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जीवन में यदि आगमों को प्रधानता देनी हो तो उन्हें कण्ठस्थ करें ।
जन साधारण की भाषा में कठिन आगम भी प्रचारित किये जा सकते हैं । सर्व प्रथम अपनी रुचि होनी चाहिये । मात्र लोकरंजन, मनो-रंजन नहीं करना है, हमें आत्म-कल्याण करना है। हमारे व्याख्यान में यदि आगमों के पदार्थ आयें ही नहीं तो वहां क्या रहा ?
पूज्य प्रेमसूरिजी, पं. मुक्तिविजयजी, पं. भानविजयजी के व्याख्यान सुन कर कभी-कभी कहते, 'आपके इस व्याख्यान में आगमों का तो कोई तत्त्व आया ही नहीं ।।
आगमोद्धारक पूज्यश्री सागरजी महाराज सच्चे अर्थ में आगमोद्धारक थे । अब उनके उत्तराधिकारियों को यह उत्तरदायित्व संभालना है।
आगम-परिचय-वाचना का आयोजन करने की बात जानकर मुझे अत्यन्त ही आनन्द हुआ ।
आचारांग, उत्तराध्ययन आदि का योगोद्वहन करके आगमों को ताक पर नहीं रख देना है, उन्हें कण्ठस्थ करके जीवन में उतारना
दसवैकालिक, उत्तराध्ययन, आचारांग इत्यादि की जितनी टीकाएँ आदि उपलब्ध है, उन सबका कम से कम पठन तो करें । यदि पठन करोगे तो जीवन में कुछ आयेगा । तो ही आगमों की परम्परा चलेगी ।
* डॉक्टर की उपाधि प्राप्त करके क्या करना चाहिये ? दूसरों की सेवा करनी है । अजमेर के (मूल फलोदी निवासी) जयचंदजी डॉक्टर हैं । देश-विदेश में उनकी ख्याति है । वे कहते, 'मैं चाहे जैसे डोक्टर को सर्टिफिकेट नहीं दे सकता । मेरी भारी जवाबदारी है। वे यदि चाहे जैसे इंजेक्शन लगा दें और रोगी मर जाये तो जवाबदारी मेरी रहेगी ।
यहां भी आगमधारकों की जवाबदारी है । डोक्टरो से भी भारी जवाबदारी है।
(कहे कलापूर्णसूरि - ३ woomooooooooooooo000 ३४९)