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पदवी प्रसंग, सुरत, वि.सं. २०५५
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१३-८-२०००, रविवार सावन शुक्ला द्वितीय-१३
* काल की अपेक्षा से भाव तीर्थंकर सबसे कम समय तक उपकार करते हैं, परन्तु यह उतना उत्कृष्ट होता है कि उनके जाने के पश्चात् भी उस उपकार की धारा चलती रहती है ।
थोड़ा समय होने पर भी यह महत्त्वपूर्ण है । यदि यह नहीं हो तो नाम, स्थापना भी कहां कार्य करने वाले थे? नाम किसका ? स्थापना किसकी ? सबका मूल भाव तीर्थंकर है ।
* साधु ही नहीं, शासन में साध्वी, श्रावक, श्राविका भी उपकार करते रहते हैं ।
साध्वीजी के द्वारा प्रतिबोधित भी मोक्ष में जाते हैं । श्रावक-श्राविका से भी प्रतिबोध होता है ।
श्रावक सुबुद्धि मन्त्री से प्रतिबोधित वह राजा जैन धर्मी बना था । देखें ज्ञाता धर्मकथा सूत्र ।
* तापी अथवा नर्मदा नदियों के पुल पर मैं चलता था तब विचार आता था कि ओह ! इतना छोटा पुल नहीं होता तो? या नाव न होती तो ? छोटा पुल या छोटी नाव कितना बडा उपकार करते हैं ?
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