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मरुदेवी माता कोई शिक्षा प्राप्त करने के लिए नहीं गये थे, फिर भी केवली बन गये, वह भवन योग था ।
परन्तु अधिकतर जीव गुरु के पास शिक्षा प्राप्त करके ही केवल ज्ञान प्राप्त करते हैं । मरुदेवी जैसे तो कोई विरल ही होते है।
* प्रथम अपूर्वकरण हुआ है या नहीं, यह हमें स्व में देखने की विशेष आवश्यकता है ।
इस बिन्दु पर मैं विशेष बल देता हूं क्योंकि मोक्ष में जाने की मुझे शीघ्रता है ।
परन्तु मैं आपको छोड़ कर कैसे जाऊं ? * यहां अच्छा है वह भगवान का है । उचित नहीं हो वह मेरा है ।
* पंच परमेष्ठियों में पूज्य का क्रम अरिहन्त से प्रारम्भ होता है, परन्तु साधना के क्रम में प्रथम साधु आते हैं, अर्थात् पहले साधु बनना पड़ता है ।
भगवान की वाणी 'परा' में से निकलती है, पश्यन्ती, मध्यमा में से गुजरती हुई 'वैखरी' बन कर निकलती है ।
परन्तु सीखते समय वैखरी वाणी प्रथम आती है । गुरु पाठ देते है वह वैखरी वाणी का प्रयोग करते है । आप स्कूल जायें और गुरु और आप दोनों मौन रहो तो क्या पढाई हो सकेगी ?
वैखरी वाणी का महान उपकार है। भगवान यदि बोलें नहीं तो क्या उपकार होता है ? भगवान बोलते हैं वह वैखरी वाणी है ।
गुरु यदि नहीं बोलें तो क्या होगा ? जो गुरु बोलें, वह यदि आपको पसन्द न आये यह ठीक है, परन्तु उसके बिना कहां ठिकाना पड़ने वाला है ?
यह गुरु का महत्त्व समझाने के लिए ही दो रविवार गुरुतत्त्व के लिए रखे थे ।
कदाचित् आप गुरु का विनय नहीं करें, परन्तु आशातना तो कदापि मत करना ।
आ... शातना... चारों ओर से गुणों का नाश करदे वह आशातना है । गुरु का विरोध करने की इच्छा हो जाये तब यह याद करना । . गुरु की आशातना भगवान की आशातना है । (कहे कलापूर्णसूरि - ३00mmonsoonsmoooo00 २०९)