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यह उनका महान् उपकार है । __ शासन में आगम स्थिर (स्थायी) रहें, सुरक्षित रहें इस हेतु से तीन बार बड़े परिवर्तन हुए हैं । ___ (१) वीर संवत् ९८० में देवर्द्धिगणि ने वलभीपुर में श्रमण सम्मेलन करके आगमों को ग्रन्थों में लिखवाये ।
(२) विक्रम की नौवी-दसवी शताब्दी में शीलांकाचार्य एवं कपडवंज में स्वर्गवासी हुए आचार्यश्री अभयदेवसूरि ने आगमों पर टीकाएं लिखीं । उन्हें शासनदेवी का संकेत प्राप्त हुआ था कि दुरूह आगमों पर टीका लिखें ।
शासनदेवी ने सूरिजी को निःशंक करने के लिए ओढ़नी देकर कहा, 'प्रथम प्रत को आप इस रत्नजड़ित ओढ़नी में लपेटना । उसकी धनराशि से प्रतें लिखवाना ।
उक्त ओढ़नी को बहुत अधिक धनराशि देकर तत्कालीन गुर्जर राजा ने खरीदी थी और उस धनराशि से वे प्रतें लिखवाई ।
(३) सौ वर्ष पूर्व हस्तलिपि जानने की परम्परा लुप्त प्रायः हो गई । पैसों के खातिर हस्त-प्रतें बिकने लगी ।
आपको एक प्रसंग बताता हूं । सूरत में एक व्यक्ति हस्तप्रत बेचने के लिए आया । उसने उसके तीस हजार रूपये मांगे ।
पूज्य सागरजी ने कहा : 'तैंतीस हजार रूपये दिला सकता हूं।' वह बोला : 'मैं देखता हूं।'
तत्पश्चात् दो घंटों के पश्चात् उसे बुलाकर कहा : 'ला पैंतीस हजार रूपयों में दे दे ।'
वह बोला : “एक अंग्रेज छत्तीस हजार रूपये देकर ले गया ।' इस प्रकार इतने ग्रन्थ बाहर गये कि मत पूछो बात ।
अतः पूज्य सागरजी महाराज ने आगम-सुरक्षा के निर्णय को वेगवंत बनाया । उस समय उसका अत्यन्त विरोध हुआ कि आगम छपाये नहीं जा सकते । आगम साधुओं के अतिरिक्त अन्य किसी से देखे भी नहीं जाते ।
जिसका विरोध होता है वही सर्व स्वीकृत होता है । जिसका विरोध न हो, उसे बल ही नहीं मिलता । विरोध से ही बल पूरा पड़ता है। (कहे कलापूर्णसूरि - ३00mmswammmmmmmmmmmm १०५)