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पू. हेमचन्द्रसागरसूरिजी : उपादान कारण भी तैयार चाहिये न ?
पूज्यश्री : उपादान कारण को भी तैयार करने वाले प्रभु हैं । इन्द्रभूति उपादान के रूप में उपस्थित थे ही । भगवान नहीं मिले तब तक उनका उपादान तैयार क्यों नहीं हुआ ? मिट्टी पड़ी है परन्तु कुम्हार के बिना घड़ा क्यों नहीं बन जाता ?
हम मुँह से शरणागति बोलते हैं, परन्तु सब कुछ अपने पास रख कर । मन, वचन, काया ही नहीं, आत्मा को भी प्रभु को समर्पित करनी है । आप सब कुछ प्रभु को सौंप कर देखो । क्या मिलता है वह देखो ।
इन्द्रभूति ने वैसा कर के देखा और उन्हों ने प्राप्त कर लिया ।
* आगमिक दृष्टि से ध्यान के भेद बताने वाला 'ध्यानविचार' उत्तम ग्रन्थ है, जिसमें ध्यान के सब भेद आ गये ।
दिन में सात बार चैत्यवन्दन और चार बार स्वाध्याय प्रकृष्ट ध्यानयोग है। चैत्यवन्दन से भक्ति और स्वाध्याय से स्थिरता मिलती है । दोनों मिल कर प्रभु के साथ हमें जोड़ देती है । इतना होते हुए भी उसमें उल्लास उत्पन्न नहीं होने का कारण मिथ्यात्व मोहनीय है । मोहराजा क्यों चाहें कि कोई जीव आत्म-कल्याण प्राप्त कर
ले
?
* भक्ति का अतिशय प्रकट करना चाहो तो एक बार 'ललित विस्तरा' अवश्य पढ़ें । मैं अपने अनुभव से कहता हूं । उसके द्वारा विश्वास होगा कि भगवान की शक्ति कार्य कर रही
उदार धनी व्यक्ति दान देता रहता है, उस प्रकार अरिहंत अपने गुणों का सतत दान करते ही रहते हैं । वे ही सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु तैयार करते रहते हैं।
भक्ति योग का विकास होने पर ही अन्य गुण आ सकेंगे । उसके बिना एक भी गुण नहीं आ सकेगा । अब सम्भव हो तो सामुदायिक व्याख्यान में आगामी रविवार को प्रभु-भक्ति, उसके बाद के रविवार को गुरु-भक्ति और फिर संघ-भक्ति पर व्याख्यान रखें । (इसके अनुसार ही सामुदायिक व्याख्यान रखे गये थे ।)
किसी भी अनुष्ठान की सफलता का आधार प्रभु-प्रेम है । (कहे कलापूर्णसूरि -
३ aasa oooooooooooom ६९)