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पूज्य पं. कल्पतरुविजयजी म. : गुरु-तत्त्व के प्रति बहुमान हो, परन्तु अपने व्यक्तिगत गुरु के प्रति बहुमान न हो, ऐसा नहीं चलेगा ?
पूज्यश्री : जिसे समस्त गुरुओं पर प्रेम हो गया उसे स्वगुरु के प्रति प्रेम न हो ऐसा होता ही नहीं है । एक तीर्थंकर की आशातना सबकी आशातना है । एक गुरु की आशातना समस्त गुरुओं की आशातना है ।
सन्निपात का रोगी चाहे जैसे बोले तो भी वैद्य उस पर क्रोधित नहीं होता । उस प्रकार ऐसे उद्धत पर गुरु क्रोधित नहीं होते ।
बड़ी दीक्षा से पूर्व पूज्य आचार्य भगवन् मिले । चार प्रकरण आदि हो चुके । मैंने पूछा - अब क्या करूं? पू. आचार्य भगवन्त : सिन्दूर प्रकर करो । तुरन्त मैंने 'तहति' कहा ।
भगवती में शतक पूर्ण होने पर अन्त में आता है - 'सेवं भंते, सेवं भंते ।' प्रभु आप कहते हैं वैसा ही है।
इसका नाम स्वीकार है ।
ऐसी श्रद्धा आने पर आस्तिकता आती है। आस्तिकता आने पर स्व की तरह अन्य का जीवत्व भी स्वीकार किया जाता है
और उसका दुःख स्वयं को लगता है। पांव में कांटा लगे तो सिर को क्या ? हमें क्या ? यह मान कर हम उसकी उपेक्षा करते नहीं हैं, उस प्रकार दूसरों की पीड़ा की उपेक्षा नहीं हो सकती, क्योंकि सबके साथ हम जुड़े हुए हैं ।
पर दया : अप्प दया पर पीड़ा : अप्प पीड़ा पर हिंसा : अप्प हिंसा जीव वहो : अप्प वहो ये आगम-सूत्र यही बात कहते हैं । आप दूसरों को कठोर बोलेंगे तो यह आपको ही फलेगा ।
एक सज्जन कल आये थे । कमर से नीचे का भाग शून्य था । भयंकर वेदना थी । बोले : 'मैंने किसी को पीड़ा नहीं दी । ऐसा क्यों ?'
[२१०noonomoooooooooooooo कहे कलापूर्णसूरि-३)