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इस मन को सीधा शून्य नहीं बनाना है । निर्विकल्प की इस समय की बातें खतरनाक हैं । सर्व प्रथम अशुभ विचारों को रोकें ।
मन तो अत्यन्त सुन्दर साधन है । उसे शून्य नहीं बना कर, उसका सुन्दर उपयोग करना है । शून्य मन से जिन पापों का क्षय होता है, उसकी अपेक्षा शुभ विचारों से पूर्ण बनें, ताकि अधिक पापों का क्षय होगा ।
प्रारम्भ में इसी प्रकार से साधना करनी है। हां, अगली भूमिका मिलने पर मन स्वयं ही हट जायेगा, हमें हटाना नहीं पड़ेगा । ऊपर जाने पर सीढ़ियां नीचे रह ही जाती हैं न ? सीढ़ियों को पूर्णतः छोड़ना नहीं है, उनकी निन्दा भी नहीं करनी है । ध्यान दशा में से पुनः नीचे तो आना ही पड़ेगा, तब मन की आवश्यकता होगी ही न ?
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मार्गानुसारी के गुणों के बिना श्रावक नहीं बना जा सकता । श्रावक के गुणों के बिना साधु नहीं बना जाता । साधु के गुणों के बिना क्षपकश्रेणी नहीं मंडती । यहां तो क्रमशः ही चढ़ा जाता है । बीच में से प्रवेश नहीं हो सकता ।
पूज्य हेमचन्द्रसागरसूरिजी : क्या बीच में घुसा नहीं जाता ? पूज्य श्री : बीच में घुस गये हैं, इसीलिए यह कष्ट उत्पन्न हो गया है ।
व्यवहार से यह सब मिल गया है । निश्चय से कहां हैं ? यह हम जानते हैं या भगवान जानते हैं ।
* साधना में योग-बीज है
'जिनेषु कुशलं चित्तं '
प्रभु के प्रति जिसे प्रेम हो, उसे गुरु एवं शास्त्रों के प्रति प्रेम होता ही है । ऐसा व्यक्ति गुरु से वाचना श्रवण करता है, आगम लिखता है लिखवाता है और उनका प्रचार करता है । ये समस्त लक्षण उसमें दृष्टिगोचर होने लगते हैं ।
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सर्व प्रथम योग - बीज चाहिये । प्रभु के प्रति प्रेम ।
एक मात्र प्रभु - प्रेम का बीज पड़ गया तो धर्म का घटादार बरगद होने में विलम्ब नहीं लगेगा ।
( कहे कलापूर्णसूरि ३
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