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सांख्य दर्शन का कथन है कि आप पुद्गल को ही कर्ता मान लो न ? आत्मा को कर्त्ता मानने की क्या आवश्यकता है ?
हम कहते हैं कि पुद्गलों में चिपकने की योग्यता है, उस प्रकार आत्मा में भी चिपकने की योग्यता है। दोनों में वैसा स्वभाव है । इसीलिए कर्म के साथ सम्बन्ध हो सकता है । * तित्थयराणं ।
भगवान तीर्थ-कारक हैं । * हम आत्मा के गुणों का कर्तृत्व कर नहीं सकते, अतः उनका आरोप पुद्गलों में करते हैं ।
अपने षट्कारक इस समय बाधक बनकर कार्य कर रहे हैं । उन्हें भगवान के आलम्बन से साधक बनाने हैं ।
हम कार्य कर रहे हैं, परन्तु वह कार्य अपना नहीं, पुद्गलों का (शत्रुओं का) कर रहे हैं । अपनी ही शक्ति से शत्रु मजबूत हो रहे हैं, यह कितना आश्चर्य है ?
आपका कारक-चक्र आपको ही बदलना है। यह दूसरा कोई नहीं करेगा ।
दूसरे आदमी ज्यादा से ज्यादा तो आपको परोस देंगे, परन्तु खाने का कार्य तो आपको ही करना पड़ेगा ।
भगवान एवं गुरु मार्ग बताते हैं, परन्तु चलने का कार्य तो आपको ही करना पड़ेगा ।
कर्म-बन्धन का कार्य तो आपने ही किया था न ? कि भगवान और गुरु ने किया था ? अब ये कर्म छोड़ने का कार्य भी आपको ही करना पड़ेगा न ?
यह कार्य दूसरे कर देते होते तो भगवान एक भी जीव को संसार में रहने नहीं देते; संसार खाली हो गया होता ।
पू. हेमचन्द्रसागरसूरिजी : भगवान तो मां है, उसे सब कर देना होगा न ?
पूज्यश्री : मां स्तन-पान कराती है, परन्तु चूसने की क्रिया तो बालक को ही करनी पड़ेगी न? मां का मां के रूप में स्वीकार तो बालक को ही करना पड़ता है न...?
इतना भी करने को तैयार नहीं हो उस बालक को क्या कहें ?
[कहे कलापूर्णसूरि - ३00ooooooooooomnamas २५१)