्म धर्म नहीं, जिसमें झूठ है ।' संघ-भावना की कदर आचार्य भगवान भी करते हैं । इसीलिए वे आपकी चातुर्मास (वर्षावास) की विनती स्वीकार करते हैं ।
पूनड़ ने नागपुर से सिद्धाचल का संघ निकलवाया था तब वस्तुपाल विनती करके उस संघ को धोलका में लाये थे ।
'संघ की उड़ती मिट्टी भी मंगलकारी है ।' यह वस्तुपाल का कथन है । समस्त यात्रियों के पांवों का दूध से प्रक्षाल करके वस्तुपाल सबकी भक्ति करते थे ।
___अंकेवालिया में वस्तुपाल की मृत्य हुई तब १३वां संघ था । तब आचार्य ने कहा था - 'सचमुच, जिनशासन के गगन का सूर्य अस्त हो गया । उस समय उन आचार्य भगवन् ने छ: विगई का त्याग किया था । आप यदि गरीब हैं तो सुपारी - मुहपत्ति आदि से भी इस संघ की भक्ति कर सकते हैं ।
सन्तति का समर्पण करके भी उत्तम श्रमण संघ की भक्ति हो सकती है।
* आपका पुत्र बीमार हो और साधु भी बीमार हो तब पहले आप कहां जायेंगे ?
पुत्र मेरा है परन्तु साधु, उपाश्रय, मन्दिर आदि किसके हैं ? संघ के हैं न ? क्या संघ में आप नहीं हैं ?
कितने ही सामूहिक प्रश्न जल रहे हैं, तब 'मेरे क्या ?' कह कर बैठे नहीं रहते हैं न ? (कहे कलापूर्णसूरि -
३ assooooooooooooom २५५)
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ऐसे संघ की कदापि आशातना न करें । अवर्णवाद करोगे तो बोधि दुर्लभ बनना पड़ेगा ।।
संघ के एक सदस्य की पूजा सकल संघ की पूजा है । संघ के एक सदस्य की हीलना सकल संघ की हीलना है, इतना याद रखें । हृदय में संघ का बहुमान होगा तो जिन शासन की जय जयकार हो जायेगी ।
पूज्य विरागचन्द्रसागरजी :
संघ हमारे माता-पिता हैं । उसके समक्ष चाहे जैसा बोलेंगे तो भी चलेगा ।
जिनके बिना जैन शासन की कल्पना कठिन है, ऐसे उपाध्याय यशोविजयजी के योगविंशिका ग्रन्थ का वाक्य - _ 'विधिसम्पादकानां विधिव्यवस्थापकानां दर्शनमपि
प्रत्यूहव्यूहविनाशनमिति वयं वदामः ।' "विधि-कारकों एवं विधि के व्यवस्थापकों का दर्शन भी विघ्नों के व्यूह के विनाशक है, ऐसा हम कहते हैं ।'
टंकार की भाषा में उपाध्याय महाराज यह बात कर रहे हैं। संघ को हम कहेंगे -
_ 'धन्य क्षणे तव दुर्लभ दर्शन, मधुर वचन तव मंगल स्पर्शन ! रोम-रोम पुलकित अमीवर्षण,
जय जय अम हृदय निवसंत ।' आप यह न माने कि संघ के सदस्य प्रभावना के लिए दौड़ते हैं । बिना प्रभावना के मात्र दर्शन के लिए यहां प्रत्येक रविवार को दौड़े आते हैं, जो आप देखते हैं न ?
व्यक्ति अकेला होता है तब सामान्य होता है, परन्तु प्रभु ने आत्म ध्यान से शक्ति प्राप्त करके व्यक्तियों को एकत्रित करके जिसकी स्थापना की उसे हम संघ कहते हैं ।
मिलना ही सम्बन्ध है । Meeting is relationship | अनेक बार मिलना अर्थात् क्या ? यह समझे बिना ही हम अलग हो जाते हैं, बिखर जाते हैं ।
प्रभु ने सूत्र दिया - ‘एगे आया ।' (२५६ W0mmonomonamoonamon कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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प्रभु ने अपने व्यक्तित्व को एक किया ।
हे सिद्धो ! आप एक हैं, संगठित हैं । हम पर संगठितता एवं एकता की वृष्टि करो ।
तन्तुओं से बना रस्सा हाथी को भी बांध सकता है ।
लकडियों के भारे को पहलवान भी तोड़ नहीं सकता । हमारी एकता बाह्य एवं अभ्यन्तर विघ्न का नाश कर सकती है ।
'आत्मवत् सर्व भूतेषु' 'अप्पसमे मनिज्ज छप्पि काए ।' 'सर्व जीवों को अपनी आत्मा के समान मान ।'
'जं हंतुमिच्छसि अप्पाणमेव जाणाहि ।' जिसे मारना चाहते है वह तू स्वयं है, यही मानना ।
यह संवेदनशीलता की पराकाष्ठा है ।
संघ में शामिल होने से पूर्व हम सामान्य थे । हमारी शक्तियां सुषुप्त थीं । व्यक्ति के रूप में हम सब सामान्य होते, परन्तु प्रभु ने हमें संगठित किये, विशिष्ट बनाये ।
प्रत्येक आत्मा में आप अपना प्रतिबिम्ब देखें । समाना हृदयानि - वेद
'अप्पा सो परमप्पा' आत्मा ही परमात्मा है - ऐसा प्रभु का कथन है । प्रभु-भक्त बाद में बनना, पहले भक्त के भक्त बनें । भगवान का भक्त अर्थात् चतुर्विध संघ ।
दूध एक ही होता है। तेजाब मिलने पर फट जाता है। शक्कर मिलने पर मधुर बनता है। हमें क्या बनना है ? तेजाब बनना है कि शक्कर ?
आप एकतावादी बनें, विभाजनवादी नहीं ।। एकता के सूत्रधार संघ को अनन्त नमन ।
चन्द्रकान्तभाई : भादौं शुक्ला ६ को सामूहिक रथयात्रा निकलेगी । तीन-चार रथ होंगे। भादौं शुक्ला ५ को सामूहिक क्षमापना एवं चढ़ावे (बोलियां) होंगे । आमदनी आणंदजी कल्याणजी पेढ़ी में जायेगी।
भादौं शुक्ला ६ के साधर्मिक वात्सल्य का सम्पूर्ण लाभ पार्वतीबेन हरखचन्द वाघजी गींदरा, आधोई (कच्छ) की ओर से लिया गया है। (कहे कलापूर्णसूरि - ३ Wommswwwwwwwwws २५७)
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पू. धुरन्धरविजयजी म. : आज पर्युषण पूर्व का अन्तिम रविवार है । पर्युषण के बाद में भी यह चालु रखने के लिए प्रयत्न करें । सभा पूरी होने से पूर्व आज कोई उठे नहीं । जो खड़ा होगा उसे सभा तोड़ने के लिए पाप लगेगा । यह विनय है - पू. आचार्य भगवान के बाद ही उठना है ।
पू. मुनिश्री उदयप्रभविजयजी म. : गुण, पर्याय, उम्र आदि में अनेक गुरुजन नीचे हैं, उनसे क्षमा याचना करता हूं । शायद क्षमा याचना न करूं तो भी मैं कसूर (Fault) में नहीं हूं । संघ की आज्ञा से बैठा हूं । __ घर छोड़े बिना अणगार नहीं बना जाता ।
मन को छोड़े बिना अच्छा शिष्य नहीं बना जाता ।
कदाग्रह एवं स्वतन्त्रता छोड़े बिना संघ-सेवक नहीं बना जाता ।
जिसे न्याय करना आता है वही संघ की एकता कर सकता
जो स्वार्थ छोड़े, सादगी अपनाये, वही संघ का नेता बन सकता है।
वस्तुपाल को संघ की पूजा करते समय पसीना छूट रहा था, तब उन्हों ने कहा था कि इस समय मैं जन्म-जन्म की थकावट उतार रहा हूं । यह सादगी है, यह बहुमान-सूचक हैं ।
कितनेक श्रावक आज भी लोच आदि कराते हैं । यह सादगी संघ का बहुमान है । वह तप, ज्ञान आदि क्षेत्र में कच्चा हो तो भी यह संघ बहुमान से मुक्ति प्राप्त कर ले ।
भिन्न-भिन्न समुदायों में गोचरी एवं वन्दन का व्यवहार न हो यह भेदभाव नहीं है, परन्तु एक व्यवस्था है ।
सच्चा न्याय कौन कर सकता है ? जो अपने घर रहे हुए व्यक्ति को अयोग्य व्यवहार से रोक सकता है, वही न्याय कर सकता है।
सर्व प्रथम एकता एवं मैत्री का प्रारम्भ घर से होना चाहिये । बड़प्पन धन के आधार पर नहीं, गुणों के आधार पर है ।
एकता के लिए अपनी मान्यता भी एक ओर रखनी पड़ती है । उस प्रकार हम एक बनें ।
[२५८onnamonommmmmmmmmmo0 कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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इस समय दिखाई देने वाली एकता सिर्फ शब्दों में न रहे, जीवन में उतरे वैसी अपेक्षा है ।
पूज्य आचार्यश्री विजयकलापूर्णसूरिजी :
भगवान द्वारा स्थापित यह संघ दीर्घ काल तक जगत् का मंगल करे वैसी शक्ति भगवान ने स्थापित की है ।
'धम्म-तित्थयरे जिणे ।' सम्पूर्ण विश्व को केवलज्ञान के प्रकाश से भर देनेवाले ये प्रभु उपकारों की वृष्टि करते हैं वह स्वभाव से ही है । सूर्य की तरह उपकार करना उनका स्वभाव है ।
इस संघ पर कितना बोल सकते है? हमारी शक्ति परिमित है। स्वयं तीर्थंकर भी वह नहीं सकते । मात्र 'नमो तित्थस्स' कह कर बैठते हैं । इतने में क्या नहीं आया ?
'मुझसे भी पूजनीय यह संघ है।' संघ को नमस्कार करके स्वयं तीर्थंकरो ने यह कह दिया ।
धुरन्धरविजयजी ने पूछा था - 'भगवान से भी पूज्य हो उस संघ का स्थान नवकार में प्रथम क्यों नहीं ? अन्त में भी क्यों नहीं ?
मैं ने कहा, 'नवकार संघ से बाहर नहीं है । नवकार में संघ को नमस्कार है ही । तीर्थंकर स्वयं कहते हैं कि आप इस तीर्थ को नमस्कार करो ।'
इस शाश्वत मन्त्र में हम क्या भूल निकाल सकते हैं ? अपनी बुद्धि कितनी है ?
___ 'नमो' शब्द प्रथम है, जो तीर्थंकर बनने की कला है। यह कला आपको तीर्थंकर बनाती है। जितने तीर्थंकर बने हैं, वे इसी प्रकार संघ की भक्ति से ही बने हैं ।
चतुर्विध संघ खान है, जिसमे पांचौं परमेष्ठी तैयार होते हैं ।
जब तीर्थंकर गृहस्थ जीवन में थे तब भी उनके माता-पिता किसी तीर्थंकर के श्रावक-श्राविका ही थे । अर्थात् संघ में से ही तीर्थंकर तैयार होते हैं ।
इस संघके गुण-गान करने की शक्ति नहीं है, फिर भी गुणगान करते हैं, ताकि संघ के ऋण से कुछ मुक्त हो सकें । . जीर्णोद्धार मात्र जिनालय या उपाश्रय का ही नहीं, चतुर्विध
(कहे कलापूर्णसूरि - ३ 6000oooooooooooooo00 २५९)
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संघ के किसी भी सदस्य का भी हो सकता है । यह भी संघ की भक्ति है । उन्हें आप गुणों के मार्ग में आगे बढाएं यह भी संघ-भक्ति है । यदि गुणवान की प्रशंसा नहीं करो तो अतिचार लगते हैं ।
'संघमांही गुणवंततणी अनुपद्व्हणा कीधी ।' संभवनाथ भगवान पूर्व के तीसरे भव में अकाल के समय में श्री संघ की भक्ति करके ही तीर्थंकर बने थे । यह संघ-भक्ति तीर्थंकर की माता है । .
* दीन-दुःखियों का उद्धार आदि नहीं किया जाये तो दोष लगता है, लोगों में भी निन्दा होती है । वे उत्सव करते हैं परन्तु गरीबों की परवाह नहीं है । इसी लिए वस्तुपाल ऐसी दानशालाओं का निर्माण कराते थे जिनमें जैन-अजैन सभी भोजन करते थे ।
मद्रास की प्रतिष्ठा के समय अजैनों को भी बादाम की कतली आदि दी गई थी । उन्हें लगा कि जैनों ने पहली बार हमें इस प्रकार याद किया ।
__ संघ में कई बार सम्पूर्ण गांव के लोगों को निमन्त्रण दिया जाता था । उनका अन्न पेट में जाने पर स्वाभाविक तौर से ही वे जैन धर्म के प्रति अनुरागी बनते थे ।
अपूर्णता की दृष्टि से यदि हम देखेंगे तो कमियां (त्रुटियां) ही प्रतीत होंगी, परन्तु विशाल दृष्टि से गुण ही दिखाई देंगे । मुझे तो इस संघ के गुण ही दिखाई देते हैं । यहां १६०० ठाणे हैं । किसी को वस्त्र, पात्र, वसति, अन्न आदि का कोई कष्ट हुआ ? श्रावकश्राविकाएं शायद वापिस गये होंगे, परन्तु क्या किसी साधु-साध्वी को वापिस जाना पड़ा ? क्या यह संघ का प्रभाव नहीं है ?
किसी पुण्योदय से यहां एकत्रित हुए हैं तो उत्तम कार्य हो सकेंगे।
मैत्री का ऐसा माहौल बना है, वह मात्र बोल कर नहीं, जीकर बतायेंगे तो उसका प्रतिबिम्ब सर्वत्र पड़ेगा ही ।
___ कदाचित् यह प्रयत्न सफल नहीं हो तो भी मनोरथ तो निष्फल नहीं ही जायेगा । भविष्य के लिए मैत्री का यह वातावरण बीज रूप बनेगा । (२६० Wwwwwwwwwwwwwwwwww कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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तीर्थंकर भी जिसको नमस्कार करते हैं, इसका अर्थ यही कि इस संघ से अधिक कोई पूजनीय नहीं है।
नमो अरिहंत + आणं = अरिहन्त की आज्ञा को नमस्कार । आज्ञा अर्थात् तीर्थ ! संघ ! 'आणाजुत्तो संघो ।'
अब नवकार में संघ आया कि नहीं ? यदि मेरी बात असत्य हो तो मुझे लौटा दो ।
मैं तो अनुभव करता हूं कि सभी बातें नवकार में मिलती जाती हैं । इसीलिए नवकार को छोड़ कर अन्य कोई आलम्बन लेने की इच्छा नहीं होती।
बीज छोटा होता है परन्तु उसका विस्तार कितना विशाल होता है ? क्या आपने कोई बड़ा बरगद देखा है ?
पू. धुरन्धरविजयजी : कबीर वड़ एक किलोमीटर बड़ा है।
पूज्यश्री : हमने लुणावा में विशाल बरगद का वृक्ष देखा है, जिसके नीचे दीक्षा आदि प्रसंग होते थे ।
इस बरगद का मूल छोटा बीज होता है ।। इस जैन-शासन रूपी विशाल वट-वृक्ष का मूल बीज 'नमो'
नमो को उलटा करो तो ओम् (न) होगा । (ओम) ॐ में पंच परमेष्ठी हैं । यही बीज है । षोड़शाक्षरी, सप्ताक्षरी मन्त्र इसमें से ही बनते हैं ।
'महानिशीथ' जैसे में कहा है - 'यह नवकार तो पंच-मंगलमहाश्रुत-स्कंध है।
आकाश कहां नहीं है? आकाश नहीं हो ऐसी जगह बताओगे ? जगह अर्थात् आकाश ।
यह नवकार कहां नहीं है? यह आकाश की तरह सर्व व्यापी
इस संघ के पास जब तक यह नवकार है, देव-गुरु-वन्दन है, तब तक कल्याण होता ही रहेगा ।
प्रातः संघ-भक्ति का उत्कृष्ट कार्यक्रम गिरिविहार में रहा । समय के अभाव से मैं भले तनिक जल्दी उठ गया । जल्दी उठने के कारण ही यहां आ सका, अन्यथा अभी तक आ नहीं सकता था ।
कहे कलापूर्णसूरि - ३00oooooooooooooooooo २६१)
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हमारे पूर्वज जो यह सम्पत्ति छोड़ गये हैं उसे हमें अधिक समृद्ध बनाकर भावी पीढ़ी के लिए रखनी है ।
* परम तपस्वी पूज्य आचार्य श्री विजय राजतिलकसूरीश्वरजी म.सा. को हमने आंखों से देखे हैं । वे १०० + १०० + ८९ ओली के महान् आराधक थे । यह विक्रम अभी तक कोई तोड़ नहीं सका ।
__ पूज्य आचार्यश्री की आज दूसरी स्वर्गतिथि है । तप-साधना से उनकी आत्मा तो उच्च गति में ही होगी, परम-पद की साधना करती ही होगी, परन्तु अपनी इतनी ही प्रार्थना है कि हम सब पर वे कृपा-वृष्टि करते रहें ।
पू. धुरन्धरविजयजी म. : पूज्यश्री के हृदय में संघ के प्रति अत्यन्त ही आदर-भाव है । आपको सुनाई नहीं दिया हो तो भी शब्दों के आन्दोलन तो आप तक पहुंचे ही हैं ।
नवकार में संघ को नमस्कार क्यों नहीं ? मैं ने यह पूछा था । उन्हों ने आज पुनः उत्तर दे दिया ।
अरिहन्त + आणं - अहँत की आज्ञा को नमन । आज्ञापालक संघ ही है । अरिहन्त से तीर्थ भिन्न नहीं है । साथ ही नमन हो जाता है ।
आपको यह उत्तर पसन्द आ गया न ?
तीर्थंकर एवं तीर्थंकर की आज्ञा कदापि अलग नहीं होते । जहां संघ है, वहां तीर्थंकर हैं ही ।
आचार्यश्री निरन्तर प्रभु में डूबे हुए (निमग्न) हैं । अतः पूज्यश्री मौन रहेंगे, कुछ नहीं बोलेंगे तो भी उनका अस्तित्व मात्र उत्सव बना रहेगा ।
पू. यशोविजयसूरिजी :
मेरे जीवन की यह एक धन्यतम घटना है । चतुर्विध संघ के दर्शन अहोभावपूर्वक करने को मिले । एक भी सदस्य को प्रभु के मार्ग पर जाते देखकर आंखे हर्षाश्रुओं से छलक उठती
संघ के दर्शन मात्र अहोभाव से भीजे नेत्रों से ही किये जा सकते हैं । कभी-कभी विहार में घंटों तक नेत्र भीगे रहते हैं ।
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आपको एक गांव की घटना बताता हूं - हम वहां प्रातः आठ बजे पहुंचे । श्रावकों की विनती हुई - उपाश्रय में पधारें, गोचरी लेने के लिए पधारें । दो घर होते हुए भी अपार भक्ति । परमात्मा की प्रतिमा नैनाकर्षक थी ।
__ मैं अभक्त हूं, अतः परमात्मा की प्रतिमा कहता हूं । वास्तव में तो परमात्मा ही कहना चाहिये । मुझे लगता हैं - ‘मन्दिर में नहीं, समवसरण में बैठा हूं।'
- ज्ञानविमलसूरि आपको क्या कभी मन्दिर में समवसरण याद आता है । __ शंखेश्वर - अहमदाबाद का वह मार्ग, निरन्तर साधु-साध्वीजियों के विहार चालु रहते हैं ।
हम विहार करके गये, इतने में ही फिर दस साध्वीजी आये । साथ में डोली आदि के आदमी भी थे ।
उनकी भी इतने ही प्रेम एवं आदर से भक्ति की । विहार के समय कहते - 'गुरुदेव ! मेरे आंगन में पगले करने पड़ेंगे ।' ___ मैं ने कहा, 'तेरे वहां पगले नहीं करूंगा तो कहां करुंगा ?'
दुकान में ५-७ हजार का माल देख कर लगा, 'क्या कमाता होगा ? क्या वहोराता होगा ?
परन्तु भीतर श्राविका ने रोटियों की थप्पी उठाई । मैं चकित हो गया । मैं गोचरी जाता तब कभी कभी गोचरी बढ़ भी जाती । दूसरा सब गिनती में आता, परन्तु भक्ति का वजन गिनना रह जाता ।
एक बजे साइकल वाले को गांव की भक्ति के विषय में पूछने पर उसने कहा, 'आज मुझे मेरी मां याद आई, माता के प्रेम से उन्हों ने मुझे भोजन कराया है ।
दोपहर में तीन बजे चाय के लिए विनती आई । मैं ने पूछा : 'आपका कैसे चलता है ?'
'प्रभु की कृपा से तथा आपकी कृपा से, आप कल्पना करो उसकी अपेक्षा भी अधिक सरलता से जीवन-नैया चलती है।'
___ 'एक काम कर । हमारी तो तू भक्ति करेगा, परन्तु हमारे साथ वाले आदमियों की भक्ति तू बाहर से कर, बिल हमारे पास भेज देना, शहर के लोगों को लाभ मिलेगा ।'
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'नहीं, साहेब ! ऐसा नहीं हो सकेगा। जो चौबीसों घंटे आपकी सेवा करते हैं, उनकी सेवा क्या हम नहीं करें ?'
यह उनका उत्तर हृदय पर प्रहार करे वैसा था ।
'Week End हो तब Hill Station पर न जाकर ऐसे किसी गांव में जाकर देखें। भक्ति दिखाई देगी ।' ऐसा धनाढ्यों को कहने का मन हो जाता है ।
मुझे तो ऐसी अनेक श्राविका-माताएं मिली हैं। ग्यारह वर्ष की उम्र में दीक्षा ग्रहण की है, अनेक माताओं का स्नेह मिला है।
अधिक मुझे कुछ नहीं कहना है । समय बुरा है । हम में भी दोष हो सकते हैं । परन्तु आप उन्हें नजर अंदाज करें । गुण देख कर प्रसन्न होकर कृतार्थ बनें ।
पूज्य हेमचन्द्रसागरसूरिजी : प्रथम से अन्त तक बीच में झटके लगाने वाले Open Batsman मुनिश्री धुरन्धरविजयजी अन्त में बोलते हैं ।
पूज्य मुनिश्री धुरन्धरविजयजी :
पालीताणा चातुर्मास निश्चित हुआ तब विचार आया कि वहां जाकर प्रभु की आराधना में लीन रहेंगे, परन्तु यहां आने पर सबकी ओर से इतना प्रेम मिला कि बार बार आपके समक्ष आना पड़ा ।
प्रभु-संघ का अत्यन्त ही महत्त्व है, जिसकी कल्पना नहीं हो सकती । जो कोई ऊंचे आये हैं वे संघ को हृदय में स्थान देकर ही आये हैं ।
स्वयं से संघ को जिन्हों ने अधिक माना वे ही वस्तुपाल, तेजपाल, कुमारपाल आदि बन सके हैं । झांझण मन्त्री बड़ा संघ लेकर कर्णावती (वर्तमान अहमदाबाद) आये । वीर धवल के वंशज सारंगदेव राजा थे । मन्त्री को कहा : 'आप भोजन करने आयें, साथ में अच्छे व्यक्तियों को लायें ।'
झांझण : 'यहां सभी अच्छे व्यक्ति हैं । एक को भी छोड़ कर नहीं आ सकता । सब को भोजन करा सको तो ही मैं आ सकता हूं।
राजा : 'मेरी यह शक्ति नहीं है ।'
झांझण : 'सम्पूर्ण गुजरात को मैं भोजन कराऊंगा, आप पधारें।' (२६४
Desses कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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झांझण ने दस दिनों तक गुजरात को भोजन कराया, उसके बाद भी मिठाइयों के भण्डार भरे पड़े थे ।
संघ के साथ ऐसा सम्बन्ध जोड़ने के बाद ही आगेवान बना जा सकता है । जिसे संघ का छोटा बच्चा भी प्रिय लगे वही आगेवान बन सकता है ।
ऐसे आगेवान थे । तब बड़े सम्राट् भी श्री संघ के कार्य कर देते थे । वर्तमान दशा बदल गई है । आज तो छोटा सा अधिकारी भी जैन संघ को दबा सकता है । इसका कारण यह है कि व्यक्ति स्वयं को संघ की अपेक्षा बड़ा गिनता है ।
कच्छ-सौराष्ट्र आदि के संघ सल्तनत के सामने भी खड़े हो जाते थे, क्योंकि संघ - भावना थी ।
लालभाई दलपत की माता गंगा मां के घर साधु-साध्वियों की अद्भुत भक्ति रहती थी । उनके घर तीन सौ तीन सौ तो पात्रों की जोड़ी रहती थी, वे भी रंगी हुई होती थी ।
गंगा मां के पुण्य से ही सेठियों की सेठाई बची हुई है । जिन ट्रस्टियों को संघ के प्रति प्रेम एवं आदर भाव नहीं है, उनका पुण्य बढ़ता नहीं है, जिससे उन्हें किसी भी कार्य में सफलता मिलनी कठिन हो जाती है ।
-
चतुर्विध संघ के प्रति आदर चाहिये । यही इस संघ की रक्षा कर सकता है ।
संघ अत्यन्त उदार है । छोटे से कार्य का भी बड़ा प्रतिसाद देता है । वावपथक का उदाहरण देता हूं । मार्ग में चलते भिखारी को कुछ देने की मैंने बात कही और दो मिनट में ढाई लाख रूपये एकत्रित हो गये ।
* संघ के प्रति अहोभाव दुश्मनी भी तोड़ डालता है । नागपुर से संघ लाने वाला पूनड मोयुद्दीन का मंत्री था । वस्तुपाल वीर धवल का मंत्री था ।
दोनों के बीच की दुश्मनी श्रावक के नाते टूट गई । अपने हाथ से वस्तुपाल ने उसके संघ की भक्ति की थी । यहीं श्री संघ है, जिस में से शासन स्तम्भ उत्पन्न हुए हैं और होंगे । बाहर से नहीं आये । इसी संघ में से आये हुए हैं ।
कहे कलापूर्णसूरि ३
कwwwwwwww २६५
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अभी-अभी हो चुके महान आचार्यों के नाम गिनाऊं ? -
तीर्थों के उद्धारक पू. नेमिसूरिजी - दूर दूर के तीर्थों के उद्धारक पूज्य नीतिसूरिजी, संघ स्थविर पूज्य सिद्धिसूरिजी, आगमोद्धारक पूज्य सागरजी, श्रमण संस्था के उद्धारक पूज्य प्रेमसूरिजी, पूज्य रामचन्द्रसूरिजी, श्रावक संघ के उद्धारक पूज्य वल्लभसूरिजी आदि ।
सबने अपनी-अपनी तरहसे अत्यन्त ही लगन एवं रुचि से प्रयत्न किया है।
पूज्य पं. श्री भद्रंकरविजयजी, पूज्य पं. श्री अभयसागरजी, पूज्य आचार्यश्री विजय कलापूर्णसूरिजी जैसे साधक इस संघ में से ही मिले है।
पूज्य आचार्यश्री विजय राजतिलकसूरिजी ने वर्धमान तप की २८९ ओली की । इतिहास में ऐसा उदाहरण मिलता नहीं है ।
वागड़ समुदाय के एक साध्वीजी पुष्पचूलाश्रीजी ने तीसरी बार ओली की अवश्य थी, फिर भी इस संख्या को लांघ नहीं सके ।
इन महात्मा का अन्तिम से पूर्व का चातुर्मास यहीं हुआ था । उस समय अत्यन्त तपस्या हुई थी। इस समय तो अनेक आचार्य हैं अतः तपस्या बहुत अधिक होनी चाहिये ।।
दो वर्ष पूर्व गिरधरनगर - अहमदाबाद में पूज्य आचार्य श्री कालधर्म को प्राप्त हुए थे ।
उनका गृहस्थजीवन का नाम रतिलाल था । दीक्षा की कोई भावना नहीं थी ।
रतिलाल को अपने आप गुरुजी ने दीक्षा दी थी, यह कहा जा सकता है। वे दीक्षा अंगीकार करने के लिए नहीं आये थे। जोग के आयंबिल कठिनाई से किये थे, परन्तु परम गुरु प्रेमसूरिजी की परम कृपा से आयंबिल में बहुत ही आगे बढ़ें ।।
ऐसे रत्नों की खान यह श्री संघ है ।
ऐसे तपस्वी की स्वर्ग-तिथि आज ही आई । यह भी एक योगानुयोग घटना है ।
__ पूज्य रामचन्द्रसूरिजी के कालधर्म के बाद उनके बाद कौन ?' की चिन्ता में पड़े साधुओं को मैं ने कहा था कि 'राम' आज
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भी हाजिर हजूर हैं । देखो, राजतिलकसूरिजी तथा महोदयसूरिजी इन दोनों के नामों के पहले अक्षर मिलकर 'राम' होता है । ये दोनों एक ही वर्ष में दीक्षित हुए थे ।
पुण्य तब ही बढ़ता है जब समस्त मुनि भगवंतो को पूज्य भाव से देखे जायें, अपने से भी अधिक रूप सें देखे जायें । मुनि-वेष की अवगणना करने वालों को यह शासन नहीं मिलता ।
'यादृशस्तादृशो वापि, क्रियया हीनकोऽपि वा' चाहे जैसा क्रियाहीन संयमी भी यहां पूजनीय है । ऐसा विधान धनेश्वरसूरिजी ने शत्रुंजय माहात्म्य में किया है ।
नवकार गिनने वाले समस्त श्रावक भी संघ में ही गिने जाते
हैं ।
अपने आयोजन का फल यही है परस्पर प्रेम बढ़ता है । भोजन करने से प्रेम पक्का होता है । व्यवहार में भी यही है । इन हरखचन्दभाई ने जो भोजन करने का निमन्त्रण दिया है उसे स्वीकार करें । वल्लभदत्तविजयजी (फक्कड़ महाराज) कहते थे - संघ का निमन्त्रण कदापि ठुकराये नहीं । विहार हो तो उसे भी रद्द करें ।
पाठशाला का प्रभाव
परदेश की एक पाठशाला के बालक को पूछा, 'तू किस लिए पाठशाला में आता है ? उसने उत्तर
दिया कि धर्म सीखने के लिए आता हूं ।
"
धर्म से क्या तात्पर्य हैं ?
-
'पाप नहीं किये जाने चाहिये, पाप करें तो दुःख आते हैं, धर्म से सुख मिलता है ।'
सुनन्दाबहन वोरा
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१४ २६७
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पू. देववि. के साथ पूज्यश्री, वि.सं. २०२२, भुज
२०-८-२०००, रविवार
भाद्र. कृष्णा -५
तीर्थ स्थापना को २५०० से अधिक वर्ष होने पर भी आज भी वह सक्रिय है जो प्रभु के अचिन्त्य प्रभाव को व्यक्त करता है।
अरिहन्त में बारह गुण होते हैं, अठारह दोष नहीं होते, यह सब तो हम जानते हैं, परन्तु भगवान का अचिन्त्य प्रभाव हम नहीं जानते । इस 'ललित विस्तरा' के द्वारा अचिन्त्य प्रभाव जानने को मिलेगा ।
इस समय ज्यादा से ज्यादा तो क्षयोपशम का समकित होगा, क्षयोपशम के गुण होंगे, परन्तु क्षायिकभाव का समकित बाकी है । दर्शन सप्तक के क्षय के बिना क्षायिक भाव नहीं मिलता ।
दर्शन सप्तक मरे या मंद हो तो ही भीतर का आनन्द अनुभव करने की तीव्र उत्कण्ठा होती है ।
क्षपकश्रेणी लगाने वाले को चौदह पूर्व चाहिये ही, ऐसा नहीं है । यदि ऐसा हो तो माषतुष मुनि केवल ज्ञान नहीं प्राप्त कर पाते ।
माषतुष मुनि जैसे केवल ज्ञान प्राप्त कर सकें वहां क्या प्रभु का अचिन्त्य प्रभाव दिखाई देता है ? (२६८00000000000000000000006 कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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* यशोविजयजी ने लिखा है कि इस काल में अनालम्बन योग तक जा सकते हैं और अनालम्बन योग में शुक्ल ध्यान का अंश हो सकता है ।।
अनालम्बन योग की स्थिति अगम अगोचर है, शब्द से वाच्य नहीं है । सामर्थ्य योग की अभी बात आई न ? अनालम्बन योग और सामर्थ्य योग दोनों एक ही हैं ।
घी और आटा हो परन्तु शक्कर न हो तो क्या 'सीरा' बन सकता है ? शक्कर या गुड़ के बिना क्या मिठास आ सकती है ?
आध्यात्मिक जीवन में भी माधुर्य सम्यग्दर्शन (विनय) से ही आ सकता है। भगवान एवं गुरु से ही सम्यग्दर्शन मिल सकता है, दूसरे कहीं से नहीं ।
* 'ललित विस्तरा' पढ़ने से मेरी श्रद्धा बहुत ही बढ़ी है। इसीलिए यह ग्रन्थ मैं पुनः पुनः पसन्द करता हूं।
इस ग्रन्थ का अधिकारी चतुर्विध संघ है। किसी पर प्रतिबन्ध नहीं है। शायद आपको कहीं समझ में न आये तो भी इस ग्रन्थ का महत्त्व कम नहीं होता ।
इस समय 'तित्थयराणं' पद पर विवेचन चलता है ।
आज प्रातः ही तीर्थ (संघ) पर प्रवचन हुए थे न ? हम हरिभद्रसूरिजी के शब्दों में तीर्थ की व्याख्या सुनें ।
उमास्वातिजी ने स्वभाष्य में कहा है जो सभी जैनों को मान्य है।
जिस तरह सूर्य स्वभाव से ही लोक को प्रकाशमय करता है, उस प्रकार भगवान तीर्थ-प्रवर्तन करते हैं, इसके लिए देशना देते हैं ।
भगवान की शक्ति अधिक है कि उनके वचनों की शक्ति अधिक है ?
