SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 379
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सर्वज्ञ हो वह सर्वग होता ही है । सर्वग अर्थात् विश्वव्यापी । त्वामव्ययं विभुमचिन्त्य० भक्तामर * अन्य दर्शन वालों द्वारा भगवान के लिए प्रयुक्त शब्द पूर्णरूपेण उचित हैं । श्री सिद्धसेन दिवाकर सूरिजी ने 'शक्रस्तव' में यह घटित किया है । भगवान पुरुषसिंह हैं । सिंह के समान गुण भगवान में हैं । कर्मशत्रु के प्रति शौर्य, कर्मोच्छेदन में क्रूरता, क्रोध आदि के प्रति असहिष्णुता, राग आदि के प्रति पराक्रम, तप के प्रति वीरता, परिषहों में अवज्ञा उपसर्गों में अभय, इन्द्रियों की चिन्ता नहीं, संयम के मार्ग में निराशा नहीं और ध्यान में अचंचलता । ऐसे भगवान का आप ध्यान करें । भगवान में आपको सिंह दृष्टि गोचर होगा । अपने पास शूरवीरता है, परन्तु है सांसारिक कार्यों में । हम धर्म-कार्यों में सर्वथा कायर है । काउस्सग्ग खड़े-खड़े करें कि बैठे बैठे करें ? क्षपकश्रेणि में उत्कृष्ट आत्म-शक्ति कहां से आई ? वह सिद्ध भगवान के पास से आई है। जहां उपर सिद्धशिला की छत्री नहीं होती, वहां ऐसी शक्ति नहीं आती । ऐसी शूरता के कारण ही भगवान में शूरवीरता आदि गुण असामान्य गिने जाते हैं, हमारे गुण सामान्य गिने जाते हैं । सिंह की उपमा गलत नहीं है। भगवान के कितनेक असाधारण गुण उपमा के द्वारा ही समझाये जा सकते हैं । कितनेक जीव तो ऐसे होते हैं जो उपमा के द्वारा ही समझ सकते हैं । जीवों के क्षयोपशम विचित्र होते हैं । * चार अध्ययनों तक दस वैकालिक पढ़े हुए दुप्पसहसूरि गीतार्थ गिने जायेंगे, उस दसवैकालिक का मूल्य कितना है ? छ: जीवनिकायों की करुणा कितनी महत्त्वपूर्ण है ? उसे समझें । मेरी भाषा चाहे समान हो, परन्तु क्या आप सब समान रूप से समझ सकते हैं ? सबका क्षयोपशम अलग-अलग है । अतः बोध भी अलग-अलग होगा । इसीलिए उपमा देनी पडती हैं, व्याख्यान में दृष्टान्त आदि देने पडते हैं । 'ज्ञाता धर्मकथा' के कहे कलापूर्णसूरि ३ www 6. ३४७
SR No.032619
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 03 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy