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नदी चाहे भयंकर हो, पुल पर चलने वाले को भय नहीं है। मजबूत नाव पर बैठने वाले को भय नहीं है। संसार चाहे भयंकर हो, परन्तु उसके शासन में बैठने वाले को भय नहीं है ।
भगवान स्वमी है, गुरु नाविक है, हम बैठने वाले हैं । भगवान कहीं भी गये ही नहीं हैं । केवल भौतिक देह ही अदृश्य हुई है । शक्ति के रूप में तो भगवान यहीं हैं ।
(गाय के आगमन से आवाज हुई) क्या गाय के जितना अनुशासन भी हममें है ?
रापर में स्थंडिल भूमि से मैं लौट रहा था । बाजार में भारी भीड़ थी ।
एक महिला छोटी बालिका को लेकर जा रही थी । पीछे से बड़ा बैल एवं गाय दौड़ते हुए आ रहे थे, परन्तु बालिका को देखते ही वे रुक गये ।
पाटन में गाय दौड रही थी । बीच में बालिका आ गई तो उस पर पैर न रखकर वह कूद गई ।
इस प्रकार क्या हम देख कर चलते हैं ? आप कहेंगे : भुज में आपको गाय ने धक्का क्यों लगाया ?
एक स्पष्टीकरण करने दें । गाय ने धक्का नहीं दिया । कहीं स्थान नहीं मिलने से वह मात्र वहां से निकली थी । उसने मेरा स्पर्श नहीं किया, परन्तु उसके निमित्त से धक्का लगने के कारण मैं गिर पड़ा । गाय का मुझे धक्का लगाने का कोई इरादा नहीं था ।
* पुल हो परन्तु उस पर नहीं चले तो नदी को पार नहीं कर सकेंगे । प्रभु का शासन विद्यमान होते हुए भी यदि उसका आलम्बन नहीं लें तो संसार पार नहीं कर सकते । भूतकाल में अनेक बार शासन मिला होगा, परन्तु हम उसकी शरण में गये नहीं होंगे, इसीलिए भटकते हैं न ?
* जैन दर्शन केवल मानसिक ध्यान को ही नहीं मानता, वाचिक-कायिक ध्यान भी मानता है और वह प्रवृत्ति एवं निवृत्ति रूप भी होता है । (२०६ 800mmooooooooooo कहे कलापूर्णसूरि - ३)