भगवान की जितनी शक्ति है उतनी ही वचनों की शक्ति है। वचनों में शक्ति आई वह भी भगवान में से ही आई है न ? उन शब्दों में कितनी शक्ति है, जिनके प्रभाव से तीर्थ बन गया, द्वादशांगी बन गई ? जिन शब्दों में प्राण फूंकने वाले स्वयं भगवान हों, वहां क्या शेष (बाकी) रहेगा ? __. ऐसे भगवान को देखते ही हृदय नाच उठता है - (कहे कलापूर्णसूरि - ३006666660
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'अद्य छिन्ना मोहपाशा, अद्य रागादयो जिताः । अद्य मोक्ष-सुखं जातमद्य तीर्णो भवार्णवः ॥'
ये भक्त के उद्गार हैं । दूर स्थित भगवान भी भक्त को समीप ही प्रतीत होते हैं ।
परन्तु भगवान प्रत्येक को दर्शन नहीं देते, भक्त को ही देते हैं । भक्त को दर्शन दिये बिना रहते ही नहीं है, ऐसे भी आप कह सकते हैं ।
तीर्थ के नमस्कार में तीर्थंकर को नमस्कार हो गया कि नहीं ? जिन - वचनों के बहुमान से जिन का बहुमान हो गया कि नहीं ? जिन्हों ने शास्त्र ( जिन वचन) आगे किये, उन्हों ने भगवान आगे किये ही; तो ही कर्म-क्षय होते हैं । शास्त्र छोड़ दिये, विधि छोड़ दी तो भगवान छोड़ दिये । भक्त जब त्रिगुप्ति से गुप्त होते हैं, तब ही भगवान दर्शन देते हैं । यही समापत्ति कहलाती है । तीन गुप्तियां हमें छोटी वस्तु प्रतीत होती हैं, परन्तु हम नहीं जानते कि इसमें तो समापत्ति समाविष्ट है । इसमें तो भगवान को मिलने की कला छिपी हुई है ।
मैं तो यहां तक कहूंगा कि इस एक मुहपत्ति के बोल में समग्र जैन - - शासन भरा पड़ा है । इसमें बोलते हैं न ? 'मन गुप्ति, वचन गुप्ति, काय गुप्ति आदरुं ।'
मुहपत्ति पडिलेहण हमें छोटी क्रिया लगती है, परन्तु अनुभवी की दृष्टि में अत्यन्त ही विराट् है । इसमें साधना के बीज हैं । उनके माध्यम से आप केवल ज्ञान रूपी वृक्ष प्राप्त कर सकते हैं ।
* इस तीर्थ की महिमा समझनी हो तो संसार की भयंकरता समझनी पड़ेगी । सागर की भयंकरता समझे बिना जहाज का महत्त्व समझ में नहीं आता। रावण के बिना राम की, दुर्योधन के बिना युधिष्ठिर की, अंधकार के बिना प्रकाश की महिमा समझ में नहीं आती ।
यह संसार कितना भयंकर है वह तो देखो ।
इस संसार सागर में जन्म - जरा - मृत्यु रूप जल है । मिथ्यात्व अविरति से वह गहरा है । महा भयंकर कषाय पाताल है । ये कषाय अत्यन्त भयंकर प्रतीत हों तो ही उन्हें निकालने के आप प्रयत्न करेंगे न ? कषाय भयंकर ही नहीं, 'महा भयंकर' 200 AAAAAAAAAAAAAAAHAHAH ne acuteft-3)
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हैं । इनकी भयंकरता नहीं प्रतीत हुई, इसीलिए उन्हें निकालने के लिए प्रयत्न नहीं करते । भूत, राक्षस भयंकर लगते हैं, उनसे आप डरते हैं; परन्तु क्या कषायों से डरते हैं ?
तीर्थ में प्रवृत्ति नहीं होती, क्योंकि संसार की भयंकरता अभी तक समझ में नहीं आई, अभी तक कषायों से भय नहीं लगता । आप लिख कर रख लें कि कषायों को निकाले बिना कर्म कदापि जाने वाले नहीं हैं ।
विषय - कषाय बुरे लगे, इसीलिए आप संसार में से निकले हैं न ? परन्तु अब ये विषय कषायों की भयंकरता भूल मत जाना । इस संसार - सागर में मोह का आवर्त्त है ।
नाविक भी कई बार इसमें फस जाता है । उसमें यदि जहाज फंस जाये तो चूर-चूर हो जायेगा ।
कामराग, स्नेहराग, दृष्टिराग, चार कषाय, नौ नोकषाय, दर्शन मोहनीय आदि मोह के ही प्रकार हैं ।
मोह के कारण कर्म - बन्धन होता है । कर्मों से दुःख आते हैं । अतः फिर लिखा है
दुःखों के समूह रूप दुष्ट जलचरों से भरा हुआ यह संसारसागर है ।
कतिपय मगर ( घडियाल ) या मछलियां ऐसी होती हैं कि पूरे के पूरे मनुष्य को ही खा जाते हैं । अरे, वे जहाज को भी उल्टा देते हैं, वैसी भी मत्स्य (शार्क मछली आदि) होती हैं । दुःखों से तो फिर भी बचा जा सकता है, परन्तु दोष तो उनसे भी खतरनाक हैं । राग-द्वेष के दोषों से भले भले भ्रान्त हो जाते हैं । इसलिए कहा है
राग-द्वेष की वायु से यह
रहा हैं
कि
संसार - सागर सतत खलबल हो
—
I
यह संसार-सागर अकेले से नहीं तैरा जा सकता । कर्णधर के रूप में देव - गुरु चाहिये ही । राग-द्वेष, मोह के तूफान आयेंगे ही, परन्तु उस समय भयभीत होकर हमसे साधना छोड़ी नहीं जा सकती । अतः भगवान को शरण लें ।
संयोग-वियोग रूपी लहरें यहां उठती ही रहती हैं ।
( कहे कलापूर्णसूरि- ३ wwwww
क २७१
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सागर में लहरें इतनी ऊंची उछलती हैं कि जहाज भी टूट जाये ।
कतिपय संयोग जीवन को ऊपर उठाने वाले होते हैं और कितने ही संयोग जीवन को बर्बाद करने वाले भी होते हैं, परन्तु एक बात याद रखें कि संयोग अच्छा हो कि बुरा, वियोग तो होगा ही । संयोग-वियोग रहीत एकमात्र स्थान है - मोक्ष । उसके लिए तो अपना यह समस्त प्रयत्न है ।
कषायों के उबाल के समय, संयोग-वियोग के समय हमारी आत्मा अटल रहे, स्वस्थ रहे; उसके लिए यह सब सिखाया जाता है।
संयोग-वियोग न आयें, कषायों के कारण न आयें, परिषह या उपसर्ग न आयें, ऐसा सम्भव नहीं है, परन्तु उस समय हमारा मन स्वस्थ रहे यह सम्भव हैं। भगवान पर भी परिषह-उपसर्ग आते हैं तो हम कौन हैं ? इसी लिए तो विघ्नजय नामक एक आशय खास हरिभद्रसूरिजी ने बताया है।
कुछ विघ्न ऐसे होते हैं कि जो अपने शुभ प्रणिधान को तोड़ डालते हैं । इसीलिए इससे सावधान होना है। परिषह-जय या विघ्न-जय दोनों पर्यायवाची शब्द हैं । परिषहों पर विजयी हुए बिना कार्य सिद्ध नहीं होता । अब भी संसार की भयंकरता देखें ।
* आशाओं का ज्वार यहां आता रहता है ।
अपनी आशाएं, इच्छाएं इतनी खतरनाक होती हैं कि जो अपनी ही साधना बिगाड़ देती हैं । दूसरी तरफ न देख कर हमारे भीतर ऐसी स्पृहाऐं, महत्त्वाकांक्षाएं हों तो उन्हें छोड़ दें । यशोविजयजी महाराज की शिक्षा :
'पर' की स्पृहा महा दुःख है । निःस्पृहता महा सुख है । "पर की आशा, सदा निराशा, ये है जगजन पाशा ।'
ऐसे मनोरथ ही क्यों करें ? विषय-कषाय सम्बन्धी इच्छाएँ ही क्यों करें जिससे दुःखी होना पड़े ।
ऐसा यह संसार-सागर अत्यन्त ही विशाल है, विस्तृत है ।
साधना से संसार अल्प किया जा सकता है । इसीलिए हमने संयम-जीवन में प्रवेश किया है ।
(२७२ommonomooooooooooo कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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उपधान - मालारोपण, वि.सं. २०४३, मांडवी
२१-८-२०००, सोमवार भाद्र कृष्णा-६
* भगवान महावीर ने केवलज्ञान के पश्चात् तीस वर्षों तक देशना की धारा चलाई और स्वयं द्वारा स्थापित तीर्थ ऐसा सुदृढ बनाया कि इक्कीस हजार वर्षों तक तनिक भी आंच न आये । पुष्करावर्त मेघ इतना प्रबल एवं शक्तिशाली होता है कि बिना वर्षा के २१ साल तक भूमि में से फसल आती ही रहे । भगवानने भी ऐसी वाणी की वृष्टि की कि इक्कीस हजार वर्षों तक धर्म की उपज आती रहेगी । * तीर्थंकर नामकर्म की तरह गणधर - नामकर्म भी होता है । जिसने गणधर नामकर्म बांधा हो वही गणधर बन सकता है । इसी कारण से चौदह हजार शिष्यों में से ग्यारह गणधर ही बन सके ।
ग्यारहों गणधर ब्राह्मण कुल में जन्मे थे ।
हरिभद्रसूरि भी ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुए थे फिर भी देखो
तो सही, उनके हृदय में जैन- शासन के प्रति कितना बहुमान था । उनके ग्रन्थ पढ़ने से यह सब समझ में आता है । विधि के प्रति बहुमान, अविधि का निषेध, भगवान के प्रति पूर्ण बहुमान आदि आपको कदम-कदम पर उनके शास्त्रों में दृष्टिगोचर होते हैं । छोटीछोटी बातों में भी यह सब देखने को मिलेगा । जिनालय के लिए
(कहे कलापूर्णसूरि ३ क
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लकड़ा लेने के लिए जाना हो तो भी विधि बताने की छोटी सी बात भी वे चूके नहीं हैं ।
* कल हमने संसार की भयंकरता पर विचार किया । संसार की भयंकरता समझ में आये उसे ही तीर्थ की महत्ता समझ में आती है । धूप की उष्णता के बिना छाया की महिमा कहां समझ में आती है ?
जब तक इस संसार में रहेंगे तब तक जन्म-मरण के चक्कर में भ्रमण करना ही पड़ेगा । यहां कहीं भी एक स्थान पर सतत रहने की सुविधा नहीं है। कर्म सत्ता का स्पष्ट आदेश है कि यहां फिरते ही रहो, सरकते ही रहो । सतत सरकता, सरकाता रहे वही संसार है ।
ऐसे संसार से शीघ्र छूटने के लिए ही हम संयम रूपी जहाज में बैठे हैं ।
* अठारहों पापों से छ: काय जीवों को दुःख होता है। उन्हें होने वाले दुःख से अपना ही दुःख बढ़ता है। इसीलिए इन पाप-स्थानकों के सेवन करने का भगवान ने निषेध किया है ।
वास्तव में तो हमें दूसरे जीवों पर उपकार करना चाहिये, परन्तु हम अपकार कर रहे हैं ।
* चतुर्विध संघ तीर्थ रूप है। हम यदि वैसे गुणों वाले हैं तो संघ में हैं; अन्यथा स्वतः ही संघ से बाहर हैं । वल्कलचीरी जैसे व्यवहार से संघ से बाहर होने पर भी गुणों से संघ के भीतर हैं।
गुणों की सम्पत्ति के आधार से ही हम साधक बन सकते हैं ।
* बैल बोझ उठाने में सुदृढ गिने जाते हैं । सत्त्वशाली मुनि भी गच्छ का बोझ उठाते हैं । इसीलिए कहा है कि - 'मुनिगणवृषभैर्धारितं बुद्धिमभिः ।' ।
__ सचमुच तो यह वृषभ की पदवी लेने योग्य है । वृषभ जैसे मुनियों से ही समुदाय सुशोभित होता है। किसी भी समय गोचरी, पानी, काप निकालने आदि का कार्य हो तो तैयार ।
पूज्य प्रेमसूरिजी के समुदाय में पूज्य मणिभद्रविजयजी, पूज्य धर्मानंदविजयजी ऐसे वृषभ मुनि थे । किसी भी काम के लिए सदा तैयार ही रहते थे ।
आप शायह यह मानते होंगे कि कोई काम न हो, अध्ययन नहीं करना हो वे गोचरी-पानी आदि का काम करते रहते हैं;
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परन्तु यह जान लें कि पूज्य धर्मानन्दविजयजी (बाद में पूज्य धर्मजित्सूरिजी) तब कर्म प्रकृति का अध्ययन करते थे । पिण्डवाडा के समय निशीथ सूत्र पढ़वाते थे । अत्यन्त ही पहुंचे हुए विद्वान थे, फिर भी काम-काज में भी ऐसे ही मजबूत थे ।
ऐसे मुनि मुनि-वृषभ कहलाते हैं ।
* चतुर्विध संघ का प्रत्येक सदस्य अर्थात् मोहराजा के विरुद्ध संग्राम करने वाला बहादुर योद्धा ।।
खारे समुद्र जैसे संसार में हम सब रहते हैं, परन्तु चतुर्विध संघ के यदि हम सदस्य हों तो संसार का खारापन हमारा कुछ नहीं कर सकता ।
दूसरी सब मछलियों खारा पानी पीती है, परन्तु शृंगी मत्स्य खारे समुद्र में भी मीठा (मधुर) पानी पीता है । चतुर्विध संघ का प्रत्येक सदस्य शृंगी मत्स्य है ।
'उत्तम आचारज मुनि अज्जा, श्रावक-श्राविका अच्छजी; लवण जलधिमांहे मीठं जल, पीवे शृंगी मच्छजी ।'
___- जिनविजयजी * सागर का ज्वार उतरने के बाद समझदार यात्री जहाज को छोड़ता नहीं है । जहाज को आप नहीं छोड़ेंगे तो पार उतारने की जवाबदारी उसकी है । तीर्थ रूपी जहाज को यदि हम नहीं छोड़े तो भवसे पार लगाने की जवाबदारी उसकी है ।
* मुनिसुन्दरसूरिजी ने 'अध्यात्म-कल्पद्रुम' में यतिशिक्षाधिकार में मुनि को अच्छे झटके लगाये हैं कि तू दिन में नौ बार 'करेमि भंते' बोलता है, फिर भी पुनः पुनः ऐसी सावध क्रिया करता है ? अतः है मुनि ! तेरा क्या होगा ? तू किस मुंह से स्वर्ग-मोक्ष की आशा रखता है ?
__ यह शिक्षा दूसरे को नहीं, स्वयं को ही देनी है । हम एक स्वयं को छोड़ कर दूसरों को सलाह देने में होशियार हैं ।
इसी लिए 'संथारा पोरसी' में लिखा है - 'अप्पाणमणुसासइ ।' इस तरह मुनि अपनी आत्मा को शिक्षा दे ।
अपार पुण्य हो तो ही ऐसी दुर्लभ सामग्री मिलती है और ऐसा मिलने के बाद भी प्रमाद होता रहे तो क्या मानें ? अपार पाप मानें ? कहे कलापूर्णसूरि - ३ aamana G 55055 २७५)
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* स्व दुष्कृत-गर्दा कि सुकृत-अनुमोदना अपने जीवन में नहीं है क्योंकि अपने जीवन में शरणागति नहीं है । यदि शरणागति हो तो दूसरे दो आये बिना नहीं रहेंगे ।
आराधना आदि कुछ नहीं हो तो भी निराश न हों । बाल्टी चाहे कुंए में हो, रस्सी हाथ में है। रस्सी हाथ में हो फिर चिन्ता कैसी ? जब तक आयुष्य की डोर हाथ में है, तब तक जागृत हो जायें ।
ऐसी अविच्छिन्न उत्तम परम्परा स्थानकवासी, तेरापंथी, दिगम्बर, कानजी, रजनीश या दादा भगवान के किन्ही अनुयायियों को मिली नहीं है, हमें मिली है; जो अपना कितना सौभाग्य गिना जाता है ?
मुझे तो ऐसी उत्तम परम्परा, उत्तम साधना-पद्धति कहीं भी देखने को नहीं मिली । यहां क्या नहीं है ? यहां उत्तम कक्षा का ध्यानयोग, भक्तियोग, ज्ञानयोग, चारित्रयोग आदि सभी हैं।
इतना मिलने पर भी हम संसार-सागर नहीं तैर सकें, इसका अर्थ यह हुआ कि चलते जहाज में से हम सागर में कूद गये हैं; परन्तु डरें नहीं, भगवान को पकड़ लें । ये भगवान आपको चाहे जैसे तूफान में हाथों हाथ पकड़ कर बाहर निकालेंगे । _ 'पण मुज नवि भय हाथो हाथे, तारे ते छे साथे रे ।'
चाहे जैसी विकट परिस्थिति में ये भगवान मार्ग बतायेंगे । अभी ही भरी सभा में धुरन्धरविजयजी ने पत्थर फैंका कि 'संघ को भगवान भी नमस्कार करते हैं तो ऐसे संघ को नवकार में नमस्कार क्यों नहीं किया ?
उस समय तो मैंने कहा था कि नवकार में संघ को नमन है ही, परन्तु दूसरे ही दिन विचार आया - नमो अरिहंत + आणं - अरिहन्त की आज्ञा को नमस्कार हो । आज्ञा अर्थात् संघ । यहां संघ को नमस्कार आ ही गया ।
इस प्रकार मुझे सिखाने वाले भगवान को कैसे भूला जा सकता है ?
आप भगवान को नहीं छोड़ो तो भगवान आपको नहीं ही छोड़ेंगे । नाम आदि चार में से किसी एक रूप में भगवान को पकड़ रखें ।
२७६0omnoonmoornmoooooooonकहे
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पू. देवेन्द्रसूरिजी के साथ, वि.सं. २०२५, फलोदी
२२-८-२०००, मंगलवार
भाद्र. कृष्णा -७
* 'नमुत्थुणं' सूत्र में गणधरों ने निकट के अनुभव से बताया है कि भगवान उन्हें कैसे लगे ? स्वरूप-सम्पदा, उपयोगसम्पदा आदि पढ़ने से भगवान की महिमा के सम्बन्ध में अधिक जानकार बन कर हम उनके प्रति अधिक भक्ति वाले बन सकते
प्रभु के प्रति ज्यों ज्यों प्रीति में उल्लास बढ़ता है, त्यों त्यों भक्ति बढ़ती है । प्रीति ओर भक्ति बढ़ने पर उनकी आज्ञा पालन करने का उल्लास बढ़ता है ।
साक्षात् परमात्मा मिल जाये तो भी उनके पास समवसरण की देशना के अतिरिक्त अधिक समय तक बैठने को नहीं मिलता । शेष समय में प्रभु के नाम, मूर्ति आदि ही आधार रूप हैं । प्रभु के प्रति प्रेम हो तो प्रभु के नाम, मूर्ति आदि के प्रति प्रेम होगा ही । प्रभु के नाम, गुण, मूर्ति आदि के द्वारा भक्त निरन्तर सम्पर्क में रहता है।
जिन भगवान के प्रति अपार प्रेम उमड़ता है वे भगवान कैसे होंगे ? यह जानने के लिए मन लालायित बनता ही हैं । यह (कहे कलापूर्णसूरि - ३ 0665
२७७)
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भी जिन्हों ने साक्षात् भगवान देखे हों उनके मुंह से भगवान का वर्णन सुनना कितना प्रिय लगता है ? गणधरों ने भगवान को साक्षात् देखे हैं । उन देखे हुए भगवान का 'नमुत्थुणं' में वैसा ही वर्णन
* मुनिचन्द्रसूरिजी ने पंजिका में लिखा है कि तीर्थ रहे तब तक भगवान का उपकार चालु ही रहता है, इस समय भी चालु है और अभी साढ़े अठारह हजार वर्षों तक उपकार चालु ही रहेगा । भोजनशाला चलती हो तो अन्न-दान का उपकार होता रहता है, उस प्रकार यहां धर्म-दान का उपकार होता रहता है ।
तीर्थ का एक ही कार्य है - जीवों को संसार से पार उतारना । यह कार्य पांचवे आरे के अन्त तक चलता ही रहेगा; तब तक भगवान की शक्ति सक्रिय रहेगी । जो कोई उस शक्ति का स्पर्श करेगा, उसका कल्याण होगा ही ।
* 'ध्यान-विचार के २४ वलय देखो तो ख्याल आयेगा कि ये भगवान से भिन्न नहीं हैं, भगवान के साथ जुड़े हुए ही हैं।
भगवान मार्ग-दर्शक हैं और स्वयं मार्ग भी हैं । ___ 'नान्यः शिवः शिवपदस्य मुनीन्द्र ! पन्थाः ।
- भक्तामर भगवान को छोड़ कर दूसरा कोई मुक्ति का मार्ग नहीं है।
* माता-पिता की सम्पत्ति पुत्र की है, उस प्रकार भगवान की सम्पत्ति भक्त की है। भक्त ही भगवान का सच्चा उत्तराधिकारी
* 'प्रश्नव्याकरण' में अहिंसा के ६० पर्यायवाची नाम हैं, जिनमें 'सिद्धों का आश्रय-स्थान' (केवली भगवान का स्थान) नाम भी है ।
अर्थात् जो अहिंसा पर बैठता है वही सिद्धशिला पर बैठ सकता है । केवली भगवान का स्थान भी अहिंसा है।
चरण-करण सित्तरी अहिंसा के प्रकार हैं ।
अहिंसा की आराधना के बिना, तीर्थ की आराधना के बिना क्या कोई सिद्ध बन सकता है ? इसी लिए अहिंसा को सिद्धों का आश्रय-स्थान कहा है । (२७८ oooooooooooo 66666 कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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अहिंसा, संयम, तप के पालन में जितनी कच्चाई (कमी) होगी, तीर्थ की आराधना में उतनी ही कच्चाई (कमी) रहेगी ।
श्रावक के पास जिस प्रकार स्थावर-जंगम सम्पत्ति होती है उस प्रकार भगवान के तीर्थ की भी सम्पत्ति होती है । इसीलिए लिखा है - त्रैलोक्यगतशुद्धधर्मसम्पयुक्तमहासत्त्वाश्रयं प्रवचनम् । तीनों लोकों में विद्यमान शुद्ध धर्म की सम्पदावाले सत्त्वशाली जीव भगवान की ही सम्पत्ति हैं । - यहां ढाई द्वीप न लिख कर त्रैलोक्यगत लिखा, क्योंकि असंख्य देशविरतिधर, असंख्य सम्यग्दृष्टि देव, नारक ढ़ाई द्वीप से बाहर हैं, उन सबको समाविष्ट करने के लिए त्रैलोक्यगत लिखा है । यहां दृष्टि अत्यन्त ही विशाल है। हमारी दृष्टि संकुचित है । हम अपनों को भी समाविष्ट नहीं कर सकते । भगवान का संघ इतना विशाल है कि समग्र ब्रह्माण्ड को अपने भीतर समाविष्ट कर लेता है।
भगवान का यह संघ अचिन्त्य शक्ति युक्त कहा गया है । अचिन्त्य अर्थात् चित्त से विचार नहीं किया जा सके ऐसी शक्ति से युक्त ।
यह संघ अनेक प्रकार से उपकार करता ही रहता है ।
नलिनीगुल्म विमान का वर्णन सुन कर जातिस्मरण ज्ञान प्राप्त अवंतीसुकुमाल को लगा था कि निश्चय ही ये मुनि वहां जाकर आये प्रतीत होते हैं, अन्यथा वे ऐसा वर्णन कैसे कर सकते थे ?
इसीलिए लिखा है - 'अविसंवादि अर्थात् संवादि ! सत्य ! जैसा है वैसा कहने वाला यह प्रवचन है ।
प्रवचनं सङ्घो वा । ऐसा इसलिए लिखा कि प्रवचन (द्वादशांगी रूप प्रवचन) का आधार संघ है। संघ के बिना प्रवचन कहां रहे ?
तीर्थ किसे कहते हैं ? चतुर्विध श्रमण संघ तीर्थ कहलाता है, साधु-साध्वी तो श्रमण हैं ही। श्रावक-श्राविकाओं को भी यहां श्रमण कहा है, क्योंकि भविष्य में वे श्रमण बनने वाले हैं और तप आदि साधना के लिए श्रम आदि करते रहते हैं। श्रम करते हैं वे श्रमण । इस अर्थ में चतुर्विध संघ के समस्त सदस्य 'श्रमण' हैं । कहे कलापूर्णसूरि - ३nmoonsomwwwoooooooom २७९)
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'श्रमण-प्रधान संघ' ऐसा अर्थ भी किया जा सकता है, क्योंकि यहां साधुओं की प्रधानता है ।
* 'सुअं मे आउसं ।' हे आयुष्मान् ! जम्बू ! जिस तरह मैं ने भगवान के पास सुना उस तरह कहता हूं - त्ति बेमि ! समस्त आगमों के अन्त में कहा है - 'त्ति बेमि' उस तरह (अर्थात् भगवान ने कहा उस तरह, मेरी बुद्धि से नहीं) मैं कहता हूं ।
यहां स्व-बुद्धि का कोई स्थान नहीं है ।
* नौ का अंक अखण्ड है। किसी भी संख्या के साथ उसको गुणा करो तो उस संख्या के अंकों के योगफल में अन्त में नौ ही आयेंगे । उदाहरणार्थ ९ x २ = १८ (१ + ८ = ९)
__इस प्रकार पूर्ण को चाहे जहां ले जाओ, उसमें से चाहे जितना निकालो कि उसमें चाहे जितना डालो । पूर्ण पूर्ण ही रहेगा ।
ओं पूर्णमदः पूर्णं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते । पूर्णस्य पूर्णमादाय, पूर्णमेवावशिष्यते ॥
- उपनिषद् * अपनी समस्त प्रवृत्ति के मूल में सूर्य है । सूर्य नहीं उगे तो अंधेरे में प्रायः कोई प्रवृत्ति नहीं हो सकती, उस प्रकार तीर्थ के बिना कोई भी धर्म प्रवृत्ति नहीं हो सकती । अपनी धर्मप्रवृत्ति का मूल यह तीर्थ ही है, ऐसा स्वीकार करना पड़ेगा ।
भव्य जीवों को इस प्रकार धर्म में प्रवर्तन कराने से भगवान परम्परा से अनुग्रह (उपकार) करने वाले हैं।
भगवान अनुग्रह (उपकार) करने वाले हैं और हम अपकार करने वाले तो नहीं हैं न ?
जैनों के पर्युषण पर्व में ही जीवदया आदि के लिए कितना फण्ड होता है ? कितनी तपस्याएं होती हैं ? तप होने से जीवों को अभयदान मिलता है न ? मुसलमानों के त्यौहार 'बकरी ईद' आदि के समय बकरे कटते हैं, जबकि यहां जीवों को अभयदान मिलता है । इसी लिए तीर्थंकरों को परम्परा से अनुग्रह करने वाले कहा गया है ।
यहां पंजिकाकार लिखते हैं कि परम्परा से (अर्थात् अनुबन्ध से) अपनी तीर्थ की अनुवृत्ति के समय तक सद्गति आदि के (२८०Boooooooooooooooooo कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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कल्याण की प्राप्ति कराने के द्वारा भगवान अनुग्रह करने वाले हैं । भगवान ऋषभदेव के द्वारा इस तरह पचास लाख करोड़ सागरोपम तक उपकार होता रहा ।
उपादान-निमित्त दोनों मिलने पर धर्म मिलता है । भगवान उपकार करते रहते हैं । हमारा उपादान तैयार हो तब भगवान के अनुग्रह की वृष्टि होती है ।
चाहे हमें किसी मित्र, गुरु, स्वजन, पुस्तक अथवा दूसरे किसी निमित्त से धर्म मिला हो, परन्तु उन सबका मूल आखिर भगवान ही है । इस प्रकार भगवान परम्परा से निरन्तर उपकार करते ही रहते हैं ।
परदेश की पाठशालाएं परदेश में बसे परिवार स्थिर होने लगे, त्यों त्यों उन्हें अपने सन्तानों के संस्कारों की चिन्ता होने लगी; यद्यपि एक-दो पीढ़ियां तो चली गई । उनमें जो कुछ भी स्वच्छन्दता एवं दुराचार देखा तो गुरुजन जग गये । वर्तमान पीढ़ी में संस्कार बने रहें, एतदर्थ उन्हों ने पाठशालाएं खोलीं और बचपन से ही आहार आदि के संस्कारों का निर्माण करने लगे, सूत्र-स्तुतियां सिखाने लगे । वहां लगभग बारह वर्ष के बालक नौ तत्त्व आदि त्वरित गति से सीख लेते हैं । प्रथम उनमें बुद्धि से समझ उत्पन्न करनी पड़ती है । फिर तो वे स्वयं ही बोध ग्रहण करते हैं। किसी समय ऐसा होता है कि आदत के अनुसार माता-पिता मांसाहार करते हों, परन्तु पाठशाला का बालक उस आहार का सेवन नहीं करता । यह है जिन-शासन के संस्कारों का निर्माण !
- सुनन्दाबहन वोरा
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romooooooooooooooon २८१
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जयपुर प्रवेश, वि.सं. २०४२
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२३-८-२०००, बुधवार
भाद्र. कृष्णा-८
तीर्थ करते है वह तीर्थंकर है । इस तीर्थ की शक्ति को हृदय में स्थापित करता है वह चतुर्विध संघ है। _ 'सव्वलोअभाविअप्पभाव' 'अजित शान्ति' में प्रयुक्त भगवान का यह विशेषण अत्यन्त ही अद्भुत है । इस पद के दो अर्थ हो सकते हैं - (१) सर्वलोकभावितप्रभाव - समस्त लोक में जिनका प्रभाव
___भावित हो चुका है ऐसे भगवान ।। (२) 'सर्वलोकभावितात्मभावः' जिन्हों ने समस्त लोक के साथ
आत्मभाव भावित किया है । यह दूसरा अर्थ अद्भुत है ।
साधु भी जब तक समस्त जीवों को आत्मभूत नहीं देखते, तब तक साधुत्व में प्राण नहीं आते । आत्म-तुल्य नहीं, परन्तु समस्त जीवों को आत्मभूत मानना । यह साधना की पराकाष्ठा है।
ऐसा हो तो ही समस्त आत्माओं में परमात्मा दिखाई देंगे, जीव में शिव दिखाई देंगे । ऐसा दिखाई दे तो क्या किसी भी जीव की आशातना होगी ? आशातना मात्र भगवान की नहीं होती, जीवों की भी होती है ।
(२८२ 65000
550066
कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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'सव्वपाणभूअजीवसत्ताणं आसायणाए ।' जीव तो सिद्धों के साधर्मिक बन्धु हैं। उनके साथ चाहे जैसे कैसे व्यवहार किया जाये ? शुद्ध नय की दृष्टि से यह जीव भगवान है। उनका अपमान तो भगवान का अपमान है । भारत सरकार के एक सैनिक का अपमान भारत सरकार का अपमान है । ये जीव भी भगवान का परिवार है। भगवान ने सबके साथ एकता की है।
* सूर्य की तरह भगवान का भी स्वभाव है - उपदेश का प्रकाश देना, तीर्थ की स्थापना करना । मौन रहने से बाल जीव समझते नहीं हैं । शब्दों की दुनिया में रमण करते जीवों को शभ्दों से ही समझाना पड़ता है । अशब्द नहीं चलते । हमारे लिए ही भगवान शब्दातीत अवस्था में गये हुए होने पर भी शब्दों की दुनिया में आते हैं । भगवान की यही करुणा है । उसे देखने के लिए अपने पास दृष्टि चाहिये ।
* शास्त्रीय पदार्थों में स्व-उत्प्रेक्षा कि मति-कल्पना नहीं चलती । यहां तो सम्पूर्ण शास्त्राधार ही चाहिये ।
* मैं नित्य पीछे की थोड़ी पुनरावृत्ति करके ही आगे बढ़ता हूं क्योंकि मुझे विश्वास है। आप पुनरावृत्ति नहीं करते हो । आप यदि पुनरावृत्ति करते हों तो मुझे पुनरावृत्ति कराने की आवश्यकता ही न रहे ।
* यह मैं बोलता हूं, वह मात्र भगवान के बल से ही बोलता हूं, यह मानता हूं । बाकी उम्र के हिसाब से तो बोला नहीं जा सकता ।
जो कुछ भी बोलता हूं वह भगवान के प्रभाव से ही बोलता हूं और भगवान के चरणों में ही उसे समर्पित करता हूं।
इन भगवान को मैं कदापि भूलता नहीं हूं और आपको भी यही सलाह देता हूं। भगवान को कदापि न भूलें । 'साधना में बहुत ही आगे बढ़ गया हूं । क्षमा आदि गुण आत्मसात् हो गये हैं । अतः अब भगवान की आवश्यकता नहीं है' - यह मान कर भगवान को छोड़ मत देना । अपने गुण तो कांच की बरनी (भरनी ) हैं। फूटने में क्या देर लगती है ? क्षायोपशमिक भाव को बना रखना पड़ेगा ही । भगवान के बिना उन्हें बनाये रखना असम्भव है। कहे कलापूर्णसूरि - ३00ooooooooooooooo २८३)
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क्रिया बार-बार इसके लिए ही करनी है । जीवनभर यही क्रिया क्यों करें ? यह न सोचें । नित्य वही रोटी-सब्जी, चावलदाल आदि खाने वाले हम नित्य-प्रति की क्रिया से ऊब जाते हैं, परन्तु यह खाने आदि से क्यों नहीं ऊबते ?
