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भगवान की प्रीति निष्काम होनी चाहिये । आनंदघनजी के शब्दों में कहें तो निरुपाधिक होनी चाहिये ।
भगवान का प्रेम ज्यों ज्यों बढ़ता जाता है, त्यों त्यों हम वैसे बनते जाते हैं । 'उत्तम संगे रे, उत्तमता वधे ।'
पू. आचार्यश्री नवरत्नसागरसूरिजी : ज्ञान की अपेक्षा भक्ति योग बढ़कर है ?
पूज्यश्री : भक्ति के बिना ज्ञान अहंकार करेगा । अच्छा व्याख्यान दिया, अच्छी स्तुति बोली अथवा कोई भी श्रेष्ठ कार्य किया वह अभिमान का कारण बन जायेगा । ज्ञान का इनकार नहीं है, परन्तु तुलना करने में भक्ति पहले हो । किसी का भी वर्णन चल रहा हो तब अन्य को गौण समझें, परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि इसकी सर्वथा उपेक्षा करें ।
पू. आचार्यश्री नवरत्नसागरसूरिजी : भगवान की सर्वज्ञता ने ही इन्द्रभूति को आकर्षित किया था ।
पूज्यश्री : इसका इनकार नहीं है, परन्तु भगवान में रहे हुए अन्य गुण, गुणों के प्रति जागृत प्रेम भी कारण है न ?
* भगवान चार रूपों में हैं : नाम-स्थापना आदि के रूप में, उपासना करके, भाव रूप में हृदय में भगवान को प्रकट करना
श्री ज्ञानविमलसूरिजी कहते हैं :
'नामे तू जगमा रह्यो, स्थापना पण तिमही; द्रव्ये भवमांहि वसे, पण न कले किमही ।' भावपणे सवि एक जिन, त्रिभुवन में त्रिकाले ।' हम मानते हैं कि भगवान मोक्ष में गये, परन्तु ये महापुरुष हमें सान्त्वना देते हुए कहते हैं कि भगवान नाम आदि के रूप में यहीं पर हैं । चिन्ता क्यों करते हैं ?
तपागच्छ के आद्य महात्मा आचार्यश्री जगच्चन्द्रसूरिजी के शिष्य शासन को समर्पित आचार्यश्री देवेन्द्रसूरिजी भी स्व-रचित चैत्यवन्दन भाष्य में कहते हैं कि - 'नाम जिणा जिणनामा'
पू. आचार्यश्री नवरत्नसागरसूरिजी : समवसरण में देशना देते हैं तब ही भाव भगवान कहलाते हैं ? (७०6oooooooooooooooooo कहे कलापूर्णसूरि - ३)