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* प्रथम अपूर्वकरण सम्यक्त्व की प्राप्ति के समय होता है ।
सामर्थ्य योग का वर्णन करते समय सम्यक्त्व की बात इसलिए की जाती है कि जिससे सिंहावलोकन हो सकता है और हमारी साधना का उचित निरीक्षण हो सकता है ।
___ यह निरीक्षण भी अन्य का नहीं, परन्तु अपना ही करें, अन्यथा तो पुनः गड़बड़ी हो जायेगी ।
__ चाकू आपके हाथ में है, अब अन्य को देना है तो कैसे दोगे ?
चाकू का हाथा सामने वाले के हाथ में आये उस तरह ही दिया जाता है न ?
__ अपने पास रखने की बात अलग है। अन्य को देते समय दृष्टिकोण अलग है।
यहीं बात यहां लागू करनी है । यों तो मैत्री-प्रमोद आदि स्वयं पर क्या कम हैं ? सर्वाधिक प्रमोद अपने गुणों पर है ही । सर्वाधिक करुणा अपने दुःखों पर है ही ।। सर्वाधिक मध्यस्थता अपने दुर्गुणों पर है ही । परन्तु अब यह दृष्टिकोण बदलना है ।।
अन्य पर करना हो वह स्वयं पर कर रहे हैं और स्वयं पर करना हो वह अन्य पर कर रहे हैं । हम पांव में पहनने के जूते सिर पर और सिर की टोपी पांवों में डाल रहे हैं । यही अपनी करुणता है ।
* सामर्थ्य योग अवाच्य है, यह अनुभव-गम्य है । यदि वह शब्दगम्य हो तो अनुभवगम्य नहीं कहा जायेगा । अनुभव गम्यता ही उसे कहा जाता है जिसे वर्णन से प्राप्त नहीं किया जा सके ।
इसीलिए इसका वर्णन यहां नहीं किया । सम्भव हो उतना कह कर शेष के लिए 'अवाच्य' कह दिया ।
* ध्यान-विचार' में दो शब्द विशेष आते हैं : (१) करण, (२) भवन
करण में शिक्षण से प्राप्त होता है ।
भवन में सहजता से प्राप्त होता है । [२०८ 0oooooooooooooooo00 कहे कलापूर्णसूरि - ३)