याद रखें - अपनी साधना की कमाई लूटने के लिए ये चोर तैयार ही हैं। हम तनिक गाफिल रहे तो गुण्डे आप पर सवार हो जायेंगे । इसी लिए इस गुण-कमाई को सम्हालकर रखना है ।
'गुणवृद्ध्यै ततः कुर्यात्, क्रियामस्खलनाय वा । एकं तु संयमस्थानं, जिनानामवतिष्ठते ॥'
- ज्ञानसार * कैसे अद्भुत भगवान हमें मिले हैं । जगत् में लाखों, करोड़ो, अरबों मनुष्यों को जो नहीं मिले वे हमें मिले हैं ।
ऐसा अहोभाव कायम रहे तो प्रभु के प्रति भक्ति प्रकट हुए बिना नहीं रहेगी ।
ऐसा भक्त ही प्रभु के समक्ष कहता है -
'सेवणा आभवमखंडा... भवे भवे तुम्ह चलणाणं' मुझे सद्गुरु की सेवा और भगवान के चरणों की सेवा भवो भव प्राप्त हो ।
सुगुरु आदि सामग्री प्राप्त कराने वाले भी भगवान ही हैं । भगवान के साथ यदि प्रेम जुड़ गया तो अपनी गुण-सम्पत्ति अनुबंध वाली बन जायेगी । जन्मान्तर में भी यह गुण-सम्पत्ति साथ चलेगी। (५) सयंसंबुद्धाणं ।
___ अन्य दर्शन वालों की तरह हम भगवान का अनुग्रह नहीं मानते । महेश के अनुग्रह से ही ज्ञान होता है उस प्रकार एकान्त से हम नहीं मानते । हम यह मानते हैं - सामने जीव का उपादान भी तैयार चाहिये । सूर्य को सहने के लिए आंखें भी तैयार चाहिये । उल्लू बिचारा सूर्य को सहन नहीं कर सकता ।
जीव की योग्यता भी महत्त्वपूर्ण है जो इस पद से स्पष्ट होता है। भगवान को प्रथम बार बोध प्राप्त होता है उसमें अपनी योग्यता ही मुख्य होती है।
(घोर वर्षा के कारण पतरों की आवाज आने के कारण समय से पूर्व वाचना समाप्त की गई ।)
(२८४000000000000000000 कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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पू. रत्नसुंदरसूरिजी के साथ, सुरत, वि.सं. २०५५
२४-८-२०००, गुरुवार
भाद्र. कृष्णा -९
* भगवान का यह लोकोत्तर तीर्थ देख कर अनेक भव्य आत्मा प्रसन्न होती हैं । यह प्रसन्न होना ही योग-बीज है । बीज पड़ने पर ही अगली प्रक्रिया प्रारम्भ होती है। जिन्हों ने पूर्व जन्म में बीज डाले होंगे, उनके अंकुर कभी न कभी अवश्य फूटेंगे ।
भगवान मिलते हैं परन्तु बीज कब पड़ते हैं ? जब आदर जागृत होता है तब बीज पड़ते हैं । भगवान अनेक बार मिले, परन्तु हमारे भीतर अहोभाव जागृत नहीं हुआ, आदर उत्पन्न नहीं हुआ । इसीलिए हमारा ठिकाना नहीं पडा । अब भी आदर उत्पन्न नहीं हुआ तो ठिकाना पड़ जायेगा, यह न मानें ।
योगावंचक प्राणी को भगवान की वाणी अमृत के समान मधुर लगती है। हम देखते हैं कि किसी को भगवान की वाणी अच्छी लगती है, किसी को अच्छी नहीं लगती ।
दो भाई सदा साथ रहते थे । किसी क्रिया में भेद नहीं था । पढ़ना, खेलना, भोजन करना, घूमना सब साथ-साथ करते थे; परन्तु भगवान की देशना सुन कर एक को आनन्द हुआ, उसे समकित मिला । दूसरे को कोई भी आनन्द नहीं आया । (कहे कलापूर्णसूरि - ३ 0 0 0 0 6600 66666666666666665 66 6 6 6 २८५)
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एक बोला - आनन्द आया । दूसरा बोला - परेशान हो गया ।
आज तक कभी नहीं और आज जुदाई क्यों ? दोनों विचार में पड़ गये । दूसरे दिन छोटे भाई ने भगवान को पूछा - मुझे आनन्द आया, बड़े भाई को आनन्द क्यों नहीं आया ?
भगवान ने पूर्व जन्म बताते हुए कहा, 'तुम दोनों भाई थे । चोरी करने के धंधे में पड़ कर नामी चोरों के रूप में प्रसिद्ध हुए । कोतवाल ने पीछा किया परन्तु दोनों दौड़ कर गुफा में घुस गये । वहां एक मुनि काउस्सग्ग कर रहे थे । एक को आनन्द हुआ - कहां मेरा नीच जीवन ? कहां यह उत्तम जीवन ? उसने अपनी निन्दा और मुनि की प्रशंसा की । ऐसा न हो तब तक दोष नहीं जाते और गुण नहीं आते । जब तक पर-निन्दा होती है, तब तक गुण-दृष्टि नहीं आती । स्व-निन्दा आने पर गुण-दृष्टि आती ही है ।
स्व-निन्दा होने पर स्व-दुष्कृत गर्दा आती है । फिर गुण-दृष्टि आने पर सुकृत की अनुमोदना आती है । फिर गुण-सम्पन्न भगवान की शरणागति आती है । यही क्रम है।
दूसरे ने मुनि को देख कर सोचा - देखा ? कोई धंधा नहीं मिलने के कारण 'बावा' बन कर बैठ गये ।
मुंड मुंडाये तीन गुण, मिटे शिर की खाज ।
खाने को लडु मिलें, लोग कहें महाराज ॥ दूसरे ने इस प्रकार मुनि को धिक्कारा । इसी कारण से एक को आनन्द हुआ, दूसरे को नहीं हुआ । मेरी बात समझ में आती है क्या ?
यह भगवान की वाणी सुनकर आनन्द नहीं आता हो तो समझें की अभी तक हम दुर्लभबोधि हैं ।।
आनन्द आता हो तो समझें कि पूर्व जन्म में कभी कहीं बीज पड़ गया है । (५) सयंसंबुद्धाणं
बाहर से चाहे यों लगता हो कि भगवान ने भवान्तर में दूसरों
(२८६oonsoooomosomsommon कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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से उपदेश प्राप्त किया है। हकीकत में तो वे स्वयं अपनी योग्यता से प्राप्त करते हैं । इसीलिए भगवान स्वयंसंबुद्ध कहलाये हैं ऐसा हरिभद्रसूरिजी का कथन है । जो मानते हैं कि महेश के अनुग्रह से ही बोध होता है इस पदसे उस मत का खण्डन हुआ ।
अडियल घोड़े के समान कुछ खडूस चाहे जितना समझाने पर भी समझते नहीं हैं। कुछ कठोर मूंग ऐसे होते हैं जो पकते ही नहीं हैं । मूंगशेल पर पुष्करावर्त मेघों की वृष्टि हो तो भी वे भीगते नहीं हैं, उस प्रकार कितनेक ऐसे अयोग्य होते हैं कि उन्हें चाहे जितने समझाओ, परन्तु वे समझते ही नहीं ।
यह उपादान की अयोग्यता है । भगवान का उपादान इतना तैयार होता है कि गुरु को विशेष कोई प्रयत्न नहीं करना पड़ता । उनके लिए थोड़ा निर्देश, थोड़ा संकेत पर्याप्त होता है ।
कोमल पौधे को थोड़ा सा ही कुल्हाडी का स्पर्श होते ही वह कैसा कट जाता है ?
भगवान को होने वाला सम्यग्दर्शन 'वरबोधि' कहलाता है। जात्य रत्न की तरह उनमें यह सहज योग्यता होती है। भगवान का तथाभव्यत्व अनादि काल से ही विशिष्ट होता है । _ 'नमुत्थुणं' के प्रत्येक विशेषण से अन्य अन्य मतों का खण्डन होता जाता है । गणधर भगवन्तों के द्वारा स्तुति ही उस प्रकार की होती है जिसमें उनकी स्तुति अरिहन्त को ही लागू पड़ती है, अन्य का व्यवच्छेद होता जाता है । (६) पुरिसुत्तमाणं ।
भगवान पुरुषों में उत्तम हैं। बौद्ध मानते हैं कि समस्त जीव समान हैं । यहां उस मत का खण्डन हुआ है ।
भगवान में कतिपय ऐसी विशेषताएं हैं कि जो दूसरों में देखने को नहीं मिलती ।
भगवान की कतिपय विशेषताएं : (१) आकालमेते परार्थव्यसनिनः ।'
भगवान सदा के लिए परोपकार-व्यसनी होते हैं । जिसे किसी वस्तु का व्यसन होता है वह उसके बिना रह ही नहीं सकता । (कहे कलापूर्णसूरि - ३ 00000
0 २८७)
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यह उसका शौक ही होता है । वनस्पति में कल्पवृक्ष, पत्थर में चिन्तामणि बनकर वहां भी परोपकार चालु ही... ! जिस प्रकार वणिक्-पुत्र जेल में जाये तो भी धंधा चालु रखता है न ? भगवान का एकेन्द्रिय में भी परोपकार का धन्धा चालु होता है ।
जगशीभाई : साहेबजी ! यहां पालीताणा में भी धंधा चालु है । पूज्यश्री : वाचना में तो कोई धंधा नहीं करता न ?
सारा संसार स्वार्थपूर्ण है । सम्पूर्ण जगत् स्वार्थ के काजल से भरा हुआ है । स्वार्थ की बात हो तो आगे । परोपकार की बात आये तो चेहरा नीचे झुक जाता है । यह हम में से लगभग सबका स्वभाव है। भगवान का स्वभाव इससे विपरीत होता है।
सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के बाद तो यह गुण इतना पराकाष्ठा पर पहुंचता है कि समस्त जीवों को शासन-रसिक बनाने की भावना उत्पन्न होती है। ___मैं मोक्ष में जाऊं और दूसरे यहां संसार में रहें, यह कैसे चलेगा ? मेरा जोर चले तो मैं सबको मोक्ष में पहुंचा दूं ।
ऐसी भावना से ही तीर्थंकर नामकर्म बांधते हैं।
इसके प्रभाव से ही भगवान बड़े समूह को तीर्थंकर के भव में धर्म मार्ग की ओर मोड़ सकते हैं ।
चतुर्विध संघ के सदस्यों को भगवान ऐसा तैयार करते हैं कि वे भी दूसरों को धर्म-मार्ग पर चढ़ाते रहते हैं ।
तुंगिया नगरी के श्रावक ऐसे थे कि कच्चे साधु वहां जाने में घबराते थे ।
एक साधु महाराज ने तुंगिया में प्रवेश किया तब उनका ओघा (रजोहरण) उल्टा रखा था - दशी आगे और डंडी पीछे ।
यह देख कर श्रावकों ने उन्हें वन्दन नहीं किया ।
फिर पता लगा तब मुनि ने अपनी भूल स्वीकार की । वहां ऐसे श्रावक थे ।
__ यह सम्पूर्ण तीर्थ की स्थापना परार्थ-रसिकता के गुण पर से ही हुई है । परोपकार करना तो ऐसा करना चाहिये कि फिर उसे कदापि दूसरे किसी की आवश्यकता न पड़े ।
भिखारी को आप कितना देते हैं ? (२८८ wwwwwwwwwwwwwwwww कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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मालशीभाई : सब तो नहीं दे देते हैं ।
पूज्यश्री : भगवान तो इनता देते हैं, आपका अपना ही स्वरूप दे देते हैं, ताकि आपकी अनादि की दरिद्रता (निर्धनता) मिट जाये ।
तीर्थंकरो की परार्थरसिकता उत्कृष्ट होती है ।
गणधरों, युगप्रधानों, आचार्यों आदि की परार्थरसिकता क्रमशः थोड़ी-थोड़ी होती है ।
कतिपय संसार-रसिक जीव परोपकारी होने को दिखावा करते हैं सही, परन्तु परोपकार करते हैं मात्र स्वार्थ के लिए ।
कई व्यक्ति आचार्यों के भक्त होने का स्वांग रचकर लोगों से धन लेकर हजम कर जाने वाले भी होते हैं । आप कई बार सुनते हैं न ?
प्रतिज्ञा लें कि आज किसी का कार्य किये बिना खाना नहीं है, तो ही यह सुना हुआ सार्थक गिना जायेगा ।
कान्तिभाई : नरक-निगोद में क्या परोपकार करें ?
पूज्यश्री : उनके भावों को देखो तो पता लगे, कोई सामग्री मिले तो परार्थता चमके । नरक में रहे श्रेणिक इस समय विचार करते हैं कि बिचारे ये जीव नरक आदि में से कब छूटेंगे ?
तीर्थंकर तो क्या ? चतुर्विध संघ के प्रत्येक सदस्य की यह भावना होती है कि 'एकेन्द्रियाद्या अपि हन्त जीवाः' ये बिचारे एकेन्द्रिय आदि जीव वहां से बाहर निकलकर कब पंचेन्द्रिय आदि प्राप्त करके सद्धर्म की प्राप्ति करेंगे ?
यह सब समझने के लिए सूक्ष्म बुद्धि होनी चाहिये ।
पूज्य गुरुदेव की वाणी रूपी सूर्य की किरणें इस पुस्तक के माध्यम से मानो मेरे जीवन में विद्यमान घोर अज्ञानरूपी अन्धकार को नष्ट करने में सहायक हो रही हैं ।
- साध्वी जिनेशाश्री
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____ पू. हेमचन्द्रसूरिजी के साथ, गिरनार अंजनशलाका, वि.सं. २०४०
२-९-२०००, शनिवार भादौं शुक्ला-४ : खीमईबेन धर्मशाला (कल्पसूत्र-वांचन के बाद चतुर्विध संघ के समक्ष)
जिसके लिए हमने व्याख्यान सुने, कर्त्तव्य किये, वह 'क्षमापना'
_ 'खमिअव्वं खमाविअव्वं,उवसमिअव्वं उवजमाविअव्वं ।'
यह अपना धर्म है। छोटे-बड़े सब परस्पर क्षमापना करते हैं । क्षमा मांगनी भी है और देनी भी है।
जब तक कषाय नष्ट नहीं हुए, तब तक उन्हें दबे हुए शत्रु समझें । वे कभी भी उदय में आ सकते हैं ।
मोह का कार्य है - जीव को संकल्प-विकल्प में डालना । चारित्र का कार्य है - जीव को संकल्प-विकल्प से छुड़वाना।
दोनों अपना कार्य करते हैं । आत्मा जहां रहे उसकी जीत है। आत्मा का उपयोग जब धर्मराजा में होता है तब साधना होती है और जब मोहराजा में होता है तब विराधना होती है । इसी बात को सब भिन्न-भिन्न प्रकार से समझाते हैं । 'आश्रवः सर्वथा हेयः उपादेयश्च संवरः ।'
- वीतराग स्तोत्र (२९०6656565 66 65 666666666666666 कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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मन-वचन-काया का निरोध तो अयोगी ही कर सकता है तब तक उन्हें शुभ में प्रवृत्त करें, कर्म-बंध से छुडायें ऐसे कार्य करना ही आधार है; परन्तु वे इस समय कर्मों के अधीन हैं । वे संकल्प-विकल्प कराते हैं । मोह के मुख्य दो पुत्र हैं - राग एवं द्वेष ।
द्वेष के पुत्र हैं क्रोध और मान तथा राग के दो पुत्र हैं - माया व लोभ ।
इस प्रकार विशाल परिवार है मोह का ।
महा पुण्योदय से जैन-शासन मिल गया है। उसके रहस्य बतानेवाले गुरु मिल गये हैं । अतः यह जीवन ऐसा जियें कि कर्मों के जाल में से मुक्त बन सकें ।
भूल चाहे जिसकी हुई हो, क्षमा देने-लेने में कोई आपत्ति नहीं है । चण्डप्रद्योत ने अपराध किया फिर भी उदयन ने क्षमा याचना की । वह तो आराधक बना ही । हमें भी क्षमा को अपना कर आराधक बनना है ।
द्वेष कांटा है। भगवान उसे निकालना चाहते हैं । दूसरा कोई निकाल नहीं सकता । नित्य देवसिअ-राइअ, पन्द्रह दिन बाद पक्खी, चार महिने चौमासी, बारह महिनों में संवत्सरी प्रतिक्रमण करने का इसीलिए विधान है।
बारह महिनों के बाद प्रतिक्रमण नहीं करो तो आपका कषाय अनंतानुबंधी कहलाता है और वह आपको दुर्गति में ले जाता है ।
क्षमा के आलम्बन से कषायों को नष्ट करने हैं ।
स्वयं उपशान्त बन कर, दूसरे को उपशान्त बनाकर हमें आराधक बनना है । श्रमण जीवन का सार 'उपशम' है । मुनि का दूसरा नाम भी 'क्षमाश्रमण' है ।
मुख्य रूप से कल्पसूत्र साधुओं के लिए ही हैं ।
कोई भी कार्य गुरु को पूछे बिना अथवा ज्येष्ठ व्यक्ति को पूछे बिना नहीं किया जा सकता । यदि करते हैं तो विराधक बनते हैं, क्योंकि 'आयरिया पच्चवायं जाणंति ।' सर्वतोमुखी ज्ञान गुरु के पास होता है। .. गोचरी को देखते ही गुरु को गन्ध से मालूम होने पर उन्हों (कहे कलापूर्णसूरि - ३ wasanasamosamasasansom २९१)
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ने अमुक वस्तु उसमें से निकाल ली, क्योंकि उसमें विष था । गुरु को ही यह मालूम हो सकता है ।
हेमचन्द्रसूरिजी की मृत्यु इसी तरह से हुई थी । पांच पडले इसीलिए रखने पड़ते हैं ।
गोचरी के समय योगी ने नाखून के द्वारा लड्ड में विष मिला दिया था, जिससे सूरिजी की मृत्यु हो गई थी ।।
क्रोध का कांटा निकालने के लिए ही यह महापर्व है।
जिनके साथ क्रोध हुआ हो, उनके साथ खास तौर से क्षमापना करनी है। ___ अन्तर से क्षमा मांगे, दें और अपनायें ।
ये कल्पसूत्र बनाने वाला, इनका रचयिता मैं नहीं हूं। भगवान महावीर स्वामी ने राजगृही के गुणशील चैत्य में अनेक देव-देवियों, नर एवं नारियों के मध्य यह सब बताया हैं ।
'मैं ने तो मात्र ये अक्षर लिखे हैं' - ऐसा भद्रबाहुस्वामी का कथन है । यह 'दशाश्रुत स्कन्ध' का आठवां अध्ययन है ।
जिनवाणी - श्रवण का माहात्म्य
हमें परदेश जाना पड़ता है । प्रवचन देते समय कहा गया था कि जो मांसाहार करते हैं, उनके हाथ का हम भोजन नहीं करते । उसके पूर्व के दिन एक बहन ने जो मांसाहारी थी हमें कोई वस्तु परोसी थी ।
'वे बहन मेरे पास आई कि मुझे प्रायश्चित्त दो ।' मैंने कहा, 'प्रायश्चित्त हम करेंगे ।'
फिर तो दूसरे दिन प्रवचन में से उठ कर वे मेरे पास आई और स्वयं ने ही मांसाहार के त्याग का नियम लिया। भले अज्ञानवश जीव पापाचार करते हैं, परन्तु किसी पुण्योदय से मार्ग पर चढ़ने का प्रयत्न करते हैं ।
- सुनंदाबेन वोरा
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पदवी प्रसंग, मद्रास, वि.सं. २०५२, माघ शु. १३
३-९-२०००, सोमवार भादौं शुक्ला-५ : सात चौबीसी धर्मशाला
सामूहिक क्षमापना रथयात्रा (शोभायात्रा) के चढ़ावे
पूज्य आचार्य नवरत्नसागरसूरिजी :
जिनशासन की महान् प्रभावना करने वाली इस शोभायात्रा में (वरघोड़े में) सभी को उपस्थित रहना है। जिनशासन की प्रभावना में हम कुछ भी निमित्त बनें, ऐसे भाग्य कहां से ?
पूज्य आचार्य हेमचन्द्रसागरसूरिजी :
रथयात्रा का प्रयोजन क्या है ? कान खोल कर सुन लो - आप या मैं - हम सबने सर्व प्रथम जैन धर्म प्राप्त किया, उसका बीज कैसे पड़ा ? किसी भव में यह रथयात्रा देखकर अहोभाव पेदा हुआ होगा । प्रशंसा ही बीज है ।
कुमारपाल की रथयात्रा में १८०० करोड़पति होते थे। कलकत्ते की रथयात्रा में बंगाली बाबू नाचते थे । प्रत्येक के सिर पर टोपी होती थी । हम पूर्वजों के पुण्य के कारण कुछ फूल गये हैं । पुण्य की थाती आगे चलानी हो तो यह परम्परा की थात आगे
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संभालनी पड़ेगी । प्रत्येक को अन्त तक साथ रहना है । इसके लिए मैं विशेषतः पूजनीय साध्वीजी भगवंतो को कहूंगा, विनती करूंगा ।
कल मात्र दर्शन करके चले नहीं जायें, अन्त तक जुड़े रहें । प्रत्येक व्यक्ति उपस्थित रहे तो कितनी शोभा बढ़े ? पूज्य धुरन्धरविजयजी :
पर्यूषण से पूर्व जिस प्रकार लाभ लिया, उसमें शिखर स्वरूप यह रथयात्रा निकलेगी । उसमें सभी को भाग लेना है । जूनागढ़ में महाशिवरात्रि की आधी रात को भवनाथ की रथयात्रा निकलती है । उसे आप कभी देखना । समस्त संन्यासी उपस्थित होते हैं । संन्यासिनियों वहां नहींवत् होती हैं । यहां साध्विजियों अधिक हैं ।
अहमदाबाद में आषाढ़ शुक्ला - २ को निकलने वाली जगन्नाथ की रथयात्रा भी भव्य निकलती है । चतुर्विध संघ के समस्त सदस्य दृष्टा की अपेक्षा दृश्य बन जायें तो अधिक उत्तम होगा । दर्शकगण दूसरे हों, हम नहीं । प्राचीन काल में पाटलिपुत्र आदि नगरों में निकलने वाली रथयात्रा में सभी उपस्थित रहते थे । महान् सम्राट् होते वे भी सम्मिलित होते थे । अरे, सम्मिलित क्या होते, भगवान का रथ खींचते थे । भगवान के समक्ष तो हम पशु ही हैं न ? घर के बैल तो सभी हैं न ? अलबत् बिना नथ के बैल हैं । ये तो अनेक बार बने, पर भगवान के रथ में बैल बनने का सौभाग्य कहां से ?
नंगे सिर कहां जा सकते हैं, जानते हैं न ? यहां सभी सिर पर कुछ डाल कर आयें । कुछ नहीं हो तो धोती को रंग कर पहन आयें । एक हजार जितने मुकुट तैयार है और 'खीमई' धर्मशाला में भी १५० साफे तैयार हैं ।
ढोर कदापि सिर पर नहीं बांधते । हम नहीं बांधे तो ढोरों जैसे नहीं हैं क्या ?
बैठ कर खायें वे आदमी हैं ।
खड़े-खड़े खायें वे ढ़ोर हैं । इसी लिए 'बुफे' को मैं 'बफैलो' कहता हूं । साधु बने बिना सिर नंगा नहीं रखा जाता । सिर मूल्यवान है । उसे खुला (नंगा) नहीं रखा जाता । मारवाड़ wwwww कहे कलापूर्णसूरि - ३
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में रायका (रबारी) का सिर कदापि खुला (नंगा) नहीं होता । पांवो में जूते नहीं हों ऐसा तो हो सकता है ।
टाल, टाट, श्वेत बाल आदि नंगा सिर रखने के कारण ही होने लगे हैं ।
सम्पूर्ण रथयात्रा (वरघोड़ा) परमात्मामय बननी चाहिये । दूसरी बात संयोजकों की शिकायत है कि तपस्वी २६०० हैं, परन्तु नाम सिर्फ ७४४ आये हैं । मैं ने कहा सब बराबर हो जायेगा । आपके वाहन सब भर जायेंगे ।
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अभी ही मण्डप भर गया न ? अभी घंटे भर पहले ही थोड़े से आदमी थे । परन्तु ऊपर वाला बैठा है न ? हमें क्या चिन्ता ? चन्द्रकान्तभाई :
अहमदाबाद में जगन्नाथ की रथयात्रा ( शोभायात्रा) का मार्ग २२ किलोमीटर होता है । ठसाठस जनता भरी हुई रहती है । शोभायात्रा प्रातः चार बजे प्रारम्भ होकर रात्रि में दो बजे पूरी होती है । इसके समक्ष हमारा वरघोड़ा (रथयात्रा ) कैसा ?
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परन्तु कल की रथयात्रा ऐतिहासिक होनी चाहिये । कैसे कैसे आचार्य भगवन् यहां बिराजमान हैं ? जिनके नाम लेने से भी पापों का क्षय हो जाता है । ऐसे आचार्यों की निश्रा मिले कहां से ? पूज्य आचार्यश्री विजयकलापूर्णसूरिजी :
खामि सव्व जीवे
अनन्त उपकारी तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी ने अहिंसा, संयम, तप रूप धर्म बताया है । सभी धर्मों में जीवों के प्रति करुणा, मैत्री व्यापक है । यदि हृदय में यह न हो तो किसी को बचाया नहीं जा सकता । अहिंसा, करुणा आदि समानार्थक, पर्यायवाची ही हैं । अहिंसा विश्व की माता है ।
शिवमस्तु बाद की दूसरी गाथां देखें ।
शिवमस्तु में सबको सुखी बनाने की भावना है । वह कहां से उत्पन्न होती है ?
'अहं तित्थयरमाया' मैं तीर्थंकर की माता शिवा हूं । शिवा अर्थात् मात्र नेमिनाथ भगवान की माता नहीं । शिवा अर्थात् करुणा, अहिंसा । प्रश्न व्याकरण में अहिंसा के ६० पर्यायवाची नामों में
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शिवा शब्द भी है।
यह भावना भावित बनायें तो ही भगवान के भक्त बन सकते हैं । हमारे समस्त प्रतिक्रमणों में यह भावना है ही । 'इरियावहियं' में भी है ही । क्षमा-मैत्री जुडे हुए हैं। सम्पूर्ण जैन-शासन करुणामय
पर्दूषण तथा उनके कर्तव्य सांवत्सरिक क्षमापना के लिए ही तो हैं ।
परस्पर क्षमा के लिए ही यह आयोजन था । परन्तु चढ़ावों में आप यह सब भूल गये । यद्यपि लोगों के उठने से तो मेरे लिए अच्छा ही हुआ, क्योंकि थोड़े मनुष्यों तक ही मेरी आवाज पहुंचती है।
__मेरी ओर से कि किसी महात्मा की तरफ से किसी को भी कष्ट अथवा पीड़ा हुई हो तो उसके लिए समस्त महात्माओं की ओर से मैं मिच्छामि दुक्कडं मांगता हूं।
इस पुस्तक को पढ़ने से सर्वाधिक तो गुरुदेव के प्रति आदर-भाव था, उसमें वृद्धि हुई है और अन्तर झुक गया । गुरुदेव इतने महान् हैं कि जिन्हों ने छोटेछोटे सूत्र जो निर्दोष अवस्था में ही पोपट की तरह कण्ठस्थ किये हों और रुटीन में भी बोलते रहते हों, उनके लिए निरन्तर उपयोगपूर्वक एवं चिन्तनपूर्वक कैसे रहस्य खोले हैं ? नवकार, लोगस्स अथवा शकस्तव की महानता इन वाचनाओं को पढ़ने के बाद ही समझ में आई ।
__ - साध्वी विरागरसाश्री
पूज्यश्री का प्रत्येक शब्द आत्मा में भगवद्भाव उत्पन्न करके अन्तिम शुद्धावस्था का स्थान बताने के R लिए समर्थ बनता है ।
__- साध्वी पुष्पदन्ताश्री
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MINUTE
पट्टधर के साथ, बेंगलोर के पास, वि.सं. २०५२
१०-९-२०००, रविवार भादौं शुक्ला-१२ : खीमईबेन धर्मशाला
सम्मान समारोह धर्मीचंदजी विनायकिया (विजयवाडा) :
यहां आकर मुझे अत्यन्त लाभ हुआ । मैं तो मानता हूं कि चातुर्मास में रहना मेरे लिए शिविर ही हो गया । अनेक प्रकार के धर्माचरण मेरे जीवन में 'प्रेक्टिकल' हो गये ।
अगाधता समुद्र की लज्जा रही है ज्ञान से । उदारता भी कर्ण की हारी है श्रुतदान से ।
सौम्यता को देख कर चांद भी करता रुदन, सूरि कलापूर्ण के चरण में हम करे शत शत नमन
पूज्यश्री की निश्रा में हम सब एक दूसरे के लिए कल्याणमित्र बने हैं । पूज्य गुरुदेव को प्रार्थना है कि हमें भी मुक्ति में साथ ले जायें ।
रजनीकान्तभाई, मदनलालजी कावेडिया आदि आराधकों ने भी अपने उद्गार व्यक्त किये ।
अध्यात्मयोगी पूज्य आचार्यश्री :
शत्रुजय की गोद में ऐसा अनुमोदना का अवसर अपनी (कहे कलापूर्णसूरि - ३ 55 56
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आध्यात्मिक पूंजी है । किसी मिल आदि की एजेन्सी मिलने पर आनन्द होता है तो यहां अनुमोदना का अवसर मिलने पर क्या आनन्द नहीं होता? आध्यात्मिक गुणों के विकास के लिए अत्यन्त आवश्यक धर्म-वावणी है गुण-गुणवान की प्रशंसा । अनन्त पुद्गल परावर्त के बाद ही यह मिलता है । यही बीज है । बीज के बाद में अंकुर आदि दुर्लभ नहीं है, बीज ही दुर्लभ है ।
इस चातुर्मास में दोनों समाजों ने (वागड़ बीसा ओसवाल तथा वागड़ सात चौबीसी बीसा श्रीमाली) मिलकर योजना बनाई । ओसवाल समाज भाग्यशाली रहा कि ठेठ चैत महिने से अभी तक उन्हें लाभ मिला । आपका अखण्ड भक्तिभाव देख कर प्रसन्नता हुई है। हमारे अतिरिक्त किसी ने विहार भी नहीं किया । इस श्रावक-श्राविका संघ को हम क्या देते हैं ? उस सम्बन्ध में हमें सोचना है। हमारी ओर से उपदेश देने में कमी भी रह गई हो । आपके मन और कानों को जो प्रिय लगे वह हमें परोसना पड़ता है । परोसने वाले को ध्यान रखना पड़ता है कि उसे शायद दस्ते आदि न लगें, पेचिश न हो और बदहजमी न हो ।
ऐसा कुछ हुआ हो । लोग विविध प्रकार के होते हैं । हो भी , सकता है । आप की व्यवस्था उत्तम है, फिर भी हमारी ओर से आवेश में ऐसा कुछ बोला गया हो तो उन शब्दों को याद न रखें, भूल जायें । पूज्य पद्म-जीतविजयजी से लगाकर समस्त गुरु भगवंतों ने जो हम पर जवाबदारी रखी - इस वर्ग को भूलें नहीं । अतः भले सात-आठ वर्ष हम बाहर घूम आये, परन्तु अन्त में आये न ? दोनों समाज खास कभी भी शामिल नहीं होते, शामिल नहीं रहते, परन्तु इस समय दोनों ने साथ मिलकर चातुर्मास कराया न ?
कोई बोझ नहीं लगा न? प्रेमजीभाई ! क्या कोई बोझ लगा ? आपने सुना होगा कि अहमदाबाद में अभी स्वधर्मियों के लिए नौ करोड़ रूपये एकत्रित हुए । यह सब सुनकर हमें प्रेरणा लेनी है ।
यहां आराधकों में मात्र आपके समाज के नहीं, भारतभर के लोग आते रहते हैं । चातुर्मास के आराधकों के अतिरिक्त भी पांचपच्चीस दिन तक रहनेवाले भी होते हैं, परन्तु आपने कदापि इनकार (२९८ 000000000ooooooooooo कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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नहीं किया, उदारतापूर्वक सबका समावेश करते रहे हैं । पूज्य आचार्यश्री विजयकलाप्रभसूरिजी :
पूज्य गुरुदेव ने कितने सुन्दर शब्दों में अनुमोदन किया ? ऐसे दीर्घदृष्टा पूज्य गुरुदेव नहीं मिलें तो श्री संघ को मार्गदर्शन कहां से मिले ? मार्मिक प्रेरणा कौन दे ?
ऐसा लगता है कि इतने वर्षोंमें दोनों समाज के लिए कभी नहीं की हुई बातें पूज्यश्री इस चातुर्मास में करेंगे ।
संगीतकार आशु व्यास :
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श्री कच्छ-वागड़ देशोद्धारक नामथी पंकाओ छो ने भावनुं झरणुं नहीं, सागर तमे कहेवाओ छो आशुनुं आ छे भाव सर्जन, आपने चरणे धरूं कलापूर्णसूरि गुरु चरणमां, भावथी मस्तक धं मगजथी तर्क, जीभथी श्वास, अंतरथी भाव निकले छे । सत्कर्मथी सिद्धि मले तो नामना कहेवाय छे कहेवाय छे
ने भावथी इच्छा मले तो, भावना साधकथी साध्य मले तो, साधना ने हृदयथी शब्दो मले तो, प्रार्थना
कहेवाय छे कहेवाय छे
गीत
( तर्ज : बहेना रे... )
सुणजो रे... सिद्धगिरिमां चातुर्मासनो लीधो लाभ महान्, आजे तमारूं सौ करशे सन्मान |
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I
सहु तीरथमां सिद्धाचल नो महिमा छे मोटो (२) शाश्वत आ गिरिराजनो क्यांए मलशे ना कोई जोटो (२) सिद्धाचलना डूंगरे शोभे, आदीश्वर भगवान... आजे... ॥ १ ॥ कलापूर्णसूरिनी प्रेम वादलियो, झरमर झरमर वरसे ( २ ) चातक थईने जे कोई पीशे, बाकी बधा टलवलशे । (२) गुरुवरना गुणरागी थई ने गावो ने गुणगान आज. ॥ २ ॥ कलापूर्णसूरिजी, कलाप्रभसूरिजी जिनशासनना धोरी ( २ ) एमनी अमृत वाणी जाणे, फूलडाए फोरम फोरी; ( २ )
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पंन्यास कल्प ने कीर्त्तिगुरुवर, केवा रे विद्वान... आजे... ॥ ३ ॥ गणिश्री मुक्ति-पूर्ण-मुनिश्री, अद्भुत चेतना लावे (२) अन्तरथी प्रमाद हटावी शासन-रसिया बनावे; (२) पामर ने परमात्मा बनाववा आदर्यु छे अभियान... आजे... ॥ ४ ॥ साधु-साध्वी भेला थया छे, जाणे लगभग पांच सो, (२) शहेर ने गाम गलीथी आव्या, आराधक छे सोल सो; (२) विध विध तपना डंका वाग्या, नवो छे कीर्तिमान... आज... ॥ ५ ॥ श्रीमती लक्ष्मीबेन प्रेमजीभाई. भचुभाई गड़ा परिवार; (२) श्रीमती पार्वतीबेन हरखचंद वाघजी गींदरा परिवार; (२) मातुश्री पालइबेन गेलाभाई गाला परिवार- योगदान... आजे... ॥६॥ तप शत्रुजय उपवास एकावन, मासक्षमण सिद्धि तप; (२) अट्ठाई चौसठ प्रहरी पौषध, ने मोक्ष दंडक तप; (२) चक्रेश्वरी माताए सहुर्नु साध्युं छे कल्याण... आज... ॥ ७ ॥ श्री कच्छ-वागड़ वीशा ओसवाल मूर्तिपूजक जैन संघ; (२) कलापूर्णसूरि ना चौमासानो अद्भुत आव्यो रंग; (२) सिद्धगिरिना गगन-मण्डलमां, ऊडे यश-विमान... आजे... ॥ ८ ॥ धन-धन तमने मालशीभाई, खेतशीभाई, चमनभाई; (२) मालशी लखधीर हीरजीभाई, दोड्या छे वेलजीभाई; (२) आ चौमासे समय-सम्पत्ति, आपे कीधा कुर्बान... आजे... ॥ ९ ॥ कोई अमारी भूल थई होय, अमने माफी देजो; (२) आजे के काले या भावीमां, लाभ सेवानो देजो; (२) आराधक सहु आपे वधारी जिन-शासननी शान... आजे... ॥ १० ॥
THHTHHTHHT
५१ उपवास : २, ३० उपवास : २३, १६ उपवास : ३०, ९ उपवास : ७७, ८ उपवास : २६७, चौसठ प्रहरी : ४६७, शत्रुजय तप : ३१५, सिद्धि तप : ५, ५०० आयंबिल : १२
* खेतशी मेघजी :
किसी भी कार्य का अन्त तो आये ही । अनेक कार्यो का प्रारम्भ और अन्त होता ही है । आदीश्वर दादा तथा पूज्य आचार्यश्री की अमोघ कृपा से यह कार्य सफल हुआ है। इस कार्य में कैसे(३०० Wwwwwwwwwww00000G कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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कैसे अनुभव हुए ? लगता है कि जीवन का अनुपम लाभ मिला ।
बीस वर्ष पूर्व आधोई संघ की तरफ से महाराष्ट्र भुवन में चातुर्मास का लाभ मिला था, तब ७०० आराधक ही थे, परन्तु इस वर्ष साध्वीजी भगवंत ४२९ तथा १६०० आराधक हैं, विशेष लाभ मिला है। संयुक्त रूप में दोनों समाजों को यह लाभ मिला है । पूज्यश्री की कृपा से दोनों समाज निकट आये हैं जो कम सफलता नहीं है ।
__ पूज्यश्री की मुझ पर सतत कृपावृष्टि होती रही है । प्रतिदिन रात्रि में पूज्यश्रीने हितशिक्षा दी है ।
नूतन पूज्य आचार्यश्री : हमें भी नहीं देते ।
खेतशीभाई : कभी कभी ऐसा लगता है कि ज्येष्ठ तुल्य पूज्यश्री बालक तुल्य हमारे साथ वार्तालाप करते हैं ।
परमात्मा तुल्य पूज्यश्री की यह अनुपम करुणा है। श्री संघ पर पूज्यश्री की जो असीम कृपा-वृष्टि हुई उसकी कोई जोड़ नहीं है । आराधकों का ८०० का ही अनुमान था, फिर भी १५६४ की संख्या हो गई । अनेक व्यक्तियों को निराश भी करने पड़े
अनेक वृद्ध महिलाओं के आशीर्वाद मिले हैं ।
जन्म होने के सात दिन बाद पिता खो दिये । २३ वर्ष पूर्व माता खो दी । आज माता-पिता नहीं है परन्तु आप सबमें मैं माता-पिता के दर्शन करता हूं । (अश्रु) हमारा मस्तिष्क वश में न रहा हो और मुंह में से कटु शब्द निकले हों तो क्षमा करें।
दूसरा तो हम क्या कर सकते हैं ? दर्शन, पूजा, प्रतिक्रमण, पच्चक्खाण रहित हम जैसों के लिए ऐसी सेवा का अवसर मिले कहां से ? हम जैसों को दूसरा आलम्बन भी क्या है ? जो कुछ भी मिला है वह आपकी ममता से मिला है ।
धन देने वाले अनेक मिल जाते हैं, परन्तु उत्तम आराधना करने वाले बहुत कम होते हैं । इनमें दस प्रतिशत उत्तम आराधक होते हैं और उनमें से एक प्रतिशत फल मिला तो भी बहुत कहा जायेगा ।
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पूज्यश्री ने मुझे और मालशी लखधीर को चातुर्मास की जय बोलने से पूर्व वांकी में बुलाया था ।
पूज्यश्रीने कहा : 'मैं धर्म-संकट में हूं। दोनों समाजों को लाभ देना है ।' हमने पूज्यश्री की यह बात स्वीकार कर ली ।
दोनों समाज ही क्यों ? समग्र जैन शासन के श्रावक एक हो जायें तो जैन-शासन का डंका बज जाये । जीवदया, राजकारणी, चुनाव आदि के समस्त फण्ड जैनों के द्वारा ही किये जाते हैं । कत्लखानों में से जीवों को बचाने के लिए भी जैनों का योगदान होता है । जैन यदि एक हो जायें तो क्या नहीं कर सकते ?
मैं नम्र विनती करूंगा कि प्रत्येक जैन इतना संकल्प करे कि कत्लखानों आदि को प्रोत्साहन मिले ऐसे कोई शेर आदि न खरीदें । असहयोग से ये कार्य बन्ध कराये जा सकते हैं ।
शुभ कार्य में विघ्न तो आता ही है । दस्तें-वमन के रूप में विघ्न चातुर्मास में आया । अगस्त की प्रथम तारीख से बीमारी शुरु हुई है - दस्तें लगने की और वमन होने की । फिर भी किसी बीमार ने शिकायत नहीं की । उनकी समता की मैं प्रशंसा करता हूं। उनकी सेवा में कोई त्रुटि रह गई हो तो मैं पुनः पुनः क्षमा याचना करता हूं ।
आज 'हार्ट एटैक' से मृत्यु का एक केस हुआ है । कल वे दो-तीन बार बेहोश (अचेत) हो गये थे । ऐसे क्षेत्र में देह छोड़ कर वे निश्चित रूप से स्वर्ग में गये हैं, ऐसी मुझे श्रद्धा है ।
* दानेश्वरी प्रेमजीभाई ने प्रथम तो सम्पूर्ण चातुर्मास का खर्च वहन करने की बात की थी, परन्तु पूज्यश्री ने सम्पूर्ण संघ को लाभ मिले ऐसी बात की थी । प्रेमजीभाई, हरखचंदभाई, धनजीभाई आदि ने अच्छी रकम (धनराशि) लिखवाई । समस्त दाताश्रियों का अत्यन्त आभार मानता हूं ।
प्रेमजीभाई को पुनः पुनः धन्यवाद क्योंकि उन्हों ने ३३ प्रतिशत जितना हमारा बोझ हलका किया । अब भी वे देने के लिए तैयार हैं, परन्तु शायद अब आवश्यकता नहीं पड़ेगी ।
मुझे सदा लगा है कि मानो कोई अदृश्य शक्ति हमें सहायता कर रही हो । रतनशीभाई, माडणभाई, वेलजीभाई आदि कितने नाम
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लें ? अनेक सज्जनों ने सहायता की है ।
मधुर प्रवचनकार पूज्य आचार्यश्री का सदा हम पर वरद् वात्सल्यपूर्ण हाथ रहा है । उनके मधुर प्रवचन में चाबुक भी मधुर लगते हैं ।
* खीमईबेन धर्मशाला अर्थात् वागड़ के निवासियों का छोटा सा गांव कहलाता है। उसमें पूज्यश्री की निश्रा मिलने से यह तो बड़ा गांव हो गया ।
. मालशीभाई की उदारता, रायशीभाई की व्यवहार-कुशलता और जगशीभाई की भक्ति की जितनी प्रशंसा की जाये उतनी कम है।
मालशीभाई कल रुदन करते ही होंगे । सभा० : इस समय भी रुदन करते हैं । गुरुदेव ! उन्हें रोते नहीं छोडे । पूज्यश्री : हम आपको हंसायेंगे, रुलायेंगे नहीं । खेतशीभाई : आखिर दोनों समाज एक ही हैं ।
एक ही भगवान और एक ही गुरु के अनुयायी हम अलग कैसे हों ?
हमारी कभी भी आवश्यकता हो तो हमें बतायें, हम सदा तत्पर हैं । छ: छ: रविवारों पर पूज्य आचार्यश्री की निश्रा में पालीताणा में प्रथम बार सामुदायिक प्रवचनों में १७ आचार्य भगवन्, लगभग एक हजार साध्वीजी भगवन्, हजारों आराधक एक साथ बैठे हों वैसा दृश्य प्रथम बार देखने को मिला ।
सामुदायिक साधर्मिक वात्सल्य जिसके दाता आधोई निवासी हरखचन्दभाई वाघजी ।।
यह सब याद करके हृदय गद्गद् हो जाता है ।
पूज्यश्री के प्रभाव से आज तक भोजन कदापि घटा नहीं या दूसरीबार बनाना नहीं पड़ा ।
पिताश्री से भी अधिक पूज्यश्री ने जो वात्सल्य-धारा प्रवाहित की है, वह कदापि भूली नहीं जा सकेगी । __ कोई अविनय हुआ हो तो पुनः पुनः मिच्छामि दुक्कडं ।
पूज्य आचार्यश्री : खीमईबेन के चारों भाईयों ने जो भोग दिया है वह अवर्णनीय है। कहे कलापूर्णसूरि - ३00masoooomnamasoooo® ३०३)
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हमें कई बार कहते, 'यह धर्मशाला यात्रियों के लिए नहीं, परन्तु महात्माओं के लिए रखनी है। यात्री तो नित्य हैं ही। महात्माओं का लाभ कहां से मिले ? इतना बड़ा स्थान नहीं होता तो यहां कैसे रहा जाता ?
रायशी लखधीर :
पूर्व भव में हमने ऐसे पुण्य किये होंगे जिसके कारण खीमई बेन जैसी माता मिली । यों तो वे खेती का कार्य करती थी, फिर भी उन्हों ने हमें धर्म-संस्कार देने में कोई कमी नहीं रखी ।
नई मुंबई में जब पूज्यश्री ने प्रथम बार पालीताणा में चातुर्मास करने की बात की तब हम भाव-विभोर हो गये थे ।
चैत शुक्ला-४ को सोने का सूरज उगा, जिस दिन इस धर्मशाला में पूज्यश्री का संघ के साथ पदार्पण हुआ । धर्मशाला पवित्र हो गई । फिर तो बहुत ही शानदार अनुष्ठान हुए ।
साढ़े पांच महिनों तक पूज्यश्री का सान्निध्य मिला जो हमारा पुण्य है । वाचना के समय तो ऐसा लगता मानो भगवान देशना दे रहे हों । इस होल में सर्वत्र पूज्यश्री की आवाज सुनाई देती । यह मैं ने प्रत्यक्ष देखा है ।
जिन्हें जैन समाज में सर्वोत्कृष्ट रूप में प्रत्येक समुदाय के लोग देखते है, ऐसे पूज्यश्री का सतत साढ़े पांच महिनों तक सान्निध्य मिला है जिसका हमें गौरव है ।
__ अत्यन्त सावधानी रखते हुए भी व्यवस्था में त्रुटि रह गई हो तो मिच्छामि दुक्कडं मांगता हूं ।
मालशी लखधीर :
एक साथ वागड़ समुदाय रह सके ऐसा स्थान अमुक अंशो में बना उसका गौरव है ।
पालीताणा में हैं तब तक यहां लक्ष्य रखें, ऐसी पूज्यश्री को विनती है ।
ABNAIL
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पू. भुवनभानुसूरिजी के साथ, सुरत,
वि.सं. २०४८
१०-९-२०००, रविवार
भादौं शुक्ला - १२ : खीमईबेन धर्मशाला
( १ ) आकालमेते परार्थव्यसिननः ।
*
भगवान पुरुषोत्तम हैं । भगवान की श्रेष्ठता किस तरह है ? भगवान करुणा के सागर, गुणों के भण्डार हैं । यह तो हम जानते ही हैं । इससे दूसरी श्रेष्ठता कौन सी ?
भगवान की करुणा-शक्ति कितनी ?
इन्द्रभूति तो भगवान के साथ वाद करने के लिए आये थे, परन्तु भगवान के दर्शन से उनके 'अहं' का पर्वत टूट गया और उसमें उन्हें भगवान के दर्शन हुए । फिर तो वे ऐसे नम्र बने कि उनकी जोड़ कही न मिले ।
चण्डकौशिक जैसा हिंसक नाग भगवान के प्रभाव से शान्त हो गया ।
चण्डकौशिक ने भी भगवान को जलाने के लिए पहले ज्वाला ही फेंकी थी, परन्तु भगवान की करुणता तो देखो । उन्हों ने उसे भी शान्त कर दिया ।
भगवान के सिवाय ऐसा पुरुषार्थ करने का विचार भी कौन दे ? दूसरे जीव मेरे समान हैं। मुझे उनकी रक्षा करनी चाहिये । (कहे कलापूर्णसूरि - ३
३०५
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भगवान की कृपा के बिना ऐसा विचार नहीं आ सकता । मेघकुमार के हाथी के भव में भी यह कृपा ही काम करती थी । पाप नहीं करने का विचार भगवान के प्रभाव से ही आता है ।
नेत्रों में से झरती करुणा के प्रभाव से चण्डकौशिक जैसे के चंड-प्रचण्ड क्रोध का शमन कर देना, उन भगवान की करुणा कितनी तीक्ष्ण, कितनी प्रभावशाली होगी ?
ऐसी करुणा के सागर भगवान पुरुषोत्तम न हों तो दूसरे कौन होंगे ?
दया, दान एवं करुणामय जितने पुरुष होते हैं, उनमें भगवान प्रथम नम्बर पर आते हैं । अतः भगवान को पुरुषोत्तम कहा गया है ।
दया, दान आदि ऐसे दस गुण यहां बताये हैं । भगवान का सर्व प्रथम गुण है
परोपकार । आकालमेते
परार्थ व्यसनिनः ।
( २ ) उपसर्जनीकृतस्वार्थभावाः ।
भगवान स्वाभाविक रीति से ही परोपकार-व्यसनी होते हैं । वे स्वार्थ को गौण मानकर चलते हैं । नयसार के भव में देखो । अपने खाने के समय दूसरे को खिलाने का विचार आता है । यही परार्थता है । नयसार ने पहले भोजन नहीं किया । वे पहले महात्मा को बुलाने जाते हैं ।
इसके समक्ष हम कैसे हैं ? हो सके वहां तक दूसरे का काम नहीं ही करना । विवशता हो तो ही करना । चार घड़े पानी लाना हो तो चार घड़े ही लाना । अधिक नहीं । कहीं अधिक पुण्य बंध जाये न ? परार्थ व्यसनिता की बात जाने दो । हम में परार्थ की एक बूंद भी नहीं है । 'हमारा' शब्द का मैं इसलिए प्रयोग करता हूं क्योंकि मैं भी साथ ही हूं । लुणावा में पूज्य पं. भद्रंकरविजयजी महाराज में देखा । चाहे जैसी तबियत हो तो भी उनकी परार्थता सतत चलती ही रहती थी । वे किसी को भी निराश नहीं करते थे ।
भगवान तो वृक्ष में भी कल्पतरु बनते हैं, पत्थर में चिन्तामणि बनते हैं । वहां भी परोपकार होता रहता है ।
३०६ ८८wwwwwwww कहे कलापूर्णसूरि- ३
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मेघरथ राजा (शान्तिनाथ का जीव) ने तो एक कबूतर को बचाने के लिए अपने प्राण देने की तैयारी बताई थी । इस जीवन से यदि किसी का जीवन बचता हो तो इससे अधिक दूसरा कौन सा लाभ?
धर्मरूचि अणगार को याद करें । चींटियों को बचाने के लिए वे विषाक्त सब्जी खा ही गये ।
चौक को घिस कर हजारों चींटियों को मार डालने वाले क्या यह बात सुनेंगे ? - 'चूहों को, चींटियों को मारने की दवा' - यह पढने पर पहली बार पता लगा कि मारने की भी दवा होती है । मैं तो समझता था कि दवा तो सिर्फ जीवित ही रखती है । हम ऐसे युग में जी रहे हैं, जहां मारने की भी दवा मिलती है ।
ऐसे काल में भी दूसरे की मृत्यु में अपनी मृत्यु देखने वाले भगवान हमें मिले हैं, यह कैसा सौभाग्य है अपना ? (३) उचित-क्रियावन्तः ।
उचित व्यवहार -
जिस जीव की जैसी कक्षा है, उसके साथ वैसा ही व्यवहार करना वह औचित्य है ।
तीर्थंकर का जीवन औचित्यपूर्ण होता है। तीर्थंकर का जीवन प्रतिदिन पढ़ने योग्य होता है। यह नित्य नहीं कर सकते अतः प्रतिवर्ष कल्पसूत्र सुनना होता है। कल्पसूत्र में देखा न? भगवान कितने औचित्य के भंडार हैं । वे ज्ञानी होते हुए भी पाठशाला जाने का इनकार नहीं करते । वे बालकों के साथ खेलने का इन्कार नहीं करते । (४) अदीन भावाः ।
__ अदीन भाव - चाहे जैसा प्रसंग आये तो भी कदापि निर्धन बन कर दूसरे के पास मांगे नहीं । (५) सफलारम्भिणः ।
सफलारम्भ - जिस कार्य में निष्फलता मिलने जैसा हो, उसमें सिरपच्ची न करें । (६) अदृढानुशयाः ।
शायद क्रोध आये वैसे प्रसंगों में भी उनके क्रोध में अनुबंध न हो ।
३00000000000000000000३०७
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(७) कृतज्ञतापतयः ।
किसी भी व्यक्ति का उपकार वे कदापि नहीं भूलते । वे कृतज्ञता गुण को ऐसा आत्मसात् करते हैं कि वे उसे कदापि छोड़े नहीं । आपने यदि नौकर को पुत्र की तरह रखा हो तो क्या वह आपको छोड़ कर कभी जायेगा ? गुणों पर नियन्त्रण हो तो वे हमें छोड़ कर कदापि जायेंगे नहीं ।
सचमुच तो गुण ही अपना सच्चा परिवार है ।
मैं आत्मा ! ज्ञानादि गुण मेरे ! नित्य संथारा पोरसी में ऐसा याद करते हैं न ?
जिसको ऐसी प्रतीति हो चुकी हो उसे कोई स्थान छोड़ने में दुःख होगा ? कल ही यह स्थान छोड़ना है तो दुःख थोडा ही लगेगा ?
इसी प्रकार से यह देह भी छोड़नी है। इसमें दुःख कैसा ? _ 'यः पश्येन्नित्यमात्मानमनित्यं परसङ्गमम् ।'
जो आत्मा को नित्य एवं 'पर' के संयोगों को अनित्य माने उसे मोह क्या कर सकता है ?
ऐसे शास्त्रों के स्वाध्याय से ही सद्गुण प्रकट होते हैं ।
आप अपने पुत्रों कों ऐसी सलाह देते हैं ताकि हानि न हो, लाभ ही हो, उस प्रकार भगवान ने ऐसे शास्त्र दिये हैं जिनका पालन करने से लाभ ही होता है, हानि तनिक भी नहीं होती ।
प्रातः काल से सायंकाल तक के साधु-जीवन के अनुष्ठानों में क्या तनिक भी हानि है ? पल-पल में अनन्त कर्मों को क्षय करने की अनुष्ठानों में शक्ति है।
एक भी श्लोक या पद कण्ठस्थ कर लो तो वह आपके लिए आजीवन भाथा बन जायेगा ।
__ पू.पं. कीर्तिचन्द्रविजयजी : कौनसा श्लोक आत्मसात् किया जाये ?
पूज्यश्री : अनेक श्लोक हैं । कुछ उदाहरण बताऊं क्या ? 'आया हु मे नाणं... आया मे संजमे' "एगोहं नत्थि मे कोइ ।' 'उपयोगो लक्षणम्'
ऐसे पदों में से कोई भी एकाद पद पकड़ कर आप अपनी भावधारा को विशुद्ध बना सकते हैं । (३०८ 66666
कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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आया मे सामाइअस्स अट्ठे' यह कितना सुन्दर वाक्य है ? मेरा अपना तो सब भूल गया हूं, परन्तु यहां जो बोलता हूं वह तो भगवान स्मरण करा देते हैं ।
4
* आत्मा ही दूल्हा है । आप बिना दूल्हे की बारात में कभी गये हैं ? अपनी साधना के मूल में मुख्य आत्मा ही है, उसे ही हम भूल गये हैं ।
* दुर्गुणों के साथ ऐसा व्यवहार करें कि अपने आप स्थान छोड़ कर वे भाग जायें । अनचाहे अतिथियों (मेहमानों) क्रोध आदि दुर्गुणों को मिष्टान्न खिलाते रहोगे तो वे कदापि नहीं जायेंगे । जिनके क्रोध आदि स्वस्थ हैं उनकी आत्मा अस्वस्थ रहेगी । जिनके क्रोध आदि अस्वस्थ हैं उनकी आत्मा स्वस्थ रहेगी ।
भगवान के ये गुण सुनकर लगना चाहिये कि ऐसे गुण तो गृहस्थ जीवन में ही आ जायें तो कितना उत्तम होगा ?
कतिपय आत्मा ही ऐसी होती हैं कि जो स्वाभाविक रीति से ही कम बोलती हैं, आवश्यक हो वही बोलती हैं ।
परोपकार भाव सहज ही होना चाहिये, दान आदि गुण भी होने चाहिये । गांधीधाम वाले देवजीभाई में ये सब गुण थे । अनेक बार विचार आता है कि ये गुण कहां से आये होंगे ?
I
नाम भी 'देव' देव तुल्य गुण लेकर ही आये थे । धर्मराजा का सेनापति सम्यग्दर्शन है और मोहराजा का सेनापति मिथ्यादर्शन है ।
सम्यग्दर्शन को प्रधानता नहीं देंगे तो मिथ्यात्व दुर्गति में ढकेले बिना नहीं रहेगा ।
जीवों की करुणा और प्रभु भक्ति इन दोनों से ही सम्यग्दर्शन प्रकट होता है । भक्ति प्रकट होने पर जीवों के प्रति प्रेम जगेगा ही, क्योंकि भगवान उत्तम चैतन्य है । उनके प्रति प्रेम प्रकट होने पर ही जगत् में फैले हुए समस्त चैतन्यों के प्रति प्रेम प्रकट होगा
ही ।
'उत्तम संगे रे उत्तमता वधे ।
रागी संगेरे राग - दशा वधे, थाये तेणे संसारोजी ।' निरागीथी रे रागनुं जोडवुं, लीजे भवनो पारोजी । कहे कलापूर्णसूरि ३
6.०० ३०९
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रागी का संग करोगे तो राग बढ़ेगा । त्यागी का संग करोगे तो त्याग बढ़ेगा । संसार में से कदापि निकलना नहीं हो तो ही राग-दशा बढ़ाये ।
संसार में से निकलना हो तो वीतराग का राग करें, व्यक्ति का नहीं । तद्गत गुणों का राग करें । उनका राग आते ही, वे गुण आपके हो जायेंगे । दोषों के प्रति धिक्कार-भाव होते ही वे दोष आप में से भाग जायेंगे । दोषों को भगाने की हमें उतावल नहीं है क्योंकि हमें विश्वास है : दुर्गति में नहीं ही जायेंगे । हमारे चाचा-मामा वहां बैठे हैं, जो बचा लेंगे !
यहां ४०० साध्वीजी हैं । क्या प्रत्येक बार ऐसा अवसर मिलेगा ? अवसर मिला है तो उपयोग क्यों न करें ? दोषों के नाश एवं गुणों की वृद्धि के लिए प्रयत्न क्यों न करें ? इस समय नहीं करेंगे तो कब करेंगे ?
तीर्थंकर भगवान का अनुशय अस्थायी होता है । क्रोध शायद आयेगा सही, परन्तु हलदरिये रंग की तरह उड़ जाता है ।
भगवान कृतज्ञता के स्वामी हैं । वे उपकारी को कदापि नहीं भूलते । उपकारी को भूलने से उनके द्वारा प्राप्त गुण भी चला जाता है । उपकारी को भूलने से कौन से आचार में दोष लगता है ? दर्शनाचार में दोष लगता है ।
अर्थात् मिथ्यात्व का उदय हो तो ही गुरु का अपलाप होता है । गुरु ने आपको दीक्षा देकर आपका संग्रह किया, यही गुरु का बड़ा उपकार है ।
एक छोटी पुस्तिका अथवा एक अक्षर पढ़ाने वाले का भी उपकार नहीं भूला जाता तो गुरु का उपकार कैसे भूला जाये ? (८)अनुपहतचित्ताः ।
__ भगवान का चित्त कदापि उत्साह-रहित नहीं होता, निराश नहीं होता । वैसे ही उत्साह के बिना तीर्थंकर नाम-कर्म नहीं बंधा । ज्वलन्त उत्साह चाहये उसके लिए । जगत् के समस्त जीवों का उद्धार करने के लिए कितनी ऊर्जा चाहिये ? उसके लिए कितना वीर्योल्लास चाहिये ?
तीर्थंकर के समान लोकोत्तर उपकार कोई भी नहीं कर सकता । (३१०0000000000000000000 कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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सम्यग् ज्ञान आदि देकर जीवनभर आपकी रक्षा करने का उत्तरदायित्व भगवान के अतिरिक्त कौन निभा सकता है ?
तीर्थ चलता है तब तक भगवान का अनुग्रह अखण्ड रूप से चलता ही रहेगा । इसका अर्थ यह हुआ कि इस समय भी भगवान ध्यान रख रहे हैं । इसका अर्थ यह भी हुआ कि भगवान ही शासन चला रहे हैं । वे ही शासन की प्रभावना कर रहे हैं । हम प्रभावना करने वाले कौन हैं ? मात्र निमित्त बनें इतना ही । हम अधिक अधिक तो वाहक बन सकते हैं, परन्तु भीतर वहन होता तत्त्व तो भगवान का ही है ।
ऐसे सद्गुणों के भण्डार हमें मिले हैं, यह जान कर उनके प्रति कैसा प्रेम उमड़ता है ?
(९) देवगुरुबहुमानिनः ।
1
I
देव - गुरु के बहुमान से ही वे स्वयं भी ऐसे भगवान बने हैं । अरिहंत बनने वाले अरिहंत की उपासना से ही बने हैं । बीस स्थानक में पहला अरिहंत पद है । शेष उन्नीस में भी अरिहंत अनुस्यूत है ही । किसी भी एक को पकड़े, अरिहंत आ ही जायेंगे । इसीलिए किसी भी एक पद से भी तीर्थंकर नाम कर्म बांध सकते हैं । ये दसों गुण तीर्थंकर बनने की कला है, तीर्थंकर बनने के बीज हैं ।
यदि ये गुण नहीं दिखाई देते हों तो समझ लें कि तीर्थंकर पद में से हम निकल गये ।
कइयों के गुण ही ऐसे होते हैं जिन्हें देख कर ही शब्द निकल जाते हैं कि ये तीर्थंकर बनेंगे । ये तो तीर्थंकर की आत्मा हैं । (१०) गंभीराशयाः ।
प्राण जायें, परन्तु किसी के दोष-दुर्गुण कदापि कहते ही नहीं, जानते हुए भी नहीं कहें ।
I
गंभीर आशयरहित गुरु के पास आलोचना नहीं ली जाती । वैसे गुरु नहीं मिलें तो १२ वर्षों तक प्रतीक्षा करने का शास्त्रों में कहा है । एकबार मैं भी ऐसा ही पापी - दोषी था । ऐसी विचारधारा से किसी के भी प्रति धिक्कार उत्पन्न नहीं होता, गम्भीरता बनी रहेगी । गम्भीर आशय मिलना अत्यन्त कठिन हैं ।
कहे कलापूर्णसूरि- ३
३११
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योगसार में तो कहा है - 'गुणीयल जनो द्वित्रा' - दो तीन ही मिलेंगे । शेष सारी दुनिया व्यर्थ है ।
हमें कौन सा नम्बर लगाना है ? दूसरे के छोटे गुण को भी पर्वत के समान माने । अपने छोटे से दोष को भी पर्वत तुल्य मानें । तो ही आत्म-विकास के पथ पर जा सकेंगे ।
यह होगा तो ही अक्षुद्रता गुण आयेगा । श्रावक का प्रथम गुण अक्षुद्रता है।
बाह्य आचार-विचार भिन्न वस्तु है, भीतर की योग्यता भिन्न वस्तु है । हरिभद्रसूरिजी योग्यता पर बल देते हैं ।
___ अध्यात्म का मुझे अत्यन्त ही शौक था और सत्साहित्य नहीं मिला होता तो मैं भी कहीं टेढ़े-मेढ़े मार्ग पर चढ़ गया होता । खेरागढ़ में मुझे अध्यात्म की ढेर सारी पुस्तकें मिली । उनमें पृष्ठ खोलते ही पढ़ने को मिला कि उपादान तैयार करें । उपादान ही मुख्य है । उपादान तैयार होगा तो निमित्त को आना ही पड़ेगा । मैं ने तुरन्त ही वह बही बन्द कर दी और मैं ने उन्हें कहा, आपके यह साहित्य काम का नहीं है । मैं ने तो पू. देवचन्द्रजी का साहित्य पहले पढ़ा ही था ।
'उपादान आतम सही रे, पुष्टालंबन देव... ।' ऐसा साहित्य मुझे नहीं मिला होता तो? आज मैं कहां होता ?
मालशीभाई : अभी तक हम मूर्ख यही मानते थे कि वाचना साधु-साध्वियों के लिए ही होती है, परन्तु अभी वांचना सुन कर लगा कि हम बहुत चूक गये ।
पूज्य साधु-साध्वीजियों के प्रति मेरी ओर से कोई भी अविनय हुआ हो तो उसके लिए मैं मिच्छामि दुक्कडं मांगता हूं ।
३१२00oooooooooooooooooo का
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दीक्षा पदवी प्रसंग, वि.सं. २०४१, डीसा
११-९-२०००, सोमवार भादौं शुक्ला-१३ : सात चौबीसी धर्मशाला
उत्तरार्द्ध चातुर्मास प्रवेश
दीप प्रज्वलन - धीरुभाई शाह ( अध्यक्ष : गुजरात विधानसभा)
स्वागत गीत : संगीतकार आशु व्यास
हे... जिनशासनना ज्योतिर्धर ने महिमा अपरम्पार; कलापूर्णसूरीश्वर गुरुवर ने, मारा वन्दन वारंवार... जिनशासन शणगार कलापूर्ण सूरिने होजो वन्दन वारंवार... जिनशासन... मरुधर देश फलोदी नगरे, प्रगट्या तेज सितारा, पिता पाबुदानजी माता खम्मादेवीना प्यारा; बालपणामां धर्म-कर्मना उच्च मल्या संस्कारो, आ संसारने मांड्यो छतांये, लागे उपाश्रय प्यारो, करता एक विचार...
कलापूर्णसूरिने. (कहे कलापूर्णसूरि - ३000000000 00003 ३१३)
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कंचन गुरुजीनी वाणी सुणतां हैयुं एमनुं डोले,
आ संसारनी झूठी माया, ने ममताने तोडे; त्रीस वरसनी आयुमां संयमथी नातो जोड़े, पत्नी-पुत्रो-ससरा साथे, आ संसारने छोड़े, आप बन्या अणगार...
कलापूर्णसूरिने... पुरुषादाणी पार्श्वप्रभुनी भक्तिथी रंगाया, नवकार मंत्रने जपतां जपतां आतम सिद्धि पाया; कर्मठ संत अध्यात्मयोगी शासनमां पंकाया, कच्छ वागड़ देशोद्धारक छो सहुना लाडकवाया, छो गुणना भण्डार...
कलापूर्णसूरिने... कलाप्रभसूरिजी पासे ज्ञान तणो भंडार, पंन्यास कल्पतरुविजयजी शान्तिनो अवतार; पंन्यास कीर्तिविजयजीना सुणजो सुविचार, गणिश्री मुक्ति-पूर्ण-मुनिना माथे छे बहु भार, सहुए मिलनसार...
कलापूर्णसूरिने... जिन-शासन धुरंधरो जे आपनी माने वात, क्रोध-कषाय-क्लेश ने साचे आपे कीधा छे महात; आपना चरणे सह कोई आवे, नहीं कोई नात के जात, तमे अमारा मात पिता छो तमे अमारा तात, कीधा छे उपकार...
कलापूर्णसूरिने... पालीताणामां आप पधार्या जाग्या भाग्य अमारा; जीवन नैया सौंपी तमने आप छो तारणहारा; । कठपुतलीना नाटक जेवा आ जीवन छे अमारा; आ जीवनमां मोह ने मायाना दीसे अंधारा, नयने अश्रुधार...
कलापूर्णसरिने... साधु-साध्वी चारसो साएठ ने सोलसो आराधक, कलापूर्णसूरिजी मलिया, एक साचा उद्धारक; आ दुनियामां सिद्धगिरि जे भव्य जीवोना तारक, गुरुजी अमने संयम लेवा आप बनावो लायक, सपनुं करो साकार...
कलापूर्णसूरिने... (३१४ 000000000000000000000 कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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कलापूर्णसूरिजीनो हुँ छु चरणोनो दास, आपे आशुना जीवनमां पाथर्यो छे अजवास; दूध-पाणी सम प्रीत छे मारी जेम माखण ने छास, आपना उपकारे गाजे छे आजे आशु व्यास, नहीं भूलुं उपकार...
कलापूर्णसूरिने... आपना पगले पावन थई खीमईबाई धर्मशाला, अहीं आराधक आव्या एमना घेर लगावी ताला; काले उपवन उजड़ी जाशे, थाशे सुना माला, आज अमारा नयने वरसे आंसुडानी धारा, करजो कांई विचार...
कलापूर्णसूरिने... सिद्धगिरिए आप पधार्या, आनन्द मंगल थाय, बे बे महिना क्यां वीत्या छे, अमने ना समजाय; कालजा केरो कटको नहीं पण, कालजें छूटी जाय, अम हैयामां आप बिराज्या ना लेशो विदाय, विनंती वारंवार...
