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काल से अनादि अनन्त, नित्य, शाश्वत । कोई काल नहीं होता जब जीवास्तिकाय नहीं होता ।
समस्त द्रव्य सहायक बनते हैं। शायद एकमात्र हम सहायक नहीं बनते । यदि इस विश्व में अस्तित्व बनाये रखना हो तो दूसरे को सहायक बनना ही पड़ेगा। इसके बिना अस्तित्व कायम रहेगा ही नहीं । समझ कर सहायता करें तो लाभ हैं, अन्यथा विश्व व्यवस्था के अनुसार अनिच्छा से भी सहायता करनी ही पड़ेगी।
भावसे - अवर्ण, अगन्ध आदि । पुद्गलास्तिकाय के सिवाय सब अरूपी हैं ।
जीव असंख्य प्रदेशी है, परन्तु जीवास्तिकाय अनन्त प्रदेशी है, क्योंकि जीव अनन्त हैं । समस्त जीवों का संग्रह जीवास्तिकाय है । जीव अनन्त हों तो प्रदेश तो अनन्त होते ही हैं ।
इसका अर्थ यह हुआ कि प्रदेशों से हम एक हैं ।
'जीवास्तिकाय में से एक जीव को निकाल दे' तो क्या जीवास्तिकाय कहलायेगा ? गौतम स्वामी के इस प्रश्न के उत्तर में भगवान ने कहा - 'नहीं, नहीं कहलायेगा । एक प्रदेश शेष रखें तो भी जीवास्तिकाय नहीं कहलायेगा ।
भगवान भी इस जीवास्तिकाय में साथ हैं और कहते हैं कि हे जीव ! तू मेरे समान ही है ।
एक जीव ही नहीं, जीव के एक प्रदेश को सतायें तो यह अपनी ही परेशानी बनी रहेगी । अपने शरीर के एक अंगूठे को भी आप कष्ट देंगे तो वह कष्ट आपका ही है, दूसरे किसी का नहीं । इसीलिए आचारांग में कहा है -
'तुमंसि नाम सच्चेव जं हंतव्वंति मनसि ।' जिसे मारता है वह तू ही है, यह सत्य मानना ।
यह तो मात्र नमूना बताया है, यदि आपको विशेष जानना हो तो भगवती का पाठ चलता ही है । पाठ में आ जाना ।
इस भगवती में अजैन संन्यासी भी भगवान को प्रश्न पूछने के लिए आते हैं, फिर निःशंक होकर दीक्षित होते हैं । जयन्ती (३५४00mooooooooooooooooo कहे कलापूर्णसूरि - ३)