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द्वारा मालूम होता है कि भगवान स्वयं भी दृष्टान्त देते थे । कथा बड़ी होती है, उपमा छोटी होती है ।
* कल स्वास्थ्य सर्वथा अस्वस्थ था, फिर भी मैं ने वाचना दी ही थी । यदि वाचना बन्द रखता तो अस्वस्थता की खबर अधिक फैल जाती । भगवान पर भरोसा रख कर मैं ऐसा कार्य कर लेता हूं ।
* भगवान उपकारी हैं, हम उपकार्य हैं । उपकार्य से भगवान को कोई प्रत्युपकार की इच्छा नहीं है, यही भगवान की महानता
* भगवान भले बदल जाते है, परन्तु गुण नहीं बदलते । इसीलिए 'नमुत्थुणं' वही रहता है जो सबमें समान रूप से लागू होता है ।
यह 'शकस्तव' इन्द्र द्वारा रचित नहीं है, गणधरों के द्वारा रचित है । इन्द्र तो सिर्फ बोलते ही हैं । इन्द्र में रचना करने की क्या शक्ति है ? देखो यहां लिखा है -
महापुरुषप्रणीतश्चाधिकृतदण्डकः ।
आदिमुनिभिरहच्छिष्यैः गणधरैः प्रणीतत्वात् । इसी कारण यह 'शक्रस्तव' महा गम्भीर है, सकल नयों का स्थान है, भव्य जीवों को आनन्दकारी है, परम आर्ष रूप है ।
आर्ष अर्थात् ऋषियों का । आर्ष में व्याकरण के सूत्र भी लागू नहीं पडते, प्रत्युत व्याकरण आर्ष का अनुसरण करता है ।
इसीलिए प्राकृत व्याकरण में तीसरा ही सूत्र लिखा - 'आर्षम्'।
* 'भगवती सूत्र' में अभयदेवसूरिजी ने स्वयं उमास्वाति महाराज को उद्धृत किया है । आज भगवती में आठ आत्माओं के अधिकार में प्रशमरति के श्लोक उद्धृत किये हुए देखने को मिले । वे एक अक्षर भी आधार के बिना नहीं लिखते । . * आगमों की वाचना आप सुनते हैं, परन्तु क्या उन आगमों
को कण्ठस्थ करने का नियम बनायेंगे ? प्रत्येक चातुर्मास में आगम परोसे जायें तो कितना उत्तम हो ? बीस वर्ष पूर्व यहां 'सूयगडंग' शुरु किया था। यदि हम ही आगम नहीं चलायेंगे तो कौन चलायेगा ? (३४८ 8000000000000000000 कहे कलापूर्णसूरि - ३)