कलापूर्णसूरिने... __- संचालन : प्रभुलाल के. संघवी
पूज्य आचार्यश्री विजयजगवल्लभसूरिजी :
जिनके हृदय में भक्ति एवं करुणा की धारा निरन्तर बह रही है, ऐसे पूज्य आचार्यश्री के स्पर्श से पापी भी पावन बनते हैं।
जगत् को पावन करने वाली विश्व की इस महान् विभूति का यहां पदार्पण हो रहा है ।
'ये महापुरुष दीर्घायु हों, हमें पावन करते रहें ।' ऐसी हृदय की भावना है ।
गत वर्ष बीलीमोरा में ये पूज्यश्री मिले थे । मुझे ऐसी अपेक्षा नहीं थी फिर भी सायंकाल में विहार के समय पूज्यश्री ने विशेष तौर से कहा था कि विहार नहीं करना है, परन्तु रात्रि में यहां ठहरना है। पूज्यश्री ने रात्रि में मुझे यादगार बनें ऐसी बहुत हितशिक्षा दी ।
पूज्यश्री जब तक जीवित रहेंगे तब तक जगत् को पावन करते रहेंगे । (कहे कलापूर्णसूरि - ३ wooooooooooommmmmms ३१५)
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हे गुरुदेव ! शतं जीव शरदः । इतना ही कहकर मैं विराम लेता हूं।
पूज्य आचार्यश्री विजयहेमचन्द्रसागरसूरिजी :
आषाढ़ शुक्ला ११ का दिन ! अनेक पूज्य आचार्य देवों के साथ चातुर्मास-प्रवेश का अवसर !
तलहटी के प्राङ्गण में सामुदायिक चैत्यवन्दन ! उस समय ही विराट् मानव-मेदिनी के अद्भुत दृश्य का सृजन हुआ ।
उसके बाद चातुर्मास में अनेक अनुष्ठान हुए । धीरुभाई ! आप पर्दूषण से पूर्व किसी रविवार को आये होते तो कदापि देखने को नहीं मिले वैसा ऐश्वर्य देखने को मिलता । आप विलम्ब से आये ।
यह ऐश्चर्य कहां से आया ? यह जाज्वल्यमान व्यक्तित्व ही इसका मूल है ।
घी का डिब्बा लेकर जटाशंकर गाड़ी में खड़ा रहा । साफे से डिब्बा बांध कर रेलगाड़ी की चैन से बांधने के कारण रेलगाडी रुक गई । इस पर रेलगाड़ी के ड्राइवर ने उसे पूछा - 'तुमने डिब्बा चैन से क्यों बांधा ? तेरे कारण रेलगाड़ी रुक गई ।'
जटाशंकर बोला, 'रुकेगी ही न ? शुद्ध घी का डिब्बा है।'
ऐसे पुण्य पुरुष हों और यहां ऐश्वर्य नहीं जमे तो फिर कहां जमे भी ?
पूज्यश्री के आकर्षण से ही यहां हमने चातुर्मास किया है। अन्यथा हमने अन्यत्र चातुर्मास करने का विचार किया था ।
पूज्य आचार्यश्री को मैं कहूंगा, 'अब तो आप बिल्कुल समीप आये हैं । (सात चौबीसी धर्मशाला पन्ना-रूपा के पास में है। पू. हेमचन्द्रसागरसूरिजी का चातुर्मास पन्ना-रूपा में था) मारवाड़ के हैं परन्तु आप तनिक भी कंजूसाई न करें ।
धुरन्धरविजयजी महाराज : मारवाड़ी तो उदार होते हैं । पूज्य आचार्य विजयकीर्तिसेनसरिजी :
जिसके प्रत्येक सांस में, तीनों योगों में, पांचो इन्द्रियों में, सातों धातुओं में, असंख्य आत्म-प्रदेशों में जिन-भक्ति एवं जीव-मैत्री रमण करते हों, ऐसे ये पुण्य-पुरुष पूज्य आचार्यश्री
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यह दृश्य देखकर विचार आता है कि एक व्यक्ति की कितनी शक्ति है ?
पूज्यश्री की वाचना में एक बार सुना था, 'सर्वार्थसिद्ध से लगा कर निगोद के जीवों में से एक जीव के एक भी प्रदेश की पीड़ा हम सबकी पीड़ा है, यह लगना चाहिये ।' यह है जीवमैत्री की पराकाष्ठा !
ऐसे पुण्य-पुरुष के साथ अपन भी शीघ्र मुक्ति में जायें, वैसी आशा-अपेक्षा के साथ ।
पूज्य मुनिश्री धुरन्धरविजयजी :
वागड़ सात चौबीसी धर्मशाला तो हमारे लिए तीर्थ स्थल बन गई है, जहां चतुर्विध संघ के समस्त सदस्य अनेकबार एकत्रित हुए हैं । यह तो समवसरण था जिसकी बार-बार रचना हुई । समवसरण की रचना वहीं होती है जहां भगवान उपस्थित होते हैं ।
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पूज्य कलापूर्णसूरिजी ने जन्मान्तरीय साधना के द्वारा भगवान के साथ की एकता सिद्ध की है । दिखाव में देह उनकी है, परन्तु भीतर भगवान बिराजमान हैं ।
यह प्रभाव व्यक्ति का नहीं है, उनके भीतर विद्यमान भगवान का है । इसके बिना इतना प्रभाव सम्भव हो ही नहीं सकता । पूज्य श्री का एक ही प्रयास है कि भगवान का शुद्ध स्वरूप हमारे भीतर प्रकट हो । यह शुद्ध स्वरूप हमने प्राप्त नहीं किया, इसीलिए भटक रहे हैं ।
भगवान सर्वत्र हैं ही, मात्र उसकी अनुभूति की आवश्यकता है । यदि यह हो जाये तो कोई भी दर्द अथवा दुःख रह नहीं
सकता ।
पौद्गलिकता के वर्तमान वातावरण में अहंकार तीव्र है । इसके लिए नमस्कार भाव की तीव्र आवश्यता है । यह मिशन लेकर ही पूज्य श्री बैठे हैं ।
इनका आवाज नहीं पहुंचता तो भी आप शान्ति से बैठे हैं । जो भीतर भगवान के वास के प्रभाव से बैठे हैं ।
मात्र कलापूर्णसूरि को नहीं, उनके भीतर भगवान को देखो । जब अचेतन पत्थर में भगवान देखे जा सकते हैं तो
(कहे कलापूर्णसूरि ३
WWWळ ३१७
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फिर चेतन में भगवान क्यों न देखे जा सकें ? वे यही देना चाहते हैं तो ही ऋण से मुक्ति हो सकती है ।
"पू. पंन्यासजी महाराज के पास से जो मिला है वह सबको देना है। तो ही ऋणमुक्ति होगी ।" ऐसा पूज्यश्रीने खास एक बार मुझे कहा था ।
वि. संवत् २०४४ के सम्मेलन में पूज्यश्री प्रारम्भ करने से पूर्व बारह नवकार गिनने का कहते थे । बारह नवकार अर्थात् समवसरण । तीन प्रदक्षिणा देते समय एक-एक नवकार गिनने से बारह होता हैं । इसी लिए बारह नवकार का महत्त्व है ।
दो दो समाजों के एक मात्र गुरुदेव सच्चे तब ही गिने जायेंगे जब आप उनके मिशन को पहचानोगे ।
मेरे प्रगुरुदेव पूज्य पं. भद्रंकरविजयजी महाराज का ध्येय था कि किसी प्रकार यह श्रमण संघ एक हो ।
यह ध्येय इन पूज्यश्री को पूर्ण करना है । उसके लिए पूज्यश्री को १०० वर्षों तक जीवित रहना है। उसके बाद इन्हें मोक्ष मार्ग पर जाना हो तो भले जायें ।
पूज्य भानुचन्द्रसूरिजी :
भाग्यशालियों ! हम कितने पुण्यशाली हैं ? मानव-भव, जैनकुल आदि मिलने के बाद कलापूर्णसूरिजी जैसे सद्गुरु प्राप्त हुए ।
पूर्व भव की प्रबल पुण्याई से ही ऐसा प्राप्त होता है । मात्र मिलने से कुछ नहीं होता, परन्तु मिलने के बाद पूज्यश्री के अन्तर के उद्गार समझने हैं ।
शास्त्रों के अनुसार बोलने वाले आचार्य भगवन् तीर्थंकर-तुल्य हैं, जिनकी झलक मुझे यहां दिखाई देती हैं ।
ऐसी पुण्याई कहीं देखी नहीं है ।
ऐसे महान् आचार्यश्री के आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए हमारा सबका तरसना स्वाभाविक है।
* पूज्यश्री की वाचना का निष्कर्ष मैं ने इस प्रकार निकाला
(१) सकल संघ की कुशलता होनी चाहिये । नवकार का जाप
करने से ही योग-क्षेम (कुशलता) होगा । (३१८ 600mmoomwww6666 कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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(२) सभी गुणानुरागी बनें । छोटे सदस्य में भी कुछ गुण तो होगा ही, उसकी उपबृंहणा करें।
यह गुण आ जाये तो एकता की लगन साकार हुए बिना नहीं रहेगी। (३) सकल संघ जिनवाणी का श्रवण करे जिससे कमी दूर
होगी। पूज्यश्री की वाचना का सार रखा है। पूज्यश्री के अन्तर की यही भावना है । इसे आचरण में लाकर जीवन को मंगलमय बनायें । अध्यात्मयोगी पूज्य आचार्यश्री :
सचमुच, आप सब समय निकाल कर उपस्थित हुए हैं । कोई विशिष्ट प्रसंग नहीं है, मात्र धर्मशाला बदली है।
गुरु-तत्त्व के प्रति लगाव देख कर हृदय नाच उठता है ।
हम भी आप सबके दर्शन करके तृप्त हो रहे हैं, देव एवं गुरु के प्रति प्रेम के दर्शन करते हैं ।
यहां के वैभव का मुख्य कारण आदीश्वर दादा हैं । दुर्बल देहवाला एक व्यक्ति क्या कर सकता है ? दादा का ही यह प्रभाव है।
इन आचार्य भगवंतो ने जो उद्गार निकाले हैं उनसे प्रतीत होता है कि सबको प्रभाव हुआ है ।
आप तो वर्षों से पास में हैं, फिर भी प्रभाव क्यों नहीं पड़ा ? शायद मुझ में ही कमी होगी ।
मैत्री भाव की सिद्धि हो चुकी हो तो उसे देख कर शत्र प्राणी शत्रुता भूल जाता है, और आप अभी मैत्री बढ़ा नहीं सकते । अतः मैं मानता हूं कि मेरी साधना में ही कमी है ।
अभी जिन महात्माओं ने उद्गार निकाले हैं, उनके उद्गार फलीभूत हों । ___ मेरे हृदय में तीर्थंकर भगवान प्रतिष्ठित हों ।
सामान्यतः एक का गुण-गान हो तो दूसरे के गौरव का हनन होता हो उस प्रकार दूसरे को लगता है, फिर भी यहां समस्त महात्माओं ने प्रेम पूर्वक गुण-गान किया । मुझे स्वयं को आश्चर्य होता है, (कहे कलापूर्णसूरि - ३0mmmmmmmmmmmmmmmmm ३१९)
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ऐसा इस दुर्बल देह में क्या देखा ?
भगवान आज भी है, परन्तु कहां है ? ऐसे आचार्य भगवंत (दीक्षा पर्याय में कोई मुझ से बड़े भी होंगे) ऐसे उद्गार निकालें तब मुझे समझना पड़ेगा कि जैन-शासन अद्भुत है ।
एकता का यह वातावरण अलग होने के बाद भी जाने वाला नहीं है, चालु ही रहेगा ।
भगवान आज भी हैं, परन्तु कहां हैं ? वे प्रत्येक घट में बसते हैं, परन्तु हम ही सामने नहीं आते ।
भगवान की यह मूर्ति क्या मात्र मूर्ति है ? क्या यह नवकार मात्र अक्षर हैं । यह तो साक्षात् सर्वज्ञ एवं सर्वग भगवान हैं । उस चतुर्विध संघ में भी भगवान क्यों न हों ? देखने के लिए आंख हों तो प्रत्येक सदस्य में भगवान दिखाई दें ।
यह दृष्टि विकसित करने के लिए आप प्रयत्नशील बनें ।
इस धर्मशाला मे अनेक व्यक्तियों का योगदान (भाग) है। अब इसका सदुपयोग कितना सुन्दर हो रहा है ? आप देख रहे हैं न ?
लाभ लेने वाले को कितना पुण्य हुआ यह दिखाई देता है न ?
इस धर्मशाला के निर्माण में आपका कोई बाकी हो तो दिल खोलकर आप इसमें सहयोग दें ।
दबाव से दो तो टैन्शन कहलाता है। भाव से करो तो दान कहलाता है ।
जिनवाणी का अमृत पान करने के लिए हम गुरु-भगवंत को बुलाते हैं; तो जिनवाणी श्रवण करके गुरु का समागम सफल करें ।
(अम्बाबेन वेलजी मलूकचन्द की तरफ से चातुर्मास फण्ड में ११ का दान दिया गया है। मुख्य दाता के रूप में उनका बिरुद है।)
धीरुभाई शाह (अध्यक्ष : गुजरात विधान सभा):
पूज्य आचार्यश्रीयों के कहने के बाद मेरे लिए कुछ कहने का नहीं रहता, क्योंकि मैं गुजरात विधानसभा का अध्यक्ष हूं ।
परन्तु यहां धर्म संसद है, जिसके अध्यक्ष (पूज्यश्री) यहां (३२०0000 00000 कहे कलापूर्णसूरि - ३
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बिराजमान हैं।
वहां तूफान हो तो बहुत कठिनाई होती है। उन्हें समझाने के लिए नियम बताना पड़ता है, परन्तु यहां तो गुरुदेव ने नियम उद्धृत किया है, कि मेरी ही कमी है।
__ वागड़ सात चौबीसी समाज निश्चय कर ले कि अब के बाद घण्टों तक आने का कोई प्रयोजन नहीं रहे ।
'अब कृपणता नहीं करें ।' यह कहने वाले हे हेमचन्द्रसागरसूरिजी ! हमारा समाज कंजूस (कृपण) था । इन पूज्य आचार्यश्री की निश्रा में शंखेश्वर में पाठशाला के लिए एक लाख का फण्ड (चन्दा) हुआ तो फूल गये थे ।
हम पालीताणा में बिना पते के थे । वह पता (धर्मशाला) इन पूज्य आचार्यश्री की कृपा से मिला है ।
दूसरों के साथ यह समाज अब कन्धे से कन्धा मिला कर चलने लगा है।
हमारी भूलें तो अनेक हैं । हममें अनेक त्रुटियां हैं। उनमें से छूटने का प्रयास करते हैं ।
यह मात्र धर्मशाला का प्रवेश नहीं है । गत वर्ष वागड़ में प्रवेश किया तब ६५ गांवों की भावना थी कि हमारे वहां चातुर्मास (वर्षावास) हो ।
___यहां ६५ गांव उपस्थित हैं । अतः ६५ गांवों में प्रवेश हुआ है, यह मैं कहता हूं । (तालियां)
___ ओसवाल समाज ने दो महिनों तक चातुर्मास की जो रंगत जमाई, वह अद्भुत थी । मुझे प्रत्येक समाचार मिलता था ।
प्रत्येक रविवार को श्री सकल संघ एकत्रित होता था वह मैं नहीं देख पाया, यह मैं ने एक सुअवसर खो दिया, यह सत्य बात है।
पूज्यश्री ने जो एकता का अभियान चलाया है, वह सफल हो । यदि सब जैन एक हो जायें तो अनेक प्रश्न हल हो सकते
एकाध वर्ष पूर्व बकरी ईद के दिन महावीर जयन्ती थी । उस दिन कत्लखाने कैसे बन्द हो ? उस समय पूज्यश्री महाराष्ट्र (कहे कलापूर्णसूरि-३Wwwwwwwwwwwwwwwwmom ३२१)
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से गुजरात की ओर आ रहे थे । मैं पूज्य श्री के पास आशीर्वाद लेने गया ।
पूज्य श्री के आशीर्वाद से ५० वर्षों में यह इतिहास बना कि जब ईद के दिन कत्लखाने बन्द रहे ।
पूज्य श्री की कृपा से गुजरात विधानसभा में मांसाहारी कैन्टीन
बन्द कराया ।
पांजरापोल के लिए प्रति ढोर 'सबसीडी' ६ में से ८, ८ में से १० रुपये हुई । यह पूज्यश्री का प्रभाव है ।
यह असम्भव था फिर भी सम्भव हो सका, 'हमारे पूज्य आचार्यश्री की बात स्वीकार करें तो हमारा समाज प्रसन्न होगा ।' केशुभाई को ऐसी बात करने पर उन्हों ने वह तुरन्त स्वीकार की । हम यहां समस्त पूज्यों का स्वागत करते हैं ।
हमारी यही भावना है कि दोनों समाजों पर आप की कृपावृष्टि होती रहे ।
हम कहीं पर चूक जाऐं तो आप स्मरण करायें । हमें फिराते रहें । अकबर बीरबल का एक प्रसंग याद आता है । अकबर ने पूछा, 'भाखरी कैसे जल गई ?'
'दशहरे के दिन घोड़ा क्यों नहीं दौड़ा ?'
'शरीर कैसे दर्द करने लगा ?'
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बीरबल ने इन तीनों को एक ही उत्तर दिया, 'फेरा नहीं ।' हे पूज्य श्री ! आप हमें फिराते रहें, ताकि हम बिगड़ न जायें । गांधीधाम के जैन संघ ने मुझे कहा कि आगामी चातुर्मास के लिए आप पधारें । मैं गांधीधाम के संघ की ओर से विनती करता हूं। आप आगामी चातुर्मास का लाभ गांधीधाम के संघ को दे । धीरुभाई, वेलजीभाई, मलूकचन्दभाई ने सुन्दर अनुमोदनीय कार्य किया है । पालीताणा में श्रेष्ठ धर्मशाला के रूप में यह सात चौबीसी धर्मशाला गिनी जाय, ऐसी मेरी झंखना है ।
समस्त आचार्य भगवंतों ने जिन पूज्य श्री में भगवान के दर्शन किये, ऐसे आचार्य भगवंत हमें मिले हैं जिसके लिए हमें गौरव है ।
पूज्य आचार्यश्री की निश्रा में प्राप्त इस समय का सदुपयोग
३२२ W
१ कहे कलापूर्णसूरि - ३
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नहीं करें तो यह समय हमें ठुकरा कर चला जायेगा ।
ए. डी. महेता : __. पूज्य आचार्यश्री की निश्रा में ई.स. १९९१ में यहां भूमिपूजन हुआ था । यहां की लगभग समस्त आवश्यकताएं पूरी हो गई हैं, परन्तु अब यहां एक सुन्दर जिनालय का निर्माण हो ऐसे पूज्यश्री के आशीर्वाद प्राप्त हों ऐसी मैं पूज्यश्री को प्रार्थना करता हूं ।
उगरचन्द गढ़ेचा : ए. डी. महेता की भावना पूर्ण हो । मालशी मेघजी :
पहले मैं स्पष्टीकरण कर लूं कि दोनों समाजों के गुरु एक हैं । छोटे-बड़े का भेद भूल कर हम एक बन कर कार्य करें, ऐसी तमन्ना है।
वागड़ का कटारिया तीर्थ हम साथ मिल कर सुन्दर, व्यवस्थित बनायें ऐसी अपेक्षा है ।
पूज्य आचार्यश्री विजयकलाप्रभसूरिजी :
यहां के चातुर्मास के प्रवेश के बाद पांच-पांच रविवार के कार्यक्रम यहां हुए हैं । लगभग समस्त प्रवक्ताओं ने प्रवचन दिये हैं, सिर्फ मैं ही बाकी रहा हूं । __आज आधे घंटे तक बोलना था, परन्तु गला साथ नहीं दे रहा ।
___ आज आमने-सामने बातें करनी हैं । हमारी कितनीक बातें आप तक पहुंची नहीं हैं । __इस समाज के साथ हमारा बचपन का सम्बन्ध है । यद्यपि हमारी जन्मभूमि मारवाड़ है, परन्तु कर्मभूमि वागड़ है । सच ही इस समाज के साथ का हमारा ऋणानुबंध है । पूज्य कनकसूरिजी के समय में इस समाज के साथ हमारा परिचय हुआ ।
दीक्षा के समय मेरी उम्र १० वर्ष थी, छोटे भाई (लघु भ्राता) की उम्र ८ वर्ष और पूज्यश्री की ३० वर्ष थी ।
. बचपन से ही इस समाज का प्रत्येक सदस्य हमें पहचानता है । (कहे कलापूर्णसूरि - ३ wwwwmoomoooooooooom ३२३
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कलाप्रभविजयजी कहो तो कोई नहीं पहचानेगा, परन्तु 'भाई महाराज' बोलो तो बालक से लगा कर वृद्ध सब पहचानते हैं ।
इस समाज की गम्भीर स्थितियां हमने देखी हैं । ओसवाल समाज के समकक्ष बैठ सकें वैसी स्थिति सात चौबीसी समाज की आज बनी है, जो गुरु-भक्ति के मीठे फल हैं ।
इतने विशाल प्राङ्गणवाली यह धर्मशाला पालीताणा में एक ही है । ६५ गांव एक साथ आ जायें तो ठहरा सकें, ऐसी विशाल यह धर्मशाला अभी क्यों न बनें ?
खीमईबेन धर्मशाला में ३७५ ठाणे रहे थे, यहां २५० भी नहीं
खीमई धर्मशाला में पिछला आराधना भवन मात्र तीन महिनों में ५५ लाख के खर्च से निर्मित हुआ है । आधे घंटे में ही ५५ लाख के स्थान पर एक करोड़ रूपये हो गये थे ।
आधा घंटा समय लेकर धर्मशाला में जो कोई कमी है वह पूरी कर लें ।
दूसरी बार चातुर्मास होगा तब तो पूरी धर्मशाला की कायापलट हो गई होगी ।
अशुभ भावों को नष्ट करके उपशम-भाव, वैराग्यभाव, त्याग-भाव तथा भक्ति-भाव बढ़ाने में यह पुस्तक मेरी आत्मा के लिए टोनिक तुल्य है ।
- साध्वी जितमोहाश्री
यदि जन्म एवं जीवन को सार्थक करना हो तो 'कहे, कलापूर्णसूरि' पुस्तक पढ़नी अनिवार्य है। इसमें जीवन जीने की अनेक चाबियां हैं ।
- साध्वी हर्षरक्षिताश्री
(३२४ wwwmomoooooooooooo कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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तीर्थमाल, शंखेश्वर, वि.सं. २०३८
११-९-२०००, सोमवार भादौं शुक्ला-१३ : सात चौबीसी धर्मशाला
परम पुण्योदय से हम व्यवहार से इस संघ के सदस्य बने हैं । यदि भाव से बन जायें तो काम हो जाये । ___ व्यवहार कारण है, निश्चय कार्य है ।
कारण दो हैं : उपादान, निमित्त । दोनों साथ मिलें तो ही कार्य-सिद्धि होती है। लोकोत्तर अथवा लौकिक कारणों की सिद्धि तब ही होती है। उसके बिना न तो कुम्हार ही घड़ा बना सकता है या महिला भी रोटियां नहीं बना सकती । कारण की सामग्री एकत्रित न हो तो कार्य-सिद्धि कदापि नहीं होती ।
अपनी आत्मा उपादान कारण है, मोक्ष कार्य है, परन्तु वह कार्य कब सम्पन्न होता है ?
आज तक इस तीर्थ के आलम्बन से अनन्त जीवों ने मोक्ष रूप कार्य सिद्ध किया है । जब तक मोक्ष रूपी कार्य सिद्ध न हो तब तक चुप होकर बैठना नहीं है, ऐसा निर्णय करें । मोक्ष भले ही कार्य हो, परन्तु कार्य के पीछे नहीं दौड़ा जाता । तृप्ति भले ही कार्य हो, परन्तु तृप्ति के पीछे नहीं दौड़ा जाता । भोजन अथवा पानी के पीछे दौड़ा जा सकता है। भोजन, पानी मिलने (कहे कलापूर्णसूरि - ३ 500050 0055 ३२५)
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के बाद तृप्ति मिलेगी ही । मोक्ष की साधना के पीछे दौड़ें तो मोक्ष मिलेगा ही । कार्य तो कारण रूपी कड़ी में से खिलता हुआ फूल है। कारण को ठीक करें तो कार्य ठीक हो ही जायेगा । साधना करो तो सिद्धि मिल ही जायेगी।
__ जिस भूमिका पर हम हैं, उस भूमिका का (श्रावक अथवा साधु का) अनुष्ठान करते रहें तो सिद्धि मिलेगी ही ।
गणधरों ने भगवान में जब भगवत्ता देखी तब उन्हों ने अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित कर दिया । मात्र दो चार घंटे कि दो-चार दिन नहीं । सम्पूर्ण जीवन का समर्पण सबसे बड़ा समर्पण है ।
तीर्थंकरों की बराबरी तो क्या, उनका वर्णन भी कौन कर सकता है ?
कल हमने तीर्थंकरो के दस विशिष्ट गुण देखे वे याद हैं न ? पुनः उन हरिभद्रसूरिजी के शब्द देख लें -
आकालमेते परार्थव्यसनिनः १, उपसर्जनीकृतस्वार्थाः २, उचितक्रियावन्तः ३, अदीनभावाः ४, सफलारम्भिणः ५, अदृढानुशयाः ६, कृतज्ञतापतयः ७, अनुपहतचित्ताः ८, देवगुरुबहुमानिनः ९ तथा गम्भीराशयाः १० ।
ये कोई शब्दो के स्वस्तिक (साथिये) नहीं हैं, वास्तविकता है। ये दस गुण बीज रूप हों तो ही वृक्ष के रूप में कभी बाहर आते हैं ।
स्वार्थ छोड़ कर परार्थ प्रारम्भ होता है तब से धर्म प्रारम्भ होता है। इसीलिए तो 'जयवीयराण' में 'परत्थकरणं च' परार्थकरण की प्रभु से हम सदा याचना करते हैं ।
अनादि काल से जीव स्वार्थ का आदी है, अभ्यस्त है । वाचना में आना हो तो पहले किसके स्थान का विचार करें ? कोशिश तो ऐसी ही है कि मुझे ही अकेले को बैठने को मिले । दूसरे का होना हो वैसा हो । ठेठ निगोद मे भी ऐसी भावना थी कि दूसरे सब मर जायें, मैं ही अकेला जीवित रहूं । इसी भावना से सगे दो भाई भी परस्पर विचार करते हैं कि मुझे ही सब मिल जायें, दूसरा भले ही मर जाये । यदि नहीं मरता हो तो मैं मार डालूं । (३२६ 6
momooooom कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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वह कथा सुनी है न ? दो भाई धन कमा कर स्वगांव पुनः लौट रहे थे । मार्ग में दोनों ने एक दूसरे की हत्या करने का विचार किया । एक भाई विष मिली मिठाई लाया । दूसरा भाई सोये हुए की हत्या करके मिठाई खाने के लिए बैठा । दोनों मर गये ।
यही स्वार्थ-भाव है । दूसरे सब को मार कर मैं अकेला ही उपभोग करूं । यह तीव्रतम स्वार्थ-भाव है । यही सहजमल है। यही वृत्ति हमारा मोक्ष रोकती है, यही सतत कर्म-बंधन कराती है और यही वृत्ति हमें दुःखी करती है। वस्तुतः हमारी ही आत्मा हमें दुःखी करती है ।
* कृतज्ञता एवं परोपकार ये दो गुण ही मानव-जीवन की शोभा हैं । इनसे ही धरती टिकी हुई है।
जब तक उपकार न हो, छोटा-बड़ा भी जब तक दूसरों का काम नहीं करूं, तब तक भोजन नहीं करूंगा । क्या ऐसा नियम हम रख सकते हैं ?
परोपकार की भावना ही नहीं, व्यसन चाहिये, रस चाहिये । इसके बिना नहीं चलेगा, ऐसा जीवन चाहिये । (९) देवगुरुबहुमानिनः ।
तीर्थंकर स्वयं भी अन्य भवों में ऐसे गुणों के लिए बल देव एवं गुरु से प्राप्त करते हैं । नमस्कार से ही परम की शक्ति हममें उतरती है।
हमारी समग्र क्रिया नमस्कार से परिपूर्ण है । यदि भावपूर्वक क्रिया की जाये तो परम का अवतरण होगा ही । योगोद्वहन में क्या है ? एक-एक खमासमण नमस्कार-भाव उत्पन्न करने वाला है, परम के अवतरण का कारण है।
गुरु बहुमाणो मोक्खो । भगवान शायद विलम्ब कर सकते हैं, परन्तु गुरु पहले मिलते हैं । राष्ट्रपति या प्रधानमन्त्री तो बाद में मिलते हैं, पहले सचिव को मिलना पड़ता है । उसी तरह से भगवान को मिलना हो तो गुरु को मिलना पड़ता है ।
नयसार के भव में गुरु का बहुमान किया तो क्या मिला ? गुरु स्वयं भगवान बने होंगे कि नहीं, यह मालूम नहीं है, परन्तु नयसार भगवान बन गया । (कहे कलापूर्णसूरि - ३ woooooooom
३२७)
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नये साधक कभी-कभी मेरे पास आते रहते हैं । वे सच्चा मार्ग-दर्शन प्राप्त करके ऐसी धन्यता व्यक्त करते हैं कि ओह ! आज मेरा जीवन सफल हो गया ! मैं धन्य हो गया !
अधिक नम्रता आती है, त्यों त्यों अधिक अधिक गुण आते
हैं ।
आगोमा डी ।
।
जिस गुण का अभाव प्रतीत हो, वह गुण प्राप्त करने का संकल्प करके उसके धारकों को वन्दन करते जाओ तो वह गुण आयेगा ही । _ 'भगवन् ! मुझे दासत्व दीजिये ।' ऐसी नम्रतापूर्वक गणधरों ने याचना की है। क्या भगवान ने इनकार किया ?
क्या आपने कभी याचना की है ? कई बार भगवान मिले होंगे, परन्तु हमने दीन बन कर याचना नहीं की होगी, अक्कड़ बने रहे होंगे ।
आज प्रातः आचार्य भगवंतों ने कैसे आशीर्वाद दिये ? यद्यपि आचार्य भगवंतों ने शुभेच्छा व्यक्त की, परन्तु मेरे लिए तो वे आशीर्वाद बने ? मुझ में ऐसे गुण आयें तो उत्तम है । ऐसी मैं ने उस समय इच्छा की थी । कोई भी व्यक्ति प्रशंसा करे तब यह नहीं माने कि वे गुण मुझ में हैं; परन्तु यह मानें कि वे गुण भविष्य में मुझ में आ जायें ।
दीक्षा ग्रहण करने के कोई भी मेरे भाव नहीं थे, फिर भी लोगों में उस समय ऐसी बातें चलती थी कि 'अक्षय दीक्षा ग्रहण करने वाला है।' उस समय मैं सोचता कि लोगों के भाव सफल हों, और मुझे सचमुच दीक्षा मिल गई । (१०) गम्भीराशयाः ।
परोपकार से गुणों का प्रारम्भ होता है । अन्त में देव-गुरु के बहुमान से गम्भीरता प्रकट होती है। गम्भीरता गुणों की पराकाष्ठा है । गुण प्राप्त करके आछकलाई नहीं करनी है, गम्भीरता लानी
(३२८ 000mmoooooo कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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SNORIES
पदवी प्रसंग, वि.सं. २०५२, माघ शु. १३, मद्रास
१३-९-२०००, बुधवार भादौं शुक्ला-१५ : सात चौबीसी धर्मशाला
* तीर्थ की स्थापना से प्रारम्भ हुआ मुक्ति-मार्ग इक्कीस हजार वर्षों तक रहेगा । तब तक भगवान का अनुग्रह रहेगा । जो कोई भी भगवान का स्मरण करेगा, उसमें भगवान की शक्ति जागृत होगी ही । भगवान के अनुग्रह को समझने के लिए 'ललित विस्तरा' अद्भुत ग्रन्थ है।
कलियुग में भगवान को किस प्रकार समझें ? कलियुग अर्थात् घोर अन्धकार । यहां कहीं भी भगवान का प्रकाश देखने को नहीं मिलेगा । ऐसे घोर अन्धकार में 'ललित विस्तरा' टिमटिमाता दीपक
* यदि कनेक्शन कटा हुआ होगा तो चाहे जितनी स्विच दबाओ, प्रकाश नहीं होगा । भगवान के साथ 'कनेक्शन' टूटा हुआ हो, तो चाहे जितने अनुष्ठान करो, परम का अनुभव नहीं होगा । भगवान के साथ जुड़ना ही धर्म-क्रिया का प्राण है। इस के बिना सभी धर्म-क्रियाएं निर्जीव हैं, निष्प्राण हैं, निर्बीज हैं (बीज रहित हैं)।
* पुरिसुत्तमाणं । कितनेक रत्न अनायास ही दूसरों से कहे कलापूर्णसूरि - ३ as as eas Cas Cass 6 6 6 6 6 CDS & Ct Sto a rai lai ३२९)
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चमकदार होते हैं । उस प्रकार तीर्थंकरों की आत्माएं भी सहज ही चमकदार होती हैं । इसीलिए वे पुरुषोत्तम कहलाते हैं । कांच पर चाहे जतने पोलिश करो, परन्तु हीरे जैसी चमक उसमें नहीं आती; अडियल घोड़े को चाहे जितना प्रशिक्षण दो, परन्तु जातिमान घोड़े जैसा वह नहीं बन सकेगा । सामान्य जीवों को चाहे जितने संस्कार दो, वे भगवान के समान नहीं बन सकते ।
__ एक मत ऐसा है कि जो सबको समान मानता है । इस पद से उस मत का खण्डन हुआ ।
* तामिलनाडू में गिरी हुई स्थिति वाले एक धनाढ्य व्यक्ति ने अपनी हीरों वाली एक अंगूठी एक फेरी वाले को पांच हजार रूपयों में बेची । फेरी वाले ने एक व्यापारी को वह अंगूठी पचास हजार रूपयों में बेची । व्यापारी ने बड़े व्यापारी को वह एक लाख रूपये में बेची और अन्त में वह अंगूठी परदेश में पांच लाख रूपयों में बिकी ।
यह घटी हुई घटना है । हीरे की पहचान सब नहीं कर सकते । भगवान की पहचान सब नहीं कर सकते । हम फेरी वाले जैसे नहीं हैं न ?
प्रज्ञावान् व्यक्ति के अतिरिक्त भगवान एवं भगवान के दर्शन को कौन समझ सकता है ?
भगवान और भगवान की महिमा चाहे जिसे बताने मत लग जाना । चाहे जिसके साथ चर्चा करने मत लगना । कर्म के अमुक विगम के बिना यह तत्त्व समझ में नहीं आता । भगवान की कृपा वैसे ही समझ में नहीं आती । उसके लिए भी भगवान की कृपा चाहिये । कठोर कर्म वाले की समझ में यह नहीं आयेगा । वह तो यही कहेगा कि भगवान क्या करें ? हमारा पुरुषार्थ ही प्रमुख है। ऐसे मनुष्यों के साथ वादविवाद न करें । यह चर्चा का विषय नहीं है, अनुभूति का विषय है।
भव्यत्व सबका समान होता है, परन्तु तथाभव्यत्व प्रत्येक का भिन्न होता है । इसीलिए १५ भेदों से जीव सिद्ध होते हैं । सिद्ध (३३०00mooooooooooooooooo कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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होने की प्रत्येक की अपनी नियति होती है ।
भगवान का जीव-दल ही इस प्रकार अलग होता है, दूसरों से विशिष्ट होता है । उनका तथाभव्यत्व उस प्रकार का होता है ।
* भगवान सफल आरम्भ वाले होते हैं । कार्य प्रारम्भ करें तो पूर्ण किये बिना नहीं रहते । हम कितने कार्य अपूर्ण छोड़ते हैं ? हमने कितने ग्रन्थ पढ़ने प्रारम्भ किये और बीच में से ही छोड़ दिये ? हम प्रारम्भ करने में शूरवीर हैं, परन्तु प्रारम्भ किये गये कार्य में अन्त तक लगे नहीं रहते ।
* श्रेष्ठतम स्फुरणा हुई हो, परन्तु जब तक आगम का पाठ नहीं मिले तब तक उसे सार्वजनिक न करें । योग्यता के बिना किसी को नहीं कहा जाता । सम्भव है, भगवान ने आपके लिए ही यह स्फुरणा भेजी हो । आपको वह सब सार्वजनिक नहीं करना
* गुरु भगवंत तीर्थंकरों की 'ब्रान्च ओफिस' हैं । इसीलिए 'पंचसूत्र' में 'गुरु-बहुमाणो मोक्खो ' कहा है।
गुरु आपको भगवान के साथ जोड़ते ही हैं । तीर्थंकर भगवान को भी किसी भव में गुरु मिले ही हैं । उनके ही प्रभाव से वे तीर्थंकर बन सके हैं । इसीलिए यहां लिखा है - 'देवगुरु बहुमानिनः ।' तीर्थंकर देव-गुरु का बहुमान करने वाले होते हैं ।
अग्नि के उपयोग में रहा हुआ माणवक अग्नि कहलाता है, उस तरह भगवान के ध्यान में लीन भक्त भगवान कहलाता है ।
इस कारण से उपयोग-रहित क्रिया द्रव्य कहलाती हैं - 'अनुपयोगो द्रव्यम् ।' उपयोग का इतना महत्त्व होते हुए भी हम उपयोग नहीं रखते । क्रियाएं रह गई, उपयोग छूट गया । उपयोगरहित क्रियाएं द्रव्य क्रियाएं कहलाती है ।
भाव का कारण बनने वाली प्रधान द्रव्य क्रिया कहलाती है ।
भाव का कारण नहीं बनने वाली क्रिया अप्रधान तुच्छ क्रिया कहलाती है। अपना उपयोग कहां है ? भगवान में है कि 'अहं' में है ? स्वयं को आगे करते हैं कि भगवान को ?
भगवान भले यहां नहीं है, भगवान के गुण यहीं हैं, शक्ति यहीं पर सक्रिय है । स्व. आचार्यश्री का नाम लेते ही उनके गुण (कहे कलापूर्णसूरि - ३ wwwwwwwwwwwwwwwwww ३३१)
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याद आते हैं न ?
'भक्तामर' में गुणों की बात है ही न ?
'भक्तामर' आदि में तो सब-कुछ है, परन्तु कौन सी बात कहां लगानी यही मुख्य बात है। हथौड़ा लगते ही मशीन चालू हो गई यह बराबर है, परन्तु हथौड़ा कहां लगाना यह महत्त्वपूर्ण बात है ।
९९,९९९ रूपये होते हुए भी लाख नहीं कहलाते । इनमें एक रूपया डालो तो ही लाख. कहलायेंगे । एक रूपये का कितना महत्त्व ? फिर भी यह नहीं माने कि एक रूपया ही लाख कहलाता है । ९९,९९९ रूपये थे इसलिए लाख रूपये हुए न ?
उस तरह से पूर्व के यथाप्रवृत्तिकरण निष्फल नहीं गये । वे सब ९९,९९९ रूपयों जैसे हैं । वे नहीं किये होते तो चरम यथा प्रवृत्तिकरण कहां मिलनेवाला था ?
* पार्श्वनाथ संतानीय अनेक श्रावक थे, फिर भी ग्यारह में से एक भी श्रावक गणधर नहीं बना, सभी ब्राह्मण थे ।
पूर्व भव में जो गणधर नाम कर्म बांध आये वही गणधर बन सकता है। तीर्थंकरो की तरह गणधर भी निश्चित होते हैं ।
* पन्द्रह भेदों से सिद्ध भले ही बनें परन्तु मोक्ष में जानेके बाद सब समान हैं । वहां कोई भेद नहीं है । ऐसा नहीं है कि तीर्थंकर भगवानों को अधिक सुख होता है और दूसरों को कम । वहां सभी सिद्धों को समान सुख होता है ।
दुःखी, दरिद्र (निर्धन), सैनिक, वासुदेव या चक्रवर्ती आदि में यहां भेद है, परन्तु मृत्यु में सभी समान है, सबको मरना ही पड़ता है। उसमें कोई अन्तर नहीं है । आयुष्य का क्षय होने पर मरना पड़ता है ।
चन्द्रकान्तभाई और पद्माबेन दोनों एक साथ चल बसे । साथ वाला बालक बच गया । भुज-निवासी एक परिवार के सात व्यक्ति चल बसे, एक बच गया । आयुष्य हो वह बच जाता है। आयुष्य समाप्त हो जाय वह चला जाता है । यह नियम सब पर लागू होता है । मृत्यु में सब समान हैं, उस प्रकार सिद्धशिला में सभी सिद्ध समान हैं । (३३२ ooooooooooooooooo कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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* इन समस्त गुणों के द्वारा भगवान की श्रेष्ठता जानी । अब ये गुण चाहिये, तो क्या करें? जौहरी का माल अच्छा लगा । खरीदने की इच्छा हो गई तो क्या करना पड़ेगा ? मूल्य चुकाना पड़ेगा न? यहां सिर्फ गुण-राग की आवश्यकता है। जो गुण पसन्द पड़ने लगें तो वे आये बिना नहीं रहेंगे । जौहरी के जवाहिरात पसन्द आ जायें तो मिल ही जायेगा ऐसा नहीं है, परन्तु यहां गुण पसन्द आ जायें तो आने लगते ही हैं । इसमें कोई शंका नहीं है।
'गुणानुराग कुलक' में यहां तक कहा है कि 'आतित्थयरपयाओ' तीर्थंकर पद तक की पदवी गुणानुरागी के लिए दुर्लभ नहीं हैं ।
* आपका एक भी दोष बोला नहीं जाये उसकी मैं सतत सावधानी रखता हूं। आपको हितोपदेश देते देते भी इस विषय में मैं अत्यन्त जागृत रहता हूं, क्योंकि पू.पं. भद्रंकरविजयजी महाराज, पू. कनकसूरिजी महाराज आदि के द्वारा हमें यह सीखने को मिला है। उनके मुंह से मैं ने कभी किसी का दोष कहते नहीं सुना ।
__ दूसरे के दोष बताना कि दोष सुनना अर्थात् स्वयं दोषी बनने के लिए भूमिका तैयार करनी ।
यह जीभ इसलिए नहीं मिली । यदि इस जीभ का उपयोग दोष बताने में किया तो पुनः यह जीभ कहां मिलेगी ?
पढ़ते हैं पुस्तक, परन्तु आभास होता रहता है कि हम 'वांकी' में बैठे हैं और उनके स्वमुख से ही सुन रहे हैं ।
सचमुच, यह पुस्तक हम जैसों के जीवन में दीपक तुल्य नहीं, परन्तु सूर्य के समान है ।।
- साध्वी विश्वनंदिताश्री,
(कहे कलापूर्णसूरि - ३000000 sooooooooom ३३३)
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पदवी प्रसंग, वि.सं. २०५२, माघ शु. १३, मद्रास
१४-९-२०००, गुरुवार अश्विन कृष्णा-१ : सात चौबीसी धर्मशाला
* इतने वर्ष व्यतीत होने पर भी तीर्थ की शक्ति आज भी कम नहीं हुई । तारने का कार्य यह कर ही रही है । मात्र सम्पर्क में आने की आवश्यकता है । जिस लोहे का पारसमणि के साथ स्पर्श हुआ, वह स्वर्ण ही बन गया । प्रभु-शासन का जिसे स्पर्श हुआ वह परम बन ही गया ।
* भगवती में पांच प्रकार के देव आते हैं : (१) भव्य द्रव्य देव, भविष्य में जो देव बनने वाले हैं वै ।, (२) नरदेव - चक्रवर्ती, (३) धर्मदेव-साधु, (४) देवाधिदेव - तीर्थंकर भगवान्, (५) भावदेव - वर्तमान में देव ।
इनमें देवाधिदेव कितने ? नरदेवों की अपेक्षा संख्यातगुने अधिक । एक ही भगवान से कार्य नहीं होता ? नहीं, पुनः पुनः भगवान होते ही रहते हैं । भगवान तो पहले भी थे, परन्तु हम तैयार नहीं थे, उपादान तैयार नहीं था । उपादान भी निमित्त के बिना तैयार नहीं होता, यह भी समझ लें । अण्डे के बिना मुर्गी नहीं और मुर्गी के बिना अण्डे नहीं । उपादान के बिना निमित्त और निमित्त के बिना उपादान तैयार नहीं होता ।
(३३४
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0666666666 कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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* हमने चारित्र प्राप्त कर लिया अतः काम हो गया, यह न माने । दूसरों को यह चारित्र देने का प्रयत्न करें, तो ही आपका यह गुण टिकेगा । 'एकेन्द्रियाद्या अपि हन्त जीवाः'
- विनयविजयजी एकेन्द्रिय आदि जीव भी मनुष्य बन कर कब जैन धर्म प्राप्त करके सुखी होंगे ? - इस प्रकार भावना भानी है।
पर-हित-चिन्तन के बिना स्व-हित भी कहां होने वाला है ? पर-हित चिन्तन की अनेक बातें सुनने पर भी हमारे विनय वैयावच्च में कोई फरक न आये तो अपने लिए सुनना व्यर्थ समझें ।
मोक्ष की साधना में जितना वेग लायेंगे, उतने ही शीघ्र मोक्ष में जायेंगे । निगोद के जीवों के लिए स्थान खाली होगा । वे स्थान खाली होने की प्रतीक्षा कर रहे हैं ।
___कैद में से निकला हुआ कैदी दूसरों को भी जेल में से मुक्त करने का प्रयत्न करता है, उस प्रकार हमें भी दूसरों को संसार में से निकाल ने का प्रयत्न करना है ।
* ऐसा एक उदाहरण बताएं, जिसमें देव-गुरु की भक्ति के बिना कोई मोक्ष में गया हो । आप शायद मरुदेवी माता का नाम बतायेंगे, परन्तु आप यदि 'शत्रुजय - माहात्म्य' पढ़ें तो आपको मालूम होगा कि भगवान के प्रति अपार प्रेम से ही उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ है। भगवान के साथ माता-पिता आदि के सम्बन्ध की तरह पुत्र का सम्बन्ध भी जोड़ा जा सकता है । (७) पुरिससीहाणं ।
इस विशेषण से भगवान का सिंह-तुल्य पराक्रम देखने को मिलेगा । उत्कृष्ट पराक्रम के बिना मोहनीय आदि कर्मों का क्षय नहीं होगा ।
* समस्त जीवों के प्रति मैत्री-भाव का व्यवहार करें, आत्मवत् व्यवहार करें, इससे भी आगे बढ़कर परमात्म-तुल्य भाव से व्यवहार करें । यह जिनशासन का सार है।
* 'पुरिससीहाणं' पद से सांकृत्य मत का निरसन हुआ है । संकृत के शिष्य सांकृत्य कहलाये हैं। उनकी मान्यता है कि (कहे कलापूर्णसूरि - ३
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परमात्मा उपमारहित हैं । अतः स्तुति में कोई उपमा नहीं चाहिये । उपमा हीन या अधिक होने पर मृषावाद लगेगा । अतः स्तुति उपमारहित होनी चाहिये । जैन दर्शन में यह मत मान्य नहीं है ।
इसीलिए भगवान को यहां सिंह, गंधहस्ती, पुण्डरीक आदि की उपमाएँ दी गई हैं ।
सिंह याद आने पर शौर्य याद आता है । शौर्य याद आने पर महाराणा प्रताप याद आते हैं । जिस युग में राजपूत भी अपनी बहनों-बेटियों का मुगलों के साथ ब्याह करते थे, उस युग में टेक रखने वाले राणा ने जीवनभर मुगल शहंशाहों के साथ संग्राम किया, संघर्ष किया, अपूर्व शौर्य बताया । वे कदापि झुके नहीं । हमें कर्मों के साथ ऐसा संघर्ष करना है, जो परमात्मा ने किया है । इसीलिए प्रभु पुरुषों में सिंह के समान हैं।
__भगवान को नमन करने से उनके समान शौर्य गुण हमारे भीतर आता ही है । दुर्गुणी व्यक्ति को नमन करने से उसके समान दुर्गुण हमारे भीतर आते ही हैं । इसीलिए दुर्गुणी के साथ मित्रता करने का निषेध किया है। आप किसके साथ बैठते हैं ? किसे पढ़ते हैं ? यह कह दो तो आपके व्यक्तित्व के सम्बन्ध में ध्यान आ जायेगा ।
सदगुणों का प्रभाव पड़ने में तो फिर भी समय लगता है, दुर्गुण तो तुरन्त चिपक जाते हैं ।
लहसुन खाकर आओ तो हमें गन्ध से तुरन्त पता लग जाता है ।
इसी प्रकार से आपके दुर्गुणों की अव्यक्त गन्ध आती है । इसी लिए आदमी दुर्गुणी से दूर भागता है ।
दुर्गुणी को दुर्भग बनाने वाले दुर्गुण हैं। उन दुर्गुणों को अत्यन्त पराक्रम पूर्वक परास्त करने हैं, जिस प्रकार अर्णोराज को कुमारपाल ने पराक्रम बताया था ।
हम क्रोध कराने वाले पर क्रोध करते हैं। कुत्ते की तरह हम लकड़ी को काटते हैं, परन्तु भगवान लकड़ी को नहीं, लकड़ी लगाने वाले को देखते है । वह क्रोध कराने वाले पर नहीं, परन्तु स्व में उत्पन्न होने वाले क्रोध पर ही क्रोध करते है। अपनी पीड़ा में दूसरे किसी को उत्तरदायी नहीं गिनते, स्व को ही उत्तरदायी गिनते है । (३३६ ®®®®® ® ®® कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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आप यदि क्रोध को वशीभूत हो जाओगे, झगड़े करोगे तो बदनामी मेरी ही होगी कि इतनी-इतनी वाचना सुनते हैं फिर भी इतने झगड़े ? मुझे यश दिलवाना है कि अपयश ?
राग-द्वेष दोनों चोर-लुटेरे हैं । उन्हें भगवान ने क्रूरतापूर्वक कुचल दिये हैं । अरिहंत का यही अर्थ होता है ।
* सर्व सावध योगों का हमने त्याग किया है । नित्य हम 'करेमि भंते' के द्वारा नौ-नौ बार उन्हें याद करते हैं । अब जीवन में समता की वृद्धि हुई कि ममता की ? तनिक सोचें ।
कभी 'अध्यात्म कल्पद्रुम' पढ़े। उसमें विशेषतः 'यतिशिक्षाधिकार' में तो आचार्यश्री मुनिसुन्दरसूरिजी ने साधुओं को जोरदार लताड़ दी है। कहा है - 'नौ बार तू नित्य 'करेमि भंते' बोल कर पुनः सावद्य में प्रवृत्ति करे तो मृषाभाषण से क्या तुझे सद्गति मिलेगी ?
गृहस्थ भी ज्ञान-ध्यान-काउस्सग्ग आदि की उत्कृष्ट साधना करते हों तो यहां आने के बाद यह साधना बढ़नी चाहिये कि घटनी चाहिये ? कितने लोगस्स का काउस्सग्ग करते हैं ? कि यह लक्ष्य ही नहीं हैं ? उस लक्ष्य के बिना कर्म-शत्रु कैसे भागेगा ? उसके बिना किस प्रकार दुर्गुण जायेंगे? किस प्रकार सद्गुण आयेंगे ?
सद्गुणों की सिद्धि के लिए सद्गुणियों को नमस्कार करो । इसके लिए ही नवकार है । प्रत्येक कार्य में खमासमण इस के लिए ही होता है । यह नम्रता का अभ्यास है ।
नम्रता आने के बाद ही सरलता आयेगी ।
अभिमानी कदापि सरल नहीं हो सकता । अपना बड़प्पन यथावत् रखने के लिए वह अवश्य माया करेगा ।
इसीलिए अहंकार पर कुठाराघात करने के लिए नमस्कार भाव है।
* ज्ञान आदि गुण जिनमें हों उनकी सेवा करने से हमारे भीतर ज्ञान आदि गुण प्रकट होते हैं ।
ज्ञान तो फिर भी चला जाये, सेवा नहीं जाती। यह अप्रतिपाती गुण है। तनिक अधिक काम आ जाये तो मुंह तो नहीं चढ़ता है न ?
मेरे जीवन में भी सेवा का अवसर आया है । वीरमगाम में आनन्दपूर्वक ५० घड़े पानी ला चुका हूं। महात्माओं का लाभ कहां से मिले ? चित्त में उल्लास बढ़ना चाहिये । (कहे कलापूर्णसूरि - ३ Booooooooooooooon ३३७)
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सेवा करने से शरीर नहीं घिसता । घिस जाये तो मेरी जवाबदारी । मैं ठीक कहता हूं - सेवा से शरीर नहीं बिगड़ता । वास्तव में तो सेवा एवं श्रम छोड़ देने से ही शरीर बिगड़ता
भगवान के साधुओं की सेवा का सौभाग्य कहां से प्राप्त हो ? सेवा से भगवान की आज्ञा का पालन होता है ।
पूज्य गणिश्री मुक्तिचन्द्रविजयजी : दूसरे कम काम करें उसका दुःख है ।।
पूज्यश्री : मन को बदल दो । मन का झुकाव बदलेगा तो सब ठीक हो जायेगा । दूसरे कम कार्य करें कि बिल्कुल न करें, परन्तु आप अधिक-अधिक करेंगे तो आपको तो अधिक लाभ ही मिलेगा, अधिक पुण्य बंधेगा ।
* 'भरहेसर सज्झाय' में जिन महापुरुषों और महासतियों के नाम महान् आचार्य भगवन् भी लेते हैं, उसका क्या कारण है ? आज तक किसी महान् आचार्य भगवन् ने प्रश्न नहीं उठाया कि हम श्रावक-श्राविकाओं के नाम क्यों लें ?
स्वयं भगवान महावीर ने सुलसा, आनन्द, कामदेव श्रावक आदि की समवसरण में प्रशंसा की है।
जब कुमारपाल को कंटकेश्वरी ने कोढ़ग्रस्त (कुष्ठ रोगी) बनाया तब हेमचन्द्रसूरिजी ने कुमारपाल को बचाया था ।
करुणामय जैन धर्म की कोई निन्दा न करे, अतः कुमारपाल चिता में जल मरना चाहते थे, परन्तु उदायन मन्त्री ने हेमचन्द्रसूरिजी को बात करने पर उन्हों ने अभिमन्त्रित जल के द्वारा उनका कुष्ठ रोग दूर किया था ।
ऐसे थे कुमारपाल, अतः उन्हें 'परमार्हत्' का बिरुद मिला हुआ है । 'परमार्हत्' अर्थात् परम आहेत, परम श्रावक । कुमारपाल जैसे को आचार्यश्री क्यों बचायें ? कुमारपाल जैसे की आचार्यश्री प्रशंसा क्यों करें ?
उपबृंहणा अर्थात् क्या ? चतुर्विध संघ में रहे गुणवान की प्रशंसा । वह उपबृंहणा भी न करें तो दर्शनाचार में अतिचार लगता है, यह जानते हैं न ?
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'संघमांही गुणवंततणी अनुपळहणा कीधी'
- अतिचार यह सब भगवान से प्राप्त होता है। इसीलिए मैं भक्ति पर इतना बल देता हूं ।
कल अष्टापद की पूजा में देखा न ? भरत कहता है - 'दीओ दरिसण महाराज !'
भरत क्या अनपढ़ थे? क्या वे नहीं जानते थे कि सम्यग्दर्शन मिले तो ही प्रभु का दर्शन मिलेगा । परन्तु इस तरह प्रभु का स्मरण करने से ही प्राप्त सम्यग्दर्शन निर्मल होता है, यह भी वे जानते थे न ?
ऐसे दर्शन के लिए आपके मन में उत्कण्ठा जगी ? भगवान को जिनहर्ष की तरह आप भी कहें - प्रभु दर्शन दें । 'धुंआडे धीजें नहीं साहिब ! पेट पड्या पतीजे ।' मुझे ऐसे ही सन्तोष नहीं मिलेगा, मुझे दर्शन चाहिये ही ।
* एक भगवान को पकड़ो तो भगवान के सभी गण आपके ।
एक गुरु को पकड़ो, गुरु के सभी गुण आपके ।। 'अब तो अधिकारी होइ बैठे, प्रभु-गण अखय खजान में...'
___ हम मगन भये प्रभु ध्यान में, बिसर गई दुविधा तन-मन की अचिरासुत गुण-गान में ।'
- उपा. यशोविजयजी तन-मन सब भूल जाये, मात्र चिदानंद का आस्वादन ही बाकी रहे, ऐसी प्रभु की मग्नता यशोविजयजी को मिल जाये, 'रंग रसिया रंग रस बन्यो' ऐसा बोलनेवाले वीरविजयजी को वेधकता का आस्वादन मिल जाये तो हमें क्यों न मिले ?
प्रभु के साथ लीनता आ जाये तो फिर दीनता कैसी ? इसीलिए कहता हूं - भगवान में तन्मय बनें, भगवान को पकड़े । भगवान को पकड़ ने पर समस्त गुण आ जायेंगे ।
इस 'ललित विस्तरा' में भार देकर कहा गया है कि भगवान के अनुग्रह के बिना एक भी गुण नहीं मिलेगा ।
(कहे कलापूर्णसूरि - ३ 60mwwwwwwwwwwwwws ३३९)
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पू.पं.श्री भद्रंकरवि. म. के साथ, वि.सं. २०३२
१५-९-२०००, शुक्रवार अश्विन कृष्णा-२ : सात चौबीसी धर्मशाला
* भगवान ने मार्ग बताया । चलना तो हमें ही पड़ता है।
भगवान का अनुग्रह स्वीकार करो तो पुरुषार्थ करने का मन होता है। भगवान का अनुग्रह कैसे कार्य करता है ? भोजनपानी हमने ग्रहण कर लिया अतः भूख-प्यास मिट गई यह मान कर हम स्वयं को इतनी प्रधानता दे देते हैं, भोजन-पानी को सर्वथा भूल जाते हैं, 'मैं' रह जाता है; भोजन-आदि छूट जाते हैं । यही भूल यहां करते हैं । 'मैं' रह जाता है, भगवान छूट जाते हैं । भोजन-पानी के बिना दूसरे पदार्थों से भूखप्यास नहीं मिटती, उस प्रकार भगवान के बिना दूसरे से मुक्ति नहीं मिलती।
उपाध्यायजी महाराज के ये शब्द देखें : 'काल स्वभाव ने भवितव्यता, ए सघला तुझ दासो रे; मुख्य हेतु तु मोक्ष नो, ए मुझने सबल विश्वासो रे ।'
- उपा. यशोविजयजी ऐसे आगमधर पुरुष यह कहते हों, व्याकरण, काव्य, न्याय, कोश, आगम, वेद, उपनिषद्, पुराण आदि के प्रकाण्ड ज्ञाता महापुरुष
(३४० 60000000000000000000006 कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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जब ऐसा कहते हों, तब क्या बात विचारणीय नहीं लगती ? क्या उनके जितनी बुद्धि और उनके जितना अध्ययन हमारा है ?
भगवान से सब होता है यह सही है, परन्तु पुरुषार्थ तो अपना ही है न ? यह सोच कर भगवान और भगवान की आज्ञा गौण करके हम स्वयं को प्रधान मान लेते हैं, परन्तु तनिक सोचें कि भगवान के बिना दूसरे किसी की ( चक्रवर्ती या वासुदेव आदि की ) आज्ञा पालन की हो तो क्या मोक्ष होता है ? अहंकार नष्ट करना हो तो यह चिन्तन सामने रखना ही पड़ेगा । उसके बिना साधना का मार्ग नहीं खुलेगा । अहंकारयुक्त चित्त कदापि साधना के योग्य नहीं बन सकता ।
* भगवान के जिस गुण को प्रधानता देकर स्तुति करें, वह गुण अपने भीतर आता ही है । यह नियम है । कभी प्रयोग करके देखें ।
'पुरिससीहाणं' विशेषण में भगवान का सत्त्वगुण बताया है । जब हेमचन्द्रसूरिजी पहली बार कुमारपाल को मिले तब कुमारपाल ने उन्हें पूछा था कि उत्कृष्ट गुण कौन सा है ? पूछने वाले को ध्यान में रख कर सूरिजी ने उत्तर दिया 'सत्त्व गुण ।' सत्त्व गुण से ही तीन भाईयों में से कुमारपाल को पसन्द किया गया ।
पहला नम्रतापूर्वक बैठा था, दूसरा गरीब बना बैठा था, जबकि कुमारपाल रोब से बैठा था । इसीलिए उसका चयन किया गया । सत्त्वगुण वीर्याचार के पालन से प्रकट होता है । इसीलिए दूसरे चार आचारों जितने भेद (३६ भेद) वीर्याचार के है । इसका अर्थ यह हुआ कि सबमें वीर्य चाहिये । यदि वीर्य न हो तो एक भी आचार का पालन नहीं हो सकता । देववन्दन-प्रतिक्रमण बैठेबैठे करना, शीघ्र करना, मन चंचल होना आदि दोष आत्म-वीर्य की खामी के कारण उत्पन्न होते हैं । श्रावकों के वीर्याचार के अतिचार देखें । सब समझ में आ जायेगा ।
माता-पिता ने तो भगवान का नाम वर्धमान रखा, परन्तु उनके सत्त्व गुण से ही आकर्षित होकर देवों ने दूसरा नाम 'महावीर'
रखा ।
कहे कलापूर्णसूरि ३ क
७० ३४१
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सत्त्व गुण वाला ही परिषह आदि सहन कर सकता है, धैर्य रख सकता है। हाथी चलता है, कुत्ते भौंकते हैं । तब हाथी क्या करता है ?
'हाथी चलत बाजार, कुत्ता भसत हजार ।'
कुत्ते जैसे परिषहों से हाथी जैसा सत्त्ववान आत्मा थोड़ा चलायमान होता है ?
भगवान में यह सत्त्वगुण कैसा उत्कृष्ट है ? छः छः महिनों तक संगम पीछे पड़ा था, फिर भी भगवान सत्त्व से एक इंच भी विचलित नहीं हुए । एक रात्रि में बाईस-बाईस उपसर्ग हुए, फिर भी भगवान के चेहरे पर तनिक भी भय की रेखा नहीं दिखाई दी । यदि भय होता तो साधना कैसे हो पाती ? भय अर्थात् चित्त की चंचलता । साधक को यह कैसे होता ?
__ भगवान में तो भय होता ही नहीं, भगवान की शरण लेने वाले में भी भय नहीं होता । इसीलिए भगवान को अभयंकर एवं अभयदाता कहा गया है । 'अभयकरे सरणं पवज्जहा ।'
___- अजित शान्ति 'हे पुरुषो ! यदि आप अपने कष्ट मिटाना चाहते हों, सुख का कारण खोजते हो तो अभयंकर शान्ति-अजित का शरण स्वीकार करें,' - अजित शान्ति में नंदिषेण मुनि ने यह घोषणा की है।
अभय नहीं मिला हो तो समझें कि अभी तक हमने भगवान का शरण स्वीकार नहीं किया है ।
भगवान तो अभय होते ही है, भगवान के भक्त भी अभय होते हैं । आनन्द, कामदेव जैसे श्रावक भी भयंकर देवकृत उपसर्गों से विचलित नहीं हुए, भयभीत नहीं हुए ।
न चिन्तापीन्द्रियवर्गे । __ सत्त्वशील सहज ही इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर सकता है। भगवान तो सात्त्विकों में शिरोमणि है ।
'हे प्रभु ! आपने मन को वश में किया, पर बलात्कार से नहीं । इन्द्रियों को वश में की परन्तु बलपूर्वक नहीं, मात्र शिथिलता से आपने सबको जीत लिये हैं ।' (३४२ 80www00000 EDOS कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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पटु अभ्यास एवं आदर से वैराग्य को आपने ऐसा वश में किया कि जो किसी जन्म में आपका साथ न छोड़े । दुःख में तो सबको वैराग्य आता है, सुख में भी आपको वैराग्य है । पूज्य हेमचन्द्रसूरिजी की प्रभु को यह स्तुति है ।
न खेदः संयमाध्वनि । साधना में आलस आना, हताश-निराश होना, खिन्न, उद्विग्न होना, यह सब सत्त्वगुण की कमी के कारण होता है ।
भगवान का भक्त भय, द्वेष एवं खेद से परे होता है । भय, द्वेष एवं खेद हो तब तक साधना की पूर्व भूमिका भी तैयार नहीं होती । आगे की तो बात ही कहां ?
क्या हम भय, द्वेष, खेद से कुछ अंशों में भी मुक्त हुए हैं ? क्या हम में मुक्त होने की भावना जगी है ? "सेवन-कारण पहेली भूमिका रे, अभय, अद्वेष, अखेद ।'
___- पूज्य आनन्दघनजी ये 'योगदृष्टि समुच्चय' के पदार्थ हैं ।
निष्प्रकम्पता सद्ध्याने ध्यान में भगवान को अत्यन्त निष्प्रकम्पता होती है । मेरु तुल्य भगवान अकम्प होते हैं । उन्हें कौन डिगा सकता है ?
ऋषभदेव भगवान को कर्म क्षय करने में हजार वर्ष लगे थे, परन्तु महावीर स्वामी ने मात्र साढ़े बारह वर्षों में ही उनसे भयंकर कर्मों का क्षय कर दिया, जो इस सत्त्वगुण के कारण ही वे कर पाये ।
* कर्म का ऋण चूकता न करें तो कर्म हमें छोड़ने वाले नहीं हैं । भगवान को भी नहीं छोड़ते तो हमें कैसे छोड़े, क्यों छोड़े ? कई बार प्रश्न उठता है कि महामुनियों को रोग क्यों होते होंगे? पद्मविजयजी, कान्तिविजयजी, भद्रंकरविजयजी आदि को रोग हुए थे । ऐसा उत्तम जीवन जीने वालों को भी ऐसे रोग ?
कर्म समझते हैं कि ये महात्मा मुक्ति के मार्ग पर हैं। मंजिल समीप है । मुक्ति तक हमारी पहुंच नहीं है 1 स्वर्ग में सुख के सिवाय कुछ नहीं है । अतः अभी ही सब हिसाब चूकता करने दो । (कहे कलापूर्णसूरि-३ 68wwwwoooooooooooom ३४३)
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अज्ञानी मनुष्य धर्मात्मा लोगों को होते कष्टों को देख कर कहते हैं कि धर्मी के घर डाका पड़ा, परन्तु उन्हें कर्मो के हिसाब का पता नहीं है ।
'उत्तराध्ययन' में एक सुन्दर दृष्टान्त आता है -
गाय को सूखा और बकरे को उत्तम हरा घास दिया जाता देख कर निराश हुए बछड़े को गाय ने कहा, भोले ! तुझे पता नहीं है कि यह बकरा कसाई के पास जायेगा तब सब पता लगेगा ।
कसाई के पास जाते, रोते, कटते बकरे को देखकर बछड़ा सब समझ गया कि इस समय मिलता सूखा घास भविष्य के लिए उत्तम है, जब कि इस समय मिलते माल-मलीदे भविष्य के लिए भयंकर है ।
जे सारक्खाया ते तयक्खाया जे तयक्खाया ते सारक्खाया
राग-रंग, मौज-शौक करने वाले पापी मनुष्यों को देख कर कदापि विचलित न बनें । आज के राग-रंग भविष्य की आग हैं ।
आज के विराग भावी के बाग हैं । * कमल का स्वभाव है - देखते ही सबको आनन्द हो ।
भगवान को देखते ही सबको आनन्द आता है। उनकी मुद्रा, उनकी वाणी, उनका अस्तित्व सबको आनन्द की प्रभावना करने के लिए ही उत्पन्न हुआ होता है ।
इसीलिए भगवान 'पुरिसवरपुंडरीआणं' है ।
निरपेक्ष मुनि मुनिराज निर्भय क्यों होते हैं ? शुद्ध चारित्र के सम्मुख बने मुनि जगत् के ज्ञेय पदार्थ में ज्ञान को नहीं जोड़ते । मात्र ज्ञेय पदार्थ को जानते हैं । तथा उन्हें कुछ भी छिपाना नहीं है, किसी के साथ कुछ भी लेने-देने के विकल्प नहीं हैं। ऐसे मुनिराज को जहां लोक-अपेक्षा या आकांक्षा नहीं है, वहां भय कहां से होगा ?
(३४४
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कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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पू. भुवनभानुसूरिजी के साथ, सुरत, वि.सं. २०४८
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१९-९-२०००, शनिवार अश्विन कृष्णा-३ : सात चौबीसी धर्मशाला
मुक्ति मार्ग की प्रवृत्ति इस समय चल रही है, जिसमें मुख्य अनुग्रह प्रभु का है, जो तीर्थ है तब तक चलता रहेगा ।
व्यक्तिगत तीर्थ बदल जाते हैं, सामान्य तीर्थ सदा के लिए विद्यमान रहते हैं, शाश्वत हैं ।
व्यक्ति विशेष तीर्थंकर बदलते हैं, सामान्य तीर्थंकर सदा काल के लिए रहते हैं । इसीलिए लोगस्स की प्रथम गाथा में सामान्य तीर्थंकरो की स्तुति की गई है ।
तीर्थंकर भगवान के अनन्तानन्त गुणों का कौन वर्णन कर सकता है ? उनकी स्तुति करने को मिली, यह भी सौभाग्य गिना जाता है । 'अहो मे स्तुवतः स्वामी, स्तुतेर्गोचरमागमत् ।'
- वीतराग स्तोत्र प्रभु की स्तुति का मुझे अत्यन्त लोभ है। जहां से मिले वहां से ले लेता हूं। मैं इस अर्थ में कृपण हूं। उस समय आपने सही कहा था ।
पूज्य आचार्य हेमचन्द्रसागरसूरिजी : उस समय के वचन मैं वापिस लेता हूं ।
[कहे कलापूर्णसूरि - ३00000000000000000000000३४५)
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पूज्यश्री : गुण तो बहुत कहते हैं, दोष कहां से सुनने को मिलें ? मैं तो उस समय भादौं शुक्ला-१३ को स्तब्ध हो गया था, मैं प्रशंसा सुनने के लिए थोड़े ही आया था ? _ 'हरि विक्रम चरित्र' में आने वाला यह दृष्टान्त सदा दृष्टि के समक्ष रहता है । संसारी पिता के पास शिष्य से प्रशंसा करा कर वे महान् योगी भी हार गये थे ।
दूसरों के द्वारा होने वाली स्तुति सुनकर प्रसन्न हो जायें तो भी साधना जाती है । स्तुति सुनकर अप्रसन्न हो, निन्दा सुनकर प्रसन्न हो वह सच्चा योगी है, सुख को दुःख और दुःख को सुख रूप गिने वह सच्चा मुनि है, ऐसा 'योगसार' में लिखा है । सौभाग्य या सुयश नामकर्म का उदय भी सुख है । यदि उस समय प्रसन्न होयें तो काम से गये । ___ आठों मदों से सावधान रहना है ।
* आप चाहे जितने बड़े विद्वान या गीतार्थ आचार्य बन गये हों तो भी लोगस्स, पुक्खरवर, सिद्धाणं आदि सूत्र ऐसे रखे हैं कि आपको भगवान की स्तुति करनी ही पड़ती है।
___ 'लोगस्स उज्जोअगरे' अर्थात् भगवान लोक को प्रकाशित करने वाले हैं । सूर्य एवं दीपक की तरह केवलज्ञान का भी प्रकाश होता है । वह द्रव्यप्रकाश है, यह भाव-प्रकाश है ।।
उद्द्योत करने वाले तीर्थंकर दूर हैं, तो भी क्या हुआ ? सूर्य दूर है, परन्तु किरणें यहीं हैं न ? भगवान दूर हैं, परन्तु भगवान की कृपा तो यहीं है न ? नास्तं कदाचिदुपयासि न राहुगम्यः
- भक्तामर स्तोत्र भगवान ऐसे सूर्य हैं जो कदापि अस्त नहीं होते, बादलों या राह से वे ग्रस्त नहीं बनते ।।
भगवान मोक्ष में गये उसका अर्थ यह नहीं है कि वे अस्त हो गये । भगवान भले मोक्ष में हों, परन्तु उनके गुण तो यहां प्रकाश फैला सकते हैं ।
सूर्य चाहे आकाश में हो, परन्तु हमें तो प्रकाश से मतलब है न ? प्रकाश तो यहां मिलता ही है । (३४६ 600oooooooooooooooo कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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सर्वज्ञ हो वह सर्वग होता ही है । सर्वग अर्थात् विश्वव्यापी । त्वामव्ययं विभुमचिन्त्य०
भक्तामर
*
अन्य दर्शन वालों द्वारा भगवान के लिए प्रयुक्त शब्द पूर्णरूपेण उचित हैं । श्री सिद्धसेन दिवाकर सूरिजी ने 'शक्रस्तव' में यह घटित किया है ।
भगवान पुरुषसिंह हैं । सिंह के समान गुण भगवान में हैं । कर्मशत्रु के प्रति शौर्य, कर्मोच्छेदन में क्रूरता, क्रोध आदि के प्रति असहिष्णुता, राग आदि के प्रति पराक्रम, तप के प्रति वीरता, परिषहों में अवज्ञा उपसर्गों में अभय, इन्द्रियों की चिन्ता नहीं, संयम के मार्ग में निराशा नहीं और ध्यान में अचंचलता । ऐसे भगवान का आप ध्यान करें । भगवान में आपको सिंह दृष्टि गोचर होगा । अपने पास शूरवीरता है, परन्तु है सांसारिक कार्यों में । हम धर्म-कार्यों में सर्वथा कायर है । काउस्सग्ग खड़े-खड़े करें कि बैठे बैठे करें ?
क्षपकश्रेणि में उत्कृष्ट आत्म-शक्ति कहां से आई ? वह सिद्ध भगवान के पास से आई है। जहां उपर सिद्धशिला की छत्री नहीं होती, वहां ऐसी शक्ति नहीं आती ।
ऐसी शूरता के कारण ही भगवान में शूरवीरता आदि गुण असामान्य गिने जाते हैं, हमारे गुण सामान्य गिने जाते हैं ।
सिंह की उपमा गलत नहीं है। भगवान के कितनेक असाधारण गुण उपमा के द्वारा ही समझाये जा सकते हैं । कितनेक जीव तो ऐसे होते हैं जो उपमा के द्वारा ही समझ सकते हैं । जीवों के क्षयोपशम विचित्र होते हैं ।
* चार अध्ययनों तक दस वैकालिक पढ़े हुए दुप्पसहसूरि गीतार्थ गिने जायेंगे, उस दसवैकालिक का मूल्य कितना है ? छ: जीवनिकायों की करुणा कितनी महत्त्वपूर्ण है ? उसे समझें । मेरी भाषा चाहे समान हो, परन्तु क्या आप सब समान रूप से समझ सकते हैं ? सबका क्षयोपशम अलग-अलग है । अतः बोध भी अलग-अलग होगा । इसीलिए उपमा देनी पडती हैं, व्याख्यान में दृष्टान्त आदि देने पडते हैं । 'ज्ञाता धर्मकथा' के कहे कलापूर्णसूरि ३ www
6. ३४७
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द्वारा मालूम होता है कि भगवान स्वयं भी दृष्टान्त देते थे । कथा बड़ी होती है, उपमा छोटी होती है ।
* कल स्वास्थ्य सर्वथा अस्वस्थ था, फिर भी मैं ने वाचना दी ही थी । यदि वाचना बन्द रखता तो अस्वस्थता की खबर अधिक फैल जाती । भगवान पर भरोसा रख कर मैं ऐसा कार्य कर लेता हूं ।
* भगवान उपकारी हैं, हम उपकार्य हैं । उपकार्य से भगवान को कोई प्रत्युपकार की इच्छा नहीं है, यही भगवान की महानता
* भगवान भले बदल जाते है, परन्तु गुण नहीं बदलते । इसीलिए 'नमुत्थुणं' वही रहता है जो सबमें समान रूप से लागू होता है ।
यह 'शकस्तव' इन्द्र द्वारा रचित नहीं है, गणधरों के द्वारा रचित है । इन्द्र तो सिर्फ बोलते ही हैं । इन्द्र में रचना करने की क्या शक्ति है ? देखो यहां लिखा है -
महापुरुषप्रणीतश्चाधिकृतदण्डकः ।
आदिमुनिभिरहच्छिष्यैः गणधरैः प्रणीतत्वात् । इसी कारण यह 'शक्रस्तव' महा गम्भीर है, सकल नयों का स्थान है, भव्य जीवों को आनन्दकारी है, परम आर्ष रूप है ।
आर्ष अर्थात् ऋषियों का । आर्ष में व्याकरण के सूत्र भी लागू नहीं पडते, प्रत्युत व्याकरण आर्ष का अनुसरण करता है ।
इसीलिए प्राकृत व्याकरण में तीसरा ही सूत्र लिखा - 'आर्षम्'।
* 'भगवती सूत्र' में अभयदेवसूरिजी ने स्वयं उमास्वाति महाराज को उद्धृत किया है । आज भगवती में आठ आत्माओं के अधिकार में प्रशमरति के श्लोक उद्धृत किये हुए देखने को मिले । वे एक अक्षर भी आधार के बिना नहीं लिखते । . * आगमों की वाचना आप सुनते हैं, परन्तु क्या उन आगमों
को कण्ठस्थ करने का नियम बनायेंगे ? प्रत्येक चातुर्मास में आगम परोसे जायें तो कितना उत्तम हो ? बीस वर्ष पूर्व यहां 'सूयगडंग' शुरु किया था। यदि हम ही आगम नहीं चलायेंगे तो कौन चलायेगा ? (३४८ 8000000000000000000 कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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जीवन में यदि आगमों को प्रधानता देनी हो तो उन्हें कण्ठस्थ करें ।
जन साधारण की भाषा में कठिन आगम भी प्रचारित किये जा सकते हैं । सर्व प्रथम अपनी रुचि होनी चाहिये । मात्र लोकरंजन, मनो-रंजन नहीं करना है, हमें आत्म-कल्याण करना है। हमारे व्याख्यान में यदि आगमों के पदार्थ आयें ही नहीं तो वहां क्या रहा ?
पूज्य प्रेमसूरिजी, पं. मुक्तिविजयजी, पं. भानविजयजी के व्याख्यान सुन कर कभी-कभी कहते, 'आपके इस व्याख्यान में आगमों का तो कोई तत्त्व आया ही नहीं ।।
आगमोद्धारक पूज्यश्री सागरजी महाराज सच्चे अर्थ में आगमोद्धारक थे । अब उनके उत्तराधिकारियों को यह उत्तरदायित्व संभालना है।
आगम-परिचय-वाचना का आयोजन करने की बात जानकर मुझे अत्यन्त ही आनन्द हुआ ।
आचारांग, उत्तराध्ययन आदि का योगोद्वहन करके आगमों को ताक पर नहीं रख देना है, उन्हें कण्ठस्थ करके जीवन में उतारना
दसवैकालिक, उत्तराध्ययन, आचारांग इत्यादि की जितनी टीकाएँ आदि उपलब्ध है, उन सबका कम से कम पठन तो करें । यदि पठन करोगे तो जीवन में कुछ आयेगा । तो ही आगमों की परम्परा चलेगी ।
* डॉक्टर की उपाधि प्राप्त करके क्या करना चाहिये ? दूसरों की सेवा करनी है । अजमेर के (मूल फलोदी निवासी) जयचंदजी डॉक्टर हैं । देश-विदेश में उनकी ख्याति है । वे कहते, 'मैं चाहे जैसे डोक्टर को सर्टिफिकेट नहीं दे सकता । मेरी भारी जवाबदारी है। वे यदि चाहे जैसे इंजेक्शन लगा दें और रोगी मर जाये तो जवाबदारी मेरी रहेगी ।
यहां भी आगमधारकों की जवाबदारी है । डोक्टरो से भी भारी जवाबदारी है।
(कहे कलापूर्णसूरि - ३ woomooooooooooooo000 ३४९)
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तीर्थमाल, शंखेश्वर, वि.सं. २०३८
CL
१७-९-२०००, रविवार अश्विन कृष्णा - ४ : पन्ना रूपा धर्मशाला
आगम-परिचय-वाचना भगवती अंग
पूज्य आचार्यश्री विजयकलापूर्णसूरिजी :
सबकी भलाई के लिए भगवान ने तीर्थ की स्थापना की । भगवान पुष्करावर्त मेघ की तरह बरसे हैं । आज भी उसका प्रभाव अनुभव किया जा सकता है । भगवान का है, उस प्रकार भगवान की ३५ गुणों से युक्त वाणी का भी अतिशय है । पुष्करावर्त मेघ के बादमें २१ बार धरती पर उपज होती रहती है, उस प्रकार भगवान की वाणी से २१ हजार वर्षों तक शासन चलता रहेगा से यह वाणी का प्रवाह चलता रहेगा ।
परम्परा
* प्रभु के अनुग्रह का यह ज्वलंत उदाहरण है । उसके बिना इस भूमि पर ऐसे वातावरण का सृजन नहीं होता, सामूहिक अनुष्ठान नहीं हो सकता ।
उत्तम भावना जगे तदनुसार विकास होता है । प्रत्येक संघ, समुदाय में ऐसा वातावरण बन जाये तो विकास कहां दूर है ?
३५० Wwwwwwwwwwwwwwwww कहे कलापूर्णसूरि- ३
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* आगमोद्धारकश्री की वाचना में हमारे पूज्य आचार्य भगवन् श्री पूज्य मेघसूरिजी, पूज्य कनकसूरिजी आदि लाभ ले चुके हैं ।
* श्रुत का उद्धार मात्र वाचना से नहीं होता, जीवन में आगमों को उतारने से होगा ।
* 'भगवती सूत्र' पर २०-३० मिनट में मेरे जैसे की बोलने की कहां शक्ति है ? फिर भी आगमों के प्रति भक्ति बोलने के लिए प्रेरित करती है ।
आगम अर्थात् प्राण ! जीवन ! इसके आधार पर ही अपना भाव-जीवन टिका हुआ है और टिका रहेगा ।
भगवती अर्थात् द्रव्यानुयोग का खजाना । यद्यपि वैसे तो चारों अनुयोग हैं । यह आकर ग्रन्थ है, जिसकी प्रशंसा स्वयं गणधरों ने की है, मंगलाचरण भी उन्हों ने किया है - नमो सुअस्स । नमो बंभीए लिवीए । यह मंगल कैसे है ? पंच परमेष्ठी तो हैं नहीं ।
श्रुतज्ञान श्रुतज्ञानी को छोड़ कर कहीं नहीं रहता, उनका नमस्कार मंगल ही गिना जाता है ।
सचमुच तो जिनागम एवं जिन एक ही रूप में है ।
'जिन प्रतिमा जिन सारखी' ऐसा बोलते हैं, परन्तु क्या जिन प्रतिमा साक्षात् जिन लगती है ? मुझ में भी अभी ऐसा भाव नहीं जगता । मूर्ति ही क्यों ? भगवान का नाम भी भगवान है । मूर्ति भी भगवान हो तो आगम तो भगवान गिने जाते हैं।
यदि आगम नहीं होते तो मुक्ति-मार्ग कैसे चलता ? मात्र संकेत (इशारे) से नहीं चलता । भाषा से ही स्पष्ट बोध होता है।
इस 'भगवती' में ४१ शतक हैं ।
जीवनभर चिन्तन-मनन करें तो जीवन के समस्त प्रश्न हल हो जायें ।
बीस वर्ष पूर्व मानतुंगसूरिजी के पास वाचना ली थी । उससे पूर्व बेड़ा में पूज्य पं. भद्रंकरविजयजी महाराज के पास लेकर व्याख्यान में बोलता था ।
गोयमा शब्द पर स्वर्ण-मुद्राऐं रखनेवाले श्रावक भी अपने शासन में हो चुके हैं।
. हमें समझा-समझा कर आगमों के लिए सौगन्ध (शपथ) दी गई थी। (कहे कलापूर्णसूरि - ३ 60
6600
60 ३५१)
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पूज्य हेमचन्द्रसागरसूरिजी : अब आप दीजिये । पूज्यश्री : इसके लिए तो आया हूं ।
यहां भगवती में मात्र गौतम स्वामी ही नहीं, जयन्ती जैसी श्राविका ने भी प्रश्न किये हैं ।
प्रश्न कर्ता गौतम स्वामी कैसे ? प्रथम पोरसी में सूत्र, दूसरी में अर्थ रूप ध्यान के कोठे में रहने वाले ।
अर्थ अर्थात् नियुक्ति, चूर्णि, भाष्य आदि सबका अध्ययन । इसीलिए अध्ययन को 'अक्षीण' भी कहा है, क्योंकि इतने अर्थ निकलते हैं कि वे कभी समाप्त होते ही नहीं । अक्षीण अर्थात् अट, भरपूर ।
भगवती का एकाध नमूना देखें ।
पंचास्तिकाय रूप लोक में अलोक का भी समावेश हो चुका है, क्योंकि आकाशास्तिकाय अलोक में भी है ।
भगवान के प्रति जितना आदर-सम्मान बढ़ेगा, उतने आगमों के रहस्य समझ में आयेंगे । पूज्य जिनचन्द्रसागरसूरिजी ने सबसे गवाया :
जिम जिम अरिहा सेविये रे;
तिम तिम प्रगटे ज्ञान सलूणा...। पूज्यश्री : देव-गुरु की भक्ति से ज्ञान प्रकट होगा । मैं स्वयं विद्वान नहीं हूं। मुझ से अधिक विद्वान यहां हैं ।
भक्ति के प्रभाव से जो अर्थ निकले उससे मुझे भी आनन्द आये ।
ध्यान के समय अर्थ निकलते हैं । भगवान को पूछने के लिए जाना नहीं पड़ता, भगवान स्वयं आकर कह कर जायें, ऐसा अनुभव होता है ।
मीरा के लिए कृष्ण दूर नहीं हैं । भक्त के लिए भगवान दूर नहीं हैं । भगवान दूर हैं, यह भ्रम मिटाना ही पड़ेगा ।
शायद किसी को विशिष्ट अर्थ मालूम हो जाये तो भगवान का प्रभाव मानें, अपना नहीं ।
पूज्य हेमचन्द्रसागरसूरिजी : ब्राह्मीलिपि को नमस्कार क्यों ? (३५२00oooooooooooooooo कहे कलापूर्णसूरि -३)
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पूज्यश्री : श्रुतज्ञान के प्रत्येक प्रकार के प्रति सम्मान है । ब्राह्मी लिपि में द्रव्यश्रुत है । द्रव्य के बिना भावश्रुत प्रकट नहीं होता ।
लिपि अक्षर रूप है । न क्षरति इति अक्षरम् । तीर्थंकर आते हैं और जाते हैं, परन्तु अक्षर तो रहते ही हैं ।
भावश्रुत के जितना ही द्रव्यश्रुत का सम्मान करना है ।
ज्ञान की मुख्यता हो तब चारित्र एवं ध्यान उसमें ही अनुस्युत समझें । यह ज्ञान 'ज्ञ' एवं प्रत्याख्यान परिज्ञा रूप समझें ।
तज्ज्ञानमेव कथं यस्मिन् उदिते रागादयः जायन्ते ?
* भचाऊ में भगवती का वांचन चल रहा था, तब एक स्थान पर मैं तनिक चौंक गया, क्योंकि उसमें लिखा था - जीवास्तिकाय अनन्त प्रदेशी है । परन्तु बाद में ध्यान आया कि यह तो अनन्त जीवों की बात है । जीव ही अनन्त हों तो प्रदेश तो अनन्त होंगे ही न ?
कल भगवती में आया था -
द्रव्यात्मा में सभी जीव आ गये । द्रव्यात्मा के रूप में हम सब एक हैं ।
हम दूसरों को अलग मानते हैं, परन्तु जीवास्तिकाय कहता हैं - हम सब एक हैं । दूसरे सब (पुद्गलास्तिकाय आदि) जीवास्तिकाय के सेवक हैं। कर्तृत्व आदि शक्तियां जीव के सिवाय और कहां हैं ?
जीवास्तिकाय का शब्दार्थ - जीव = जीव अस्ति = प्रदेश काय = समूह
यहां विद्वान् अनेक हैं । मैं कुछ न दूं तो वे मेरा कान पकड़ते हैं । जीवास्तिकाय के पांच प्रकार हैं - द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और गुण ।
* द्रव्य से जीवास्तिकाय अनन्त जीव द्रव्य रूप है। उसमें समस्त जीव आ गये ।
(भले ही कुछ कंटाला आये, परन्तु यह जानने योग्य है ।) क्षेत्र से लोकव्यापी
(कहे कलापूर्णसूरि - ३00ooooooooooooooooo ३५३)
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काल से अनादि अनन्त, नित्य, शाश्वत । कोई काल नहीं होता जब जीवास्तिकाय नहीं होता ।
समस्त द्रव्य सहायक बनते हैं। शायद एकमात्र हम सहायक नहीं बनते । यदि इस विश्व में अस्तित्व बनाये रखना हो तो दूसरे को सहायक बनना ही पड़ेगा। इसके बिना अस्तित्व कायम रहेगा ही नहीं । समझ कर सहायता करें तो लाभ हैं, अन्यथा विश्व व्यवस्था के अनुसार अनिच्छा से भी सहायता करनी ही पड़ेगी।
भावसे - अवर्ण, अगन्ध आदि । पुद्गलास्तिकाय के सिवाय सब अरूपी हैं ।
जीव असंख्य प्रदेशी है, परन्तु जीवास्तिकाय अनन्त प्रदेशी है, क्योंकि जीव अनन्त हैं । समस्त जीवों का संग्रह जीवास्तिकाय है । जीव अनन्त हों तो प्रदेश तो अनन्त होते ही हैं ।
इसका अर्थ यह हुआ कि प्रदेशों से हम एक हैं ।
'जीवास्तिकाय में से एक जीव को निकाल दे' तो क्या जीवास्तिकाय कहलायेगा ? गौतम स्वामी के इस प्रश्न के उत्तर में भगवान ने कहा - 'नहीं, नहीं कहलायेगा । एक प्रदेश शेष रखें तो भी जीवास्तिकाय नहीं कहलायेगा ।
भगवान भी इस जीवास्तिकाय में साथ हैं और कहते हैं कि हे जीव ! तू मेरे समान ही है ।
एक जीव ही नहीं, जीव के एक प्रदेश को सतायें तो यह अपनी ही परेशानी बनी रहेगी । अपने शरीर के एक अंगूठे को भी आप कष्ट देंगे तो वह कष्ट आपका ही है, दूसरे किसी का नहीं । इसीलिए आचारांग में कहा है -
'तुमंसि नाम सच्चेव जं हंतव्वंति मनसि ।' जिसे मारता है वह तू ही है, यह सत्य मानना ।
यह तो मात्र नमूना बताया है, यदि आपको विशेष जानना हो तो भगवती का पाठ चलता ही है । पाठ में आ जाना ।
इस भगवती में अजैन संन्यासी भी भगवान को प्रश्न पूछने के लिए आते हैं, फिर निःशंक होकर दीक्षित होते हैं । जयन्ती (३५४00mooooooooooooooooo कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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श्राविका के द्वारा पूछे गये प्रश्न के उत्तर में भगवान ने कहा, 'धर्मी लोग जागते अच्छे और अधर्मी सोये अच्छे ।
हम सोये भले कि जागृत भले ? जागृति दो प्रकार की है - द्रव्य, भाव । शेष समस्त बातें हेमचन्द्रसागरसूरिजी करेंगे ।
इसी प्रकार से धर्मी बलवान अच्छे, अधर्मी निर्बल अच्छे । अधर्मी के पास बल हो तो दूसरों का नहीं, अपने ही विनाश का कारण बनता है ।
_ 'इस भगवती में 'तुंगीया' नगरी के श्रावकों का वर्णन 'लद्धट्ठा, गहीअट्ठा' आदि कह कर किया गया है । ४५ आगम सुनने का तो श्रावकों को भी अधिकार है । इसीलिए 'लद्धट्ठा, गहीअट्ठा' श्रावक कहलाये हैं ।
__यहां बैठे हुए बाल मुनीगण आदि आगमों को कण्ठस्थ करने की प्रतिज्ञा लें तो आनन्द होगा ।
पूज्य हेमचन्द्रसागरसूरिजी :
अस्वस्थता होने पर भी पौने घंटे तक तत्त्व समझाया । पूज्यश्री पक्के व्यापारी हैं ।
पूज्यश्री फरमाते हैं : साधु-साध्वीजियां एक वर्ष तक आवश्यक एवं दसवैकालिक की सभी टीकाएं आदि पढ़ें । मैं पहले हाथ जोड़ता हूं। मेरे साथ दूसरे कितने हाथ जोड़ेंगे ?
पूज्यश्री ने जो कहा वह यदि नहीं भी सुना हो तो उसका सार धुरन्धरविजयजी बतायेंगे ।
पूज्यश्री धुरन्धरविजयजी : पूज्यश्री की बात थोड़ी याद कर लें । यों भी सुनने के बाद शास्त्र में धारणा की बात है ही ।
भगवान की वाणी को पुष्करावर्त की उपमा दी गई। पुष्करावर्त में ऐसा गुण हैं कि एक बार वृष्टि होने पर २१ वर्षों तक उपज होती ही रहती है ।
भगवान ३० वर्ष बोले । उनके दस-ग्यारह हजार दिन होते हैं । उसके प्रभाव से ही भगवान का शासन २१ हजार वर्षों तक चलेगा । कहे कलापूर्णसूरि - ३ 6000wwwwwwwwww ३५५)
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हम सब खेती करते हैं, परन्तु जमीन में उपज हो वह भगवान की पुष्करावर्त रूप वाणी का प्रभाव है ।
हमारे बोलने के कारण से होता है, ऐसा हमारा भ्रम है । जो इससे मिट जाता है ।
'नमो सुअस्स' श्रुतज्ञान को नमस्कार, प्रणाम ।
तीर्थ के तीन प्रकार हैं, जिनमें द्वादशांगी भी है । पू. पंन्यास भद्रंकरविजयजी महाराज ने बहुत सा अनेकों को दिया है । श्रुत अर्थात् सुना हुआ, सिर्फ पढ़ा हुआ नहीं ।
गुरु के पास सुना हुआ ही भीतर का प्रकट कराता है । वेदों को 'श्रुति' कहा गया है ।
सुनने से ही आध्यात्मिक जन्म होता है, सुनने का ही महत्त्व है । बालक भी सुन कर ही भाषा सीखता हैं । सुच्चा जाणइ । * नमो बंभीए लिवीए ।
भगवान बोले उसकी जो आकृति खड़ी हुई वह ब्राह्मी । भैरवी राग गाओ तो भैरवी, वागेश्वरी से सरस्वती की मूर्ति रेत में खींच जाती है, ऐसा तजज्ञों का कथन है ।
मूल शब्द ब्रह्म है । ब्रह्म अर्थात् परमात्मा । उनके द्वारा बोला हुआ वह ब्राह्मी । ब्राह्मी भगवान का अक्षर-देह है, जो अविनाशी
है ।
श्रुत-बीज को नमस्कार के बाद ब्राह्मी लिपि को भी नमस्कार यहां हुआ है ।
भगवती की इतनी महिमा क्यों है ?
इसमें चतुर्विध संघ के है । मुख्य गौतम स्वामी हैं, हैं ।
सबों को प्रश्न करने का स्थान मिला और जयन्ती श्राविका आदि दूसरे भी
जयन्ती राजा शतानिक की सगी बहन थी ।
भक्ति में सुलसा आगे थी, जबकि जिज्ञासा में जयन्ती आगे थी । उस पर अभयदेवसूरि ने 'जयन्ती चर्चा' नामक ग्रन्थ लिखा है, जिसे साध्वीएं भी पढ़ सकती हैं ।
अणु विज्ञान के सिद्धान्त भी भगवती में से खोजे गये हैं, जो प्रकाशित भी हुए हैं ।
३५६ WWWWW
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हमारे सुमेरपुर के चातुर्मास में एक श्राविका कहती, 'मेरी सास अनपढ थी परन्तु ४५ आगमों के बोल उन्हें कण्ठस्थ थे । ज्ञानसुन्दरजी द्वारा प्रकाशित थोकड़े (पहले थोकड़ों की हस्तलिखित प्रतें थी) उन्हें कण्ठस्थ थे । मात्र सुनकर कण्ठस्थ किये थे ।
मुनि श्रुतधर कहलाते हैं, तो श्रोता श्रुतिधर कहलाते हैं । एकाग्र हों तो ही यह सम्भव हो सकता है ।
भगवती को जयकुंवर गंध हस्ती की उपमा दी गई है। पूज्य लब्धिसूरिजी ने गंध हस्ती आदि के विशेषणों में ही चार महिने समाप्त कर दिये थे ।
गंधहस्ती के पास दूसरे हाथी नहीं ठहरते, उस प्रकार भगवती के पास विघ्न नहीं ठहरते ।
इसीलिए मंगल हेतु बार-बार भगवती का वांचन होता रहता था ।
* अलग होने का अनुभव करना ही मोह है। जीवास्तिकाय का कथन है - हम एक हैं । लोक स्वरूप भावना भी यही है।
हिन्दुस्तान के समस्त नागरिक भारतीय के रूप में एक हैं, उक प्रकार जीवत्व के रूप में हम सब एक हैं । गुजराती आदि के रूप में अलग, उस प्रकार भेदनय से जीव भिन्न भी गिना जाता
आप देह रूप हैं और विश्वरूप भी हैं, उसकी संवेदना करें - ऐसा भगवान का कथन है ।
'अरूपी' इसलिए कहलाता है कि पहले रूप ही प्रतीत होता है, शब्द आदि बाद में सुनाई देते हैं । उदाहरणार्थ बिजली का प्रकाश पहले दिखाई देता है, गर्जना बाद में सुनाई देती है ।
धर्म अर्थात् परोपकार । जो दूसरों के लिए उपयोगी नहीं बनता वह धर्मी नहीं है।
धर्मी बलवान या समृद्ध अच्छे । . पापी निर्बल या दरिद्र अच्छे ।
* व्याख्यान में माला फेरें तो नहीं चलता । नींद करो तो फिर भी चलता है । नींद करते समय कम से कम हमारे शब्द तो कानों में पड़ेंगे ।
(कहे कलापूर्णसूरि - ३ 00000000000
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अभिप्राय
पुस्तक मिली, सुन्दर प्रेरणादायी है । अनेक व्यक्तियों के लिए उपयोगी बनेगी ।
आपने ऊकाभाई पटेल के साथ भेजी हुई 'कह्युं कलापूर्णसूरिए' नामक पुस्तक की दो प्रतियें परसों रात्रि में प्राप्त हुई हैं । सुखसाता में होंगे । यहां भी देव गुरु की कृपा से सुख -साता है । सभी को वन्दना - सुखशाता कहें ।
- पद्मसागरसूरि
'डाक जाते आते अधिक समय लगता है । अतः अब पत्र लिखें तो हरिद्वार के पते पर लिखें । कार्तिक शुक्ला पूर्णिमा तक हम यहां हैं । तत्पश्चात् बर्फ पड़ने लगेगी तब पोस्ट - ओफिस भी बंद हो जायेंगी । उत्तरी ध्रुव में जिस प्रकार छ: महिने दिन और छ: महिने रात होती है, उस प्रकार यहां भी लगभग छः महिने तक जन-जीवन प्रायः बंद रहता है । पशु, पक्षी, मनुष्य सभी यहां से नीचे उतर जाते हैं । कुछ दो-चार योगी एवं सेना के कुछ मनुष्य यहां रहते हैं ।
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'कहा कलापूर्णसूरिने' का बहुमूल्य उपहार अभी ही हाथ में आया । पूज्य श्री की यह वाचना-प्रसादी अनेक आत्माओं को सुलभ करके देने के सम्यक् प्रयास के लिए आपको बहुत-बहुत धन्यवाद । आचार्य विजयरत्नसुन्दरसूरि
जंबूविजय बद्रीनाथ (हिमालय)
H 28
28
पुस्तकें भेजने के लिए आभार, अत्यन्त ही सुन्दर हैं । आत्मोपयोगी ऐसी पुस्तकें प्रकाशित करते रहें । आपका कार्य निर्विघ्न सम्पन्न हो, ऐसी प्रार्थना ।
आचार्य जयशेखरसूरि धारवाड़, हुबली
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कल 'कहे कलापूर्णसूरि' पुस्तक डॉक्टर राकेश के मार्फत मिली । मैं उसे मंगवाने के प्रयत्न में था और आ गई । अत्यन्त आनन्द हुआ ।
पहले दूसरे के मार्फत यहां आई हुई यह पुस्तक मुझे मिली थी और लगभग उसे मैं पूर्ण रूप से पढ़ चुका हूं। अत्यन्त प्रसन्नता हुई है। साधु-समाचारी की बातें और पूज्यश्री के मुंह से प्रवाहित वाणी अत्यन्त प्रभावोत्पादक होती है । मुझे पुस्तक अत्यन्त प्रिय लगी है । (रुबरु) प्रत्यक्ष मिलने जितना आनन्द हुआ है ।
इस काल में पूज्य पंन्यासजी महाराज के पश्चात् पूज्य आचार्य भगवंत अत्यन्त श्रद्धेय व्यक्ति हैं ।
आप गणिवरों ने घोर श्रम करके पुस्तक तैयार की है। धन्यवाद
- मुनि जयचन्द्रविजय, सूरत
आप कृपालु के द्वारा मुझे याद करके भेजी हुई परम पूज्य भगवान कलापूर्णसूरिजी के भावों को प्रस्तुत करती पुस्तक 'कह्यु कलापूर्णसूरिए' मिली । बहुत-बहुत आभार ।
पुस्तक मिली । अत्यन्त ही आनन्द आया । परमात्म-स्वरूप पूज्यश्री की पुस्तक के लिए अल्पज्ञ मैं कोई भी अभिप्राय दूं यह भगवान कलापूर्णसूरीश्वरजी का अवमूल्यन करने वाली बनेगी ऐसा प्रतीत होता है।
जिसे पढ़ते ही आत्मा के भयानक आवेश-आवेग आदि भाग कर शान्त, प्रशान्त, उपशान्त अवस्था (स्व की) प्राप्त कराये ऐसा यह शास्त्र अनेक भव्यात्माओं को आत्म-कल्याणकारी बनेगा ही यह निस्सन्देह बात है।
- विमलहंसविजय, बारडोली
'कडं कलापूर्णसूरिए' पुस्तक की एक प्रति प्राप्त हुई । श्रुतभक्ति की बहुत-बहुत अनुमोदना ।
- आचार्यश्री कल्याणसागरसूरि, नारणपुरा, अहमदाबाद
कहे कलापूर्णसूरि - ३0000000wowonwo000000 ३५९)
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तत्रभवता प्रेषितं पुस्तकं 'कडं कलापूर्णसूरिए' इति समधिगतं । समवगतञ्च तत्रगतं तत्त्वं किञ्चित् । भवतः पुस्तक-सम्पादन पद्धतिरतीव रमणीयतरा ।
पुस्तक-पठनावसरे संविदितानुभूति-रेतादृशी यत् तत्रश्रीमतां श्रीमतां पूज्यप्रवराणां 'कलापूर्णसूरीश्वराणां' सन्निकटस्थान एव उपविश्य यथा श्रूयते साक्षात् रूपेण वाचनां प्रवचनं वा । एतादृग्वैलक्षण्यमनुभूय प्रमुदितं आस्माकीनं अन्तश्चेतः ।।
एतत्सम्पादन-कार्यकौशल्येन भवद्भ्यां प्रकृष्टं पुण्यकर्म समुपार्जितम्। एतदर्थं धन्यवादाौं भवन्तौ ।
पुस्तक-प्रेषण-कार्येण भवद्भ्यामावाम् निश्चित-रूपेणोपकृतौ । पुनः स्मरणीयौ आवामिति
- जिनचन्द्रसागरसूरिः - हेमचंद्रसागरसूरिश्च
पालीताणा
'कडं कलापूर्णसूरिए' पुस्तक मिली है, देखी । अत्यन्त ही चिन्तनीय, मननीय है, सुवाक्यों का भण्डार है ।
___ आप संकलनकर्ता हैं, आपको अनेक धन्यवाद । व्याख्यान में कम लोग आते हैं, परन्तु पुस्तक के रूप में प्रकाशित विचार हजारों लोग पढ़ें । अतः हजारों लोगों तक पूज्यश्री की प्रसादी पहुंचाने का भगीरथ कार्य करने के उपलक्ष में अत्यन्त अनुमोदना के साथ धन्यवाद।
- हेमन्तविजय
वांकी तीर्थ में दी गई वाचना की पुस्तक मिली । अत्यन्त आनन्ददायक सामग्री परोसी गई है। विवरण कहीं-कहीं अपूर्ण प्रतीत होते हैं।
उदाहरणार्थ - सोलापुर के चातुर्मास की बात है। वहां पर्युषण के पश्चात् व्याख्यान बन्द करने की बात है । तत्पश्चात् क्या हुआ यह जिज्ञासा असन्तुष्ट रही है।
- आचार्य विजयप्रद्युम्नसूरि शान्तिनगर, अहमदाबाद-१३.
(३६०0mmooooooooooo6000 कहे कलापूर्णसूरि - ३)
Page #393
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'कहे कलापूर्णसूरि' पुस्तक मिली । पूज्यश्री के कोहिनूर हीरे तुल्य रत्न-कर्णिकाओं को शब्दों के डोर में बांध कर एक नवलखा हार जैसी अद्भुत रचना प्रस्तुत करके चतुर्विध संघ पर अत्यन्त उपकार किया है । जीभ बोले, हृदय बोले, ऐसे शब्द अनेक बार मिले हैं, परन्तु अनुभव बोलते हों ऐसे शक्तिशाली शब्द तो कभीकभी ही मिलते हैं । ऐसे शब्द पहुंचाने की कृतज्ञता हृदयपूर्वक व्यक्त करता हूं।
'कडं कलापूर्णसूरिए' पुस्तक अभी भूपतभाई ने दी है। ऐसी श्रेणि प्रकाशित हो और प्रत्येक शब्द की सुरक्षा हो ऐसी शुभाभिलाषा।
- संयमबोधिविजय
घाटकोपर, मुंबई
'कहे कलापूर्णसूरि', 'कडं कलापूर्णसूरिए' नामक पुस्तकें प्राप्त हो गई हैं । लेखन अत्यन्त उत्तम है । पुस्तकें अत्यन्त ही उपयोगी हैं। श्रुतज्ञान की आराधना में आपकी अप्रमत्तता अनुमोदनीय है । आपने इस कार्य में अत्यधिक प्रयास किया है। शासन-देव आपको ऐसे कार्यों में बहुत-बहुत शक्ति प्रदान करे। पढ़कर सभी समझ सकें वैसी सरल, तत्त्वदर्शी एवं प्रिय लगने वाली आपकी पुस्तकें हैं ।
- मुनि हितवर्धनसागर बडा कांड़ागरा (कच्छ)
'कहे कलापूर्णसूरि' पुस्तक मिली । आध्यात्मिक वाचनाओं का सुन्दर, सरस संकलन किया है। अध्यात्मयोगी पू. आचार्य भगवंत की प्रत्येक पृष्ठ पर विविध मुद्राओ में उनके दर्शन भी होते हैं । तत्त्वों के खजाने से भरपूर है । सचमुच, आपका सम्पादन प्रशंसनीय है।
__ - आचार्य विद्यानन्दसूरि
# # आप द्वारा सम्पादित 'कहे कलापूर्णसूरि' नामक पुस्तिका साभार स्वीकार कर ली है । श्रुत भक्ति की भूरि-भूरि अनुमोदना ।
- आचार्य विजयप्रभाकरसूरि, अहमदाबाद
(कहे कलापूर्णसूरि - ३ wwwwwwwwwwwwwwwwwww ३६१)
Page #394
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दोनों ग्रन्थ मिले । अत्यन्त प्रसन्नता हुई। आपने पूज्यश्री की यह पवित्र वाणी-गंगा को प्रवाहित की। आप दोनों पूज्य गणिवों ने अत्यन्त महत्त्वपूर्ण सम्पादन कार्य किया है, जो धन्यवादाह है।
- पंन्यास विश्वकल्याणविजय
श्री पार्श्व प्रज्ञालय तीर्थ
आचार्य भगवन् के चिन्तन का खजाना प्राप्त हुआ । 'कहे कलापूर्णसूरि' बैंगलोर निवासी भंवरलालजी ने आयंबिल करने के लिए आते समय दी ।
साहेबजी का पुण्य, साधना, चिन्तन, भक्ति एवं उनका तेज इतना उच्च कोटि का है कि पूछो ही मत । फिलहाल थोड़ा सा ही चिन्तन पढ़ पाया हूं। उसमें भी इतना आनन्द आया कि वर्णन नहीं कर सकता। ऐसे परम योगी पुरुष का आप अत्यन्त ही उत्तम चिन्तन का संकलन कर रहे हैं, एवं आपने भी उनकी छत्रछाया में अद्भुत ज्ञान-खजाना प्राप्त किया है। मुझे भी समय-समय पर ऐसा खजाना लूटने का अवसर प्रदान करते रहें ।
- अशोक जे. संघवी, बैंगलोर
'कहे कलापूर्णसूरि' तथा 'कडं कलापूर्णसूरिए' दोनों पुस्तकें प्राप्त हो गई हैं । पूज्यपाद आचार्य भगवंत विजयकलापूर्णसूरीश्वरजी महाराज साहिब के साधना-जिनभक्ति रसमय जीवन से टपकती साधक-वाणी उपलब्ध कराने हेतु धन्यवाद, आनन्द, अनुमोदन ।
ये शुभ प्रयास चालु रखने के लिए विनती ।
श्रुत-भक्ति में श्रेष्ठ उद्यम कर के स्वाध्याय-शील रहने के लिए अभिनन्दन ।
- आचार्य कलाप्रभसागरसूरि, हैदराबाद ।
पुस्तक स्वाध्याय के लिये, आत्मिक विकास के लिए अत्यन्त ही सुन्दर है । पढ़नी प्रारम्भ कर दी है।
- मुनि संवेगवर्धनविजय, घाटकोपर, मुंबई
(३६२ Mooooooooooooooooooo कहे कलापूर्णसूरि - ३)
Page #395
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दोनों पुस्तकें मिली । सचमुच आपने काफी परिश्रम किया है । आवरण तथा अन्तरंग दोनों दृष्टियों से स्वागत योग्य श्रेष्ठतम प्रकाशन हुए हैं ।
आपका श्रम साधुवाद का पात्र है ।
विजयमहाबलसूरि - पुण्यपालसूरि, मुनि भव्यभूषणविजय, पूना
-
'कहा कलापूर्णसूरि ने' पुस्तक देखी । अद्भुत वाचनाओं का संग्रह है । जो श्रमण वर्ग के लिए उपयोगी होगा । बंधु - युगल ने ज्ञान-साधना में अभिवृद्धि की है उसकी अनुमोदना करते हैं । आचार्य विजयगुणरत्नसूरि
पं. रविरत्नविजय, सूरत
28
8
'कहें' एवं 'कहा' के जाज्वल्यमान प्रकाशन जैन संघ को भेंट देकर आपने महान् उपकार किया है ।
आपने हमें पूज्यश्री की वाणी का साक्षात् संयोग कराया है । मुनि देवरत्नसागर, मुंबई
8
आचार्यदेवश्री का वाचना ग्रन्थ 'कहा कलापूर्णसूरि ने' परसों ही प्राप्त हुआ है । ग्रन्थ अत्यन्त तात्त्विक एवं मननीय है । इससे पूर्व 'कहे कलापूर्णसूरि' ग्रन्थ मिला, पढ़ा । अत्यन्त ही अद्भुत ग्रन्थ है ।
-
पूज्यश्री के वचनामृत को इस ढंग से प्रस्तुत करके आपने अनुपम श्रुतभक्ति एवं गुरु-भक्ति का परिचय दिया है ।
साध्वी संस्कारनिधिश्री, उज्जैन ·H
पूज्यश्री की इस पुस्तक से मुझ जैसे अज्ञानी जीव पर अत्यन्त कृपा - वृष्टि हुई है, अनेक पदार्थों का ज्ञान प्राप्त हुआ है, जिस ज्ञान की प्राप्ति के लिए मैं सम्पूर्ण जीवन परिश्रम करूं तो भी प्रायः प्राप्त नहीं हो ।
8
कहे कलापूर्णसूरि ३ wwww
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-
साध्वी हंसरतिश्री
७०० ३६३
Page #396
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आपकी तरफ से प्रेषित पुस्तक 'कहे कलापूर्णसूरि' प्राप्त हो गई । परम पूज्य साहेबजी की वाणी का हम प्रत्यक्ष लाभ लेना . चाहते हैं, परन्तु प्रत्यक्ष तो जब लाभ मिले तब, पर इस समय परोक्ष रूप से वाणी को कलमबद्ध करके पुस्तक के द्वारा हम जैसे छोटे व्यक्तियों के हाथ में आई है। जिस वाणी का वांचन अत्यन्त ही उत्तम है और पढ़कर साहेबजी के समान भगवान की भक्ति करें यही प्रार्थना है।
___ - साध्वी गुणसेनाश्री
'प्रभु के नाम में भी उपकार की शक्ति है', ऐसा कहने वाले व्यक्ति (पूज्यश्री) ऐसे ही होते हैं, जिन्होंने अपने जीवन में प्रभु के नाम के द्वारा थोड़ा नहीं, परन्तु बहुत सारा प्राप्त कर लिया हो ।
- साध्वी हंसध्वनिश्री .
मेरा तो क्या सामर्थ्य है कि मैं इस पुस्तक के भीतर तक पहुंच सकू ?
_ - साध्वी हंसबोधिश्री
पुष्प की सुगन्ध तेल में आती है उस प्रकार से यह पुस्तक पढ़ने से भक्ति की सुगन्ध हमारे भीतर आती है।
- साध्वी प्रशीलयशाश्रीजी
यह पुस्तक पढ़ने के बाद प्रत्येक जीव के प्रति मैत्री-भाव बढ़ाने की भावना तथा समकित प्राप्ति के लिए देव-गुरु की अदम्य भक्ति उत्पन्न हो वैसी मैं याचना करती हूं ।
- साध्वी विशुद्धदर्शनाश्री
पूज्यश्री के श्रीमुख से बहनेवाली वाणीरूपी सरिता में स्नान करके विशुद्ध बनने का स्वर्ण अवसर इस पुस्तक के माध्यम से प्राप्त हुआ है।
___- साध्वी हंसकीर्तिश्री
(३६४00000wooooooooooooo कहे कलापूर्णसूरि - ३)
Page #397
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यह पुस्तक विशाल, गम्भीर एवं अगाध है । विषयों की विशालता (नमस्कार मंत्र, गुरुभक्ति, प्रभु-भक्ति, अध्यात्म, विनय, ज्ञान, स्वाध्याय, श्रद्धा आदि विषय) है । अर्थ (प्रभु-कृपा, गुरुकृपा, विषयों की विरक्ति, विनियोग आदि) की गम्भीरता और अध्यात्म-चिन्तन रूप गहराई - यह सब देख-पढ़ कर मैं मात्र विस्मय का ही अनुभव करती हूं ।
- साध्वी हितदर्शनाश्री
परम तारणहार परमात्मा की परम प्रीत-पराग का पान करते हुए पूज्यश्री के मुखारविन्द से प्रकाशित इस वाणी का दोहन करते हुए मेरा हृदय भावुक बन गया है ।
- साध्वी चारुनयनाश्री
यह पुस्तक पढ़ कर सचमुच लगा कि ये गुण (भक्ति आदि) जीवन में विकसित करने योग्य हैं ।
- साध्वी मुक्तिरेखाश्री
__मानव-जीवन अमृत है, जिसकी झलक सचमुच यह पुस्तक पढ़ने पर हुई ।
___- साध्वी सुशीलगुणाश्री
पूज्य गुरुदेवश्री के मुख-कमल से प्रसारित अमृततुल्य जिनवाणी रूप वाचना की झलक मुझे तो अत्यन्त ही पसन्द आई है ।
- साध्वी हर्षदर्शिताश्री
पुस्तक पढ़ कर मन-मयूर नाच उठा ।।
- साध्वी विश्वकीर्तिश्री
इस पुस्तक में से जानने को तो इतना अधिक मिला है कि जिनका तो मैं शब्दों में वर्णन नहीं कर सकती ।
- साध्वी अनन्तकीर्तिश्री
(कहे कलापूर्णसूरि - ३000moooooooooooo00 ३६५)
Page #398
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यह पुस्तक नहीं है, परन्तु पूज्य गुरुदेव की साक्षात् परा वाणी है, ऐसा स्पन्दन हुआ ।
पूज्य पं. मुक्तिचन्द्रविजयजी तथा पूज्य गणि मुनिचन्द्रविजयजी ने जो अथक परिश्रम करके गुरुदेव के आन्तरिक भावों को शब्द-देह प्रदान करके पुस्तक रूप में प्रकाशित किये जो अत्यन्त प्रशंसनीय है ।
- साध्वी सौम्यकीर्तिश्री
यह पुस्तक हमारे लिए प्रकाशस्तम्भ तुल्य है ।
- साध्वी दृढ़शक्तिश्री
_ 'कहे कलापूर्णसूरि' पुस्तक मेरे लिए तो अत्यन्त उपयोगी सिद्ध
__ - साध्वी हितपूर्णाश्री
समवसरण में बैठ कर प्रभुजी देशना दे रहे हों और हम उस वाणी का पान कर रहे हों, ऐसा भाव यह पुस्तक पढ़ने पर उत्पन्न होता है ।
- साध्वी चारुमैत्रीश्री
वर्षों के अध्ययन के बाद भी आगमों का जो रहस्य नहीं समझा जा सके, वह पूज्यश्री ने इस पुस्तक में सरल भाषा में स्पष्ट किया है।
__- साध्वी चारुचन्दनाश्री
पूज्यश्री ने भक्त की शैली में तलहटी से शिखर तक का साधना क्रम इस पुस्तक में व्यक्त कर दिया है ।
- साध्वी हंसपद्माश्री
पुस्तक पढ़ने पर हुए अपार लाभ यह तुच्छ कलम क्या लिखे ?
__- साध्वी भुवनकीर्त्तिश्री
३६६manohannamasooooooom कहे
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हटाने के लिए कर्मों की फौज, करने के लिए परमात्मा की खोज, लेने के लिए मुक्ति की मौज, यह पुस्तक है सुख का हौज ।
साध्वी भव्यदर्शिताश्री
H
यह पुस्तक प्रत्येक व्यक्ति के लिए अत्यन्त ही उपयोगी है । साध्वी चारुविनीताश्री
28
यह पुस्तक पढ़ने पर ऐसा प्रतीत हुआ, मानो प्रत्येक शब्द भगवान के श्रीमुख में से निकला हो ।
साध्वी अभ्युदयाश्री
H
इस पुस्तक को पढ़ने से हमारे भीतर समस्त जीवों के प्रति मैत्री, परोपकार एवं करुणा प्रकट हो, गुरु एवं सहवर्तियों के प्रति अत्यन्त आदर-भाव उत्पन्न हो वैसे मनोरथ हुए हैं ।
साध्वी चित्तदर्शनाश्री
H
8
जहां लघुता होगी वहां भक्ति प्रकट होगी, जहां भक्ति होगी वहां मुक्ति प्रकट होगी,
पुस्तक का यह वाक्य मुझे अत्यन्त ही पसन्द आया । साध्वी वीरदर्शनाश्री
-
पूज्य श्री की वाचना सोये हुए आतमराम को झकझोर रही है । सुषुप्त चेतना तनिक जागृत होने के लिए प्रयत्नशील है ।
1
साध्वी हंसमैत्री श्री
( कहे कलापूर्णसूरि ३
-
अनादि काल से प्रभु का जो वियोग है, उस प्रभु का संयोग कर दे ऐसे योगों के आराधन करने की इच्छा यह पुस्तक पढने से हुई । साध्वी हंसलक्षिताश्री
8
० ३६७
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'कहे कलापूर्णसूरि' पुस्तक में लोकोत्तर बातें है । आत्मा को परमात्मा बनाने की वाणी-गंगा हर पेज पर छलकती है । सा. चन्द्रज्योत्स्नाश्री
28
अनेक ग्रंथों का सार इस पुस्तक में रहा हुआ है ।
पुस्तक पढने से अब हम प्रभु के करते है, पहले हम सिर्फ पांव घंटा ही भक्ति में भी उल्लास बढा है ।
-
पास भक्ति
भ
पुस्तक पढने के बाद जाप, प्रभु-भक्ति बढे मैं प्रयत्नशील रहूंगी ।
-
पुस्तक पढने पर प्रतिदिन आधा घंटा पढना (संकल्प) की है ।
प्रतीत हुआ ।
३६८०
आधा घंटा भक्ति करते थे । गुरु
सा. प्रशमनिधिश्री
इसके लिए
सा. धनंजयाश्री
H
सा. मनोजयाश्री
-
इस पुस्तक में ऐसा अखूट ज्ञान का खजाना है कि जिसका वर्णन नहीं हो सकता ।
-
-
सा. अनंतकिरणाश्री
8
पुस्तक से भक्ति में रस जगा है । मंदिर में से निकलने की इच्छा नहीं होती ।
ऐसी धारणा
सा. भुवनश्री
पुन: पुन: इस पुस्तक का स्वाध्याय करने जैसा है
सा. जितपद्माश्री
ऐसा
सा. अक्षयचन्द्राश्री
१७ कहे कलापूर्णसूरि
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पूज्यश्री की वाचना का उत्कृष्ट वचन आज भी कान में गूंज रहा है :
'प्रभु ने जिन्हें प्रिय माने उन्हें प्रिय मानकर जीना, यही मुनि का लक्ष्य होना चाहिए ।'
- सा. हंसदर्शिताश्री
पुस्तक के प्रत्येक पृष्ठ पर रही हुई प्रभु-प्रेम की प्यालियां पी कर हम भी कृतार्थ हुए ।
- सा. जयप्रज्ञाश्री
पूज्यश्री की वाणीरूप पानी को पुस्तक के बांध में संगृहीत करने का भगीरथ काम करनेवाले पू बंधुयुगल अभिनंदन के पात्र है।
- सा. जयधर्माश्री
इस पुस्तक से मुझे हर भव का पाथेय मिला है। मेरे फलोदी गांव के रत्न महान योगी बन सके तो मैं भी इस मार्ग पर क्यों न चल सकू ? - ऐसा बार-बार विचार आ रहा है ।
___- सा. जिनकृपाश्री
यह पुस्तक पढने पर सारा दिन मन के अध्यवसाय शुभ रहते हैं।
- सा. जिज्ञेशाश्री
साक्षात् तीर्थंकर प्रभु की वाणी की झांखी हुई ।
- सा. शीलगुणाश्री
पूज्यश्री का पुस्तक अमूल्य है। दोनों पुस्तक आधे पढ़ लिये हैं । पढते आनंद आता है और लगता है कि हममें कुछ भी नहीं है । तथा प्रभु के प्रति भक्ति-भाव बढ रहा है ।
- सा. अभ्युदयाश्री-तत्त्वज्ञताश्री
अमदावाद
(कहे कलापूर्णसूरि - ३0mmmwwwwwwwwwwwwww ३६९)
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पुस्तक पढने पर लगाः प्रभु सतत प्रेम की वृष्टि कर रहे है, पर हम ही नहीं झेल रहे हैं ।
- सा. अक्षयप्रज्ञाश्री
समुद्र से तरंग की तरह मैं भी प्रभु से भिन्न नहीं हूं - यह पुस्तक द्वारा जानने पर मैं आनंद से भर गई हूं।
- सा. इन्द्रवदनाश्री
पुस्तक में हर जगह पूज्यश्री की करुणा से दर्शन होते है ।
- सा. शीतलदर्शनाश्री
सम्यग् दिशा और सम्यग् मार्ग की ओर ले जानेवाली पुस्तक अर्थात् : 'कहे कलापूर्णसूरि'
_ - सा. दीप्तिदर्शनाश्री
पूज्यश्री का पुस्तक पढने पर हर गच्छ के पू. साधु-साध्वीजीओं को पूज्यश्री पर अहोभाग जगता है ।
- सा. यशोधर्माश्री
इस पुस्तक ने प्रभु का स्वरूप समझाया ।
___- सा. अनंतज्योतिश्री
बार बार पढने पर भी मन तृप्त नहीं होता ।
- सा. जिनरक्षिताश्री
पुस्तक कभी बोलती नहीं है, पर यह पुस्तक बोलती हुइ महसुस हुई । मानो पूज्यश्री के प्रभाव से जड़ में भी वाणी प्रगट हुई ।
- सा. दृढप्रतिज्ञाश्री
इस पुस्तक में साधना के लिए क्या नहीं है ? यही प्रश्न है।
- सा. सम्यक्त्वरत्नाश्री
(३७०0000000000000Booooon कहे कलापूर्णसूरि - ३)
Page #403
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इस पुस्तक ने हमें समझाया कि भक्ति के अलावा मुक्ति का दूसरा कोई मार्ग नहीं है । ___Round is ring which has no end, but 'Bhakti' is thing which has direct connection with Paramatma.
- सा. जिनभक्तिश्री
ज्यों ज्यों पुस्तक पढती गई त्यों त्यों कभी न सुने हुए, न जाने हुए नये-नये पदार्थ जानने मिलते गये ।
- सा. स्मितवदनाश्री
बिन्दु का संचय अर्थात् महासागर ! किरणों का समूह अर्थात् दिवाकर ! गुलाबों का मिलन अर्थात् गुलझार ! 'कहे कलापूर्णसूरि' पुस्तक अर्थात् ज्ञान का रत्नाकर !
- सा. जिनरसाश्री
इन पुस्तकों को जितना अधिक पढते है, उतनी अधिक - अधिक पढने की इच्छा होती रहती है ।
- सा. विनयनिधिश्री
इस पुस्तक का मेरा प्रिय वाक्य : 'श्रुतज्ञान मात्र पढ-पढ कर नहीं, परंतु उस मुताबिक जीवन जी कर टिकाना है ।'
- सा. जीतप्रज्ञाश्री
सूर्य की किरण पकड़ी नहीं जा सकती, उस प्रकार इस पुस्तक का वर्णन नहीं हो सकता ।
- सा. चेल्लणाश्री
संयम-जीवन की प्रगति के लिए उत्सुकता बढी है ।
- सा. चारुस्तुतिश्री
(कहे कलापूर्णसूरि - ३00wooooooooooooo0000 ३७१)
Page #404
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पुस्तक पढने से दोष कम हो, गुण प्रगट हो, ऐसे मनोरथ हुए हैं।
- सा. दिव्यरत्नाश्री ।
देव-गुरु की आज्ञानुसार जीवन व्यतीत करुं - ऐसी स्फुरणा पुस्तक पढने से हुई ।
- सा. मैत्रीरत्नाश्री
"भक्ति ही मुक्ति की दूती है" यों इस पुस्तक से जानने पर भक्ति की ओर मन झुका । .
- सा. मैत्रीधर्माश्री
'पूज्यश्री साक्षात् बोल रहे हो' ऐसा इस पुस्तक को पढने से प्रतीत होता है ।
- स्व. सा. मैत्रीकल्पाश्री
पुस्तक पढने से प्रभु को देखते प्रसन्नता बढ़ रही है ।
- सा. विरागरसाश्री
वर्षीदान से वंचित रहे हुए उस ब्राह्मण को प्रभु श्री महावीर ने लास्ट में देवदूष्य देकर भी संतोष दिया, उस प्रकार वांकी की वाचनाओं से वंचित रहे हुए हमें भी इस पुस्तक ने संतोष दिया ।
- सा. चारुप्रसन्नाश्री
इस पुस्तक में पूज्यश्री ने साधु जीवन का सब ही परोस दिया है।
- सा. दिव्यप्रतिमाश्री
पुस्तक में दर्शित पूज्यश्री की बातें पाठक के हृदय को गद्गद् बना देती है।
___- सा. वात्सल्यनिधिश्री
(३७२ 66
ooooooooooooms कहे कलापूर्णसूरि - ३)
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आत्मानंद के बीज का आधान यह पुस्तक पढते-पढते हुआ । इससे ज्यादा दूसरा क्या लाभ हो सकता है ?
- सा. सम्यग्दर्शनाश्री
यह पुस्तक, पढनेवाले भावुक को भक्ति के दिव्यलोक में ले जाती है।
- सा. प्रियधर्माश्री
पुस्तक पढने के बाद प्रभु-दर्शन करते प्रसन्नता बहुत ही बढ़ रही है।
- सा. विरागयशाश्री
इस किताब को पढ़ते-पढते ही हृदय में प्रभु-भक्ति की धारा बहती है ।
- सा. संजयशीलाश्री, वापी
'कहे' और 'कां' आदि सभी पुस्तक पढे । बहुत ही सुंदर संयम-जीवन को पुष्टि देनेवाले है। महापुरुषों के जीवन का मानो प्रत्यक्ष दर्शन हो रहा हो - ऐसा एहसास हो रहा है।
- महासती सुशीलाबाइ, बोटाद संप्रदाय, धोळा
आपके दोनों पुस्तक देखे । बहुत ही आनंद हुआ । वीरवाणी . का कितना अच्छा विनियोग आप कर रहे हैं ? भूरि-भूरि अनुमोदना ।
- महासती पद्माबाइ, राजकोट
मैं इतनी दूर हूं, फिर भी पुस्तक पढ़ते समय ऐसा महसूस होता है : मैं पालीताना में ही बैठकर पूज्यश्री के वचनामृत सुन रही हूं।
- कु. तारकेश्वरी पी. भंसाली, हुबली (कर्णाटक)
कहे कलापूर्णसूरि - ३ooooooooooooooooooom ३७३)
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प्रत्यक्ष गुरु भगवंत की वाचना का लाभ तो हमें नहीं मिल सकता है, लेकिन उनके पुस्तकारूढ पवित्र शब्द सुनने का लाभ मिला, उससे भी हम धन्य बने । धन्य हैं आप जैसे संत-सतियां, जो पू. आचार्य भगवंत की मधुर वाचना लेकर जीवन धन्य बना रहे हैं । पुस्तक पढने पर ध्यान आता है कि वांकी तीर्थ में प्रश्नोत्तरी की कैसी धूम मची होगी ?
महासती कमलप्रभाश्री, ककरवा कच्छ
'कहे कलापूर्णसूरि' पुस्तक मिलते ही मुझे लगा: मेरी प्रार्थना सफल हुई ।
पूज्य श्री के प्रवचन मद्रास तथा बेंगलोर में सुनने मिले थे, लेकिन हम टेप नहीं कर सकते थे । क्योंकि आप लोग माइक का उपयोग नहीं करते । जीव बहुत ही व्यथित हो रहा था : अगर केसेट होती तो मन की शांति के लिए पूज्यश्री की वाणी कभी भी सुन सकता था । इस प्रार्थना का फल ७-८ वर्षों के बाद मिला । अब मेरे पास पूज्यश्री की वाणी की पुस्तक ही आ गई : जब चाहे तब पढी जा सके ।
धीरुभाई ठक्कर, आम्बरडी
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३७४
'कहे कलापूर्णसूरि' पुस्तक हमारा स्वाध्याय ग्रन्थ बन गया है । इस पुस्तक का हम प्रतिदिन साथ मिलकर स्वाध्याय करते हैं । बाबुभाइ कड़ीवाला, अमदावाद
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नित्य प्रति सामायिक में इस पुस्तक के एकेक पेज दोतीन बार पढने का निर्णय किया है । अद्भुत आनंद आता है । - टीकु आर. सावला, मनफरा- कच्छ ( मुम्बई )
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ܛ
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कच्छ (अभी चेन्नई)
पुस्तक हाथ में लेने के बाद छोड़ने की इच्छा ही नहीं होती । धनजी बी. सावला, मनफरा- कच्छ (मुम्बई)
१८७७ कहे कलापूर्णसूरि - ३
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जिसने यह पुस्तक हाथ में ली होगी, उसे यह पता नहीं चलेगा कि कितने बजे है ? पढे हुए सभी पुस्तकों में श्रेष्ठतम पुस्तक हम इसे गिनते हैं ।
इन पुस्तकों को पाठक की समक्ष लानेवाले पू. पंन्यासजी बंधुयुगल तथा उन्हें जन्म देनेवाली मातृश्री भमीबेन भी धन्यवादाह है।
- जतिन, निकुंज, वडोदरा
'कहा कलापूर्णसूरि ने' पुस्तक मिल गई । पुस्तक भेजी उसके लिए अत्यन्त आभार । हम आपके ऋणी हैं ।
दूसरी बात यह है कि हमारी दूसरी महासतियां यहां आई हैं, उन्हों ने यह पुस्तक देखी । उन्हें भी यदि यह पुस्तक प्राप्त हो तो उत्तम, यह भावना है। यदि आप भेज सकें तो 'कहे कलापूर्णसूरि' और 'कडं कलापूर्णसूरिए' ये दोनों पुस्तकें भेजने की कृपा करें ।
- अनसूयाबाई महासती
राजकोट
'कहे कलापूर्णसूरि', 'कडं कलापूर्णसूरिए' दोनों अमूल्य ग्रन्थरत्न मिले । सचमुच, ये ग्रंथरत्न मात्र संग्रह करने योग्य ही नहीं हैं, परन्तु उन ग्रन्थों के साथ सत्संग करने योग्य है । ऐसे ये अमूल्य ग्रन्थ हैं ।
आपश्री ने पूज्य आचार्य भगवंतश्रीजी की वाचना को जो शब्दस्थ की है वह सचमुच अनुमोदनीय है ।
__- हितवर्धनसागर, ७२ जिनालय, कच्छ
'कहे कलापूर्णसूरि' पुस्तक मिली । आपने अत्यन्त रुचि एवं लगन से संकलन किया है, जिसके लिए आप साधुवाद के पात्र हैं । अनेक जीवों के लिए यह ग्रन्थ महा उपकारक बनेगा यह निःशंक है । ऐसे अनेक ग्रन्थ आपके द्वारा शासन को प्राप्त होते रहें, ऐसी शुभेच्छा ।।
- अरविन्दसागर, अहमदाबाद
(कहे कलापूर्णसूरि - ३0000000000000000000 ३७५)
Page #408
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मुझे तो यही लगता है कि जिस प्रकार 'नवकार' चौदह पूर्व का सार है, उस प्रकार इस हलाहल कलियुग में समस्त शास्त्रों का सार यह पुस्तक है। नासमझ को भी इस पुस्तक से अत्यन्त ही समझ मिल सकती है। हमें तो मानो 'पंथ वच्चे प्रभुजी मल्या' उस प्रकार पंथ के मध्य ही कहे कलापूर्णसूरि' पुस्तक प्राप्त हो गई । अतः अब होगा वहां तक तो वर्ष में एक बार तो उसका स्वाध्याय करने का प्रयत्न करेंगे ही, ताकि हमारे जीवन में होने वाली क्षतिया दूर हों ।
- साध्वी सुज्येष्ठाश्री
'कडं कलापूर्णसूरिए' वाचनादाता : पू.आ.श्री विजयकलापूर्णसूरीश्वरजी महाराज, अवतरण / संपादन : उभय पू. गणिवर (पंन्यासप्रवर) श्री मुक्तिचन्द्रविजयजी म., श्री मुनिचन्द्रविजयजी म., प्रकाशक : शान्तिजिन आराधक मंडल, जैन मंदिर के पास, मनफरा (शान्तिनिकेतन), जी. कच्छ, गुजरात, पीन : ३७० १४०, डेमी साइझ, पेज ५५२, मूल्य : अप्रकाशित.
थोड़े समय पूर्व प्रकाशित और अद्भुत लोकप्रियता प्राप्त प्रकाशन 'कहे कलापूर्णसूरि' (जिसकी दूसरी आवृत्ति प्रकाशित करनी पड़े - इतनी मांग है) ऐसा ही यह दूसरा बड़ा ग्रन्थ है : 'कडं कलापूर्णसूरिए' इसमें अंजार, पो.सु. १४, ता. २०-१-२००० से श्रा.व. २, १८७-२०००, पालिताना तक के विहार दौरान दिये हुए वाचना - प्रवचनों में से संगृहीत पूज्यश्री की साधनापूत वाणी के अंश मुद्रित है । पूर्व प्रकाशन की तरह यह पुस्तक भी अवश्य लोकप्रिय / लोकोपकारी बनेगा - ऐसा निःशंक कहा जा सकता है। पूर्व पुस्तक की तरह इसमें भी प्रत्येक नये प्रकरणों के प्रारंभ में पूज्यश्री की लाक्षणिक तस्वीरें दी गई है । टाइटल चित्र अत्यंत आकर्षक बना है। उभय पू. गणिवर (पंन्यासजी) बंधुओं द्वारा बहुत ही प्रयत्न से किया गया यह संकलन सचमुच 'गागर में सागर' की उपमा देनी पड़े - ऐसा विशिष्ट है । ज्ञान-ध्यान-भक्ति मार्ग की गहरी बातें - अनुभूतियां इसमें शब्दस्थ बनी है। सचमुच पढने लायक और चिन्तन करने लायक यह पुस्तक होने से इसमें लाभ लेनेवालों को जितने धन्यवाद दें, उतने कम ही माना जायेगा ।
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અદેટીન્જાયોગી
ધ્યાન-વિચાર
પાર્વશ કથિત
સામાયિક
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कलापूर
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ગુજય આશાઈદેવશ્રીનું સાહિત્ય
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(સંવિવેચન)
ने मन भीतर भगवान्
परमतत्त्व की उपासना
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સુૌધિ
રાપૂર્ણસૂરિ-૩
પણ મુનિ
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आचार्य श्री विजयकलापूर्ण सूरीधरजीम.सा.
૬. જાપાર્ગરિજી મ.
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________________ ज्ञान भण्डार में जो पुस्तकें है वे निरर्थक नहीं है / उनके योग्य कोई न कोई जीव इस विश्व में हैं ही / योग्य समय पर वे आ ही पहुंचेंगे। पुस्तकें स्वयं के योग्य पाठकों की प्रतीक्षा करती हुई भीतर बैठी हुई हैं। ____- कहे कलापूर्णसूरि, पेज-५६ श्रा. वद 9 मंगलवार दि. 25-7-2000 Tejas Printers AHMEDABAD PH. (079) 26601045